Tuesday, September 28, 2021

बच्चा डिलीट कर दिए


हमारे दोस्त Saif Aslam Khan बेहतरीन आर्टिस्ट हैं। उनके बनाये स्केच उनके हुनर की कहानी कहते हैं। कैंट इलाके की #benchnumber7 उनकी पसंदीदा बेंच है। इस बेंच से जुड़े कई किस्सों और खुशनुमा पलों की कहानी उन्होंने अपनी पोस्ट्स में लिखी है।
इतवार को टहलते हुए बेंच नम्बर 7 की तरफ गए। वहां बैठे विवेक उर्फ पिंकू ने हमको नमस्ते ठोंक दिया। हम अचकचा गए। अचकचाने का कारण यह कि हमको लगा कि अगला हमको जानता है और हमारे दिमाग के साफ्टवेयर में उनका डेटा निल है। उम्र के चलते भूलने की बीमारी पर हक तो जायज है लेकिन इतना भी जबरदस्ती ठीक नहीं भूलने की बीमारी पर।
बहरहाल हमने भी नमस्ते ठोंका और बतियाना शुरू किया। पता चला कि पिंकू पास के गांव के रहने वाले हैं। यहां क्रिकेट खेलने आये हैं। बैटिंग करते हुए 50 रन बनाए हैं और दो विकेट हासिल किए हैं। अब मैच खत्म हो गया तो वापस लौटने की तैयारी में हैं। रन और विकेट की मेहनत का पसीना और थकान अलबत्ता पिंकू के पास से बरामद नहीं हुआ।
बातचीत की शुरूआत पिंकू ने जमीन खरीदने से की। अंकल जी जमीन तो नहीं खरीदनी आपको?
जिस चीज से इंसान को कोई मतलब नहीं होता उसमें वह ज्यादा दिलचस्पी दिखाता है। जिस रास्ते जाना नहीं होता उसके कोस सबसे ज्यादा गिने जाते हैं। उपरोक्त दो बहानों की आड़ में अपन ने विवेक उर्फ पिंकू से जमीन के बारे में पूछना शुरू किया।
पता चला करीब 40 बीघा जमीन बिकाऊ है। 25 लाख प्रति बीघा के हिसाब से। मतलब करीब 10 करोड़ की खरीद। हमने खरीद से तो मना किया लेकिन पूछ लिया कि तुमको क्या मिलेगा जमीन बिकवाने का?
बोले -'2 % मतलब करीब 20 लाख।' हम विवेक के 20 लाख की कमाई पर पानी फेर दिया। मना कर दिया जमीन खरीदने से।
बाद में पता चला कि विवेक हमको पहले से जानते नहीं थे। वहां फालतू टहलते देखकर जमीन ऑफर कर दी। हमारे जेहन से भूलने की बीमारी का अपराध बोध हवा हो गया।
बातचीत से पता चला कि विवेक खुद 100 बीघा की जमीन के मालिक के परिवार से हैं। तीस साल की उम्र है। कक्षा 9 पास हैं। तीन बच्चों के पिता हैं। तीनो लड़के। बड़े भाई भी हैं। उनकी चार लडकियां हैं। खेती में सहयोग करते हैं लेकिन हिसाब-किताब पिता जी ही देखते हैं।
कक्षा 9 की पढ़ाई से हमको रागदरबारी के रुप्पन बाबू याद आ गए जिनको पढ़ने का और कक्षा 9 में पढ़ने का शौक था। इसलिए कई सालों तक कक्षा 9 में ही पढ़ते रहे। विवेक को पढ़ने का इतना शौक नहीं रहा होगा इसलिए निकल आये स्कूल के झमेले से।
बात बच्चों की चली तो हमने कहा ये रोचक है कि तुम्हारे सब लड़के और भाई के सब लड़कियां। तीस साल की उम्र, 7 साल में तीन बच्चे, बढ़िया प्रोगेस है।
बच्चा तो एक और होने को था लेकिन उसको 'डिलीट' करवा दिए। बताया 2 महीने का था जब ' डिलीट' करवाये।
गर्भपात के लिए 'डिलीट' शब्द पहली बार सुने थे। मतलब बच्चा भी कोई डाटा है जिसे डिलीट कर दिया गया। इसमें गर्भपात का ऑपरेशन सहज और आसान हो जाने का भाव तो है ही साथ ही अजन्मी सन्तति के प्रति उसके सम्भावित पिता की सम्वेदनाओं के तार भी जुड़े हैं।
गर्भ और गर्भपात से जुड़ी सम्वेदना उसके 'डिलीट' होने से खत्म हो गयीं।
तीन बच्चे हो गए । ऑपरेशन करवा लेना चाहिए तुमको।
'करवा देंगे अब मिसेज का।'- पिंकू ने कहा।
हमने कहा -'तुम अपना क्यों नहीं करवाते ऑपरेशन?'
'हम क्यों करवाएंगे उनका ही करवाया जाएगा।आदमी थोड़ी ऑपरेशन करवाते हैं।'- कुछ ऐसी ही बात कही विवेक ने।
तकनीकी शब्दों के आम बोलचाल में शामिल होते जाने से इंसान की भावनाओं पर नियंत्रण भी आसान हो जाता है। इराक, वियतनाम, अफगानिस्तान में हुई लाखों इंसानों की मौतों को उनकी मौत के खेल में शामिल देश ' प्रोग्रामिंग में मानवीय भूल के चलते कुछ लाख लोग डिलीट हो गए' वाले भाव में लेकर मस्त हो जाते होंगे। इंसान का आंकड़ों में बदलते जाना प्रगति का मापदंड है।
देर हो गयी थी बतियाते हुए। हम लौटने लगे तो विवेक ने फिर कहा -'कोई खरीदार मिले तो बताइएगा जमीन का।'
आपको तो नहीं खरीदनी है जमीन।

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Monday, September 27, 2021

कोरियर डिलीवरी के फुटकर किस्से



कल कुछ कोरियर डिलीवरी करने वाले बालकों से मुलाकात हुई। आर्मी गेट के सामने की बेंच पर बैठे ग्राहकों से मोबाइल फोन पर सम्पर्क करके उनके कोरियर की जानकारी देते हुए सामान कलेक्शन के लिए सूचना दे रहे थे। आर्मी गेट कोरोना के समय से कोरियर के लिए बन्द हो गया है। इससे लोगों को भले परेशानी होती हो लेकिन कोरियर वालों को आराम हुआ है। अंदर जाकर मकान-दर/मकान भटकना नहीं पड़ता। सामान आने की सूचना देकर गेट पर कलेक्शन के लिये बुला लेते हैं। कोई-कोई तो सामान गेट पर रखवा लेते हैं। इसके बाद आते-जाते हुए कलेक्टकर लेते हैं सामान।
कोरियर का सामान लिए बच्चा मोटरसाइकिल से उतरा। कुछ सामान आगे कंगारू के बच्चे की तरह सम्भाले हुए बाकी ज्यादातर सामान पीठ पर पर्वतारोहियों की तरह लादे हुए था बालक। बेंच पर बैठकर बैग से सामान निकालते हुए नियमित सामान मंगाने वालों के बारे में कुछ-कुछ जानकारी भी देते जा रहे थे। अमेजन, फ्लिपकार्ट आदि कम्पनियों की डिलीवरी करने आये थे कोरियर।
'ये चिरायंध आदमी है। सामान पे आन डिलीवरी पर मंगवाता है लेकिन डिलीवरी कभी नहीं लेता। या तो मोबाइल स्विच ऑफ आता है या कहता है कि बाहर हैं बाद में आना।'
नाम सुनकर दूसरे कोरियर डिलीवरी वाले ने बताया। अरे इसको आई डी तो हमारे यहां हमने डिलीट करवा दी। कभी सामान नहीं लेता। अब हमारी साइट से 'पे आन डिलीवरी' पर सामान नहीं ले सकता। बहुत चिरकुट है।
हमने सोचा कि कहीं किसी भले आदमी को चिरकुट न कह रहे हों। इस अन्याय को रोकने के लिहाज से अपने सामने उनसे फोन मिलवाया। फोन बंद था। कोरियर ब्वाय के वक्तव्य की रक्षा हुई। हम गलत साबित हुए।
'ये डॉक्टर मैडम तो आज लेंगी नहीं सामान। आज इतवार है। अस्पताल बन्द होगा। कल अस्पताल में ही लेंगी डिलीवरी। कभी गेट पर आती नहीं सामान कलेक्ट करने।'
'ये मैडम भी फैक्ट्री में ही लेती हैं डिलीवरी। आज नहीं लेंगी सामान।'
इसी तरह अन्य कई नियमित ग्राहकों के बारे में जानकारी इकट्ठा है इनके दिमाग में। बातचीत के दौरान साझा करते जा रहे थे बालक।
'आपके मोबाइल नम्बर में ओटीपी आया होगा। बता दीजिए।'- एक ग्राहक से पूछा बालक ने।
'कोई ओटीपी नहीं आया है मोबाइल में।' -उधर से झल्लाती हुई आवाज आई।
बालक ने फिर बताया कि इस मोबाइल पर आया होगा देखिए। देखा गया तो पता चला वह मोबाइल दूसरा था जिस पर आया था ओटीपी। बताया तो फिर बालक ने बताया कि जो ओटीपी बताया वह गलत है। तीसरी कोशिश में मामला वेरिफाई हुआ। यह तो तो तब जब फोन मिल गया और बात हो गयी। न मिला होता फोन तो क्या होता।
पता चला कम्पनियां 8000 रुपये देती हैं महीने भर के सामान की डिलीवरी के। कनवेयन्स के लिए 3 रुपया प्रति किलोमीटर अलग से। महीने में 1000 डिलीवरी से अधिक होने पर 5000 रुपये का इंसेंटिव अलग से। यह अलग बात कि इंसेंटिव कभी मिलता नहीं क्योंकि जैसे ही किसी के 1000 सामान होने लगते हैं किसी के वैसे ही कम्पनी किसी और कोरियर ब्वाय को उस लाइन में जोड़ देती हैं ताकि इंसेंटिव न देना पड़े।
'लकड़ी लगाने से कम्पनियां कभी नहीं चूकती'- बालक ने इंसेटिव बचाने के प्रयासों पर अपनी राय जाहिर की।
डिलीवरी का काम साइड बिजनेस के रूप में अच्छा है। कोरोना काल में जब सब जगह काम ठप्प हो रहे हैं तो कोरियर का काम चल रहा है यही अच्छा है।
3-4 घण्टे में निपट जाता है काम। के कभी-कभी देर भी हो जाती है। जैसे किसी को दस बजे फोन करो और वह जबाब दे दो बजे आना डिलीवरी के लिए तो इंतजार करना होता है।कभी-कभी शाम भी हो जाती है।
'इसके साथ पुलिस की भरती की तैयारी भी चल रही है।पढ़ाई प्रैक्टिस दोनों जारी हैं।' -एक बालक ने बताया। इसके बाद सामान की डिलीवरी के लिए डीएम कम्पाउंड चला गया। थोड़ी देर में डिलीवरी करके आया तब तक दूसरे बालकों से बतियाये।
उन बालकों में से एक से पढ़ाई के बारे में पूछा तो बताया -' सब पढ़ाई कर चुके हैं।'
सब का मतलब पूछने पर बताया -'बी ए, एम ए. , कम्प्यूटर डिप्लोमा, एक्सल, टैली और भी कुछ डिग्री। लेकिन काम नहीं मिला कहीं पढ़ाई के हिसाब से तो कोरियर का काम कर रहे हैं।
बताने के बाद मूंछे ऐंठते हुए आराम करने लगे अनूप सिंह। पता चला पास ही गांव है। खेती है। शादी हो गईं। बच्चा भी है।
इसके बाद नौकरी पर अपना ज्ञान भी दिया अनूप सिंह ने। नौकरी चाहे 40000 हजार की हो लेकिन होती तो नौकरी ही है। आदमी दूसरे के अधीन रहता है। इसके मुकाबले अपने काम में भले चार पैसे कम मिलें लेकिन आदमी किसी का गुलाम तो नहीं रहता। दो आदमियों को रोजगार अलग से देता है।
हमारे बारे में पूछते हुए कहा अनूप सिंह ने -'आप फैक्ट्री में काम करते हो। स्टाफ में होंगे। वहां अभी दरबान की ठेके में भर्ती हुई है। 12000 रुपये मिलते हैं। हम आपसे कहें वहां लगवा दो तो अभी आप कहोगे पता करेंगे। कुछ दिन बाद कहोगे -हो नहीं पाया। हर जगह यही हाल है।
हमने तर्क दिया किसी को हटाकर लगवाने की बात तो ठीक नहीं न।
वही तो। लेकिन देखिए आजकल पढ़ाई के हिसाब से काम कहाँ मिलता है। इसीलिये नौकरी की बजाय अपना काम करना बढ़िया। बेफिक्री से मूंछो पर ताव देते हुए बोले -अनूप सिंह।
हमारे कहने को कुछ बचा भी नहीं था। हम अच्छा चलते हैं कह कर चले आये।

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Sunday, September 26, 2021

ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आंखे



सुबह सड़क पर मिले ये भाई जी। नाम बताया राजू। साथ में इनके बड़े भाई राकेश भी थे। राजू को रोककर उनसे बतियाने लगे। राकेश आगे निकलकर इंतजार करने लगे।
राजू-राकेश बाल खरीदने का काम करते हैं। गली-मोहल्ले घूम-घूमकर बाल खरीदते हैं। कीमत 2000 रुपये किलो। बाल खरीदकर शहर में थोक खरीद वालों को देते हैं। दो बड़े खरीदार हैं शहर में। वे बालों को आगे कोलकता भेजते हैं। वहां बालों से विग बनाने का काम होता है।
साइकिल के हैंडल पर बैटरी से चलने वाला लाउडस्पीकर लगा है। बतियाते समय उस पर भजन बज रहे थे। कैरियर पर बर्तन थे। बालों के बदले बर्तन देते हैं। किसी बर्तन का दाम 100 रुपये, किसी का 200 रुपये।
दस साल से कर रहे बाल खरीदने का काम। पहले बालों की जगह चूरन, चटपट चीजें देने का चलन था। अब बर्तन देने का चलन है। दिन भर में हजार -डेढ़ हजार रुपये करीब के बाल मिल जाते हैं। खाने-पीने भर की कमाई हो जाती है।
बाल की खरीद के अलावा गर्मी में आइसक्रीम बेचने का काम करते हैं। और भी एकाध काम बताए राजू ने जो वे रोजी-रोटी के लिए करते हैं। गरीबी इंसान को कमाई के मामले में ऑल राउंडर बना देती है।
साइकिल पर लाउडस्पीकर के उपयोग के बारे में भी बताते हुए विज्ञापन सुनाया। पेन ड्राइव पर विज्ञापन बजने लगा। शुरुआत गाने से -'ये रेशमी जुल्फें, ये शरबती आंखे।' गाने के बाद बालों की कीमत -एक किलो के 2000 रुपये, आधा किलो के 1000 रुपये, दो सौ ग्राम के 400 रुपये। बाल भी वे वाले जो कंघी करते हुए गिरते हैं। जो लोग बाल झड़ने की समस्या से परेशान हैं उनको यह सोचना चाहिए कि उनके सर से बाल नहीं, पैसे झड़ रहे हैं।
बाल की विग बनती हैं तो उसमें अलग-अलग लोगों के सर के बाल लगते होंगे। एक ही विग में लगे बाल अलग-अलग धर्म, जाति के लोगों के होते होंगे। जो लोग आपस में एक दूसरे को देखना, छूना नहीं पसन्द करते हों, हो सकता है उनके सर के बाल एक ही विग में सटे हुए रहते हों। बालों की बिग सर्वधर्म सद्भाव की प्रतीक है।
राजू तसल्ली से बतिया रहे थे। इस बीच उनके बड़े भाई राकेश भी अपनी साइकिल आगे खड़ी करके आ गए। फोटो खींची तो सावधान मुद्रा में खड़े हो गए गोया हमारे कैमरे में राष्ट्रगान बज रहा हो।
बालों के विग की बात से याद आया कि हमारे एक दोस्त ने हमारे बालों की बनावट देखकर पूछा था -'क्या आप विग लगाते हो?'

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Friday, September 24, 2021

झूठ बोलने का मन


आज थोड़ा झूठ लिखने का मन हुआ। एक से बढ़कर एक झूठ हल्ला मचाने लगे- 'हम पर लिखो, हम पर कहो।'
हमने सब झूठ को हड़काते हुए कहा -'अनुशासन में रहो। लाइन लगाकर आओ। सबका नम्बर आएगा। हल्ला मत मचाओ।'
सारे झूठ बमकने लगे। हमको सच समझ लिया है क्या ?
एक झूठ हल्ला मचाते हुए बोला-'हम लाइन लगाकर आएंगे तो हमारा तो वजूद ही निपट जाएगा। हम तो एक के ऊपर एक लदफद कर आते हैं। इसीलिए जब तक पहचाने जाते हैं, तब तक अपना काम करके निकल जाते हैं।'
हम जब तक उसकों कुछ कहें तब तक वह पलटकर फूट लिया। भागते हुए दिखा उसकी शर्ट पर 'सत्यमेव जयते लिखा' था।
हमको झूठ की कमीज पर लिखे लिखे 'सत्यमेव जयते' से आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि आजकल झूठ बोलने का यही फैशन चलन में है। बड़े झूठ सच के लिबास में ही बोले जाते हैं। देश सेवा के नाम पर स्वयंसेवा का चलन है। हमको अचरज उसकी स्पीड पर था। जितनी तेज वह भागा उतनी तेज ओलंपिक में भागता तो गोल्ड मेडल मिल जाता ।
हमने उसकी स्पीड पर ताज्जुब किया तो उसकी जगह ले चुके झूठ ने बताया -'उसकी 'सत्यमेव जयते' वाली ड्रेस किराए की है। घण्टे भर के लिए लाया था। देर करता तो अगले घण्टे का किराया भी ठुक जाता। बहुत मंहगा होता जा रहा है झूठ बोलना भी आजकल। आप समझते हो सिर्फ पेट्रोल ही ऊपर जा रहा है।'
हम कुछ और कहें तब कुछ और झूठ हल्ला मचाने लगे। हल्ला मचाने वाले 'मूक विरोध' की कमीज पहने थे। हमें लगा कि कुछ देर और ठहरे यहां तो सब मिलकर हमको पीट देंगे। हमारे शक की वजह उनकी कमीजों पर लिखा नारा था। सबकी छाती पर लिखा था -'अहिंसा परमों धर्म:। '
हम फूट लिए कहकर कि अभी आते हैं। सारे झूठ हमारी बात सुनकर खुश हो गए। वे आपस में धौल धप्पा करते हुए बोले -'ये तो अपना ही आदमी निकला। हमारी ही तरह झूठ बोलता है। इसको अब लौटकर आना नहीं। चलो फालतू टाइम क्या खोटी करना।'

हमको लगा कि समय सही में कीमती है। झूठ बोलने वाले तक इसको बर्बाद नहीं करते। बिना समय बर्बाद किये झूठ बोलते रहते हैं। 


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Thursday, September 23, 2021

मठाधीश और सम्पन्न साधु तो भोगी होते हैं - परसाई



प्रश्न: संन्यास लेकर जो मठाधीश , महंत, या धर्म के उपदेशक हो जाते हैं क्या उनकी इच्छायें वास्तव में मर जाती हैं?
-नरसिंहपुर से विजय बहादुर
उत्तर: मेरा ख्याल है, जब तक कोई ऐसा कार्य या ऐसा चिन्तन या ऐसा कर्म न हो जो आदमी की चेतना को पूरी तरह डुबा ले और उसकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को उठने न दे तब तक संन्यास लेने या मठाधीश हो जाने से आदमी की तृष्णा नहीं जाती। सेक्स और भूख पर विजय पाना सबसे कठिन है। आमतौर पर साधारण संन्यासी भोजन-लोलुप और स्त्री-लोलुप होते हैं। ये बड़े दयनीय भी कभी-कभी लगते हैं। दमन से आदमी दुखी होता है। मठाधीश और सम्पन्न साधु तो भोगी होते हैं। मैंने भी कई स्वामियों को रबड़ी पीते देखा है।
रायपुर से प्रकाशित होने वाले अखबार देशबन्धु में ’पूछो परसाई से’ श्रंखला के अंतर्गत 12 अक्टूबर, 1986 को प्रकाशित।

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फिर नई सुबह होगी



फिर घना कोहरा छंटेगा,
फिर नया सूरज उगेगा,
फिर नई कली खिलेगी,
फिर नई मंजिल मिलेगी।
फिर नया रास्ता होगा,
फिर नई दास्तान होगी,
हो उदास न मेरे मुसाफिर,
दुखों की इमारत तबाह होगी।
फिर नई सुबह होगी।
--- अनन्य शुक्ल Anany Shukla

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Monday, September 20, 2021

बनावटी अक्ल के साइड इफेक्ट



सबेरे जल्दी जगे। जल्दी कहें तो मुंह अंधेरे। मुंह अंधेरे शायद उस सुबह को कहते होंगे जब जगने पर मुंह न दिखाई दे। जैसे पड़ोस में फरमान हुआ है कि महिलाएं मुंह ढंक के रहें। तो इस लिहाज से वहां की महिलाओं के लिए सबेरा हुआ है- 'मुंह अंधेरा सबेरा।'
कहा तो यह भी गया है बगल में कि महिलाएं सिर्फ वही काम करें जो पुरुष नहीं कर सकते। अगर यह सही में लागू हुआ तो पड़ोस की महिलाएं चंद दिनों की मेहमान हैं। खाना-पीना, सोना-जागना तो आदमी कर लेते हैं। महिलाएं यह नहीं कर पाएंगी तो 'शांत' तो हो ही जाएंगी।
कहां की बात कहां ले गए अपन भी। बात यहां मुंह अंधेरे जगने की हुई और पहुंच गए परदेश। परदेश मतलब पराया देश। कुछ जनप्रतिनिधि अपने प्रदेश को भी परदेश समझकर काम करते हैं। इसी लिए उनके प्रदेश पिछड़ जाते होंगे।
फिर बहक गए। हां तो सुबह जगे तो सोचा कि जिन लोगों ने जन्मदिन की बधाई दी थी उनको व्यक्तिगत रूप से भी धन्यवाद दे दिया जाए। कल करीब 400 लोगों को धन्यवाद दिया। करीब 200 लोग बच गए थे। रात को ही टिप्पणी जानी बन्द हों गयीं। शायद ज्यादा हो गयीं इसलिए। हमने सोचा होगी कोई लिमिट एक दिन में टिप्पणियों की। सुबह करेंगे।
सुबह जब टिप्पणी की तो वही लफड़ा। फेसबुक बोला -'बहुत टिप्पणी कर चुके। अब और नहीं।' मतलब आभार प्रदर्शन में भी राशनिंग। शराफत पर बैन।
तकनीक और कृत्तिम बुद्धि के उपयोग से फेसबुक ने व्यवस्था की होगी कि अधिक कमेंट न कर सकें। दुरुपयोग न हो। लेकिन सोचिए तो कितना गड़बड़ है यह 'धन्यवाद नियोजन'। हमारे धन्यवादों की नशबंदी कर दी नामुराद फेसबुक ने। लेकिन हम कर भी क्या सकते हैं। फेसबुक हमारा कोई मातहत तो है नहीं जिसे हम हड़का सकें -'अबे फेसबुक के बच्चे, ये हमारा धन्यवाद क्यों नहीं पहुंचाता दोस्तों तक?' वैसे यह भाषा तो हम मातहत के लिए भी इस्तेमाल नहीं करते। फेसबुक के लिए भी कर थोड़ी रहे हैं बस ऐसे ही बता रहे हैं।
कृत्तिम बुद्धि संवेदना के स्तर पर धृतराष्ट्र होती है। दृष्टि दिव्यांग। उसको टिप्पणियों की भावना नहीं दिखी होगी। यही दिखा होगा चार सौ कमेंट आ रहे इस खाते। इत्ते कमेंट एक साथ उसको अपनी तरफ आती मिसाइलों की तरह लगे होंगें। उसका मिसाइल रोधी सिस्टम सक्रिय हो गया होगा और उसने रोक दी होंगी हमारी टिप्पणियां।
कभी शिकायत करेंगे और उसको मिल भी जाएंगी तो सॉरी बोलकर छुट्टी कर लेगा जैसे अभी अमेरिका ने अफगानिस्तान में किया। कई मासूम बच्चे आतंकवादी समझकर मार दिए ड्रोन हमले से। वाहवाही लूटी फिर जब पता चला और हल्ला हुआ कि मरने वाले आतंकवादी नहीं बच्चे थे तो सॉरी बोल दिया। एक सॉरी के साबुन के टुकड़े से कई बच्चों के खून के दाग धूल गए।
जिस तरह कृत्तिम बुद्धि का हल्ला और प्रयोग बढ़ता जा रहा है उससे लगता है कि आने वाले समय में दुनिया कृत्तिम बुद्धि के हवाले हो जाएगी। सब कुछ कृत्तिम बुद्धि से चलेगा। किसी देश के कम्प्यूटर सिस्टम को लगेगा कि कोई दूसरा देश उस पर हमला करने वाला है तो फौरन मिसाइल चलने लगेंगी। इसी तरह की तमाम बातें और भी होंगी।
कल्पना कीजिये कुछ लोग खुशी में नाच रहे हों तो उस देश की कृत्तिम बुद्धि के भरोसे वाली सुरक्षा व्यवस्था यह समझकर कि ये हाथ ऊपर करके रॉकेट लांचर फेंकने वाले हैं उनपर मिसाइल से हमला कर दे। तमाम लोगों के निपटने के बाद उस देश का प्रवक्ता बयान जारी करके मामला निपटा दे -'हमें अफसोस है, कम्प्यूटर सिस्टम की गलती से कुछ लोग मारे गए।'
इसके बाद शायद इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के लिए बिना अनुमति और पूर्वसूचना के नाचने पर प्रतिबंध लग जाये। प्रगति की कीमत तो चुकानी पड़ेगी भाई।
कृत्तिम बुद्धि मने बनावटी अक्ल के चलते हमारे 399/- रुपये अटके हुए हैं। दैनिक हिंदुस्तान अखबार अपने शहर का तो हम मंगा के पूरा पढ़ लेते हैं। लेकिन बाकी शहरों का ऑनलाइन केवल तीन पेज पढ़ पाते हैं। आगे के लिए पैसे मांगता है। हम सोचते हैं कि क्या खर्चना। लेकिन पिछले हफ्ते हमने ताव में आकर 399/- खर्च कर दिए। पइसे जमा करने के बाद सन्देश आया -'अखबार पढ़ना शुरू करिये।' किया तो फिर तीन पेज पर अटक गया। बोला -'पैसे देव तो आगे पढ़ो।' कितनी बार दें भाई पैसा।
मेल किया तो बोला मेल ब्लॉक है। मने पैसा झटककर गोल हो गयी कृत्तिम बुद्धि। कृत्तिम बुद्धि मतलब बनावटी अक्ल के साइड इफेक्ट हैं ये। अब लगना पड़ेगा पीछे कि क्या लोचा है।
बात हिंदुस्तान अखबार की हो रही है तो बताते चले कि सोमवार को जीने की राह स्तम्भ हम जरूर पढ़ते हैं। इसमें अक्सर पूनम जैन Poonam Jain के लेख आते हैं। कई बार वे बहुत अच्छी सलाह देती हैं। उनको अपने इन लेखों का संकलन छपवाना चाहिए ।
आज उन्होंने आराम की महत्ता पर लिखा है। वे बताती हैं -"जब काम व्यवस्थित होते हैं तो थोड़ी देर का आराम भी हमें तरोताजा कर देता है। शोध कहते हैं कि एक घण्टे पर हमें करीब 17 मिनट का ब्रेक लेना चाहिए।"
अगर इस शोध की माने तो 8 घण्टे के काम में 136 मिनट मतलब करीब सवा दो घण्टे ब्रेक लेना चाहिए। कुछ जगह तो यह व्यवस्था उलटे रूप में लागू है। घण्टे भर में 17 मिनट काम।
बहरहाल घण्टे भर हो गए टाइप करते हुये। अब अपना तो ब्रेक बनता है।
आपका दिन चकाचक बीते।

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Saturday, September 18, 2021

हम तो बांस हैं, जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे



कल एक ढाबे पर चाय पीने के लिए रुके। गाड़ी रुकते ही सर पर मुरैठा बाँधे शख्स हाथ फैलाकर खड़ा हो गया। हथेली पर कुछ सिक्के लुढ़के हुए थे। एक के ऊपर एक अधलेटे सिक्के। किसी सरकार में शामिल न किये गए गए विधायकों की तरह निस्तेज।
मांगने वाले के चेहरे पर दैन्य पसरा हुआ था। दांत ऐसे जैसे कत्थे के घोल में डुबाकर मुंह में फिट करके ऊपर से मसाला बुरक दिया गया हो। मांगते हुए उसके चेहरे पर , जल्दी कुछ मिले तो अगले को पकड़ें वाला भाव। बात करते-करते सर पर बंधे मुरैठे को खोलकर गले में लंबे अंगौछे की तरह लटका लिया।
'हट्टे-कट्टे लोगों को कुछ देना नहीं चाहिए' वाले तर्क के सहारे हमने पैसे बचाये। हमारे तर्क का संहार उसने चेहरे पर दैन्य भाव की मात्रा बढ़ाकर किया। हमारे भीख न देने वाले तर्क को उसने हमारे बचकानेपन की तरह ग्रहण किया। दोनों अपने-अपने तर्को के हथियार चलाते हुए बतियाते रहे।
पांच बच्चे और पत्नी वाले शख्स के बच्चे कबाड़ बीनते हैं। 10 रुपये किलो पालीथिन के कबाड़ का भाव बताया। घर किसी ने दिलाया है। स्थानीय नेता का नाम लेते हुए पूछा -'उनको जानते हो? हमारे जीजा हैं। हमको घर दिलवाया है।'
स्थानीय नेता को जीजा बताने के बाद बड़े नेताओं को चाची, बुआ, चाचा बताते हुए उनसे अपनी नजदीकी बताते हुए अपना हवा- पानी दिखाते हुए कुछ दे देने की फरियाद भी करता रहा। उसके मांगने के अंदाज में कोई हड़बड़ी नहीं थी। बड़े लोग जिनके रिश्तेदार हों, उसको क्या कोई जल्दबाजी।
बताया पहले पंजाब चले जाते थे। लुधियाना। वहां बादल सिंह की सरकार है। वहां अच्छी कमाई है। कोई-कोई तो सौ-पांच सौ भी दे जाता है। आजकल ट्रेन बन्द हैं इसलिए जा नहीं पाए। यहीं मांग रहे हैं। आज तो बारिश के चलते होटल पर भी सन्नाटा है।
कई बार कहा जाता है -'हमारी आबादी हमारी ताकत है'। इसी ताकत के एक अंश को मांगते और कबाड़ बीनते देखकर भगवती चरण वर्मा के उपन्यास का शीर्षक याद आया -'सामर्थ्य और सीमा।'
मांगने वाला शख्स अपाहिज नहीं है। लेकिन मांगने को उसने कमाई का जरिया बनाया। खुद को थोड़ा कमजोर और दीन दिखाकर मांगना शुरू किया। यह भी एक रोजगार है। मांगना भी एक कला है। इस कला के सहारे कमाई करने वालों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। इस क्षेत्र में रोजगार दिन पर दिन बढ़ रहा है।
यह भी हम जैसे सुरक्षित जीवन जीने वालों की सोच है। सच्चाई क्या पता कुछ और हो। मांगना अपने समाज में कभी अच्छा नहीं समझा गया। कहा भी गया है:
'माँगन मरन समान है, मत कोई मांगो भीख,
माँगन से मरना भला, सतगुरु की यह सीख।'
इस सीख के बावजूद मांगने वाले बढ़ते जा रहे हैं। लगता है आज के गुरु कुछ और सिखा रहे हैं या फिर यह कि लोगों के हाल ऐसे हो रहे हैं कि वे 'मरता क्या न करता' का सहारा लेते हुए सतगुरु की सीख को बिसरा रहे हैं।
रास्ते में होती शाम दिखी। सूरज भाई अपनी दुकान समेटकर चले गए थे। आसमान उनके कुछ देर पहले रहने की गवाही दे रहा था। सूरज की किरणें वापस लौटते हुए आसमान से झांक रहीं थी। पेड़ रात के इंतजार में काली चादर ओढ़कर खड़े हो गए थे। अँधेरे और उजाले के संगम में आसमान क्यूट लग रहा था।
पता चला कि आज बांस दिवस है। इस मौके पर हमारे मित्र कवि Rajeshwar Pathak राजेश्वर पाठक की कविता याद आई:
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे,उतना हरियायेंगे.
हम कोई आम नहीं
जो पूजा के काम आयेंगे
हम चंदन भी नहीं
जो सारे जग को महकायेंगे
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे, उतना हरियायेंगे.
बांसुरी बन के,
सबका मन तो बहलायेंगे,
फिर भी बदनसीब कहलायेंगे.
जब भी कहीं मातम होगा,
हम ही बुलाये जायेंगे,
आखिरी मुकाम तक साथ देने के बाद
कोने में फेंक दिये जायेंगे.
हम तो बांस हैं,
जितना काटोगे ,उतना हरियायेंगे.
आज का दिन मुबारक हो आपको।

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Friday, September 17, 2021

जन्मदिन पर शुभकामनाओं के लिए आभार



कल जन्मदिन के मौकों पर घर-परिवार के लोगों, मित्रों-सहेलियों, अग्रजों-अनुजों, शुभचिंतकों-अशुभचिंतकों, आदरणीयों-आत्मीयजनों और अन्य तमाम लोगों की शुभकामानाएं मिलीं। कुछ शुभकामनाएं रास्ते में हैं उनको भी कल की ही तारीख में ग्रहण कर लिया है। जो मित्र शुभकामनाएं देना भूल गए या किसी कारणवश नहीं भेज पाए उनकी तरफ से दुगुनी शुभकामनाएं हमने जबरिया ग्रहण कर लीं हैं। जो होगा देखा जाएगा। 🙂
शुभकामनाओं, आशीर्वचनों, दुआओं के लिये पूरे मन से धन्यवाद, आभार। 💐💐
जन्मदिन के मौके पर लफड़ा एक तो लफड़ा यह होता है कि लगता है जिये भले इतने दिन लेकिन किया क्या? मुक्तिबोध की बातें याद आ जाती हैं:
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया?
कविता का जवाब कविता ही हो सकती है। इसीलिए बहाना भी मिल जाता है वली असी के जरिये:
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे,
मैं जिंदगी पर बहुत एतबार करता था।
तो इसी सवाल और जबाब से दाएं-बाएं होते हुए जन्मदिन वाला दिन बीत जाता है। शुभकामनाएं बटोर के खुश होते हैं।यह लगता है कि और कुछ करें या न करें लेकिन शुभचिन्तकों की दुआओं के पात्र तो बने रहें। उनको यह न लगे कि भले ही डिजिटल रूप में दी लेकिन किसी 'कायदे के इंसान'' को देते तो बढ़िया रहता।
'कायदे का इंसान' होना भी बड़ा लफड़े का काम है। उसके चक्कर में पड़ने की बजाय शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद देकर फूट लेना अच्छा।
आप सभी की शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद, आभार।

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Wednesday, September 15, 2021

हमारे खाली समय पर फालतू गतिविधियों का कब्जा होता जा रहा है

 1. हमारे खाली समय पर फालतू गतिविधियों का कब्जा होता जा रहा है। कई लोग खाली समय के अलावा उपयोगी समय में भी फालतू गतिविधियों को अंजाम देने लगे हैं। हमारे तन, मन और धन का अपव्यय बढ़ रहा है, जिसकी कीमत हम ही नहीं, बल्कि देश भी चुका रहा है।

2. इंटरनेट व स्मार्टफोन के माध्यम से हजारों कम्पनियां हमारा ख़ाली समय छीन लेना चाहती हैं। ये कम्पनियां हमसे जितना समय छीनेंगीं, उनकी कमाई उतनी ही बढ़ेगी। सुनियोजित रूप से ऐसे उपक्रम चल रहे हैं, जो हमें किसी न किसी तरह से समझाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं।
- आज के दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित मधु श्री की रिपोर्ट

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बोरियत कोई बुरी बात नहीं है

 बोरियत कोई बुरी बात नहीं है। वास्तव में नकारात्मक वक्त वह है, जिसे हम बर्बाद कर देते हैं। हमारे उन सभी पलों को सोशल मीडिया द्वारा सोच समझकर चुराया जाता है।

आज के समय में कुछ न करने में सक्षम होना स्वर्ग में होने के समान है। फिर भी यह काम और कठिन होता जा रहा है, क्योंकि बुरी बोरियत हमारे सारे समय को भर दे रही है।
-एनोनियारसी मेग्लियो

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मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था

 मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती) करता था
मगर सफ़र न कभी एख़्तियार (शुरू)करता था।

तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैँ जिंदगी पे बहुत एतबार (भरोसा)करता था।
तमाम उम्र सच पूछिये तो मुझ पर
न खुल सका कि मैं क्या कारोबार करता था।
मुझे जबाब की मोहलत कभी न मिल पायी
सवाल मुझसे कोई बार-बार करता था।
मैं खो गया वहीँ रास्तों के मनाजिर (मंजर) में
उदास रह के कोई इंतजार करता था।
-वाली असी
यह गजल सौजन्य से हमारे मित्र Shree Krishna Datt Dhoundiyal जो कि उन्होंने याद के आधार पर साझा की। यह मुझे अपनी कहानी लगती है। शायद आपको भी लगे:
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैं जिंदगी पे बहुत एतबार करता था।

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Tuesday, September 14, 2021

हिन्दी दिवस के कुछ अनुभवों से


१. सितम्बर का महीना देश में हिन्दी का महीना होता है। हिन्दी नहीं, राजभाषा का। देश भर में राजभाषा माह, पखवाड़ा, सप्ताह, दिवस मनाया जाता है। श्रद्धा और औकात के हिसाब से। क्या पता कल को राजभाषा घंटा, मिनट या फ़िर सेकेंड भी मनाया जाने लगे।
२. एक दक्षिण भारतीय ने बताया कि -पहले उनको लगता था हिन्दी कविता में हर पांचवी लाइन के बाद वाह-वाह बोला जाता है।
३. एक कवि ने अपनी किसी कविता में ’कड़ी’ शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने उसको ’कढ़ी’ समझकर ग्रहण किया और कल्पना करते रहे कि क्या स्वादिष्ट कल्पना है।
४.आज अगर नेता, पुलिस पर कविता लिखना बैंन हो जाये तो आधे हास्य कवि या तो बेरोजगार हो जायें।
५.आपातकाल में तमाम लोगों ने इस तरह की कवितायें लिखीं जिनके व्यापारियों के खातों की तरह दो मतलब होते थे। एक जो सारी जनता समझती थी दूसरा वह जिसे सिर्फ़ वे समझते थे। अपना मतलब उन्होंने दुनिया भर को आपातकाल के बाद बताया और अपने लिये क्रांतिकारी कवि का तमगा गढ़कर खुदै ग्रहण कल्लिया।
६. एक कवि सम्मेलन में वीर रस के कुछ कवियों ने पाकिस्तान कोी गरियाया। पाकिस्तान को गरियाते हुये एक ने तो इत्ती जोर से कविता पढ़ी कि मुझे लगा कि अगर पाकिस्तान कहीं उसको सुन लेता तो एकाध फ़ुट अफ़गानिस्तान की तरफ़ सरक जाता।
७. पाकिस्तान में भी हिन्दुस्तान के विरोध में वीर रस की कवितायें लिखीं और चिल्लाई जाती होंगी। सोचता हूं कि क्या ही अच्छा हो कि दोनों देश की वीर रस की कविताओं की ऊर्जा को मिलाकर अगर कोई टरबाइन चल सकता तो इत्ती बिजली बनती कि अमेरिका चौंधिया जाता। ऐसा हो सकता है। दोनों देशों के वीर रस के कवि जिस माइक से कविता पाठ करें उसके आवाज बक्से के आगे टरबाइन फ़िट कर दी जाये। इधर कविता शुरू हो उधर टरबाइन के ब्लेड घर्र-घर्र करके चलने लगें और दनादन बिजली उत्पादन होने लगे। बिजली के तारों पर सूखते कपड़े जलकर खाक हो जायें। हर तरफ़ रोशनी से लोगों की आंखें चमक जायें।
८.हिन्दी लिख-पढ़ लेने वाले लोग हिन्दी दिवस के मौके पर पंडितजी टाइप हो जाते हैं। उनके हिन्दी मंत्र पढ़े बिना किसी कोई फ़ाइल स्वाहा नहीं होती। काम ठहर जाता है। हिन्दी का जुलूस निकल जाने का इंतजार करती हैं फ़ाइलें। हिन्दी सप्ताह बीते तब वे आगे बढ़ें।
९. हिन्दी दिवस के दिन साहब लोग हिन्दी का ककहरा जानने वालों को बुलाकर पूछते हैं- पांडे जी अप्रूव्ड को हिन्दी में क्या लिखते हैं? स्वीकृत या अनुमोदित? ’स’ कौन सा ’पूरा या आधा’ , ’पेट कटा वाला’ या सरौता वाला?
१०. काव्य प्रतियोगिताओं में लोग हिन्दी का गुणगान करने लगते हैं। छाती भी पीटते हैं। हिन्दी को माता बताते हैं। एक प्रतियोगिता में दस में से आठ कवियों ने हिन्दी को मां बताया। हमें लगा कि इत्ते बच्चे पैदा किये इसी लिये तो नही दुर्दशा है हिन्दी की?
११. कवि आमतौर पर विचारधारा से मुक्ति पाकर ही मंच तक पहुंचता है। किसी विचारधारा से बंधकर रहने से गति कम हो जाती है। मंच पर पहुंचा कवि हर तरह की विचारधारा जेब में रखता है। जैसा श्रोता और इनाम बांटने वाला होता है वैसी विचारधारा पेश कर देता है।
१२. कोई-कोई कवि जब देखता है कि श्रोताओं का मन उससे उचट गया तो वो चुटकुले सुनाने लगता है। वैसे आजकल के ज्यादातर कवि अधिकतर तो चुटकुले ही सुनाते हैं। बीच-बीच में कविता ठेल देते हैं। श्रोता चुटकुला समझकर ताली बजा देते हैं तो अगला समझता है- कविता जम गयी।
१३. विदेश घूमकर आये कवि का कवितापाठ थोड़ा लम्बा हो जाता है। वो कविता के पहले, बीच में, किनारे, दायें, बायें अपने विदेश में कविता पाठ के किस्से सुनाना नहीं भूलता। सौ लोगों के खचाखच भरे हाल में काव्यपाठ के संस्मरण सालों सुनाता है। फ़िर मुंह बाये , जम्हुआये श्रोताओं की गफ़लत का फ़ायदा उठाकर अपनी सालों पुरानी कविता को -अभी ताजी, खास इस मौके पर लिखी कविता बताकर झिला देता है।
१४. कोई-कोई कवि किसी बड़े कवि के नाम का रुतबा दिखाता है। दद्दा ने कहा था- कि बेटा तुम और कुछ भी न लिखो तब भी तुम्हारा नाम अमर कवियों में लिखा जायेगा। कुछ कवि अपने दद्दाओं की बात इत्ती सच्ची मानते हैं कि उसके बाद कविता लिखना बंद कर देते हैं। जैसे आखिरी प्रमोशन पाते ही अफ़सर अपनी कलम तोड़ देते हैं।
१५. बिहार से रीसेंटली अभी एक मेरे फ्रेंड के फादर-इन-ला आये हुए थे, बताने लगे - 'एजुकेसन का कंडीसन भर्स से एकदम भर्स्ट हो गया है. पटना इनुभस्टी में सेसनै बिहाइंड चल रहा है टू टू थ्री ईयर्स. कम्प्लीट सिस्टमे आउट-आफ-आर्डर है. मिनिस्टर लोग का फेमिली तो आउट-आफ-स्टेटे स्टडी करता है. लेकिन पब्लिक रन कर रहा है इंगलिश स्कूल के पीछे. रूरल एरिया में भी ट्रैभेल कीजिये, देखियेगा इंगलिस स्कूल का इनाउगुरेसन कोई पोलिटिकल लीडर कर रहा है सीजर से रिबन कट करके.किसी को स्टेट का इंफ्रास्ट्रक्चरवा का भरी नहीं, आलमोस्ट निल 🙂 ( १५ नम्बर रिटेन by Indra Awasthi )

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