इतवार को सुबह तसल्ली से होती है। हुई भी। उठे 6 बजे और साइकिल की गद्दी झाड़कर चल दिये। अधबने ओवरब्रिज के अगल-बगल की सड़क उबड़-खाबड़। स्वाभाविक प्रसव की सहज मुफ्तिया प्रयोगशाला सी है सड़क।
शुक्लागंज की तरफ जाने वाली सड़क पर चहल-पहल। लोग आ-जा रहे थे। रिक्शेवाले घण्टी बजाते चले आ रहे थे। जबाब में जा भी रहे थे। तीन महिलाएं सामने से आती दिखीं। तसल्ली से टहलती हुई। लग रहा था बस अभी आंख खुली और सड़क पर आ गईं। क्या पता 'मेरी सड़क मेरी जिंदगी' वाले आह्वान पर निकली हों। लेकिन किसी के हाथ में सेल्फी वाला फोन तो दिखा नहीं। बिना सेल्फी कैसी जिंदगी, कैसी सड़क।
दाएं-बाएं रिक्शे वाले अपने रिक्शे चमका रहे थे। पानी से धो रहे थे। रिक्शों का श्रृंगार कर रहे थे। रिक्शे भी राजा बेटा की तरह खड़े चुपचाप अपना फेशियल, बॉडीयल करा रहे थे।
एक आदमी खरामा-खरामा साईकल चलाता चला जा रहा था। वह भी फोटो में आ गया। अभी ध्यान से देखा तो लगा उसकी साईकल के पहियों की हवा आम आदमी के हौसलों से निकली हुई है।
पुल के पास ही कुठरियानुमा घरों के बाहर एक बच्चा नंगधड़ंग बिंदास लेटा हुआ था। जब तक फोटो खींचते तब तक गाड़ी आगे बढ़ गई।
नदी बढ़ी हुई थी। एक लड़का दो साथियों के साथ नाव खेया चला जा रहा था। कभी जहां खरबूजे बोये हुए थे अब वहां नाव चल रही है। इसका उलट भी होता है, बल्कि ज्यादा होता है। कभी जहां नदी-तालाब होते थे अब वहां इमारतें खड़ी हैं। उत्तराखण्ड में जहां नदी बहती थी वहां लोगों ने घर, होटल बना लिए। जब नदी दौरे पर निकली तो सबको दौड़ा के रगड़ा के मारा।
पुल पर जाता एक रिक्शेवाला बड़े वाले मोबाइल पर किसी से बतियाता चला जा रहा था। आहिस्ते-आहिस्ते। सामने एक स्कूल का इश्तहार दिख रहा था। नदी के तट को छूता हुआ। शिक्षा व्यवस्था की तरह नदी में डूबने को तत्पर।
शुक्लागंज की तरफ बढ़ते हुए दाईं तरफ के मकानों में लोग छत पर सोये हुए थे। एक छत पर एक महिला चद्दर घरिया रही थी। बार-बार तह करती घरियाती। लगता है कुछ सोचती भी जा रही थी।
शुक्लागंज पहुंचते ही सामने एक आदमी साइकिल पर चार बोरे आलू लादे ले जाते दिखा। हमारी साईकल ने जरूर सन्तोष की सांस ली होगी कि उस पर वजन कम लदा है।
लौटने के लिए इस बार नए पुल की तरफ से आये। पुल के पास दो बच्चे, शायद भाई बहन होंगे, एक बोरे पर लदे खेल रहे थे। आसपास के गांव के होंगे। हरछठ की पूजा में लगने वाले पत्ते बेंचने आये होंगे। ग्राहक नहीं आये तो खेलने लगे।
पुल पर पहुंचे तो देखा लोग नीचे देख रहे थे। हमने भी देखा। एक पेड़ के नीचे इकट्ठा कुछ बच्चे पढ़ रहे थे। अच्छा लगा। साईकल मोड़ दी। नदी किनारे कुछ बच्चे तमाम बच्चों को इकठ्ठा किये पढ़ा रहे थे।
सामने ही एक बाबा खड़ेश्वरी का बोर्ड लगा दिखा। 2003 से हठयोगी बाबा खड़े हुए हैं। पांव की नशें फट गई हैं। लेकिन खड़े हुए हैं। बताया संकल्प किया था भाजपा की सरकार बनेगी इसलिए हठयोग किया था। 2015 में घोषणा की थी योगी जी मुख्यमंत्री बनेंगे। अब सरकार बन गयी। हठयोग में बहुत ताकत होती है। हमें लगा बताओ सरकार बनाई बाबा जी ने अपने हठयोग से और श्रेय दूसरे लोग ले रहे हैं।
बाबा जी की झोपड़िया में कटिया की बिजली है। नोकिया का फोन है। सस्ता टेबलेट है। मसाला पुड़िया हैं। एक युवा चेला है। गैस-फैस है। बाहर एक स्टैंड टाइप है। जिसके सहारे खड़े होकर बाबा लोगों को दर्शन टाइप देते हैं।
पता चला भिंड के रहने वाले हैं बाबा जी। नौ साल के थे तब से घर त्याग दिया।
दुकान पर चाय पीते हुए लोगों से बाबा जी के बारे में बात करते हैं। कुछ लोग कहते हैं बाबा जी बहुत पहुँचे हुए हैं। दूसरा आहिस्ते से बोलता है-'सबके अपने-अपने धंधे हैं।'
लौटते हुए क्रासिंग के पास दो बच्चे एक छोटे बच्चे को लकड़ी की गाड़ी के सहारे चलना सिखा रहे हैं। बच्चे की नाक बह रही है। नंगे पांव सड़क पर चलना सीख रहा है। पास ही सड़क पर पड़ी खटिया पर बैठी औरत तसल्ली से बीड़ी सुलगाती हुई अपने बच्चे को निहार रही है। उसका आदमी चारपाई से पेट सटाये हुए बिंदास सो रहा है।
लौटते हुए सूरज भाई आसमान पर चमक रहे हैं। एकदम नदी के ऊपर बल्ब की तरह चमक रहे हैं। शायद मुआयना कर रहे हों कि नदी में कहीं ऑक्सीजन तो नहीं कम हो गयी।
लौटकर घर आये और अब दफ्तर जा रहे हैं। आज ड्यूटी है। बहुत काम है।
आप मजे से रहिये। शाम को सुनाआएँगे बाकी का किस्सा। ठीक। खूब प्यार से रहिएगा। खुद से लड़ियेगा नहीं। लड़ने का मूड बने तो मुस्करियेगा। मन बदल जायेगा। ठीक न। 💐
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