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ई कोई नया फ़ैशन है का जी?
By फ़ुरसतिया on January 23, 2009
आज सुबह पांच बजे से उठकर तमाम पोस्टें बांच डालीं। अब आठ बज गये। लेटे-लेटे बांचते रहे, टिपियाते रहे। टोटल टाइम वेस्ट।
बीच में बच्चे को स्कूल की बस में बैठा कर आये। बच्चा कोट को कमीज की तरह मोड़ कर कोहनी तक समेटे है। कल से ऐसा देख रहे हैं। पूछा- क्या गुरू कौनौ नया फ़ैशन है का ई?
बच्चा मुस्कराते हुये कहता है – नहीं बस ऐसे ही।
हम साथ में जाने वाली अपने पड़ोसी दोस्त की बच्ची से पूछते हैं -क्या कोई नया फ़ैशन चला है तुम्हारे स्कूल में?
वो बताती है- पता नहीं अंकल। हमें तो नहीं पता। वो बेचारी किताबों में डूबी है। कम्पटीशन के चक्कर में हलकान। क्या जाने फ़ैशन क्या चल रहा है?
बच्चा बताता है – ये जो अंकल जा रहे हैं सफ़ेद जैकेट में वो खूब जागिंग करते हैं, मेहनत करते हैं, साइकिल चलाते हैं।
हम पूछते हैं तुमको कैसे पता भाई? कैसे जानते हो उनको।
वो बताता है -बगल वाले घर में रहते हैं।
बताओ बगल में रहते हैं और हम उनको जानते नहीं। जानते जरूर होंगे लेकिन पहचान नहीं पाये। चश्मा घर में भूल के भेजने चले गये थे। लेकिन चश्मा अलग की बात! बगल में कौन रहता है चार मकान छोड़ के ये तो पता होना चाहिये जी।
लेकिन नहीं जानते।
बच्चा बस में बैठकर चला जाता है। आगे के स्टाप पर हमारे दो दोस्त अपने बच्चों को छोड़ने आये हैं। पचास कदम की दूरी पर दोनों स्टाप हैं। लेकिन दोनों लोग अपने-अपने स्टाप से ही अपने-अपने दोस्तों को छोड़कर चले आते हैं। दिखते ही हाथ हिला देते हैं बस।
लौटता हूं तो सूरज सामने दिखता है। एकदम भक लाल सा। सोचा इसे कैमरे में कैद कर लें। घर के अन्दर आते हैं तो सोचते हैं जरा सा और ऊपर आ जाये तब खींच लेंगे। कौन भागा जा रहा है।
थोड़ी देर में बाहर जाते हैं तो देखते हैं कि सूरज पीला सुनहरा हो गया है। लाल रंग छोड़ दिया है उसने। क्या सूरज भी गाना गाइस होगा- ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा?
लगता है वसन्त आने वाला है। शहर में पता नहीं चलता कि कैसे बसन्त आता है? सब कुछ तो वैसा ही बना रहता है। सबेरे घर से निकलते हैं तो शाम को वापस आते हैं। बीच में दफ़्तर में कमरे के अन्दर बैठे रहते हैं। कमरे के अन्दर से दुनिया से जुड़े रहते हैं। दुनिया को देखते बहुत कम हैं। आसमान, जमीन, धूप, हवा, पानी सबसे जुड़े हैं लेकिन सबसे अनजान से। क्या जिंदगी है।
दोपहर का समय बड़ा खुशनुमा सा लगता है। घर में आकर धूप में बैठकर खाना खाना और वहीं चारपाई पर सो जाना। क्या सुकून है जी। कित्ते लोगों को यह सुख नसीब होगा? मैं खुद सोचता हूं क्या मजे हैं इस समय के। ऐसा दुर्लभ सुख इसकी क्या कीमत लगाई जा सकती है?
अखबार देखा तो हिन्दुस्तान के रीमिक्स में स्टोरी है- बगैर किसी सहारे के जिम्मेदारियां निभाने की कुव्वत रखती हैं शहर की लड़कियां।
इसी अखबार में एक और खबर है- विश्वविद्यालय की फ़ार्मेसी की एक छात्रा ने डिप्रेशन के चलते खुदकसी कर ली।
एक और खबर में आया है- शहर के कर्नलगंज खटिकाना में छह माह से खुदे पड़े नाले के गढ्ढे में गिरने से पचपन साल के एक बुजुर्ग की मौत हो गयी।
उधर पेट्रोल दस रुपये सस्ता हो गया। उसके बगल में खबर है कि सन 1984 दंगों की जांच एक माह में पूरी हो जायेगी।
इधर पता चलता है कि सवा आठ हो गये। आफ़िस जाने का समय हो गया। हम एक बार फ़िर हड़बड़ा के पोस्ट करके फ़ूट रहे हैं। ये सब ऐसे ही है, आप इसे सीरियसली न लें। मस्त रहें, ऐश करें!
कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में।
गपशप किये बहुत दिन बीते,
दिन,साल गुजर गये रीते-रीते।
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
बस तनातनी है, बड़ा तनाव है,
जितना भर लो, उतना अभाव है।
हम कब मुस्काये , याद नहीं ,
कब लगा ठहाका ,याद नहीं ।
समय बचाकर , क्या कर लेंगे,
बात करें , कुछ मन खोलेंगे ।
तुम बोलोगे, कुछ हम बोलेंगे,
देखा – देखी, फिर सब बोलेंगे ।
जब सब बोलेंगे ,तो चहकेंगे भी,
जब सब चहकेंगे,तो महकेंगे भी।
बात अजब सी, कुछ लगती है,
लगता होगा , क्या खब्ती है ।
बातों से खुशी, कहां मिलती है,
दुनिया तो , पैसे से चलती है ।
चलती होगी,जैसे तुम कहते हो,
पर सोचो तो,तुम कैसे रहते हो।
मन जैसा हो, तुम वैसा करना,
पर कुछ पल मेरी बातें गुनना।
इधर से भागे, उधर से आये ,
बस दौड़ा-भागी में मन भरमाये।
इस दौड़-धूप में, थोड़ा सुस्ता लें,
मौका अच्छा है ,आओ गपिया लें।
आओ बैठें , कुछ देर साथ में,
कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।
अनूप शुक्ल
बीच में बच्चे को स्कूल की बस में बैठा कर आये। बच्चा कोट को कमीज की तरह मोड़ कर कोहनी तक समेटे है। कल से ऐसा देख रहे हैं। पूछा- क्या गुरू कौनौ नया फ़ैशन है का ई?
बच्चा मुस्कराते हुये कहता है – नहीं बस ऐसे ही।
हम साथ में जाने वाली अपने पड़ोसी दोस्त की बच्ची से पूछते हैं -क्या कोई नया फ़ैशन चला है तुम्हारे स्कूल में?
वो बताती है- पता नहीं अंकल। हमें तो नहीं पता। वो बेचारी किताबों में डूबी है। कम्पटीशन के चक्कर में हलकान। क्या जाने फ़ैशन क्या चल रहा है?
बच्चा बताता है – ये जो अंकल जा रहे हैं सफ़ेद जैकेट में वो खूब जागिंग करते हैं, मेहनत करते हैं, साइकिल चलाते हैं।
हम पूछते हैं तुमको कैसे पता भाई? कैसे जानते हो उनको।
वो बताता है -बगल वाले घर में रहते हैं।
बताओ बगल में रहते हैं और हम उनको जानते नहीं। जानते जरूर होंगे लेकिन पहचान नहीं पाये। चश्मा घर में भूल के भेजने चले गये थे। लेकिन चश्मा अलग की बात! बगल में कौन रहता है चार मकान छोड़ के ये तो पता होना चाहिये जी।
लेकिन नहीं जानते।
बच्चा बस में बैठकर चला जाता है। आगे के स्टाप पर हमारे दो दोस्त अपने बच्चों को छोड़ने आये हैं। पचास कदम की दूरी पर दोनों स्टाप हैं। लेकिन दोनों लोग अपने-अपने स्टाप से ही अपने-अपने दोस्तों को छोड़कर चले आते हैं। दिखते ही हाथ हिला देते हैं बस।
लौटता हूं तो सूरज सामने दिखता है। एकदम भक लाल सा। सोचा इसे कैमरे में कैद कर लें। घर के अन्दर आते हैं तो सोचते हैं जरा सा और ऊपर आ जाये तब खींच लेंगे। कौन भागा जा रहा है।
थोड़ी देर में बाहर जाते हैं तो देखते हैं कि सूरज पीला सुनहरा हो गया है। लाल रंग छोड़ दिया है उसने। क्या सूरज भी गाना गाइस होगा- ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा?
लगता है वसन्त आने वाला है। शहर में पता नहीं चलता कि कैसे बसन्त आता है? सब कुछ तो वैसा ही बना रहता है। सबेरे घर से निकलते हैं तो शाम को वापस आते हैं। बीच में दफ़्तर में कमरे के अन्दर बैठे रहते हैं। कमरे के अन्दर से दुनिया से जुड़े रहते हैं। दुनिया को देखते बहुत कम हैं। आसमान, जमीन, धूप, हवा, पानी सबसे जुड़े हैं लेकिन सबसे अनजान से। क्या जिंदगी है।
दोपहर का समय बड़ा खुशनुमा सा लगता है। घर में आकर धूप में बैठकर खाना खाना और वहीं चारपाई पर सो जाना। क्या सुकून है जी। कित्ते लोगों को यह सुख नसीब होगा? मैं खुद सोचता हूं क्या मजे हैं इस समय के। ऐसा दुर्लभ सुख इसकी क्या कीमत लगाई जा सकती है?
अखबार देखा तो हिन्दुस्तान के रीमिक्स में स्टोरी है- बगैर किसी सहारे के जिम्मेदारियां निभाने की कुव्वत रखती हैं शहर की लड़कियां।
इसी अखबार में एक और खबर है- विश्वविद्यालय की फ़ार्मेसी की एक छात्रा ने डिप्रेशन के चलते खुदकसी कर ली।
एक और खबर में आया है- शहर के कर्नलगंज खटिकाना में छह माह से खुदे पड़े नाले के गढ्ढे में गिरने से पचपन साल के एक बुजुर्ग की मौत हो गयी।
उधर पेट्रोल दस रुपये सस्ता हो गया। उसके बगल में खबर है कि सन 1984 दंगों की जांच एक माह में पूरी हो जायेगी।
इधर पता चलता है कि सवा आठ हो गये। आफ़िस जाने का समय हो गया। हम एक बार फ़िर हड़बड़ा के पोस्ट करके फ़ूट रहे हैं। ये सब ऐसे ही है, आप इसे सीरियसली न लें। मस्त रहें, ऐश करें!
आओ बैठें ,कुछ देर साथ में
आओ बैठें ,कुछ देर साथ में,कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में।
गपशप किये बहुत दिन बीते,
दिन,साल गुजर गये रीते-रीते।
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
बस तनातनी है, बड़ा तनाव है,
जितना भर लो, उतना अभाव है।
हम कब मुस्काये , याद नहीं ,
कब लगा ठहाका ,याद नहीं ।
समय बचाकर , क्या कर लेंगे,
बात करें , कुछ मन खोलेंगे ।
तुम बोलोगे, कुछ हम बोलेंगे,
देखा – देखी, फिर सब बोलेंगे ।
जब सब बोलेंगे ,तो चहकेंगे भी,
जब सब चहकेंगे,तो महकेंगे भी।
बात अजब सी, कुछ लगती है,
लगता होगा , क्या खब्ती है ।
बातों से खुशी, कहां मिलती है,
दुनिया तो , पैसे से चलती है ।
चलती होगी,जैसे तुम कहते हो,
पर सोचो तो,तुम कैसे रहते हो।
मन जैसा हो, तुम वैसा करना,
पर कुछ पल मेरी बातें गुनना।
इधर से भागे, उधर से आये ,
बस दौड़ा-भागी में मन भरमाये।
इस दौड़-धूप में, थोड़ा सुस्ता लें,
मौका अच्छा है ,आओ गपिया लें।
आओ बैठें , कुछ देर साथ में,
कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।
अनूप शुक्ल
सच मेँ बडा सही गीत बन पडा है
- लावण्या
कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में।
“हम्म बात में दम है अनूप जी……पर अपने ही पडोसी की काहे नही पहचाने आप….इ बात तो जमी नाही कुछ …..ओह्ह वो बेचारा ब्लोगर नाही ना होगा….??????????? हा हा हा हा ”
Regards
कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।
-आओ, सच में. बहुत दिन गुजरे.
आप तो अपनी काफी कह गये, हमारी अब सुनने की तैयारी करें. कविता भी अब ठेलने लगे हैं.
लाजवाब पोस्ट.
रामराम.
जिन्दगी हाड़ से लेकर आत्मा तक थकान का पर्याय हो गयी है।
छोरा बड़ा हैण्डसम है। फिलिम स्टार बन सकता है।
—आपका हार्दिक स्वागत है
गुलाबी कोंपलें
मगर आपने सिरियस कर दिया. उधर पेट्रोल दस रुपये सस्ता हो गया।…कब? पता ही नहीं चला. खामखा पैदल आ-जा रहा हूँ.
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
regards!!
छोटू नाम के लोग हीरो होते ही हैं (हम भी छोटू हैं) तो फैशन का इजाद कर ही लेंगे.
कल अनन्य को जब छोड़ने जायेंगे तो सूरज बाबू को खींच लीजियेगा. पड़ोसी को न जानने की बात पर एक किस्सा याद आ गया.
साल २००५ में मेरा एक मित्र, अमित सिंह मुम्बई गया था इंटरव्यू देने. अपने किसी रिश्तेदार के घर पर था. इंटरव्यू देकर जब वापस आया तो बोला कि शहर को श्राप देकर आ गया है. मैंने कारण पूछा तो बोला कि जिस रिश्तेदार के घर पर थे उसको ये नहीं मालूम कि अट्ठारह साल से उसके सामने के फ्लैट में कौन रहता है.
मुझे याद है अमित ने कहा था कि वह मुंबई में नौकरी नहीं करेगा. और देखिये कि तीन साल से वहीँ पर है. तीन नौकरियां बदल चुका है. अब कहता है कि मुंबई में ही रहेगा.
बाकी आप लिख दिए हैं कि सीरियसली मत लें तो चलिए आपके कहे सीरियसली नहीं लेते हैं!!
हिन्दुस्तान में निकला था “10 रुपये सस्ता होगा पेट्रोल! ”
अब इ तो ठीक बात नही है न जनता पेट्रोल भरवाने पहुँची होगी तो पहले पेट्रोल पम्प वाले को गरियाया होगा फ़िर आपको फ़िर सरकार को
धन्यवाद
कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में।
गपशप किये बहुत दिन बीते,
दिन,साल गुजर गये रीते-रीते।
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
बस तनातनी है, बड़ा तनाव है,
जितना भर लो, उतना अभाव है।
हम कब मुस्काये , याद नहीं ,
कब लगा ठहाका ,याद नहीं ।
समय बचाकर , क्या कर लेंगे,
बात करें , कुछ मन खोलेंगे ।
आओ बैठें
तुम बोलोगे, कुछ हम बोलेंगे,
Wow….बेटे की तस्वीर सुंदर है, स्मार्ट लग रहा है। वो कोट के साथ काहे नहीं फ़ोटो लगाये। ये कविता न ठेले होते तो लगता अखबार पढ़ रहे हैं …।:)