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सुबह दरवाजा खोलते ही धूप दिखी। एकदम दरवज्जे तक आकर ठहरी हुयी सी। जैसे सूदूर से कोई फ़रियादी किसी हाकिम के यहां पहुंच जाये। लेकिन उसके दरवज्जे में घुसने की हिम्मत न होने पर वहीं ठिठका खड़ा रहे कि अब क्या करूं!
ठिठकी धूप देखकर अपनी तुकबंदी/कविता याद आती है:
धूप लाड़ली अपने पापा के गले में बांहे डालकर फ़िर कुनमुनाती हुई सो जाती है। सूरज उसको प्यार से निहारते हुये अपनी ड्यूटी बजाने निकल पड़ते हैं।
एक आटो सड़क पर पसरी धूप को बेरहमी से कुचलता निकलता है। ऊपर से इसे देखकर सूरज का खून खौल जाता है। उनके शरीर का तापमान हजार डिग्री बढ़ जाता है। सूरज की गर्मी देख आटो वाले के पसीने आ जाते हैं। वह अपना स्वेटर उतारकर बगल में धर लेता है। भागता चला जाता है ! सरपट ! दूर ,बहुत दूर । डरते हुये – सड़क पर पसरी सूरज की बच्चियों को रौंदते हुये सलमान खान की तरह।
धूप , पेड़ – पौधों की पत्तियों पर पहुंची। सब सहेलियां आपस में चिपटकर चमकने , बिहंसने, बतियाने लगीं। धूप ने अपने सूरज से धरती तक अपने सफ़र की कहानी सुनाई। यह भी कि कैसे वह रास्ते में, पृथ्वी की परिक्रमा के बहाने मंडराते, तमाम आवारा आकाश पिंडो को गच्चा देते हुये आयी है।
एक सहेली ने कहा कि वे तुम उनको छोड़कर यहां चली आयी वे बेचारे अंधेरे में भटकते, तेरी याद में चक्कर काट रहे होंगे। बड़ी निष्टुर है तू यार धूप! इस पर सब खिलाखिलाकर हंस दीं। पत्तियां तो अब तक हंसते हुये थरथरा रही हैं।
गेंदे का फ़ूल धूप और पत्तियों को हंसते-खिलखिलाते देख अपना सर मटकाते हुये मुस्कराने लगा है। थोड़ा मोटा सा होने के चलते किसी सेठ का पेटू बेटा सा लगता है गेंदे का फ़ूल! उसको सिर मटकाते-मुस्कराते देख एक गुलाब की कली ने अपनी सहेली के कान में फ़ुसफ़ुसाते हुये कहा- बौढ़म कहीं का, बेवड़ा, बावला। ज्यादा नजदीकी के चक्कर में उसका कांटा सहेली-कली के चुभ गया। वह, उई मां! कहते हुये झल्लाते हुये तेजी से फ़ुसफ़ुसाई – गेंदे की आशिकिन अपना ये कांटा संभाल। हमारी नयी पत्ती में छेद कर दिया। ये तो रफ़ू भी नहीं होती कहीं
धूप,पत्तियों, फ़ूल, कलियों को चहकते-महकते देख पूरी कायनात मुस्कराने लगी।
गुनगुनी धूप सी पसरी है
मेरे चारो तरफ़।
कोहरा तुम्हारी अनुपस्थिति की तरह
उदासी सा फ़ैला है।
धीरे-धीरे
धूप फ़ैलती जा रही है
कोहरा छंटता जा रहा है।
धूप अलसाई सी लेटी है
By फ़ुरसतिया on February 3, 2013
सुबह दरवाजा खोलते ही धूप दिखी। एकदम दरवज्जे तक आकर ठहरी हुयी सी। जैसे सूदूर से कोई फ़रियादी किसी हाकिम के यहां पहुंच जाये। लेकिन उसके दरवज्जे में घुसने की हिम्मत न होने पर वहीं ठिठका खड़ा रहे कि अब क्या करूं!
ठिठकी धूप देखकर अपनी तुकबंदी/कविता याद आती है:
जाड़े में धूपधूप सड़क , मैदान, छत, बरामदे में अलसाई सी लेटी है। उसको आज न दफ़्तर जाना है, न कचहरी न इस्कूल। ऊपर सूरज जी गर्म से हो रहे हैं। लगता है धूप को डांट रहे हैं – उसके आलस के लिये। शायद कह रहे हों -उठ जा बिटिया ब्रश करके नास्ता कर ले उसके बाद थोड़ा पढ़ ले। एक्जाम आने वाले हैं।
आहिस्ते से आती है,
धीमें-धीमे सहमती हुई सी।
जैसे कोई अकेली स्त्री
सावधान होकर निकलती है
अनजान आदमियों के बीच से।
धूप सहमते हुये
गुजरती है चुपचाप
कोहरे, अंधेरे और जाड़े के बीच से।
धूप लाड़ली अपने पापा के गले में बांहे डालकर फ़िर कुनमुनाती हुई सो जाती है। सूरज उसको प्यार से निहारते हुये अपनी ड्यूटी बजाने निकल पड़ते हैं।
एक आटो सड़क पर पसरी धूप को बेरहमी से कुचलता निकलता है। ऊपर से इसे देखकर सूरज का खून खौल जाता है। उनके शरीर का तापमान हजार डिग्री बढ़ जाता है। सूरज की गर्मी देख आटो वाले के पसीने आ जाते हैं। वह अपना स्वेटर उतारकर बगल में धर लेता है। भागता चला जाता है ! सरपट ! दूर ,बहुत दूर । डरते हुये – सड़क पर पसरी सूरज की बच्चियों को रौंदते हुये सलमान खान की तरह।
धूप , पेड़ – पौधों की पत्तियों पर पहुंची। सब सहेलियां आपस में चिपटकर चमकने , बिहंसने, बतियाने लगीं। धूप ने अपने सूरज से धरती तक अपने सफ़र की कहानी सुनाई। यह भी कि कैसे वह रास्ते में, पृथ्वी की परिक्रमा के बहाने मंडराते, तमाम आवारा आकाश पिंडो को गच्चा देते हुये आयी है।
एक सहेली ने कहा कि वे तुम उनको छोड़कर यहां चली आयी वे बेचारे अंधेरे में भटकते, तेरी याद में चक्कर काट रहे होंगे। बड़ी निष्टुर है तू यार धूप! इस पर सब खिलाखिलाकर हंस दीं। पत्तियां तो अब तक हंसते हुये थरथरा रही हैं।
गेंदे का फ़ूल धूप और पत्तियों को हंसते-खिलखिलाते देख अपना सर मटकाते हुये मुस्कराने लगा है। थोड़ा मोटा सा होने के चलते किसी सेठ का पेटू बेटा सा लगता है गेंदे का फ़ूल! उसको सिर मटकाते-मुस्कराते देख एक गुलाब की कली ने अपनी सहेली के कान में फ़ुसफ़ुसाते हुये कहा- बौढ़म कहीं का, बेवड़ा, बावला। ज्यादा नजदीकी के चक्कर में उसका कांटा सहेली-कली के चुभ गया। वह, उई मां! कहते हुये झल्लाते हुये तेजी से फ़ुसफ़ुसाई – गेंदे की आशिकिन अपना ये कांटा संभाल। हमारी नयी पत्ती में छेद कर दिया। ये तो रफ़ू भी नहीं होती कहीं
धूप,पत्तियों, फ़ूल, कलियों को चहकते-महकते देख पूरी कायनात मुस्कराने लगी।
मेरी पसंद
तुम्हारी यादगुनगुनी धूप सी पसरी है
मेरे चारो तरफ़।
कोहरा तुम्हारी अनुपस्थिति की तरह
उदासी सा फ़ैला है।
धीरे-धीरे
धूप फ़ैलती जा रही है
कोहरा छंटता जा रहा है।
Posted in बस यूं ही | 7 Responses
धूप फ़ैलती जा रही है
कोहरा छंटता जा रहा है।
-शुभ संकेत हैं..शुभकामनाएँ.
समीर लाल की हालिया प्रविष्टी..आहिस्ता आहिस्ता!!
indian citizen की हालिया प्रविष्टी..सरोकार की पत्रकारिता और वेब-साइट पर तस्वीरें
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..बस, बीस मिनट
सावधान होकर निकलती है
अनजान आदमियों के बीच से।…….
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प्रणाम.
उदासी सा फ़ैला है।
भाव पूर्ण अभिवयक्ति
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..भाषा इन गूंगो की -सतीश सक्सेना