Tuesday, November 28, 2017

दुनिया बावजूद तमाम चिरकुटईयों के बहुत खूबसूरत है


कल दफ़्तर के लिये निकले। तिराहे पर मिनी जाम लगा था। एक स्कूटर और ऑटो में टक्कर हुई थी। स्कूटर दोनो टायर करवटियाये सड़क पर लेटा था। ऑटो बगल में चुपचाप खड़ा था। दोनों के सवार टक्कर के बाद अपनी-अपनी गालियों का स्टॉक खाली कर रहे थे।
हमको देर हो रही थी लेकिन इतनी भी नहीं कि बगलिया के निकल लें। इत्ती मेहनत से गाली-गलौज हो रही है उसको अनदेखा करके निकलना गालियों के सौंदर्य का अपमान लगा मुझे। खड़े होकर सुनने लगे।
स्कूटर वाला ऑटो वाले को बड़ी गाड़ी होने के नाते गरिया रहा। ऑटो वाला स्कूटर वाले पर गलत तरीके से चलाने की तोहमत लगा रहा था। दोनों ही अपनी-अपनी जगह सही थे लेकिन दूसरे की बात मान नहीं पा रहे थे क्योंकि दोनों के पास देने के लिये गालियां और निकालने के फ़ेफ़ड़े में हवा बाकी थी।
स्कूटर और ऑटो अपने मालिकों की गाली गलौज से निर्लिप्त धूप सेकने में व्यस्त थे। स्कूटर लेटे-लेटे और ऑटो खड़े-खड़े धूप से विटामिन डी खैंच रहा था। दोनों को कोई जल्दी नहीं थी कहीं जाने की। दोनों ही किसी ’हूटरी संस्थान’ में मुलाजिम भी नहीं थे जो उनको हाजिरी लगवाने की चिन्ता होती।
जनता निर्लिप्त भाव से ऑटो मालिक और स्कूटर सवार की गालियों का लुत्फ़ उठा रही थी। छोटी सवारी और सड़क पर लम्बलेट होने के नाते लोगों की सहज सहानुभूति स्कूटर वाले के साथ थी। लेकिन स्कूटर वाला गालियां ऊंची आवाज में दे रहा था और गरियाते हुये पोजीशन ऑटो के पास लिये हुये था। लोग उसको ऑटो वाला समझकर अपनीे सहानुभूति जिसके साथ नत्थी कर रहे थे वह वास्तव में वाला था। राम के खाते में जमा होने वाली सहानुभूति श्याम के खाते में जमा हो रही थीं। मल्लब सुबह-सबेरे सरे सडक जनता की आंखों में धूप झोंकते हुये सहानुभूति घोटाला हो रहा था।
लब्बो-लुआब यह कि किसी जनता दरबार में किसी भी लफ़ड़े में जनता अपनी सहज सहानुभूति उसके साथ नत्थी कर देती है जो पहले रो दिया, जिसने अपने दर्द की सूचना पहले दे दी। इसीलिये समझदार लोग किसी को पहले पीटकर पहले रोते हुये अपनी शिकायत लगा देते हैं और सहानुभूति की पूरी की पूरी खेप पर कब्जा कर लेते हैं। मामला खुलने पर दूसरे के हिस्से बची-खुची चिल्लर सहानुभूति ही आ पाती है।
कुछ देर में दोनों की गालियां खल्लास हो गयी। जनता भी गालियों में नयापन न देखकर हार्नियाने लगी और दोनों लोग अपनी गाड़ियां उठाकर अपने-अपने रास्तों पर गम्यमान हुये। विदा होते हुये दोनों ने एक-दूसरे को जिस तरह घूरा उससे लगा दोनों अगर गाड़ियों की जगह किसी प्लेट में होते तो शायद एक दूसरे को खा जाते।
हम भी सड़क खाली होते ही खरामा-खरामा चल दिये। यह सोचते हुये कि आजकल हर तरफ़ गुस्सा बहुत तेजी से बढ रहा है। जिसको देखो वह गुस्से के वाई-फ़ाई कनेक्शन से जुड़ा हुआ है। आदमी गुस्सा पहले करता है, बात बाद में करता है।
हमारे एक साहब तो इतना गुस्सा करते थे कि मारे गुस्से के हकलाने लगते। उनके गुस्से का सौंदर्य वर्णन करते हुये हमने लिखा था :
"गुस्से की गर्मी से अकल कपूर की तरह उड़ गयी। जो मोटी अकल जो उड़ न पायी वो नीचे सरक कर घुटनों में छुप गयी। दिमाग से घुटने तक जाते हुये शरीर के हर हिस्से को चेता दिया कि साहब गुस्सा होने वाले हैं। संभल जाओ। सारे अंग अस्तव्यस्त होकर कांपने लगे। कोई बाहर की तरफ़ भागना चाह रहा था कोई अंदर की तरफ़। इसी आपाधापी में उनके सारे अंग कांपने लगे। मुंह से उनके शब्द-गोले छूटने लगे। मुंह से निकलने वाले शब्द एक दूसरे को धकिया कर ऐसे गिर-गिर पड रहे थे जैसे रेलने के जनरल डिब्बे से यात्री उतरते समय कूद-कूद कर यात्रियों पर गिर-गिर पड़ते हैं।
गुस्से में साहब के मुंह से निकलने वाले बड़े-बड़े शब्द आपस में टकरा-टकरा कर चकनाचूर हो रहे हैं। बाहर निकलने तक केवल अक्षर दिखाई देते हैं। लेकिन वे जिस तरह से बाहर टूट-फ़ूट कर बाहर सुनायी देते हैं उससे पता नहीं लगता कि अक्षर बेचारा किस शब्द से बिछुड़कर बाहर अधमरा गिरा है। ‘ह‘ सुनाई देता तो पता नहीं लगता कि ‘हम‘ से टूट के गिरा है ‘हरामी’ से। हिम्मत खानदान का है या हरामखोर घराने का! अक्षरों का डी.एन.ए. टेस्ट भी तो नहीं होता।"
हम आगे कुछ और सोचते तब तक सामने दो मोटर साइकिल वाले आ गये। एक की मोटर साइकिल खराब हो गयी थी। दूसरे के सहारे आगे चलने के लिये वह कोशिश कर रहा था। पहले मफ़लर पकड़कर आगे बढने की कोशिश की। मफ़लर हाथ से छूट गया। फ़िर हाथ पकड़कर आगे बढा। खतरनाक था सड़क सुरक्षा के लिहाज से लेकिन मैंने उनको टोंका नहीं। वे दो थे हम अकेले। टोंकते तो क्या पता दोनों मिलकर हमको ठोंक देते। इसके बाद रोने लगते। जनता भी हमको ही दोषी मानती क्योंकि हमारी सवारी बड़ी थी।
हम हाथ में हाथ पकड़े मोटरसाइकिल वालों के सौंदर्य को निहारते हुये ’साथी हाथ बढाना ’ गाना गुनगुनाते हुये दफ़्तर आ गये। यह सोचते हुये कि दुनिया बावजूद तमाम सहज चिरकुटईयों के वाकई बहुत खूबसूरत है !

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Thursday, November 23, 2017

हर व्यक्ति अपने में मठाधीश है



कल मंडी हाउस में चाय पी गयी। पहुंचते ही एक सर्वेरत बालक ने पकड़ लिया। किसी कंपनी में काम करता है। कंपनी की तरफ़ से सर्वे का काम मिला है। वही कर रहा है। चार-पांच सवाल थे। दस साल पहले (2007) और आज (2017) के दूध, पेट्रोल , चीनी, गैस के दाम बताये गये थे। एक आम आदमी के अनुसार हमको बताना था कि इन चीजों के दस साल बाद क्या दाम होंगे। हमने अपनी समझ के हिसाब से बताये।
अब हमसे कोई बालक मुफ़्त में कुछ पूछ जाये ये कैसे हो सकता है। हमने भी पूछना शुरु किया बालक के बारे में। पता चला बालक बनारसी है। जौनपुर से ग्रेजुएशन किया है। पिता व्यापार करते हैं बनारस में। बालक भी करना चाहता है। पिता ने कहा - ’पहले अनुभव कर लो कि व्यापार कैसे किया जाता है। क्या परेशानियां होती हैं। इसके बाद करायेंगे व्यापार।’ इसी सिलसिले में अंकुर वर्मा नामराशि बालक दिल्ली में आ गया है। पिछले चार माह से सर्वे कम्पनी में काम करता हुआ व्यापार के लिये खुद को तैयार कर रहा है।
पूछने पर बालक अपने बारे में बताता है। खाना बहुत अच्छा बनाता है। घर से आने के बाद मम्मी को परेशानी हो गयी है कि खाना बनाने वाला बालक दिल्ली चला गया। यहां दोस्तों के साथ साझे में रहता है। खाना साथ बनाता है। कंपनी करीब पंद्रह हजार देती है महीने के। ट्रान्सपोर्ट एलाउन्स मिलाकर। दिन में करीब 25 सर्वे करने होते हैं। दोपहर तक 12-13 कर चुका था।
बातचीत के दौरान खूब बाते हुईं। हमने पूछा - ’दिल्ली में कोई सहेली बनी कि नहीं?’ बालक ने बताया - ’नहीं ।’ हमने पूछा - ’क्यों ? सर्वे कम्पनी में तो कई बालिकायें भी होंगी।’
बालक ने बताया -’ हमको लड़कियों से बात करने में संकोच होता है। इसलिये अभी तक कोई बालिका-सहेली नहीं बनी।’
हमने कहा -’ संकोच कैसा? जैसे हमसे पर्चा भरवाया वैसे किसी बालिका से भरवाओ फ़िर बात करो। संकोच कम होगा।’
’लेकिन पर्चा भरवाने और बात करने में अन्तर है’- बालक ने अपनी समस्या जाहिर करते हुये कहा।
बालक से बतियाते हुये हमने आलोक पुराणिक को फ़ोन किया। फ़ोन करते ही बगल से ही गुजरते हुये आलोक पुराणिक पलटकर मिले। मल्लब फ़ोन न करते तो आगे निकल जाते।
आलोक पुराणिक ने भी अंकुर का सर्वे पर्चा भरा। बालक को बालिकाओं से बतियाने के टिप्स दिये। बालक दूसरे सर्वे करने चला गया। हम लोग मंडी हाउस टहलने लगे। थोड़ी देर बाद ही वहां कमलेश पाण्डेय आ गये। फ़िर दो घंटे गप्पाष्टक हुआ। चाय-साय पी गयी। मजे-मजे में बतियाते हुये व्यंग्य और व्यंग्यकारों पर बात-चीत हुई।
एक बात मठाधीशी पर भी हुई। आलोक पुराणिक ने हमको नवोदित मठाधीश बताते हुये फ़ोटो वायरल कर दी। हमने मना नहीं किया। कर दो।
मठाधीशी पर बात करते हुये एक मजेदार बात निकलकर सामने आयी कि हर तीसरे दिन कोई न कोई व्यंग्यकार मठाधीशी की खिल्ली उड़ाते हुये कोई पोस्ट लिखता है। ऐसी पोस्ट्स को लगभग सभी लोग पसंद करते हैं और मठाधीश/मठाधीशी की निन्दा करते हैं। तो सवाल यह उठता है कि जब सब लोग मठाधीशी के खिलाफ़ हैं, मठाधीश की निन्दा करते हैं तो यह ससुरा मठाधीश है कौन? क्या मठाधीश एलियन है?
इस पर आलोक पुराणिक ने अपना नजरिया पेश करते हुये करता हुआ कि जहां एक से अधिक व्यक्ति जुट जाते हैं वहीं मठ बन जाता है और उनमें से हर व्यक्ति कोें मठाधीश कहा जा सकता है। अपनी बात की पुष्टि करते हुये उन्होंने बताया - ’जैसे हम तीन लोग यहां चबूतरे पर चाय पीते हुये बैठे हैं तो यह अपने आप में एक मठ है।’
इस लिहाज से देखा जाये तो हर व्यक्ति अपने में मठाधीश है और अपने हिसाब से अपनी विधा की रेढ मार रहा है। इसका विस्तार किया जाये तो कहा जा सकता है कि जब भी मठाधीशी के खिलाफ़ कोई कुछ लिखता है तो वस्तुत: वह अपने खिलाफ़ लिखता है।
इस बीच कई लोगों ने हम फ़ुटपाथिया लोगों से मंडी हाउस, एनएसडी आदि के पते पूछे। हमने तुरन्त बता दिया। कुछ छिपाया नहीं। हम छिपाने में नहीं, बताने में यकीन रखते हैं।
और बहुत सी बातें हुईं। लेकिन वह फ़िर कभी। अभी तो दफ़्तर निकलना है अपन को। इसलिये फ़िलहाल इतना ही। बुराई-भलाई के बारे में जानना हो तो अलग से संपर्क किया जाये।

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Wednesday, November 22, 2017

सूरज भाई के जलवे


‌सुबह खिड़की खोली तो देखा सूरज पेड़ के ऊपर विराजमान थे। गुलदस्ते के फूल की तरह खिले हुए। सर्दियों की आमद से उनकी खूबसूरती बढ़ गयी थी। हमने गुडमार्निंग कहा तो और चमक गए।
खिड़की के नीचे सड़क जाग गयी थी। जग क्या गयी लोगों ने जगा दिया। उसके ऊपर से लोग गुजरेंगे तो सोएगी कैसे बेचारी।
एक आदमी सड़क पर झाड़ू लगा रहा था। कूड़े को झाड़ू से धकेलकर सड़क से दूर कर रहा था। कुछ कूड़ा बदमाश बार-बार वापस सड़क पर आ जा रहा था। बदमाश कूड़ा न हुआ कोई नेता हो गया जो चुनाव के मौके पर वापस पार्टी में आ जाता है।
झाड़ू लगाता आदमी सर पर टोपी लगाये हुए है। जब झाड़ू थोड़ी लगा लेता है तो झाड़ू को ऐसे लेकर चलता है जैसे उत्सव फायरिंग के बाद लोग बंदूक लेकर चलते हैं। झाड़ू उसकी बन्दूक ही तो है।
होटल की छत पर लगे झंडे थोड़ा हिलडुल से रहे थे। कुछ तेजी से फहरा रहे थे। बाकी गुमसुम से थे। उन तक हवा पहुंच नहीं रही थी। जिन तक हवा पहुंच गई थी वे तेजी से हिल रहे थे। हवा भी सरकारी ग्रांट की तरह होती है। कहीं पहुंचती है तो खूब पहुंचती है। कहीं नहीं पहुंचती है तो बिल्कुल नहीं पहुंचती।
सड़क पर कई गाड़ियां किनारे खड़ी हैं। एक दूसरे की विपरीत दिशा में। आपस में बोलचाल भी नहीं रही हैं। किसी दफ्तर सा माहौल बना रखा है जिसमें अगल की सीट वाला बगल वाले से नहीं बतियाता। एक ही शहर में रहने वाले साहित्यकारों की तरह आपस में अबोला खिंचा हुआ है गाड़ियों में। एकदम आदमी टाइप हरकतें। संगत का बहुत असर होता है भाई।
छत पर एक बैगनी रंग की पतंग पेट के बल लेटी है। धूप उसकी पीठ चादर की तरह बिछी है। उसकी डोर कहीं दिख नहीं रही। क्या पता कल तक आसमान छू रही हो। आज रिटायर्ड कर्मचारी की तरह पुराने दिन याद कर रही हो।
कुछ देर बाद पतंग करवट बदलकर थोड़ी दूर जाकर दूसरी करवट लेट गयी। जैसे एक गुट से निकला असन्तुष्ट दूसरे गुट में चला जाता है।
सड़क पर खड़े एक ट्रक पर ड्राइवर लपककर चढ़ा। स्टार्ट करने के लिए चाभी घुमाई। लेकिन ट्रक का इंजन हिलडुल कर खड़ा ही रहा। थोड़ी आवाज भी की दिखाने के लिए कि वह कोशिश कर रहा है स्टार्ट होने के लिए। लेकिन हिल के नहीं दिया। ड्राईवर को नखरे पता होंगे ट्रक के। वह चाबी घुसेड़े रहा और घुमाते रहा। आखिरकार ट्रक को स्टार्ट होना पड़ा। चल भी दिया। पहले अनमने ढंग से मानो कोई पियक्कड़ चल रहा हो जिसकी रात की पी हुई अभी उतरी न हो। लेकिन बीच सड़क पर आते ही राजा बेटा की तरह चलने लगा। इससे लगा कि शुरआती अड़चनों से कोई काम छोड़ना नहीं चाहिए। लगे रहने से काम हो ही जाता है।
दिल्ली भले राजधानी हो, स्मार्ट शहर। लेकिन सड़क किनारे गन्दगी भी तसल्ली से रहती है। बैलगाड़ी और खड़खड़ा एक संग चलते हैं ऑटो सहित। ई रिक्शा यहां भी खूब चलने लगे हैं।
तीन गधे दुलकी चाल से चलते हुए सड़क पर जा रहे हैं। दो गदहों पर सवारी के रूप में लड़के बैठे हैं। तीसरा खाली पीठ जा रहा है। गदहों की दुनिया का पता नहीं मुझे। तीसरे गधे को बेरोजगार कहा जायेगा जिसको अभी बोझा नहीं मिला या फिर 'गधा प्रतिनिधि' गधा कहेंगे उसको जिसकी कमाई बाकी दो गदहों के पसीने से निकलती है।
खिड़की खोली तो सारी सूरज भाई किरणों सहित घुस आए। चेहरे , हाथ और जो भी जगह मिली विटामिन डी को गुलाल की तरह मलने लगे। घण्टे भर में जितनी धूप हमने ग्रहण कर ली खिड़की के पास बैठे हुए, उतनी पहले महीनों में नहीं हासिल की थी। किरणें भी मेज, फर्श, दीवार पर कबड्डी सरीखी खेलने लगीं। कुछ किरणें कप की आड़ में छिप कर छुपन-छुपाई खेलने लगीं। सूरज भाई बहुत दिन बाद मिले थे। गर्मजोशी से। साथ चाय पीते हुए तमाम पुरानी यादें ताजा करते रहे।
हमने सूरज भाई की तारीफ करते हुए कहा -' भाई जी, आपने तो कोहरे और धुन्ध की ऐसी तैसी कर दी। किरण चार्ज करके सबको तितर बितर कर दिया।जलवे हैं आपके तो। '
सूरज भाई मुस्कराते हुए बोले -' ये तो तुम साहित्यकारों और व्यंग्यकारों की तरह हरकतें करने लगे जो एक दूसरे को फूटी क्या सजी आंख भी देखना नहीं चाहते लेकिन मिलने पर ऐसे गले मिलते हैं कि कपड़ों की सारी क्रीज तक खराब कर लेते हैं। तुम तो ऐसे न थे।'
हमने कहा अरे न भाई जी। हम दिल से कह रहे हैं। इस पर सूरज भाई शरारतन मुस्कराए और बोले : सच्ची ?
हमने कहा : मुच्ची।
सूरज भाई और तेज मुस्कराए और चाय पीकर चलते बने। उनको पूरे जहां को चमकाना है। वो कोई हमारी तरह निठल्ले थोड़ी हैं।

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Tuesday, November 21, 2017

महाभारत काल में नोटबन्दी


महाभारत के समय में पांडवों ने अपने पुरुषार्थ से खूब बड़े नोट जमा कर लिए थे। कुछ टैक्स भरते, ज्यादा बचा लेते। कौरवों को जब पता चला तो उन्होंने महाराज से कहकर करेंसी बदलवा दी। करेंसी बदलवाने की तारीख चूंकि कौरवों को पता थी इसलिए उन्होंने अपने बड़े नोट खजाने से पहले ही बदलवा लिए थे।
जब बड़े नोट बंद हो गए तो पांडवों को बड़ी समस्या हुई। सब बड़े नोट कूड़ा हो गए। अब उस समय पेट्रोल पम्प तो थे नहीं जहां वे नोट खपाते। न ही उनके यहां कामगारों की फ़ौज थी कि एडवांस में साल भर का वेतन भुगतान कर देते और न ही आज की तरह कमीशन लेकर नोट बदलवाने वाले एजेंट थे उन दिनों लिहाजा पांडवों की हालत खराब हो गयी। खाने पीने तक के लाले पड़ गए।
पांडव जानते थे कि कौरवों ने अपने बड़े नोट खजाने से बदल लिए थे इसलिए वे कौरवों के पास गए और कहा -कुछ हमारे पांच सौ के नोट भी बदलवा दो ताकि हम भी जीते रहें। आगे चलकर हमको-तुमको दोनों को महाभारत वाली पिक्चर में लीड रोल मिले हैं।
लेकिन कौरव माने नहीं। न नोट बदले न नोट बदलने की समय सीमा बढ़ाई।
इसके बाद जो हुआ वो सब जानते हैं। महाभारत की शूटिंग हुई। नोट बदलने वाली बात पांडवों को याद थी इसलिए वे मन लगाकर लड़े और पिक्चर हिट हुई।
यह सच्ची कहानी है कि महाभारत की लड़ाई बंद पांच सौ के नोट चलाने के कारण हुई। पांच गाँव मागने वाली बात किसी ने ऐसे ही उड़ा दी होगी।

Sunday, November 19, 2017

‌इतवार की गुनगुनी सुबह


सुबह निकले । सड़क गुलजार थी। मूंगफली की दुकानें सज गयीं थीं। एक आदमी दुकान पर बैठा स्टील के ग्लास में चाय पी रहा था। बगल में सड़क पर बैठा दूसरा आदमी सूप पर मूंगफली फटकते हुए मूंगफलियों का इम्तहान सा ले रहा था। जो मूंगफली पास होगी उसका प्रमोशन होगा। दुकान पर बिकेगी। छंटी हुई किनारे कर दी जाएगी।
जिस तरह मूंगफली बिकने के लिए तैयार होती हैं ऐसे ही तो नौकरियों में थोक भर्तियां होती हैं।
एक जगह अलाव लोग मुंडी आपस मे मिलाए हुए अलाव के चारो तरफ बैठे थे। मुंडी इतनी सटी हई थी कि कोई समझे सेल्फी के लिए पोज बनाये हैं। बस कैमरे की जरूरत थी।
गंगा तट पर चहल-पहल थी। दायीं तरफ सूरज की किरणें पानी में खिलखिला रहीं थीं। आपस में धौल धप्पा करते हुए पानी को सुनहला बना रहीं थीं। पानी बार-बार नदी के सुनहरेपन को बहाकर दूर करने की असफल कोशिश करता बह रहा था। बार-बार धकियाता सुनहरे पानी को लेकिन पानी का सुनहरापन अंगद का पांव बना टिका रहता। कभी नदी की इज्जत का लिहाज करके थोड़ा हिलडुल जाता लेकिन बना वहीं रहता। पानी झकमार कर आगे बढ़ जाता। उसको आगे जाना है। किरणें अपना भौकाल देखकर और चमकने लगती।
बायीं तरफ गंगा नदी में लोग नहाते दिखे। बीच मे बालू पर देश की आकृति की तरह इकट्ठा थी। नीचे बालू का छोटा टुकड़ा श्रीलंका सरीखा जमा था। लगता है गंगा जी को कोई कुछ कहे इसके पहले ही वो राष्ट्रवादी हो जाना चाहती हैं। कोई बालू के इस टुकड़े का नाम वन्देमातरम स्पॉट प्रस्तावित कर दे। क्या पता जनता की बेहद मांग पर कल को गंगा जी का नाम 'भारतमाता नदी' हो जाये। नदी इस बेफिजूल सोच से बेपरवाह बहती जा रही थी।
बालू घाट पर आज बच्चे 'बाल दिवस' मनाने के लिए इकट्ठा थे। खेलकूद के लिए इंतजाम हो रहा था। बच्चों की दौड़ आयोजित करने के लिए चूने की लाइन बन रही थी। पंडाल भी सज रहा था। बच्चों के माता-पिता को भी आमंत्रित किया गया है। सभासद भी आएंगे। पंडाल की आड़ में कुछ बच्चियां स्वागत गीत की तैयारी कर रहीं थीं।
वहीं बालू के मैदान पर कुछ बच्चे कंचे खेल रहे थे। बहुत दिन कंचे के खेल से जुड़े शब्द सुनने को मिले। पिच्चूक पर उँगली रखे एक-दो मीटर दूर के कंचे को टन्न से उड़ा देते बच्चे पास के पढ़ते बच्चों से बेखबर कंचे के खेल में मगन थे।
बच्चों को कंचे खेलते देखकर सोचा कि हममें से कइयों को लगता है कि जो खेल उन्होंने बचपन में खेले वे अब खतम हो गए। अब कोई नहीं खेलता उनको। लेकिन ऐसा होता नहीं शायद। खेल खत्म नहीं हुए होते हैं बस अपनी जगह बदल देते हैं। किन्ही और रूप में खेले जा रहे होते हैं।
हठ योगी की दुकान गुलजार थी। कोई महिला सभासद पद की उम्मीदवार बड़ी मोटी तगड़ी गाड़ी में गंगा दर्शन के बाद योगी दर्शन करने के बाद लपकते हुये जनता दर्शन को निकल गईं।
बालू में कुछ कुत्ते आपस में भौंक रहे थे। अचानक एक कुत्ते को पचीसों कुत्तों ने दौड़ा लिया। एक कुत्ते के पीछे पचीसों कुत्ते भागते देख लगा मानों आगे वाले कुत्ते कोई बात ऐसी कही है जो बहुमत वाले कुत्तों को खराब लगी और उन्होंने उसको दौड़ा लिया। मल्लब कुत्ते भी आदमियों की तरह हरकत करने लगे। वो तो कहो कि कुत्ता जवान था, भागता चला गया। बुज़ुर्ग कुत्ता होता तो भाग भी न पाता। पकड़कर रगड़ दिए होते बाकी के कुत्ते।
वहीं एक महिला एक ठेलिया पर चाय, पकौड़ी, पान-मसाले की दुकान लगाये थी। गोद में बच्चा। मुंह में पान मसाला। चाय बनाने के लिए कहा तो उसने गोद मे लिये बच्चे को गोद और जांघ के बीच सहेजकर गैस स्टोव जलाया। बमुश्किल 25 -30 साल की है उमर में तीसरा बच्चा। आदमी कहीं दिहाड़ी पर काम करता है।
महिला बच्चे को संभालते हुए चाय की दुकान चला रही है। इन जैसों को सबसे अधिक पैसा मिलने की वकालत की है एकदम हालिया विश्व सुंदरी ने। कभी हो सकेगा ऐसा? अपने यहां तो न्यूनतम मजदूरी देने के लाले पड़े रहते हैं।
उसके चाय बनाते हुए एक दूसरी महिला वहां आ गई। उससे बतियाने लगी। उसका बच्चा दूसरे बच्चों के साथ खड़ा था। और बच्चे जबाब दे रहे थे। इसका चुप था। अपने बच्चे को चुप देखकर झल्लाते हुए बोली -'देखो कैसा सुअर जैसा चुपचाप खड़ा है। मुंह से बोल नहीं फूट रहा।'
हमने उसे टोंकते हुए कहा -' उसको समझ नहीं आता होगा इसलिए जबाब नहीं दे पा रहा होगा।' इस पर वह तमककर बोली -' अरे स्कूल जाता है।' गोया स्कूल जाने से सब आ जायेगा।
चाय वाली महिला ने दूसरी महिला को बैठने का निमंत्रण दिया -दीदी बैठो।
दीदी बैठी नहीं। ठेलिया के पास पड़ीं पालीथिन की कई पन्नियों को पैर से सहेजते हुई बोली - 'इसको फेंक काहे देती हो। हमारी तो बुढिया इनके बहुत बढ़िया बेना (हाथ पंखा) बनाती हैं।
बालू के बीच पत्थर पड़े हैं। एक पत्थर के नीचे जगह पर तमाम चीटे -चीटियां आ जा रहे हैं। क्या पता चीटों में भी कोई हनीप्रीत हो जो गंगा किनारे अपनी गुफा बनाए हो।
बाल दिवस कार्यक्रम शुरू होने वाला था। लेकिन घर से बुलावा आ गया तो चल दिये। लेकिन साइकिल का मन नहीं था चलने का। इसलिए ताला खुला नहीं। बहुत कोशिश की। ताली हिलाई, ताला हिलाया। इधर दबाया, उधर हटाया लेकिन ताला खुला नहीं। मजबूरी में सायकिल का पिछवाड़ा उठाए सड़क तक आये। साइकिल को कभी कैरियर से उठाते, कभी डंडे से। कभी सड़क पर सरकाते हुए एक ताले कि दुकान पर आए। चाबी को थोड़ा घिसकर एक मिनट में खोल दिया ताला उसने। 20 रुपये लिए उसने ताला खोलने के। मन किया ताला भी बदलवा लें लेकिन वह बाद के लिए छोड़ दिया।
नीचे के पुल से लौटे। पुल पर धूप पसरी हुई थी। धूप के बीच की रेलिंग का निशान धूप को दो बराबर हिस्सों में बांट रही थी। रेलिंग की छाया रेडक्लिफ लाइन की तरह धूप को हिंदुस्तान-पाकिस्तान में बंटवारा कर रही थी। शाम को दोनों हिस्सों की धूप एक -दूसरे के कंधे पर हाथ धरे इठलाती, खिलखिलाती वापस जाएंगी। लेकिन अभी ऐसे अलग थीं जैसे किसी संयुक्त परिवार के आंगन में अम्बुजा सीमेंट की दीवार खींच दी हो किसी ने।
पुल के बाहर की तरफ आधे खम्भे पर एक युवा जोड़ा बैठा धूपिया रहा था। सोचा कहीं कूद न जाएं। लेकिन फिर यह सोचकर कि पुल की ऊंचाई और नदी में पानी दोनों कम है वापस चले आये।
इतवार की सुबह धूप खुशनुमा लगी।

Friday, November 17, 2017

आये भैया कोई हीरो आये

आये भैया कोई हीरो आये,
हमारे देश को आगे ले जाये।
हमें निठल्ले ही रहना है,
हीरो देश का गर्व बढाये।
उसको मेहनत करना होगा,
भला-बुरा सब सुनना होगा।
पकड़ी गयी गड़बड़ी कोई तो,
रोल विलेन का करना होगा।
सारे खतरे हीरो के होंगे,
सब कुछ उसको करना होगा।
हम केवल जयकार करेंगे,
उसको तो बस खटना होगा।
जिसको शर्ते मंजूर आगे आये,
हीरो की ड्यूटी में लग जाये।
-कट्टा कानपुरी

Saturday, November 11, 2017

इंसान कुदरत का बेहया दुलरुआ है


सबेरे घूमने निकले। सड़क किनारे की सब दुकानें साफ़। पप्पू की चाय की दुकान का टट्टर गायब, भट्टी लापता, बेंच तिरोहित। पता चला कैंट में किसी टूर्नामेंट में सुरक्षा के लिहाज से आसपास के अतिक्रमण हटा दिये गये हैं। पप्पू अपनी बेंच, टट्टर और मोमिया समेटकर घर ले गये। भट्टी दीवार की आड़ में छिपा दी। कुछ दिन बाद फ़िर जमायेंगे अड्डा।
कुदरत भी इंसान के साथ ऐसी ही कार्रवाई करती है। जब देखती है आदमी ने ज्यादा अतिक्रमण मचा दिया है तो अपने बुलडोजर से सब ढहा देती है। नदियां अपने रास्ते में बने निर्माण, होटल और दीगर बहुमंजली इमारतों को टीन-टप्पर की तरह तिड़ी-बिड़ी कर देती हैं। लेकिन इंसान भी तो इसी कुदरत का बेहया दुलरुआ है। ढीठ जिजीविषा कुदरत से विरासत पाया है। उजड़ने के बाद फ़िर बस जाता है।
सड़क किनारे लोग खटियों में सोये हुये थे। सुबह हो गयी थी लेकिन कायदे से नहीं थी। मने ड्राफ़्ट सुबह हुई थी। सोये हुये लोग , एक बार जगकर फ़िर से सो गये थे। करवट बदलकर। जाड़े ने अपनी हाजिरी लगवा सी लगवा ली है। पतली रजाइयां निकल आई थीं। बहुत दिन बाद बक्सों, बोरों से निकलकर रजाइयां आजादी की सांस लेकर खुशनुमा महसूस कर रही थीं। लोगों के बदन से लपटकर उनकी गर्माहट, गुनगुनाहट की रखवाली कर रही थीं। रजाइयां हमारी बदन की गर्मी की चौकीदार हैं। रजाई, कम्बल न हों तो हमारे आसपास की हवा हमारी सारी गर्मी का अधिग्रहण करके हमको ठिठुरा दे।
आगे कुछ लोग अलाव ताप रहे थे। पुल की सड़क की मरम्मत हो रही है। पैचवर्क। उसी के लिये डामर मतलब कोलतार यानी कि अलकतरा पिघलाने के लगने वाली लकड़ियां सुबह को गर्माने के लिये इस्तेमाल हो रही थीं। एक भगौना चाय की पत्ती और छन्नी अपने अन्दर समेटे बता रहा था कि अभी ताजा-ताजा चाय बनी है।
अलाव तापते लोगों में से एक लड़के के गाल पर हरे रंग से कुछ लकीरें बनीं थीं। बताया कि रात में कोई उसके गाल रंग गया। एक और साथ के हैं उनके गाल पर 420 लिख गया। हंसते हुये कहा लड़के ने -’ पकड़ लेतन लिखत भये तो मारनेम बेलचा घसीट के’ (लिखते हुये पकड़ लेते तो बेलचा मारते घसीटकर)। सब मजूर हैं। वह साथ के लोगों को इंजीनियर, कान्ट्रैक्टर बताते हुये बतिया रहा था। हम लोग अपने से जुड़े लोगों में ऐसी ही मानद उपाधियां देते रहते हैं।
लड़का पतारा से आया है। पढने की उमर है। घर छोड़कर काम करने निकला है। दांत मसाले से लाल। हम पूछते हैं तो हंसता है। दांत और रंगे हुये दिखते हैं।
पुल के मुहाने चढा पर एक लड़का पोस्टर लगा रहा है। हम खड़े होकर देखते हैं तो कहता है- ’अंकल जी एक बैनर दे दीजिये निकालकर।’ उसकी मोटर साइकिल से निकालकर देते हैं। बतियाते भी हैं। वह कोचिंग चलाता है 12 वीं तक के बच्चों की। ’ग्रेविटी क्लासेस’ के नाम से। कुछ और लोग भी साथ में पढाते हैं। खुद एल.एल.बी. भी कर रहा है। बताता है आज देर हो गयी निकलने में। इतनी देर में कई पोस्टर लगाने थे लेकिन अभी तक दो ही लग पाये।
पुल पर आवाजाही अभी कम है। रेल गुजर रही थी। सूरज भाई लाल दिखे। लगता है प्रदूषण से आंखें लाल हैं। शायद भन्नाये हुये हैं। भन्नाने दो। हम तो मचा के रहेंगे गन्दगी।
नदी में पानी भी अभी अलसाया सा सो रहा है। नावें जरा सा हिलाती-डुलाती हैं पानी को लेकिन वह फ़िर कुनमुनाते हुये पलटकर सो जाता है। जैसे पाइलट जहाज को ऑटो मोड में डालकर सो जाता है वैसे ही नदी भी पानी को ऑटो मोड में डालकर सुस्ता रही है।
लौटते हुये देखते हैं कि सड़क किनारे की मूंगफ़ली की दुकानें जम गयी हैं। एक आदमी बोरे के चने को तसले में डालता है। पहले चना तसले में गिरते हुये आवाज करता है। दर्द हुआ होगा बोरे से तसले में गिरते हुये तो चिल्लाया होगा - ’अरे बाप रे, अरी अम्मा मर गये।’ यह भी हो सकता है बोरे से तसले में गिरते हुये अंग्रेजियाया हो -’हाऊ डेय़र यू थ्रो मी ऑन दिस आयरन पॉट’ (मुझे इस लोह के बर्तन में फ़ेंकने की हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी?) लेकिन उसके ऊपर लद्द-फ़द्द गिरते दूसरे चने के दानों की आवाज में उसकी अंग्रेजी का गला घुट गया होगा। चने के ढेर की नींव का चना बना अंधेरे में पड़ा होगा वह बेचारा अकेले अंग्रेजी बोलने वाला चना।
दुकान सज गयी। मूंगफ़ली के पिरामिडों के पीछे बैठी लड़की ग्राहक के इंतजार में है। बगल में इधर-उधर फ़ुदकती, खेलती तमाम बच्चियां, बच्चे हैं। उनसे पूछते हैं -’स्कूल नहीं जाते?’ सब मुझे ताज्जुब से देखते हैं। मानो पूछ रहे हों - ’ये स्कूल क्या होता है?’
सामने से सूरज भाई मुस्कराते हुये कहते हैं -’चलो अब बहुत हुई घुमाई। जल्दी से तैयार होकर दफ़्तर जाओ वर्ना लेट हो जाओगे।’

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Saturday, November 04, 2017

मन कर रहा कि अब उठे

मन कर रहा कि अब उठे , फ़ौरन नहा के आ जाएँ
लेकिन सोचते हैं कि दौड़ के दूकान से दूध ले आएं।
बाहर बगीचे में फूल खिला है अपने पूरे जलवे से
मन किया निकालें कैमरा, फूल को कैद कर लाएं।
आइडिये उछल रहे हैं सबेरे से स्वयं सेवकों की तरह,
हल्ला मचा रहे हैं हमको लगाएं, पहले हमको लगाएं।
देश की चिंता भी करने को बहुत पड़ी है यार इकठ्ठा
चूक गए तो कहीं और कोई ' देश चिंता' न कर जाए।
काम इतने इकठ्ठा है बेचारा,परेशान है दिन इतवार का,
फिर सोचेंगे क्या करें पहले, चाय एक कप और हो जाए।
-कट्टा कानपुरी

Friday, November 03, 2017

सवालों की सर्जिकल स्ट्राइक



ये भाईजी आज टाटमिल चौराहे से घंटाघर की तरफ़ जाने वाले पुल पर मिले। पीठ पर तमाम तरह का सामान लादे, जिसमें शायद भारत में बनने वाली हर साइज की प्लास्टिक बोतल भी थी आहिस्ता-आहिस्ता टहलते हुये चले जा रहे थे। हमारे लिये जो कूड़ा हो सकता था उसको सहेजे हुये जाता इंसान कई परतों वाले कपड़े पहने था। दायीं तरफ़ सेंट्रल स्टेशन। बायीं तरफ़ निर्माणाधीन पानी की टंकी।
हमने भाईजी से बात करनी चाही तो उन्होंने सवालों की सर्जिकल स्ट्राइक कर डाली। पूछा कहीं बाहर से आये हो क्या? हमने कहा -’कानपुर में रहते हैं?’
वो बोले-’ कानपुर में कहां?’
हम बोले-’ आर्मापुर’।
वो बोले-’ आर्मापुर कहां कानपुर में है? हमको पढाते हौ? कहीं चोरी करने तो नहीं आये? जिन्दगी बीत गई हमारी कानपुर में। आर्मापुर है ही नहीं कानपुर में।"
हमने कहा-’ अरे हम क्या शकल से चोर लगते हैं?’
इस बात का जबाब न दिया अगले ने। आर्मापुर को कानपुर से बाहर साबित करता रहा। हमने हर चौराहा गिनाना- टाटमिल, अफ़ीमकोठी, जरीबचौकी, फ़जलगंज, विजयनगर चौराहा। फ़िर आर्मापुर। लेकिन भाई जी ने फ़जलगंज के आगे का कोई इलाका कानपुर में क्या कहीं भी शामिल मानने साफ़ मना कर दिया।
बढी हुई दाढी वाले इंसान के कई दांत गायब थे। इससे उनकी कड़क टाइप आवाज की हवा निकल कर आवाज को कमजोर कर दे रही थी। अगर दांत होते तो कडक आवाज से हम ज्यादा ही हडक जाते। शायद मान ही लेते खुद को चोर। 
सामने से देखा तो जितनी प्लास्टिक की बोतलें पीठ पर थीं उससे कुछ ज्यादा ही सीने पर लदी थीं। उसकी हड़काई से इतना आतंकित हुये कि हमारी सिट्टी और पिट्टी दोनों गुम हो गयीं। कुछ देर में हम और वो दोनों अपने-अपने रास्तों की तरफ़ गम्यमान हुये।

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