व्यंग्य के बहाने -4
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इतवार को सुधीश पचौरी ने अपने स्तम्भ ’तिरछी नजर’ में लिखा:
" हिन्दी के सभी ’सम्मानों’ की एक लिस्ट बनाई जाये तो उनकी कुल संख्या एक हजार भी न बैठेगी। अगर मिलने वाली कुल रकम का टोटल किया जाये, तो वह रकम एक करोड़ तक भी न पहुंचेगी।"
आगे अपनी बात कहते हुये उन्होंने लिखा:
" यह भी कोई सम्मान है? एक घटिया सा शाल मरे से कन्धे पर डलवा, और 20 रुपये वाला ना्रियक थाम जो हिन्दी वाला अपने को अहोभाग्य समझता है , वह हिन्दी का दुश्मन नंबर एक है।"
जब से हमने यह लेख पढा तबसे हम हिन्दी के कई दुश्मन नंबर एक को पहचान चुके हैं।
साहित्य की बात को व्यंग्य तक सीमित किया जाये तो सम्मानों की संख्या 50 तक पहुंचेगी। दो साल पहले जबलपुर में ’व्यंग्य यात्रा’ पर निकले लालित्य ललित ने कहा था कि ’आजकल करीब 30 लोग व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैंं।’ मतलब अगर इनाम कायदे से बांटे जायें और एक साल में एक लेखक को एक ही इनाम मिले तो हर साल एक लेखक के पल्ले डेढ इनाम आ जायेगा। इस लिहाज से देखा जाये तो इनाम ज्यादा है। लिखने वाले कम। भौत असन्तुलन है इनाम के क्षेत्र में।
लेकिन ऐसा है नहीं। लिखने वाले कुछ ज्यादा हैं शायद। इसीलिये जब भी किसी इनाम की घोषणा होती है, बड़ा हल्ला मचता है। जिसको इनाम दिया जाता है उसकी सारी कमियां सामने आ जाती हैं। जितने लोग तारीफ़, बधाई देते हैं उससे कम लोग उसकी कमियां बताने वाले नहीं होते हैं। किसी लेखक का अगर अगर कोई सच्चा मूल्यांकन करना चाहे तो उसके नाम एक इनाम की घोषणा कर देनी चाहिये।
पिछले साल जो व्यंग्य के जो भी इनाम घषित हुये उनमें से (मेरी जानकारी में) सबसे ज्यादा बवाल ’अट्टहास सम्मान’ पर हुआ। हरि जोशी और नीरज वधबार को अट्टहास पुरस्कार मिले। इनाम की घोषणा होते ही दोनों को इनाम की बधाई और इनाम के लिये अपात्र घोषित करने की कवायद शुरु हो गयी।
अपात्र घोषित करने वालों ने नीरज वधबार को वनलाइनर तक सीमित बताया और हरि जोशी पर सपाटबयानी की धारा तामील की। बहुत हल्ला मचा। लेकिन इनाम मिलकर रहा। फ़ोटो-सोटो भी शानदार हुये।
बाद में पता चला कि जो लोग हल्ला मचा रहे थे और जिन्होंने बहिष्कार भी किया उसके पुरस्कृत लेखकों के विरोध से ज्यादा इस बात की पीड़ा थी इनाम उनके हिसाब से क्यों नहीं बांटे गये। और भी कारण रहे होंगे जो मुझे नहीं पता लेकिन विरोध के सीन से काफ़ी मनोरंजन हुआ।
साहित्य की अन्य विधाओं की तरह व्यंग्य में भी इनाम का सिलसिला शहर, प्रदेश और देश के हिसाब चलता है। इनामों का इलाकाई बंटवारा होता है अधिकतर। मुंबई की संस्था को महाराष्ट्र के बाहर के लेखक नजर नहीं आते, राजस्थान वालों की नजर राजस्थान से होते हुये दिल्ली तक ठहर जाती है। लखनऊ के लेखकों के वर्चस्व वाले समूह वलेस को तो सम्मान के लिये लखनऊ के ही लोग सुपात्र नजर आते हैं। पिछले साल और इस साल ( निरस्त हुये) घोषित कुल 5 इनामों में 4 लखनऊ से हैं। अब तो मैं बाहर हो गया इस समूह से वर्ना इस शानदार प्रवृत्ति के साथ न्याय करने के लिये इस अंतर्राष्ट्रीय समूह का नाम वलेस की बजाय ललेस (लखनऊ लेखक समिति) रखने का प्रस्ताव रखता (भले ही प्रस्ताव रखने के फ़ौरन बाद समूह से निकाल दिया जाता )
साल दो साल पहले तक जब तक मैं बड़े व्यंग्य लेखकों से जुड़ा नहीं था तब तक उनके लेखन के हिसाब से उनकी छवि मेरे मन में थी। लेकिन सोशल मीडिया की कृपा से लेखकों के प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संपर्क में आया तो इस तरफ़ भी ध्यान गया। लेखन-तपस्या के साथ इनाम- यज्ञ के लिये भी मंत्रोच्चार करते देखा लोगों को। इनाम देने में प्रभावी भूमिका रख सकने वाले लोग पटाये जा रहे हैं। लेखकों को देवता बनाया जा रहा है। देवता को पता ही नहीं चल रहा है। जब तक पता चलता है तब तक उसका मंदिर बन जाता है। बेचारा देवता विवश मंदिर में कैद होकर रह जाता है।
पहले जब फ़ोन कम थे, संपर्क साधन कम थे तब तक यह सब हसीन व्यवहार काफ़ी दिनों तक छिपे रहते थे। पता भी चलते थे तो बहुत देर में। लेकिन आज आपने किसी से बात की नहीं कि वह जरूरी लोगों तक फ़ौरन पहुंच जाती है। अब वह लिहाज का भी जमाना नहीं कि लोग चुप रह जायें। फ़ौरन प्रतिक्रिया होती है। कभी-कभी तीखी भी।
पहले जब फ़ोन कम थे, संपर्क साधन कम थे तब तक यह सब हसीन व्यवहार काफ़ी दिनों तक छिपे रहते थे। पता भी चलते थे तो बहुत देर में। लेकिन आज आपने किसी से बात की नहीं कि वह जरूरी लोगों तक फ़ौरन पहुंच जाती है। अब वह लिहाज का भी जमाना नहीं कि लोग चुप रह जायें। फ़ौरन प्रतिक्रिया होती है। कभी-कभी तीखी भी।
खैर यह सब तो चलता रहता है। हम जिस समय में जी रहे हैं वह घात-प्रतिधात और चिरकुटैयों का समय है। बड़ी लकीर खींचने का समय कम है लोगों के पास इसलिये अगले की लकीर मिटाकर काम चलाया जा रहा है। लेकिन इस समय में भी तमाम लोग हैं जो अपने व्यवहार से बताते रहते हैं कि समय की छलनी से छनकर केवल वह आगे जायेगा जिसमें कुछ तत्व होगा। इसलिये घात-प्रतिघात, चिरकुटैयों से विलग रहकर काम किया जाना चाहिये- अच्छा काम।
लेकिन सम्मान प्राप्त करना एक बात है और अच्छा लिखना दूसरी बात। आज जितने लोग सक्रिय हैं व्यंग्य लेखन में और जिनकी भी चार-छह किताबें आ गयी हैं उनकों कम-ज्यादा सम्मान मिलकर ही रहेंगे। व्यवहार और मेल जोल जितना अच्छा रहेगा , इनाम उतनी जल्दी मिलेगा।
लेकिन अच्छा और बहुत अच्छा लिखने में इनाम-सिनाम कोई सहायता नहीं करते। मेरा यह मानना बिना अच्छे मन के नियमित अच्छा लेखन नहीं हो सकता है। बहुत अच्छा लिखने के लिये मन बहुत अच्छा , उद्दात (कम से कम लेखन के समय ) होना चाहिये। बिना अच्छे मन के बड़े काम नहीं होते।
यह सब ऐसे ही लिखा। गड्ड-मड्ड टाइप। आपका सहमत होना जरूरी नहीं। आपकी अपनी राय होगी। बताइये क्या कहना है आपका इस बारे में ?
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