Thursday, October 26, 2017

बहुत कुछ लिखने को बचा रह जाता है

सब कुछ लिख दिया जाने के बाद भी
बहुत कुछ लिखने को बचा रह जाता है।
हम बिस्कुट भिगो के चाय में खाते ही नहीं
इसीलिये वो नामुराद डूबने से बच जाता है।
ऊंची बात कहने वाले तो कोई होंगे यार,
अपन का तों रोजमर्रा की बातों से नाता है।
-कट्टा कानपुरी

आज रपट जाएं तो


आज सबेरे निकले तो साइकिल मारे खुशी के लहराती हुई चल दी। टहलने की खुशी इतनी कि जरा सा पैडल मारते ही सरपट बढ गयी। सामने से स्कूल का बच्चा आ रहा था। हमने ब्रेक मारा। ब्रेक भी मारे कर्तव्यपरायणता के इत्ती जोर से लगा कि साइकिल रपटते हुये बची। ये तो कहिये कि ’पैर ब्रेक’ लगा के रोका गाड़ी को वर्ना साइकिल सहित सड़क पर गिरने के बाद गाना गाते रहते:
आज रपट जायें तो हमें न बचईयो
हमें जो बचईयो तो खुद भी रपट जईयो।
पप्पू की चाय की दुकान गुलजार थी। गोल टोपी लगाये एक आदमी बेंच पर आलथी-पालथी मारे बैठे सामने वाले से बतिया रहे थे। चाय का आखिरी घूंट पीने के बाद दोनों हाथ मिलाकर चल दिये। सामने अधबने ओवरब्रिज ने हमको गुडमार्निंग की।
मोड के आगे एक झोपड़ी के आगे कुछ बकरियां बंधी थीं। एक बकरी ठेलिया पर रखे प्लास्टिक के अधकटे ड्रम में मुंडी घुसाये पानी पी रही थी। जब तक हम जेब से कैमरा निकालकर फ़ोकस करें तब तक ’बदमाश बच्ची बकरी’ ( ब वर्ण की आवृत्ति के चलते अनुप्रास अलंकार है इसमें) अपने अगले पैर ड्रम से हटाकर, मुंडी बाहर करके ठेलिया से कूदकर तिड़ी-बिड़ी हो गयी।
पुल पर आवाजाही शुरु हो गयी थी। बीच पुल एक ऑटो वाला अपने ऑटो का ’पंक्चर पहिया’ बदल रहा था। गाना बज रहा था:
मोहे आई न जग से लाज
मैं इतना जोर से नाची आज
कि घुंघरू टूट गये।
वहीं खड़े होकर सोचा क्या ऑटो के पहिये पैर के घुंघरू के तरह होते हैं। सड़क पर ऑटो चलना नाचने सरीखा होता है?
पुल के नीचे देखा कि लोग बालू में कोई मंडप सरीखा बना रहे थे। शायद छठ पूजा के लिये। लेकिन भीड़ बहुत कम थी छ्ठ पूजा के लिहाज से। शायद पूरब की तरफ़ के लोग कम रहते हैं यहां। आर्मापुर में पूर्वी उत्तर प्रदेश , बिहार के लोग खूब रहते हैं। नहरिया किनारे खूब भीड़ होती है छठ के दिन।
पुल पर ही एक आदमी अपना टीम-टामड़ा समेटे समेटे जिस तरह तरह चला जा रहा था उससे दुष्यन्त कुमार की ये लाइने याद आ गईं:
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए,
मैंने पूछा नाम तो बोला की हिदुस्तान है.
शुक्लागंज की तरफ़ से गंगा तट पर जाते हुये देखा चुनाव प्रचार के लिये लगे पोस्टर बैनर लगे थे। हरेक में महिला प्रत्याशियों के पहले उनके पति या फ़िर देवर का नाम छपा था। मने पत्नी के चुनाव के पति और भाभी के चुनाव के लिये देवर का जिक्र जरूरी लगा चुनाव लड़ने के लिये।
कोने में एक ठेका भांग का मिला। उसमें अनुज्ञापी का संतोष त्रिवेदी लिखा था। हमने फ़ोटो खैंच लिया दिखाने के लिये संतोष त्रिवेदी को और पूछने के लिये भी कि ये भी करते थे क्या?
आगे एक जगह एक लड़का साइकिल पर ग्राइंडर लगाये कैंची-चाकू पर धार लगा था। बताया कि बाप-दादे भी यही धंधा करते थे। खपरा मोहाल (स्टेशन के पास) में रहता है बालक दीपू। एक चक्कू पर धार लगाने के पांच रुपये लेता है। किसी के पास नहीं होता है तो कम भी ले लेता है। बताया कभी तीन-चार सौ कमाई हो जाती है, कभी सौ-दो सौ। पुस्तैनी धंधा अपनाने के पीछे कारण बताया - ’पिताजा करते थे तो हम भी करने लगे। कोई पेट से तो सीखकर नहीं आता।’
पढाई-लिखाई बिल्कुल नहीं की है दीपू ने। हमने कहा अब पढ लो, यहां आया करो इतवार को पढने। बच्चे पढाते हैं। वह बोला- ’हम सुबह निकल जाते हैं फ़ेरी लगाने। पढने के लिये कहां आयेंगे इत्ती दूर।’
गंगा दूर खिसक गयीं थीं। जहां महीने भर पहले पानी थी वहां अब बालू का कब्जा हो गया था।
लौटते हुये क्रासिंग के पास एक बच्चा साइकिल पर अपनी बहन को करियर पर स्कूल छोड़ने जाते दिखा। बच्ची का नाम कनिका और बच्चा लकी। बहन को भेजने के बाद बच्चा भी जायेगा स्कूल। बच्चों की फ़ोटो खींचते देख गोद में बच्चा लिये एक महिला बोली- ’का अखबार मां छपयिहौ फ़ोटू?’ हम महिला के सवाल के जबाब के बहाने उनसे बतियाने लगे।
पता चला कि जिस चाय की गुमटी के सामने खड़ी थी वो उनके मियां की थीं। नाम खुला उदित। महिला का नाम ऊषा। नाम हंसते हुये बताया तो संगत करने को कविता यादों के कबाड़खाने से फ़ुदकती हुई सामने आ गयी:
उषा सुनहले तीर बरसती
जय लक्ष्मी सी उदित हुई।
लगा कि देखो - ’उषा और उदित के नाम से कविता कित्ते पहले लिख गये हैं महाकवि। किसी को क्या पता था कि दोनों कानपुर के कैंट इलाके में चाय की दुकान पर भेंटायेंगे कभी।’
पास की ही एक झोपड़ी में रहते हैं। कानपुर में चाय की दुकान करने के पहले उदित अम्बाला में सब्जी बेंचने का काम करते थे। अम्बाला बहुत पसंद है ऊषा को। बोली कानपुर बहुत गंदा शहर है। पास बैठे चाय ग्राहक ने बताया कि कानपुर से गंदगी कभी खत्म न होगी। लेकिन कनपुरिया होने के चलते शहरप्रेम का मुजाहिरा करते हुये बोला- ’ जो एक बार कानपुर रह लेता है वह कभी यहां से जाना नहीं चाहता। यहां बहुत मद्दे में गुजारा हो जाता है आदमी का।’
कानपुर और कलकत्ते दोनों ही इस बात के लिये जाने जाते हैं। गरीब आदमी के गुजारे के लिये दोनो शहर सहज-शरणदाता हैं।
गोद में बच्चा लिए थीं उषा। बताया -'नाती है। साल भर का हो गया। '
तीन लड़के हैं। सब दिहाड़ी मजूरी करते हैं।
उदित ने बताया कि अम्बाला में सब्जी बेंचने का काम बढिया था।।लोग सब्जी खूब खरीदते थे। अच्छी आमदनी थी। कानपुर में आदमी दस रुपये में घर भर की सब्जी खरिदना चाहता है। सुबह रोज मंडी जाकर सब्जी लाना लफड़े का काम इसीलिए अब चाय की दुकान ही चला रहे हैं।
ऊषा सुबह उठकर अपने मियां की दुकान पर चाय लेते आयी थीं। मोमियां की थैली में चाय लेते हुये बोली - ’चाय बहुत बढिया बनाते हैं ये।’
हमें याद आया कि चाय तो हम भी बहुत बढिया बनाते हैं। लेकिन हमारे मानने से क्या होता है? पीने वाला कहे तब न ! हम रोज सुबह की चाय बनाते हैं लेकिन अक्सर ही कहा जाता है-’ बढिया चाय पिलाओ फ़िर चला जाये।’
लौटते हुये सड़क एकदम गुलजार हो गई थी। सूरज भाई एकदम ऊपर पहुंचकर चमकने लगे थे। सुबह हो गयी थी। आज छुट्टी होने के चलते सुबह और खुशनुमा लग रही थी।

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Sunday, October 22, 2017

नई कार खरीद लो दो मिनट में लखनऊ पहुंच जाओगे

आज सुबह इतवारी है। शिद्दत से पंकज बाजपेयी याद आये। साइकिल स्टार्ट किये। 'पैडल स्टीरियिंग' दबाते हुए पहुंच गए ठीहे पर । बीच का तमाम तसबरा बाद में। पहले मिलाते हैं पंकज जी से।
पंकज बाजपेयी ठीहे पर बैठे थे। देखते ही उठकर बोले-'कहाँ थे आये नहीं इत्ते दिन।'
हमने बताया -'घर बदल गया है। इसलिए इधर से नहीं गुजरते।'
गाड़ी कहाँ है? -- पंकज जी ने पूछा
'वो खड़ी है।'- हमने साईकल की तरफ इशारा किया।
कार किधर है आपकी ? -फिर सवाल।
घर में है - हमने बताया।
आप नई कार ले लो। 300 रुपये क़िस्त में मिल जाएगी। मम्मी से बात कर लो अभी। घर में हैं। फ्लाइट भी है उनमें। दो मिनट में लखनऊ पहुंच जाओगे।
हमने कहा - ले लेंगे।
इसके बाद फिर कोहली की शिकायत करने लगे। कोहली को पकड़वाओ। लड़कियों को खराब कर रहा। लीबिया वाले बच्चों को पकड़ ले जा रहे हैं। खाते हैं । उनकी शिकायत करो।
हमने उनकी तबियत पूछी। बोले -'सब ठीक है। बस स्नोफिलिया है।'
मामा की दुकान पर चाय पीने गए। गए । बोले - इनको। चाय पिलाओ।
अपनी चाय पास के मग में लेकर वापस ठीहे पर लौट आये। चाय वाले ने बताया - 'कोई आता है सुबह। कुछ पांच-दस रुपये दे देता है। इसीलिए वहीं चले गए। थोड़ी देर में दूध का पैकेट लेकर पियेंगे।'
और बताया - 'इत्ती बड़ी प्रापर्टी पर लोगों ने कब्जा कर लिया। ऊपर एक कमरे में पड़े रहते हैं। इलाज कौन कराए।'
लौटे तो फिर बात हुई।हमने कहा -' हमारे दोस्त शर्मा जी हैं बात करना चाहते हैं। करेंगे?'
ले आइए कभी भी -बोले।
हमने कहा - फोन पर बात करेंगे?
बोले -नहीं।
फोटो दिखाई तो बोले -इसमें रंग नहीं आ रहे। दूसरा ले लो मोबाइल।
हमने दिखाया तो बोले -हां अब ठीक।
चलते हुए हाथ मिलाया। फिर बोले -'कोहली को पकड़वाओ।'
फिर कुछ याद आया।बोले -'वो थानेदार ने मेरे खिलाफ वारंट निकलवाया है। वो दूसरे पंकज हैं। उसने गड़बड़ किया है। थानेदार ने पैसे खाये हैं।'
हमने कोहली को पकड़वाने का वादा किया। थानेदार की शिकायत का भी भरोसा दिलाया और वापस चल दिये।
यह पोस्ट पंकज बाजपई के ठीहे से उनसे 15 कदम दूर खड़े-खड़े लिखी गयी। बाकी के किस्से बाद में।

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घोड़े, नाल और एल्गिन मिल

पंकज बाजपेयी से मुलाकात करके लौटे डिप्टी का पडाव की तरफ़ से। तिराहे से घंटाघर की तरफ़ बढे तो एक जगह कुछ घोड़े दीवार के पास खड़े थे। दीवार पर हकीम उस्मानी का इश्तहार छपा था - ’सेक्स रोगी मिलें, मंगलवार, ढकनापुरवा।'
हमें लगा शायद घोड़े भी यौन समस्यायों से जूझते होंगे। नामर्दी की तर्ज पर उनमें नाघोड़ापन की बीमारी होती होगी। लेकिन उनके हकीम अलग होते होंगे। होने ही चाहिये।
सामने फ़ुटपाथ पर एक घोड़े के राश थामें एक बुजुर्ग बैठे थे। घोड़े की उमर बताई सात साल। जब लिया था तब 35 हजार का पड़ा था। अब कीमत एक लाख होगी। नाम कुछ रखा है पूछने पर बताया -’ यह अभी तक बेनाम है।’
घोडे के उपयोग के बारे में बताया शाम को बरातों में किराये पर जाता है। 1500 रुपये बारात किराया। दिन में बोझा ढोता है। मिट्टी, मौरम, ईंटे जो काम मिल जाये। छह सात सौ निकल आते हैं इससे। दाना-पानी में दो-तीन सौ रूपया खर्च हो जाता है।
बगल में ही घोड़े के नाल लगाने वाले अपनी दुकान सजा रहे थे। कुछ नाल और नाल में लगने वाली कीलें धरीं थीं। नाल एक बोरे पर और कीलें एक टायर के टुकड़े पर धरी थीं। कीलों का मत्था आयताकार और खोखला था। एक नाल में चार कील ठुकती हैं। चार पैरों की नाल 160 रुपये में लगती हैं।
नाल लगाने वाले शब्बीर ने बताया कि चालीस से यह काम कर रहे हैं। 65 के ऊपर उमर है। छावनी में रहते हैं। कुछ काम यहां वहां भी मिल जाता है। नाल लगाने का काम कम होता जा रहा है। दिन भर में ढाई-तीन सौ की कमाई हो जाती है। एक सेट नाल हफ़्ते भर चल जाती है। कोई-कोई घोड़ा जल्दी भी खराब कर देता है। एक बड़ी नाल संवारते हुये बताया - ’यह नाल उस घोड़े लगनी है। बग्घी लेकर जायेगा घोड़ा फ़तेहपुर।’
दोनों घोड़े सामने अलग-अलग नांद में चारा खा रहे थे। रंग एकदम सफ़ेद। एक का नाम वीरू दूसरे का शेरा। हमें लगा दूसरे का नाम जय होता शोले की तर्ज पर। लेकिन शायद अगले ने शोले देख रही हो और पता हो कि जय उसमें निपट जाता है इसी लिये उसका नाम जय नहीं रखा। वीरू और शेरा को देखकर लगा कि वे घोड़ों की दुनिया में हैंडसम कहे जाते होंगे। घोड़िया उनकी दुलकी चाल पर मरती होंगी। क्रश भी होता होगा कुछ का। उनकी दुनिया में फ़ेसबुक तो होता नहीं जो उनके स्टेटस से उनके भाव पता कर लें। हम तो केवल अनुमान ही लगा सकते हैं। धूमिल ने शायद अपनी अन्तिम कविता में कहा भी है:
’लोहे का स्वाद
लोहार से मत पूछो
उस घोड़े से पूछो
जिसके मुँह में लगाम है।’
लेकिन हम की भाषा तो जानते नहीं लिहाजा शब्बीर से ही बतियाते रहे। शब्बीर ने बताया उनके कोई बच्चा नहीं है। एक लड़की गोद ली थी। उसकी शादी करके घर बसा दिया। अब मियां-बीबी दो लोग अपना गुजर बसर करते हैं।
शब्बीर से याद आया कि शब्बीर माने प्यारा होता है। शब्बीर का यह मतलब हमारे मित्र मो.शब्बीर ने बताया था। उनका नाम हमारे मोबाइल में ’शब्बीर माने लवली’ के नाम से सुरक्षित है। ये वाले शब्बीर घोड़े की नाल लगाते हैं। हमारे वाले Shabbir कानपुर में बहुत दिन तक 'मैग गन' बनाते रहे। आजकल कलकत्ता में हैं। पूछेंगे क्या बना रहे हैं अब।
आगे सामने की दीवार के पास कुछ और घोड़े खड़े थे। दीवार पर बबासीर, भगन्दर और हाइड्रोसील के इलाज का बोर्ड लगा था। डॉ अलबत्ता बदल गये थे। हकीम उस्मानी की जगह डॉ अनिल कटियार ने ले ली थी। घोड़ों में पता नहीं ये बीमारियां होती कि नहीं।
बगल में एल्गिन मिल का गेट था। कभी यहां हज्जारों लोग काम करते थे। तब कानपुर में दसियों मिलें चलतीं थीं और उनके कारण कानपुर पूरब का मैनचेस्टर कहलाता था। लेकिन धीरे-धीरे मालिकों की नीतियों, ट्रेड यूनियनों की हठधर्मी और तत्कालीन सरकारों की उदासीनता और शायद उस समय कोई सर्वमान्य कनपुरिया नेता न होने के कारण कभी पूरब का मैनचेस्टर कहलाने वाला शहर कुली-कबाड़ियों के शहर में तब्दील होता चला गया।
कलीम नया घोड़ा लाये हैं 65 हजार में। उनका बेटा कक्षा 6 की पढाई छोड़कर इसी धन्धे में आ गया। बोला - ’पढने में मन नहीं लगता।’ एक और आमीन मिले। बोले- ’सुबह से शाम तक यहीं रहते हैं। घर केवल सोने के लिये जाते हैं।’ चार बच्चे हैं। पैंतीस साल की उमर है। हमने कहा - पान-मसाला इत्ता क्यों खाते हो? बोले आदत हो गयी। घर जाते हैं तब नहीं खाते।
सारे घोड़े-खच्चर अपनी दिहाड़ी के लिये तैयार हो रहे थे। धूप तेज हो रही थी। हम भी वापस चल दिये।
सबेरे का किस्सा यहां बांचिये
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Friday, October 20, 2017

असली नाम बताएं कि नकली

सबेरे निकले । नजारा नया था। आज बन्दर धमाचौकड़ी नहीं मचा रहे थे। बन्दरहाव से मुक्त बगीचा, सड़क और आसपास। बंदर लगता है पटाखे के डर से इधर-उधर हो गए थे। बंदरों की जगह पर कुत्तों ने कब्जा कर लिया था। बन्धरहाव की जगह कुकरहाव जारी था।
बंदरों की जगह कुत्तों के कब्जे को देख लगा कि जगहें भरे जाने को अभिशप्त होती हैं। अच्छे की छोदी जगह पर बुरे, शरीफ के सिमटते ही गुंडे अपना कब्जे का अंगौछा धर देते हैं। यह इतना ही शाश्वत सच है जितना लोकतंत्र में एक सरकार के बदलने पर दूसरी का आना।
इसीलिए कहा गया है -अपनी जमीन नहीं छोड़नी चाहिए।
पप्पू की चाय की दुकान गुलजार हो गयी थी। दुकान पर हमारे दफ्तर के एक बाबू चाय पीते मिले। पास ही घर है। दुकान पर खड़े-खड़े उनके घर-परिवार की जितनी जानकारी दो मिनट में मिली उतनी डेढ़ साल में कई बार मिलने के बाद नहीं मिल पाई।
सड़क पर एक गाय अपने बछड़े को दूध पिला रही थी। कभी एक राष्ट्रीय पार्टी का चुनाव चिन्ह जैसी मुद्रा। दुकान की बेंच पर दो लम्बी दाढ़ी वाले मौलाना की दाढ़ी इतनी शफ्फाक दिखी कि इत्ती सफ़ेदी का राज पूछने का मन किया। लेकिन जब तक पूंछे वे पैसा देकर निकल चुके थे।
वहीं एक बुजुर्ग निराला की कविता -
'वह आता दो टूक कलेजे के
करता पछताता '
वाली अदा में डगमग करते लपढब-लपढब चलते दुकान किनारे आकर बैठ गए। पपपू ने उनको चाय और बिस्कुट दिए। हमने उनके बारे में पूछा तो पप्पू ने कहा -'हमको पता नहीं। यहाँ आते हैं तो चाय पिला देते हैं रोज।'
हमने पूछा तो बताया कि उन्नाव के पास एक गांव के पास के रहने वाले है। शादी हुई नहीं। मांगते -खाते हैं। पहले जुहारी देवी गर्ल्स स्कूल में रहते थे। अब झाड़ी बाबा पड़ाव पर रहते हैं।
'जुहारी देवी स्कूल काहे छोड़ दिया?' पूछने पर बोले -'वो लड़किन का स्कूल है। यही मारे हुअन ते झाड़ी बाबा आ गए।'
उम्र पूछने पर बोले -'कुल्ल (बहुत) उम्र है। यही समझ लेव 70 -75 ।
हमने नाम पूछा तो बोले -'दुइ नाम हैं असली बताई कि नकली?'
हम बोले -दोनों बताओ।
बोले-'असली नाम है धनपत। नकली नाम भगत जी।'
असली नाम हाथ में गुदा हुआ था। नकली से लोग बुलाते हैं।
पास में झोले में कपड़े हैं। हमने पूछा -साथ लिए काहे घूमते हो?
बोले -'लोग चुरा लेते हैं। बहुत सामान चोरी चला गया।'
मतलब मांगने-खाने वाले के लिए भी चोर की व्यवस्था है अपने समाज में। चोरी की रेखा के ऊपर वाले गरीब हैं भगत जी।
गांव जाने की बात भी बताई। बोले -'पूस में मेला लगता है। तब जइबे गांव।'
अम्बेडकर जी के मन्दिर का जिक्र किया। वहां जाते रहते हैं।
आगे चले तो सड़क किनारे लोग सोये हुए थे। एक आदमी ने चद्दर से हाथ बाहर निकाला। मुझे लगा हमको नमस्ते टाइप कुछ करेगा। लेकिन वह करवट बदलकर हाथ दूसरी तरफ करके सो गया।
पुल पर गंगा ऊंघती हुई बह रहीं थी। एक आदमी पैकेट से दाने सड़क पर डालता जा रहा था। चिड़ियां बीच सड़क पर फुदकती हुई दाना चुगती जा रहीं थीं। हमने फोटो खींचकर वहीं से पोस्ट किया और लिखा:
चिड़ियां चहक रहीं सड़कों पर
आगे की तुकबन्दी आप सुबह पढ़ ही चुके हैं। अभी किस्सा इतना ही। आगे का किस्सा यहां पहुंचकर बांचेंhttps://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212805567627481

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वो दारू नहीं नहीं गांजा पीते हैं

इसके पहले का किस्सा बांचने के लिये इधर पहुंचे https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212805174417651
शुक्लागंज पुल पार करके बाईं तरफ मुड़े। एक बार फिर बायें मुड़े। आगे सड़क किनारे ही रास्ता बना है। नीचे उतरने का। फिसलपट्टी से खड़ंजे के रास्ते पर साइकिल ठेल दिए। ब्रेक लगाए -लगाए उतर गए नीचे।
आगे गंगा की रेती। थोड़ी देर तक कड़ी फिर भुरभुरी। पैर, चप्पल, साइकिल का पहिया धंस-धंस जाए बालू में। हमें याद आया कि सुनील गावस्कर पिच के बीच दौड़ने का अभ्यास मुंबई बीच पर करते थे। याद आते ही हम फिर नदी किनारे ही जाकर रुके।
नदी किनारे लोगों की फेंकी मूर्तियां इकट्ठा थीं। मिट्टी की मूर्तियां और मालाएं। लोग किनारे नहा रहे थे। कपड़े बदल रहे थे।
एक बच्चा नदी में नाव पर बैठा था। हम पानी मंझाते हुए घुटने तक पानी में खड़े होकर उससे बतियाने लगे। हमे लगा वह नाविक है। लेकिन वह बोला कि वह नाव चला लेता है पर नाव उसकी नहीं है।
वह क्या करता है पूछने पर उसने बताया -कुछ नहीं।
पढ़ने स्कूल भी नहीं जाता।
'करते क्या हो फिर ?' पूछने पर बताया -' नदी से पैसा बीनते हैं। कल मेला था। 75 रुपये मिले नदी से।'
'क्या किये पैसे?'- मैने पूछा
'अम्मी को दे दिए' - उसने बताया।
'अम्मी को क्यों दिये ? अब्बू को क्यों नहीं ?' - मैने पूछा।
'अब्बू दारू पी जाते हैं। ' उसने बताया।
तब तक उसका साथी आ गया। वह भी नदी से पैसे बटोरता है। उसने बताया कि उसने कल सौ रुपये कमाए।
सुनकर पहले बच्चे ने अपनी कल की आमदनी 75 से बढ़कर 85 बताई। बोला - 'हमने भी 15 कम सौ कमाए कल।'
तुमने क्या किया मैने उससे पूछा (जाहिद नाम बताया बच्चे ने) तो वो बोला -'अब्बू को दे दिए।'
'तुम्हारे अब्बू दारू नहीं पीते ?' - मैने सवाल किया।
'नहीं वो दारू नहीं गांजा पीते हैं' -जाहिद ने निस्संगता से बताया।
नाव पर बैठा लड़का अनमने मन से बातचीत सुनते हुए ऊब सा गया। मैंने पुल के पास इतवार को बच्चो को पढ़ाने की फोटो दिखाते हुए उससे कहा -'वहां जाया करो पढ़ने। वो लोग टॉफी/चाकलेट भी देते हैं।'
लेकिन वह मेरे झांसे में आता दिखा नहीं। नजरूल नाम है बच्चे का। इसी नाम का कवि बगल के देश का राष्ट्रकवि है। यहां उसी नाम का बच्चा अंगूठा टेक।
इसी बीच एक महिला भी वहां आ गयी। हमारी बातें सुनकर बोले - 'इनके माँ-बाप जाहिल बनाकर रखते हैं बच्चों को। ये नहीं कि बच्चों को पढ़ने के लिए भेजें।'
हमने उसके बच्चों के बारे में पूछा कि वो स्कूल जाते हैं ?
बोली -'हां। तीन बच्चे हैं। दो स्कूल जाते हैं। बड़ा 5 में है। हमेशा अव्वल आता है। दूसरा एक बार अव्वल आया फिर पास होता रहता है। छोटा बच्चा अभी ढाई साल का है। '
रानी नाम बताया महिला ने। बताया 15 दिन का था छोटा बेटा तब खसम नहीं रहा। किस बीमारी से मरा पति पूछने पर बोली - 'दारु, गांजा, चरस, अफीम , भाँग हर नशा करता था। दारू से फेफड़े खराब हो गए। मर गया।'
'तुम मना नहीं करती थी नशे के लिए'- पूछने पर बोली रानी -'मना करने पर हमको कूटता था। कुटते- कुटते सूख गए हम। '
उम्र की बात पर बोली रानी -' हमकों उम्र पता नही। लेकिन हम नाबालिग थे। तब ससुराल वालों और घर वालों ने धोखे से शादी कर दी हमारी।'
रानी अभी नदी किनारे पैसे बटोरती है। पहले सीमेंट की बोरी ढोती थी। लेकिन अब सर में दर्द रहता है। मजूरी होती नहीं। इसलिए यही काम करती है। जब नहीं कुछ होता है तो माँ-बाप के भरोसे रहती है। उनके ही साथ रहती है रानी।
खुद अनपढ़ (रानी के अनुसार जाहिल) लेकिन पढ़ाई का महत्व पता है रानी को। बच्चों को पढ़ा रही है।
वहीं नदी किनारे बच्चे बालू की पिच पर क्रिकेट खेल रहे थे। बैट्समैन कुछ धीमा था। ठीक से हिट नहीं कर पा रहा था। दूसरे छोर से कप्तान ने हड़काया -' अबकी रन नहीं बनाया तो बैठा देंगे तुमको। हमको मैच गंवाना नहीं है।'
जीवन के इतने शेड्स दिखते हैं हमारे आस पास कि उनको देखकर ताज्जुब भी होता है कि अरे, यह रंग तो देखा ही नहीं अब तक।
आगे के शेड्स देखने के लिये इधर पहुंचेhttps://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10212806308446001

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अबे लंबा दांव लगाओ यार


पिछली पोस्ट बांचने के लिये इधर आइये
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गंगा किनारे से लौटते हुये कटे हुये बाल और दीगर गंदगी जगह-जगह दिखी। गंदगी को निपटाने के लिये सुअर भी लोट-पोट करते दिखे। जगह-जगह लोग वह काम करते हुये दिखे जिसको खुले में करने पर जुर्माने की बात कही जाती है या फ़िर मना करते हुये चॉकलेट खिलायी जाती है। हमारे पास न जुर्माने का अधिकार न चॉकलेट का शुमार लिहाजा हम उसको अनदेखा करके आगे बढ गये।
आगे कुछ बच्चे एक गोल में मुंडी सटाये बैठे थे। जित्ती नजदीकी उनकी मुंडियां थी उससे लगा कहीं ये बैठकी सेल्फ़ी तो नहीं ले रहे। लेकिन ऐसा था नहीं। वे आपस में ’सन-मक्खी’ खेल रहे थे। कोई बच्चा सिक्का उछालकर बालू में अपनी हथेली के नीचे रख लेता। बाकी के बच्चे ’सन-मक्खी’ (हेड -टेल) कहते हुये दांव लगाते। सन (हेड) या मक्खी (टेल) आने पर जिसके अनुसार सिक्का गिरा होता उसी हिसाब से वह जीत जाता।
हर बच्चे के पास तीस-चालीस -पचास रुपये करीब थे। वे सब आपस में जीत-हार रहे थे। एक बच्ची भी थी उन बच्चों में। उसने बताया -’अम्मा से लेकर आये हैं चालीस रुपये। हार रहे हैं सुबह।’
हमने बातचीत में उन बच्चों को समझाना चाहा -’क्यों खेलते हो जुआ?’ एक सबसे छोटे बच्चे ने जिस तरह मुझे देखा उसका भावनुवाद अगर हो सकता तो शायद होता- ’अजीब बेवकूफ़ी की बात करते हो तुम भी।’
दूसरे बच्चे ने थोड़ा शरीफ़ अंदाज में हमको भी खेलने के लिये निमंत्रण दे दिया। हमने उसके निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया।
बच्ची उन बच्चों में सबसे दबंग टाइप दिखी। वह जब जीतने लगी तो साथ के बच्चों को बड़ा दांव लगाने के लिये उकसाने लगी। बीच-बीच में बच्चे छोटी-मोटी गाली भी उच्चारते जा रहे थे। लड़की ने भी एक बार बच्चों को झुंझलाते और उलाहना दिया- ’अबे बड़ा दांव लगाओ यार। बड़ी चाल चलते हुये तुम्हारी फ़टती क्यों है बे?'
बच्चे खेलने में निमग्न थे। हम कुछ देर अवांछित से वहां खड़े रहने के बाद चल दिये। सोचा शायद यह दीवाली के बाद का जुंआ अनुष्ठान मात्र हो बच्चों का।
चलते हुये पास ही खड़े , बच्चों को जुंआ खेलते देखते, कुछ आदमियों में से एक ने अचानक मधुर स्वर में गाना शुरु कर दिया-
" आने से उसके आये बहार
जाने से उसके जाये बहार
बड़ी मस्तानी है मेरी महबूबा।"
सुरीली आवाज में गाने का मुखड़ा सुनकर मुझे अपनी संगीत-सुर जाहिलियत के चलते अपने एक मित्र का अपने बारे में सुना संवाद याद आ गया-" तुम सुरीली आवाज वाली अम्मा के बेसुरे बेटे हो।"
किस्सा अभी बाकी है 

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अखिल अचराचर विश्व के लिये चाय

इसके पहले का किस्सा बांचने के लिये इधर आयें
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गंगा तट से चले तो जगह पड़ी जहां शाम को बाजार लगता है। दुकानों वाले प्लेटफ़ार्म के बीच की जगह को पिच की तरह इस्तेमाल करते हुये दो लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। बस दो लड़के। बिना विकेट। एक तरफ़ बॉलर दूसरी तरफ़ बैटसमैन। एक गेंद को बल्लेबाज ने घुमा के हिट किया तो गेंद भन्नाती हुई ऊपर चली गयी। गेंदबाज उसके नीचे आते हुये कैंच करते हुये जमीन पर लद्द से गिरते -गिरते बचा। अलबत्ता वह गेंद को नीचे गिरने से बचा नहीं पाया। इसके बाद फ़िर लपकते हुये बॉलिंग एंड पर चला गया।
बाजार के बाहर ही पुराने पुल के एकदम पास चाय की दुकान पर चाय खौल रही थी। हम वहीं बेंच पर चाय के इंतजार में बईठ गये। चाय वाले ने चाय छानकर पहली चाय सड़क किनारे रख दी। हमने सोचा शायद कोई आता होगा पीने के लिये। लेकिन जब कोई नहीं आया तो हमने पूछा किसके लिये यह चाय रखी गयी।
’यह चाय अखिल अचराचर विश्व के लिये है।’ चाय की दुकान पर बैठे एक ग्राहक ने बताया। मतलब निकाल कर रख दी है, जिसको मन आये पी जाये।
एक ही दिन में तीन लोग मिले जो अनजान लोगों /जीवों के लिये सहज भाव से अपने पास से चीजें देते दिखे। दो चाय वाले और एक पुल पर चिड़ियों के लिये दाना डालता आदमीं। मतलब दुनिया में निस्वार्थ भाव से किसी के लिये कुछ सोचने वाले एकदम खल्लास नहीं हुये हैं अभी।
चाय की दुकान पर एक बुजुर्ग महिला आई। उसको गोबरधन पूजा के लिये गोबर नहीं मिल रहा था। चाय वाले ने कहा - ’अब कहां मिलेगा। पहले बताती तो इंतजाम करते।’ साथ ही सलाह भी दे दी कि पॉलीथीन लिये घूमो क्या पता कहीं मिल जाये।
हमने मजे के भाव से सोचा कि गोबर तो किसी के भी दिमाग में मिल जायेगा। लेकिन फ़िर यह सोचकर बोले नहीं कि वह महिला कहेगी -’हमको गाय का गोबर चाहिये, इंसान के दिमाग का गोबर नहीं।’
इस बीच महिला की घड़ी दुकान वाले ने ठीक करते हुये हमारे मोबाइल का समय पूछा। हमने बताया तो उसने वही समय मिला दिया। बोला- ’अभी का समय तो यह है आगे देखना क्या बजता है।’
इसके बाद फ़िर संयोग हुआ एकदम पास ही रहने वाली Reshu Verma से मिलने का। पता चला Reshu चाय भी बना लेती हैं और बढिया बना लेती हैं।
उनकी मम्मी के हाथ के बने लड्डू खाकर अपनी अम्मा के बनाये लड्डू और अम्मा की याद भी आ गई। मम्मी जी ने यह सुनकर हमारे घर के लिये भी बांध दिये। लड्डू की फ़ोटो जानबूझकर नहीं लगा रहे। लगाने में आपने मोबाइल/कम्प्यूटर स्क्रीम गीली होने का खतरा है। अलबत्ता सेल्फ़ी दिखा देते हैं नीचे फ़ोटो में जिसे रेशू के भईया ने खींचा। सेल्फ़ी में अपनी फ़ोटो देखकर साफ़ पता चलता है कि आजकल के मोबाइल कैमरे कितने मानवतावादी होते हैं- सामने कोई भी खड़ा हो , फ़ोटो वे अच्छी ही खैंचते हैं।
इति प्रात: भ्रमण कथा।

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Thursday, October 19, 2017

बाजार पैसे का मायका होता है

बहुत दिन बाद आज शाम को निकले साइकिलियाने। निकलते ही लोगों के ठट्ठ के ठट्ठ अड़ गये सामने। गोया कह रहे हों सड़क पार न करने देंगे। ठहरे-ठहरे चलते हुये सड़क पार की। बचते-बचते।
सड़क , आप ये समझ लो कि, देश की आम जनता सरीखी चित्त लेटी थी। उस पर वाहन साझा सरकार में अध्यादेश सरीखे और बहुमत वाली सरकार में नित नये कानून सरीखे फ़र्राते हुये चले जा रहे थे।
आगे सड़क किनारे एक मार्गदर्शक कार उपेक्षित सी खड़ी थी। किसी फ़ुस्स हुये पटाखे सी शक्ल लिये गाड़ी सड़क पर गुजरती, फ़र्राटा मारते जाती , गाडियों को हसरत से देख रही होगी यह सोचते हुये कि कभी वह भी सरपट चलती थी।
रास्ते में साइकिल की दुकान दिखी। साइकिल दुकान दिखते ही मचल गयी। बोली - गद्दी बदलवायेंगे। क्या करते। बदलवाई खड़े होकर। 270/- विदा हो गये देखते-देखते। साइकिल की गद्दी बदलते ही वह चहकते हुये चलने लगी।
चौराहे पर एक रिक्शा वाला उदास मन सवारी के इंतजार में जम्हुआ रहा था। मन किया उसको 'हैप्पी दीवाली' बोल दें लेकिन उसकी उदास जम्हुआई में दखल देने की हिम्मत न हुई। बढ गये आगे।
सड़क पर लोग बड़ी तेजी से आगे भगे चले जा रहे थे। जगह-जगह दुकाने सजी हुईं थी। सड़क पर स्ट्रीट लाइट की कमी लोग अपनी हेडलाइट से पूरी कर रहे थे।
जेड स्क्वायर जगमगा रहा था। झालर पहने खिलखिला रहा था। रोशनी की कमी उसने विज्ञापनों के चमकते फ़ुंदनों से पूरी कर ली थी। बड़ी भीड़ जेड स्क्वायर के अंदर घुसी चली जा रही थी। सबको अपने पैसों को कत्ल करना था। पास की लक्ष्मी को हिल्ले लगाना था। नई आ रहीं थीं न दीपावली पर। नई लक्ष्मी के आने से पहले पुरानी से मुक्त हो जायें।
याद आया अपना एक ठो डायलाग - ’बाजार पैसे का मायका होता है। पैसा मौका मिलता ही बाजार की तरफ़ भागता है।
बड़े चौराहे के पहले एक लड़की अपने किसी दोस्त से बतिया रही थी। किसी बात पर हंसी तो फ़ुलझड़ी सी हंसती ही चली गयी। हंसते-हंसते सड़क की तरफ़ झुक सी गयी। ज्यादा हंसी पेट को दोहरा करके निकाल रही होगी। फ़िर शायद उसको याद आया होगा कि झुकते हुये हंसने के चक्कर वह और टुंइया हो गयी है। यह याद आते ही वह सीधे हो गयी। लड़के का चेहरा हेलमेट के अंदर था। चमक रहा होगा वह भी।
बड़े चौराहे पर ट्रैफ़िक सिपाही तैनात थे। व्यवस्था के लिये दूसरे सिपाही बगल में थे। हमने पूछा
-’आगे साइकिल ले जा सकते हैं?’
वो बोला कि हां ले जा सकते हैं।
हमने पूछा -मोटर साइकिल ले जा सकते हैं?
वह बोला - हां, पर आपके पास मोटर साइकिल है कहां?
हमने सोचा कह दें- है तो हमारी पास बुलेट ट्रेन लेकिन कुछ साल लगेंगे लाने में। लेकिन फ़िर बोले नहीं।
चौराहे पर ही आटो पर लिखा दिखा-
"लटक मत टपक जायेगा
घूर मत जल जायेगा"
आगे ठग्गू के लड्डू के नारे भी देखिये:
पेड़ा उवाच:
’हमारा नेता कैसा हो,
दूध के पेड़े जैसा हो
पूर्ण पवित्र, उज्ज्वल चरित्र।’
बदनाम कुल्फ़ी की कहन भी सुनिये:
बिकती नहीं फ़ुटपाथ पर
तो नाम होता टॉप पर।
कचहरी होते हुये वापस लौटे। दिन में चहल-पहल वाली कचहरी में सन्नाटा पसरा था। आगे चौराहे पर स्वच्छता अभियान का लोगो बापू की एनक चमक रही थी।
वहीं बगल में फ़ुटपाथ पर तमाम लोग गुड़ी-मुड़ी हुये सो रहे थे। दो रिक्शे वाले एक गद्दी को साझा तकिया निद्रा निमग्न थे। एक महिला अपने बच्चे को चिपटाये हुये सो रही थी। दो लोग सीधे आसमान की तरफ़ मुंह किये लेटे थे। एक महिला एक बड़े गेट के सामने सड़क पर अपनी पॉलीथीन की चद्दर बिछाते हुये सोने की तैयारी कर रही थी। अभी फ़ुटपाथ पर सोने वाली सुविधा आधार से लिंक नहीं हुई है इसलिये ये लोग धड़ल्ले से सो ले रहे थे। आने वाले समय पर क्या पता कि इस सुविधा पर भी सर्विस टैक्स लग जाये जीएसटी सहित।
सड़क किनारे ही एक बुजुर्गवार औंधाये हुये पान मसाला के ठेले पर लेटे हुये थे।
लौटते में पटाखा लेते हुये आये। बाजार में साइकिल घुसने की अनुमति न थी। लेकिन एक वायरलेस थामे पुलिस वाले ने जाने दिया यह कहते हुये - अब अन्दर जगह है। जाने दो।
अन्दर पटाखा बाजार के बाहर एक बुजुर्गवार रस्सी का ’बाधा बार्डर’ साइकिल रोक दिये। फ़िर बात दस रुपये पर टूटी कि साइकिल गेट पर ही रख दें और वे देखभाल करते रहेंगे। साइकिल गेट पर ठडिया के हम आगे बढे।
पटाखा बाजार में भीड़ थी। हमने एक दुकान से थोड़े पटाखे लिये। दीपावली छुडाने के लिये नहीं , उसके बाद बंदर भगाने के लिये। बंदर का किस्सा बाद में। दुकान पर एक बुजुर्गवार बैठे दिखे। पता चला उनकी उमर 94 साल है। मतलब सन 1924 की पैदाइश। दांत सब विदा हो गये थे लेकिन बकिया चुस्त-दुरुस्त।
पटाखे लेकर लौटने के बाद बुजुर्गवार को दस का सिक्का दिये। पता चला कि बाजार वालों ने 300 रुपया दिहाड़ी पर गेट पर बैठाया है। न्यूनतम मजदूरी से 200 रुपया से भी कम। चाय-पानी हुआ नहीं। पास के किसी गांव के रहने वाले हैं।
लौटते हुये साइकिल का ताला खुलने से मना कर दिया। लगता है नयी गद्दी को देखकर भन्ना गया। बहुत हिलाये डुलाये लेकिन हिला नहीं। साइकिल का पिछवाड़ा उठाये हुये आगे बढे। दस कदम बाद धर दिये। फ़िर खोले तो ताला सट्टा से खुल गया। पसीज गया होगा हमारी मेहनत देखकर।
घर के बाहर एक सब्जी वाला खम्भे से टिका सब्जी खैनी रगड़ रहा था। शुक्लागंज से आते हैं भाई जी सब्जी बेचने। दस बजा था रात का। साढे दस बजे दुकान बढायेंगे। हमने फ़ोटू खैंचा तो अधरगड़ी खैनी को हथेली में सहेज के देखकर बोले- बढिया है।
लौट आये घर। अभी सुबह हुई सोचा किस्सा सुनाये आपको भी दीपावली के पहले का।

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Monday, October 16, 2017

गुडमार्निंग का फ़ैशन

सबेरे टहलने का मजा ही और है। यह बात आज साइकिलियाते हुये फ़िर महसूस हुई।
घर से निकलने के लिये जैसे ही गेट खोला वैसे ही बन्दर बाबा बाउंड्री की दीवार पर दौड़ते हुये आये और गेट से फ़लांगते हुये दूसरी तरफ़ फ़ूट लिये। यह बन्दरकूद वे बाद में भी कर सकते थे। हमारे निकलते समय ही करने के पीछे की मंशा उनकी उसी घराने की रही होगी जिस मंशा से आतंकवादी अपनी गतिविधि का समय किसी राष्ट्रीय त्योहार के समय चुनते हैं।
बाहर पप्पू की चाय की दुकान गुलजार थी। सामने से एक बालिका स्पोर्ट्स शू पहने साइकिलियाते हुये गाना सुनते आ रही थी। उसके बगल से गुजरते हुये दूसरे साइकिल सवार ने टेढे होते हुये उसको ओवर टेक किया।
सड़क के दोनों किनारे गुलजार हो चुके थे। एक जगह तखत पर बैठे दो लोग एकदम पास-पास बैठे कान में मुंह लगाकर जिस तरह बतिया रहे थे उससे हमें लखनऊ में निशातगंज चौराहे के पास लगी गांधी जी और नेहरू जी की कनबतिया करती हुई मूर्ति याद आ गयी। महापुरुषों की मुद्रा के नकल के आरोप से बचने के लिये इन लोगों ने बीड़ी सुलगा ली।
दो बच्चे पानी की बड़ी बाल्टी में पानी परिवहन कर रहे थे। एक छोटी लकड़ी के पटरे के नीचे लगे लोहे के चार पहियों पर चलती ’सड़क-स्लेज’ पर पानी ले जा रहे थे बच्चे। इनकी ही उमर के बच्चे स्कूल जाते दिखे। पढाई के झांसे से बचे हुये बच्चे जिम्मेदारी का भाव चेहरे पर धारण किये थे।
बगल में सुलभ शौचालय पर स्नान और निपटान शुल्क 5 रुपये लिखा था। जीएसटी का जिक्र नहीं था इसमें। सुलभ शौचालय शायद जीएसटी से मुक्त होगा।
पुल पर पहुंचकर देखा तो सूरज भाई पानी में अपनी किरणों को लम्बवत लिटाये हुये भिगो रहे थे। किरणों को शायद ’जल-गुदगुदी’ लग रही होगी। वे हिलडुल रहीं थी। पानी भी उनके संग जुड़ा होने के चलते हिल-डुल रहा था।
गंगा जी में पानी कम हो गया था। नदी के बीच रेत दिखने लगी थी। लोग उसके किनारे तख्त डाले स्नान-ध्यान में जुट गये थे।
पुल पर लोगों की आवा-जाही बढ गयी थी। एक ऑटो वाला बीच पुल पर खड़ा होकर ऑटो स्टार्ट करते हुये बच्चों को चुप रहने की हिदायत दे रहा था। पुल खत्म होते ही एक दूसरा आदमी अपनी साइकिल किनारे खड़ी करके बैठकर अपने पेट का पानी पुल को समर्पित करने लगा। सामने पुल की ऊंचाई के बराबर के मकान के लोग उसको देखकर अनदेखा करते रहे। सबेरे-सबेरे का आलस्य सब पर हावी होता है।
एक आदमी अपनी साइकिल पर प्लास्टिक के ग्लास लादे चला जा रहा था। साइकिल के हैंडल पर टंगी ग्लास साइकिल की मूंछों की तरह नीचे को तने थे। मारुति पीपी माडल के ग्लास अपनी मंजिल पर पहुंचने को बेताब से लगे। मारुति कार और मारुति ग्लास में आपस में कोई रिश्तेदारी जरूर निकलती होगी।
सड़क पर साइकिल स्कूल जाती लड़कियां बतियाती हुयी चली जा रहीं थीं। जीन्स धारिणी बालिकाओं का स्कूल बैग कैरियर पर लदा हुआ था। बैग का पट्टा निकलकर साइकिल की तीलियों के सामने फ़ड़फ़ड़ा रहा था। तीलियां स्पीड में घूमती हुई उसको बरजती जा रहीं थीं- इधर मत आना। आओगे तो हड्डी पसली ऐंड़ी-बैंड़ी हो जायेंगी। हवा के झोंके के साथ वापस होते हुये बोला- ’अरे हम तो सबेरे वाला गुडमार्निंग बोलने आये थे। आजकल गुडमार्निंग का फ़ैशन है।’
क्या सही में ऐसा है? आजकल गुडमार्निंग का फ़ैशन चला है क्या? अगर ऐसा है तो हम भी आपको गुडमार्निंग बोल रहे हैं।

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Wednesday, October 11, 2017

विकास हो रहा है, धड़ल्ले से हो रहा है

शाम को गंगापुल से पैदल वापस लौट रहे थे। सामने से टेम्पो, मोटरसाइकिल धड़धड़ाते चले आ रहे थे। लगता कि बस चले तो हमारे ऊपर से निकल जाएं। पुल पर बत्तियां गोल। अंधेरा। खम्भे पर बल्ब लगे थे लेकिन फ्यूज।
पुल भी तो पुराना है। बड़ी गाडियों के लिए बंद हो गया है। बुज़ुर्गों पर पैसा नहीं लगाया जाता अब। बुजुर्ग पुल के भी वही हाल।
कोई कोई गाड़ी इत्ती बगलिया के निकलती, लगता कि रेलिंग को खिसका कर बाहर निकलेगी और ओवरटेक करके फिर सड़क पर आ जाएगी। क्या पता कल को कोई ऐसी तकनीक आ ही जाए जिसमें गाड़ी वाला अपने पास से दस-बीस मीटर सड़क निकालकर और बिछाकर आगे निकल जाए।
कभी-कभी जब भीड़ में फँसते हैं और आगे कोई धीमे जाता दिखता है तो मन करता है अब्ब्भी के अब्ब्ब्भी एक ठो ओवरब्रिज तान दें आगे वाले के ऊपर और फांदते हुए निकल जाएं। लेकिन पुल-सुल मन की गति से थोड़ी बनते हैं। पुल के बनने की अपनी रफ्तार होती है। सीओडी के पास का पुल बनते दस साल से सुन-देख रहे हैं। घर से निकलते ही अधबना पुल रोज देखते हुए लगता है इत्ता ही बने रहने इसकी नियति है।
पुल वैसे विकास का पैमाना हैं। जित्ते ज्यादा पुल उत्त्ता ज्यादा विकास। इस लिहाज से देखा जाए तो हमारे यहां विकास ठहरा हुआ है। घिघ्घी बंधी हुई है विकास बबुआ की। किसी ने स्टेच्यू बोल दिया है विकास को। हो तो यह भी सकता है कि विकास सरपट गति से चल रहा हो और किसी जगह राष्ट्रगान शुरू हो गया हो और विकास जहां का तहां ठहर गया हो। 52 सेकेंड पूरा होने के बाद दुबारा न्यूटन के जड़त्व नियम की इज्जत के चपेटे में आ गया हो।
लेकिन लोग कहते हैं विकास हो रहा है, धड़ल्ले से हो रहा है। सेंसेक्स उचक रहा है। उछल-कूद रहा है। सेंसेक्स विकास की ईसीजी हो गया है। सेंसेक्स खुशहाल है, समझो विकास धमाल है। लोग जैसे मन आये वैसे जियें बस सेंसेक्स सलामत रहे। लोगों के मरने जीने से न सेंसेक्स को फर्क न पड़ता है, न विकास को।
पुल पर होते हुए सही सलामत घर लौट आये। रास्ते में रिक्शे पर सोते रिक्शेवाले को देखकर लगा शायद यह भी विकास का इंतजार करते-करते सो गया हो।
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