ये भाईजी आज टाटमिल चौराहे से घंटाघर की तरफ़ जाने वाले पुल पर मिले। पीठ पर तमाम तरह का सामान लादे, जिसमें शायद भारत में बनने वाली हर साइज की प्लास्टिक बोतल भी थी आहिस्ता-आहिस्ता टहलते हुये चले जा रहे थे। हमारे लिये जो कूड़ा हो सकता था उसको सहेजे हुये जाता इंसान कई परतों वाले कपड़े पहने था। दायीं तरफ़ सेंट्रल स्टेशन। बायीं तरफ़ निर्माणाधीन पानी की टंकी।
हमने भाईजी से बात करनी चाही तो उन्होंने सवालों की सर्जिकल स्ट्राइक कर डाली। पूछा कहीं बाहर से आये हो क्या? हमने कहा -’कानपुर में रहते हैं?’
वो बोले-’ कानपुर में कहां?’
हम बोले-’ आर्मापुर’।
वो बोले-’ आर्मापुर कहां कानपुर में है? हमको पढाते हौ? कहीं चोरी करने तो नहीं आये? जिन्दगी बीत गई हमारी कानपुर में। आर्मापुर है ही नहीं कानपुर में।"
हमने कहा-’ अरे हम क्या शकल से चोर लगते हैं?’
इस बात का जबाब न दिया अगले ने। आर्मापुर को कानपुर से बाहर साबित करता रहा। हमने हर चौराहा गिनाना- टाटमिल, अफ़ीमकोठी, जरीबचौकी, फ़जलगंज, विजयनगर चौराहा। फ़िर आर्मापुर। लेकिन भाई जी ने फ़जलगंज के आगे का कोई इलाका कानपुर में क्या कहीं भी शामिल मानने साफ़ मना कर दिया।
बढी हुई दाढी वाले इंसान के कई दांत गायब थे। इससे उनकी कड़क टाइप आवाज की हवा निकल कर आवाज को कमजोर कर दे रही थी। अगर दांत होते तो कडक आवाज से हम ज्यादा ही हडक जाते। शायद मान ही लेते खुद को चोर।
सामने से देखा तो जितनी प्लास्टिक की बोतलें पीठ पर थीं उससे कुछ ज्यादा ही सीने पर लदी थीं। उसकी हड़काई से इतना आतंकित हुये कि हमारी सिट्टी और पिट्टी दोनों गुम हो गयीं। कुछ देर में हम और वो दोनों अपने-अपने रास्तों की तरफ़ गम्यमान हुये।
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