कल दफ़्तर के लिये निकले। तिराहे पर मिनी जाम लगा था। एक स्कूटर और ऑटो में टक्कर हुई थी। स्कूटर दोनो टायर करवटियाये सड़क पर लेटा था। ऑटो बगल में चुपचाप खड़ा था। दोनों के सवार टक्कर के बाद अपनी-अपनी गालियों का स्टॉक खाली कर रहे थे।
हमको देर हो रही थी लेकिन इतनी भी नहीं कि बगलिया के निकल लें। इत्ती मेहनत से गाली-गलौज हो रही है उसको अनदेखा करके निकलना गालियों के सौंदर्य का अपमान लगा मुझे। खड़े होकर सुनने लगे।
स्कूटर वाला ऑटो वाले को बड़ी गाड़ी होने के नाते गरिया रहा। ऑटो वाला स्कूटर वाले पर गलत तरीके से चलाने की तोहमत लगा रहा था। दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही थे लेकिन दूसरे की बात मान नहीं पा रहे थे क्योंकि दोनों के पास देने के लिये गालियां और निकालने के फ़ेफ़ड़े में हवा बाकी थी।
स्कूटर और ऑटो अपने मालिकों की गाली गलौज से निर्लिप्त धूप सेकने में व्यस्त थे। स्कूटर लेटे-लेटे और ऑटो खड़े-खड़े धूप से विटामिन डी खैंच रहा था। दोनों को कोई जल्दी नहीं थी कहीं जाने की। दोनों ही किसी ’हूटरी संस्थान’ में मुलाजिम भी नहीं थे जो उनको हाजिरी लगवाने की चिन्ता होती।
जनता निर्लिप्त भाव से ऑटो मालिक और स्कूटर सवार की गालियों का लुत्फ़ उठा रही थी। छोटी सवारी और सड़क पर लम्बलेट होने के नाते लोगों की सहज सहानुभूति स्कूटर वाले के साथ थी। लेकिन स्कूटर वाला गालियां ऊंची आवाज में दे रहा था और गरियाते हुये पोजीशन ऑटो के पास लिये हुये था। लोग उसको ऑटो वाला समझकर अपनीे सहानुभूति जिसके साथ नत्थी कर रहे थे वह वास्तव में वाला था। राम के खाते में जमा होने वाली सहानुभूति श्याम के खाते में जमा हो रही थीं। मल्लब सुबह-सबेरे सरे सडक जनता की आंखों में धूप झोंकते हुये सहानुभूति घोटाला हो रहा था।
लब्बो-लुआब यह कि किसी जनता दरबार में किसी भी लफ़ड़े में जनता अपनी सहज सहानुभूति उसके साथ नत्थी कर देती है जो पहले रो दिया, जिसने अपने दर्द की सूचना पहले दे दी। इसीलिये समझदार लोग किसी को पहले पीटकर पहले रोते हुये अपनी शिकायत लगा देते हैं और सहानुभूति की पूरी की पूरी खेप पर कब्जा कर लेते हैं। मामला खुलने पर दूसरे के हिस्से बची-खुची चिल्लर सहानुभूति ही आ पाती है।
कुछ देर में दोनों की गालियां खल्लास हो गयी। जनता भी गालियों में नयापन न देखकर हार्नियाने लगी और दोनों लोग अपनी गाड़ियां उठाकर अपने-अपने रास्तों पर गम्यमान हुये। विदा होते हुये दोनों ने एक-दूसरे को जिस तरह घूरा उससे लगा दोनों अगर गाड़ियों की जगह किसी प्लेट में होते तो शायद एक दूसरे को खा जाते।
हम भी सड़क खाली होते ही खरामा-खरामा चल दिये। यह सोचते हुये कि आजकल हर तरफ़ गुस्सा बहुत तेजी से बढ रहा है। जिसको देखो वह गुस्से के वाई-फ़ाई कनेक्शन से जुड़ा हुआ है। आदमी गुस्सा पहले करता है, बात बाद में करता है।
हमारे एक साहब तो इतना गुस्सा करते थे कि मारे गुस्से के हकलाने लगते। उनके गुस्से का सौंदर्य वर्णन करते हुये हमने लिखा था :
"गुस्से की गर्मी से अकल कपूर की तरह उड़ गयी। जो मोटी अकल जो उड़ न पायी वो नीचे सरक कर घुटनों में छुप गयी। दिमाग से घुटने तक जाते हुये शरीर के हर हिस्से को चेता दिया कि साहब गुस्सा होने वाले हैं। संभल जाओ। सारे अंग अस्तव्यस्त होकर कांपने लगे। कोई बाहर की तरफ़ भागना चाह रहा था कोई अंदर की तरफ़। इसी आपाधापी में उनके सारे अंग कांपने लगे। मुंह से उनके शब्द-गोले छूटने लगे। मुंह से निकलने वाले शब्द एक दूसरे को धकिया कर ऐसे गिर-गिर पड रहे थे जैसे रेलने के जनरल डिब्बे से यात्री उतरते समय कूद-कूद कर यात्रियों पर गिर-गिर पड़ते हैं।
गुस्से में साहब के मुंह से निकलने वाले बड़े-बड़े शब्द आपस में टकरा-टकरा कर चकनाचूर हो रहे हैं। बाहर निकलने तक केवल अक्षर दिखाई देते हैं। लेकिन वे जिस तरह से बाहर टूट-फ़ूट कर बाहर सुनायी देते हैं उससे पता नहीं लगता कि अक्षर बेचारा किस शब्द से बिछुड़कर बाहर अधमरा गिरा है। ‘ह‘ सुनाई देता तो पता नहीं लगता कि ‘हम‘ से टूट के गिरा है ‘हरामी’ से। हिम्मत खानदान का है या हरामखोर घराने का! अक्षरों का डी.एन.ए. टेस्ट भी तो नहीं होता।"
हम आगे कुछ और सोचते तब तक सामने दो मोटर साइकिल वाले आ गये। एक की मोटर साइकिल खराब हो गयी थी। दूसरे के सहारे आगे चलने के लिये वह कोशिश कर रहा था। पहले मफ़लर पकड़कर आगे बढने की कोशिश की। मफ़लर हाथ से छूट गया। फ़िर हाथ पकड़कर आगे बढा। खतरनाक था सड़क सुरक्षा के लिहाज से लेकिन मैंने उनको टोंका नहीं। वे दो थे हम अकेले। टोंकते तो क्या पता दोनों मिलकर हमको ठोंक देते। इसके बाद रोने लगते। जनता भी हमको ही दोषी मानती क्योंकि हमारी सवारी बड़ी थी।
हम हाथ में हाथ पकड़े मोटरसाइकिल वालों के सौंदर्य को निहारते हुये ’साथी हाथ बढाना ’ गाना गुनगुनाते हुये दफ़्तर आ गये। यह सोचते हुये कि दुनिया बावजूद तमाम सहज चिरकुटईयों के वाकई बहुत खूबसूरत है !
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