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एक सामान्य रेल यात्रा
By फ़ुरसतिया on May 9, 2012
कानपुर से जबलपुर अपन ट्रेन से आते हैं।
कानपुर से जबलपुर के लिये सीधी ट्रेन एक्कै है -चित्रकूट एक्सप्रेस। बड़ी भली ट्रेन है। रिजर्वेशन आराम से मिल जाता है।
इस बार कराया जनरल में तो एक दिन पहले वेटिंग में 13 नंबर था। अगले दिन हो पक्का जाता लेकिन निश्चिंत होने के फ़ेर में तत्काल की शरण में गये और नीचे की बर्थ पाकर प्रसन्न चित्त हो गये।
समय पर स्टेशन पहुंचे। गाड़ी टाइम पर। ट्रेन में चढ़कर सीट पर पहुंचकर उसके पास सामान धरा। ट्रेन चली नहीं थी तो मन किया कन्फ़र्म किया जाये कि सही ट्रेन / डिब्बे में चढ़े हैं कि नहीं। वो भी कन्फ़र्म कर लिया तो मन किया देख लें चार्ट में नाम है कि नहीं। लेकिन ट्रेन सीटी बजा दिहिस। मन मारकर डब्बे में वापस आ गये।
वापस आने पर देखा कि हमारी नीचे वाली बर्थ पर एक महिला अपने बच्चों समेत विराज रही थीं। उनके इरादे सहज थे। उनके साथ कुल जमा चार बच्चे थे। दो आधी टिकट वाली उमर के और दो बिना टिकट वाली उमर के। पांच लोगों को कुल जमा दो सीट चाहिये थीं। नीचे वाली हमारी बर्थ पर वे अपने बिना टिकट की उमर वाले बच्चों के साथ बैठ ही चुकी थीं। बीच वाली बर्थ पर आधी टिकट वाली बच्चियां लेट गयीं थीं।
हमने सहमते हुये डिब्बे में जाहिर किया कि नीचे वाली बर्थ हमारी थी। इससे स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं हुआ। बीच की सीट वाली बच्चियों ने बिना झिझके जो कुछ कहा उसका मतलब यह था कि मैं ऊपर की सीट पर चला जाऊं।
बच्चियों के आग्रह में स्वाभाविकता कुछ ज्यादा थी। सामने वाले साहब को लगा कि शायद इससे मैं बुरा न मान जाऊं। सो उन्होंने बच्चियों को समझाते हुये कहा- ऐसे नहीं कहा जाता बेटे। कहो कि अंकलजी आप ऊपर की सीट पर चले जाइये।
बच्चियों को शायद लगा हो कि उन्होंने क्या गलत कह दिया। अपने मन की बात ही तो कही। वे मारे गुस्से के चुप हो गयीं।
फ़िर भाई साहब ने मुझसे कहा देख लीजिये -साथ में बच्चे हैं। हो सके तो आप ऊपर की बर्थ पर चले जाइये।
हमें बड़ा वैसा सा लगा। लगा कि बताओ बर्थ हमें छोड़ना है। कब्जा दूसरे को करना है। लेकिन आवाहन ये तीसरा आदमी कर रहा है।
हमें लगा कि यह हमारे त्याग में भांजी मार रहा है। बर्थ का त्याग हम करें और श्रेय कोई और ले यह अच्छा नहीं न लगता जी। मन किया तो कि अगर ये दुबारा कहेंगे तो उनसे कहेंगे कि आप काहे नहीं अपना नीचे का बर्थ छोड़कर ऊपर स्थापित हो जाते हैं। लेकिन मौका आया नहीं। वे भाईसाहब मोबाइल पर जोर-जोर से बतियाने में व्यस्त हो गये। वो महिलाजी अपने बच्चे के साथ गुन्न-मुन्न ऊंघती हमारी तथाकथित बर्थ पर अपने बच्चों के साथ बैठी रहीं।
थोड़ी देर बाद हम अपनी बर्थ का त्याग करके ऊपर वाली बर्थ पर आ गये। इस त्याग के लिये हम तैयार तो बच्चों समेत महिला की स्थिति को देखते ही हो गये थे। लेकिन सोच रहे थे कि महिला आग्रह करेगी। फ़िर हम बर्थ छोड़ेगे। फ़िर वह हमको भलामानस समझेंगी/कहेगी। फ़िर हम कहेंगे कि अरे इसमें क्या। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पहले हमें भाई साहब पर झुल्लाहट हुई कि हमारे त्याग में भांजी मार दी। इसके बाद महिला ने खास अनुरोध नहीं किया। इस सबके चलते हुआ यह कि बर्थ त्याग का पूरा श्रेय हमें नहीं मिला। भलेमानस होने का तो खैर पूरा पत्ता ही गोल हो गया।
बाद में ऊपर की बर्थ पर आराम से लेटते हुये सोचा तो हमारे मन ने हम पर चिरकुटई का इल्जाम लगा दिया। कैसे चिरकुट मनई हो जी। एक ठो बर्थ जरूरतमंद यात्री को देने को बड़का त्याग बताते हो।
बाद में पता चला कि वे भाईसाहब भी कोई शुकुलजी ही थे। फ़िर लगा कि सारी चिरकुटई शुकुलजी लोग ही करते हैं क्या।
सामने वाली बर्थ पर एक बाबाजी नुमा आदमी एक लुटिया टाइप की छोटे थैली में हाथ घुसाये माला टाइप जप रहे थे। मुंह से बुदबुदाते भी जा रहे थे। लगा कि गिनती सीख रहे हैं। कुछ देर में उनका खाने का बुलौवा हुआ। वे माला समेट के अपनी थैलिया में समेट के थैली को गोलिया के अपनी बनियाइन के अन्दर घुसा के खाना खाने चले गये।
डिब्बे में एक पुलिस वाला 303 वाली बन्दूकें लिये पहरा टाइप दे रहा था। कुछ देर बगल वाली बर्थ पर लेटे हुये गाना सुनता रहा। मोबाइल पर कौनौ तेज गाना चल रहा था। थोड़ी देर में वो ऊंघने लगा। मोबाइल को शायद यह अच्छा न लगा हो। मोबाइल नीचे गिरा भाड़ से। तेज आवाज हुई। लगा बम फ़टा। अब जमाना ऐसा ही हो गया है जी। हर तेज आवाज बम सरीखी लगती है। दो भले मानुषों ने एक साथ उसका मोबाइल उठाने की कोशिश की। टकराते हुये बचे। अंतत: एक ने उसका मोबाइल उठाकर उसे दिया। गाना फ़िर चालू। वो सिपाही मोबाइल को सीने में धरकर ऊंघने लगा। थका लग रहा था।
कुछ देर बाद देखा कि बासबेसिन के पास एक सिपाही ने एक लड़के को धमकियाने की कोशिश की। कहां है टिकट कहकर। जब यह तय हो गया कि लड़का टिकटधारी था तो उसकी आवाज मुलायम हो गयी। वह समझाने लगा उधर दरवज्जे के पास न खड़े हो। एक्सीडेंट हो सकता है। अपनी सीट पर जाकर बैठो।
पिछली यात्रा में मैंने देखा कि ऐसे ही एक यात्री से, जो रात को रिजर्व डिब्बे में आ गया था, सिपाही ने पचास रुपये ऐंठ लिये थे। फ़िर कहा- जहां मन आये सो जाओ। सिपाही को यह बर्दास्त नहीं हुआ कि कोई सरकार को चूना लगाकर मुफ़्त में रिजर्व डिब्बे में यात्रा करे। न सही सरकार के खजाने में लेकिन पैसा सरकारी मुलाजिम के पास तो पहुंचा।
इस बीच अचानक ट्रेन की चेन खिंची। पता चला कि एक महिला अपने बच्चे के साथ चढ़ रही थी। महिला चढ़ गयी लेकिन बच्चा रह गया। वह दौड़कर ट्रेन पकड़ने लगा। गाड़ी तेज हो गयी थी। किसी ने चेन खींच दी थी।
दोनों लोग गाड़ी में आ गये। घटना किसी और डिब्बे में हुई थी। लेकिन कुछ ही देर में हमारे डिब्बे तक भी खबर आ गयी। हमारे यहां भी तमाम लोगों ने चैन की सांस ले ली। कई लोगों ने सांस लेने के बाद करवट भी बदल ली।
सुबह ऊपर वाली बर्थ से नीचे अवतरित हुये तो पता चला कि ट्रेन जबलपुर पहुंचने वाली थी। एक छोटे स्टेशन पर गाड़ी रुकी। एक बालिका सामने वाली बर्थ पर बैठते ही आंखे मूंदकर ऊंघने लगी। उसके हाथ में एक रजिस्टर था। फ़ाइल थी। उसको और उसकी फ़ाइल को देखकर लगा कि वह शायद जबलपुर से बी.एड. कर रही होगी। सुबह जल्दी उठकर स्कूल के लिये निकली होगी। ट्रेन में जगह मिलते ही ऊंघने लगी होगी।
कुछ ही देर में ट्रेन जबलपुर के प्लेटफ़ार्म नंबर दो पर रुकी। हम खरामा-खरामा चलते हुये प्लेटफ़ार्म नंबर एक पर आये। वहां लिखा था – गर्व करिये कि आप संस्कारधानी में हैं।
जबलपुर को संस्कारधानी नाम विनोबा जी ने दिया था। सुना है कभी किसी सांप्रदायिक दंगे के भड़कने पर नेहरू जी ने जबलपुर को गुंडों का शहर कहा था। हमें समझ में नहीं आया कि किस महापुरुष की बात सही माने। हमारे लिये तो दोनों आदरणीय व वंदनीय हैं।
दुविधा के मारे हम बिना गर्व या शर्म किये अपने ठिकाने की तरफ़ चल दिये।
कानपुर से जबलपुर के लिये सीधी ट्रेन एक्कै है -चित्रकूट एक्सप्रेस। बड़ी भली ट्रेन है। रिजर्वेशन आराम से मिल जाता है।
इस बार कराया जनरल में तो एक दिन पहले वेटिंग में 13 नंबर था। अगले दिन हो पक्का जाता लेकिन निश्चिंत होने के फ़ेर में तत्काल की शरण में गये और नीचे की बर्थ पाकर प्रसन्न चित्त हो गये।
समय पर स्टेशन पहुंचे। गाड़ी टाइम पर। ट्रेन में चढ़कर सीट पर पहुंचकर उसके पास सामान धरा। ट्रेन चली नहीं थी तो मन किया कन्फ़र्म किया जाये कि सही ट्रेन / डिब्बे में चढ़े हैं कि नहीं। वो भी कन्फ़र्म कर लिया तो मन किया देख लें चार्ट में नाम है कि नहीं। लेकिन ट्रेन सीटी बजा दिहिस। मन मारकर डब्बे में वापस आ गये।
वापस आने पर देखा कि हमारी नीचे वाली बर्थ पर एक महिला अपने बच्चों समेत विराज रही थीं। उनके इरादे सहज थे। उनके साथ कुल जमा चार बच्चे थे। दो आधी टिकट वाली उमर के और दो बिना टिकट वाली उमर के। पांच लोगों को कुल जमा दो सीट चाहिये थीं। नीचे वाली हमारी बर्थ पर वे अपने बिना टिकट की उमर वाले बच्चों के साथ बैठ ही चुकी थीं। बीच वाली बर्थ पर आधी टिकट वाली बच्चियां लेट गयीं थीं।
हमने सहमते हुये डिब्बे में जाहिर किया कि नीचे वाली बर्थ हमारी थी। इससे स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं हुआ। बीच की सीट वाली बच्चियों ने बिना झिझके जो कुछ कहा उसका मतलब यह था कि मैं ऊपर की सीट पर चला जाऊं।
बच्चियों के आग्रह में स्वाभाविकता कुछ ज्यादा थी। सामने वाले साहब को लगा कि शायद इससे मैं बुरा न मान जाऊं। सो उन्होंने बच्चियों को समझाते हुये कहा- ऐसे नहीं कहा जाता बेटे। कहो कि अंकलजी आप ऊपर की सीट पर चले जाइये।
बच्चियों को शायद लगा हो कि उन्होंने क्या गलत कह दिया। अपने मन की बात ही तो कही। वे मारे गुस्से के चुप हो गयीं।
फ़िर भाई साहब ने मुझसे कहा देख लीजिये -साथ में बच्चे हैं। हो सके तो आप ऊपर की बर्थ पर चले जाइये।
हमें बड़ा वैसा सा लगा। लगा कि बताओ बर्थ हमें छोड़ना है। कब्जा दूसरे को करना है। लेकिन आवाहन ये तीसरा आदमी कर रहा है।
हमें लगा कि यह हमारे त्याग में भांजी मार रहा है। बर्थ का त्याग हम करें और श्रेय कोई और ले यह अच्छा नहीं न लगता जी। मन किया तो कि अगर ये दुबारा कहेंगे तो उनसे कहेंगे कि आप काहे नहीं अपना नीचे का बर्थ छोड़कर ऊपर स्थापित हो जाते हैं। लेकिन मौका आया नहीं। वे भाईसाहब मोबाइल पर जोर-जोर से बतियाने में व्यस्त हो गये। वो महिलाजी अपने बच्चे के साथ गुन्न-मुन्न ऊंघती हमारी तथाकथित बर्थ पर अपने बच्चों के साथ बैठी रहीं।
थोड़ी देर बाद हम अपनी बर्थ का त्याग करके ऊपर वाली बर्थ पर आ गये। इस त्याग के लिये हम तैयार तो बच्चों समेत महिला की स्थिति को देखते ही हो गये थे। लेकिन सोच रहे थे कि महिला आग्रह करेगी। फ़िर हम बर्थ छोड़ेगे। फ़िर वह हमको भलामानस समझेंगी/कहेगी। फ़िर हम कहेंगे कि अरे इसमें क्या। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पहले हमें भाई साहब पर झुल्लाहट हुई कि हमारे त्याग में भांजी मार दी। इसके बाद महिला ने खास अनुरोध नहीं किया। इस सबके चलते हुआ यह कि बर्थ त्याग का पूरा श्रेय हमें नहीं मिला। भलेमानस होने का तो खैर पूरा पत्ता ही गोल हो गया।
बाद में ऊपर की बर्थ पर आराम से लेटते हुये सोचा तो हमारे मन ने हम पर चिरकुटई का इल्जाम लगा दिया। कैसे चिरकुट मनई हो जी। एक ठो बर्थ जरूरतमंद यात्री को देने को बड़का त्याग बताते हो।
बाद में पता चला कि वे भाईसाहब भी कोई शुकुलजी ही थे। फ़िर लगा कि सारी चिरकुटई शुकुलजी लोग ही करते हैं क्या।
सामने वाली बर्थ पर एक बाबाजी नुमा आदमी एक लुटिया टाइप की छोटे थैली में हाथ घुसाये माला टाइप जप रहे थे। मुंह से बुदबुदाते भी जा रहे थे। लगा कि गिनती सीख रहे हैं। कुछ देर में उनका खाने का बुलौवा हुआ। वे माला समेट के अपनी थैलिया में समेट के थैली को गोलिया के अपनी बनियाइन के अन्दर घुसा के खाना खाने चले गये।
डिब्बे में एक पुलिस वाला 303 वाली बन्दूकें लिये पहरा टाइप दे रहा था। कुछ देर बगल वाली बर्थ पर लेटे हुये गाना सुनता रहा। मोबाइल पर कौनौ तेज गाना चल रहा था। थोड़ी देर में वो ऊंघने लगा। मोबाइल को शायद यह अच्छा न लगा हो। मोबाइल नीचे गिरा भाड़ से। तेज आवाज हुई। लगा बम फ़टा। अब जमाना ऐसा ही हो गया है जी। हर तेज आवाज बम सरीखी लगती है। दो भले मानुषों ने एक साथ उसका मोबाइल उठाने की कोशिश की। टकराते हुये बचे। अंतत: एक ने उसका मोबाइल उठाकर उसे दिया। गाना फ़िर चालू। वो सिपाही मोबाइल को सीने में धरकर ऊंघने लगा। थका लग रहा था।
कुछ देर बाद देखा कि बासबेसिन के पास एक सिपाही ने एक लड़के को धमकियाने की कोशिश की। कहां है टिकट कहकर। जब यह तय हो गया कि लड़का टिकटधारी था तो उसकी आवाज मुलायम हो गयी। वह समझाने लगा उधर दरवज्जे के पास न खड़े हो। एक्सीडेंट हो सकता है। अपनी सीट पर जाकर बैठो।
पिछली यात्रा में मैंने देखा कि ऐसे ही एक यात्री से, जो रात को रिजर्व डिब्बे में आ गया था, सिपाही ने पचास रुपये ऐंठ लिये थे। फ़िर कहा- जहां मन आये सो जाओ। सिपाही को यह बर्दास्त नहीं हुआ कि कोई सरकार को चूना लगाकर मुफ़्त में रिजर्व डिब्बे में यात्रा करे। न सही सरकार के खजाने में लेकिन पैसा सरकारी मुलाजिम के पास तो पहुंचा।
इस बीच अचानक ट्रेन की चेन खिंची। पता चला कि एक महिला अपने बच्चे के साथ चढ़ रही थी। महिला चढ़ गयी लेकिन बच्चा रह गया। वह दौड़कर ट्रेन पकड़ने लगा। गाड़ी तेज हो गयी थी। किसी ने चेन खींच दी थी।
दोनों लोग गाड़ी में आ गये। घटना किसी और डिब्बे में हुई थी। लेकिन कुछ ही देर में हमारे डिब्बे तक भी खबर आ गयी। हमारे यहां भी तमाम लोगों ने चैन की सांस ले ली। कई लोगों ने सांस लेने के बाद करवट भी बदल ली।
सुबह ऊपर वाली बर्थ से नीचे अवतरित हुये तो पता चला कि ट्रेन जबलपुर पहुंचने वाली थी। एक छोटे स्टेशन पर गाड़ी रुकी। एक बालिका सामने वाली बर्थ पर बैठते ही आंखे मूंदकर ऊंघने लगी। उसके हाथ में एक रजिस्टर था। फ़ाइल थी। उसको और उसकी फ़ाइल को देखकर लगा कि वह शायद जबलपुर से बी.एड. कर रही होगी। सुबह जल्दी उठकर स्कूल के लिये निकली होगी। ट्रेन में जगह मिलते ही ऊंघने लगी होगी।
कुछ ही देर में ट्रेन जबलपुर के प्लेटफ़ार्म नंबर दो पर रुकी। हम खरामा-खरामा चलते हुये प्लेटफ़ार्म नंबर एक पर आये। वहां लिखा था – गर्व करिये कि आप संस्कारधानी में हैं।
जबलपुर को संस्कारधानी नाम विनोबा जी ने दिया था। सुना है कभी किसी सांप्रदायिक दंगे के भड़कने पर नेहरू जी ने जबलपुर को गुंडों का शहर कहा था। हमें समझ में नहीं आया कि किस महापुरुष की बात सही माने। हमारे लिये तो दोनों आदरणीय व वंदनीय हैं।
दुविधा के मारे हम बिना गर्व या शर्म किये अपने ठिकाने की तरफ़ चल दिये।
Posted in बस यूं ही | 54 Responses
amit srivastava की हालिया प्रविष्टी.." स्मृति की एक बूंद मेरे काँधे पे……."
जबलपुर -कानपुर के बीच भी कुछ लिखा जायेगा।
वैसे आपकी यह यात्रा जोरदार हुई, हाँ सीट छीन जाने पर आपकी तड़प पर दिल भर आया !
वाकई आज खाना खाने का दिल नहीं करेगा …
और भी मौके आयेंगे ..
दिल छोटा न करें !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..मेरे गीत – सतीश सक्सेना
रही अनूप शुक्ल द्वारा भला मानस बताने की बात तो अनूप शुक्ल ने सच्चाई बयान कर ही दी- “कैसे चिरकुट मनई हो जी। एक ठो बर्थ जरूरतमंद यात्री को देने को बड़का त्याग बताते हो।”
दिल भर आया यह जानकर खराब लग रहा है( ये सिर्फ़ लिखने के लिख रहे हैं जैसे आप लिखे आपका दिल भर आया)। खाना खा लीजिये ( वैसे मुझे पक्का पता है आप दबा के खाये होंगे।)
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..उफ़ यह अकेलापन!
“किसी पोस्ट पर आत्मविश्वासपूर्वक सटीक टिप्पणी करने का एकमात्र उपाय है कि आप टिप्पणी करने के तुरंत बाद उस पोस्ट को पढ़ना शुरु कर दें। पहले पढ़कर टिप्पणी करने में पढ़ने के साथ आपका आत्मविश्वास कम होता जायेगा।”
http://hindini.com/fursatiya/archives/1471
जय नर्मदा मैया की… अच्छी पोस्ट लिख डाली… हम निकल रहे हैं ३६ घंटे की यात्रा पर … इसका मतलब कि १२ घंटे के हिसाब से ३ पोस्ट बनती हैं
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..निकल रहे हैं कल से यात्रा पर ..
आपकी यात्रा के 12 घंटे हो चुके। अब तक कम से कम एक पोस्ट तो आ जानी चाहिये।
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..हैं अशेष इच्छायें मन में
प्रणाम.
त्याग पर भांजी मारना किसी को अच्छा नहीं लगता। कई बार नेता लोग अफसरों के त्याग में ऐसे ही भांजी मारते हैं। एक ब्लॉगर दूसरे ब्लॉगर के त्याग में भी तो भांजी नहीं मारते ?
एक काम और आपने बढ़िया किया गर्मी में यात्रा करी, फोटू जाड़े वाली ठेल दी ।:)
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं …
जल्दी से फोटू बदल लो
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..मेरे गीत – सतीश सक्सेना
इस्माइली लगाने से लगता है हमको पाठक की समझ पर भरोसा नहीं है। इस्माइली लगाना मतलब पाठक को फ़ौजी बनाने जैसा है कि यहां इस्माइली लगा है अब जवान हंसेगा।
एक ब्लॉगर दूसरे के ब्लॉगर के त्याग में भांजी इस लिये नहीं मारता कि वे एक दूसरे के त्याग की कहानी सुनाते रहते हैं। बिना त्याग किये दोनों एक दूसरे को सप्रमाण त्यागी साबित कर देते हैं।
फ़ोटो तो फ़्लिकर से ली है साभार। गर्मीं में जाड़े की फोटो के लिये बहाना यह है कि यह पोस्ट अंतर्राष्ट्रीय टाइप की है। दुनिया के तमाम इलाके हैं जहां अभी भी आदमी ट्रेन में ठिठुरता सा होगा। उसई का फोटो समझा जाये। न हो जाड़े में फ़िर पढ़ा जाये इस पोस्ट को।
सतीश जी,
बनारसी बाबू की बात का जबाब दिया गया। आशा है आपको भी जमा होगा।
‘लेकिन सोच रहे थे कि महिला आग्रह करेगी। फ़िर हम बर्थ छोड़ेगे। फ़िर वह हमको भलामानस कहेगी। फ़िर हम कहेंगे कि अरे इसमें क्या। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। पहले हमें भाई साहब पर झुल्लाहट हुई कि हमारे त्याग में भांजी मार दी। इसके बाद महिला ने खास अनुरोध नहीं किया। इस सबके चलते हुआ यह कि बर्थ त्याग का पूरा श्रेय हमें नहीं मिला। भलेमानस होने का तो खैर पूरा पता ही गोल हो गया।’
…
‘हमारे यहां भी तमाम लोगों ने चैन की सांस ले ली। कई लोगों ने सांस लेने के बाद करवट भी बदल ली।’
हम फिर ये कहेंगे कि आपका जवाब नहीं
aradhana की हालिया प्रविष्टी..धूसर
इस बार चप्पल पहने ही नहीं थे। जूते थे वो बर्थ के नीचे उतारकर रख दिये थे।
अच्छी बातें भी मन के भीतर ही घूमती रहती हैं जिन्हें थोड़ा ध्यान देकर सुनना पड़ता है। शोर गुल के बीच से बाहर निकलकर जब शान्त माहौल मिलता है तो यह साफ सुनायी देने लगता है।
आपकी अभिव्यक्ति तो लाजवाब है ही।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..बच्चों के लिए खुद को बदलना होगा…
यात्राओं में बेवकूफ़ियां चंद्रमा की कलाओं की तरह खिलती है
ashish की हालिया प्रविष्टी..बनिहारिन
हम जनरल आदमी हैं इस लिये जनरल डिब्बे में ही गये। गर्मी अभी कहां ज्यादा है। पंखा आराम से मजे देता है।
आशीष जी,
सही फ़र्माये आप। हमने रिजर्वेशन की बात जनरल और तत्काल कोटे की कही थी।
सचमुच कमाल हैं आप.
सारे फसाद की जड़ में ई सुकुल-कम्पनी है भाई !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..तुम और तुम्हारी याद !
सारे फसाद की जड़ में ई सुकुल-कम्पनी है भाई !- इससे हम फ़ुल इत्तफ़ाक रखते हैं।
आप किस क्लास में यात्रा कर रहे थे ? जो पूछ रहे हैं वो ध्यान दे की आप सबसे ऊपर वाली सीट पर सोये
नीचे माँ उसके ऊपर बेटियाँ
सरकारी यात्र नहीं हो सकती ये और कोई ब्लॉगर सम्मलेन भी नहीं था की टिकेट वहाँ से मिलता
ख़ैर पोस्ट पढ़ कर मज़ा आया
rachna की हालिया प्रविष्टी..एक लिंक
मैंने कोई त्याग नहीं किया। बल्कि सच तो यह है कि कोई भी होता जिसकी आवश्यकता मुझे समझ में आती तो भी मैं ऐसा ही करता। उस पर एहसान के लिये नहीं -अपने सुकून के लिये। उसके लिये किसी का birth देने वाली ही होना आवश्यक नहीं। वैसे भी ऊपर की बर्थ पर आराम से सोना भी मजेदार अनुभव है। आगे मैंने लिखा भी- ” हमारे मन ने हम पर चिरकुटई का इल्जाम लगा दिया। कैसे चिरकुट मनई हो जी। एक ठो बर्थ जरूरतमंद यात्री को देने को बड़का त्याग बताते हो। ”
“आप किस क्लास में यात्रा कर रहे थे ? जो पूछ रहे हैं वो ध्यान दे की आप सबसे ऊपर वाली सीट पर सोये
नीचे माँ उसके ऊपर बेटियाँ”
पता नहीं आप इस बात से क्या जानकारी देना चाह रही हैं। इस टिप्पणी की दिशा उस घराने की टिप्पणियों की ओर जाती है जिनकी इसी तरह की टिप्पणियों के खिलाफ़ आप लगातार मोर्चा खोले रहती हैं। वैसे मेरी पोस्ट में मैंने कहीं क्लास का जिक्र नहीं किया है शायद। तीन बर्थ एसी में भी होती हैं और नान एसी में भी।
“सरकारी यात्र नहीं हो सकती ये और कोई ब्लॉगर सम्मलेन भी नहीं था की टिकेट वहाँ से मिलता “
आपकी टिप्पणियां पढ़कर कभी-कभी लगता है कि न जाने आप कौन सी दुनिया में रहती हैं। कैसे लोगों को देखती हैं। कैसे उनके बारे में समझ बनाती हैं। न जाने कितनी सरकारी यात्रायें मैंने अभी हाल के दिनों तक बस/साधारण दर्जे में की हैं /करते हैं खुशी-खुशी जबकि हम लोग किसी भी तरह की यात्रा के किसी भी क्लास के लिये अधिकृत हैं।
सरकारी कर्मचारी होने का मतलब केवल दौरा करना/ पैसा उड़ाना / टिकट कटाना ही नहीं होता। न जाने कितना और भी बहुत कुछ करते हैं न जाने कितने सरकारी कर्मचारी।
पोस्ट पढ़कर आपको अच्छा लगा यह जानकर मुझे और अच्छा लगा।
…उत्तर के लिए धन्यवाद। सभी को दिये उत्तर में इस्माइल लगाने के लिए डबल धन्यवाद।
जैसे कि अगर वो महिला के बच्चे ना चढ़ पाते तो साँस लेने वाले खुद उतर कर चढा देते | हा और अगर वो बच्चे न चढ़ पाते तो सारे रास्ते चर्चा होती तमाम पुरानी कहनिया सुनायी जाती कि “एक बार ……..”
ऊपर वाली फ़ोटो फ़्लिकर से ली है।
वे महिला यात्री अतिक्रमणकारी नहीं थीं भाई। बच्चों के चलते उनको आवश्यकता थी और हमने खुशी-खुशी ऐसा किया। बाकी तो मजे के लिये लिखा।
आपको पढ़कर अच्छा लगा यह जानकर हमें बहुत अच्छा लगा।
और आपकी इस पंक्ति -”लेकिन सोच रहे थे कि महिला आग्रह करेगी। फ़िर हम बर्थ छोड़ेगे। फ़िर वह हमको भलामानस समझेंगी/कहेगी।” ने उस व्यक्ति कि याद दिला दी जो घूस लेता तो नहीं है लेकिन चाहता जरूर है कि उसको भी प्रस्ताव दे और फिर वो मना कर सके |
बहुत ही अच्छा वर्णन किया है मौसा जी ……और अन्त तो सबसे अच्छा |
satyavrat shukla की हालिया प्रविष्टी..माँ कभी खफा नहीं होती ……
एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं–
‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’
मेरे देश की संसद मौन है।
- धूमिल
दोनों ही सही हो सकते हैं, संस्कारमई तरीके से गुण्डई हुई होगी!
amit की हालिया प्रविष्टी..पापमोचनी मंदिर…..
इसई लिये तो कभी लिखा गया था :
बाकी संस्कारमई तरीके से गुंडई का ही जमाना है जी आजकल!
समीर लाल “पुराने जमाने के टिप्पणीकार” की हालिया प्रविष्टी..सेन फ्रेन्सिसको से कविता…
प्रणाम.
हम हैं कानपुरिये और हमरे ताऊजी जबलपुर में रहते थे।
आपके लेख पढ़ कर बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं।
ब्लाॅगियाते रहिये।
वैल्यू एडीशन हो रहा है!
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..मोहिन्दर सिंह गुजराल
खैर तेल तो सभी का निकलता है।