http://web.archive.org/web/20140419214819/http://hindini.com/fursatiya/archives/567
शादी-व्याह के बारे में हमारा मानना है कि अपनी शादी के अलावा और किसी भी शादी में जाना बेफ़कूफ़ी ही है। हर शादी के बाद अक्सर इसकी पुष्टि ही हुई है। कुंवारे लोग इस नियम के दायरे में इसलिये नहीं आते क्योंकि आजकल भी काफ़ी शादियां शादियों के दौरान ही तय होती हैं। शादी की इच्छा रखने वाले कुंवारे-कुंवारियों को शादियों में जाना चाहिये ताकि वे भी हिल्ले लग सकें।
बहरहाल हम समीरलाल जी के रोज के मनौने से पसीज गये और ज्ञानजी की साजिश का शिकार होकर जबलपुर की तरफ़ गम्यमान हुये। ज्ञानजी की साजिश का शिकार इसलिये क्योंकि हमने उनको अपने प्रतीक्षा रत टिकट का विवरण बताया था और उन्होंने यात्रा के कुछ घंटे पहिले ही बताया कि हमारी सीट आरक्षित हो गयी है। वे बोले -चल जा बबुआ जबलपुर, भली करेंगे राम।
मामाकी बात सुनते ही हमारा दिमाग सनका। हमें लगा कि ये क्या डबलपना हैं जी। हम इहां शादी में आये कि रिमांड में। जो मामू साथ में लगा दिये। फ़िर भी हमें लगा कि समीरलाल ब्लागर होने के बावजूद शरीफ़ हैं, ऐसा करेंगे नहीं। सो हमने कन्फ़र्म करने के लिये पूछा- मामाजी वर्दी वाले हैं या बिना वर्दी वाले?
इसपर समीरलाल बिना मतलब हंसने लगे। हमें भी लगा कि हमने बेकार में उनको गलत समझ लिया। वे उत्ते बुरे हैं नहीं जितना हम उनको समझ बैठे हैं (कम हैं या ज्यादा यह भी तो अभी तय नहीं हुआ है जी )
बहरहाल दोनों मामाजी से मिलना हुआ तो पता चला कि वे भी हमारे वाले डिब्बे में ही बैठकर आये थे। रास्ते भर की पता ही न चला कि हमारी मंजिल एक ही है। रास्ते में सड़क की हालत देखकर लगा एक दम कानपुर जैसा अपना ही शहर लगा जबलपुर। कई जगह तो जैसा अटलजी कहते थे- पता ही नहीं चला कि सड़क में गड्डे हैं कि गड्डे में सड़क।
पता चला पंगेबाज और अरुण अरोरा की सबेरे की फ़्लाइट मिस हो गयी इसलिये आ नहीं पाये। अब दिल्ली में सबेरे-सबेरे इत्ती जल्दी माल खुलते नहीं है कि दूसरा हवाई जहाज लेकर चले आते। फ़िर हमने और समीरलाल ने बैठ के इस बात पर बड़ा गहन चिंतन कर डाला हमारे देश में हिंदी में बहानों का स्तर इत्ता लचर क्यों है? यह भी तय हुआ कि न आ पाने के पचास ठो अच्छे क्यूट से बहाने बना के बारातियों की सुविधा के लिये उपलब्ध कराने चाहिये थे ताकि आने वाला उनके सहारे अपना और आपका दुख कम कर सके। लेकिन चिंतन आगे फ़िर बढ़ न सका। हमारे और चिंतन के रास्ते में शानदार गर्मागर्म नास्ता आ गया था।
धुंआधार पहुंचते ही पता चला कि एक यादगार घटना घटित हो चुकी है। दीपक बजाज ने बताया कि उनका मोबाइल जो सुबह तक उनके साथ था अब वो बिछुड़ गया है। हम लोगों ने बिछुड़े मोबाइल से मिलने के बहुत प्रयास किये लेकिन वह माना नहीं।मिलके नहीं दिया। लगता है कि बेहतर और समझदार हाथों तक पहुंच गया था। बाद में नासिक से दीपक ने बताया कि उन्होंने आठ हजार में दूसरा मोबाइल लिया है। जो गया वह दस हजार का था। हमने सोचा इसे क्या माना जाये दो हजार की बचत या अठारह हजार की चपत। यह भी सोचा कि इसी बहाने उनको जबलपुर हमेशा के लिये उनको याद रहेगा।
एक रंगीली चट्टान के बारे में उसने बताया- शूटिंग के बाद रेखा यहां बैठी थी। उसकी साड़ी का रंग छूट गया था। साड़ी बम्बैया थी इसलिये रंग छूट गया। जबलपुर की होती तो साड़ी फ़ट जाती लेकिन रंग नहीं छूटता।
गहराई के बारे में बताता हुये बोला- यहां परेशान लोग परेशानी दूर करने आते हैं। बिना टिकट ऊपर जाते हैं। पकड़े जाने पर खाने-पीने-रहने का इंतजाम मुफ़्त में होता है।
नदी के पास ही करीब सौ मीटर ऊंची चट्टान से कुछ बच्चे दस-दस रुपये के लिये सीधे नर्मदा नदी में छलांग लगा रहे थे। पांच-पांच , दस-दस साल के बच्चे जांघिया पहने दस रुपये के लिये नदी में मेढक की तरह छलांग लगा रहे थे। मुझे लग रहा था कि इनके मां-बाप इस समय कहां होंगे। इत्ते गहरे पानी में बेखौफ़ कैसे बच्चे कूदने लगते हैं। हम अभी भी अपने बच्चे को अकेले कहीं जाने से रोकते-टोंकते हैं। एकदम सुरक्षित पास के बाजार तक भेजने में हिचकते हैं। दूसरी तरफ़ ये बच्चे दस-दस रुपये पाने के लिये या फ़िर कुछ मौज, रोमांच के चलते अपनी जान जोखिम में डालते हैं।
घाट पर ही कुछ बच्चे जिद कर रहे थे साहबजी एक रुपया नदी में डालिये न। एक रुपया डालिये न! रुपया नदी में फ़ेंकने पर वे बच्चे उसे खोज के लाते हैं। पानी में गिरने पर सिक्के की रफ़्तार कुछ कम हो जाती है। वे बच्चे उसे कुछ अपने अनुमान से और कुछ अभ्यास से नदी में गिरने के पहले पकड़ लेते हैं। उठा लेते हैं और कुछ लोग खुश होकर पैसे उनको दे देते हैं।
हमारे पास फ़ुटकर रुपये के सिक्के न थे। हमने एक बच्ची से फ़ुटकर पैसे लेकर नदी में एक सिक्का डाला। बच्ची को कुछ देर हो गयी हो कूदने में। तब तक सिक्का नीचे जा चुका होगा। वह उसे पकड़ न पायी। कई बार कोशिश करने के बाद भी कूड़ा-मिट्टी ही हाथ में आयी। एक बच्चा दुबारा सिक्का फ़ेंकने के लिये कहने लगा।
जिस सर्दी में हम फ़ुल स्वेटर पहने घूम रहे थे उस सर्दी में नंगे बदन उधारे केवल चढ्ढी पहने घूमते बच्चे देखकर लगा कि देश ससुरा किधर भी उन्नति-फ़ुन्नति नहीं कर रहा है। जीडीपी बढ़ रहा होगा, घपले-घोटाले के नये रिकार्ड बन रहे होंगे, बिकाऊ चीजों के दाम बढ़ रहे होंगे लेकिन देश का बहुत बड़ा तबका जैसा था शायद वैसे ही रह रहा है।
भेड़ाघाट से लौटकर फ़िर हम खा-पीकर सो गये।
अथ जबलपुर कथा
By फ़ुरसतिया on January 12, 2009
चल जा बबुआ जबलपुर, भली करेंगे राम
पिछले साल समीरलाल के बेटे की शादी निपट गयी। वे बेसुर से स-सुर हो गये। शुरुऐ से हमे बुलौवा भेज दिये थे। जब सूत-कपास का जुगाड़ नहीं था तभैहैं से आमंत्रण लट्ठ घुमा रहे थे। हम आखिरी दिन तक मनौना लेते रहे। हां नहीं किये। टिकट भी कराये तब भी नहीं। टिकट का भी मामला वही हुआ जो हमेशा होता है। लौटने का कन्फ़र्म हो गया। जाने वाला वेटिंग में रहा। एकदम्मै मर्दाना वेटिंग रही। शुरू में तीन थी आखिरी तक तीन ही बनी रही।शादी-व्याह के बारे में हमारा मानना है कि अपनी शादी के अलावा और किसी भी शादी में जाना बेफ़कूफ़ी ही है। हर शादी के बाद अक्सर इसकी पुष्टि ही हुई है। कुंवारे लोग इस नियम के दायरे में इसलिये नहीं आते क्योंकि आजकल भी काफ़ी शादियां शादियों के दौरान ही तय होती हैं। शादी की इच्छा रखने वाले कुंवारे-कुंवारियों को शादियों में जाना चाहिये ताकि वे भी हिल्ले लग सकें।
बहरहाल हम समीरलाल जी के रोज के मनौने से पसीज गये और ज्ञानजी की साजिश का शिकार होकर जबलपुर की तरफ़ गम्यमान हुये। ज्ञानजी की साजिश का शिकार इसलिये क्योंकि हमने उनको अपने प्रतीक्षा रत टिकट का विवरण बताया था और उन्होंने यात्रा के कुछ घंटे पहिले ही बताया कि हमारी सीट आरक्षित हो गयी है। वे बोले -चल जा बबुआ जबलपुर, भली करेंगे राम।
आपने तो हमारी नाक कटा दी
ट्रेन में बैठे तो पता चला साथ में हमारे मित्र मीणाजी बिटिया भी जबलपुर जा रही है। मीणाजी हमारे पड़ोसी रहे हैं शाहजहांपुर में । फ़िलहाल जबलपुर में हैं और अभी हाल में ही नैनीताल में ट्रेनिंग में साथ थे। हमने बिटिया को नैनीताल की तमाम फोटुयें दिखाईं। उसने हमारे मोबाइल से कुछ फोटॊ अपने मोबाइल में डालने के लिये कहा। हम बोले ई कैइसे होगा। उसने फ़िर मोबाइल में मौजूद ब्लूटूथ का उपयोग बताया। हम खुशी-खुशी अपने लड़के को फोन पर बताये कि बबुआ हम ब्लूटूथ का इस्तेमाल सीख लिये। हम सोचे वो खुश होगा, शाबासी देगा। लेकिन उसने छूटते ही कहा- आपने तो हमारी नाक कटा दी। कोई क्या कहेगा कि हमारे पापा को ब्लूटूथ का इस्तेमाल नहीं आता। इस बात पर हम अपना सा मुंह लेकर रह गये (और किसका लेते उस समय?)समीरलाल ने मामू लगाये
: स्टेशन पर पहुंचते ही समीरलाल को फोनियाये कि हम आ गये हैं। उधर से वो बोले -आपके लिये गाड़ी पहुंच रही है। आपके साथ हमारे दो मामा भी रहेंगे।मामाकी बात सुनते ही हमारा दिमाग सनका। हमें लगा कि ये क्या डबलपना हैं जी। हम इहां शादी में आये कि रिमांड में। जो मामू साथ में लगा दिये। फ़िर भी हमें लगा कि समीरलाल ब्लागर होने के बावजूद शरीफ़ हैं, ऐसा करेंगे नहीं। सो हमने कन्फ़र्म करने के लिये पूछा- मामाजी वर्दी वाले हैं या बिना वर्दी वाले?
इसपर समीरलाल बिना मतलब हंसने लगे। हमें भी लगा कि हमने बेकार में उनको गलत समझ लिया। वे उत्ते बुरे हैं नहीं जितना हम उनको समझ बैठे हैं (कम हैं या ज्यादा यह भी तो अभी तय नहीं हुआ है जी )
बहरहाल दोनों मामाजी से मिलना हुआ तो पता चला कि वे भी हमारे वाले डिब्बे में ही बैठकर आये थे। रास्ते भर की पता ही न चला कि हमारी मंजिल एक ही है। रास्ते में सड़क की हालत देखकर लगा एक दम कानपुर जैसा अपना ही शहर लगा जबलपुर। कई जगह तो जैसा अटलजी कहते थे- पता ही नहीं चला कि सड़क में गड्डे हैं कि गड्डे में सड़क।
न आने के पचास बहाने
घटना स्थल पर पहुंचे तो देखा गया कि समीरलाल बिना काम के बिजी से दिखने का प्रयास कर रहे थे। उनके पिताजी ने हमें फ़ुरसतिया ही कह याद किया। पता चला कि रचना बजाज सपरिवार पधार चुकी हैं और बाकी लोग आने वाले हैं। बाकी लोगों की लिस्ट बहुत लम्बी थी। फ़िर लिस्ट छंटनी शुरू हो गयी।पता चला पंगेबाज और अरुण अरोरा की सबेरे की फ़्लाइट मिस हो गयी इसलिये आ नहीं पाये। अब दिल्ली में सबेरे-सबेरे इत्ती जल्दी माल खुलते नहीं है कि दूसरा हवाई जहाज लेकर चले आते। फ़िर हमने और समीरलाल ने बैठ के इस बात पर बड़ा गहन चिंतन कर डाला हमारे देश में हिंदी में बहानों का स्तर इत्ता लचर क्यों है? यह भी तय हुआ कि न आ पाने के पचास ठो अच्छे क्यूट से बहाने बना के बारातियों की सुविधा के लिये उपलब्ध कराने चाहिये थे ताकि आने वाला उनके सहारे अपना और आपका दुख कम कर सके। लेकिन चिंतन आगे फ़िर बढ़ न सका। हमारे और चिंतन के रास्ते में शानदार गर्मागर्म नास्ता आ गया था।
अरे जबलपुर रहेगा याद
समीरलाल हमको दिन भर झेलने से बचना चाहते थे इसलिये हमारे घूमने का इंतजाम कर दिये। हम लोग दो गाड़ियों में बैठकर धुंआधार और भेड़ाघाट देखने के लिये गये। रचना बजाज और उनका परिवार (पति दीपक बजाज और बिटिया निशि) और मामा लोग तथा और लोग भी साथ में थे।धुंआधार पहुंचते ही पता चला कि एक यादगार घटना घटित हो चुकी है। दीपक बजाज ने बताया कि उनका मोबाइल जो सुबह तक उनके साथ था अब वो बिछुड़ गया है। हम लोगों ने बिछुड़े मोबाइल से मिलने के बहुत प्रयास किये लेकिन वह माना नहीं।मिलके नहीं दिया। लगता है कि बेहतर और समझदार हाथों तक पहुंच गया था। बाद में नासिक से दीपक ने बताया कि उन्होंने आठ हजार में दूसरा मोबाइल लिया है। जो गया वह दस हजार का था। हमने सोचा इसे क्या माना जाये दो हजार की बचत या अठारह हजार की चपत। यह भी सोचा कि इसी बहाने उनको जबलपुर हमेशा के लिये उनको याद रहेगा।
भेड़ाघाट में नौका विहार
धुंआधार में कुछ देर फोटोबाजी के बाद हम लोग फ़िर भेड़ाघाट आये। वहां की चट्टानों के बीच नर्मदा का सौंन्दर्य कुछ अलग सा ही है। नाव वाला अपनी कमेंट्री से और ही समा बांध रहा था। मजेदार तुकबंदियां ठेल रहा था। सुनकर लग रहा था कि ये तो कोई आशुकवि ब्लागर है।एक रंगीली चट्टान के बारे में उसने बताया- शूटिंग के बाद रेखा यहां बैठी थी। उसकी साड़ी का रंग छूट गया था। साड़ी बम्बैया थी इसलिये रंग छूट गया। जबलपुर की होती तो साड़ी फ़ट जाती लेकिन रंग नहीं छूटता।
गहराई के बारे में बताता हुये बोला- यहां परेशान लोग परेशानी दूर करने आते हैं। बिना टिकट ऊपर जाते हैं। पकड़े जाने पर खाने-पीने-रहने का इंतजाम मुफ़्त में होता है।
नदी के पास ही करीब सौ मीटर ऊंची चट्टान से कुछ बच्चे दस-दस रुपये के लिये सीधे नर्मदा नदी में छलांग लगा रहे थे। पांच-पांच , दस-दस साल के बच्चे जांघिया पहने दस रुपये के लिये नदी में मेढक की तरह छलांग लगा रहे थे। मुझे लग रहा था कि इनके मां-बाप इस समय कहां होंगे। इत्ते गहरे पानी में बेखौफ़ कैसे बच्चे कूदने लगते हैं। हम अभी भी अपने बच्चे को अकेले कहीं जाने से रोकते-टोंकते हैं। एकदम सुरक्षित पास के बाजार तक भेजने में हिचकते हैं। दूसरी तरफ़ ये बच्चे दस-दस रुपये पाने के लिये या फ़िर कुछ मौज, रोमांच के चलते अपनी जान जोखिम में डालते हैं।
घाट पर ही कुछ बच्चे जिद कर रहे थे साहबजी एक रुपया नदी में डालिये न। एक रुपया डालिये न! रुपया नदी में फ़ेंकने पर वे बच्चे उसे खोज के लाते हैं। पानी में गिरने पर सिक्के की रफ़्तार कुछ कम हो जाती है। वे बच्चे उसे कुछ अपने अनुमान से और कुछ अभ्यास से नदी में गिरने के पहले पकड़ लेते हैं। उठा लेते हैं और कुछ लोग खुश होकर पैसे उनको दे देते हैं।
हमारे पास फ़ुटकर रुपये के सिक्के न थे। हमने एक बच्ची से फ़ुटकर पैसे लेकर नदी में एक सिक्का डाला। बच्ची को कुछ देर हो गयी हो कूदने में। तब तक सिक्का नीचे जा चुका होगा। वह उसे पकड़ न पायी। कई बार कोशिश करने के बाद भी कूड़ा-मिट्टी ही हाथ में आयी। एक बच्चा दुबारा सिक्का फ़ेंकने के लिये कहने लगा।
जिस सर्दी में हम फ़ुल स्वेटर पहने घूम रहे थे उस सर्दी में नंगे बदन उधारे केवल चढ्ढी पहने घूमते बच्चे देखकर लगा कि देश ससुरा किधर भी उन्नति-फ़ुन्नति नहीं कर रहा है। जीडीपी बढ़ रहा होगा, घपले-घोटाले के नये रिकार्ड बन रहे होंगे, बिकाऊ चीजों के दाम बढ़ रहे होंगे लेकिन देश का बहुत बड़ा तबका जैसा था शायद वैसे ही रह रहा है।
भेड़ाघाट से लौटकर फ़िर हम खा-पीकर सो गये।
regards
ये क्या है जी फ़ुरसतिया जी? हम कहीं गलत दुनियां में तो नही आ गये हैं. ब्लागर होते ही क्या दस नम्बरी का ठप्पा लग जाता है?
रामराम.
अनूप शुक्ल जो भी लिखते हैं, शानदार लिखते हैं।
बहुत सारी यादें ताज़ा करवाने का आभार..
ज्ञानदत्त जी, मन को रोकें नहीं… वहाँ नर्मदालय में बुकिंग चल रही है !
इन्टरनेट और सभी सुविधाओं से लैस सीनियर सिटीज़न के लिये बेहतरीन इंतज़ाम !
पीछे पीछे मैं भी आता हूँ, हमारा शिखर सम्मेलन वहीं होगा !
बाकी स्लईडिया मस्त है !
बस, एक शब्द कहना शेष सूझता है – बहुत रोचक व अर्थगम्भीर।
शादी के बहाने धुआंधार भी देख लिया….हम तो पहले ही जानते थे कि समीर लाल धुंआंधार से ज्यादा दूर नहीं रह सकते है। इसीलिए जबलपुर से दूर जाकर भी उन्होंने ओंटेरियो में इसीलिए चुना क्योंकि न्याग्रा वहां से ज्यादा दूर नहीं है….
तस्वीरें भी खासी सुंदर हैं . विवाह समारोह के बाकी विवरण ?
- इस बात पर हम अपना सा मुंह लेकर रह गये (और किसका लेते उस समय?)
- शादी की इच्छा रखने वाले कुंवारे-कुंवारियों को शादियों में जाना चाहिये ताकि वे भी हिल्ले लग सकें।
- क्या माना जाये दो हजार की बचत या अठारह हजार की चपत। यह भी सोचा कि इसी बहाने उनको जबलपुर हमेशा के लिये उनको याद रहेगा।
इसके बाद तो यथार्थवाद चालु हो गया !
बहुत खूब विवरण. वैसे एक बात बताईये. आजकल भेंडाघाट में कितने फीट ऊपर से पानी गिरता है? सुना है पहले के जमाने में एक हज़ार फीट ऊपर से गिरता था. आजकल ज़माना ख़राब है तो पांच सौ फीट ऊपर से गिरता है. फोटो-सोटो भी खूब बढ़िया लगा.
सड़कों में सुधार की तो कोई संभावना निकट भविष्य में दिखती नहीं अतः कानपुर जबलपुर का भाईचारा बरकरार रहेगा.
बच्चों का कूद कर उतने तेज बहाव और गहराई में पैसे निकालना वाकई दुख देता है मगर यह परंपरागत रुप से तबसे देख रहा हूँ जब से होश संभाला और भेड़ाघाट को जाना. भेड़ाघाट तो शनैः शनैः विकसित होता गया मगर ये बच्चे आज भी वहीं हैं, बस चेहरे बदल जाते हैं.
आपकी नजरें हर ओर जाती हैं, साधुवाद और एक बार पुनः आयोजन में आकर शोभा बढ़ाने और अनुग्रहित करने का आभार.
अब आगे का शादिया विवरण भी सुना ही डालिये. बहुते डिमांड है भई.
नीरज
हम जब पिछली बार गए थे, तब समीर लाल जी कनाडे मे थे, जब वो जबलपुर पहुँचे, तब हम दिल्ली से कुवैत की फ्लाइट ले रहे थे। खैर! समीर लाल के पास हमारे नाम की एक ठंडी ठंडी बीयर (राम जाने, बची भी होगी की नही) पड़ी होगी। बड़े अरमानों से समीर लाल ने दो बीयर खरीदी थी, एक मेरी याद मे धुंआधार पर बैठ कर अकेले अकेले खतम की थी, दूसरी रख ली थी, बोले इसको सहेज लेते है, अगली बार जब जबलपुर आओगे तो इसी को निकालेंगे (गोया कि बीयर ना गयी, वाइन हो गयी)
उम्मीद है वो बीयर इस बार निकल गयी होगी। समीरलाल को समधी बनने पर ढेर सारी शुभकामनाएं।
ना आने के बहानों पर एक लेख तो बनता ही है, कब लिखोगे?
धन्यवाद
-लावण्या
बिलकुले चकाचक ठहाकेदार चित्रमय वर्णन !!