http://web.archive.org/web/20140420081659/http://hindini.com/fursatiya/archives/4460
आजकल शहरों में भीड़ बहुत हो जाती है. रास्तों में जाम का ट्रैफ़िक वालों के पास एक ही इलाज होता है कि भीड़ वाले रास्ते को ’एकल दिशा मार्ग’ घोषित कर दो. वन वे घोषणा इत्ते चुपके से होती कि रोज के राहगीर तक को पता नहीं चलता. सुबह काम पर निकलते समय जो रास्ता दोनो तरफ़ था वह शाम को लौटते समय वन वे हो जाता है. ट्रैफ़िक वाले किसी भी रस्ते पर वन का बोर्ड ऐसे चुपके से लगा देते हैं जैसे अपने घर की बला टालने के लिये लोग रात के अंधेरे में चौराहे पर टोना-टटका धर जाते हैं. जिसने चौराहा पार किया उसके सर पर बलाय और जिसने ’वन वे’ अनुशासन तोड़ा उस पर जुर्माना.
आज के समय में किसी भी योजना में घपले और शहर के किसी भी रस्ते के ’एकल दिशा मार्ग’ बन जाने के बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता.
ऐसे ही हम भी कल एक एकल दिशा मार्ग में फ़ंस गये. गये तो पता ही नहीं था कि मार्ग एकल दिशा है. कहीं बोर्ड लगा नहीं दिखा. हम सड़क को आना-जाना एक समान समझते हुये चले आ रहे थे. अगल-बगल जबर ट्रैफ़िक मानों सुरीली आवाज में गा रहा हो- गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांको जी.
अचानक एक सिपाही ने हाथ दिया. हमें लगा शायद शरीफ़ समझकर सलाम करना चाहता हो. लेकिन उसने इशारे से गाड़ी किनारे करने को कहा. हमें लगा शायद वह हमारा इंटरव्यू लेना चाह रहा था. हम किनारे होने लगे.
हमेशा की तरह श्रीमतीजी माजरा तेजी से भांपीं और बोली कि अरे उधर मत जाओ. गाड़ी घुमाओ. इधर लगता है ’वन वे’ है.
लेकिन तब तक जाम हद से ज्यादा बढ़ गया था. हम मजबूरन सूरमा चाल से घबराते हुये सिपाही की तरफ़ बढ़े. हाथ में पहचान पत्र ले लिया. हम कांपती हुयी आवाज में रोब से बात करने लगे.
सिपाही ने अपराध बताया. हम ’वन वे’ को ’टू वे ’ बनाने पर तुले थे. कानून का उल्लंघन किया था. सजा एक हजार रुपये मात्र.
एक हजार जुर्माने ने हमें बहस के लिये हिम्मत जुटा दी. भले ही रुपया गिर रहा है लेकिन मध्यम वर्गीय आदमी के लिये सौ-पचास के जुर्माने से ज्यादा का जुर्माना बहस के उकसाता है.
हमने बिना बजरंगबली का नाम लिये बहस शुरु कर दी.
हम अभी गये थे. बस यहीं तक. वहीं से गाड़ी घुमा रहे थे. हम ट्रैफ़िक उल्लंघन करने वाले थोड़ी हैं. अनुशासित नागरिक हैं.
सिपाही ने हमारे अनुशासन की अपील खारिज कर दी. बोला साहब से बात कल्लीजिये. साहब मतलब दरोगा जी.
हमने हथियार के रूप में अपना पहचान पत्र निकाल के सामने हिलाया. अपने सारे आर.टी.ओ. दोस्तों के नाम एक साथ फ़ेंक दिये दरोगा जी के कान में.
लेकिन साहब पसीजे नहीं. शायद कान में कुछ तकलीफ़ हो.
हमें बड़ा खराब लगा. जिस महकमें के मातहत अपने साहब के नाम का लिहाज न करें उस महकमें का भगवान ही मालिक. नौकरशाही इतनी खुदगर्ज और अफ़सर निरपेक्ष हो गयी है देखकर अफ़सोस हुआ. बिना तीखी बहस कोई गुजारा नहीं. हम अरविन्द केजरीवाल हो गये.
हमने अकड़कर पूछा -यहां ’वन वे’ कब से हो गया? जैसे हम कहना चाह रहे हों कि बिना हमारी परमिशन के आपकी हिम्मत कैसे हुयी इसे ’एकल दिशा मार्ग’ करने की.
पिछले हफ़्ते से. साहब ने अकड़कर आंख तरेरते हुये सूचना दी. कहने का मतलब यह था कि कोई रास्ता ’वन वे’ क्या जनता से पूछ के बनाया जायेगा.
यहां कहां लिखा है कि यह ’वन वे’ है? -हमने अकड़ के जड़त्व में पूछा.
उसने अपनी जीप के पीछे लगा, जैसे किसी छोटे शहर के लोग विकास के नाम अपने शहर का मॉल दिखाते हैं , छटंकी सा बोर्ड दिखाया. किसी स्थानीय कंपनी के सौजन्य से उसमें लिखा था – एकल दिशा मार्ग. उल्लंघन करने पर एक हजार जुर्माना.
जुर्माने की राशि सुनकर हम एक बार फ़िर बौखलाये. समानता का सिद्धांत लेकर दरोगा पर उलझ गये -देखिये वो आपके सिपाही उस गाड़ी को लौटा रहे हैं. उसको वापस कर रहे हैं. हमको भी वापस जाने दीजिये.
लेकिन दरोगा की गरदन में वसूली और कर्तव्यबोध का ’जुड़वां स्पांडलाइटिस’ था. वह गर्दन घुमाकर गाड़ियों को देख नहीं पा रहा था. हमारा परिचय पत्र अपने हाथ में लेकर जुर्माने की रसीद बनाने लगा.
देखिए ये आपके सामने से जा रहे हैं लोग. इनको क्यों नहीं पकड़ते आप. जुर्माना वसूलना है तो सबसे वसूलिये.- हमारी श्रीमती जी भी संकट में साथ हो लीं. महीने की आखिरी हफ़्ते एक हजार रुपये बहुत लगते हैं वह भी जुर्माने में जायें तो चोट दोगुनी लगती है.
वे लाल बत्ती में जा रहे हैं. आपको इतना तो समझ होनी चाहिये. लाल बत्ती वालों पर कौन जुर्माना लगता है. -दरोगा जी ने समझाया.
सब लड़के बैठे हैं उसमें. बच्चे. कोई अफ़सर थोड़ी बैठा है उसमें. -श्रीमती जी ऊंचे स्वर में बोली.
लालबत्ती का आपको पता है कुछ. लालबत्ती , लालबत्ती होती है. उसमें कुत्ता भी बैठा हो तो उसको भी नहीं टोका जाता. -दरोगा जी ने लालबत्ती का प्रोटोकॉल बताया.
हमारा परिचय पत्र अपने कब्जे में लेते हुये वह जुर्माने की रसीद बनाने लगा. अब हम अपना सारा अधिकार बोध, समानता का सिद्धांत, बहस की अकड़ भूलकर जुर्माने के मोलभाव पर उतर आये. दरोगा जी नाम,पता, वल्दियत पूछते हुये निर्लिप्त भाव से रसीद काटते रहे. रसीद काटने समय पूछी जानी वाली हर सूचना का जबाब देते हुये हम श्लोक की तरह दरोगा को एक-दो रसूख वाले दोस्तों के नाम भी फ़ूंकते रहे. दोस्तों के नाम लेते समय हम उन दोस्तों को कोसते भी गये कि क्या फ़ायदा ऐसे जलवे का कि नाम लेने के बाद भी जुर्माना देना पड़े.
अंतत: हजार रुपये से चली हुयी जुर्माने की रकम तीन सौ पर टूटी.
जुर्माना भरकर घर आते हुये हम यह दोनों यह तय नहीं कर पा रहे थे कि जुर्माने के तीन सौ ठुके कि सात सौ बचे. आप बताइये आपको क्या लगता है.
(नयी दुनिया में 3 जुलाई को प्रकाशित)
वन वे ट्रैफ़िक में फ़ंसा एक आम नागरिक
By फ़ुरसतिया on July 5, 2013
आजकल शहरों में भीड़ बहुत हो जाती है. रास्तों में जाम का ट्रैफ़िक वालों के पास एक ही इलाज होता है कि भीड़ वाले रास्ते को ’एकल दिशा मार्ग’ घोषित कर दो. वन वे घोषणा इत्ते चुपके से होती कि रोज के राहगीर तक को पता नहीं चलता. सुबह काम पर निकलते समय जो रास्ता दोनो तरफ़ था वह शाम को लौटते समय वन वे हो जाता है. ट्रैफ़िक वाले किसी भी रस्ते पर वन का बोर्ड ऐसे चुपके से लगा देते हैं जैसे अपने घर की बला टालने के लिये लोग रात के अंधेरे में चौराहे पर टोना-टटका धर जाते हैं. जिसने चौराहा पार किया उसके सर पर बलाय और जिसने ’वन वे’ अनुशासन तोड़ा उस पर जुर्माना.
आज के समय में किसी भी योजना में घपले और शहर के किसी भी रस्ते के ’एकल दिशा मार्ग’ बन जाने के बारे में कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता.
ऐसे ही हम भी कल एक एकल दिशा मार्ग में फ़ंस गये. गये तो पता ही नहीं था कि मार्ग एकल दिशा है. कहीं बोर्ड लगा नहीं दिखा. हम सड़क को आना-जाना एक समान समझते हुये चले आ रहे थे. अगल-बगल जबर ट्रैफ़िक मानों सुरीली आवाज में गा रहा हो- गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हांको जी.
अचानक एक सिपाही ने हाथ दिया. हमें लगा शायद शरीफ़ समझकर सलाम करना चाहता हो. लेकिन उसने इशारे से गाड़ी किनारे करने को कहा. हमें लगा शायद वह हमारा इंटरव्यू लेना चाह रहा था. हम किनारे होने लगे.
हमेशा की तरह श्रीमतीजी माजरा तेजी से भांपीं और बोली कि अरे उधर मत जाओ. गाड़ी घुमाओ. इधर लगता है ’वन वे’ है.
लेकिन तब तक जाम हद से ज्यादा बढ़ गया था. हम मजबूरन सूरमा चाल से घबराते हुये सिपाही की तरफ़ बढ़े. हाथ में पहचान पत्र ले लिया. हम कांपती हुयी आवाज में रोब से बात करने लगे.
सिपाही ने अपराध बताया. हम ’वन वे’ को ’टू वे ’ बनाने पर तुले थे. कानून का उल्लंघन किया था. सजा एक हजार रुपये मात्र.
एक हजार जुर्माने ने हमें बहस के लिये हिम्मत जुटा दी. भले ही रुपया गिर रहा है लेकिन मध्यम वर्गीय आदमी के लिये सौ-पचास के जुर्माने से ज्यादा का जुर्माना बहस के उकसाता है.
हमने बिना बजरंगबली का नाम लिये बहस शुरु कर दी.
हम अभी गये थे. बस यहीं तक. वहीं से गाड़ी घुमा रहे थे. हम ट्रैफ़िक उल्लंघन करने वाले थोड़ी हैं. अनुशासित नागरिक हैं.
सिपाही ने हमारे अनुशासन की अपील खारिज कर दी. बोला साहब से बात कल्लीजिये. साहब मतलब दरोगा जी.
हमने हथियार के रूप में अपना पहचान पत्र निकाल के सामने हिलाया. अपने सारे आर.टी.ओ. दोस्तों के नाम एक साथ फ़ेंक दिये दरोगा जी के कान में.
लेकिन साहब पसीजे नहीं. शायद कान में कुछ तकलीफ़ हो.
हमें बड़ा खराब लगा. जिस महकमें के मातहत अपने साहब के नाम का लिहाज न करें उस महकमें का भगवान ही मालिक. नौकरशाही इतनी खुदगर्ज और अफ़सर निरपेक्ष हो गयी है देखकर अफ़सोस हुआ. बिना तीखी बहस कोई गुजारा नहीं. हम अरविन्द केजरीवाल हो गये.
हमने अकड़कर पूछा -यहां ’वन वे’ कब से हो गया? जैसे हम कहना चाह रहे हों कि बिना हमारी परमिशन के आपकी हिम्मत कैसे हुयी इसे ’एकल दिशा मार्ग’ करने की.
पिछले हफ़्ते से. साहब ने अकड़कर आंख तरेरते हुये सूचना दी. कहने का मतलब यह था कि कोई रास्ता ’वन वे’ क्या जनता से पूछ के बनाया जायेगा.
यहां कहां लिखा है कि यह ’वन वे’ है? -हमने अकड़ के जड़त्व में पूछा.
उसने अपनी जीप के पीछे लगा, जैसे किसी छोटे शहर के लोग विकास के नाम अपने शहर का मॉल दिखाते हैं , छटंकी सा बोर्ड दिखाया. किसी स्थानीय कंपनी के सौजन्य से उसमें लिखा था – एकल दिशा मार्ग. उल्लंघन करने पर एक हजार जुर्माना.
जुर्माने की राशि सुनकर हम एक बार फ़िर बौखलाये. समानता का सिद्धांत लेकर दरोगा पर उलझ गये -देखिये वो आपके सिपाही उस गाड़ी को लौटा रहे हैं. उसको वापस कर रहे हैं. हमको भी वापस जाने दीजिये.
लेकिन दरोगा की गरदन में वसूली और कर्तव्यबोध का ’जुड़वां स्पांडलाइटिस’ था. वह गर्दन घुमाकर गाड़ियों को देख नहीं पा रहा था. हमारा परिचय पत्र अपने हाथ में लेकर जुर्माने की रसीद बनाने लगा.
देखिए ये आपके सामने से जा रहे हैं लोग. इनको क्यों नहीं पकड़ते आप. जुर्माना वसूलना है तो सबसे वसूलिये.- हमारी श्रीमती जी भी संकट में साथ हो लीं. महीने की आखिरी हफ़्ते एक हजार रुपये बहुत लगते हैं वह भी जुर्माने में जायें तो चोट दोगुनी लगती है.
वे लाल बत्ती में जा रहे हैं. आपको इतना तो समझ होनी चाहिये. लाल बत्ती वालों पर कौन जुर्माना लगता है. -दरोगा जी ने समझाया.
सब लड़के बैठे हैं उसमें. बच्चे. कोई अफ़सर थोड़ी बैठा है उसमें. -श्रीमती जी ऊंचे स्वर में बोली.
लालबत्ती का आपको पता है कुछ. लालबत्ती , लालबत्ती होती है. उसमें कुत्ता भी बैठा हो तो उसको भी नहीं टोका जाता. -दरोगा जी ने लालबत्ती का प्रोटोकॉल बताया.
हमारा परिचय पत्र अपने कब्जे में लेते हुये वह जुर्माने की रसीद बनाने लगा. अब हम अपना सारा अधिकार बोध, समानता का सिद्धांत, बहस की अकड़ भूलकर जुर्माने के मोलभाव पर उतर आये. दरोगा जी नाम,पता, वल्दियत पूछते हुये निर्लिप्त भाव से रसीद काटते रहे. रसीद काटने समय पूछी जानी वाली हर सूचना का जबाब देते हुये हम श्लोक की तरह दरोगा को एक-दो रसूख वाले दोस्तों के नाम भी फ़ूंकते रहे. दोस्तों के नाम लेते समय हम उन दोस्तों को कोसते भी गये कि क्या फ़ायदा ऐसे जलवे का कि नाम लेने के बाद भी जुर्माना देना पड़े.
अंतत: हजार रुपये से चली हुयी जुर्माने की रकम तीन सौ पर टूटी.
जुर्माना भरकर घर आते हुये हम यह दोनों यह तय नहीं कर पा रहे थे कि जुर्माने के तीन सौ ठुके कि सात सौ बचे. आप बताइये आपको क्या लगता है.
(नयी दुनिया में 3 जुलाई को प्रकाशित)
Posted in बस यूं ही | 10 Responses
फुरसतिया महाराज
पटा रहे, कब से खड़े
लेकर बटुआ हाथ !
कह कट्टा कविराय , न पकडे फर्जीवाडा
दो सौ दिए छिपाय , बंद न गाडी करदे !
कट्टा कानपुरी असली वाले की हालिया प्रविष्टी..अपनी गलियों में,अक्सर ही,हमने गौतम लुटते देखे !- सतीश सक्सेना
प्रणाम.
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..च से बन्नच और छ से पिच्चकल्ली
माने, अब तक तो ब्लॉग से मसाला अखबारों में जाता था, अब अखबारों से वापस मसाला ब्लॉग में आएगा.
बहरहाल, इस उन्नति (अरविंद मिश्र जी के शब्दों में?) के लिए बधाईयाँ!
Kajal Kumar की हालिया प्रविष्टी..कार्टून :- इनका बॉस भी एक दम गधा है
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..मिथक का मतलब
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..है अदृश्य पर सर्वव्याप्त भी
हमेशा की तरह ही बढ़िया लिखा है .
Alpana की हालिया प्रविष्टी..खुद को छलते रहना..
Monika Jain की हालिया प्रविष्टी..Poem on True Happiness