http://web.archive.org/web/20140420082415/http://hindini.com/fursatiya/archives/3201
एक फ़ाइल देख रहे थे! देखा हमारें यहां से एक चिट्ठी लिखी है फ़र्म को। नाम-पता के बाद शहर का नाम लिखा है- Kanglore.
सोचा ये कौन सा शहर पैदा हो गया भाई! लिखने वाले को बुलाया, पूछा – ये कौन जगह है भाई!
वो भाई साहब मोनालिसा की तरह मुस्कराने के बाद शरमाने वाला पोज बना के खड़े हो गये। नजरें नीचे झुका लीं ताकि मुस्कराते हुये शर्मिंदगी का इजहार कर सकें।
पता चला कि बैंगलोर की जगह कैंगलोर टाइप हो गया था। चिट्ठी जा चुकी थी। मामला सामान्य पूछताछ का था सो K को घुमा के B बना दिया!
मौज-मौके का उपयोग करते हुये भाईसाहब का तात्कालिक नामकरण आमिरखान किया गया और मौज ली गयी। इसी बहाने अपन की चूक भी रेगुलराइज हो गयी कि दस्तखत करने के पहले काहे नहीं देखा।
यह तो रहा इस्पेलिंग का मामला। इसके अलावा रोजमर्रा की अंग्रेजी भी ओ मायगॉड टाइप दिखती है फ़ाइलों में। वाक्यों में मतभेद रहता है। एक ही वाक्य के हिस्सों में सास-बहू सा अलगाव दिखता है। किसी-किसी वाक्य की शु्रुआत तो टीन एजर उत्साह से होती है लेकिन फ़ुलस्टाप तक पहुंचते-पहुंचते बुढौती छा जाती है। वाक्य अगर लंबा हुआ तो उसका मतलब कश्मीर समस्या सा उलझ के रह जाता है।
रोजमर्रा चिट्ठी तो कुछ दिन में सेट हो जाती हैं। नाम-पता लिखा, तारीख डाली। मसौदा कट-पेस्ट किया। प्रिंट लेकर दस्तखतिया दिया और चिट्ठी भेज दी। एक कापी पोस्ट से, दूसरी फ़ैक्स से, तीसरी स्कैन करके मेल से। ज्यादा जरूरी हुआ तो दस्ती भी भेज दिया। फोन पर मसौदा पढ़कर तो खैर सुनाया ही जाता है।
कट-पेस्ट विधि के चलते मामला तो अक्सर गड़बडाता रहता है। दो दिन मुझे एक चिट्ठी मिली जिसमें हमारे छह अगस्त की चिट्ठी का जिक्र किया था लेकिन पत्र में तारीख मई की थी। कट-पेस्ट तकनीक के चलते चिट्ठियां तीन महीनों को अपने में समाये रहती हैं।
असल समस्या तब होती है जब कुछ अलग तरह की चिट्ठी लिखनी होती है। उसमें भी असल बवाल तब होता है कोई चिट्ठी कई लोग मिलकर लिखते हैं। हर व्यक्ति अपने हिसाब से अंग्रेजी का योगदान देता है। कोई वाक्य बेग टू स्टेट शुरु होता। अगला उसकी विनम्रता को छांटकर भाषा आदेशात्मक बना देता है। एक ही पैरा में दो तेवर आपस में यात्रा करते हैं। कभी-कभी एक ही वाक्य के दो एकदम अलग-अलग मतलब निकलते हैं। दोनों में 36 का आंकड़ा। ऐसे पत्रों का मतलब हमेशा आराम से देखा जायेगा वाले सूत्र से ही निकाला जाता है।
कई लोगों द्वारा लिखे पत्रों की भाषा चंदे की भाषा जैसी होती है। हर व्यक्ति अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से अंग्रेजी का चंदा करता है। बन-ठन निकली चिट्ठी को देखकर लगता है इसमें भारत देश की तरह विभिन्नता में एकता का सीन बनता दिख रहा है।
करीब बाइस-चौबीस साल हो गये अंग्रेजी में दफ़्तरिया चिट्ठी लिखते हुये। कुल जमा दो-ढाई हजार शब्दों को मिला-जुलाकर फ़ेंटते हुये इत्ते साल गुजार दिये। पहले तो इस्पेलिंग भूलने पर शरमा आती थी। आज गलती होने पर कहते हैं- अरे इसमें स्पेलचेकर नहीं है क्या?
पुराने जमाने के अंग्रेजी लिखने वाले पत्रों को दुलहन सा सजाते थे। साज-सिंगार करके विदा करते थे। आज के जमाने की अंग्रेजी ए्स एम एसिया गयी है। मतलब निकलना चाहिये। मेल जोल की भाषा है गड़बड़ सड़बड़ अंग्रेजी।
आज सुबह से शाम तक कई पन्नों की अंग्रेजी हो गयी। न जाने कित्ती जगह बैंगलोर का कैंगलोर हो गया होगा। लेकिन यह तो राज-काज है। मतलब समझ में आना चाहिये। कवि जी ने कहा भी है:
भाषा तो पुल है मन के दूरस्थ किनारों पर,
पुल को दीवार समझ लेना बेमानी है।
बहुत लफ़्फ़ाजी हो गयी आज। अब चला जाये कानपुर के लिये। चित्रकूट एक्सप्रेस पटरियों पर खड़ी हमारा इंतजार कर रही है।
दफ़्तर में अंग्रेजी
By फ़ुरसतिया on August 9, 2012
सोचा ये कौन सा शहर पैदा हो गया भाई! लिखने वाले को बुलाया, पूछा – ये कौन जगह है भाई!
वो भाई साहब मोनालिसा की तरह मुस्कराने के बाद शरमाने वाला पोज बना के खड़े हो गये। नजरें नीचे झुका लीं ताकि मुस्कराते हुये शर्मिंदगी का इजहार कर सकें।
पता चला कि बैंगलोर की जगह कैंगलोर टाइप हो गया था। चिट्ठी जा चुकी थी। मामला सामान्य पूछताछ का था सो K को घुमा के B बना दिया!
मौज-मौके का उपयोग करते हुये भाईसाहब का तात्कालिक नामकरण आमिरखान किया गया और मौज ली गयी। इसी बहाने अपन की चूक भी रेगुलराइज हो गयी कि दस्तखत करने के पहले काहे नहीं देखा।
यह तो रहा इस्पेलिंग का मामला। इसके अलावा रोजमर्रा की अंग्रेजी भी ओ मायगॉड टाइप दिखती है फ़ाइलों में। वाक्यों में मतभेद रहता है। एक ही वाक्य के हिस्सों में सास-बहू सा अलगाव दिखता है। किसी-किसी वाक्य की शु्रुआत तो टीन एजर उत्साह से होती है लेकिन फ़ुलस्टाप तक पहुंचते-पहुंचते बुढौती छा जाती है। वाक्य अगर लंबा हुआ तो उसका मतलब कश्मीर समस्या सा उलझ के रह जाता है।
रोजमर्रा चिट्ठी तो कुछ दिन में सेट हो जाती हैं। नाम-पता लिखा, तारीख डाली। मसौदा कट-पेस्ट किया। प्रिंट लेकर दस्तखतिया दिया और चिट्ठी भेज दी। एक कापी पोस्ट से, दूसरी फ़ैक्स से, तीसरी स्कैन करके मेल से। ज्यादा जरूरी हुआ तो दस्ती भी भेज दिया। फोन पर मसौदा पढ़कर तो खैर सुनाया ही जाता है।
कट-पेस्ट विधि के चलते मामला तो अक्सर गड़बडाता रहता है। दो दिन मुझे एक चिट्ठी मिली जिसमें हमारे छह अगस्त की चिट्ठी का जिक्र किया था लेकिन पत्र में तारीख मई की थी। कट-पेस्ट तकनीक के चलते चिट्ठियां तीन महीनों को अपने में समाये रहती हैं।
असल समस्या तब होती है जब कुछ अलग तरह की चिट्ठी लिखनी होती है। उसमें भी असल बवाल तब होता है कोई चिट्ठी कई लोग मिलकर लिखते हैं। हर व्यक्ति अपने हिसाब से अंग्रेजी का योगदान देता है। कोई वाक्य बेग टू स्टेट शुरु होता। अगला उसकी विनम्रता को छांटकर भाषा आदेशात्मक बना देता है। एक ही पैरा में दो तेवर आपस में यात्रा करते हैं। कभी-कभी एक ही वाक्य के दो एकदम अलग-अलग मतलब निकलते हैं। दोनों में 36 का आंकड़ा। ऐसे पत्रों का मतलब हमेशा आराम से देखा जायेगा वाले सूत्र से ही निकाला जाता है।
कई लोगों द्वारा लिखे पत्रों की भाषा चंदे की भाषा जैसी होती है। हर व्यक्ति अपनी-अपनी क्षमता के हिसाब से अंग्रेजी का चंदा करता है। बन-ठन निकली चिट्ठी को देखकर लगता है इसमें भारत देश की तरह विभिन्नता में एकता का सीन बनता दिख रहा है।
करीब बाइस-चौबीस साल हो गये अंग्रेजी में दफ़्तरिया चिट्ठी लिखते हुये। कुल जमा दो-ढाई हजार शब्दों को मिला-जुलाकर फ़ेंटते हुये इत्ते साल गुजार दिये। पहले तो इस्पेलिंग भूलने पर शरमा आती थी। आज गलती होने पर कहते हैं- अरे इसमें स्पेलचेकर नहीं है क्या?
पुराने जमाने के अंग्रेजी लिखने वाले पत्रों को दुलहन सा सजाते थे। साज-सिंगार करके विदा करते थे। आज के जमाने की अंग्रेजी ए्स एम एसिया गयी है। मतलब निकलना चाहिये। मेल जोल की भाषा है गड़बड़ सड़बड़ अंग्रेजी।
आज सुबह से शाम तक कई पन्नों की अंग्रेजी हो गयी। न जाने कित्ती जगह बैंगलोर का कैंगलोर हो गया होगा। लेकिन यह तो राज-काज है। मतलब समझ में आना चाहिये। कवि जी ने कहा भी है:
भाषा तो पुल है मन के दूरस्थ किनारों पर,
पुल को दीवार समझ लेना बेमानी है।
बहुत लफ़्फ़ाजी हो गयी आज। अब चला जाये कानपुर के लिये। चित्रकूट एक्सप्रेस पटरियों पर खड़ी हमारा इंतजार कर रही है।
Posted in बस यूं ही | 22 Responses
वैसे चिट्ठी लिखना भी अपने आप में कला है, भले ही आजकल यह ईमेल हो गया है, गल्ती हो गई तो एक और ईमेल साट दो, सही करके कि पुरानी वाली इग्नोर कर दो, नहीं तो टायपो लिखकर सही शब्द लिखकर साट दो ।
तो आप बबलपुर से नानपुर जा रहे हैं
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..काली चमड़ी के कारण आँखों और गर्दनों पर असर और वजन बढ़ना
…हम तो अब अक्सर स्पेलिंग भूल जाते हैं,सो बच्चों से कन्फर्म कर लेते हैं !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..संयुक्त-राष्ट्र चले जाओ जी !
लेकिन भाषा का घासलेटीकरण भी नहीं होना चाहिए…
सतीश चंद्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..एक हाथ में लोटा दूसरे में मोबाइल
अपनी भी नौकरी कट-पेस्ट के भरोसे ही चलाती है अक्सर
बाकी ई लाइन हमको बहुत मारू टाइप लगी
” किसी-किसी वाक्य की शु्रुआत तो टीन एजर उत्साह से होती है लेकिन फ़ुलस्टाप तक पहुंचते-पहुंचते बुढौती छा जाती है”
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..बारिश
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..गुछून परिणय सुशीला……. मन भतरा हो दहिजरा……
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..कामना-वह्नि की शिखा
बाँचने वाले इसे रैना की तरह लपक न लें तो क्या करें!
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..भ्रष्टाचार का भविष्य अच्छा है…।
और ‘एस एम् एसिया’ भाषा ने तो बहुत से शब्दों की स्पेल्लिंग ही बदल सी दी है .
रोचक लेख.
Alpana की हालिया प्रविष्टी..वो पहली मुलाकात!
Alpana की हालिया प्रविष्टी..वो पहली मुलाकात!
कानपुर जा रहे हैं. सही गाड़ी में बैठिएगा. कहीं भूली-भाली स्पेलिंग सही करते-करते स्टेशन के नाम ना इधर-उधर कर बैठिएगा
aradhana की हालिया प्रविष्टी..स्मृति-कलश
संजय अनेजा की हालिया प्रविष्टी..युगपुरुष
“किसी-किसी वाक्य की शु्रुआत तो टीन एजर उत्साह से होती है लेकिन फ़ुलस्टाप तक पहुंचते-पहुंचते बुढौती छा जाती है। वाक्य अगर लंबा हुआ तो उसका मतलब कश्मीर समस्या सा उलझ के रह जाता है।”
प्रणाम.
Kajal Kumar की हालिया प्रविष्टी..कार्टून :- जन्माष्टमी का कार्टून
बकत को इसी तरा गुजर जानेदे और लोगो को मेरी गतली पे नहीं, मेरी मेहनत पर मुस्कुरेने दे.
चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..बुर्जुआ भाषा वालीं हिन्दी फ़िल्में
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..टूण्डला – एतमादपुर – मितावली – टूण्डला
सादर नमन |
मन्टू कुमार की हालिया प्रविष्टी..बेहिसाब याद आती है,माँ..!