पिछली पोस्ट में होटल के पास के स्तूप को देखने का किस्सा लिखा था। Chandra Bhushan जी ने पूछा -' यह कौन सा स्तूप है? देखने से बोधा स्तूप लग रहा है। '
इसके बाद और जानकारी ली नेट से तो पता चला कि जिस स्तूप को हम ऐसे ही चलताऊ तरीक़े से देखकर लौट वह कितना खास है। युनेस्को की विश्व धरोहर में शामिल यह स्तूप लिच्छवी राजवंश के समय बना था। मिथक के अनुसार उस राजा विक्रमादित्य ने अपने महल के अहाते पानी के जलस्रोत बनवाया। उसमें पानी नहीं आया तो राजा ने पानी लाने का उपाय पूछा। ज्योतिषियों ने बताया कि 32 गुणों से सम्पन्न किसी इंसान की बलि देने पर पानी आएगा। 32 गुण वाले लोगों में राजा स्वयं एवं उनके दो पुत्र थे। राजा के आदेश पर उनके पुत्र ने उनकी बलि दी। बलि देते समय राजा का सिर कट कर पास स्थित वज्रयोगिनी मंदिर पर जाकर गिरा। राजा के पुत्र ने जिस स्थान पर उनके पिता का सिर गिरा था , स्तूप बनवाने का निश्चय किया।
स्तूप बनवाने के पहले राजपुत्र ने बलि देने का निश्चय किया। बताते हैं कि बलि के लिए मुर्गी स्वयं उस जगह तक गयी जहां आज बोधा स्तूप बना है।
उस समय तक लोग ओस की बूंदों के सहारे सूखे का मुकाबला कर रहे थे इसलिए इस जगह का नाम नेपाली भाषा के अनुसार खस्ती (खस माने ओस, ती माने बूंद) था। बाद में नेपाल के राजा की आज्ञा के अनुसार इस इस जगह का नाम खस्ती से बदलकर बोधनाथ रख दिया।
तिब्बती मिथक के अनुसार एक बुजुर्ग महिला ने कश्यप बुद्ध के निधन के बाद तत्कालीन राजा से एक भैंस की खाल के बराबर जमीन स्तूप बनाने के लिए मांगी। अनुमति मिलने के बाद उसने भैंस की खाल को पतली डोरियों के आकार में काटकर बहुत बड़े हिस्से को घेरकर अपने चार पुत्रों के साथ स्तूप बनाना शुरू कर दिया। जब उस समय के धनी और प्रभावशाली लोगों ने बुजुर्ग महिला को अपनी मेहनत और समझदारी से बड़ी जमीन पर स्तूप बनवाते हुए देखा तो उन्होंने राजा से अपनी आज्ञा निरस्त करने का अनुरोध किया। राजा ने कहा मैं अपने शब्द वापस नहीं ले सकता (नेपाली में खा-शोर) वहीं से इसका नाम (खस्ती) पड़ा।
बाद में जब तिब्बती लोग सन 1950 में नेपाल आये तो तमाम लोगों ने बोधा स्तूप के आसपास रहने का निश्चय किया। 1979 में बोधा स्तूप को विश्व धरोहर में शामिल किया गया।
उपरोक्त दोनों ही मिथकों में तत्कालीन राजाओं की प्रजावत्सलता और अपने दिए वचन पर कायम रहने की नजीर मिलती है। आज के जनप्रतिनिधियों की तरह पलटू नहीं थे वे लोग।
2015 में नेपाल में आये भूकंप में स्तूप क्षतिग्रस्त हो गया था। बाद में उसकी मरम्मत कराई गई।
जिस ऐतिहासिक धरोहर को हम ऐसे ही देखकर लौट आये उसके बारे में जानकारी चंद्रभूषण जी की टिप्पणी के बाद हुई। अगर वो सवाल न पूछते तो हम बोधा स्तूप के बारे में अनजान रह जाते।
चंद्रभूषण जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आधी गणित की पढ़ाई किये हैं। उनके स्वयं के अनुसार 'एक पत्रकार और एक अधूरे कवि' हैं। वे बेहतरीन लेखक हैं। गणित की पढ़ाई आधी छोड़ देने वाले चंद्रभूषण जी की पोस्टों में विज्ञान से जुड़ी नई से नई जानकारी मिलती हैं। समसामयिक राजनीति पर चुटीली टिप्पणियां करते हैं। पिछले साल उनकी तिब्बत पर केंद्रित किताब 'तुम्हारा नाम क्या है तिब्बत' तिब्बत और तिब्बती समस्या को समझने का बेहतरीन जरिया है। किताब खरीदने का लिंक साथ के फोटो में दिया है।
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