Sunday, October 30, 2016

दीपावली मतलब अंधेरे के खिलाफ़ उजाले की सर्जिकल स्ट्राइक



दीपावली को रोशनी का त्योहार माना जाता है। त्योहार के आते ही अंधेरे को निपटाने की बातें शुरु हो जाती हैं। गोया अंधेरा न हुआ जानी दुश्मन हो गया। पाकिस्तान टाइप। निपटा दो फ़ौरन उजाले की बमबारी करते हुये। एक तरह से दीपावाली अंधेरे के खिलाफ़ उजाले की ’सर्जिकल स्ट्राइक’ है।
ये सर्जिकल स्ट्राइक वाली बात पौराणिक संदर्भ में भी लागू होती है। राम ने लंका में घुसकर रावण को मारा। अपनी पसंद का राजा बना आये वहां। सीता जी को ले आये। जब वापस आये तो देश की जनता ने हर्षित होकर हल्ला-गुल्ला मचाया। पटाखेबाजी करी। शायद नारे भी लगाये हों- ’हमारा राजा कैसा हो, रामचन्द्र जी जैसा हो’। कुल मिलाकर कुछ-कुछ ऐसा ही सीन रहा होगा जैसा अभी अपनी सेना की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद हुआ।
लेकिन अंधेरे के खिलाफ़ ये उजाले की हल्ला बोल की प्रवृत्ति के पीछे बाजार की ताकत काम करती है। अंधकार पर रोशनी की विजय के नाम पर तमाम रोशनी के एजेंट अपनी दुकान लगाकर बैठ जाते हैं। इतना उजाला फ़ैला देते हैं कि आंख मारे रोशनी के चौंधिया जाती है। दिखना बंद हो जाता है। अंधेरे के ’अंधेरे’ से उजाले के ’अंधेरे’ में लाकर खड़ा कर देते हैं रोशनी के ठेकेदार। जब तक आपको कुछ समझ में आता है तब तक आपको लूटकर फ़ूट लेते हैं। आपको जब तक होश आता है तब तक आप लुट चुके होते हैं। जो लोग लुटने की शराफ़त नहीं दिखा पाते वे पिट भी जाते हैं।
पर हम तो प्रकृति के उत्पाद हैं। अपने लिये तो अंधेरा और उजाला प्रकृति के दो सहज पक्ष हैं। दिन और रात की तरह। प्रकृति ने हमें इसी तरह बनाया है कि जब धरती सूरज के सामने रहे तब हमें दिखता रहे। बाकी समय अंधेरा रहे। दिखना बंद हो जाये। यह वास्तव में धरती ने हमारे लिये आराम का इंतजाम किया है। जितने भी जीव जंतु हैं धरती पर सबके लिये इसी तरह का इंतजाम है। सब जीव जंतु इसे सहज भाव से लेते हैं। कोई हल्ला नहीं मचाता। लेकिन इंसान खुराफ़ाती है। जबसे उसने कृत्तिम रोशनी की खोज की होगी तबसे वह अंधेरे के खिलाफ़ हल्ला मचाता रहता है।
इंसान को अंधेरे में दिखता नहीं। अंधेरे में डरता है वह। अपनी औकात कम लगती हैं अंधेरे में उसे इसलिये वह अंधेरे को अपना दुश्मन मानकर उसके खिलाफ़ साजिश करता है। जहां देखो तहां अंधेरे का कत्ल करता रहता है। कहीं-कहीं तो इतनी ज्यादा रोशनी करती है कि अंधेरे से भी ज्यादा अंधेरा फ़ैल जाता है। अंधेरा कभी उजाले के खिलाफ़ साजिश नहीं करता। वह लड़ाई भिड़ाई भी नहीं करता उजाले से। जब उजाला अंधेरे पर हमला करता है तो चुपचाप किनारे हो जाता है। नेपथ्य में चला जाता है। जब उजाले की सांस फ़ूल जाती है अंधेरे से कुश्ती लडते हुये तब अंधेरा फ़िर से अपनी जगह वापस आ जाता है।
अंधेरे का बड़प्पन ही है कि वह उजाले घराने के किसी भी सदस्य को चोट नहीं पहुंचाता। वो एक शेर है न:
जरा सा जुगनू भी चमकने लगता है अंधेरे में,
ये अंधेरे का बड़प्पन नहीं तो और क्या है जी!
अंधेरा जरा से जुगनू को भी चमकने का मौका देता है। उजाले में यह उदारता नहीं होती। वह जहां रहता है वहां किसी अंधेरे को उजाले को पनपने का मौका नहीं देता। डरता है उजाला कि जरा सा मौका मिला अंधेरे को तो वह उजाले को भगा देगा।
अंधेरे पर उजाले की जीत की आड़ में तमाम घपले होते हैं। बिजली बनाने के नाम पर जंगल काट दिये जाते हैं। बांध बनाने के लिये आदिवासियों को उनकी जमीन से बेदखल कर दिया जाता है। शहर में बिजली का झटका गांवों में लगता है। कहीं 24 घंटे बिजली पहुंचाने के लिये दूसरी जगह 48 घंटे अंधेरे में डुबा दिये जाते हैं। एक जगह रोशनी की चकाचौंध होती है तो दूसरी जगह घुप्प अंधेरा। मतलब हाल ये होता है कि:
कल उजालों के गीत बहुत गाये गये!
इसी बहाने गरीब अंधेरे निपटाये गये।
अंधेरे पर उजाले का जयघोष करने वाले कामना करते हैं कि दुनिया में सदैव उजाला बना रहे। अंधेर-उजाले के लोकतंत्र की जगह रोशनी की तानाशाही सरकार बनी रहे। यह कामना ही प्रकृति विरुद्ध है। यह तभी हो सकता है जब धरती सूरज का चक्कर लगाना बन्द कर दे। जैसे ही ऐसा कुछ हुआ, ग्रहों का सन्तुलन बिगड़ जायेगा। सौरमण्डल की सरकार गिर जायेगी। धरती पर प्रलय जैसा कुछ आयेगा। अंधेरे पर उजाले की विजय का हल्ला मचाने वाला इंसान अपने टीन टप्पर, अस्थि-पंजर समेत ब्रह्मांड के किसी कोने में कचरे सरीखा पड़ा रहेगा न जाने किसी आकाशीय पिंड का चक्कर लगाते हुये।
मान लीजिये धरती नष्ट भी न हुई और आज से ही दुनिया से अंधेरा विदा हो गया। सब तरफ़ उजाला ही उजाला हो गया तो सोचिये क्या होगा। दुनिया के सारे अंधेरे में किये जाने वाले कार्य व्यापार ठप्प बन्द हो जायेंगे। जनरेटर बनाने/बेंचने वाली कम्पनियां बन्द हो जायेंगी। किराये पर गैस बत्ती देने वाले कटोरा लिये नजर आयेंगे। अंधेरे में देखने वाले उपकरण बनाने वाली कम्पनियां दीवालिया हो जायेंगी। अंधेरे-उजाले में रहने के अभ्यस्त लोग बिना हवाई यात्रा के ही जेट लैग के शिकार होने लगेंगे।
अगर कभी ऐसा हुआ तो पक्का फ़िर अंधेरे के भाव बढेंगे। कृत्तिम उजाले की जगह कृत्तिम अंधेरे का व्यापास शुरु होगा। अंधेरा पैदा करने वाले उपकरण बनेंगे। अंधेरा पैदा करने वाले बल्ब बनेंगे। अंधेरा उगाने वाली मोमबत्तियां बंद बनेंगी। लोग आंख के डाक्टर के पास जाकर दुखड़ा रोयेंगे – ’डा.साहब इस आंख से दिखता ज्यादा है। कोई कम दिखने वाली दवा दीजिये। रोशनी से बहुत तकलीफ़ होती है।’ उजाले की तानाशाही होगी तब मुहावरे भी बदलेंगे। लोग ’आंख के सामने अंधेरा छा जाने’ की जगह ’ आंख के सामने उजाला छा गया’ कहने लगेंगे। कवि गण अंधेरे के सम्मान में गीत लिखेंगे। दीपावली के बदले क्या पता कोई ऐसा त्योहार मनाया जाने लगे जिसमें अंधकार ही अंधकार पैदा किया जाये। नीरज की तर्ज पर कोई कवि कहे-
बुझाओ दिये पर रहे ध्यान इतना,
उजाला धरा पर कहीं रह न जाये।
आपको भी लग होगा कि कहां की अल्लम-गल्लम हांकने लगे। लेकिन कहने का मतलब मेरा इतना ही है कि धूप-छांह की तरह ही अंधेरे-उजाले का रिश्ता है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। खुशी मनायें लेकिन उसके लिये अंधेरे को गरियाये नहीं। उसकी भी इज्जत बनाये रखें। अंधेरा वास्तव में मिट गया तो रोशनी में आपस में समाजवादी कुनबे की तरह कटाजुज्झ होने लगेगी क्योंकि:
असल में अंधेरे की अपनी कोई औकात नहीं होती,
इसकी पैदाइश तो उजालों में जूतालात से होती है।

आपको दीपावली की मंगलकामनायें।

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Sunday, October 23, 2016

आस्तिक कि नास्तिक


जो लोग ईश्वर को मानते हैं उनके हिसाब से दुनिया में जो हो रहा है उस सबका कर्ता-धर्ता भगवान ही है। वही लोगों को बनाता है। वही निपटाता है। भक्तों को परेशान करके इम्तहान लेता है, वही दयालु बनकर उनका कल्याण करता है। वही आतंकवादी बनाता है वही उनको ’सर्जिकल स्ट्राइक’ में निपटाता है। वही मनेरेगा चलाता है वही जियो का सिल दिलाता है। ट्रम्प के रूप में वही स्त्रियों के खिलाफ़ छिछोरी हरकतें करता है तो हिलेरी भौजी के रूप में वही उसकी भर्त्सना करता है। वही करण जौहर की पिच्चर में पाकिस्तानियों को रोल दिलाता है फ़िर वही उनके खिलाफ़ हल्ला मचवाता है इसके बाद वही बीच का रास्ता निकालता है। बहुत बड़ा कारसाज है ऊपर वाला।
नास्तिक भाई लोग मानते हैं कि ईश्वर जैसी कोई चीज ही नहीं। आस्तिकों द्वारा भगवान को साबित करने की हर दलील को वह उसी तरह नकार देता है जैसा आतंकवादी गतिविधियों के सबूत देखकर पाकिस्तान नेति, नेति कर देता है।
तमाम लोग भगवानों के भौकाल से जलते हैं। सोचते हैं कि ईश्वर के तो जलवे होते हैं। जो मन आये करें। जिसको जो मन आये वरदान दे दिया। न कोई काम न धाम। न मंहगाई की चिन्ता न आटे-दाल का सोचना। भक्त हैं न सब करने के लिये। लेकिन यह धारणा केवल जलवेदार भगवानों के किस्से सुनकर बनाई धारणा हैं। जैसे फ़िल्म इंडस्ट्री में बड़े अभिनेताओं और एक्स्ट्रा का काम करने वालों की हैसियत अलग-अलग हैसियत होती है वैसे ही देव समाज में भी छोटे देवताओं की सेवा शर्तें बड़ी कड़ी होती होंगी।पुराने समय में जो जरा-जरा सी बात पर पुष्पवर्षा करने के वाले देवता होते होंगे वे एक्स्ट्रा देवता लोग ही होते होंगे जिनको विमान का किराया देकर भेज दिया जाता होगा। क्या पता जो बहादुरी वाले स्टंट होते हैं ईश्वर के वो करने वाला कोई 'स्टंट देवता' होता हो उनके यहां।
क्या पता कि ईश्वर की जिन लीलाओं के किस्से हम सुनते आये हैं वो उनके द्वारा की गयी सर्जिकल स्ट्राइक होती हों। हर अगला अवतार आते ही कहता हो कि इसके पहले यह लीला किसी ने नहीं दिखाई।
लोग समझते हैं कि देवताओं की जिंदगी बड़ी ऐश से गुजरती होगी उनको केवल स्तुतियां मिलती होंगी लेकिन ऐसा होता नहीं हैं। आजकल देवताओं की सर्विस कंडीशन भी बड़ी कठिन हो गयी हैं। जैसे राजनीति में मंत्रिमंडल में मनमाफ़िक पद या चुनाव में टिकट न मिलने पर राजनीति में लोग पार्टी बदल लेते हैं वैसे ही जहां जरा सा काम नहीं बना किसी का तो वो फ़ौरन अपना देवता बदल देता है।
आजकल तो भगवानों पर भी पूजा, नमाज में गबन के आरोप लगते हैं और कोई कवि कहता है:
सब पी गये पूजा ,नमाज बोल प्यार के
नखरे तो ज़रा देखिये परवरदिगार के।
अगर भगवान के लिये भी चुनाव होते तो इसी तरह के आरोपों में उनकी सरकार गिर जाती।
माना जाता है कि आस्तिक मने ईश्वर को मानने करने वाला, नास्तिक मने ईश्वर को न मानने वाला। दोनों अलग-अलग स्कूल की तरह हैं। दोनों का अपना सिलेबस है। अपने मास्टर। अपने छात्र। दूर से देखने पर लगता है कि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। लेकिन बाद में पता चलता है कि दोनों की मैनेजमेंट कमेटी में एक ही परिवार के लोग शामिल हैं।
यह कुछ ऐसे ही है जैसे किसी लोकतंत्र में तमाम तरह की विचारधाराओं वाली पार्टियां होती हैं। कभी किसी की सरकार बनती है, कभी किसी की। लेकिन असल में पार्टियों को चन्दा देने कारपोरेट से ही मिलती है चलती है उसी की है। लोकतंत्र में सरकारें तो बाजार की कठपुतली होती हैं। बाजार पक्ष को भी चन्दा देता है विपक्ष को भी। बाजार दोनों को बनाये रखता है ताकि दोनों आपस में हल्ला मचाते रहें और वो अपनी दुकान चलाता रहे।
खैर यह तो ’हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह हैं। बाजार में सेन्सेक्स की तरह ईश्वर के प्रति आस्था भी कम-ज्यादा होती रहती है। कभी तमाम लोगों के लिये भगवान सरीखे रहे बापू आशाराम बेचारे जेल की कोठरी में निराश पड़े हुये हैं महीनों से। नास्तिक लोग अपने स्वामी की बात उसी तरह मानते हुये कीर्तन मुद्रा में जमा हो जाते हैं जिस तरह आस्तिक अपने भगवान के लिये इकट्ठा होते हैं।
हमसे कोई पूछे कि ’आस्तिक’ कि ’नास्तिक’ तो हम तो यही कहेंगे कि भईया जौन पैकेज में फ़ायदा ज्यादा हो वही तौल देव हमको। जिअमें दीपावली का बम्पर डिस्काउंट चल रहा हो वही बुक कर देव हमारे लिये।
आपका क्या कहना है इस बारे में?

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Thursday, October 20, 2016

बातें बनाना सीखें



सुबह जब घर से निकलते हैं तो तमाम नजारे दिखते हैं। उनको देखते हुये लगता है कि अब्बी इसी पल इसे लिख दिया जाना चाहिये। लेकिन आगे निकल जाते हैं। निकलना पड़ता है !
सबसे पहली मुलाकात सूरज भाई से होती है। अपनी किरणों, उजाले और पूरे भौकाल के साथ मानो सर्जिकल स्ट्राइक सी करते हैं सूरज भाई। घर से बाहर निकलते ही लगता है कि अरे, ये तो हर तरफ़ उजाला है। रोशनी के लिये बाहर निकलता पड़ता है भाई !
कल दफ़्तर जाते समय देखा एक आदमी साइकिल पर सब्जी लादे आ रहा था। हैंडल पर सब्जी के झोले, कैंची पर सब्जी का बोरा और फ़िर साइकिल के कैरियर पर ऊंचाई तक सब्जी की गठरियां। साइकिल इस वजन से इधर-उधर हो रही थी। शायद कह भी रही हो-’हमसे न होई! हम न चलब!’ साइकिल के टेढे-मेढे होने को सीधा करने की कोशिश करता हुआ सब्जी वाला आगे चलता हुआ अपनी मुंडी कैरियर पर लदे बोरे में घुसाये हुये संतुलन बनाता कौनिउ तरन से संभालता चला जा रहा था।
मन किया साइकिल वाले को रोककर सर्जिकल स्ट्राइक और पेट्रोल के हालिया बढे हुये दामों के बारे में कुछ पूछ डालें। लेकिन पटरी के उस पार होने के चलते इरादा त्याग देते हैं। आगे बढ जाते हैं।
ओ.एफ़.सी. के पास सड़क पर महिला रोज हाथ फ़ैलाये बैठी दिखती है। कल सड़क पर साइकिल पथ बनाने के लिये लगे पिलर से पीठ सटाये बैठी दिखी। तसल्ली से आराममुद्रा में उसे बैठे देख एक बारगी लगा कि कोई बादशाह अपने तख्तेताऊस पर बैठा है। एक दिन उसकी बच्ची उस खम्भे पर चढने की कोशिश करते हुये उसे गले सा लगा रही थी।
आज देखा तो महिला वैसे ही हाथ फ़ैलाये अपने मांगने की तपस्या में रत थी। उसकी दोनों बच्चियां अपनी मां के काम से बेखबर दो पिलर के बीच की जमीन पर आपस में खेल रही थीं।
साइकिल सवारों के लिये बने साइकिल पथ पर साइकिल सवारों के अलावा बाकी लोगों ने कब्जा सा कर लिया है। सब्जी वाले, फ़ल वाले , जूस वाले अपने ठेलिया लगाये खड़े दिखे। साइकिल का रास्ता कुछ इस तरह कि अगल साइकिल वाला निकले तो जगह-जगह उसे उठाकर ले जाना पड़ेगा साइकिल। एक जगह साइकिल वाला सडक के लम्बवत साइकिल खड़ी किये किसी भी दूसरी साइकिल के निकलने का रास्ता बंद किये हुये था। कुल मिलाकर साइकिल पथ साइकिल सवारों के अलावा अन्य सवारियों का कब्जा दिखा। कुछ ऐसे ही जैसे गरीबी रेखा से नीचे वाली बढिया सुविधाऒं पर समर्थ लोग अपना कब्जा कर लेते हैं।
तमाम साइकिल वाले साइकिल पथ के वाहर बीच सड़क पर चल रहे थे। उनको वहीं जगह मिली चलने की।
कल देखा सड़क किनारे एक गाय मरी पड़ी थी। पेट फ़ूला हुआ था। शायद यह अपनी मौत मरी हो या पालीथीन के कारण। लेकिन चुपचाप बिना किसी को व्यवधान दिये वह मरी पड़ी थी किनारे। पास में ही गाय की मौत से बेखबर सुअर वीकेन्ड के बाद वाले उत्साह से कूड़े से अपने मतलब का सामान खोजने में व्यस्त थे।
जरीब चौकी क्रासिंग जब भी बन्द मिलती है वहां मौजूद बच्चे उछलकर गाड़ी की खिड़की के पास खड़े होकर मांगने लगते हैं। दो-तीन बच्चे देखते-देखते पांच छह हो जाते हैं। हाथ की खाल सूखी देखकर लगता है कि साफ़-सफ़ाई की औपचारिकता के झांसे में नहीं आते बच्चे। पैसे देने के बजाय कुछ बात करते हैं तो जबाब अनमने मन से देते हैं। जैसे ही फ़ोटो खींचने के लिये मोबाइल उनकी तरफ़ घुमाओ बच्चे भाग खड़े होते हैं।
क्रासिंग पर सवारी देखते ही मांगने वाले बच्चे देखकर लगता है कि जब अविकसित, विकासशील देश विकसित देशों से सहायता मांगते होंगे तो जैसे विचार विकसित देशों के मन में आते होंगे वैसे ही कुछ सवारियों के मन में आते होंगे। कभी कुछ चिल्लर दे दिया कभी टरका दिया।
पंकज बाजपेयी जी से बहुत दिन बाद मिलना हुआ। देखते ही बोले-" प्रेम चोपड़ा गिरफ़्तार हो गया। फ़र्जी पेरोल पर रिहा होकर बाहर घूम रहा था। बच्चों को पकड़कर ले जाता था।" प्रेम चोपड़ा के बाद कोहली पर ध्यान दिया उन्होंने-" कोहली बहुत बड़ा रैकेट चला रहा है। उसके खिलाफ़ रिपोर्ट है। अखबार में सब निकला है। पुलिस उसको पकड़ने गयी है।"
सामने एक ई-रिक्शा वाला जा रहा है। उसके पीछे लिखा है- "मोबाइल रिपेयर करना सीखें। टीवी बनाना सीखें।" हमको लगता है कभी कोई विज्ञापन इस तरह भी दिखेगा-" बातें बनाना सीखें। हवाई किले बनाना 
सीखें।"
लेकिन वह जब होगा तब होगा। अभी तो फ़िलहाल इसे पोस्ट करने के अलावा और कोई काम समझ नहीं करना अपन को ! 

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Sunday, October 16, 2016

मौसम है आशिकाना


कल एक मित्र से बात हो रही थी। उन्होंने पूछा –’ तुम्हारे उधर का मौसम कैसा है?’
हमने कहा – आशिकाना।
यह कल की ही बात नहीं। हमसे कोई भी मौसम के बारे में पूछता है हमारा जबाब हमेशा एक ही रहता है- आशिकाना। मौसम बदलता रहे उसकी बला से। भीषण गर्मी पड़ रही हो। भयंकर लू चल रही हो। भद्दर जाड़ा पड़ रहा हो। दांत के साथ शरीर भी किटकिटा रहा हो। लेकिन हमसे मौसम की जब भी किसी ने बात की हमारा जबाब हमेशा एक सा ही रहा - आशिकाना।
यह कुछ ऐसा ही है कि भले ही अमेरिका कहीं भी बम बरसा रहा हो। किसी देश को तबाह कर रहा हो। आतंकवादियों को हथियार मुहैया करा रहा हो लेकिन जब भी उसकी नीतियों की बात चलेगी वह बयान जारी करेगा-’अमेरिका शांतिप्रिय देश है।’
एक तरह से सही ही कहता है अमेरिका भी। जब सब लोग मर खप जायेंगे तो हल्ला कौन मचायेगा। परसाई जी भी लिखते थे- “अमरीकी शासक हमले को सभ्यता का प्रसार कहते हैं। बम बरसते हैं तो मरने वाले सोचते है, सभ्यता बरस रही है।“
हमने एकाध बार सोचा भी कि हमको हर मौसम ’आशिकाना’ ही क्यों लगता है। कारण समझ में नहीं आया। एक मित्र ने अपनी राय बताई –’ जिसको जो सुविधा हासिल नहीं होती वह उसका हल्ला मचाता रहता है। तुम शायद आशिकी से महरूम रहे इसलिये उसका नाम लेकर काम चलाते हो। सींकिया लोग ही अपनी पहलवानी के किस्से सुनाते हैं। साहब के चैम्बर में डांट खाकर निकले लोग बाहर सबको बताते हैं-’ आज हमने साहब को कस के हड़का दिया।’
हम मित्र की बात का क्या जबाब देते? कहते खूब आशिकी किये हैं तो फ़र्जी किस्से सुनाने पडते। उसमें भी दोहरा नुकसान। पहले तो हमारा ’शराफ़त इंडेक्स’ फ़ौरन कम होता। इश्क करना खराब माना जाता है न अपने यहां। इसके बाद जब किस्सों का झूठ सामने आता तो और बवाल होता।
लेकिन बात बदलते मौसम की हो रही है। आजकल मौसम इतनी तेजी से बदलने लगा है कि बेईमान से भी ज्यादा बेईमान हो गया है। बरसात का मौसम निकल जाता है पानी नहीं बरसता नहीं लेकिन अचानक जाड़े में धुंआधार हो जाता है। इसके अलावा पहले मौसम समाजवादी टाइप होता है। पूरे शहर में एक सा मौसम। अगर भन्नानापुरवा में धूप खिली है तो बांसमंडी में भी कपड़े सुखाने के डाल दिये जाते थे। अगर अफ़ीमकोठी में बारिश हो रही है तो ये नहीं हो सकता था कि गन्देनाले में छतरियां न खुलीं हो। मतलब सब जगह एक सा मौसम होता था।
लेकिन आजकल अक्सर ऐसा नहीं होता है। पता चलता है चेन्नई में झमाझम हो रहा होता है उधर कश्मीर में बर्फ़ गिर रही होती है। एक ही शहर तक में भी यही नजारा दिखता है। अक्सर होता है कि आर्मापुर में पानी बरस रहा है उधर कैंट में धूप खिली होती है। मौसम का यह बदलता अंदाज खाते में सीधे सब्सिडी जाने जैसा है। आर्मापुर का आधारकार्ड बारिश के लिये रजिस्टर है तो पानी बरसा दिया कैंट का नंबर धूप के लिये जुड़ा है तो वहां किरणें खिल गईं। यह भी हो सकता है कि मौसम के पास भी पानी और धूप का स्टाक सीमित हो या सर्विस एजेंट कम हो जाते हों इसलिये एक-एक करके सप्लाई करता हो। लोग कहते हैं आदमी प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करता रहता है इसलिये कुदरत भी डर-डरकर निकलती है बाहर! टुकडों-टुकड़ों में सहमते हुये। इसीलिये कहीं धूप दिखती है, कहीं बारिश।
यह तो कुदरत के नजारे हैं। मौसम कैसा भी रहे उसका असर मन पर परिस्थिति के हिसाब होता है। इस लिहाज से इधर देश-दुनिया का मौसम बड़ी तेजी से बदल रहा है। कुछ लोग बहुत तेजी से अमीर हो रहे हैं, बहुत ताकतवर हो रहे हैं, सारी खुशियां कुछ लोगों तक सिमटकर रह गयीं हैं। संतुलन बनाये रखने के लिये तमाम लोग बहुत तेजी से गरीब, कमजोर और बेहाल हो रहे हैं।
पहले अपराध, धतकरम और तमाम बुराईयां डरी-सहमी सी रहती थीं। सबके सामने आने में उनको उसी तरह डर लगता था जिस तरह आज एक लड़की को अकेले बाहर निकलने में लगता होगा। लेकिन आज बदलते समय में अपराध, धतकरम और तमाम बुराईयों ने सत्ता और पूंजी के साथ गठबंधन सरकार बना ली है। गुंडे, बाहुबली जो पहले पर्दे के पीछे से सत्ता की सहायता करते थे वे अब खुद सरकार बनाने लगे हैं। माफ़िया मसीहा बनकर सामने आ रहे हैं। दुर्बुद्धि, गुंडई , अराजकता अपनी तेजी से बढती ताकत के साथ न्यायबुद्धि, भलमनसाहत और सज्जनता को पटकनी दे रही हैं। सच्चाई मुंह छिपाये कहीं कोने में खड़ी है। झूठ लिपा-पुता मंच पर अट्ठहास करते हुये सम्मानित हो रहा है। जनता भौंचक्की सी इस बदलाव को देखती है। उसको झटका तब लगता है जब उसको बताया जाता है कि इस सब की जिम्मेदार वही है! उसी ने झांसे में आकर अपनी बदहाली का इंतजाम किया है!
इधर मौसम बहुत तेजी से बदल रहा है।
लेकिन मौसम का बदलना भी एक शाश्वत सच है। मौसम हमेशा एक सा कहीं नहीं रहता। यह समय भी बदलेगा। पर बदलाव के लिये मौसम की मेहरबानी से ज्यादा मन की मजबूती चाहिये। रमानाथ अवस्थी के शब्दों में- ’कुछ कर गुजरने के लिये, मौसम नहीं मन चाहिये।’ या फ़िर परसाई जी के कहे के अनुसार –’ मौसम की मेहरबानी पर भरोसा करेंगे, तो शीत से निपटते-निपटते लू तंग करने लगेगी। मौसम के इन्तजार से कुछ नहीं होगा। वसन्त अपने आप नहीं आता ; उसे लाया जाता है। सहज आनेवाला तो पतझड़ होता है, वसन्त नहीं। अपने आप तो पत्ते झड़ते हैं। नये पत्ते तो वृक्ष का प्राण-रस पीकर पैदा होते हैं। वसन्त यों नहीं आता। शीत और गरमी के बीच से जो जितना वसन्त निकाल सके, निकाल लें। दो पाटों के बीच में फंसा है, देश का वसन्त। पाट और आगे खिसक रहे हैं। वसन्त को बचाना है तो ज़ोर लगाकर इन दोनों पाटों को पीछे ढकेलो - इधर शीत को, उधर गरमी को। तब बीच में से निकलेगा हमारा घायल वसन्त।’

यह तो हुई हमारे इधर के मौसम की बात ! अब आप बताइये आपके इधर कैसा मौसम है।

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Friday, October 14, 2016

दिखते नहीं, मिलते नहीं

कल सबेरे जरा बाहर निकले। सूरज भाई दिखे बहुत दिन बाद ! खिल गये। हंसते हुये हाल-चाल लिये दिये। उनके साथ की किरणें आसपास के पेड़,पौधों, फ़ूल, पत्तियों के साथ ’धूप खेला’ कर रहीं थीं। मुट्ठी-मुट्ठी भर धूप पेड़, पत्तियों, कली, घास, सड़क, मकान सबको फ़ेंक-फ़ेंक कर मार रही थीं। धूप के उजाले में सब खिल-खिला रहे थे।
एक आदमी बोतल में पानी लिये सड़क पर चला जा रहा था। चेहरा किसी अपराध बोध में झुका सा हुआ। इसके यहां लगता है न कोई सोच है न शौचालय! सूरज की किरणों ने उसके चेहरे पर भी धूप बिखेरी लेकिन वह वैसे ही सर झुकाये झाड़ियों के बीच से होता हुआ एक टूटी दीवार के अन्दर हो गया। अन्दर कहीं इत्मिनान से बैठकर ’बिना सोच वाले शौचालय’ में बैठ गया होगा!
सामने से सूरज भाई पूरे जलवे में दिखे। एक पेड़ के ऊपर अपना गाल धरे हमसे बतियाते रहे बहुत देर। वही सब शिकवे-शिकायतें। दिखते नहीं, मिलते नहीं।
सामने से तीन बच्चियां प्लास्टिक की बोरियां लिये सड़क पर आती दिखीं। वे कूड़ा बीनने निकली थीं। बोरियों की लम्बाई बच्चियों से ज्यादा थी। वे आपस में बतियाते हुये सामने से आ रही थीं। हमने पूछा- ’ क्या बीनने निकली हो?’ वे बोली- जो भी मिल जाये!’
हमने सामने से फ़ोटो लेने के लिये मोबाइल ताना। पहले तो वे पोज बनाकर खड़ी हो गयीं। इसके बाद अपना दुपट्टा चेहरे पर कर लिया। तीनों से। एक ने तो बोरी सटा ली मुंह पर। हमने कैमरा नीचे कर लिया। वे हमारे सामने से होते हुये सड़क पर चलती चली गयीं।
आगे लोग टहलते हुये दिखे। तेजी से आगे-पीछे हाथ हिलाते हुये। जितने टहलने जाते लोग दिखे उससे ज्यादा लोग निपटने के लिये जाते दिखे। हाथ में पानी की बोतल लटकाये हुये। कुछ लोग बोतल को इज्जत से लटकाये हुये थे, ज्यादातर उंगली से थामे हुये। यह हाल तो पानी भरी बोतल का था। लेकिन खाली बोतलों को उंगली में फ़ंसाये हुये ही चले जा रहे थे। खाली बोतल का हाल वोट डाल चुके वोटर की तरह हो जाता है। उसकी इज्जत पहले जैसी नहीं रहती।
एक साथ लोगों को टहलते और निपटने जाते देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि अभी तक किसी नेता ने यह बयान क्यों नहीं जारी किया -’घर-घर शौचालय बनने से लोगों का सुबह टहलना बंद हो गया है। लोगों के स्वास्थ्य खराब हो रहे हैं। 
मोड पर एक जगह दो लोग एक सुअर को पकड़ रहे थे। एक ने उसके दोनों पैर पकड़े दूसरे ने बांध दिये। पैर बांधते समय वह बड़ी तेज चिंचिया (सुअरिया ) रहा था। इसके बाद दोनों ने मिलकर उसका मुंह भी बंद कर दिया जैसे अखबारों के, समाचार चैनलों की आवाज विज्ञापन मिलने के बाद धीमी पड़ती जाती है वैसे ही सुअर की आवाज भी धीमी पड़ती गयी। हाथ-पैर और मुंह बंध जाने के बाद कुछ देर तक वह पीठ के बल आगे-पीछे सरकता रहा। इसके बाद अपने को नियति के हाथ सौंपकर चुपचाप लेट गया।
सुअर के चुप हो जाने के बाद दोनों लोगों ने उसको अपने साथ फ़टफ़टिया पर लादा। चालक और पीछे बैठी सवारी के बीच बंधे सुअर को लादकर वे घटनास्थल से गो, वेंट और गान हो गये।
घर के पास एक आदमी पुलिया पर बैठा अखबार पढ़ रहा था। हमको वहां देखकर वह सकपका सा गया। मानो चोरी करते पकड़ा गया हो। उसकी साइकिल पास में खड़ी थी जिसका एक पैडल गायब था। कुछ देर उससे बतियाने के बाद हम तैयार होकर दफ़्तर चले आये।
रास्ते में पंकज बाजपेयी मिले। बोले- ’नकली पेरोल पर लोग रिहा हो रहे हैं। बजरिया थाने में रिपोर्ट हुयी है। जार्डन, कनाडा, लीबिया के लोग शहर में आये हुये हैं। बच्चों को पकड़ रहे हैं।"
हमने कहा- " अखबार में तो कहीं नहीं छपती आप जो बताते हैं वो खबरें।"
वे बोले-"अखबार वाले खबरें दबा देते हैं। बहुत दबाव है उनपर।"
हम उनकी बात से सहमत हों या असहमत यह सोचते हुये चलते रहे। आखिर में फ़ैक्ट्री पहुंचकर वहां जमा हो गये।
यह किस्सा था कल का, आज का कभी फ़िर। मने -शेष अगले अंक में। ठीक? आप मजे से रहिये ! 

Wednesday, October 12, 2016

सर्जिकल स्ट्राइक पर ताजा खबरें

हरिभूमि 12.10.16


आम गृहस्थ के लिये घर के पचास काम होते हैं। 49 टरका भी दो एक तो बच ही जाता है। निकलना ही पड़ता है घर से बाहर 'सर्जिकल स्ट्राइक' के लिए।

अब ये ससुर 'सर्जिकल स्ट्राइक' भी इतना पॉपुलर हो गया है कि आदमी निपटने भी जाता है तो कहकर जाता है – “तू बैठ ज़रा अपन अभी शौचालय से 'सर्जिकल स्ट्राइक' करके आते है।“

'सर्जिकल स्ट्राइक' में पड़ोसी देश के कितने आतंकवादी जन्नत में हूरों से मिलने निकल लिए इसकी तो संख्या में मतभेद हैं लेकिन इस 'सर्जिकल स्ट्राइक' के हल्ले में तमाम जरूरी लगने वाले मुद्दे उबलती हुई कड़ाही से कोल्ड स्टोरेज में जमा हो गये। वे मुद्दे ऐसे निपट गए कि उनके शव तक न खोजे मिलेंगे।

जनता को भी इसी बहाने एक नया शब्द मिला -सर्जिकल स्ट्राइक । महीने में एकाध बार इसी तरह नए-नए शब्द उछलते रहे तो पांच साल का समय सीखते हुये ही बीत जाएगा। सरकार अपनी उपलब्धियां बताते हुए कहेगी -'हमने अपनी जनता को सबसे ज्यादा नये शब्द सिखाये। हमने सबसे ज्यादा जुमले जोड़े। बोलो जोड़े कि नहीं।'

इस सवाल के जबाब में जनता झकमारकर हाँ कहने के सिवा और क्या कर सकती है ।

हमारे एक मित्र हैं। उन पर आदतन विपक्षी दल की आत्मा सवार रहती है। हर बात का स्टीयरिंग गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी की तरफ़ मोड़ देते हैं। 'सर्जिकल स्ट्राइक' से उत्साहित होकर मित्र ने सवाल उछला -'ये सरकारें आतंकवादियों पर 'सर्जिकल स्ट्राइक' की तर्ज पर अपने यहां गरीबी, भुखमरी के खिलाफ 'सर्जिकल स्ट्राइक' क्यों नहीं करती। घात लगाकर बेरोजगारी को क्यों नहीं निपटा देती।

मित्र के सर्जिकल हमले से भौंचक्के रह गए हम। जबाब नहीं सूझा फिर भी कह ही दिए -'ये 'सर्जिकल स्ट्राइक' सेना करती है। जबकि गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी से निपटने का काम सरकार का है। सरकार का काम सेना को कैसे सौंपा जा सकता है।

फिर सरकारें सेना के काम की वाहवाही बटोरने की बजाय अपना काम क्यों नहीं करती? गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी को क्यों नहीं निपटातीं? - मित्र बख्सने के मूड में नहीं थे।

मित्र के सवाल का कोई जबाब हम दे पायें तब तक पास बैठे मोबाइल में डूबे एक दूसरे मित्र ने जबाब उछाला-“ लोकतंत्र में सरकारों के लिये गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी बने रहना उतना ही जरूरी होता है जितना कि पाकिस्तान में सेना बने रहने के लिये आतंकवादी। इसीलिये वहां आतंकवादी की खेती होती रहती है यहां गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी को खाद पानी मिलता रहता है।“


हम कुछ और कहें तब तक दोनों मित्र टेलिविजन पर ’सर्जिकल स्ट्राइक’ पर ताजा खबरें सुनने लगे।

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10209326872462276&set=a.1767071770056.97236.1037033614&type=3&theater

Tuesday, October 11, 2016

व्यंग्य के बहाने-5



कल Arvind Tiwari जी ने लिखा :

"कविता और व्यंग्य में सर्जिकल स्ट्राइक का दौर शुरू। "

इस पर कई टिप्पणियां आईं। Nirmal Gupta जी ने लिखा :

"लेकिन जो हो रहा है वह यकीनन दुखद है। "

Subhash Chander जी ने अपना दु:ख इन शब्दों में बयान किया:

"व्यंग्य में बस बढ़िया लिखना ही कम हो रहा है ,बाकी सब तो खूब ही चल रहा है। "

अरविन्द तिवारी ने मुद्दे की तरफ़ इशारा करते हुये जबाब दिया :

"बिलकुल आज की तारीख़ में तो तलवारें निकल आयीं हैं ।अपना अपना आउट लुक है। "

इत्ता इशारा काफ़ी था अपन के लिये। मल्लब यह निकाला गया कि आउटलुक में कुछ छपा है जिसमें व्यंग्य का सर्जिकल स्ट्राइक हुआ है।


इसके बाद तो ज्यादा खोजना नहीं पड़ा। पता चला सर्जिकल स्ट्राइक Suresh Kant जी ने की है। उनका ही लेख आउटलुक में छपा है। पता चला कि उन्होंने आउटलुक में "दांत पर दतंगड" नाम से लेख लिखा है। उसमें उन्होंने एक भूतपूर्व लेखक के ऊपर व्यंग्य ’टाइप’ कुछ लिखा है। व्यंग्य में लेखक चुका हुआ बताया गया है, उसकी एक पत्रिका है, कुछ ’आंख के अंधे -गांठ के पूरे चेले हैं, भूतपूर्व लेखक अपने लिये और अपने चेलों के लिये इनाम इकराम हासिल करने की बात लिखी है। कुल मिलाकर एक बहुत साधारण सा लेख। लेकिन अब चूंकि किसी का नाम तो है नहीं इसलिये कोई कह नहीं सकता कि यह हमारे लिये है। कोई हल्ला मचायेगा या विरोध करेगा तो कहा जा सकता है कि भाई यह लेख तो प्रवृत्तियों पर है।

रमानाथ अवस्थी के गीत :

मेरी रचना के बहुत से हैं,
तुम से जो लग जाये लगा लेना।
लोग अपने जिसाब से कुछ गलत-सलत अन्दाज न लगा लें इसलिये सुरेश कांत जी ने पाठकों के भले के लिये अलग से टिप्पणी लिखकर बता दिया:

"मेरा यह व्यंग्य चुके हुए लेखकों द्वारा अपने को चर्चा में बनाए रखने के लिए अपनाए जाने वाले हथकंडों पर है| ज्ञान ने इसे प्रेम जनमेजय से जोड़कर मेरी निंदा करने के बहाने प्रेम को 'चुका हुआ लेखक' बता दिया है|

ज्ञान भाई, दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर क्यों चला रहे हैं? क्या इसलिए कि अब तक यही करते आए हैं? "
बाकी की टिप्पणियां सुरेश कांत जी की कल की पोस्ट पर पढ सकते हैं।

कथा साहित्य में चरित्रों के बहाने लोगों पर लिखने की परम्परा थी। उदय प्रकाश जी की कई कहानियां किन-किन कवियों-लेखकों पर केंद्रित हैं इसके कई किस्से हैं।

व्यंग्य में परसाई जी ने भी लेखकों पर व्यंग्य करते हुये लिखा। लेकिन उन्होंने या तो साफ़ नाम लेकर लिखा ताकि गफ़लत न रहे किसी को या फ़िर प्रवृत्तियों पर लिखा तो ऐसे लिखा कि कोई उसे अपने से जोड़ न सके। ’दो लेखक’ लघु कथा में वे लिखते हैं:

"दो लेखक थे। आपस में खूब झगड़ते थे। एक दूसरे को उखाड़ने में लगे रहते। मैंने बहुत कोशिश की कि दोनों में मित्रता हो जाए पर व्यर्थ।

मैं तीन-चार महीने के लिए बाहर चला गया। लौटकर आया तो देखा कि दोनों में बड़े दाँत काटी रोटी हो गई है। साथ बैठते हैं साथ ही चाय पीते हैं। घंटों गपशप करते हैं। बड़ा प्रेम हो गया है।

एक आदमी से मैंने पूछा-'क्यों भाई, अब इनमें ऐसी गाढ़ी मित्रता कैसे हो गई इस प्रेम का क्या रहस्य है?'
उत्तर मिला-'ये दोनों मिलकर अब तीसरे लेखक को उखाड़ने में लगे हैं।"

लेखकों की प्रवृत्तियों पर लिखने की परम्परा लगता है परसाई जी के साथ ही विदा हो गयी। अब कोई व्यंग्य लेखक लिखता है किसी लेखक की प्रवृत्ति पर तो उसके सूत्र हालिया किसी घटना में पाये जा सकते हैं।


ऐसे ही जून के अंतिम सप्ताह में दिल्ली में एक व्यंग्य गोष्ठी हुई। दिल्ली और आसपास के कुछ व्यंग्य लेखक उसमें शामिल हुये थे। उसके बाद 3 जुलाई को जनसत्ता में ज्ञान चतुर्वेदी जी की व्यंग्य लेख ’विचारक के किस्से’ के नाम से छपा। मुझे लगा कि ज्ञान जी ने वह लेख उस गोष्ठी में शामिल हुये लोगों की खिल्ली उडाते हुये लिखा है।

वह लेख जब सुशील सिद्धार्थ जी ने अपनी फ़ेसबुक वाल पर साझा किया तो मैंने उसकी कड़ी वाली आलोचना करी। सुशील जी ने उस समय ज्ञानजी की भक्ति भावना में डूबे थे इसलिये उनको अच्छा नहीं लगा कि इस तरह की आलोचना उनकी वाल पर हम करें। उन्होंने मेरी टिप्पणी मिटा दी। हमने फ़िर की। उन्होंने फ़िर मिटा दी। हमने फ़िर की उन्होंने फ़िर मिटा दी। इस तरह कई बार टिपियाने-मिटाने के बाद सुशील जी ने आजिज आकर मुझे फ़ेसबुक से अमित्र किया और फ़िर ब्लॉक किया। मतलब - "न मैं देखूं तोये को न तुझ देखन देऊं" ।
लेकिन अपनी टिप्पणी तब तक मैं वलेस ग्रुप में भी पोस्ट कर चुका था। जिसको Gyan जी ने भी पढ़ा और शायद अगले दिन ही जबाब भी लिखा। जबाब का लब्बो लुआब यह था कि उन्होंने जो लिखा उसका उस तथाकथित गोष्ठी से कोई लेना देना नहीं है जिसका जिक्र मैंने किया ( मतलब जो मैंने समझा वह मेरा बचकानापन था) उन्होंने यह भी लिखा उनके पास इन सब फ़ालतू की बातों के लिये समय नहीं है। प्रेम जी से और (शायद हरीश नवल जी से भी ) रोज बात होने का जिक्र भी किया था मैंने।

बाद में Harish Naval जी ने ज्ञान जी के लेख पर प्रतिक्रिया करते हुये लिखा:

" जनसत्ता में छपा ज्ञान भाई का लेख पढ़ते हुए जो अनुभूति हुई आपसे शेयर करना चाहता हूँ ....
ऐसा लगा कि अरे यह तो मेरे जागरण हेतु मुझ पर लिखा हुआ है ...असली लेखन लक्ष्य छोड़ कर या उसके होते भी क्यों मैं गोष्ठियों के मोह जाल में हूँ .....

जानता हूँ ऐसा भीतर से कुछ अन्य रचनाकारों को भी लगा होगा...मुझे तो ज्ञान भाई का सूक्ष्म ऑब्ज़र्वेशन हमेशा चमत्कृत करता है ,वे थोड़े में अत्यधिक आब्ज़र्व करने की क्षमता रखते हैं ...दिन भर व्यस्त रहने वाला डॉक्टर कैसे कितना भाँप लेता है यह उसकी प्रतिभा और बेधक सूक्ष्म दृष्टि का कमाल है .....

बहुत बहुत सही आकलन किया है भटके हुए बुद्धिजीवियों का......

भाव की विशिष्टता के साथ शैली का ओज ज्ञान भाई के व्यंग्यकार के पास भरपूर है .....सच कहूँ विगत ५० वर्ष से निरंतर हिंदी गद्य व्यंग्य के परिदृश्य से जुड़ा हूँ ,ज्ञान जैसा लेखन कौशल किसी के पास नहीं ....कई मायनो में ज्ञान ,परसाई जोशी आदि से आगे निकल चुके हैं ,ऐसा स्वीकार करने में मुझे सत्य का आभास होता है ....

प्रिय ज्ञान भाई तुम्हारे इस लेख से आँखें खुल रही हैं ....

....आभार दोस्त आभार ... "

यह किस्सा इसलिये कि सुरेश कांत जी का यह कहना समझ में नहीं आता और सही भी नहीं लगता कि ज्ञानजी ने सुरेश कांत जी का लेख पढकर उनकी भूरि-भूरि भर्त्सना की होगी। यह शायद किसी ने उनको ऐसे ही कह दिया मजे लेने के लिये। सुरेश जी ने लिख भी मारा इस पर। इसे अरविन्द तिवारी जी ने सर्जिकल स्ट्राइक कहा तो अपन भी उधर गये जहां यह हो रहा था। हरि जोशी जी भी भयंकर वाले खफ़ा हैं उन लोगों से जिन लोगों ने सब इनाम उनके पहले कब्जिया लिये। बाकी लोगों को मौका नहीं दिया।

यह मजेदार बात है! व्यंग्य में कुल जमा आठ-दस इनाम हैं। वे भी देर-सबेर सबको मिल ही जाने हैं अगर यहां लिखते-पढते रहे। लोगों ने इनको सम्मानित किया और कोई रहा नहीं होगा जिसको सम्मानित करते। तो इसमें सम्मानित लोगों का क्या दोष! :)

व्यंग्यकारों द्वारा प्रवृत्तियों के बहाने में लेखकों पर लिखने का चलन देखकर यह भी लगता है व्यंग्यकारों का अनुभव संसार अपने साथियों की गतिविधियां नोट करने उनकी विसंगतियां उजागर करने तक ही सीमित होता गया है। सुशील सिद्धार्थ जी के बहुचर्चित व्यंग्य संग्रह ’मालिश महापुराण’ (जिसकी 40 से अधिक समीक्षायें हुयीं जो कि शायद एक व्यंग्य संग्रह के लिये गिनीज बुक आफ़ वर्ल्ड रिकार्ड में आ सकती है) के सत्रह लेख लेखकों पर केन्द्रित हैं। एक तरफ़ यह उनके लेखकों के गहन संपर्क में रहने का परिचायक है तो साथ ही उनकी सीमा भी बताता है कि उनका अनुभव संसार साथ के लेखकों तक ही सीमित है। लेकिन उसके बारे में अलग से विस्तार से। अभी उसकी समीक्षा लिखनी है मुझे।

इतना सब लिखने के बाद मैं भूल गया कि किस लिये लिखना शुरु किया था लिखना। कहना शायद यह चाहता है कि आज के समय में व्यंग्य लेखन में प्रवृत्तियों के बहाने जो व्यक्तियों पर लिखने का चलन है उसमें इतना अनगढपन है कि साफ़ समझ में आ जाता है कि यह किसके खिलाफ़ लिखा गया है। जो कहीं समझ में नहीं आता तो लेखक इशारा करके बता देता है कि किसके लिये लिखा गया है यह सब !

लेकिन यह तय है इस तरह का लेखन बहुत आगे तक नहीं जाता। कूड़ा-करकट की तरह समय की डस्टबिन में पड़ा रहता है। शायद खाद बनने लायक भी नहीं रहता।

क्या कहना है आपका ?


डिस्क्लेमर: व्यंग्य के बहाने का यह लेख किसी के प्रति दुर्भावना से नहीं लिखा गया। सभी के प्रति मन में आदर, उत्साह है मेरे मन में। जो लिखा निर्मल मन से लिखा। नाम लेकर इसलिये लिखा कि कोई गलतफ़हमी न रहे।

रही इनाम-विनाम वाली बात तो उसका अलग गणित होता है। इनाम हमेशा छंटे हुये लेखक को ही मिलता है। उसके बारे में इसकी पहली पोस्ट में लिख चुका हूं !

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209319133308802


Monday, October 10, 2016

जो बंद की लड़ाई तो हम तुमसे रूठ जायेंगे


मारेंगे घुस के अगले को उसी के मोहल्ले में,
पकड़ेंगे फिर टेम्पो अपने घर चले आयेंगे।
लाख रूपये का गोला आता है तोप वाला,
कोई नहीं, फूंकेगे-'वार सरचार्ज' लगायेंगे।
मंहगाई, बेरोजगारी के होश उड़े गोलाबारी में,
जो बंद की लड़ाई तो हम तुमसे रूठ जायेंगे।
-कट्टा कानपुरी

सड़क पर साईकल पथ

छुट्टी के दिन घर के पचास काम होते हैं। 49 टरका भी दो एक तो बच ही जाता है। निकलना ही पड़ता है घर से बाहर 'सर्जिकल स्ट्राइक' के लिए।

अब ये ससुर 'सर्जिकल स्ट्राइक' भी इतना पॉपुलर हो गया है कि आदमी निपटने भी जाता है तो कहकर जाता है -बैठ ज़रा अपना अभी 'सर्जिकल स्ट्राइक' करके आते हैं।

आर्मापुर से विजय नगर की तरफ जाते देखा कि सड़क के दोनों तरफ़ साईकल पथ बन रहा है। सड़क के किनारे दोनों तरफ की सड़क पर गड्ढा करके खंभे लगाये जा रहे हैं । खम्भे से फुटपाथ तक की सड़क साईकल के लिए सुरक्षित रहेगी।


कालपी रोड हाइवे है। साईकल बीच सड़क पर चलाने पर कोई भी ठोंक कर चला जा सकता है। उसके लिए सड़क का किनारा सुरक्षित करके रखना बढ़िया बात है।

जगह-जगह साईकल चलाने के लिए स्लोगन लगे हैं। 'साईकल चलायें, पर्यावरण बचाएं', 'मुस्कराइए कि आप साईकल पथ पर हैं' इसी तरह के और भी लुभावने वाक्य।



अभी तो पूरा रास्ता बना नहीं। लेकिन जिस तरह साईकल पथ पर ठेलिया वाले अपनी दुकान लगाकर खड़े हो गए उससे लगता नहीँ कि इस पथ पर साईकल चलेंगी। अंतत: इस जगह पर सब्जी वाले, फल वाले, मठ्ठा वाले ही खड़े मिलेंगे। साईकल बीच सड़क पर ही चलेगी। एक्सिडेंट बदस्तूर जारी रहेंगे।

आपका क्या कहना है इस बारे में?

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10209310072922298?pnref=story

Sunday, October 09, 2016

पाक को अब उसकी नानी भी याद करा दो


पाक को अब उसकी नानी भी याद करा दो,
लगा दो माइक सीमा पर,’जगराता’ करा दो।
ओज कवियों को माइक थमा दो सीमा पर,
दहाड़ कर पढें कविता,पाक के छक्के छुड़ा दो।
निकालो आंख पाक की वो कश्मीर देखता है,
किसी काने की दुनिया, पूरी तरह चमका दो।
-कट्टा कानपुरी

स्वच्छता अभियान के बाद



इतवार को विक्रम की छुट्टी होती है। वह आराम से खर्राटे लेते हुये सो रहा था कि उसके मोबाइल की घंटी बजी। फ़ोन बेताल का था। झुंझलाते हुये विक्रम ने फ़ोन उठाया। बेताल बोला –’तू अभी तक सो रहा है। मैं यहां कब से नगर निगम के दफ़्तर के पास तेरा इंतजार कर रहा हूं कि तू लादकर ले चलेगा।
सवाल-जबाब करने होंगे। जल्दी आ जा यार। ड्यूटी पूरी करके फ़िर ऐश करें।’


विक्रम ने अनमने मन से मुंह धोया और निकल लिया। बेताल को लादा और चल दिया। आज फ़िर उसको बेताल के बढे हुये वजन का अंदाज हुआ। उसने कहा-“ बेताल भाई, तुम्हारा वजन तो नेताओं के वेतन भत्ते की तरह बढ़ता जा रहा है। कुछ मेरे पर भी रहम कर भाई। वजन कम कर।“

बेताल ने पहले तो सोचा इस विक्रम को हड़का दें। लेकिन यह सोचकर कि इसके बाद किसकी पीठ पर फ़्री फ़ंड में लदेगा वह चुप रह गया। उसने विक्रम को ’सर्जिकल स्ट्राइक’ के किस्से सुनाये। सरकार और सेना की बहादुरी का बखान किया और फ़िर विक्रम को किसी को न बताने की कसम खिलाते हुये बताया कि सरकार ने ’पहली सर्जिकल स्ट्राइक’ कूड़े के खिलाफ़ की थी। उस अभियान का नाम रखा था ’स्वच्छता अभियान।’ मैं अपना आज का सवाल पूछने के पहले इस अभियान के बारे में बताता हूं।

विक्रम को हंसी आने को हुई। उसका मन किया कि वह बेताल को बता दे कि जिस बात को देश का बच्चा-बच्चा जानता है उसको यह बेताल किसी को न बताने की कसम दिला रहा है। पिछले दिनों स्वच्छता अभियान की फ़ाइलें इतनी दौड़ीं कि बाकी के लिये ट्रैफ़िक जाम हो गया था। जो भी गन्दगी हुई खर्च-वर्च में उस सबको ’स्वच्छता अभियान’ के नाम पर निपटा दिया गया। और भी तमाम बातें उसको पता थीं लेकिन वह चुप रहा। उसको पता था कि आजकल सच बोलना बड़ा बवाल का काम है। क्या पता कौन देशद्रोही, गद्दार बताकर गरियाने लगे।

बेताल ने कहा- आजकल सब जगह काम करने का तरीका बदला जा रहा है। जगहों के नाम बदले जा रहे हैं। कुछ हो भले ने लेकिन बदलाव का एहसास हो यह ध्यान रखा जा रहा है। इसलिये मैं भी आज से ही कहानी कम सुनाऊंगा लेकिन सवाल ज्यादा। सवाल भी ऐसे पूछुंगा जिनके बारे में कहानी में हमने बताया ही नहीं होगा। तुमको खुद अपने मन से जबाब देने होंगे।

विक्रम को पता था कि उसका कुछ बोलना बेकार है। दफ़्तरों के अडियल बास की तरह करेगा यह अपने ही मन की। इसलिये उसने झल्लाते हुये कहा –’अब यार तू शुरु कर। दूसरे की गर्दन पर लदे-लदे तुझे तो कुछ फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन मेरे हाल तो उस जनता की तरह हो रहे हैं जो नाकारा जनप्रतिनिधियों को लादे-लादे घूमती रहती है।

बेताल ने गला खखारकर अपनी बात शुरु की:

“आजकल स्वच्छता अभियान का हल्ला मचा हुआ है देश भर में। कूड़ा ठिकाने लगाया जा रहा है। कहीं-कहीं का कूड़ा हल्ला मचा रहा है। ऐसे कैसे भगा दोगे हमको? हम यहां के स्थायी रहवासी हैं। कहां जायेंगे अपना परिवार लेकर?

सफ़ाई अभियान वाले हाथ जोड़ रहे हैं कूड़े के! भाई साहब एक-दो दिन की बात है! कहीं इधर-उधर हो जाइये। हमको साफ़-सफ़ाई कर लेने दीजिये। फ़ोटो-सोटो हो जाने दीजिये। फ़िर आप रहियेगा ठाठ से। आपकी ही जगह है। कौन रोकने वाला है आपको!

कूड़ा शरीफ़ आदमियों की तरह इधर-उधर हो जाता है। कहीं दीवार के पीछे, कहीं किसी गढ्ढे में, कहीं किसी पुल की आड़ में। जहां कुछ आड़ नहीं मिली वहां फ़टा तिरपाल ओढ़ के सो गया। नदी, नहर, नाले में कूद गया। सफ़ाई की इज्जत के लिये गन्दगी कुर्बान हो गयी।

सबने सफ़ाई के करते हुये फोटो खिंचाये। सफ़ाई मुस्करा रही है। लोग खिलखिला रहे हैं। स्वच्छता अभियान पूरा हो गया है। छुट्टी बरबाद होने का दुख कम हो गया है।“

इतने के बाद बेताल ने कहा। नये पैटर्न के हिसाब से आज कहानी इतनी ही। अब नये पैटर्न के हिसाब से मैं आज तुमसे एक से ज्यादा सवाल पूछूंगा। तुम उनके जबाब दे दोगे तो ठीक वर्ना तुम जो मुझे ढोते हुये कहानी सुनते हो और सवाल के जबाब देते हो उस पर भी सर्विस टैक्स लगा दिया जायेगा जिसकी वसूली भी तुमसे ही होगी। इसके बाद बेताल ने ये सवाल पूछे:

1. सफ़ाई अभियान के लिये झाडू-पंजा मंहगी दरों पर खरीदने के लिये कौन जिम्मेदार है?
2. एक ही तरह की झाडू एक ही दिन अलग-अलग दामों पर क्यों खरीदी गयीं?
3. एक दिन के सफ़ाई अभियान के लिये झाड़ू-पंजा खरीदने के बजाय किराये पर लेने के विकल्प पर क्यों विचार नहीं किया गया?
4. जब एक आदमी को दो घंटे ही सफ़ाई करनी थी तो हर आदमी के लिये एक झाड़ू खरीदने की बजाय एक ही झाड़ू से चार लोगों से सफ़ाई कराने विकल्प पर क्यों विचार नहीं किया गया?
5. सारे लोग एक ही जगह सफ़ाई करते पाये गये इससे कम क्षेत्र की सफ़ाई हुई। अलग-अलग जगह सफ़ाई करने के विकल्प पर क्यों विचार नहीं किया गया?
6. साल भर सफ़ाई का ठेका चलने के बावजूद इतना कूड़ा इकट्ठा कैसे हुआ? क्या सफ़ाई के ठेके में धांधली हुई है?
सवालों से विक्रम को पता चल गया कि ये ससुरा बेताल किसी बाबू से पैसा लेकर उसकी आपत्तियों के जबाब बनाने में सहायता करने का ठेका लिया है। उसने बेताल को बड़ी तेज से हड़काया और कहा कि बेताल यह आदमियों की तरह की हरकतें तुमको शोभा नहीं देती। इस तरह दलाली करना शुरु मत करो। हम लोगों की कहानियां आम जनता अभी मन लगाकर सुनती है। लेकिन जब उसको पता लगेगा कि हम इस तरह पैसा लेकर बाबुओं की आपत्तियां निपटाने में सहायता करते हैं तो वह हमको भी उन नेताओं सरीखा ही समझेगी जो पैसा लेकर संसद में सवाल पूछते हैं।

बेताल ने शर्मिंदा होने का नाटक किया और कहा इस बार बता दो क्योंकि मैं एडवांस में पैसे ले चुका हूं। अब मना करूंगा तो दलाली से बाबू का विश्वास उठ जायेगा जो किसी नौकरशाही के लिये बहुत खराब चीज है। आइंदा ऐसा नहीं होगा।

विक्रम ने झल्लाते हुये बेताल से बाबू का नाम और दफ़्तर का पता पूछा। गूगल सर्च करके आडिटर का पता लगाया। स्कैनर लगाकर उसके दिमाग से सवाल के जबाब निकालकर बेताल को लिखवाये। सवालों के जबाब इस तरह थे:

1. सफ़ाई अभियान की जब घोषणा हुई तो मांग और आपूर्ति के नियम के तहत अचानक झाडू-पंजे के दाम बढ़ गये क्योंकि सभी को सफ़ाई करनी थी। बढ़े हुये दाम पर खरीद अपरिहार्य होने के चलते जायज है। और जहां तक जिम्मेदारी का सवाल है तो इसके लिये जनता जिम्मेदार है क्योंकि जो हुआ सब अंतत: आम जनता के लिये हुआ।

2. स्वच्छता अभियान में अलग-अलग पद के लोग शामिल थे। सबके ’ग्रेड पे’ अलग थे। जैसे एक ही दूरी और एक ही तरह की गाड़ी से आने वालों लोगों के लिये वाहन भत्ता ’ग्रेड पे’ के अनुसार मिलता है वैसे ही सबके ’ग्रेड पे’ के हिसाब से झाडू की व्यवस्था की गयी। इसलिये एक ही तरह की झाडू अलग-अलग दाम पर खरीदी। ऐसा न करते तो सीनियर लोग स्वच्छता अभियान में भाग न लेते। इसलिये एक जैसी सफ़ाई सामग्री अलग-अलग दामों पर खरीदना अपरिहार्य था।

3. किराये पर सफ़ाई सामग्री उपलब्ध ही नहीं थीं। अगर कहीं थी भी तो पर्याप्त नहीं थी। इसके अलावा विभाग में कभी किराये पर सामान खरीदने का काम किया नहीं गया इसलिये अनुमानित किराये की दरें उपलब्ध नहीं थीं इसलिये भी किराये पर लेने के प्रस्ताव पर विचार नहीं किया गया।

4. जो भी लोग स्वच्छता अभियान में शामिल थे उनको अभियान के बाद एक साथ कहीं न कहीं जाना था इसलिये सब लोग एकसाथ सफ़ाई के लिये बुलाये गये। स्वच्छता के बहाने सामूहिकता का भी प्रसार हो गया। इसके अलावा अगर दिन भर सफ़ाई करते लोग तो फ़ोटोग्राफ़ी, नाश्ते वगैरह का खर्च बढ जाता।

5.अलग-अलग जगह सफ़ाई करने से फ़िर लगता बहुत कम लोग सफ़ाई कर रहे हैं। एक जगह इकट्ठा सफ़ाई करने से यह लगा कि पूरा हुजूम जुट गया है सफ़ाई के लिये।जैसे अभी प्रधानमंत्री जी के अमेरिका दौरे में ’दवाई चौराहे’ पर लोग इकट्ठा हुये तो लगा न कि पूरा अमेरिका उमड़ पड़ा। अलग-अलग शहरों में रहते तो वो मजा नहीं आता न।

6. सफ़ाई व्यवस्था साल भर चकाचक चली लेकिन जब स्वच्छता अभियान चलाना था तो इधर-उधर से कूड़े का इंतजाम किया गया। अब सरकार के आदेश का अनुपालन तो जरूरी है न!

सवालों के जबाब नोट करते ही बेताल उड़ते हुये उस बाबू के पास पहुंचा। बाबू ने उससे कहा- ’तुमने आने में देर होते देखकर मैंने आडिटर से सीधे सेटिंग करने की सोच ही रहा था। अच्छा हुआ तुम आ गये। सस्ते में काम हो गया। यह कहकर उसने बेताल को बाकी के पैसे थमाये और आपत्तियों के जबाब टाइप करने लगा।

बेताल लटकने के लिये पेड़ की तरफ़ लौटते हुये सोच रहा था कि कूड़े वाली गंदगी तो साफ़ हो जायेगी लेकिन व्यवस्था की यह गंदगी कैसी साफ़ होगी जो दिखती भले नहीं हो लेकिन गंध सबसे ज्यादा मारती है। इसके लिये स्वच्छता अभियान कब चलेगा?

#व्यंग्य, #व्यंग्यकीजुगलबंदी, Nirmal Gupta, @ravishankar.shrivastava

https://www.facebook.com/photo.php?fbid=10209300271597271&set=a.1767071770056.97236.1037033614&type=3&theater

Saturday, October 08, 2016

कोई काम है क्या मेरे लिये?

पूजा पांडाल देखकर वापस होटल के पास पहुँचे तो बाहर ही एक जगह चाय बनती दिखी। बहुत देर से चाय पिए नहीं थे तो चाय बनती देखकर 'चयास' लग आई। लेकिन यह भी लगा कि अब चलकर खाना ही खाया जाए। पर फिर इस ख्याल ने जोर मारा कि पता नहीं अब कब फिर कोलकता आना हो। इस ’पिए’ कि ’छोड़ें’ के झूले में काफी देर झूलते रहे। जब खुद तय नहीं कर पाये तो निर्णय मोबाईल के हाथ में सौंप दिए।

तय यह किया कि अगर नौ बज चुके होंगे तो चाय नहीँ पीयेंगे। लेकिन अगर नौ से कम बजा होगा तो पी लेंगे। इतना तार्किक निर्णय लेने के बाद आहिस्ते से मोबाईल निकाला। देखा तो नौ बजने में दो मिनट बाकी थे। अब तो चाय पीना मजबूरी थी।

चाय की दुकान पर खड़े होकर कब आर्डर दिया तब तक उसकी सब चाय बिक चुकी थी। केतली खाली हो चुकी थी। एक बार फिर सोचा छोड़ें चाय अब चलें। लेकिन इस बार चाय वाले बच्चे और वहां खड़े आदमी में रोक लिया। बोले - ’अब्बी दो मैने रुको। अब्बी बनाते।’ अब हम क्या करते । रूकने के अलावा कोई चारा नहीँ था।
बालक ने स्टोब में हवा भरना शुरू किया। जलाया और चाय चढ़ा दी। हम वहां खड़े आदमी से बतियाने लगे।
उसमें बताया कि यह जगह मेट्रो की है। तीन दिन पहले उसने किराये पर ली है। तीस हजार रुपये महीने किराया है। अभी चाय, डोसा वगैरह बनता है। फिर और काम बढ़ेगा। पता लगा वह आदमी कोलकता इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में काम करता है। दुकान किसी के साथ पार्टनरशिप में है।


हम चाय बनाने वाले बालक से बतियाने लगे। पता चला बालक यहां आने के पहले भुवनेश्वर के एक गेस्ट हॉउस में काम करता था। पांच साल काम किया। खाना-वाना सब बना लेता है। कुछ दिन पहले कोलकता आ गया। यहां अकेले रहता है। माँ मिदिनापुर में रहती है। पिता रहे नहीं। पांच साल पहले। घर का अकेला लड़का है। हाईस्कूल तक पढाई किया। पिता के न रहने पर मजबूरी में काम पर लगना पड़ा।

बालक चाय बनाते हुए बतिया रहा था। हवा भरते हुए अंदाज से चीनी और पत्ती डाली। बताया कि सुबह आठ से रात ग्यारह बजे तक दुकान पर रहना होता है। रात को दुकान बन्द करके अंदर ही सो जाता है। नहाने-निपटने का काम पास के सामूहिक शौचालय में करता है।

चाय बन गयी तो छान कर हमको दी। इस बीच एक युवा जोड़ा वहां आया। लड़के ने दो 'कम चाय' मांगी। उसने दी। हमने सोचा कम चाय के पैसे कुछ कम होंगे। लेकिन उसने बताया कि रेट सेम हैं-पांच टका।

युवा जोड़े में से लड़के की दाढ़ी ऐसी लग रही थी मानो उसने मेहनत से ठोढ़ी पर सामन्तर चतुर्भुज बनाने का प्रयास किया हो। उसने बताया कि चाय में चीनी कम है। बालक ने थोड़ी-थोड़ी चीनी उनके कप में डालकर चम्मच से मिला दिया। इस बीच एक आदमी ने चाय में चीनी कम डालने के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुये बताया- " कम हो और डाली जा सकती है। लेकिन ज्यादा हो जाये तो निकाली नहीं जा सकती। इसलिये  चीनी कम डालना हमारा ठीक रहता है।’

चाय वाले बालक ने अपने बारे में पूछते देखकर मुझसे पूछा- ’ कोई काम है क्या मेरे लिये?’ हमने कहा -’नहीं ऐसे ही पूछ रहे।’ वह बोला- ;’आजकल कौन पूछता है किसी से इतना। किसी के पास इतना फ़ालतू टाइम कहां।’

मल्लब उसने मुझे बता दिया कि हम जो पूछ रहे हैं वह खाली-मूली टाइम वेस्ट कर रहे हैं।

लेकिन फ़िर अपने आप बताने लगा- " पैसा बहुत कम देते हैं यहां।" कुल तीन हजार महीने और खाना-खुराक पर चाय बनाने का काम करता है वह। उसकी आवाज में विवसता और शिकायत का मिला जुला भाव था।
बाइस साल की उमर के उस बालक को सुबह आठ बजे से रात ग्यारह बजे तक की महीने भर की मेहनत के मात्र तीन हजार रुपये मिलते हैं। इससे ढाई गुना होटल में एक रात के कमरे का न्यूनतम किराया है। आर्थिक असमानता का कितना जलवा है अपने समाज में। यही सोचते हुये वापस चले आये कल होटल में।

आज फ़िर से फ़ोटो देख रहा था तो सब याद आया। सोचा आपसे साझा करें।

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कोलकता की दुर्गा पूजा

न्यू मार्केट का दुर्गा पंडाल
कोलकता आये तो पहले भी थे लेकिन पूजा के मौके पर पहली बार आये। हर तरफ भीड़। हर तरफ उल्लास। पूजा का उत्साह।

कल शाम को घूमने निकले। जहां ठहरे थे वहाँ से शाम को पूजा पंडाल देखने गए। पास में न्यू मार्केट में सजा था पांडाल। फुटपाथ के रास्ते गए। फुटपाथ की चौड़ाई में दोनों तरफ़ दुकानें लगी हुई थी। दुकानों के बीच की जगह पर लोगों की भीड़ ठहरते हुए टहल रही थी। जगह की कमी, गर्म हवा। ऐसा लगा फुटपाथ में ब्लोअर चल रहा हो।


रास्ते के एक पांडाल में दुर्गा जी
एक लड़का मोबाईल में बात कर रहा था। आवाज सुनाई नहीं दे रही होगी तो एकदम फुटपाथ की दीवार से स्पाइडरमैन की तरह चिपका हुआ मोबाइल को दीवार से सटा कर एक कान में ऊँगली डाले हुए बतिया रहा था। शायद दीवार के कान के सहारे दूसरी तरफ से आती आवाज सुनने की कोशिश कर रहा हो।

न्यू मार्केट की तरफ गए। पूजा पांडाल सजा हुआ था। लोग आते। देवी मूर्ति को निहारते। निकल लेते। हम भी निहारते हुए निकल लिए।


मोहम्मद अली पार्क की महिषासुर मर्दनी
पता चला आगे मोहम्मद अली पार्क में भी पूजा पांडाल सजा हुआ है। पांच किलोमीटर दूर। एस्प्लेनेड मेट्रो से टिकट लिए। पांच रूपये का टिकट दो स्टेशन आगे का। मेट्रो में भीड़ गजब की। एक लड़की चढ़ी। साथ का बैग अपने आगे सटा के खड़ी हो गयी। साथ के यात्री ने जगह बनाते हुए उसको घूमकर खड़ा होने की सलाह दी ताकि भीड़ के धक्के और रगड़-घसड़ से बचाव हो सके। लड़की खड़ी हो गयी। आराम से।

सेन्ट्रल में उतरकर पूजा पांडाल देखने मोहम्मद अली पार्क की तरफ गए। रास्ते में और भी भव्य पांडाल दिखे। एक जगह आरती हो रही थी। महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति ऊँचे स्टेज पर सजी हुई थी। गलियारे में कुछ कुर्सियां पड़ी हुई थी। लोग आते-जाते जा रहे थे। जगह-जगह व्यवस्था के लिए पुलिस तैनात थी। एक पूजा पंडाल के बाहर किताबें भी सजी हुई थीं। सब बांगला में। हिंदी की होती तो देखते भी।


फ्रूट कुल्फी और बायीं तरफ मुफ़्त में वितरित होती दवाएं
रस्ते में जगह-जगह फुटपाथ पर दुकाने खाने-पीने की थी। दो लोगों के एक साथ चलने की जगह के बराबर फुटपाथ पर जगह-जगह लोग सो भी रहे थे। कुछ पतली चटाई बिछाये कुछ सीधे जमीन पर। थककर लोग आसपास के जनरव, कलरव से निर्लिप्त बेसुध, बेखबर, निर्लिप्त सो रहे थे। लोग उनके अगल-बगल से बतियाते हुए गुजरते जा रहे थे। जैसे कभी आक्रमणकारियों की फौजों के आवागमन से बेखबर निर्लिप्त किसान लोग अपने खेत जोतते रहते थे वैसे ही तमाम लोग फुटपाथ पर आरामफर्मा थे।

मोहम्मद अली पार्क जाने के लिए सड़क पार करनी थी। जब तक ट्रैफिक लाइट हरी थी तब तक चौराहे पर कोलकता पुलिस वाले रस्सी लगाये लोगों को रोके हुए थे। बत्ती लाल होते ही गाड़ियां रुक गयीं। पुलिस वाले ने कमर की ऊंचाई तक पक़ड़ी हुई रस्सी जमीन पर लिटा दी। भीड़ चौराहा पार करने लगी।


सात रूपये का बस का टिकट
एक परिवार शायद बाहर से आया था। दस-बारह लोग एक के पीछे एक लाइन से सड़क पार करने के बाद भी लाइन में चलते रहे। सबसे आगे एक आदमी की कमीज एक महिला ने पकड़ी हुई थी। माहिला का पल्लू पीछे से दूसरी महिला ने थाम रखा था। एक के पीछे एक को थामे हुए लोग सड़क पार कर रहे थे। वहीँ कुछ लोग हाथ फैलाये हुए मागने का काम भी अंजाम दे रहे थे। फुथपाथ से लगे हुए झोपडी नुमा घर के बाहर सफाई करते हुए एक महिला भीड़ को देखती जा रही थी। रास्ते में एक दारु के ठेके पर लोग जमा थे। शायद मारे जाने के पहले महिषासुर के लिए पीने का इंतजाम कर रहे थे।

मोहम्मद अली पार्क में पूजा पांडाल बड़ा भव्य था। लोग मूर्ति देखते जा रहे थे। कुछ लोग फोटो भी ले रहे थे। उद्घोषक तड़ातड़ी आगे बढ़ने का निर्देश दे रहा था। फोटो खींचने से मना कर था कहते हुए कि फोटो खींचने वाले का मोबाइल छीन लिया जायेगा। लेकिन लोग उसके सामने फोटो खींच रहे थे।

लोग अपने साथ वालों के साथ सेल्फिया रहे थे। मेरे सामने एक लड़के के अपना हाथ क़ानून के हाथों की तरह लंबा करते हुए अपने परिवार के साथ सेल्फी ली। एक जगह चाट खाते हुए कुछ नौजवान लड़के लड़कियां आपस में चुहल करते बतिया रहे थे। लड़के की किसी बात पर चहकते हुए एक लड़की ने हंसकर उसकी पीठ पर धौल जमाया। मल्लब मजे का इजहार किया। लड़के ने इस सर्जिकल धौल का आनन्द उठाते हुए बतियाना जारी रखा।

बातें तो हमारे पास भी बहुत थीं लेकिन अकेले थे। किसी धौल-धप्प की गुंजाईश नहीं होने के कारण बाहर आ गए। बाहर एक जगह फ्रूट कुल्फी बिक रही थी। एक लोहे के बेलनाकार बर्तन को दो लोग खड़े-खड़े बैल की तरह घुमा रहे थे। बर्तन में भरी बर्फ से कुल्फी ऊपर जम गयी थी। एक लड़का चाकू से कुल्फी खुर्चते हुए लोगों को देता जा रहा था। हमने भी खाई। 20 रूपये का पत्ता। मुंह में रखते ही घुल जा रही थी 'कुल्फी चूरा' घुल कर दांत ठंडा कर रही थी। पैसे देते ही बदनाम कुल्फी का पञ्च याद आया -'बदनाम कुल्फी, खाते ही जुबान और जेब की गर्मी गायब।

वहीं एक लड़का एक लड़की के साथ कुल्फी खाने रुका। लड़की ने चम्मच से लड़के को खिलाई कुल्फी। लड़के ने चिड़िया की चोंच की तरह मुंह खोला। लड़की ने उसके मुंह में कुल्फी धर दी।जब तक बालक ने आँख मूंदकर कुल्फी की ठंडक का एहसास किया होगा तब तक बालिका ने खुद भी दो चम्मच कुल्फी का चूरा मुंह में भर लिया।

बगल में ही निशुल्क दवाओं का वितरण हो रहा था। तृण मूल कांग्रेस की तरफ से। सामान्य दवाएं वितरण के लिए रखी थीं। पास ही मुफ़्त पानी भी पिलाया जा रहा था। प्लास्टिक के ग्लास में पानी पीने वालों का हुजूम जमा था। बगल में ही बोतल बंद पानी 20 रूपये बोतल बिक रहा था। मुफ़्त सेवा और भुगतान पर सेवा की साझा सरकार चल रही थी।

लौटते हुए उत्तर प्रदेश में एक जगह नवाजुद्दीन को रामलीला में मारीच का रोल अदा करने से रोकने की घटना याद आई। शुक्र मनाया कि यहां मोहम्मद अली पार्क में दुर्गा पूजा पंडाल लगाने पर किसी ने कोई बवाल नहीं काटा।

लौटते हुए बस से आये। किराया 7 रूपये। दो रूपये ट्राम के मुकाबले ज्यादा। कंडक्टर पतली-पतली टिकटें अंगुली के बीच दबाये सबको बाँटता जा रहा था।रेजगारी वापस करता जा रहा था। भरी भीड़ में यह सब करना अपने में कुशलता का काम है। वह आराम से करता जा रहा था।

रास्ते में एक जगह बस रुकी। एक सामान्य परिवार के लोग हँसते-बतियाते बस में चढ़े। उनमें से एक महिला हमारी बगल की सीट पर बैठकर आगे-पीछे बैठे परिवार वालों से बतियाती रही। हमने अपने स्टॉप के बारे में कंडक्टर से पूछा तो उस परिवार की एक बच्ची ने कहा -'हम भी वहीँ उतरेंगे। बता देंगे।' हम तसल्ली से बैठ गए।

आगे एक स्टॉप पर कुछ सवारियां उतरी। परिवार वालों के पास की सीट खाली हो गयी। हमको लगा कि वह महिला अपने परिवार के लोगों के और पास/साथ बैठने चली जायेगी। लेकिन वह वहीँ बैठी रही। वहीँ से बतियाती रही।

स्टॉप पर उतरे तो होटल का रास्ता पुछा। एक ने बताया -'पंद्रह मिनट लगेगा। और तेज जाओगे तो दस मिनट।'लेकिन हमको कोई जल्दी तो थी नहीं सो आराम से पहुंचे। अपने आसपास से गुजरते लोगों को देखते-निहारते। आगे का किस्सा अगली पोस्ट में

Thursday, October 06, 2016

व्यंग्य के बहाने - 4

व्यंग्य के बहाने -4
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इतवार को सुधीश पचौरी ने अपने स्तम्भ ’तिरछी नजर’ में लिखा:
" हिन्दी के सभी ’सम्मानों’ की एक लिस्ट बनाई जाये तो उनकी कुल संख्या एक हजार भी न बैठेगी। अगर मिलने वाली कुल रकम का टोटल किया जाये, तो वह रकम एक करोड़ तक भी न पहुंचेगी।"
आगे अपनी बात कहते हुये उन्होंने लिखा:
" यह भी कोई सम्मान है? एक घटिया सा शाल मरे से कन्धे पर डलवा, और 20 रुपये वाला ना्रियक थाम जो हिन्दी वाला अपने को अहोभाग्य समझता है , वह हिन्दी का दुश्मन नंबर एक है।"
जब से हमने यह लेख पढा तबसे हम हिन्दी के कई दुश्मन नंबर एक को पहचान चुके हैं। 
साहित्य की बात को व्यंग्य तक सीमित किया जाये तो सम्मानों की संख्या 50 तक पहुंचेगी। दो साल पहले जबलपुर में ’व्यंग्य यात्रा’ पर निकले लालित्य ललित ने कहा था कि ’आजकल करीब 30 लोग व्यंग्य लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हैंं।’ मतलब अगर इनाम कायदे से बांटे जायें और एक साल में एक लेखक को एक ही इनाम मिले तो हर साल एक लेखक के पल्ले डेढ इनाम आ जायेगा। इस लिहाज से देखा जाये तो इनाम ज्यादा है। लिखने वाले कम। भौत असन्तुलन है इनाम के क्षेत्र में।
लेकिन ऐसा है नहीं। लिखने वाले कुछ ज्यादा हैं शायद। इसीलिये जब भी किसी इनाम की घोषणा होती है, बड़ा हल्ला मचता है। जिसको इनाम दिया जाता है उसकी सारी कमियां सामने आ जाती हैं। जितने लोग तारीफ़, बधाई देते हैं उससे कम लोग उसकी कमियां बताने वाले नहीं होते हैं। किसी लेखक का अगर अगर कोई सच्चा मूल्यांकन करना चाहे तो उसके नाम एक इनाम की घोषणा कर देनी चाहिये।
पिछले साल जो व्यंग्य के जो भी इनाम घषित हुये उनमें से (मेरी जानकारी में) सबसे ज्यादा बवाल ’अट्टहास सम्मान’ पर हुआ। हरि जोशी और नीरज वधबार को अट्टहास पुरस्कार मिले। इनाम की घोषणा होते ही दोनों को इनाम की बधाई और इनाम के लिये अपात्र घोषित करने की कवायद शुरु हो गयी।
अपात्र घोषित करने वालों ने नीरज वधबार को वनलाइनर तक सीमित बताया और हरि जोशी पर सपाटबयानी की धारा तामील की। बहुत हल्ला मचा। लेकिन इनाम मिलकर रहा। फ़ोटो-सोटो भी शानदार हुये।
बाद में पता चला कि जो लोग हल्ला मचा रहे थे और जिन्होंने बहिष्कार भी किया उसके पुरस्कृत लेखकों के विरोध से ज्यादा इस बात की पीड़ा थी इनाम उनके हिसाब से क्यों नहीं बांटे गये। और भी कारण रहे होंगे जो मुझे नहीं पता लेकिन विरोध के सीन से काफ़ी मनोरंजन हुआ।
साहित्य की अन्य विधाओं की तरह व्यंग्य में भी इनाम का सिलसिला शहर, प्रदेश और देश के हिसाब चलता है। इनामों का इलाकाई बंटवारा होता है अधिकतर। मुंबई की संस्था को महाराष्ट्र के बाहर के लेखक नजर नहीं आते, राजस्थान वालों की नजर राजस्थान से होते हुये दिल्ली तक ठहर जाती है। लखनऊ के लेखकों के वर्चस्व वाले समूह वलेस को तो सम्मान के लिये लखनऊ के ही लोग सुपात्र नजर आते हैं। पिछले साल और इस साल ( निरस्त हुये) घोषित कुल 5 इनामों में 4 लखनऊ से हैं। अब तो मैं बाहर हो गया इस समूह से वर्ना इस शानदार प्रवृत्ति के साथ न्याय करने के लिये इस अंतर्राष्ट्रीय समूह का नाम वलेस की बजाय ललेस (लखनऊ लेखक समिति) रखने का प्रस्ताव रखता (भले ही प्रस्ताव रखने के फ़ौरन बाद समूह से निकाल दिया जाता  )
साल दो साल पहले तक जब तक मैं बड़े व्यंग्य लेखकों से जुड़ा नहीं था तब तक उनके लेखन के हिसाब से उनकी छवि मेरे मन में थी। लेकिन सोशल मीडिया की कृपा से लेखकों के प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संपर्क में आया तो इस तरफ़ भी ध्यान गया। लेखन-तपस्या के साथ इनाम- यज्ञ के लिये भी मंत्रोच्चार करते देखा लोगों को। इनाम देने में प्रभावी भूमिका रख सकने वाले लोग पटाये जा रहे हैं। लेखकों को देवता बनाया जा रहा है। देवता को पता ही नहीं चल रहा है। जब तक पता चलता है तब तक उसका मंदिर बन जाता है। बेचारा देवता विवश मंदिर में कैद होकर रह जाता है।

पहले जब फ़ोन कम थे, संपर्क साधन कम थे तब तक यह सब हसीन व्यवहार काफ़ी दिनों तक छिपे रहते थे। पता भी चलते थे तो बहुत देर में। लेकिन आज आपने किसी से बात की नहीं कि वह जरूरी लोगों तक फ़ौरन पहुंच जाती है। अब वह लिहाज का भी जमाना नहीं कि लोग चुप रह जायें। फ़ौरन प्रतिक्रिया होती है। कभी-कभी तीखी भी।
खैर यह सब तो चलता रहता है। हम जिस समय में जी रहे हैं वह घात-प्रतिधात और चिरकुटैयों का समय है। बड़ी लकीर खींचने का समय कम है लोगों के पास इसलिये अगले की लकीर मिटाकर काम चलाया जा रहा है। लेकिन इस समय में भी तमाम लोग हैं जो अपने व्यवहार से बताते रहते हैं कि समय की छलनी से छनकर केवल वह आगे जायेगा जिसमें कुछ तत्व होगा। इसलिये घात-प्रतिघात, चिरकुटैयों से विलग रहकर काम किया जाना चाहिये- अच्छा काम।
लेकिन सम्मान प्राप्त करना एक बात है और अच्छा लिखना दूसरी बात। आज जितने लोग सक्रिय हैं व्यंग्य लेखन में और जिनकी भी चार-छह किताबें आ गयी हैं उनकों कम-ज्यादा सम्मान मिलकर ही रहेंगे। व्यवहार और मेल जोल जितना अच्छा रहेगा , इनाम उतनी जल्दी मिलेगा।
लेकिन अच्छा और बहुत अच्छा लिखने में इनाम-सिनाम कोई सहायता नहीं करते। मेरा यह मानना बिना अच्छे मन के नियमित अच्छा लेखन नहीं हो सकता है। बहुत अच्छा लिखने के लिये मन बहुत अच्छा , उद्दात (कम से कम लेखन के समय ) होना चाहिये। बिना अच्छे मन के बड़े काम नहीं होते।
यह सब ऐसे ही लिखा। गड्ड-मड्ड टाइप। आपका सहमत होना जरूरी नहीं। आपकी अपनी राय होगी। बताइये क्या कहना है आपका इस बारे में ? 

Monday, October 03, 2016

हंसी-मुस्कान की ’सर्जिकल स्ट्राइक’

घर से बाहर निकलते ही सूरज भाई ने ढेर सारी धूप चेहरे पर गुलाल की तरह फ़ेंक कर मारी। हम तो एकदम चौंधिया गये। दोस्ती का तकाजा। मुस्कराना पड़ा। सूरज भाई बदले और कस के मुस्कराये। उनके साथ किरणें भी मुस्कराने च खिलखिलाने लगीं। सुबह-सुबह हंसी-मुस्कान की ’सर्जिकल स्ट्राइक’ टाइप हो गयी।
आरमापुर बाजार के पास एक महिला साइकल पर सरपट चली जा रही थी। अचानक सड़क और सड़क के किनारे की पैदल रास्ते के जोड़ पर आने से साइकिल लड़खडाई। यह भी हो सकता है उसकी धोती फ़ंस जाने के कारण साइकिल का संतुलन गड़बड़ाया हो। साइकिल गिर गयी। साथ में महिला भी। लेकिन गिरते-गिरते महिला संभल गयी थी। डोलची लगी लेडी साइकिल संभालती महिला से बात की तो पता चला कि दादानगर में एक कारखाने में काम करती है। वहां चैनल बंधने का काम होता है। गिरने के कारण किसी किस्म का दैन्य भाव नहीं था उसकी आवाज में। सहज रूप से उठकर पैडलियाते हुये चल दी काम पर।
विजय नगर चौराहे पर रोज की तरह भीड़ थी। स्कूल बसें गुजरती हैं सुबह-सुबह वहां से। चौराहे को घूमकर पार करने के बजाय बायें से मुड़ने का चलन बढता जा रहा है इस चौराहे पर। ट्रैफ़िक वाले भी हाथ देते हैं -निकल लो। अक्सर हल्का जमावड़ा लग ही जाता है यहां। जिस तरफ़ से स्कूल बसें आती हैं उधर की तरफ़ ही महाकवि भूषण की मूर्ति का मुंह है। हो सकता है महाकवि भूषण का कविता पाठ रुकने के लिये बसें ठिठक जाती हों।
चौराहा पार करते हुये आगे टेम्पो, गाडियों की लाइन सौतन सी लगती है। आगे रुका हुआ टेम्पो रकीब सा लगता है। लेकिन वही टेम्पो जब किसी बड़ी गाड़ी को रोककर सरपट आगे निकलते हुये खुद समेत अपन के लिये भी खाली सड़क का जुगाड़ करता है तो छुटंके वाहन की बलैया लेने का मन करता है। जिस टेम्पो के कारण एक मिनट पहले लगता था कि यह मरवायेगा, पांच मिनट तक रुकवायेगा, वही जब फ़ुर्ती से फ़ुर्ती से निकलकर बायें से आती गड़ियों के आगे से निकलते हुये हमको भी निकाल लेता है तो लगता है कितना स्मार्ट है ये बुतरू वाहन।
कभी-कभी जाम से निकलने में या आगे बढने में कोई सामान्य ट्रैफ़िक नियम का उल्लंघन होता दीखता है। उस उल्लंघन से अगर अपनी गाड़ी रुकती है तो लोगों के नागरिक बोध पर कोफ़्त होती है। पर जब खुद दायें-बायें होकर आगे निकलते हैं तो वह खुद की स्मार्टनेस लगती है। एक आम मध्यमवर्गीय आदमी का सहज नागरिक बोध है यह।
कूड़े के ढेर पर सुअर नहीं दिखे। एक गाय अकेली कूड़े के ढेर पर मुंह मार रही थी। चारो तरफ़ वहां पालीथीन पसरी हुयी थी। कूड़े के ढेर से विदा होते-होते कुछ न कुछ पालथीन उदरस्थ करके निकलेगी यह गाय, यही सोचते हुये आगे बढ लिये।
पंकज बाजपेयी अपनी जगह मुस्तैद मिले। फ़िर कनाडा, जार्डन, हफ़ीज की चर्चा की। बच्चे पकड़े जाने की जानकारी दी। साथ में हिदायत भी कि किसी को गाड़ी में न बैठायें।
अफ़ीमकोठी चौराहे के आगे एक तिपहिया गाड़ी पर एक जोड़ा जाता दिखा। गाड़ी के हैंडल का एक हिस्सा पुरुष थामे हुये था, दूसरा हिस्सा महिला के हाथ में था।’साथी हाथ बढ़ाना’ के इस्तहार से इस जोड़े को काफ़ी देर तक फ़ालो करते हुये उनकी फ़ोटो लेने और बात करने की सोचते रहे। लेकिन झकरकटी पुल पर जाम की आशंका से रुके नहीं। आगे निकककर हुये शीशे से देखते रहे। देर होने का भी डर उचककर मुंडी पर सवार हो गया था।
लेकिन जैसे ही टाटमिल चौराहा पार किया वैसे ही फ़ोटो लेने का मन पक्का हो गया। आगे बढकर गाड़ी किनारे ठढिया दी और जोड़े का इंतजार करते हुये मोबाइल कैमरा तान दिया। फ़ोटो लेते देखकर वे खुद ठहर से गये। हमने मौके का फ़ायदा उठाते हुये उनके बारे में पूछ भी लिया।
पता चला जोड़े में पुरुष साथी को कुछ साल पहले पैरालिसिस का अटैक हुआ था। 7 एयरफ़ोर्स में काम करते हैं वो। क्लर्क के पद पर। खुद गाड़ी चला नहीं पाते तो उनकी पत्नी साथ में जाती हैं। करीब 15 किलोमीटर दूर है घर। एक-एक हैंडल दोनों लोग थामे रहते हैं। पत्नी दिन भर साथ रहती हैं। छुट्टी होने पर साथ लेकर वापस जाती हैं।
दो बच्चे हैं उनके। बच्ची मरियमपुर में पढती है। पढ़ने में बहुत अच्छी है। बेटा ग्रेजुयेशन में है। उसकी नौकरी लग जाये तो चिन्ता कम हो।
दोनों की हिम्मत की दाद देते हुये हम आगे बढ लिये। यह भी सोचते हुये कि सरकारी सेवा में हैं इसीलिये नौकरी जारी है। किसी निजी सेवा में होते तो अभी तक बाहर हो गये होते। निजी सेवायें कल्याणकारी नजरिये के हिसाब सरकारी सेवाओं बहुत-बहुत पीछे हैं।
अरे, देखते-देखते समय हो गया। निकलते हैं अब। आप भी मजे से रहिये।