http://web.archive.org/web/20140419214201/http://hindini.com/fursatiya/archives/558
[चार दिन से नैनीताल में आ के पड़े हैं। पढ़ रहे हैं। कित्ता तो फ़न्नी बात है न कि नैनीताल आकर पढ़ाई कर रहे हैं। लोग-बाग इहां आता है घूमने-फ़िरने और हम पढ़ाई कर रहे हैं। है न अजब- गजब बात। लेकिन अब जब करना है तो कर ही रहे हैं। का करियेगा!
जब इहां आये तो पूछे -कमरा मां नेट-ऊट है?
बताया गया -था, सब था लेकिन निकाल दिया गया है। लड़का लोग गड़बड़-सड़बड़ साइट देखता था।
बहरहाल दो दिन बाद नेट-कनेक्शन का बहाली हुआ। सो कल चर्चा किये।
सुबह उठते ही खिड़की के बाहर देखे भगवान भुवन भास्कर अपना प्रकाश प्रसाद बांट रहे है। पूरी की पूरी पहाड़ी सबेरे सबेरे धूप में नहायी-धुली रानी बिटिया की तरह खिलखिला रही है।
क्लास रूम पास में ही है। नाश्ता किये और बच्चा लोग कक्षा के अन्दर।
साथ में तमाम दोस्त हैं। कानपुर के पड़ोसी यहां रूम-पार्टनर है। शाहजहांपुर के पड़ोसी बगल में। अपने मोबाइल का सदुपयोग करते हुये हम फोटोबाजी कर रहे हैं।
*ऊपर की फोटो उस कमरे की खिड़की से ली गयी है जहां हम ठहरे थे नैनीताल में। ]
जब हम नैनीताल में थे तब यह लिखना शुरु किये थे। फ़िर इसके बाद मुंबई हादसा हो गया। इसके बाद कुछ लिखने का मन न किया।
दोस्तों की पोस्ट देखते रहे। सहमत-असहमत होते हुये भी किसी पर कमेंट करने का मन न किया। बहाना भी था। समय नहीं है, नेट कनेक्शन नहीं है और तमाम लफ़ड़े। सच तो यही था कि कुछ लिखने का मन ही नहीं किया। न पोस्ट, न टिप्पणी!
चिट्ठाचर्चा का काम बदस्तूर करते रहे। लोगों के कमेंट जैसे भी आते हों लेकिन मुझे लगता है कि चर्चा का काम होते रहना चाहिये। एक दिन, शाम को, यह भी देखा कि जितनी भी लिंक लगी थीं सब गलत थी लेकिन किसी की टोंका-टांकी नहीं थी।
तमाम किताबें साथ ले गये थे। लगभग सब की सब अनपढ़ी वापस लौट आयीं।
बहरहाल, दस-बारह दिन घर से बाहर रहने के दौरान घूमे-फ़िरे। अपने विभाग के तमाम दोस्तों से मिले जिनके नाम सुने थे बस केवल इसके पहले। अपरिचित से लोगों से प्रगाढ़ परिचय करके लौटे! जिसको आप अपनी समझ में बहुत अच्छी तरह जानते हैं उससे फ़िर से इत्मिनान से बतियायें तो पता चलता है अरे! इन महाराज के इस पहलू के बारे में तो हम जानते ही नहीं थे।
क्या हर आदमी एक नौकुचिया ताल होता है! कभी पूरा का पूरा नहीं दिखता। ध्यान से देखो तो हर बार कुछ नया सा लगता है!
घर से बाहर निकलने पर घर की याद बहुत याद आती है। कई-कई बार घर फोन करते रहे। तमाम दोस्त जिनसे कभी सालों से नहीं बतियाये थे उनको भी फोन किया, हाल-चाल लिये-दिये।
घर-परिवार-दोस्तों का महत्व समझने के लिये घर से बाहर चले जाना चाहिये क्या?
कालेज का अजीज दोस्त अचानक याद आया। उसका जन्मदिन था एक दिन पहले। उसको चाकलेट बहुत पसंद थी कालेज के दिनों में। हम अक्सर उसको खरीद कर खिलाते थे। उस दिन याद आई तो उसको फोन पर ही चाकलेट के पैसे स्वीकृत कर दिये। जन्मदिन था न! जिस उमर में हम साथ थे, हमारे बच्चे अब उस उमर में हैं। लेकिन यादों में वह और हम अभी भी बीस साल पहले जी रहे हैं। मामला गड़बड़ है न!
तमाम नई चीजें सीखीं। आधी वहीं नैनीताल में छोड़ आये। कुछ रास्ते में बिसरा दीं। बाकी दो-चार दिन में भूल जायेंगे। स्मृति कम होते जाना भी एक वरदान है न!
आसमान टूटा!
उस पर टंके हुये
ख्वाबों के सलमे-सितारे
बिखरे!
देखते-देखते दूब के रंगो का रंग
पीला पड़ गया!
फ़ूलों का गुच्छा
सूखकर खरखराया!
और यह सब कुछ मैं ही था
यह मैं
बहुत देर बाद जान पाया।
डा.कन्हैयालाल नंदन
नैनीताल से लौटकर
By फ़ुरसतिया on December 5, 2008
[चार दिन से नैनीताल में आ के पड़े हैं। पढ़ रहे हैं। कित्ता तो फ़न्नी बात है न कि नैनीताल आकर पढ़ाई कर रहे हैं। लोग-बाग इहां आता है घूमने-फ़िरने और हम पढ़ाई कर रहे हैं। है न अजब- गजब बात। लेकिन अब जब करना है तो कर ही रहे हैं। का करियेगा!
जब इहां आये तो पूछे -कमरा मां नेट-ऊट है?
बताया गया -था, सब था लेकिन निकाल दिया गया है। लड़का लोग गड़बड़-सड़बड़ साइट देखता था।
बहरहाल दो दिन बाद नेट-कनेक्शन का बहाली हुआ। सो कल चर्चा किये।
सुबह उठते ही खिड़की के बाहर देखे भगवान भुवन भास्कर अपना प्रकाश प्रसाद बांट रहे है। पूरी की पूरी पहाड़ी सबेरे सबेरे धूप में नहायी-धुली रानी बिटिया की तरह खिलखिला रही है।
क्लास रूम पास में ही है। नाश्ता किये और बच्चा लोग कक्षा के अन्दर।
साथ में तमाम दोस्त हैं। कानपुर के पड़ोसी यहां रूम-पार्टनर है। शाहजहांपुर के पड़ोसी बगल में। अपने मोबाइल का सदुपयोग करते हुये हम फोटोबाजी कर रहे हैं।
*ऊपर की फोटो उस कमरे की खिड़की से ली गयी है जहां हम ठहरे थे नैनीताल में। ]
जब हम नैनीताल में थे तब यह लिखना शुरु किये थे। फ़िर इसके बाद मुंबई हादसा हो गया। इसके बाद कुछ लिखने का मन न किया।
दोस्तों की पोस्ट देखते रहे। सहमत-असहमत होते हुये भी किसी पर कमेंट करने का मन न किया। बहाना भी था। समय नहीं है, नेट कनेक्शन नहीं है और तमाम लफ़ड़े। सच तो यही था कि कुछ लिखने का मन ही नहीं किया। न पोस्ट, न टिप्पणी!
चिट्ठाचर्चा का काम बदस्तूर करते रहे। लोगों के कमेंट जैसे भी आते हों लेकिन मुझे लगता है कि चर्चा का काम होते रहना चाहिये। एक दिन, शाम को, यह भी देखा कि जितनी भी लिंक लगी थीं सब गलत थी लेकिन किसी की टोंका-टांकी नहीं थी।
तमाम किताबें साथ ले गये थे। लगभग सब की सब अनपढ़ी वापस लौट आयीं।
बहरहाल, दस-बारह दिन घर से बाहर रहने के दौरान घूमे-फ़िरे। अपने विभाग के तमाम दोस्तों से मिले जिनके नाम सुने थे बस केवल इसके पहले। अपरिचित से लोगों से प्रगाढ़ परिचय करके लौटे! जिसको आप अपनी समझ में बहुत अच्छी तरह जानते हैं उससे फ़िर से इत्मिनान से बतियायें तो पता चलता है अरे! इन महाराज के इस पहलू के बारे में तो हम जानते ही नहीं थे।
क्या हर आदमी एक नौकुचिया ताल होता है! कभी पूरा का पूरा नहीं दिखता। ध्यान से देखो तो हर बार कुछ नया सा लगता है!
घर से बाहर निकलने पर घर की याद बहुत याद आती है। कई-कई बार घर फोन करते रहे। तमाम दोस्त जिनसे कभी सालों से नहीं बतियाये थे उनको भी फोन किया, हाल-चाल लिये-दिये।
घर-परिवार-दोस्तों का महत्व समझने के लिये घर से बाहर चले जाना चाहिये क्या?
कालेज का अजीज दोस्त अचानक याद आया। उसका जन्मदिन था एक दिन पहले। उसको चाकलेट बहुत पसंद थी कालेज के दिनों में। हम अक्सर उसको खरीद कर खिलाते थे। उस दिन याद आई तो उसको फोन पर ही चाकलेट के पैसे स्वीकृत कर दिये। जन्मदिन था न! जिस उमर में हम साथ थे, हमारे बच्चे अब उस उमर में हैं। लेकिन यादों में वह और हम अभी भी बीस साल पहले जी रहे हैं। मामला गड़बड़ है न!
तमाम नई चीजें सीखीं। आधी वहीं नैनीताल में छोड़ आये। कुछ रास्ते में बिसरा दीं। बाकी दो-चार दिन में भूल जायेंगे। स्मृति कम होते जाना भी एक वरदान है न!
मेरी पसंद
यह सब कुछ मेरी आंखों के सामने हुआ!आसमान टूटा!
उस पर टंके हुये
ख्वाबों के सलमे-सितारे
बिखरे!
देखते-देखते दूब के रंगो का रंग
पीला पड़ गया!
फ़ूलों का गुच्छा
सूखकर खरखराया!
और यह सब कुछ मैं ही था
यह मैं
बहुत देर बाद जान पाया।
डा.कन्हैयालाल नंदन
log padhtey haen yaa daekhtey haen iska faislaa bhi aap hi karey
और यह सब कुछ मैं ही था
यह मैं
बहुत देर बाद जान पाया।
“बेहद भावुक शब्द”
सूखकर खरखराया!
और यह सब कुछ मैं ही था
यह मैं
बहुत देर बाद जान पाया।
डा. नंदन जी की रचना पढ़कर शुकून मिला ! उनके नाम का पर्याय ही बचपन है ! उनके नाम से ही बचपन की यादे जुडी हैं ! आशा है उनकी कुछ रचनाओं को आप भविष्य में भी पढ़वाते रहेंगे !मेरे एकमात्र प्रिय लेखक ! क्योंकि पढने की उम्र में ही नंदन पढ़ना शुरू किया था , कोर्स की किताबो के इतर !
आपकी नैनीताल यात्रा के तो क्या कहने ? बिल्कुल फुरसतिया स्टाईल में आनंद दे रही है ! बकिया भी तो लिखिए ना ! कोई इत्ते से में दस दिन थोड़े निकल गए होंगे ?
रामराम !
————
सौ बातों की एक बात! आप वह लिख देते हैं, जो हम लिखना चाहते हैं!
चर्चा पर लोगो द्वारा लिंक नही देखा जाना भी मुंबई हमले को लेकर उनकी क्षुब्धता रही होगी.. मेरा तो कम से कम यही हाल है.. खैर आप लौट आए जानकार खुशी है.. अब जल्दी से ईश्वर द्वारा प्रदत ज़िम्मेदारी का निर्वाह करे.. अर्तार्थ मौज लेने का कार्य संपन्न करे
अब और क्या चाहिये, यह क्या कम उपलब्धि है ?
लगे-हाथ एक ब्लागर-भोज का आयोजन कर ही डालिये !
ई लाइन अगर लेख का पहिला लाइन होता तो हम कहते कि “एही शाश्वत लेखन है.” लेकिन आपका ई लेख शाश्वत होने से करीब दस-एगारह लाइन से रह गया. बाकी का बात अरबिंद जी लिखिए दिए हैं. संभालिये गद्दी अब!….:-)
स्मृति कम होते जाना भी एक वरदान है न!
“फोटोबाजी”!!!!!
नैनीताल सफ़र नामा!!!!!
इससे पहले कि आप भूल जाएं नैनीताल में सीखी गयीं वो नयी चीजें हमें भी बता दें। वैसे विवरण से लग रहा है कि नैनीताल में फुरसतिया भैया को सचमुच में फुरसत मिली हुई थी। आपने अच्छा किया जो फुरसत के उन लम्हों को किताबों के साथ मगजमारी में जाया नहीं किया।
धन्यवाद
चर्चा थोडी छोटी रही, मौज तो खूब रही होगी । बोन-फ़ायर वगैरह लगाकर कवितापाठ किया कि नहीं
लडका लोगों का नाम फ़ालतू में खराब होता है, हम तो कोई ऐसा-वैसा साईट नहीं देखते हैं
नंदनजी की कविता सुंदर है।
जब इसी तरह लगातर जीनें लगें तो सचमुच अपनी आयु को जीत कर पुनर्नवा हो जाएँ।
सुन्दर चित्र व मीठी स्मृतियाँ !
आपकी ये स्मृतियाँ सदा ताज़ा बनी रहें।
जीका हम ताल समझत रहे ऊ त सागर निकला.
घर से बाहर जाने वाली बात पर विनोद कुमार शुक्ल की नौकर की कमीज की याद आ गयी जिसमें वो लिखते हैं कि –
“यदि मैं किसी काम से बाहर जाऊँ, जैसे पान खाने, तो यह घर से खास बाहर निकलना नहीं था. क्योंकि मुझे वापस लौटकर आना था. और इस बात की पूरी कोशिश करके कि काम पूरा हो, यानी पान खाकर. घर बाहर जाने के लिए उतना नहीं होता जितना लौटने के लिए होता है”
- क्या हर आदमी एक नौकुचिया ताल होता है! कभी पूरा का पूरा नहीं दिखता। ध्यान से देखो तो हर बार कुछ नया सा लगता है!
बहुत ज्यादा डीप वाली फ़िलॉसोफ़ी ये पोस्ट बहुत पसंद आयी…
पंकज उपाध्याय की हालिया प्रविष्टी..जो भी हैं बस यही कुछ पल हैं…