Sunday, May 29, 2022

एवरेस्ट दिवस पर एवरेस्ट बेस कैंप



आज का दिन हमारे छोटे साहबजादे Anany और उनके दोस्तों के लिए खास रहा। आज वे घुमक्कड़ी की मंजिलें तय करते हुए 'एवरेस्ट बेस कैंप' पहुंचे। कठिन रहा सफर। आज का दिन बहुत मेहनत भरा रहा। खासकर अनन्य और उसके दोस्त मोहित के लिए। आज उनको दो दिन के बराबर चढ़ाई करनी पड़ी। थकान इतनी जितनी, बकौल अनन्य, जिंदगी में कभी हुई नहीं।
हुआ यह कि कल इनकी टीम की एक साथी को आक्सीजन की कमी महसूस हुई। बाकी साथी आगे बढ़ गए थे। साथी का आक्सीजन लेवल 44 बता रहा था। ये लोग वहीं रूके। अपनी समझ से साथी की देखभाल की। फोन पर यहां डॉक्टर से सलाह ली। आखिर में साथी को नीचे भेजा। वहां वह अब ठीक है। अनन्य और मोहित वहीं रुक गए। एक दिन साथियों से पिछड़ गए।
आज ही एवरेस्ट बेस कैम्प पहुंचने का सभी का प्रोग्राम था। अनन्य और मोहित एक दिन पिछड़ गए थे। लेकिन अंततः आज ही चढ़ाई पूरी करके एवरेस्ट बेस कैंप पहुंच गए।
संयोग से आज एवरेस्ट दिवस भी था। आज के ही दिन 69 साल पहले 1953 को शेरपा तेनसिंह और सर एडमंड हिलेरी ने पहली बार एवरेस्ट पर कदम रखे थे। जिस शिखर पर आज के दिन ये दो महान पर्वतारोही पहुंचे, उसकी तलहटी पर आज के ही दिन पहुंचना अपने में खास, खुशनुमा एहसास रहा होगा।
अनन्य , काजल और उनकी टीम को बधाई। फिरगुन ट्रेवेल्स की शानदार शुरुआत के लिए बधाई। सभी बच्चों को प्यार।
अनन्य और उनकी टीम की घुमक्कड़ी से जुड़े फोटो और वीडियो देखने के लिए ananyshukla के इंस्टाग्राम खाते पर पहुंचे।
हमारे बच्चे हमको भी घुमक्कड़ी के लिए उकसा रहे हैं।

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Wednesday, May 18, 2022

जो मेरे घर कभी नहीं आयेंगे



जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे
मैं उनसे मिलने
उनके पास चला जाऊँगा।
एक उफनती नदी कभी नहीं आएगी मेरे घर
नदी जैसे लोगों से मिलने
नदी किनारे जाऊँगा
कुछ तैरूँगा और डूब जाऊँगा ।
पहाड़, टीले, चट्टानें, तालाब
असंख्य पेड़ खेत
कभी नहीं आएँगे मेरे घर
खेत-खलिहानों जैसे लोगों से मिलने
गाँव-गाँव, जंगल-गलियाँ जाऊँगा।
जो लगातार काम में लगे हैं
मैं फ़ुरसत से नहीं
उनसे एक ज़रूरी काम की तरह
मिलता रहूँगा—
इसे मैं अकेली आख़िरी इच्छा की तरह।
-विनोद कुमार शुक्ल
सौजन्य से Pankaj Chaturvedi जी जिनकी फ़ेसबुक पोस्ट पर पहुँचकर बहुत प्यारा संस्मरण पढ़ सकते हैं।

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Monday, May 16, 2022

विलक्षण साइकिल यात्री -भाऊसाहब भंवर



पिछले हफ्ते दो साइकिल यात्रियों से मिलना हुआ। पहले 10 साल के आरव भारद्वाज जो अपने पिता डॉ अतुल भारद्वाज के साथ मणिपुर से दिल्ली की साइकिल यात्रा पर निकले हैं। अब वे दिल्ली पहुंच भी गए। उनकी यात्रा पूरी हुई। आरव की यात्रा के बारे में हमको पता था। फोन आदि से सम्पर्क में थे। मिलने के पहले उनके बारे में जानकारी थी।
दूसरे साइकिल यात्री से मिलना संयोग से हुआ। शनिवार को घर में थे। पता चला कोई साइकिल यात्री कश्मीर से कन्याकुमारी यात्रा के दौरान शाहजहांपुर आये हैं। मिलना चाहते हैं।
मुलाकात हुई तो पता चला कि ये साइकिल यात्री विलक्षण हैं। 1993 से साइकिल से भारत भ्रमण कर रहे हैं। 5 बार सम्पूर्ण भारत भ्रमण कर चुके हैं। अब छठी बार निकले हैं।कुल 3.5 लाख किलोमीटर साइकिल चला चुके हैं अब तक। यात्रा के दौरान अनेक बड़ी हस्तियों से मिल चुके हैं। जिनमें महामहिम राष्ट्रपति महोदय, अनेक गणमान्य राज्यपाल महोदय और अनेक नामचीन हस्तियां शामिल हैं। उनके साथ के फोटो, प्रशस्ति पत्र आदि साथ में लेकर चलते हैं-भाऊसाहब भंवर।
महाराष्ट्र के जालना जिले के कस्बे के रहने वाले भाऊसाहब ने 1993 में साइकिल यात्रा शुरू की। यात्रा शुरू करने के पीछे इनकी बहन की दहेज के कारण शादी टूटना था। दहेज और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ जागरूकता फैलाना इनकी यात्रा का मुख्य उद्देश्य है। लालच से दूर रहना, संतोषप्रद जीवन, सहअस्तित्व के बारे में बात करते चलते हैं भाऊसाहब।
पचास साल के लगभग उम्र के भाऊसाहब ने खुद विवाह नहीं किया अब तक। हमने कहा -'बिना दहेज के विवाह करके आदर्श स्थापित करना चाहिए आपको।' इस पर उन्होंने कहा -'अब साइकिल यात्रा के अलावा उनके जीवन का कोई उद्देश्य नहीं।'
आज के संचार युग में भाऊसाहब बिना मोबाइल चलते हैं। कोई सम्पर्क नहीं। कोई पता नहीं। बस जो हैं वही हैं। खाने -पीने के लिए लोग सहयोग कर देते हैं। कोई पैसे से कोई खाना खिलाकर। इतनी लंबी यात्रा के निवेश को देखकर लोग सहयोग कर ही देते हैं। एक संस्था ने 10 हजार रुपये दिए, उसका फोटो साथ है उनके।
शाहजहांपुर में आर्मी कैंट गए। वहां किसी ने उनको मेरे बारे में बताया। मिलने आये। तमाम यादें साझा कीं।
यादों के साझा करने के क्रम में ज्यादातर अच्छे अनुभव ही बताए। बताया लोग बहुत अच्छे हैं। एक जगह आतंकवादियों ने अपहरण भी किया। फिर छोड़ दिया।
भाऊसाहब के अनुभव के अनुसार -'सबसे अच्छे लोग बिहार के हैं। बहुत सम्मान किया। बहुत प्यार दिया।' मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के लोग भी अच्छे हैं। उत्तर प्रदेश के अनुभव उतने उत्साहित करने वाले नहीं रहे। केरल के लोग बहुत पढ़े लिखे हैं लेकिन उतने उदार हृदय नहीं।
तमाम तरह के अनुभव साझा किए भाऊसाहब ने। मुलाकात के बाद बरेली के लिए निकल गए।
भाऊसाहब के बारे में तमाम जानकारी गूगल में मौजूद है। देखिए उनके बारे में जानकारी और मन करे तो निकल लीजिए यात्रा पर। यात्राओं से हम बहुत कुछ सीखते हैं।
भाऊसाहब भंवर के बारे में तमाम जानकारी के लिए गूगल में खोजिए
Bhausaheb cyclist

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Thursday, May 12, 2022

सैर कर दुनिया की गाफिल

 


परसों आरव भारद्वाज , उनके पिता डॉ अतुल भारद्वाज , दादा आर. एस. भारद्वाज से मिलना हुआ। आरव अपने पिता, बाबा और उनके पारिवारिक मित्र जसपेर बलसारा के साथ मणिपुर के मोहरांग से दिल्ली की साइकिल यात्रा पर निकले हैं।
14 अप्रैल को मोहरांग से चलकर आठ प्रदेशों से होते हुए 10 मई को शाहजहांपुर पहुंचे साईकिल यात्री। मोहरांग से दिल्ली यात्रा का उद्देश्य नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की 125 जयंती के मौके पर उनके देश के लिए किए गए कार्यों को याद करते हुये उनके प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करना है।
10 साल के आरव कक्षा 6 में पढ़ते हैं। पिता डॉ अतुल भारद्वाज दिल्ली में आर्थोपेडिशियन हैं। मम्मी डॉक्टर स्वाति भारद्वाज भी दिल्ली में डॉक्टर हैं। दादा आर.एस. भारद्वाज पेशे से वकील हैं। साथ में डॉ भारदाज के चाचा भी हैं। इसके अलावा पारिवारिक मित्र जसपेर भारद्वाज टूर एंड ट्रेवल (J.B.Tours and Travels) का काम करते हैं।
यात्रा का कार्यक्रम दादा और पिता की चाहत की जुगबन्दी से बना। बेटा आरव उत्साहित होकर इस यात्रा का हीरो बना। आरव अपने पिता डॉ अतुल भारद्वाज के साथ साइकिलिंग करते हैं। दादा और अन्य दो लोग कार में सपोर्ट सिस्टम के साथ रहते हैं। साथ में एक साइकिल और भी है वैकल्पिक उपयोग के लिए। रास्ते में अभी तक केवल एक बार ही साइकिल पंक्चर हुई। एक दिन औसतन 70-80 किलोमीटर साइकिल चला लेते हैं। 8 बार अभी तक एक दिन में सौ से ऊपर किलोमीटर साइकिल चलाई।
परसों शाम को मुलाकात हुई आरव और उनके घर वालों से। यात्रा के अनुभव की जानकारी ली। अधिकतर सुबह यात्रा कर लेते हैं। शाम को आराम। ठहरने की जगह पहले आमतौर तय कर लेते हैं। स्थानीय लोग , संस्थाएं सहयोग करती हैं। शाहजहांपुर में सेवानिवृत्त विंग कमांडर पी के गुप्ता जी ने सक्रिय सहयोग किया।
10 साल की उम्र में लंबी साइकिल यात्रा करके हीरो बन गया है आरव। हिम्मत ,जज्बा और उत्साह और घर वालों के सहयोग से 2500 किमी की यात्रा लगभग पूरी ही होने वाली है। अभी तक लगभग 2 लाख रुपये खर्च हो चुके हैं इस यात्रा।
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के नाम से जुड़ी यात्रा के कारण जगह-जगह लोग स्वागत करते हैं। बच्चे के वजन से ज्यादा मालाएं हो जाती हैं, कभी-कभी। पूरा चेहरा मालाओं से ढंक जाता है। यात्रा के उद्देश्य और नेता जी जुड़ी घटनाओं के बारे में बताते हैं आरव। पिता साथ में सहयोग के लिए।
कल सुबह शाहजहांपुर से बरेली के लिए आरव और उनके परिवार के लोग। मार्निंग वॉकर ग्रुप के तमाम साथी इकट्ठा हुई। फूलमालाएं पहना कर विदा किया गया। हरदोई से शाहजहांपुर आये थे आरव। बरेली जाना था। चलते समय आरव को बोलना था -'आज हम शाहजहांपुर से बरेली जा रहे हैं।' बरेली की जगह दो बार हरदोई बोलने के बाद बरेली आया। जगहों के नाम आसानी से ज़बान पर चढ़ते कहाँ हैं।
कुछ लोग कुछ दूर तक भेजने गए आरव को। अपन बरेली मोड़ तक गए। वहां भूतपूर्व सैनिक संगठन के लोग एकत्र हुए थे भेजने के लिए। विदा करके हम लौट आये।
आज बरेली से मुरादाबाद के लिए निकलेंगे आरव और उनके परिवार के लोग। मुरादाबाद में आरव को उनकी मम्मी मिलेंगी। वे आगे फिर दिल्ली जाएंगे। 15 मई को यात्रा पूरी होंगीं।
आरव और उनके परिवार की साइकिल यात्रा के बहाने लगभग 39 साल पहले की साइकिल से भारत यात्रा की यात्रा आई। उस समय न तो संचार इतना सुगम था न ही अन्य सुविधाएं लेकिन फिर भी यात्रा हुई।
हम तो फिर भी सड़क और अन्य माध्यमों से घूमें। हमारे जो बुजुर्गवार दुर्गम रास्तों में घूमें, अनजान जगहों पर रहे उनके अनुभव तो और भी अनूठे रहे होंगे। तभी तो वे कहते हैं:
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल,
जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगानी गर रही तो
नौजवानी फिर कहाँ।
तो कब निकल रहे हैं सैर पर? निकल लीजिए, जो होगा देखा जाएगा।
इस साइकिल यात्रा से जुड़ी फोटो और वीडियो आप इस पेज पर देख सकते हैं। देखिए अच्छा लगेगा।

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Monday, May 09, 2022

मैं जिंदगी पर बहुत एतबार करता था



कल इतवार था। इतवार को सुबह भी लगता है तसल्ली से सोकर उठती है। सुबह कई बार उठने का मन बनाते-बनाते भी हर इतवार की तरह देर से ही उठते। कोई भी काम टाल देने पर मुझे हमेशा कृष्ण बिहारी 'नूर' साहब के शेर याद आते है:
मैं रोज मील के पत्थर शुमार (गिनती)करता था,
मगर सफर न कभी एख्तियार (शुरू)करता था।
तमाम काम अधूरे पड़े रहे मेरे
मैं जिंदगी पर बहुत एतबार (भरोसा)करता था।
बहरहाल एक बार फिर देरी हो जाने के बाद उठे। टहलने निकले। लान में धूप पेड़ , पत्तियों से गपिया रही थी। फूल हवा के झूले झूल रहे थे।
सड़क के किनारे गुलमोहर और अमलतास के पेड़ आपस में बतिया रहे थे। एक तरफ गुलमोहर, दूसरी तरफ अमलतास!
हवा के झोंके से उनके फूल हिलडुल जाते थे, कोई-कोई फूल कभी नीचे भी टपक जाता। जिस डाली, फुनगी से फूल गिरता वह सिहर जाती। कुछ देर में फिर पहले की तरह सहज होकर झूमने, हिलने लगती। पूरी कायनात ऐसे ही चलती है।
अम्बेडकर पार्क के पास चार बच्चे कुछ खोजते दिखे। पूछने पर बताया कि उनके तीन सौ रुपये खो गए थे। तीन सौ रुपये कहां से आये पूछने पर बताया -'आम के बगीचे से आम बीनकर बेचे थे। उसी के पैसे थे।'
तफसील से पूछने पर बताया बच्चों। पास के गांव में रहते हैं। सुबह चार बजे उठकर पेड़ों से गिरे आम बीनने निकले थे। कुछ रास्ते में बीने। बाकी बगीचे में। बगीचे में मालिक ने आम बिनवाये। बड़े खुद रख लिए। छोटे आम मेहनताने के तौर पर बच्चों को दे दिए। बच्चों ने सारे आम बेंच लिए। 300/- मिले। घर जाने के पहले झूला झूलने के लिए पार्क में आये। वहीं कहीं गिर गए।
झूला झूलने के लिए एक लड़के ने मना किया था। लेकिन बहुमत झूलने वालों का था। वहीं गिर गए पैसे।
आम क्या भाव बेचे पूछने पर बताया बच्चों ने -'तौल के थोड़ी बेचे। ऐसे ही ढेरी में बेंच दिए।'
छठवीं, सातवीं में पढ़ने वाले बच्चों के पिता कोई मिस्त्री का काम करते हैं, कोई खेती। 300/- खोने का दुख उनकी बातचीत में बार-बार आ रहा था। एक कह रहा था -'घर में मार पड़ेगी।'
बच्चों से बातचीत करते हुए बचपन में बिजली की दुकानों के बाहर पड़े तांबे के टुकड़े बीनकर कबाड़ वालों को बेचकर चवन्नी-अठन्नी कमाने के दिन याद आये।
आगे एक जगह दो महिलाएं गोद में बच्चे लिए खड़ी दिखीं। धूप में। पता चला उनमें से एक बच्ची की एक चप्पल कहीं गिर गयी थी। उनको यहां उतारकर मोटरसाइकल वाला चप्पल खोजने गया है।
महिलाएं देवरानी, जेठानी हैं। जेठानी पांच साल सीनियर है। मोटरसाइकिल वाला अपनी पत्नी, भाभी और दो बच्चों को साथ लेकर शहर जा रहा है। खरीदारी के लिए।
बातचीत करते हुए देवरानी बताती है -'हमाये ससुर नौकरीं करते थे। अब पेंशन मिलती है।'
कहाँ नौकरीं करते थे नहीं बता पाई। बाद में उसके पति ने बताया -'सिंचाई विभाग में काम करते थे।'
देवरानी-जेठानी में लड़ाई होती है कि नहीं ? पूछने पर दोनों हंसने लगीं। देवरानी ने उल्टा मुझसे पूछा -'देवरानी-जेठानी क्या लड़ने के लिए ही होती हैं?'
हमारे पास इसका कोई जबाब नहीं था। किसी के पास नहीं होगा।
कुछ देर में मोटरसाइकिल वाला वापस आ गया। चप्पल कहीं मिली नहीं। एक जो मिली वह दूसरी तरह की थी।
मोटरसाईकल पर देवरानी-जेठानी अपने बच्चों समेत बैठ गईं। कुल मिलाकर पांच लोग बैठे थे। बिना हेलमेट के सवार को पहले टोंकने का मन हुआ। लेकिन फिर मन को बरज दिया।
खुशी-खुशी जाते किसी को टोकने से क्या फायदा। कुछ ऊंच-नीच हो गयी तो मन अलग से खराब हो और सोचें -'टोंकना नहीं चाहिए था।'
जिंदगी पर एतबार बड़ी चीज है।
है कि नहीं ?

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फिरगुन ट्रेवेल्स – घुमक्कड़ी की दुनिया



मेरे छोटे बेटे अनन्य Anany ने एक साल पहले अपनी नौकरी छोड़कर घुमक्कड़ी शुरू की। कुछ दिन अकेले घूमने के बाद उसने ‘ट्रिप लीडिग’ शुरू की। लगभग साल भर घूमने-घुमाने के बाद,कुछ दिन पहले ही उसने अपनी घुमक्कड़ दोस्त काजल के साथ firguntravels.com नाम से कंपनी शुरू की।
(फ़िरगुन इज़राइली संस्कृति में एक हिब्रू शब्द और अवधारणा है।
फिरगुन - जो किसी की प्रशंसा करता है या दूसरे व्यक्ति की उपलब्धि में वास्तविक, निःस्वार्थ खुशी या गर्व का वर्णन करता है।)
अपनी नौकरी छोड़ने का साल पूरा होने पर अनन्य ने अपने उद्गार कुछ इस तरह व्यक्त किए। यहाँ इस एक साल के सफर के कुछ फ़ोटो नीचे वीडियो में हैं:
“मैंने ठीक एक साल पहले अपनी कॉर्पोरेट नौकरी छोड़ दी थी। मुझे नहीं पता था कि अगला एक साल मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण साल होगा।
मैंने एक अकेले यात्री के रूप में शुरुआत की जो स्थानों और लोगों का पता लगाना चाहता था।
फिर, मैंने अपनी तरह के लोगों के लिए चीजें (लिखना, फोटोग्राफी आदि) बनाना शुरू किया। दोस्त/साथी , जिन्हें उपचार, प्रेम और कुछ वास्तविकता की आवश्यकता थी।
इसे एक पायदान ऊपर ले जाने की कोशिश में, मैंने ट्रिप लीडिंग शुरू की । इसने मुझे पूरी तरह से बदल दिया।
लोग कहते हैं कि जब मैं किसी अजनबी से मिलता हूं , तो उन्हें हमेशा उस स्थिति से बेहतर स्थिति में छोड़ता हूं , जिसमें मैंने उन्हें पहली बार देखा था।
वह मेरा लक्ष्य बन गया, मेरी फिरगुन।
इन सब में मुझे बहुत कुछ त्यागना पड़ा- इसमें रातों की नींद त्यागना , कड़ी मेहनत करना , खुद को स्थगित कर देना और इसके अलावा भी बहुत कुछ शामिल था।
सच कहूं तो मैंने अपने भीतर जो कुछ भी था उसे एक ऐसी जगह बनाने के लिए दिया जहां लोगों को लगता है कि जीवन का अर्थ उससे कहीं अधिक है जितना वे वर्तमान में सोचते हैं।
इस प्रक्रिया में मेरा कुछ लोगों से संपर्क टूट गया, अपने कुछ कुछ मित्रों को निराश भी किया। वास्तव में , मैं सभी की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सका। मैं चाहता हूं कि आप सभी को पता चले कि मैंने कोशिश की।
अंदर से , मुझे पता था कि जो प्रभाव पैदा हो जा रहा था, उसे शायद मेरे तरफ से और समर्पण चाहिए।
हर एक चीज इसके लायक रही है। मुझे जितना प्यार मिला है, जिस तरह के लोगों को मैंने हासिल किया है, जो अनुभव मैंने हासिल किए हैं, उनसे लगता है वे मुझे सफलता का एहसास कराते हैं। मैंने इसके पहले इससे ज्यादा जीवंत महसूस नहीं किया है। मैंने पिछले एक साल के भीतर 5 साल के बराबर जिंदगी जी है।
आज, जब मैंने काजल के साथ अपनी खुद की ट्रैवल कंपनी (firguntravels.com) शुरू की है, मैं इस पूरी यात्रा पर पीछे मुड़कर देखना चाहता हूं और आप सभी को बताना चाहता हूं कि यहां मैंने , इस लड़के ने, एक दिन अपनी जिंदगी बदलने का फैसला किया, कुछ कड़े फैसले लिए और पूरे समर्पण से अपना सब कुछ दिया। अगर वह कर सकता है तो आप भी कर सकते हैं।
जाओ , सपने देखो और फिर उन सपनों का पीछा करो।
आखिर में यह सब बेशकीमती होगा।“
-अनन्य शुक्ला

Saturday, May 07, 2022

प्यार करते हैं हम तुम्हें इतना



पहले का किस्सा इधर पढ़ें :
बात ईद के मेले की हो रही थी। जब तक हम ईदगाह पहुंचे, ईद की नमाज पढ़ी जा चुकी थी। ईदगाह के बाहर गेट के पास एक मोटरसाइकिल दरबान की तरह टेढ़ी खड़ी थी। हम बगलिया के आगे गए। अंदर का मंजर देखा। जगह-जगह पानी के डब्बे रखे थे, शायद नमाज पढ़ने वालों के लिए। थोड़ी देर पहले जहां हज्जारों लोग रहे होंगे, करोड़ों- अरबों आक्सीजन के अणुओं की खपत हो रही होगी , उतनी ही कार्बन डाई आक्सीजन निकल रही होगी वह इलाका खाली था।
ईदगाह के सामने मैदान में तमाम लोग आते-जाते दिखे। पता चला कब्रिस्तान है। लगभग हर कब्र पर कुछ फूल , अधिकतर गुलाब के चढ़े दिखे। कुछ कब्रों के पास खड़े लोग दुआ मुद्रा में थे। वहां मौजूद लोगो ने बताया कि अपने घर-परिवार के गुजर गए लोगों की कब्रों के पास आकर लोग उनकी याद करते हैं। फातिहा पढ़ते हैं। दुआएं भी मांगते हैं। इसी बिछुड़ गए लोगों से जुड़ी यादें ताजा करते हैं। कहते हैं :
“तुम पर सलाम ऐ कब्रोंवालों ! तुम हमसे पहले चले गए और हम तुम्हारे पीछे आने वाले हैं और अगर अल्लाह तआला ने चाहा तो हम जरूर तुम्हारे साथ मिलने वाले हैं।“
एक जगह फातिहा पढ़ने आए लोगों ने बताया कि उनके पिता 30 साल पहले नहीं रहे थे। बाद में परिवार के और लोग भी नहीं रहे। सबकी कब्रें आस-पास हैं। जगह की कमी के चलते कच्ची कब्रें बनवाई जाती हैं। कुछ कब्रें पक्की भी दिखीं। हमने पूछा तो उन्होंने कहा –‘क्या कहें इस बारे में।‘
फूल चढ़ाते, अगरबत्ती सुलगाते लोगों से बातचीत के दौरान उन्होंने हमको पहचान लिया। बताया –‘आप अयूब भाई को अस्पताल में देखने आए थे।‘ अपने बारे में बताया, काम-धाम के बारे में। अपना कार्ड भी दिया। दुनियावी सिलसिला हर जगह मौजूद रहता है।
इसी दौरान कब्रिस्तान के एक हिस्से में आग और गहरा धूँआ दिखा। किसी अगरबत्ती की चिंगारी से आग लग गई होगी। घास सूखी थी, आग अफवाह की तरह फैल गई। एक झाड़ी से आग दूसरी झाड़ी तक पसरती गई जैसे अफ़वाही संदेशे एक मोबाइल से दूसरे मोबाइल में गुजरते हुए पलक झपकते सब तरफ फैल जाते हैं। गनीमत रही कि हवा तेज नहीं थी और झाड़ियाँ दूर-दूर थीं इसलिए आग अपने-आप कुछ देर में बुझ गई। धूँआ अलबत्ता काफी देर तक पसरा रहा। अफवाहों के साथ भी ऐसा ही होता है। उनके खत्म हो जाने के बाद भी उनकी स्याह तस्वीर देर तक समाज के जेहन में बनी रहती है। जाते-जाते ही जाती है।
कब्रिस्तान से बाहर आकार फिर मेले की तरफ आए। जगह-जगह दुकाने गुलजार थीं। मेले लोगों के मिलन-जुलन, रोजगार-कमाई का जरिया होते हैं। स्थानीय सुपर मार्केट, मॉल। हर तरह के सामान और हुनर की मौजूदगी रहती है मेलों में। आजकल के शापिंग मॉल मेल संस्कृति की फूहड़ लेकिन चमकदार नकल हैं।
मॉल में केवल चमकदार चीजों और नजारों के बिकने और दाखिलों की गुंजाइश होती है, जबके मेला-मदार सबके लिए खुले होते हैं। चमकदार, चटकीले, रंग-बिरंगे नजारों की अहमियत के साथ धूसर और कम चमकीले रंगों को खिलने की भी बराबर अनुमति होती है। शापिंग मॉल में जगर-मगर, चमक-दमक की तानाशाही होती है तो मेलों में हर तरह के नजारे को खिलने की आजादी। मॉल किसी समर्थ के घर खिला बगीचा जैसे होता है जिसमें केवल चुनिंदा फूल खिलते हैं। जबकि मेले एक बड़ा जंगल जिसमें हर तरह के , हर रंग के , हर तरह की खुशबू के फूल खिलने के बारबार मौके होते हैं। मेले समाज में बराबरी की मुनादी करते हैं, जबकि मॉल गैर बराबरी का भोंपू बजाते रहते हैं।
आगे एक मैदान में तरह-तरह के झूले दिखे। कुछ में लोग झूल रहे थे। बाकी झूले शायद शाम को गुलजार हों। एक जगह बच्चे कूदने वाले झूले पर कूद रहे थे। गोल घेरे में कसे कपड़े पर बच्चे उछल रहे थे। बच्चों की सुरक्षा के लिए कपड़े के घेरे पर जाली लगी थी, उसी में बने खिड़की नुमा जगह से बच्चे अंदर जाकर उछल रहे थे।
झूलों का इंतजाम देखने वाले शख्स फैक्ट्री से ही रिटायर हुए हैं। देखते ही मिले। बताया पहले भुसावल में थे। बताया रामलीला में उनके ही झूले लगते हैं। दो साल हुई नहीं रामलीला। कोरोना लीला देखते हुए निकल गए दो साल। इस बार आशा और इंतजार है कि रामलीला होगी, मेला लगेगा, झूले भी।
झूले का इंतजाम भी बड़ा टेढ़ा है। सारी जिम्मेदारी मेला लगवाने वाले की। कोई दुर्घटना घट जाए तो बवाल। जितने दिन मेला चलता रहता है,मेला लगवाने वाले के धुकुर-पुकुर होती रहती है, कोई अनहोनी न हो जाए।
लोग दुनिया को भी बड़ा मेला बताते हैं। चल रहा है न जाने कब से ,अबाध गति से। दुनिया का मेले का इंतजाम देखने वाले को कितनी धुकुर-पुकुर होती होगी, इसका अंदाज ही लगाया जा सकता है। आजकल तो दुनिया के हर इलाके में हल्ला-गुल्ला मचा है। दुनिया के मेले का इंतजाम देखने वाले कारसाज का बीपी उचकता-कूदता होगा। क्या पता कोई बढिया दवा खाते हों बीपी कंट्रोल के लिए।
एक जगह बड़े मोमिया के घेरे में पानी भरकर छोटी-छोटी पैडल वोट चलाने का इंतजाम भी था। सुबह पानी कम था। नाव लगभग जमीन पर। शाम को शायद थोड़ा पानी और भरकर उसको मिनी तालाब का रूप दे दिया जाए। तालाब से अनुपम मिश्र जी की किताब याद आई -'आज भी खरे हैं तालाब।'
वहीं तमाम दुकानों के बीच जय माँ दुर्गे की कई दुकानें भी दिखीं। एक जगह लिखा था -'पुरानी -असली'। नए जमाने में भी पुराने का ही बोलबाला है।
एक जगह दुकान दिखी -'भारत ऑटोमैटिक भूत बंगला'। कुछ अटपटा नाम। भारत शायद दुकान वाले का नाम होगा। लेकिन नाम से यह अर्थ भी निकलता है -भारत अपने आप बहुत बंगला। कैसे-कैसे नाम। वहाँ बाइस्कोप की तर्ज पर लोग शायद वीडियो देख रहे थे।
मेले से वापस लौटते हुए कई लोग मिले। एक साथी अपने बच्चों के साथ जा रहे थे। प्यारे बच्चे। नमस्ते किया तो उतरकर मिले। प्यारे बच्चे। बिटिया का नाम वान्या। वान्या, तान्या जैसे नाम रूसी होते हैं। लेकिन हमारे मुंह से निकला -अमेरिकन नाम। बिटिया ने मुझे टोंका -'अमेरिकन नहीं रूसी।' हमको एहसास हुआ कि दिमाग और मुंह का तालमेल गड़बड़ाया हुआ है। बाद में देखा तो पता चला कि वान्या तो हिंदी नाम भी होता है। वान्या मतलब वन की देवी।
वापस आते हुए मन किया कि जाकिर हुसैन से मिल लिया जाए। बहुत दिन हुए मुलाकात के। पिछले शाहजहांपुर प्रवास के दौरान बहुत दिन हमारे दफ्तर में साथ रहे। शेरो-शायरी का भी शौक। नफीस उर्दू जबान। चिन्ता तो हमेशा करते लेकिन अब कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी है।
जाकिर हुसैन के घर जाते हुए तमाम लोग जगह-जगह ईद मिलते दिखे। कुछ बच्चे मुलाकात के सेल्फी लेते हुए भी दिखे।
एक जगह दो छोटे बच्चे मंझे का चौवा करते हुए नजर आए। चौवा करने के बाद वे मंझे को आपस में लड़ाते दिखे। मुझे लगा कि पतंग बाजी की जगह बच्चे हाथ से मंझा लड़ा रहे हैं। छतें रहीं नहीं, मैदान -पार्क सिकुड़ गये, बच्चे और क्या करें? हाथ से ही मंझा लड़ा रहे हैं।
जाकिर हुसैन से मुलाकात हुई। फैक्टरी की यादें। बोले-'13000 आदमी काम करते थे। फैक्ट्री छूटती थी तो आधे घण्टे सड़क जाम हो जाती थी। लगता था न जाने कहाँ-कहाँ से आदमी उड़ेल दिया गया है सड़क पर। अब वहाँ तो जैसे कौवे बोलते हैं।'
ईद पर जबरियन मिठाई और नमकीन खिलाया यह कहते हुए थोड़ा-थोड़ा तो सब कुछ लेना पड़ेगा। लेना पड़ता है। मुलाकात पर शेर भी सुनाया:
'जेब-ओ-जीनत का क्या तस्किरा,
सादगी है मताये खुलश-ओ-वफ़ा,
आप आएं तो आंखे बिछा दूंगा मैं,
आइएगा कभी घूमते-घूमते।'
(खूबसूरती का जिक्र क्या करें, हमारी सादगी और वफादारी ही हमारी दौलत है। आप आएंगे तो आपके सम्मान में आंखे बिछा देंगे, आप कभी आइये तो सही घूमते-घूमते)
जाकिर हुसैन जी के यहां से निकले तो बगल में रहने वाले इकबाल अपने घर ले गए जबरियन। उनके यहां से निकले तो उनके बगल वाले बोले -हमारे यहां भी चलिए। मुश्किल से उनसे फिर आने की बात कहकर निकले। अगला पड़ाव अख्तर साहब के यहां।
अख्तर साहब मतलब अख्तर शाहजहाँपुरी। उर्दू के नफीस शायर। सादा जबान में, ऊंची बात। कई किताबें। जब तक रहे फैक्ट्री के मुशायरे उनके ही जिम्में रहे। मिलने पर अपनी कई किताबें दिखाईं। उनके बारे में उर्दू अदब के नामदार अदीबों ने उनकी शायरी के बारे में जो लिखा है वो पढ़कर सुनाया। उनको सुनते हुए एक बार फिर अब तक उर्दू न सीखने का अफसोस हुआ। साथ ही यह मन भी बनाया कि फौरन सीखना शुरू करना है। लेकिन हमेशा की तरह शुरुआत अभी हुई नहीं।
अख्तर साहब की पोती मेरी फैन है , ऐसा अख्तर साहब ने बताया। उसने अपनी छोटी बहन के इंस्टाग्राम पर बनाये कई वीडियो दिखाए। देखकर लगा कि कितने हुनरमंद और काबिल बच्चे हैं।
अख़्तर साहब के यहाँ वापस लौटते हुए तमाम लोगों से मिले, फोनपर बात की। कुछ के घर भी गए। हाजी अनीस, परवेज बद्र, शाहिद रजा, अबुल हसन, नसीब सबके यहां पांव फिराए। न ,न करते हुए भी जमकर सेवईं, मिठाई, नमकीन खाई। जितनी मिठाई पिछले तीन महीने में नहीं खाई होगी उससे ज्यादा एक अकेले ईद के दिन खा गए।
मिलने वालों में पंकज भी शामिल रहे। बढिया चाय पिलाई। जबरदस्ती करने के बावजूद पैसे नहीं लिए। गाना भी सुनाया- "प्यार करते हैं हम तुम्हें इतना।"
पंकज ने मसाला छोड़ देने का वादा भी किया। दुकान पर खड़े हुये ही सामने के मकान में फैक्ट्री से रिटायर्ड शुक्ला जी दिखे जो खुद सिगरेट नहीं पीते थे लेकिन लोगों को पिलाते थे। उन्होंने इशारे से बताया कि नहाने जा रहे हैं।
कुल मिलाकर बहुत खुशनुमा दिन गुजरा। ऐसे ही दिन सबके गुजरें।

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Tuesday, May 03, 2022

ईद के बहाने इधर-उधर की



आज ईद है। ईद की बात चलते ही मुंशी प्रेमचंद की कहानी ईदगाह की शुरुआत याद आती है –“रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है।“ पिछले दो साल कोरोना की चपेट में रहे। त्योहार मास्क लगाकर और सामाजिक दूरी रखते हुए मनाए गए। ईदगाह कहानी वाले अंदाज में कहें तो –‘कोरोना के चपेट में पूरे दो साल रहने के बाद ईद आई है।‘
ईद की छुट्टी थी। सुबह तक अलसाये पड़े रहे। कौन हमको नमाज पढ़ने जाना था। लेकिन फिर अचानक मन किया कि चला जाए , देखा जाए ईदगाह, मेला और चहल-पहल। न जाने फिर कब ऐसा खुलापन मिले। क्या पता कोरोना की तरह कोई और बवाल आगे हल्ला बोल दे।
मन में ख्याल आते ही अपन ने उस पर अमल भी कर लिया। दो मिनट में निकल लिए। सबसे पहले इस्टेट की मस्जिद की तरफ गए। ज्यादातर लोग नमाज पढ़कर वापस जा चुके थे। कुछ लोग जिनके घर आस-पास ही थे मिल गए। उनसे गले मिलकर और ईद मुबारक कहकर ईदगाह की तरफ गए।
रास्ते में तमाम लोग आते-जाते-बतियाते-गपियाते-खाते-पीते-चुहलबाजी और हर उस मुद्रा में दिखे जिसे खुशनुमा कहा जा सकता है। कहीं लोग शर्बत पीते-पिलाते, कहीं कुछ और खाते-खिलाते दिखे। चलते-फिरते ठहरकर गले मिलते, दुआओं का आदान-प्रदान करते हुए भी। छोटे-छोटे बच्चे भागते-दौड़ते , रास्तों को गुलजार करते मिले। कुछ बुजुर्ग खरामा-खरामा टहलते , कुछ अपने घर के बाहर चबूतरों पर आरामफर्मा दिखे। जगह-जगह ठेलों पर तरह-तरह के पकवान भी बनते-बिकते दिखे।
ईदगाह की तरफ जाती सड़क पर सफेद चूने की लाइनें बनी हुई थीं। हर तरफ से लोग आ-जा रहे थे। ईदगाह के कुछ पहले गाड़ी आगे जाने की मनाही हो गई। हम उतरकर स्वतंत्र और ज्यादा बेतकुल्लुफ़ हो गए। गाड़ी में चलते हुए कोई नजारा जब तक देखो तब तक वह ओझल हो जाता है। पैदल चलने से फायदा यह कि हर नजारा तसल्ली से, ठहरकर,बार-बार देख सकते हैं - बिना पैसे।
मुफ़्त का नजारा देखते हुए हम आगे बढ़े। सड़क किनारे फुटकर दुकाने सजी हुईं थीं। कुछ में मिट्टी के खिलौने , कुछ जगह चाट-बतासे, हलवा-पूरी। ज्यादातर खाने-पीने की और ऐसे सामानों की दुकानें जिनको लोग आते-जाते खरीद सकें। सड़क किनारे मांगने वाले भी बैठे हुए थे। आते-जाते कुछ लोग इनको भी कुछ देते जा रहे थे।
वहीं टहलते हुए तमाम लोगों से मुलाकात हुई। कुछ को हम जानते थे, कुछ को मुलाकात और गले मिलने के दरम्यान बातचीत में पहचान गए। बाकी से भी विदा होने से पहले इत्ती जान पहचान तो हो ही गई कि फिर मिलने पर याद कर सकते थे –‘ईदगाह के मेले में मिले थे।‘
वहीं घूमते हुए विकास भारती Vikas Bharti से मुलाकात हुई। पिछले दिनों उनके कई फ़ेसबुक पर उनकी ऊर्जावान और मिलनसार पोस्ट देखी थी। रंगमंच से भी जुड़े हैं। उनका हाल में पोस्ट किया डांस भी याद था इसलिए फौरन पहचान में आ गए। मिलने पर उन्होंने मेरे पोस्टों का जिक्र किया कि वे नियमित पढ़ते हैं। हमारी पोस्टों का भी मामला मजेदार है। तमाम लोग मिलने पर मुझे बताते हैं कि वे मेरे पोस्ट्स नियमित पढ़ते हैं। जबकि मुझे लगता है कि बमुश्किल सौ लोग मेरी पोस्टस पढ़ते हैं। फिर ये देखने पढ़ने वाले लोग पोस्ट्स पर कैसे नहीं दिखते। हो सकता है फ़ेसबुक की कोई गड़बड़ी हो या फिर लोग मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह देता हों। तमाम दोस्त जो हमको शायद कभी नहीं पढ़ते, मिलने पर पूछते हैं –‘और आपका कविता लेखन कैसा चल रहा है?’ इन मित्रों की नजर में लिखने का मतलब कविता लिखना ही होता है।
विकास के साथ हमारे नामराशि अनूप कुमार जर्नलिस्ट Anoop Kumar Journalist से मुलाकात हुई। वकील, पत्रकार अनूप कुमार ने मुलाकात की फ़ोटो साझा करते हुए, शायद नामराशि होने की फायदा देते हुए, हमको सरल स्वभाव का धनी,खुशमिजाज, साहित्य प्रेमी, लोकप्रिय अधिकारी और परम आदरणीय बताया। हमको अच्छे से जानने वाले शायद इसको पढ़कर पूछें –‘ये कौन अनूप शुक्ल हैं?’
खाने पीने की तमाम दुकानों में ज्यादातर चाट-पकौड़ी की दिखीं। एक जगह मथुरा वृंदावन की स्पेशल ठण्डी लस्सी मिली। दुकान का नाम देखकर बिना लस्सी पिए ही तसल्ली मिल गयी। लोग आराम से लस्सी पीते हुए गर्मी से मुकाबला कर रहे थे।
ईदगाह में ‘संत कृपा जूस कार्नर ‘ भी दिखा। सन्तकृपा जूस कार्नर देखकर लगा हरिकृपा भी हो गयी क्योंकि कहते हैं न -'बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।' सारे पाप नष्ट हो गए :
एक घड़ी , आधी घड़ी, आधी में पुनि आधि,
तुलसी संगत साधु की हरै कोटि अपराध।
वो तो कहो कोई खोजी पत्रकार नहीं मिला वहां वरना खबर का शीर्षक बनाता -'ईदगाह में संत/हरि कृपा।'
वहीं एक जगह 'हलवा पराठा' बनते देखा। मुट्ठी भर मैदा को गोल-गोल फैलाते हुए पूरे तवे में फैलाकर फिर तेल में तलकर एक दम कुरकुरा पराठा बनते देखा। देखकर लगा कि कितना हुनर और अभ्यास का काम है। मैदा जब फैल जाता था तवे पर तब नाखून से उसमें निशान बनाते देखा। शायद हवा न भरे पाए बीच में इसलिए ऐसा कर रहा हो।
मैदा पराठा जरा सी जगह से शुरू होकर पूरे तवे तक फैलते देखकर मुझे 'मुगलों ने सल्तनत बक्श दी' कहानी/ नाटक का किस्सा याद आया। इसमें बताया गया था कि अंग्रेजों ने मुगलों से तंबू भर की जगह मांगी थी। बाद में वह तंबू कलकत्ते से होता हुआ पूरे देश में फैल गया। मुगल बेचारे कुछ नहीं कर पाए क्योंकि उन्होंने तंबू भर की जगह अंग्रेजों को देने का वचन दिया था। इस तरह अंग्रेजी हुकूमत पूरे देश में फैल गयी। पराठे बनने का वीडियो साथ में है।
पराठा बनने के बाद हलवे के साथ बिक रहा था। लोग खड़े-खड़े खा रहे थे। कुछ लोग बंधवाकर ले भी जा रहे थे।
बाजार में लैया-खील बताशे की दुकानें भी थीं। एक जगह एक बच्चा एक बुजुर्ग महिला के साथ खील बेंच रहा था। बच्चे और बुजुर्ग महिला को देखकर ऐसा लगा मानो हामिद अपनी दादी अमीना के साथ ईदगाह में आकर दुकान पर बैठ गया हो।
ईदगाह में नमाज पढ़कर लोग जा चुके थे। बाहर से देखा करीने से पीने के पानी का इंतजाम था। सुबह तमाम लोगों की भीड़ रही होगी। अब तो सब लोग घरों में और मोहल्ले में ईद मना रहे होंगे।
-आगे का किस्सा अगर पढ़ने का मन हो तो इधर पढ़िए:

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