बेईमान क्यों हो जाती है नौकरशाही?
यह शीर्षक है उस किताब का जिसे उत्तर प्रदेश में सेवा के अधिकारी रहे डा. हरदेव सिंह जी ने लिखा था। उन्होंने अपनी सरकारी सेवाओं के विविध अनुभवों का ज़िक्र करते हुए नौकरशाही के बेईमान हो जाने के कारणों की पड़ताल की थी। सरकारी सेवा में आने से पहले हरदेव सिंह जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से दर्शन शास्त्र की पढ़ाई की थी इसलिए उनके विवरणों में दर्शन के आधार पर व्याख्याएँ भी थीं।इस किताब का ज़िक्र स्माल आर्मस फ़ैक्ट्री में हमारे महाप्रबंधक रहे Suresh Yadav जी ने किया था। उन्होंने बताया था कि फ़ील्ड गन फ़ैक्ट्री में पोस्टिंग के दौरान उन्होंने वहाँ के राजभाषा विभाग में उपलब्ध यह किताब पढ़ी थे।
मैंने किताब की खोज तो बाज़ार में मिली नहीं। किताब वाणी प्रकाशन से छपी थी। फ़ील्ड गन फ़ैक्ट्री के राजभाषा विभाग से किताब पढ़ने के लिए मँगवाई। किताब में जगह-जगह कई प्रसंगों को अंडरलाइन किया गया था। Suresh Yadav सर ने किताब पढ़ते हुए ऐसा किया था।
किताब इतनी अच्छी लगी थी मुझे कि उसको लौटाने के पहले मैंने उसको फोटोकापी करा के रख ली थी- बाद में पढ़ने के लिए। अभी वह किताब मेरे घर में ही कहीं किताबों के बीच है। कहाँ है खोजना है उसे।
नौकरशाही के बेईमान होने के कई कारणों का ज़िक्र करते हुए हरदेव सिंह जी ने एक कारण पारिवारिक भी बताया था। उनका मानना था कि सिविल सेवाओं में आम तौर पर गरीब, मध्यम वर्गीय घरों के प्रतिभाशाली, मेहनती बच्चे आते हैं। जैसे ही उनका चयन इन सिविल सेवाओं में होता हैं, उनको सम्पन्न, ऊँचे पदों पर तैनात लोग अपनी बेटियों के लिए चुन लेते हैं। अपनी बेटियों की शादी उनसे करा देते हैं।
नौकरशाही में काम करने के दौरान अधिकारियों को जनहित में कई अप्रिय फ़ैसले लेने पड़ते हैं। अक्सर उन फ़ैसलों से सत्ता के हित प्रभावित होते हैं। ऐसे में अधिकारियों को कई तरह से प्रताड़ित करना अब आम बात हो गयी है। उनका तबादला, प्रतिकूल प्रविष्टि और अन्य तमाम साज़िशें होती हैं। पहले ऐसे अधिकारियों को उनके वरिष्ठ अधिकारी बचाते थे। बदलते हालत में वे भी इसी खेल में शामिल हो गए हैं।
हरदेव सिंह जी का मानना है कि अधिकारी स्वयं तो इन अभावों, कष्ट साध्य जीवन जीने के आदी होने के कारण ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों का आसानी से मुक़ाबला कर सकता है लेकिन उनका परिवार जिसको अपने बचपन और बाद में आराम तलबी के जीवन की आदत पढ़ चुकी होती है ये कष्ट झेलने की आदत नहीं होती। अधिकारी अपने परिवार को परेशान नहीं देख पाते। इस परेशानी से बचने के लिए वे ऐसे निर्णय लेने से बचते हैं जिनके कारण उनके ख़िलाफ़ कार्यवाही की आशंका हो और उनका परिवार कष्ट झेले ।
अधिकारियों की इस तरह की प्रताड़नाओं के अनेक उदाहरण हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट में इंदिरागांधी जी के ख़िलाफ़ निर्णय सुनाने वाले जस्टिस खन्ना को आगे पदोन्नत नहीं किया गया। ऐसा सुनने में आता है कि उन्होंने फ़ैसला सुनाने वाले दिन अपनी पत्नी से कहा था -'आज मैं यह फ़ैसला सुनाने जा रहा हूँ, अब मेरा आगे प्रमोशन नहीं होगा।' उनका परिवार उनके साथ था।
आज तमाम न्यायाधीशों के लोगों के नाम किसी को भले याद न हों लेकिन जस्टिस खन्ना का नाम आदर से लिया जाता है। एक ऐसा न्यायाधीश जिसमें तत्कालीन सत्ता के ख़िलाफ़ फ़ैसला लेने की हिम्मत थी।
हरदेव सिंह जी ने जब यह किताब लिखी थी तब उनके सामने उदाहरण के लिए केवल परिवार ही था। वे मानते थे कि परिवार के लोगों के कारण अधिकारी अपने उसूलों से समझौता करते हैं।
गए वर्षों में इसमें परिवार के साथ स्वयं अधिकारी भी शामिल हो गए हैं। उनको अपने सेवा काल के साथ सेवा के बाद भी आरामतलब जिंदगी का लालच हो गया है। इसीलिए सर्वोच्च पदों पर पहुँचने के बाद वे रिटायर होने के बाद भी कोई अच्छा माना जाने वाला पद पाने के लिए सत्ता की चापलूसी करते हैं। उसके हिसाब से निर्णय लेते हैं। काम करते हैं। ऐसा करते समय वे भूल जाते हैं कि भविष्य में उनको, बावजूद तमाम प्रतिभा और ज्ञान के, एक अवसरवादी, चापलूस अधिकारी के रूप में ही याद किया जाएगा।
अपने 36 साल के सेवाकाल में मैंने ऐसे तमाम लोगों को देखा जो व्यक्तिगत तौर स्वयं बहुत अच्छे, ईमानदार अधिकारी थे लेकिन अक्सर ग़लत बात का विरोध करने से बचते रहे ताकि उनके आगे की राह में रोड़े न आएँ। दुनियावी सफलताएँ तमाम बलिदान भी माँगती हैं।
पिछले दिनों अपने न्यायाधीश महोदय के बाबरी मस्जिद के निर्णय के समय ईश्वर की शरण में जाने वाला बयान और उस पर जस्टिस काटजू जी का मत सुना तो किताब में वर्णित यह प्रसंग याद आया। जस्टिस काटजू ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा -' भगवान वाली बात सही नहीं है। फ़ैसले के पीछे न्यायाधीश महोदय का करियरिस्ट होना है।' ( माननीय जस्टिस काटजू साहब की बातचीत की कड़ी टिप्पणी में है)।
आज दुनिया एक बाज़ार में तब्दील हो चुकी है। इंसान भी आइटम में बदलता जा रहा है। उसको भी अपनी क़ीमत चाहिए - जितनी मिल जाए, जितने में निकल जाए। कानपुर के गीतकार 'अंसार कंबरी' कहते हैं:
'अब तो बाज़ार में आ गए 'कंबरी'
अपनी क़ीमत को और हम कम क्या करें?'
ऐसे विकट समय भी तमाम ऐसे लोग हैं सब जगह जो बिकने से इंकार करते हैं। अपने उसूलों से समझौता नहीं करते। इसकी क़ीमत भी चुकाते हैं।
ऐसे लोगों से ही दुनिया ख़ूबसूरत बनी हुई है।
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