http://web.archive.org/web/20140420081906/http://hindini.com/fursatiya/archives/4490
फ़टाफ़ट क्रिकेट -खलीफ़ा तरबूजी के बमकने से लेकर धोनी की फ़िनिशिंग तक
By फ़ुरसतिया on July 14, 2013
कभी बच्चों की पत्रिका पराग में के.पी. सक्सेना ’खलीफ़ा तरबूजी’
के किस्से लिखते थे। धारावाहिक किस्तें। एक किस्त में खलीफ़ा एक क्रिकेट
मैच देखने जाते हैं। सुराही, पान, हुक्का और सब टंडीला लेकर पहुंचते हैं
इस्टेडियम। एक खिलाड़ी की तेज शॉट को एक फ़ील्डर गेंद ,पेट के पास हाथ लाकर ,
लपककर मैदान में लेट जाता है। आउट हुआ खिलाड़ी पवेलियन की तरफ़ लपकता है।
बाकी खिलाड़ी उछलने, खुशी मनाने लगते हैं। खलीफ़ा तरबूजी बमकने लगते हैं- ये
देखो उसकी खिलाड़ी के पेट में गेंद मारकर भागा जा रहा है अगला और उसके साथ
के खिलाड़ी मर्दुये सब उसको पकड़ने की जगह खुशी मना रहा हैं। उठाओ उसको,
डॉक्टर बुलाओ। कैसे साथ के लोग हैं- लाहौलविलाकूवत।
बाद में खलीफ़ा को पता चलता है खेल के बारे में। उसके अलग किस्से हैं। खलीफ़ा सच्चे खेल प्रेमी थे सो हार-जीत से अलग खेल के बारे में सोचते थे। आज लोग सिर्फ़ हार-जीत के बारे में सोचते हैं। इसीलिये हलकान रहते हैं।
बहरहाल , परसों पता चला कि भारत की क्रिकेट टीम त्रिकोणीय श्रंखला जीत गयी। आखिरी ओवर की जीत के चर्चा मीडिया में हैं- बाकी सारे मुद्दे पीछे धकियाते हुये। मजा देखिये तीन टीमें खेली उसको टूर्नामेंट बना दिया। आगे लगता है दो टीमों के बीच भी टूर्नामेंट होंगे। कई फ़ाइनल होंगे। एक पहले बैटिंग का फ़ाइनल, दूसरा पहिले फ़ील्डिंग का फ़ाइनल, इसके बाद ये फ़ाइनल, वो फ़ाइनल फ़िर डकवर्थ लुईस वाला फ़ाइनल। सबमें देश सांस रोककर बेहाल होता रहेगा मैच के पीछे।
हम तो रात लंबी तान के सो गये। सुबह पता चला देवांशु से कि धोनी माना नहीं, भारत को जिता दिया। हमने कहा -ये तो गड़बड़ किया। हारना चाहिये था।
क्रिकेट जैसे अनिश्चित खेल में भी अगर सब सोचे मुताबिक हो जाये तब तो हो चुका। क्रिकेट बीच में फ़िक्सिंग के चलते जरा बदनाम सा हुआ लेकिन अब फ़िर लगता है उसकी हालत में सुधार हो रहा है। लोग क्रिकेट के नाम पर फ़िर समय बर्बाद करने लगे हैं। पोस्ट लिखने लगे हैं।
क्रिकेट की फ़िक्सिंग पर जो बवाल मचाते हैं उनको सोचना चाहिये कि क्रिकेट में सब तो फ़िक्स है, पिच की लंबाई, चौड़ाई, ओवर की गेंदें, खिलाड़ी की संख्या, ओपनर, अंपायर, थर्ड अंपायर, कप्तान, उपकप्तान, विकेटकीपर, कमेंट्रटर, विशेषज्ञ हेन-तेन तो एक ठो परिणाम और फ़िक्स हो जाने से कौन पहाड़ टूटता है। फ़ालतू का बवाल।
क्रिकेट की अनिश्चितता वाली अदा बड़ी जालिम लगती है। बहुत हाला-डोला मचता है कभी-कभी। जीत राणा के चेतक सी इधर-उधर लपकती है- था अभी यहां अब यहां नहीं, किस अरि मस्तक पर कहां नहीं। जो टीम जीतती लगती है वह हारने लगती है, हारते-हारते जीत जाती है। कुछ पता नहीं चलता कभी-कभी कि जीतने वाला जीतेगा भी या हार के ही मानेगा। राजनीतिक पार्टियों के गठबंधन के तरह पता नहीं चलता कि जीतती टीम कब जीत से अपना गठबंधन सिद्धांतों के आधार पर तोड़ ले।
कभी-कभी तो टीमें खेल में जीत-हार का इतना वैरियेशन इस्तेमाल करती हैं कि लगता है मार्डन संगीत सुन रहे हैं। जीत का आखिरी तक पता नहीं चलता किसके पक्ष में वोट डालेगी। कभी-कभी तो ऐन टाइम पर वोटिंग से वॉक आउट कर जाती है। मैच ड्रा या टाई हो जाता है।
कभी-कभी तो खिलाड़ी जबरियन जीत-हार को इधर-उधर उछालते रहते हैं। राहत सामग्री की तरह पता नहीं चलता कि किधर गिरेगी जीत की पोटली। अच्छा-खासा जीतती टीम अचानक कहने लगती है- नहीं जीतते , जाओ क्या कल्लोगे?
कभी-कभी खिलाड़ी यह दिखाने के चक्कर में पड़ जाते हैं कि वे मैच के परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं। लोस्कोरिंग में बायकाट से भी धीमी गति से बैटिंग करने लगते हैं ( बकौल Gyan Dutt Pandey : जैफ बायकाट बैटिंग कर रहे थे। एक दर्शक पेड़ पर बैठा नीरस मैच देख रहा था। उसे झपकी आ गयी। टपक गया और सिर में चोट से अस्पताल मेँ भर्ती कराया गया। होश में आने पर जब यह पता चला कि बायकाट तब भी बैटिंग कर रहा था तो वह पुन: बेहोश हो गया। … कोमा में! )। पहले आसानी से हासिल होने वाले टुइयां से स्कोर को पहाड़ सरीखा असंभव बनाते हैं। इसके बाद जब मैच फ़ंस जाता है तो फ़िर उसको जीतने में जान लगा देते हैं। जीत हासिल करके हीरो जैसा बन जाते हैं। कई दिनों तक मीडिया हीरो बने रहते हैं। पैसे, विज्ञापन, रुतबा बढ़ता है। लोग उनकी तारीफ़ में कढ़ाई करते हैं कि कैसे अगले ने मैच बचाया, जिताया। लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि यही बरखुरदार थे जिन्होंने मैच को जीत के नेशनल हाईवे से हार की तंग गली में फ़ंसा दिया था। लोग मैच निकालने वाले को लपक कर सम्मानित करने के चक्कर में फ़ंसाने वाले को भूल जाते हैं।
मैच फ़ंसाकर निकालने की अदा दिखाने वाले खिलाड़ियों की हरकतें प्रोफ़ेशनल कालेज के उन लड़कों जैसी लगती हैं जो इम्तहान के पहले किताबों की धूल झाड़ना हराम समझते हैं और लेकिन इम्तहान नजदीक आने पर किताबों सी ऐसे जुड़ जाते हैं जैसे चुनाव के समय में जनप्रतिनिधि जनता से। पहले मैच फ़ंसाने के लिये पसीना बहाना फ़िर मैच बचाने/जिताने के लिये बनियाइन भिगोना।
इस चक्कर में देखने वालों के दिल की धड़कने सेंसेक्स की तरह ऊपर नीचे और चीयरबालाओं के ठुमकों की तरह उचकती-गिरती रहती हैं। ब्लॉड प्रेशर डालर की कीमतों के तरह और रुपयों की औकात की तरह झटका देता है।
क्रिकेट मैच को जिस तरह अपने खिलाड़ी जबरियन आखिरी ओवर तक घसीट के ले जाते हैं उससे किसी भावुक क्रिकेट प्रेमी की सदमे से मौत हो सकती है और किसी खिलाड़ी पर गैर इरादतन हत्या का मुकदमा ठुक सकता है।
खेल के उतार-चढ़ाव का क्रिकेट प्रेमियों के दिल पर तगड़ा असर होता है। प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी इसी झटके में गये। सचिन का आउट होना झेल नहीं पाये। चले गये।
उतार चढ़ाव की बात से याद आया कि घरों, मोहल्लों, दफ़्तरों में तमाम लोग मैच के रोमांचक क्षणों में एक ही पोज में बैठे रहते हैं। हिलते नहीं इस डर से कि जहां वे हिले नहीं , टीम का विकेट हिल जायेगा। रोमांचक मैच दर असल इनके कारण ही जीते जाते हैं। लेकिन क्रेडिट, पैसा और विज्ञापन मैदान के लोगों मिलते हैं।
बहरहाल अब भारत जीत चुका है। कुछ दिन के लिये शांति हुई हल्ले-गुल्ले से। अब अगला मैच होने तक भारत में मैच के रोमांच के चलते सदमे से निपटने की आशंका संभावना कम हुई है। है कि नहीं?
बाद में खलीफ़ा को पता चलता है खेल के बारे में। उसके अलग किस्से हैं। खलीफ़ा सच्चे खेल प्रेमी थे सो हार-जीत से अलग खेल के बारे में सोचते थे। आज लोग सिर्फ़ हार-जीत के बारे में सोचते हैं। इसीलिये हलकान रहते हैं।
बहरहाल , परसों पता चला कि भारत की क्रिकेट टीम त्रिकोणीय श्रंखला जीत गयी। आखिरी ओवर की जीत के चर्चा मीडिया में हैं- बाकी सारे मुद्दे पीछे धकियाते हुये। मजा देखिये तीन टीमें खेली उसको टूर्नामेंट बना दिया। आगे लगता है दो टीमों के बीच भी टूर्नामेंट होंगे। कई फ़ाइनल होंगे। एक पहले बैटिंग का फ़ाइनल, दूसरा पहिले फ़ील्डिंग का फ़ाइनल, इसके बाद ये फ़ाइनल, वो फ़ाइनल फ़िर डकवर्थ लुईस वाला फ़ाइनल। सबमें देश सांस रोककर बेहाल होता रहेगा मैच के पीछे।
हम तो रात लंबी तान के सो गये। सुबह पता चला देवांशु से कि धोनी माना नहीं, भारत को जिता दिया। हमने कहा -ये तो गड़बड़ किया। हारना चाहिये था।
क्रिकेट जैसे अनिश्चित खेल में भी अगर सब सोचे मुताबिक हो जाये तब तो हो चुका। क्रिकेट बीच में फ़िक्सिंग के चलते जरा बदनाम सा हुआ लेकिन अब फ़िर लगता है उसकी हालत में सुधार हो रहा है। लोग क्रिकेट के नाम पर फ़िर समय बर्बाद करने लगे हैं। पोस्ट लिखने लगे हैं।
क्रिकेट की फ़िक्सिंग पर जो बवाल मचाते हैं उनको सोचना चाहिये कि क्रिकेट में सब तो फ़िक्स है, पिच की लंबाई, चौड़ाई, ओवर की गेंदें, खिलाड़ी की संख्या, ओपनर, अंपायर, थर्ड अंपायर, कप्तान, उपकप्तान, विकेटकीपर, कमेंट्रटर, विशेषज्ञ हेन-तेन तो एक ठो परिणाम और फ़िक्स हो जाने से कौन पहाड़ टूटता है। फ़ालतू का बवाल।
क्रिकेट की अनिश्चितता वाली अदा बड़ी जालिम लगती है। बहुत हाला-डोला मचता है कभी-कभी। जीत राणा के चेतक सी इधर-उधर लपकती है- था अभी यहां अब यहां नहीं, किस अरि मस्तक पर कहां नहीं। जो टीम जीतती लगती है वह हारने लगती है, हारते-हारते जीत जाती है। कुछ पता नहीं चलता कभी-कभी कि जीतने वाला जीतेगा भी या हार के ही मानेगा। राजनीतिक पार्टियों के गठबंधन के तरह पता नहीं चलता कि जीतती टीम कब जीत से अपना गठबंधन सिद्धांतों के आधार पर तोड़ ले।
कभी-कभी तो टीमें खेल में जीत-हार का इतना वैरियेशन इस्तेमाल करती हैं कि लगता है मार्डन संगीत सुन रहे हैं। जीत का आखिरी तक पता नहीं चलता किसके पक्ष में वोट डालेगी। कभी-कभी तो ऐन टाइम पर वोटिंग से वॉक आउट कर जाती है। मैच ड्रा या टाई हो जाता है।
कभी-कभी तो खिलाड़ी जबरियन जीत-हार को इधर-उधर उछालते रहते हैं। राहत सामग्री की तरह पता नहीं चलता कि किधर गिरेगी जीत की पोटली। अच्छा-खासा जीतती टीम अचानक कहने लगती है- नहीं जीतते , जाओ क्या कल्लोगे?
कभी-कभी खिलाड़ी यह दिखाने के चक्कर में पड़ जाते हैं कि वे मैच के परिणाम को प्रभावित कर सकते हैं। लोस्कोरिंग में बायकाट से भी धीमी गति से बैटिंग करने लगते हैं ( बकौल Gyan Dutt Pandey : जैफ बायकाट बैटिंग कर रहे थे। एक दर्शक पेड़ पर बैठा नीरस मैच देख रहा था। उसे झपकी आ गयी। टपक गया और सिर में चोट से अस्पताल मेँ भर्ती कराया गया। होश में आने पर जब यह पता चला कि बायकाट तब भी बैटिंग कर रहा था तो वह पुन: बेहोश हो गया। … कोमा में! )। पहले आसानी से हासिल होने वाले टुइयां से स्कोर को पहाड़ सरीखा असंभव बनाते हैं। इसके बाद जब मैच फ़ंस जाता है तो फ़िर उसको जीतने में जान लगा देते हैं। जीत हासिल करके हीरो जैसा बन जाते हैं। कई दिनों तक मीडिया हीरो बने रहते हैं। पैसे, विज्ञापन, रुतबा बढ़ता है। लोग उनकी तारीफ़ में कढ़ाई करते हैं कि कैसे अगले ने मैच बचाया, जिताया। लेकिन लोग यह भूल जाते हैं कि यही बरखुरदार थे जिन्होंने मैच को जीत के नेशनल हाईवे से हार की तंग गली में फ़ंसा दिया था। लोग मैच निकालने वाले को लपक कर सम्मानित करने के चक्कर में फ़ंसाने वाले को भूल जाते हैं।
मैच फ़ंसाकर निकालने की अदा दिखाने वाले खिलाड़ियों की हरकतें प्रोफ़ेशनल कालेज के उन लड़कों जैसी लगती हैं जो इम्तहान के पहले किताबों की धूल झाड़ना हराम समझते हैं और लेकिन इम्तहान नजदीक आने पर किताबों सी ऐसे जुड़ जाते हैं जैसे चुनाव के समय में जनप्रतिनिधि जनता से। पहले मैच फ़ंसाने के लिये पसीना बहाना फ़िर मैच बचाने/जिताने के लिये बनियाइन भिगोना।
इस चक्कर में देखने वालों के दिल की धड़कने सेंसेक्स की तरह ऊपर नीचे और चीयरबालाओं के ठुमकों की तरह उचकती-गिरती रहती हैं। ब्लॉड प्रेशर डालर की कीमतों के तरह और रुपयों की औकात की तरह झटका देता है।
क्रिकेट मैच को जिस तरह अपने खिलाड़ी जबरियन आखिरी ओवर तक घसीट के ले जाते हैं उससे किसी भावुक क्रिकेट प्रेमी की सदमे से मौत हो सकती है और किसी खिलाड़ी पर गैर इरादतन हत्या का मुकदमा ठुक सकता है।
खेल के उतार-चढ़ाव का क्रिकेट प्रेमियों के दिल पर तगड़ा असर होता है। प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी इसी झटके में गये। सचिन का आउट होना झेल नहीं पाये। चले गये।
उतार चढ़ाव की बात से याद आया कि घरों, मोहल्लों, दफ़्तरों में तमाम लोग मैच के रोमांचक क्षणों में एक ही पोज में बैठे रहते हैं। हिलते नहीं इस डर से कि जहां वे हिले नहीं , टीम का विकेट हिल जायेगा। रोमांचक मैच दर असल इनके कारण ही जीते जाते हैं। लेकिन क्रेडिट, पैसा और विज्ञापन मैदान के लोगों मिलते हैं।
बहरहाल अब भारत जीत चुका है। कुछ दिन के लिये शांति हुई हल्ले-गुल्ले से। अब अगला मैच होने तक भारत में मैच के रोमांच के चलते सदमे से निपटने की आशंका संभावना कम हुई है। है कि नहीं?
Posted in बस यूं ही | 8 Responses
प्रभाष जोशी वाली बात पता नहीं थी | अभी उनका विकी पेज देखे |
और मैच जीतने से फिक्सिंग की बात पर मट्ठा पड़ गया | बेचारे न्यूज़ चैनल अब काहे पर डिस्कसिआयेंगे
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..चीर-फाड़ , पोसमार्टम !!!!
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..बिचारी कर्मनाशा!