बोधा स्तूप के बाहर तमाम कबूतरों का जमावड़ा था। एक कोने में सैकड़ों कबूतर जमा था। पास ही अनेक लोग कबूतरों के लिए दाने लिए बैठे थे। लोग उनसे लेकर दाना कबूतरों को डाल रहे थे।।कबूतर दाने खाते हुए, इठलाते हुए, टहलते हुए अचानक एकाध मिनट की उड़ान भरकर फिर वापस कबूतरों के बीच आ जाते।
कबूतरों के लिए इस तरह का इंतजाम कई जगह देखा है। पिछले साल जयपुर यात्रा में सड़क के डिवाइडर पर कई जगह देखा। लोग दाना बेंचने के लिए बैठे रहते हैं। आते-जाते लोग दाना खरीदकर उनको डालते है। शायद कबूतर भी उन दाना बेंचने वालों के होते हों। कानपुर में फूलबाग के सामने एक कोने में भी तमाम कबूतर इकट्ठा होते हैं। लेकिन यहां दाना बेचने वाला कोई नहीं बैठता। लोग अपने साथ दाना लाते हैं, कबूतरों को खिलाते हैं। कबूतरों की उड़ान एयरशो की तरह लगती है।
कबूतरों को उड़ते देखकर समीक्षा तैलंग Samiksha Telang की किताब का शीर्षक याद आया -कबूतर का कैटवॉक।
कबूतरों का जमावड़ा देखकर लगा कि जहां खाने-पीने का इंतजाम होता है , जीव वहीं जमा होते हैं। रोजी-रोटी के लिए ही लोग आज शहरों की तरफ भाग रहे हैं। शहर उजड़ रहे हैं।
आगे की एक दुकान पर बीसीसी लिखा था -बुद्धा कैसेट सेंटर (Buddha Cassette center)। दुकान अभी खुली नहीं थी।
आगे एक नुक्कड़ पर एक बच्ची जैसी दिखती महिला चाय बेंच रही थी। उसकी पीठ पर बच्चा था। बच्चे को पीठ पर सहेजे महिला लोगों को चाय बेंच रही थी। लोग उसके पास खड़े होकर या पास के चबूतरे पर बैठकर चाय पी रहे थे। हमने उससे बात करके की मंशा से चाय ली और चाय पीते हुए बात करते रहे। वह भी चाय बेंचते हुए, चाय पीते हुए बतियाती रही। रेशमा तमांग नाम था उसका।
रेशमा ने बताया कि दस किलोमीटर दूर घर है उसका। सुबह तीन बजे उठकर चाय बनाती है। घण्टे भर की दूरी तय करके चाय बेंचने आती है। चाय बेंचकर वापस जाती है। पति कमाई करने के लिए सऊदी अरब गया है। अपना खर्च चलाने के लिहाज से चाय बेचने का काम शुरू किया है। यह बात उसने विदेश गए अपने पति को नहीं बताई है यह सोचकर कि -'वह परेशान होगा।'
कुछ ही दिन पहले चाय बेंचना शुरू किया है रेशमा ने। पहले कुछ लोगों ने आपत्ति की लेकिन अब सब ठीक है। चार लीटर करीब चाय लाती है चाय। बिक जाने पर वापस चली जाती है। अपनी कमाई के एहसास से रेशमा बहुत खुश है। थोड़ा खर्च जुट जाता है।
चाय बेंचना कैसा लगता है पूछने पर रेशमा ने बताया -'बहुत अच्छा लगता है। बहुत खुश लग रहा है। चाय का बिक्री हो रहा है।'
बच्चा सहयोग करता है इस काम में पूछने पर रेशमा ने बताया -'बहुत सपोर्ट करता है। बहुत प्यारा बच्चा है मेरा। बिल्कुल परेशान नहीं करता। '
बात करते-करते रेशमा आसपास के लोगों को चाय भी देती जा रही थी। हम चाय पी चुके इस बीच रेशमा दूर किसी को चाय देने चली गयी। लौटकर आयी तब हमने उसको पैसे दिए। चाय पीकर अगला कहीं फूट न ले यह भाव कहीं नहीं दिखा उसके व्यवहार में। सहज विश्वास का भाव उसके चेहरे पर था।
अभाव में जीने के बावजूद उसके चेहरे पर या बातचीत में दैन्य भाव नहीं था। विनम्रता के साथ सहज रुप से बात करते हुए अपनी कठिनाई का जिक्र भले किया लेकिन हाय-हाय वाले भाव मे नहीं। यह भी कहा कि यह काम करते हुए बहुत अच्छा लग रहा है।
रेशमा के पास से चाय पीकर और अगले दिन फिर आने का वादा करके हम आगे बढ़े। उससे विदा लेने के पहले उसके फोटो और वीडियो उसको दिखाया। वह खुश हुई। बोली हमको भी भेज दीजिए। हमने पूछा कैसे भेजेंगे? उसने मेरे मोबाइल पर अपना फेसबुक खाता खोलकर दिखाया। बाद में मैंने देखा कि उसके फेसबुक में उसके बेटे के कई फोटो हैं। एक फोटो में वह बच्चे के साथ घुड़सवारी करते हुए विक्ट्री का निशान बनाये हुए है।
आगे एक जगह कुछ फूलों की दुकानें थीं। लोग फूल खरीद रहे थे। वहीं पास ही तमाम लोग बैठे थे। लोग उनको चाय पिला रहे थे। और भी सामान और कुछ लोग पैसे भी दे रहे थे।
मंदिर की परिक्रमा करते हुए लोग मंदिर की चाहरदीवारी पर लगे पूजा चक्र घुमाते जा रहे थे। कुछ लोग लेटकर भी परिक्रमा कर रहे थे। वे जमीन पर पेट के बल लेट जाते। अपनी लंबाई भर की जमीन नाप कर आगे बढ़ते और जहां उनका सर रहा होगा पहले वहां पैर रखकर फिर शाष्टांग हो जाते। हाथ में खड़ाऊ जैसी लकड़ी बांधे थे। उसी लकड़ी को जमीन पर रखकर वे परिक्रमा कर रहे थे। महिला और पुरुष दोनों ही इस तरह परिक्रमा करते दिखे। लोग उनको बचाकर , उनके बगल से निकलकर तेजी से परिक्रमा करते जाते।
आगे एक बेंच पर एक ब्रिटेन वासी बैठे मिले। बातचीत होने लगी तो बताया उन्होंने कि दस साल से यहां आते-जाते, रुकते-ठहरते रहते हैं। दुनिया में बढ़ती यांत्रिकता और मिलन-जुलन में आई कमी से नाराज से थे। यहां काठमांडू में लोगों का व्यवहार उनको अच्छा लगता है। ब्रिटेन कभी-कभी जाते हैं, दोस्तों से मेल-मुलाकात करने।
बातचीत करते हुए हमको चाय पिलाई उन्होंने। हमने पैसे देने चाहे लेकिन उन्होंने जिद करके खुद पैसे देने के लिए हजार का नोट निकाला। चाय वाले के पास फुटकर नहीं थे। बोले,-'ले आओ।' लेकिन कहीं मिलने का जुगाड़ नहीं दिखा। मैनें पैसे दे दिए। बोले -'कल हम पिलायेंगे तुमको चाय।'
घर से दूर दो मिनट की मुलाकात के बाद कोई चाय पिलाने, पैसा देने की जिद करे, न दे पाने पर अगले दिन पिलाने का वायदा करे यह कितना खुशनुमा एहसास है।
बातचीत करते हुए एक महिला को देखकर -' हेलो, हाउ आर यू कहकर वह उनसे बतियाने लगे।' हैट लगाये वह महिला मुझे परिक्रमा करते हुये दिखी थी। फिनलैंड, हेलसिंकी से आई थी। कुछ देर बात करने के बाद वह चली गयी। हम भी विदा लेकर चल दिये।
चलने के पहले हमने उनका फोटो दिखाया। उन्होंने मेल करने को कहा। मेल खाता लेकर फोटो भेजा वहीं खड़े-खड़े। डिकी नाम है उनका।
लिखते समय याद आया कि जीवन में बढ़ती यांत्रिकता की।लानत-मलानत करते हुए डिकी ने मेरे मोबाइल की तरह इशारा करते हुए ( यांत्रिकता के प्रतीक के रूप में) - 'दिस स्टुपिड मशीन।' डिकी की बात सुनकर हमने अपने मोबाइल को छिपाने की कोशिश की लेकिन तब तक वह सुन तो चुका ही था। मोबाइल समझदार था। उसने अपने को बेवकूफी के प्रतीक के रूप में इशारा किये जाने का बुरा नहीं माना। मोबाइल की जगह कोई प्रभावशाली आइटम होता तो उसकी बेइज्जती का मुद्दा उठाते हुए उसके समर्थक धरना, प्रदर्शन, हल्ला, गुल्ला शुरू कर दिए होते।
लौटते में स्तूप के अंदर गए। लोग पूजा कर रहे थे। दीप जला रहे थे। पूजा चक्र को घुमा रहे थे। पास ही ढेर सारा चूना जमा था। चूना भी पूजा के काम आता है।
स्तूप से बाहर निकलकर हम जिस रास्ते गये थे उसी रास्ते वापस आ गए। दुकानें खुलने लगीं थीं। गली गुलजार हो गयी थी। एक जगह ड्राइवर लोग अपनी कारें साफ करते दिखे। टूरिस्टों के लिए तैयार हो रहीं थी गाड़ियां।
होटल के पिछले दरवाजे को पीटकर खुलवाया। दरबान आया तो देखा कि वहीं पर घण्टी भी लगी है। अनजाने ही हमने हल्ला मचाया। दरबान ने भी हमको हमारी बेवकूफी का एहसास कराते हुए घण्टी के बारे में बताया। वो कहो होटल का दिहाड़ी का दरबान था। कोई स्थायी चौकीदार होता तो शायद कहता-' घण्टी दिखती नहीं तुमको, हल्ला मचाये हुए हो।'
होटल वापस लौटकर काम के लिये निकलने के लिए तैयार होने लगे।
https://www.facebook.com/share/p/4gpFwL8BP5D6kKYA/
No comments:
Post a Comment