http://web.archive.org/web/20140420082122/http://hindini.com/fursatiya/archives/3565
कल कुछ घूमना-सूमना हुआ। एक वरिष्ट साथी मिसराजी शहर से करीब तीस किमी दूर अपनी जमीन का मौका-मुआयना करने जा रहे थे। वहां से बर्गी डैम कुछ ही दूर है। हम भी बैठ लिये साथ में उनकी टवेरा में। पहले तिलवारा घाट देखा। पुराने पुल के एक हिस्से के नीचे की जमीन पर कब्जा करके एक साधु जी ने अपना मठ बना रखा है। छोटा सा मंदिर बना लिया -बस हो गयी रजिस्ट्री जगह की।
आगे भारतीय देहात का महासागर पसरा हुआ था। मिसराजी की जमीन में सोयाबीन बोया गया था। नीलम तूफ़ान के चलते हुई बूंदाबांदी से कटी हुई सोयाबीन कुछ भीग गयी है। धूप निकलेगी तो तब किस्सा आगे बढ़ेगा।
पास में ही कुछ बच्चे खेल रहे थे। जमीन में लाइनें खैंचकर खेले जाने वाले इस खेल को इधर ’चींटी धप’ बुलाते हैं। हमारी याद में यह ’कड़क्को’ के नाम से संरक्षित है। एक छोटी बच्ची एक बड़े घर को फ़ांद नहीं पा रही थी तो उस घर को छोटा कर दिया गया ताकि वह भी आसानी से खेल सके। बच्चों को खेलते हुये देखना अच्छा लगा। कुछ देर बाद बड़ी बच्ची ने सब घर बसा लिये तो वह अलग हो गयी। बोली हम ’पक गये’। दूसरे बच्चे खेलते रहे।
कुछ देर की बातचीत के बाद बच्चे सहज हो गये। बात करने लगे। बच्चे स्कूल भी जाते हैं। वहां दोपहर का खाना भी मिलता है। तीसरे में पढ़ने वाली बच्ची गिनती अटक-अटक कर बता रही थी। (शहर के आदमी भी खड़ूस होते हैं। जहां पहुंचते हैं तुलना करना शुरु कर देते हैं। इम्तहान लेने लगते हैं।) बच्चों ने नाम बताये गोमती, सोमती, खुशबू ……। फोटो खिंचाते समय बच्चा अपना धनुष पीछे किये था। कहने पर सामने कर लिया। मोबाइल पर दिखायी फोटो तो खुश हुये बच्चे। एक ने कहा – अरे देख बन गयी।
मिसराजी का काम देखने वाले भाईसाहब से बिजली के बारे में बातचीत हुई तो उन्होंने बताया- अभै त हती। अब भग गई। बिजली का जब मन होता है भाग जाती है।
वहीं सेंगरजी से मुलाकात हुई। एम.कॉम. के बाद खेती को व्यवसाय के रूप में अपनाया। शहर में रहते हैं। गांव आते हैं खेती कराने। काफ़ी जमीन खरीद रखी है। बता रहे थे कि कामगार को दिन भर के सत्तर रुपये देने पड़ते हैं। अगले सीजन में सौ तक देने होंगे। कृषि कार्य के लिये न्यूनतम वेतन 168 रुपये है आजकल। कामगारों को आमतौर पर उनकी न्यूनतम मजदूरी के आधे से भी कम पैसा मिल रहा है। यह बात सबको पता है। लेकिन इसका कार्यन्वयन नहीं हो पाता। सरकारी विभागों में तो कार्यवाही होगी। निलम्बन, बर्खास्तगी होगी। समाज में कैसे लागू होगा न्यूनतम वेतन अधिनियम।
मनरेगा स्कीम में पैसा तो कामगारों के खाते में जाता है। पैसा खातेदारों के खाते में भेजने का अब सरपंच के हाथ में नहीं। सचिव देखता है। सुबह हाजिरी लेकर भागता है शहर कलेक्ट्रेट में दर्ज करने। पैसा सीधे खाते में। लेकिन पासबुक सरपंच के कब्जे में रहती है। वही जाकर निकलवाता है पैसा। न्यूनतम वेतन का कचूमर निकल जाता होगा।
सेंगरजी के फ़ार्म पर काम करने वाले का नाम गरीबा है। उन्होंने वहीं चूल्हा सुलगाकर चाय बनाई। हम चार लोग थे। ग्लास केवल दो ही। बारी-बारी से चाय पी गयी। पहले दो लोगों ने पी। दो लोग इंतजार करते रहे। फ़िर बाकी दो ने पी। सबसे आखिर में गरीबा ने पी। घर की गृहणी की तरह। मैंने गरीबा का असली नाम पूछा। बताया- नाम हमारा ’इमरत’ है। सब लोग गरीबा कहते हैं तो यही नाम पड़ गया। असली नाम शायद अमृत रहा होगा। गोल होकर ’इमरत’ हुआ। लेकिन अब तो ’गरीबा’ ही चलन में है।
लौटते हुये हम बर्गी बांध होते हुये आये। नर्मदा की विशाल जल राशि डैम से गुजरने के बाद क्षीण नर्मदा में बदल जाती है। हमने वहां बोटिंग भी की। पानी पर तेज चलती मोटरबोट ऐसे लग रही थी जैसे सपाट जल मैदान में स्कीइंग हो रही हो। जल-स्कीइंग। नीचे पानी ठोस चिकनी जमीन सा लग रहा था। बोट हिचकोले खा रही थी। जैसे किसी गाड़ी के शॉकर खराब हो गये हैं और वह किसी स्पीड ब्रेकर से गुजर रही हो। दस रुपये का विविध शुल्क लगता है डैम को देखने का। पांच मिनट की मोटरबोट की सैर के सत्तर रुपये। पता चला कि गहराई पांच सौ मीटर थी जहां बोटिंग हुई। कुछ दिन पहले एक हेलीकॉप्टर गिर गया था बांध में। 52 दिन बाद पता चला कि कहां है हवाई पंखा।
बर्गी डैम से शहर के लिये चलते समय तक अंधेरा हो चला था। शहर जाकर मजूरी करने वाले साइकिलों में लौटते दिख रहे थे। कुछ के हैंडलों में टिफ़िन भी दिखे। शहर से आये ’सेंगरजी’ भी काम के बाद अपने बसेरे लौट गये होंगे। आधुनिक विकास का यही तकाजा है शायद। रोजगार घर से बहुत दूर हो गया है।
एक बड़ा अवगुण है मुझ में, बहुत बोलता हूं,
धारदार पैने शब्दों के तीर छोड़ता हूं।
ऐसा नहीं कि मित्रों, मुझको इतना ज्ञान नहीं,
बहुत बोलना किसी विद्वता की पहचान नहीं।
पर जब अन्याय, अनीति का जोर देखता हूं,
अपने चारों ओर चोर ही चोर देखता हूं।
चुप बैठकर रहूं देखता, यह स्वीकार नहीं,
कायर ही अन्याय का करते प्रतिकार नहीं।
दरबारों का गीत मुझको नहीं सुहाता है,
मुझको तो बस खरी बात कहना ही आता है।
कोई क्या कहता है, इसकी परवाह नहीं,
बुद्धिमान कहलाऊं ऐसी मुझको चाह नहीं।
झूठ को सच कहने का मुझको हुनर नहीं आता
दिल में जलती आग हो तो चुप रहा नहीं जाता।
हूं तो अकेला चना, मगर मैं भाड़ फोड़ता हूं,
यह सच है मित्रों कि मैं बहुत बोलता हूं।
-
-वीरेंन्द्र कुमार भटनागर
(रचनाकाल सन २००० के करीब)
चींटी धप, गरीबा और न्यूनतम मजूरी
By फ़ुरसतिया on November 5, 2012
कल कुछ घूमना-सूमना हुआ। एक वरिष्ट साथी मिसराजी शहर से करीब तीस किमी दूर अपनी जमीन का मौका-मुआयना करने जा रहे थे। वहां से बर्गी डैम कुछ ही दूर है। हम भी बैठ लिये साथ में उनकी टवेरा में। पहले तिलवारा घाट देखा। पुराने पुल के एक हिस्से के नीचे की जमीन पर कब्जा करके एक साधु जी ने अपना मठ बना रखा है। छोटा सा मंदिर बना लिया -बस हो गयी रजिस्ट्री जगह की।
आगे भारतीय देहात का महासागर पसरा हुआ था। मिसराजी की जमीन में सोयाबीन बोया गया था। नीलम तूफ़ान के चलते हुई बूंदाबांदी से कटी हुई सोयाबीन कुछ भीग गयी है। धूप निकलेगी तो तब किस्सा आगे बढ़ेगा।
पास में ही कुछ बच्चे खेल रहे थे। जमीन में लाइनें खैंचकर खेले जाने वाले इस खेल को इधर ’चींटी धप’ बुलाते हैं। हमारी याद में यह ’कड़क्को’ के नाम से संरक्षित है। एक छोटी बच्ची एक बड़े घर को फ़ांद नहीं पा रही थी तो उस घर को छोटा कर दिया गया ताकि वह भी आसानी से खेल सके। बच्चों को खेलते हुये देखना अच्छा लगा। कुछ देर बाद बड़ी बच्ची ने सब घर बसा लिये तो वह अलग हो गयी। बोली हम ’पक गये’। दूसरे बच्चे खेलते रहे।
कुछ देर की बातचीत के बाद बच्चे सहज हो गये। बात करने लगे। बच्चे स्कूल भी जाते हैं। वहां दोपहर का खाना भी मिलता है। तीसरे में पढ़ने वाली बच्ची गिनती अटक-अटक कर बता रही थी। (शहर के आदमी भी खड़ूस होते हैं। जहां पहुंचते हैं तुलना करना शुरु कर देते हैं। इम्तहान लेने लगते हैं।) बच्चों ने नाम बताये गोमती, सोमती, खुशबू ……। फोटो खिंचाते समय बच्चा अपना धनुष पीछे किये था। कहने पर सामने कर लिया। मोबाइल पर दिखायी फोटो तो खुश हुये बच्चे। एक ने कहा – अरे देख बन गयी।
मिसराजी का काम देखने वाले भाईसाहब से बिजली के बारे में बातचीत हुई तो उन्होंने बताया- अभै त हती। अब भग गई। बिजली का जब मन होता है भाग जाती है।
वहीं सेंगरजी से मुलाकात हुई। एम.कॉम. के बाद खेती को व्यवसाय के रूप में अपनाया। शहर में रहते हैं। गांव आते हैं खेती कराने। काफ़ी जमीन खरीद रखी है। बता रहे थे कि कामगार को दिन भर के सत्तर रुपये देने पड़ते हैं। अगले सीजन में सौ तक देने होंगे। कृषि कार्य के लिये न्यूनतम वेतन 168 रुपये है आजकल। कामगारों को आमतौर पर उनकी न्यूनतम मजदूरी के आधे से भी कम पैसा मिल रहा है। यह बात सबको पता है। लेकिन इसका कार्यन्वयन नहीं हो पाता। सरकारी विभागों में तो कार्यवाही होगी। निलम्बन, बर्खास्तगी होगी। समाज में कैसे लागू होगा न्यूनतम वेतन अधिनियम।
मनरेगा स्कीम में पैसा तो कामगारों के खाते में जाता है। पैसा खातेदारों के खाते में भेजने का अब सरपंच के हाथ में नहीं। सचिव देखता है। सुबह हाजिरी लेकर भागता है शहर कलेक्ट्रेट में दर्ज करने। पैसा सीधे खाते में। लेकिन पासबुक सरपंच के कब्जे में रहती है। वही जाकर निकलवाता है पैसा। न्यूनतम वेतन का कचूमर निकल जाता होगा।
सेंगरजी के फ़ार्म पर काम करने वाले का नाम गरीबा है। उन्होंने वहीं चूल्हा सुलगाकर चाय बनाई। हम चार लोग थे। ग्लास केवल दो ही। बारी-बारी से चाय पी गयी। पहले दो लोगों ने पी। दो लोग इंतजार करते रहे। फ़िर बाकी दो ने पी। सबसे आखिर में गरीबा ने पी। घर की गृहणी की तरह। मैंने गरीबा का असली नाम पूछा। बताया- नाम हमारा ’इमरत’ है। सब लोग गरीबा कहते हैं तो यही नाम पड़ गया। असली नाम शायद अमृत रहा होगा। गोल होकर ’इमरत’ हुआ। लेकिन अब तो ’गरीबा’ ही चलन में है।
लौटते हुये हम बर्गी बांध होते हुये आये। नर्मदा की विशाल जल राशि डैम से गुजरने के बाद क्षीण नर्मदा में बदल जाती है। हमने वहां बोटिंग भी की। पानी पर तेज चलती मोटरबोट ऐसे लग रही थी जैसे सपाट जल मैदान में स्कीइंग हो रही हो। जल-स्कीइंग। नीचे पानी ठोस चिकनी जमीन सा लग रहा था। बोट हिचकोले खा रही थी। जैसे किसी गाड़ी के शॉकर खराब हो गये हैं और वह किसी स्पीड ब्रेकर से गुजर रही हो। दस रुपये का विविध शुल्क लगता है डैम को देखने का। पांच मिनट की मोटरबोट की सैर के सत्तर रुपये। पता चला कि गहराई पांच सौ मीटर थी जहां बोटिंग हुई। कुछ दिन पहले एक हेलीकॉप्टर गिर गया था बांध में। 52 दिन बाद पता चला कि कहां है हवाई पंखा।
बर्गी डैम से शहर के लिये चलते समय तक अंधेरा हो चला था। शहर जाकर मजूरी करने वाले साइकिलों में लौटते दिख रहे थे। कुछ के हैंडलों में टिफ़िन भी दिखे। शहर से आये ’सेंगरजी’ भी काम के बाद अपने बसेरे लौट गये होंगे। आधुनिक विकास का यही तकाजा है शायद। रोजगार घर से बहुत दूर हो गया है।
मेरी पसंद
आज मेरी पसंद में अपने साथ आयुध वस्त्र निर्माणी, शाहजहांपुर में काम कर चुके और अब सेवा से अवकाश प्राप्त अधिकारी श्री वी.के.भटनागर की एक कविता पोस्ट कर रहा हूं। फ़िलहाल भटनागरजी अपनी बेटी के पास अमेरिका में हैं। यह कविता भटनागरजी के व्यक्तित्व को बयान करती है। यह कविता मैं पहले भी पोस्ट कर चुका हूं। लेकिन तब वे मेरा ब्लॉग पढ़ते नहीं थे। अब वे हमारे ब्लॉग के नियमित पाठक भी हैं।एक बड़ा अवगुण है मुझ में, बहुत बोलता हूं,
धारदार पैने शब्दों के तीर छोड़ता हूं।
ऐसा नहीं कि मित्रों, मुझको इतना ज्ञान नहीं,
बहुत बोलना किसी विद्वता की पहचान नहीं।
पर जब अन्याय, अनीति का जोर देखता हूं,
अपने चारों ओर चोर ही चोर देखता हूं।
चुप बैठकर रहूं देखता, यह स्वीकार नहीं,
कायर ही अन्याय का करते प्रतिकार नहीं।
दरबारों का गीत मुझको नहीं सुहाता है,
मुझको तो बस खरी बात कहना ही आता है।
कोई क्या कहता है, इसकी परवाह नहीं,
बुद्धिमान कहलाऊं ऐसी मुझको चाह नहीं।
झूठ को सच कहने का मुझको हुनर नहीं आता
दिल में जलती आग हो तो चुप रहा नहीं जाता।
हूं तो अकेला चना, मगर मैं भाड़ फोड़ता हूं,
यह सच है मित्रों कि मैं बहुत बोलता हूं।
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-वीरेंन्द्र कुमार भटनागर
(रचनाकाल सन २००० के करीब)
Posted in बस यूं ही | 10 Responses
श्री वी.के.भटनागर जी की कविता में बहुत ही भोलापन और सच्चाई है …सुन्दर पंक्तियाँ ..
“हूं तो अकेला चना, मगर मैं भाड़ फोड़ता हूं,
यह सच है मित्रों कि मैं बहुत बोलता हूं।”
कविता बस पढ़े मुख से आवाज़ दिल से आया …………..
प्रणाम.
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..चलो अपनी कुटिया जगमगायें
राहुल सिंह की हालिया प्रविष्टी..राजधानी रतनपुर
गरीबों के बारे में पढ़के नोर्मल लगा…
सतीश चंद्र सत्यार्थी की हालिया प्रविष्टी..हाथी और जंजीरें
Batkahi Editor की हालिया प्रविष्टी..दूसरे विश्वयुद्ध को लेकर मजाज़ का बयान