कल व्यंग्य यात्रा का साठवां अंक मिला। दो प्रतियां। दो अंक ही भेजवाते हैं प्रेम जनमेजय जी । जब से भेजना शुरु किया तब से ही। शायद सुरक्षा कारणों से ऐसा करते हों। ’व्यंग्य यात्रा’ की अकेली प्रति जाने से मना करती हों। डर लगता होगा। पाठकों से, व्यंग्यकारों से। दो प्रतियां साथ रहेंगी तो सुरक्षा रहेगी।
व्यंग्य यात्रा के प्रख्यात व्यंग्यकारों पर केंद्रित अंक फ़िर-फ़िर पढने योग्य हैं। लेकिन लफ़ड़ा यह कि ऐन मौके पर पत्रिका दायें-बायें हो जाती है। छपाई-प्रूफ़ के लिहाज से व्यंग्य यात्रा चकाचक पत्रिका है। विभिन्न स्तम्भों के हिसाब से रचनायें अलग-अलग मिजाज की।
पाथेय की इस बार की रचनाओं में परसाईजी की -एक मध्यमवर्गीय कुत्ता और मनोहरश्याम जोशी की ’इस देश का यारों क्या कहना’ उनकी प्रसिद्द रचनायें हैं।
चिंतन में व्यंग्य पर केंद्रित कई लेख हैं। व्यंग्य पर इतनी बातचीत पढते हुये पाठक अगर सावधान न रहे तो रहे तो सही में उसके व्यंग्य विशेषज्ञ होने का खतरा है। अपने भाई एम.एम.चन्द्रा जी एम.एम. चन्द्रा तो इतने हुनरमंद व्यंग्य विशेषज्ञ हैं कि व्हाट्सएप पर बतकही को भी अपने चिंतन में शामिल कर लेते हैं।
त्रिकोणीय व्यंग्य यात्रा का बहुत अच्छा प्रयोग है। इसके माध्यम से व्यंग्ययात्रा के संपादक नये -पुराने-भूले-बिसरे-स्थापित-अस्थापित व्यंग्यकारों से परिचय कराते रहते हैं। इस बार जिन तीन व्यंग्यकारों का परिचय कराया व्यंग्य यात्रा वे हैं अरविन्द विद्रोही , मधुसूदन पाटिल और कुंदनसिंह परिहार। पत्रिका में इनका परिचय , रचनायें और उनके साक्षात्कार भी हैं। इन रचनाकारों के बारे में पढकर अच्छा लगा।
गद्य और पद्यव्यंग्य में कई जानने वाले साथियों के व्यंग्य हैं। उनको आहिस्ते-आहिस्ते बांचेंगे। इधर पढी जाने वाली किताबों में अन्य किताबों के अलावा संतोष त्रिवेदी की किताब ’ नकटों के शहर में’ के बारे में कुछ लिखा गया है। आखिरी पैरा सलाह है- " संतोष को हिन्दी व्यंग्य के हित के लिये अपना आलस्य त्यागना होगा और विषयों की विविधता पर भी नजर डालनी होगी।"
लिखा तो आगे भी कुछ और है लेकिन वो हम न बतायेंगे। आप लोग खुदै बांचियेगा अगर किताब मिली हो। अब लेकिन मसला यह है कि मास्टर साहब अपना आलस्य त्यागेंगे क्या? हिन्दी व्यंग्य का हित क्या होकर ही रहेगा?
व्यग्य यात्रा के प्रधान संपादक प्रेम जन्मेजय जी हैं। यह वाकई काबिलेतारीफ़ बात है कि वे लगातार यात्राओं, समारोहों, आयोजनों, गोष्ठियों, महोत्सवों के बावजूद यह पत्रिका पिछले 15 वर्षों से निकाल रहे हैं। व्यंग्य यात्रा के प्रधान संपादक होने के चलते उनका हक है कि वे अपने हिसाब से इसमें रचनायें छापें। वे इसका भरपूर उपयोग भी करते हैं। व्यंग्य के साथ अपने से जुड़ी खबरों को विस्तार से स्थान देने में कोई कन्जूसी नहीं करते।
लेकिन इस चक्कर में कभी-कभी कुछ मजेदार रचनायें भी छप जाती हैं। इसी अंक में एक छपी एक रचना का शीर्षक है -" जो काम परसाई ने नहीं किया वह प्रेम जन्मेजय ने किया"। इसमें कुल्लू में व्यंग्य महोत्सव की रपट छपी है। इस रपट में बताया गया है कि " व्यंग्य शिविरों का आयोजन कर जो काम प्रेम जन्मेजय ने किया वह परसाई ने नहीं किया।"
इस शीर्षक को और फ़िर रपट को पढकर मुझे हंसी आई। कवि यहां कहना क्या चाहता है यह समझ नहीं आया ! परसाई जी व्यंग्य शिविर नहीं आयोजित कर पाये प्रेम जी कर रहे हैं?
इस तरह की रपट लिखी जाती हैं। मुग्ध भाव से अकेले में पढी भी जा सकती हैं लेकिन ऐसे शीर्षक पढकर हंसी ही आती है। परसाई जी 2000 के दशक में विदा हो गये। तब फ़ेसबुक नहीं था। ब्लाग नहीं था। आज सोशल मीडिया पर लिखने वाला हर लेखक कह सकता है-" जो काम परसाई ने नहीं किया वह हमने किया।"
ऐसा शायद अति व्यस्तता के चलते भी हुआ हो लेकिन इस तरह के शीर्षक सनसनीखेज समाचार की तरह ही लगते हैं ।
यह टिप्पणी व्यंग्य यात्रा के अंक को उलट-पलटकर देखते हुये ही। इसके लिये उकसाया Arvind Tiwariअरविन्द तिवारी जी की आज की व्यंग्य यात्रा पर लिखी टिप्पणी ने। उसका लिंक नीचे। इसी बहाने आज व्यंग्य यात्रा का चन्दा भी भेजा गया और मुफ़्त में पत्रिका पढने के अपराध बोध से मुक्ति भी।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217956784244677
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