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साहित्य के लिये मेरी कसौटी- श्रीलाल शुक्ल
By फ़ुरसतिया on November 1, 2011
प्रसिद्ध लेखक श्रीलाल शुक्ल जी का पिछ्ले दिनों 86 वर्ष की अवस्था
में देहान्त हो गया। उनके साथ की तमाम यादों के साथ उनकी रचनायें देखते
हुये मन किया कि उनकी एक रचना पोस्ट की जाये। साहित्य के लिये अपनी कसौटी
बताते हुये श्रीलाल शुक्ल जी ने कैसे अच्छी किस्म से घटिया साहित्य से बचने
की सलाह दी है यह गौरतलब और शायद अनुकरणीय भी! यह लेख सन 1983 में
आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित हुआ था और श्रीलाल शुक्ल जी के 81 वें जन्मदिन
के पर दिल्ली में आयोजित अमृत महोत्सव के अवसर पर प्रकाशित हुई पुस्तक श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन में संकलित है।
इसी क्रम में शायद आप अभिव्यक्ति के नये अंक में सुशील सिद्धार्थ का श्रीलाल जी के बारे में लिखा आत्मीय संस्मरण व्यंग्य के विलक्षण शिल्पी श्रीलाल शुक्ल और श्रीलालजी की कहानी इस उम्र में भी पढ़ना चाहें।
उपमा, रूपकों और कहावतों के जाल से निकलकर मैं शुरू में ही बता दूं कि मैं साहित्य से हमेशा कोई बहुत बड़ी उम्मीद या असाधारण अपेक्षा नहीं करता, ठीक उसी तरह जैसे की जिंदगी की असाधारण संभावनाओं को समझते हुये भी मैं सीधी-सादी जिंदगी की कद्र करता हूं। साहित्य की कोई भी कृति मेरे लिये ऐसी चुनौती नहीं है जो या तो मुझे झकझोर दे या मैं खुद जिसे अपनी आलोचनात्मक बुद्धि से झकझोर दूं, ठीक वैसे ही जैसे हर एक मोड़ पर मिलने वाला इंसान मेरे लिये कोई ऐसा प्रतिद्वंदी नहीं है जिससे या तो मैं लाजिमी तौर पर परास्त हो जाउं या खुद उसे परास्त कर दूं। तब तक वह खुद अपने को दुश्मन न घोषित कर दे,हर इंसान किसी न किसी बिंदु पर मेरा साथी है; वैसे ही जब तक कोई साहित्यिक कृति खुद अपनी असाहित्यिक विकृति के सहारे मुझे विमुख न कर दे, वह कहीं न कहीं मेरी आत्मस्वीकृति का अंग है।
तरह-तरह के लोगों से मिलते हुये मैं बहुतों को बरदास्त भले ही कर लूं पर वास्तविक खुशी उन्हीं से मिलकर होती है मेरे अनुभव-संसार को विस्तार देते हों, मेरी संवेदना की जमी परतों को खोलकर उसकी गहराइयों में उतरने के लिये मुझे प्रेरित करते हों। यही बात मैं साहित्य पर भी लागू करता हूं। अगर कोई साहित्य मेरे अनुभवों में कोई नया आयाम नहीं जोड़ता, परिचित स्थितियों के बीच मेरी मानसिक उदासीनता को तोड़कर संवेदना की नई गहराइयों में जाकर मुझे नहीं छोड़ता तो मैं उसे बरदास्त भर कर सकता हूं उससे आगे मेरे लिये वह कुछ नहीं है।
तभी जिसे उत्कृष्ट साहित्य समझा गया है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा आज की रुचि के अनुसार उबाऊ, यानी ’डल’ और ’बोरिंग’ है। फ़ारसाइथ और मारियो प्यूजो के सनसनीखेज उपन्यासों को पढ़ने वाले टॉलस्टाय, दोस्तोयेव्स्की या टामस मान को बोरिग या उबाऊ समझ सकते हैं। जिसे पुराना क्लासिकी साहित्य कहते हैं, उसे शुद्ध आनंद के लिये पढ़ना अब अनेक शुद्ध साहित्यप्रेमियों के लिये भी भारी पड़ता है। एडवर्ड एल्बी और जॉन आस्बर्न की ’कॉंय कॉंय कॉंय’ शैली वाले नाटकों के आगे शेक्सपियर को साहित्यिक आनंद के निमित्त पढ़नेवालों की कमी हो सकती है। कालिदास के ’अभिज्ञान शाकुन्तलम’ को न पढ़कर बहुत से लोग ’आषाढ़ का एक दिन’ पढ़ना ज्यादा रुचिकर समझ सकते हैं, पर इससे समय-समय पर बदलने वाली लोकरुचि का भले ही आभास हो जाये, क्लासिकी साहित्य ने मानवीय अनुभवों और उसकी संवेदनाओं को जिस सीमा तक और जिस स्तर पर संपन्न किया है, उसे आसानी से नहीं भूला जा सकता।
घटिया साहित्य दो किस्म का होता है। एक तो घटिया किस्म का घटिया साहित्य। उसके बारे में सभी लोग जानते हैं। दूसरा होता बढिया किस्म का घटिया साहित्य। उसके बारे में पाठक को चौकन्ना रहना चाहिये। इस कोटि का साहित्य पता नहीं कब बढिया बनकर पाठक की रुचि को बिगाड़ दे और उसे स्वाभाविक रूप से उत्तम साहित्य में रुचि लेने से रोक दे।
बढिया किस्म का घटिया साहित्य वह है जो हमें अनुभव की गहराइयों में जाने से रोकता है, हमारे चिरपरिचित अनुभूति-जगत में ही ऊपर की सतह खुरचकर हरी-भरी फ़सलें उगाने की कोशिश करता है, हमारी उदात्त संवेदनाओं को पनपने का मौका नहीं देता, बहुचर्चित आदर्शों को स्वत: सिद्ध और स्थायी मानवीय मूल्य बनाकर प्रतिष्ठित करना चाहता है और यथार्थ के विभिन्न आयामों को न उघाड़कर यथार्थ की साहित्य में जो पिटी हुई रूढियां बन रही हैं, उन्हीं को हम पर आरोपित करता है। यह साहित्य हमारे सतही अनुभवों को बार-बार दुहराकर हमारी भावुकता का फ़ायदा उठाता है और हमारे भावनात्मक व्यक्तित्व को एक भी इंच ऊपर नहीं खिसकने देता। इस सारे घटियापन के बावजूद इसमें भाषा नाटकीय रूप से आकर्षक हो और तथाकथित मापदंडों से अत्यंत साहित्यिक हो, सृजनात्मक न होते हुये भी वह प्रांजल और छद्म रूप से काव्यमय हो, ऐसा साहित्य शिल्प की दृष्टि से भी संपन्न और
जो साहित्य का आनन्द लेना चाहते हैं उन्हें मेरी साहित्यिक कसौटी स्वीकार हो या नहीं, पर उनके लिये अच्छे और बुरे में किये बिना साहित्य पढ़ना उत्कृष्ट कोटि के साहित्यिक अनुभवों से अपने को वंचित कर देना है। व्यक्तिगत रूप से रोचक और बढ़िया कोटि के घटिया साहित्य का सामना होते ही मैं रामचरितमानस या वाल्मीकीय रामायण जैसे पुराने ऊबाऊ साहित्य की ओर पलायन करने को ज्यादा सुखद और सुरक्षित समझता हूं।
-श्रीलाल शुक्ल
आकाशवाणी लखनऊ से 1983 में प्रसारित
श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन में संकलित
इसी क्रम में शायद आप अभिव्यक्ति के नये अंक में सुशील सिद्धार्थ का श्रीलाल जी के बारे में लिखा आत्मीय संस्मरण व्यंग्य के विलक्षण शिल्पी श्रीलाल शुक्ल और श्रीलालजी की कहानी इस उम्र में भी पढ़ना चाहें।
साहित्य के लिये मेरी कसौटी- श्रीलाल शुक्ल
जब कोई साहित्य की परख के लिये कसौटी की बात उठाता है तो यह मानकर चलता है कि साहित्य को खरे सोने जैसा होना चाहिये। पर साहित्य में खरे सोने की तलाश करते हुये भी मैं हमेशा अपने को दो बातों की याद दिलाता रहता हूं: एक यह कि जिंदगी में खरा होना ही सब कुछ नहीं है, कभी लोहे की भी जरूरत होती है, और कभी-कभी मिट्टी की भी। और दूसरी मशहूर कहावत में पहले ही कही जा चुकी है कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती।उपमा, रूपकों और कहावतों के जाल से निकलकर मैं शुरू में ही बता दूं कि मैं साहित्य से हमेशा कोई बहुत बड़ी उम्मीद या असाधारण अपेक्षा नहीं करता, ठीक उसी तरह जैसे की जिंदगी की असाधारण संभावनाओं को समझते हुये भी मैं सीधी-सादी जिंदगी की कद्र करता हूं। साहित्य की कोई भी कृति मेरे लिये ऐसी चुनौती नहीं है जो या तो मुझे झकझोर दे या मैं खुद जिसे अपनी आलोचनात्मक बुद्धि से झकझोर दूं, ठीक वैसे ही जैसे हर एक मोड़ पर मिलने वाला इंसान मेरे लिये कोई ऐसा प्रतिद्वंदी नहीं है जिससे या तो मैं लाजिमी तौर पर परास्त हो जाउं या खुद उसे परास्त कर दूं। तब तक वह खुद अपने को दुश्मन न घोषित कर दे,हर इंसान किसी न किसी बिंदु पर मेरा साथी है; वैसे ही जब तक कोई साहित्यिक कृति खुद अपनी असाहित्यिक विकृति के सहारे मुझे विमुख न कर दे, वह कहीं न कहीं मेरी आत्मस्वीकृति का अंग है।
मैं
साहित्य से हमेशा कोई बहुत बड़ी उम्मीद या असाधारण अपेक्षा नहीं करता, ठीक
उसी तरह जैसे की जिंदगी की असाधारण संभावनाओं को समझते हुये भी मैं
सीधी-सादी जिंदगी की कद्र करता हूं।
अब तक मैं साहित्य और जिंदगी की समान स्थितियों का काफ़ी उल्लेख कर चुका
हूं और इसका एक कारण है। वह यह कि साहित्य मेरे लिये जिंदगी का एक अनिवार्य
अंग है, ठीक उसी तरह जैसे जिंदगी मेरे लिये साहित्य का एक अनिवार्य अंग
है, और यहीं अच्छे साहित्य की परख के विषय में मेरी एक मान्यता परिभाषित हो
जाती है।तरह-तरह के लोगों से मिलते हुये मैं बहुतों को बरदास्त भले ही कर लूं पर वास्तविक खुशी उन्हीं से मिलकर होती है मेरे अनुभव-संसार को विस्तार देते हों, मेरी संवेदना की जमी परतों को खोलकर उसकी गहराइयों में उतरने के लिये मुझे प्रेरित करते हों। यही बात मैं साहित्य पर भी लागू करता हूं। अगर कोई साहित्य मेरे अनुभवों में कोई नया आयाम नहीं जोड़ता, परिचित स्थितियों के बीच मेरी मानसिक उदासीनता को तोड़कर संवेदना की नई गहराइयों में जाकर मुझे नहीं छोड़ता तो मैं उसे बरदास्त भर कर सकता हूं उससे आगे मेरे लिये वह कुछ नहीं है।
साहित्य
मेरे लिये जिंदगी का एक अनिवार्य अंग है, ठीक उसी तरह जैसे जिंदगी मेरे
लिये साहित्य का एक अनिवार्य अंग है, और यहीं अच्छे साहित्य की परख के विषय
में मेरी एक मान्यता परिभाषित हो जाती है।
साहित्य को इस निगाह से देखने का एक अर्थ यह भी होता है कि मेरे लिये
साहित्य का रोचक और सरस होना जरूरी नहीं है। हो सकता है कि मेरी यह बात
बहुतों को अटपटी जान पड़े, क्योंकि मेरे बहुत से पाठक स्वयं मेरे साहित्य
को उसकी रोचकता के लिये ही पढ़ते हैं। रोचकता और सरसता, एक तो पढ़ने वाले की
रुचि और उसकी रस-संबंधी अवधारणा का ही विस्तार है, दूसरे उत्कृष्ट साहित्य
हमेशा रोचक हो, यह लाजिमी नहीं है। गौतम बुद्ध और महात्मा गांधी का संपर्क,
हो सकता है, किसी को किसी दिलकश अभिनेत्री या फ़िल्मी कमेडियन की सोहबत की
भांति रोचक न लगे, तब भी मानवजाति की प्रगति में ये दोनों जिंदगी के जिन
मूल्यों को इंगित करते हैं, उसे शायद समझाना जरूरी नहीं है। तभी जिसे उत्कृष्ट साहित्य समझा गया है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा आज की रुचि के अनुसार उबाऊ, यानी ’डल’ और ’बोरिंग’ है। फ़ारसाइथ और मारियो प्यूजो के सनसनीखेज उपन्यासों को पढ़ने वाले टॉलस्टाय, दोस्तोयेव्स्की या टामस मान को बोरिग या उबाऊ समझ सकते हैं। जिसे पुराना क्लासिकी साहित्य कहते हैं, उसे शुद्ध आनंद के लिये पढ़ना अब अनेक शुद्ध साहित्यप्रेमियों के लिये भी भारी पड़ता है। एडवर्ड एल्बी और जॉन आस्बर्न की ’कॉंय कॉंय कॉंय’ शैली वाले नाटकों के आगे शेक्सपियर को साहित्यिक आनंद के निमित्त पढ़नेवालों की कमी हो सकती है। कालिदास के ’अभिज्ञान शाकुन्तलम’ को न पढ़कर बहुत से लोग ’आषाढ़ का एक दिन’ पढ़ना ज्यादा रुचिकर समझ सकते हैं, पर इससे समय-समय पर बदलने वाली लोकरुचि का भले ही आभास हो जाये, क्लासिकी साहित्य ने मानवीय अनुभवों और उसकी संवेदनाओं को जिस सीमा तक और जिस स्तर पर संपन्न किया है, उसे आसानी से नहीं भूला जा सकता।
घटिया
साहित्य का उत्पादन प्रेस के ईजाद के बाद की घटना है। घटिया प्रतिभायें
हमेशा से घटिया साहित्य निकालती आई हैं, सिर्फ़ आज उनके विस्तार और प्रसार
की सुविधायें संभावनायें ज्यादा हो गयी हैं।
ऊबाऊ साहित्य, और उसी के साथ, जिंदगी में भी बोरडम के मामले में मैं
बर्टेंड रसल की शागिर्दी करना चाहूंगा। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ’द
कान्क्वेस्ट ऑफ़ है्प्पीनेस’ में उन्होंने समझाया है कि जिंदगी में बोरडम या
ऊब से घबराना या कतराना नहीं चाहिये, क्योंकि ऊब भी भरी-पूरी जिंदगी का
अनिवार्य अंग है और उसे सहज भाव से ग्रहण करना चाहिये। साहित्य का उदाहरण
देते हुये उन्होंने उत्कृ्ट कोटि के क्लासिकी ग्रंथों का हवाला दिया है जो
कई अंशों में प्रचलित लोक-रुचि में ऊबाऊ होते हुये भी असामान्य साहित्यिक
अनुभव सृजित करने की सामर्थ्य रखते हैं। इसलिये समझ की बात यही होगी कि हम
घटिया साहित्य से कभी-कभी मन बहलाव करते हुये भी , और उसे साहित्यिक दुनिया
की अनिवार्य संक्रामक स्थिति मानते हुये भी, उत्कृष्ट साहित्य के बारे में
अपनी धारणा बिगडने न दें। यानी,किसी फ़िल्मी तारिका के अभिनय की प्रसंशा
करने के कारण ही यह जरूरी नहीं कि हम अपनी पत्नी के प्रति अपने प्रेम और
आदर में कमी कर दें।
बढिया
किस्म का घटिया साहित्य वह है जो हमें अनुभव की गहराइयों में जाने से
रोकता है, हमारे चिरपरिचित अनुभूति-जगत में ही ऊपर की सतह खुरचकर हरी-भरी
फ़सलें उगाने की कोशिश करता है, हमारी उदात्त संवेदनाओं को पनपने का मौका
नहीं देता
घटिया साहित्य का जिक्र करते हुये हमें यह भी न भूलना चाहिये कि आज
प्रिंटिंग, प्रकाशन, पुस्कतक-व्यवसाय, साहित्य, शिक्षा -उसके पूर्णकालिक
शिक्षक और पूर्णकालिक छात्र-इन सबने मिलकर साहित्य लिखने और लिखाने तथा
साहित्य पढ़ने और पढ़ाने को हमारी सभ्यता का एक अनिवार्य अंग बना दिया है।
इसलिये साहित्य की उपज भी व्यापक और व्यवसायिक तौर पर हो रही है। ऐसी
स्थिति में घटिया साहित्य का उत्पादन प्रेस के ईजाद के बाद की घटना है।
घटिया प्रतिभायें हमेशा से घटिया साहित्य निकालती आई हैं, सिर्फ़ आज उनके
विस्तार और प्रसार की सुविधायें संभावनायें ज्यादा हो गयी हैं। इसलिये
साहित्य के पाठकों को सावधान करने के लिये अंत में एक और बात कहना जरूरी
समझता हूं।घटिया साहित्य दो किस्म का होता है। एक तो घटिया किस्म का घटिया साहित्य। उसके बारे में सभी लोग जानते हैं। दूसरा होता बढिया किस्म का घटिया साहित्य। उसके बारे में पाठक को चौकन्ना रहना चाहिये। इस कोटि का साहित्य पता नहीं कब बढिया बनकर पाठक की रुचि को बिगाड़ दे और उसे स्वाभाविक रूप से उत्तम साहित्य में रुचि लेने से रोक दे।
बढिया किस्म का घटिया साहित्य वह है जो हमें अनुभव की गहराइयों में जाने से रोकता है, हमारे चिरपरिचित अनुभूति-जगत में ही ऊपर की सतह खुरचकर हरी-भरी फ़सलें उगाने की कोशिश करता है, हमारी उदात्त संवेदनाओं को पनपने का मौका नहीं देता, बहुचर्चित आदर्शों को स्वत: सिद्ध और स्थायी मानवीय मूल्य बनाकर प्रतिष्ठित करना चाहता है और यथार्थ के विभिन्न आयामों को न उघाड़कर यथार्थ की साहित्य में जो पिटी हुई रूढियां बन रही हैं, उन्हीं को हम पर आरोपित करता है। यह साहित्य हमारे सतही अनुभवों को बार-बार दुहराकर हमारी भावुकता का फ़ायदा उठाता है और हमारे भावनात्मक व्यक्तित्व को एक भी इंच ऊपर नहीं खिसकने देता। इस सारे घटियापन के बावजूद इसमें भाषा नाटकीय रूप से आकर्षक हो और तथाकथित मापदंडों से अत्यंत साहित्यिक हो, सृजनात्मक न होते हुये भी वह प्रांजल और छद्म रूप से काव्यमय हो, ऐसा साहित्य शिल्प की दृष्टि से भी संपन्न और
आधुनिक
हिंदी साहित्य में भी कथा-साहित्य और कविताओं का एक बड़ा भारी हिस्सा ऐसा
मिलेगा जो अत्यंत शुद्ध किंतु निष्प्राण भाषा में बड़े सजग शिल्प के साथ
लिखा जा रहा है। पर वह भाषा और शिल्प की पात-गोभी भर है। ऐसे साहित्य को
सौम्यता से बरदास्त करना तो ठीक है, पर उसका चस्का नहीं लगना चाहिये।
प्रत्यक्षत: प्रभावशील हो सकता है और अपने पूरे तामझाम के साथ ऊपर से
ऐसा दीख सकता है जैसा कि उसका समान्तर असली साहित्य। पर ऐसा साहित्य हमारे
लिये अनुभव-संसार में कुछ जोड़ नहीं सकता, वह सिर्फ़ हमें कुछ देर के लिये
उत्तेजित कर सकता है। बढिया किस्म के घटिया साहित्य का एक अच्छा नमूना,
बकौल जार्ज आर्वेल, रडयार्ड किपलिंग की कवितायें हैं और हिंदी में बकौल
मेरे, रीतिकालीन काव्य का लगभग दो तिहाई हिस्सा है। आधुनिक हिंदी साहित्य
में भी कथा-साहित्य और कविताओं का एक बड़ा भारी हिस्सा ऐसा मिलेगा जो
अत्यंत शुद्ध किंतु निष्प्राण भाषा में बड़े सजग शिल्प के साथ लिखा जा रहा
है। पर वह भाषा और शिल्प की पात-गोभी भर है। ऐसे साहित्य को सौम्यता से
बरदास्त करना तो ठीक है, पर उसका चस्का नहीं लगना चाहिये।जो साहित्य का आनन्द लेना चाहते हैं उन्हें मेरी साहित्यिक कसौटी स्वीकार हो या नहीं, पर उनके लिये अच्छे और बुरे में किये बिना साहित्य पढ़ना उत्कृष्ट कोटि के साहित्यिक अनुभवों से अपने को वंचित कर देना है। व्यक्तिगत रूप से रोचक और बढ़िया कोटि के घटिया साहित्य का सामना होते ही मैं रामचरितमानस या वाल्मीकीय रामायण जैसे पुराने ऊबाऊ साहित्य की ओर पलायन करने को ज्यादा सुखद और सुरक्षित समझता हूं।
-श्रीलाल शुक्ल
आकाशवाणी लखनऊ से 1983 में प्रसारित
श्रीलाल शुक्ल-जीवन ही जीवन में संकलित
Posted in मेरी पसंद, लेख | 25 Responses
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..Rim acquires Gist!
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..झारखंड धनबाद का पहला दलित डॉन बन रहा है या यूँ भी कह सकते हैं कि बन चुका है। (First Dalit Don or Robin Hood – Dhulu Mahato)
ashish की हालिया प्रविष्टी..ओ दशकन्धर
आज भी कई लेखक और कवि हिन्दी में हैं, जो अन्यथा बहुत अच्छा लिखते हैं। उनमें संभावना तो है, मगर वह बात नहीं, वह प्राण नहीं, जो किसी पाठक को बदल देने की क्षमता रखता हो या उसे उस दिशा में क्रियाशील होने के लिए उत्प्रेरित कर सकने का माद्दा रखता हो। बस, लोग शब्दों से चित्र खींचे जाते हैं…पता ही नहीं चलता कि यह सब क्यों….महज मनोरंजन के लिए या फिर शायद अपने शब्दों की छटा दिखाने भर की कोशिश होती है…
शुक्ल जी द्वारा पाठकों को इस तरह सचेत किया जाना यब साबित करता है कि वह कितने सजग और संवेदनशील रचनाकार थे।
यह लेख पढ़वाने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद !
सृजन शिल्पी की हालिया प्रविष्टी..टीम अन्ना को हुए मर्ज़ की आख़िर दवा क्या है?
बहुत सटीक, शुक्रिया पढवाने के लिए..
sushma Naithani की हालिया प्रविष्टी.."उड़ते हैं अबाबील"
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..लड़कियों का घर ? – सतीश सक्सेना
लेकिन, ऐसी समझदारी भरी बातें अब कौन करेगा…!
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..मेरा मन क्यूँ छला गया…?
लेखक श्रीलाल शुक्ल जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ्य!
उन्हें पुनः नमन !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..बदलते हुए !
बुद्ध-गांधी के नामोल्लेख में, श्रीलाल शुक्ल जी का जैसे इन महा मानवों का विरल संस्पर्ष…
अन्य साहित्यकारों की उनकी अपनी अभिव्यक्तियों की तुलनात्मकता भी श्रीलाल शुक्ल जी की स्वयं ही की मौलिक.
श्रीलाल शुक्ल जी हमारे बीच 86 साल रहे और अपने विलक्ष्ण व सहज-सरल लेखन में निर्भ्रांत, दंभहीन मानव जीवन की नई-नई संभावनाओं की क्षितीज को आंकते रहे, जीवन की सहज रीतियां इंगित करते रहे…जहां वे देश के हर इंसान में एक पारदर्शी सच्चे इंसान की छवि भी देखना चाहते…साथ ही हमारी जहालत का दर्द भी उनके दिल में सदा रहा, जिसकी प्रस्तुति उनके व्यंग्य में मिले (उनकी एक पुस्तक का नाम है “जहालत के पचास साल”…).
श्रीलाल शुक्ल जी के उज्जवल चिंतन-लेखन को नमन…
अनूप जी, श्रीलाल शुक्ल जी के इस आलेख चयन का धन्यवाद…
उनको विनम्र श्रधांजलि
प्रणाम.
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..समाजवाद ही क्यों? – अल्बर्ट आइन्सटीन
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..अभी उनसे दोस्ती के जुमा जुमा चंद हफ्ते ही बीते हैं……..
Amit की हालिया प्रविष्टी..नेपुरा-III
और लोग भी पढ़ें;
इसलिए कल 16/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ….
धन्यवाद!
Yashwant Mathur की हालिया प्रविष्टी..मन का गुलाम
Kailash sharma की हालिया प्रविष्टी..किस पिंज़रे में फ़स गया