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कानपुर से नैनीताल
By फ़ुरसतिया on December 9, 2008
पिछली महीने एक ट्रेनिंग के सिलसिले में नैनीताल जाना हुआ। दस दिन का हिसाब-किताब था। जाड़े के मौसम में हिल स्टेशन जाना ऐसा ही था जैसे चांद कहता है अपनी अम्मा से- आसमान का सफ़र और यह मौसम जाड़े का! लेकिन बहुत दिन से घर से निकले नहीं थे सो जाने का तय हो गया।
काफ़ी समय बाद इत्ते दिन के लिये घर से बाहर जाने का मौका था। रिजर्वेशन कराने के बाद हमने पाया कि हमारे अन्दर बेवजह जिम्मेदारी के एहसास आता गया। वैसे बच्चों की पढ़ाई कम ही देखते हैं लेकिन जैसे-जैसे जाने का समय आने लगा हम बच्चे की पढ़ाई में बिना वजह दिलचस्पी लेने लगे। कभी किताबें तो नहीं पलटीं उनकी लेकिन पूछते जरूर रहे- यार अगर परेशानी हो न जायें बताओ।
अब कौन शरीफ़ बच्चा परेशान होना चाहेगा सो बच्चे बोले -जाओ पापा! मस्त रहो।
जिस दिन जाना था उस दिन अचानक घर के तमाम अधूरे काम पूरे करने की इच्छा होने लगी। माताजी पिछले दो महीने से गीजर का प्लग बदलने के लिये कह रहीं थीं। उस दिन घर से निकलने के पन्द्रह मिनट पहले हमने प्लग बाजार से लाकर बदल डाला!
रात को जब लखनऊ स्टेशन पहुंचे तो देखा कि प्लेटफ़ार्म एक बड़ा सा बिस्तरा बना हुआ है। सौ सवा सौ वर्ग मीटर के उस सीमेंन्ट के बिस्तरे पर अनगिनत लोग लेटे हुये थे। सटे-सटे से , अटे-अटे से। निश्चित तौर वे लोग रेल यात्री नहीं थे। सिर्फ़ वहां सोने के लिये आये थे।
काठगोदाम एक्सप्रेस अक्सर लेट रहती है। उस दिन भी उसने हमें निराश नहीं किया और पूरे दो घंटे लेट आई। इस बीच हम तीन साथियों ने चाय और बातें लड़ाईं। पिछले दो-तीन सालों की यादे ताजा कर लीं। एक बार मुझे फ़िर लगा कि जितना आप किसी के बारे में सालों साथ रहते हुये नहीं जान पाते उतना उसके साथ एक यात्रा में रहते हुये जान जाते हैं। दुनिया में अगर बात-चीत के घनत्व का औसत निकाला जाये तो रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन शायद अव्वल आयें। जितनी बातें यहां होती हैं , शायद और कहीं नहीं होती होंगी।
ट्रेन में घुसते ही कलकत्ता से आ रहे दो वरिष्ठ साथी ऊपर की बर्थों से बरामद हुये। इनके नाम हमने सुन रखे थे। लेकिन मिले कभी नहीं थे। तीन से हम पांच लोग हो गये। सुबह जब ट्रेन एक स्टेशन पर पहुंची तब यात्रा का पहला फ़ोटो खींचा। नेपथ्य में मालगाड़ी देखकर हमें लगा कि ज्ञानजी ने अपना आदमी साथ में लगा दिया है।
काठगोदाम पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो गयी। टैक्सियां खरीद के चल दिये नैनीताल। कुछ देर में ही पहाड़ शुरू हो गये और टैक्सी विश्व की अर्थव्यवस्था सी इधर-उधर होने लगी। नीचे नदी दिख रही थी। बायीं तरफ़ पहाड़, दायीं तरफ़ घाटी के उस पार पहाड़। खिली हुई धूप। माने कि मामला वंडर-वंडर। रास्ते में ज्योलीकोट में चाय-पान हुआ।
चीड़ के पेड़ देखकर निर्मल वर्मा भी याद आये उनकी किताब चीड़ों पर चांदनी के नाम से। नैनीताल रहने के दस दिन के दौरान हमने चीड़ों पर चांदनी तो कब्भी न देखी। अलबत्ता चीड़ों पर रोशनी वहां पहुंचते ही देख डाली।
बड़े लेखक और एक आम ब्लागर में यही फ़र्क होता हैं। बड़ा लेखक चीजों को हमेशा अलग नजरिये से देखता है। जित्ते दिन वहां रहे कभी मन नहीं किया रजाई से बेवफ़ाई करके चांदनी दर्शन करें। यह एहसास भी अब कानपुर आकर हो रहा है जहां चांदनी तो है लेकिन चीड़ नहीं हैं।
नैनीताल में मालरोड से गुजरते हुये टैक्सी की खिड़की से माल रोड की फोटो लिये। ये जो तस्वीरें दिख रही हैं फोटो में वे नैनीताल वाले तालाब , उसके पास के क्रिकेट के मैदान, तालाब के किनारे की रेलिंग और पेड़ों की हैं।
हास्टल में सामान रखकर हम शाम को मालरोड टहलने आये। दूर-दूर से लोग नैनीताल घूमने आये थे। हम वहां टहलते रहे। एक किताब की दुकान में घुस कर किताबें देखीं और तालाब के किनारे बने हुये एक पुस्तकालय में टहलते रहे। किनारे क्या पुस्तकालय तालाब के ऊपर बना है। कुछ लोग किताब-उताब पढ़ने में व्यस्त थे। पुस्तकालय का फ़र्श एक तरफ़ झुका सा था, ढ़लवां! मन किया कि क्य पहले हिस्से में कविताओं की किताबें रखीं जाती थीं क्या? लेकिन अच्छा हुआ कि बात मन तक ही रही। लेकिन मालरोड जैसी जगह यह पुस्तकालय बचा हुआ है यह अपने में सुकून की बात है।
रात को तालाब का पानी डरावना सा दिखता है। पहाड़ों पर झिलमिलाती रोशनी। सोचा तालाब में चांद झिलमिलाता दिखेगा। लेकिन मुआ दिखा नहीं। ठंडे पानी के कारण सारी चुहल हवा हो गयी हो गयी होगी।
घर से पहले दिन ही दूर होकर घर के लोगों की याद आने लगी। कई बार बातें की। बच्चे से शिकायत की -तुमने फोन क्यों नहीं किया?
रात को जब वापस पहुंचे तो पता चला कि वहां नेट कनेक्शन दो दिन बाद ही बहाल होगा। हम अपने साथ लाई तमाम किताबों में से एक पढ़ते-पढ़ते कब सो गये,पता ही न चला।
जागे तो भगवान भुवन भास्कर अपना जलवा बजरिये खिड़की दिखा रहे थे।
काफ़ी समय बाद इत्ते दिन के लिये घर से बाहर जाने का मौका था। रिजर्वेशन कराने के बाद हमने पाया कि हमारे अन्दर बेवजह जिम्मेदारी के एहसास आता गया। वैसे बच्चों की पढ़ाई कम ही देखते हैं लेकिन जैसे-जैसे जाने का समय आने लगा हम बच्चे की पढ़ाई में बिना वजह दिलचस्पी लेने लगे। कभी किताबें तो नहीं पलटीं उनकी लेकिन पूछते जरूर रहे- यार अगर परेशानी हो न जायें बताओ।
अब कौन शरीफ़ बच्चा परेशान होना चाहेगा सो बच्चे बोले -जाओ पापा! मस्त रहो।
जिस दिन जाना था उस दिन अचानक घर के तमाम अधूरे काम पूरे करने की इच्छा होने लगी। माताजी पिछले दो महीने से गीजर का प्लग बदलने के लिये कह रहीं थीं। उस दिन घर से निकलने के पन्द्रह मिनट पहले हमने प्लग बाजार से लाकर बदल डाला!
रात को जब लखनऊ स्टेशन पहुंचे तो देखा कि प्लेटफ़ार्म एक बड़ा सा बिस्तरा बना हुआ है। सौ सवा सौ वर्ग मीटर के उस सीमेंन्ट के बिस्तरे पर अनगिनत लोग लेटे हुये थे। सटे-सटे से , अटे-अटे से। निश्चित तौर वे लोग रेल यात्री नहीं थे। सिर्फ़ वहां सोने के लिये आये थे।
काठगोदाम एक्सप्रेस अक्सर लेट रहती है। उस दिन भी उसने हमें निराश नहीं किया और पूरे दो घंटे लेट आई। इस बीच हम तीन साथियों ने चाय और बातें लड़ाईं। पिछले दो-तीन सालों की यादे ताजा कर लीं। एक बार मुझे फ़िर लगा कि जितना आप किसी के बारे में सालों साथ रहते हुये नहीं जान पाते उतना उसके साथ एक यात्रा में रहते हुये जान जाते हैं। दुनिया में अगर बात-चीत के घनत्व का औसत निकाला जाये तो रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन शायद अव्वल आयें। जितनी बातें यहां होती हैं , शायद और कहीं नहीं होती होंगी।
ट्रेन में घुसते ही कलकत्ता से आ रहे दो वरिष्ठ साथी ऊपर की बर्थों से बरामद हुये। इनके नाम हमने सुन रखे थे। लेकिन मिले कभी नहीं थे। तीन से हम पांच लोग हो गये। सुबह जब ट्रेन एक स्टेशन पर पहुंची तब यात्रा का पहला फ़ोटो खींचा। नेपथ्य में मालगाड़ी देखकर हमें लगा कि ज्ञानजी ने अपना आदमी साथ में लगा दिया है।
काठगोदाम पहुंचते-पहुंचते दोपहर हो गयी। टैक्सियां खरीद के चल दिये नैनीताल। कुछ देर में ही पहाड़ शुरू हो गये और टैक्सी विश्व की अर्थव्यवस्था सी इधर-उधर होने लगी। नीचे नदी दिख रही थी। बायीं तरफ़ पहाड़, दायीं तरफ़ घाटी के उस पार पहाड़। खिली हुई धूप। माने कि मामला वंडर-वंडर। रास्ते में ज्योलीकोट में चाय-पान हुआ।
चीड़ के पेड़ देखकर निर्मल वर्मा भी याद आये उनकी किताब चीड़ों पर चांदनी के नाम से। नैनीताल रहने के दस दिन के दौरान हमने चीड़ों पर चांदनी तो कब्भी न देखी। अलबत्ता चीड़ों पर रोशनी वहां पहुंचते ही देख डाली।
बड़े लेखक और एक आम ब्लागर में यही फ़र्क होता हैं। बड़ा लेखक चीजों को हमेशा अलग नजरिये से देखता है। जित्ते दिन वहां रहे कभी मन नहीं किया रजाई से बेवफ़ाई करके चांदनी दर्शन करें। यह एहसास भी अब कानपुर आकर हो रहा है जहां चांदनी तो है लेकिन चीड़ नहीं हैं।
नैनीताल में मालरोड से गुजरते हुये टैक्सी की खिड़की से माल रोड की फोटो लिये। ये जो तस्वीरें दिख रही हैं फोटो में वे नैनीताल वाले तालाब , उसके पास के क्रिकेट के मैदान, तालाब के किनारे की रेलिंग और पेड़ों की हैं।
हास्टल में सामान रखकर हम शाम को मालरोड टहलने आये। दूर-दूर से लोग नैनीताल घूमने आये थे। हम वहां टहलते रहे। एक किताब की दुकान में घुस कर किताबें देखीं और तालाब के किनारे बने हुये एक पुस्तकालय में टहलते रहे। किनारे क्या पुस्तकालय तालाब के ऊपर बना है। कुछ लोग किताब-उताब पढ़ने में व्यस्त थे। पुस्तकालय का फ़र्श एक तरफ़ झुका सा था, ढ़लवां! मन किया कि क्य पहले हिस्से में कविताओं की किताबें रखीं जाती थीं क्या? लेकिन अच्छा हुआ कि बात मन तक ही रही। लेकिन मालरोड जैसी जगह यह पुस्तकालय बचा हुआ है यह अपने में सुकून की बात है।
रात को तालाब का पानी डरावना सा दिखता है। पहाड़ों पर झिलमिलाती रोशनी। सोचा तालाब में चांद झिलमिलाता दिखेगा। लेकिन मुआ दिखा नहीं। ठंडे पानी के कारण सारी चुहल हवा हो गयी हो गयी होगी।
घर से पहले दिन ही दूर होकर घर के लोगों की याद आने लगी। कई बार बातें की। बच्चे से शिकायत की -तुमने फोन क्यों नहीं किया?
रात को जब वापस पहुंचे तो पता चला कि वहां नेट कनेक्शन दो दिन बाद ही बहाल होगा। हम अपने साथ लाई तमाम किताबों में से एक पढ़ते-पढ़ते कब सो गये,पता ही न चला।
जागे तो भगवान भुवन भास्कर अपना जलवा बजरिये खिड़की दिखा रहे थे।
ट्रेन में नये विचारों और नये लोगों से टकराना बहुत सारा कच्चा माल मुहैय्या करता है ।
पर, आज कविता ? कविता क्यों नदारद है ?
यात्रा वृतांत थोडा छोटा है ! अगला भाग ज़रा फुरसतिया जी स्टाइल में लिखियेगा ! सही में ऐसा लगता है की एक बार इस सर्दी में भी नैनीताल जाना चाहिए !
रामराम !
वहाँ किताबें काहे देख रहे थे अनूप जी? घूमने की जगह गए हैं तो किताबों का क्या काम और काम के सिलसिले में गए हैं तो भी किताबों का क्या काम?
एक बार में ही पाढ़ गई इस बार, मतलब कहने का ये कि इस बार आपने बहुउउउउउउउउउउउत लंबा नहीं लिखा, इसलिये पढ़ने में मज़ा आया, स्किप कर-कर के नहीं पढ़ा। आगे का इंतज़ार है अनूप।
और ये लाल स्वेटर पहन कर वोडाफोन के विज्ञापन के सामने खडे हैं आप…..तो क्या वोडाफोन वालों ने आपको Brand अंबेसडर तो नहीं बना दिया है
रोचक यात्रा विवरण।
अच्छा लगा पढ़कर और तस्वीरें देखकर. और लिखिये इस यात्रा के बारे में.
aapkaa lekh subah-subah man ko tarotajaa kar gayaa…man ki ye baat bhi achchi lagi
पुरे लेख का यही सार है… आनन्दम आनन्दम
regards
मिलती है……झील में पूरा चक्कर नही कटाता नाव वाला …..पता नही आपको गोभी के पराँठे पसंद है या नही….उसी रोड पे एक रेस्टोरेंट में खाए थे ….सुबह सुबह….आह ..मुंह में स्वाद आज भी है……वैसे ये सर्दियों में ब्रेक लेने के पीछे क्या कारण था ?
खूब मौज की गई लगता है।
पर यह पोस्ट बड़ी जल्दी समाप्त हो गयी। जरा फुर्सत से पुन: विषय उठाइयेगा।
अच्छा लगा पढ़कर और तस्वीरें देखकर!!!!!!!!!!!
“ट्रेन में घुसते ही कलकत्ता से आ रहे दो वरिष्ठ साथी ऊपर की बर्थों से बरामद हुये।”
हो हो हो
ही ही ही
हा हा हा
हे हे हे हे
हु हु हु
हू हू हू