[हिन्
दी साहित्
य, उसमें भी विशेषकर उपन्
यास-लेखन की दुर्दशा पर यह टिप्
पणी श्रीलाल जी ने आज से पंद्रह वर्ष पहले, सन् 1992 में लिखी थी. इससे अलग कि शुक्
ल जी के तंज ने मेरा उपन्
यास लिखने का इरादा और मजबूत कर दिया है, अपनी सजीली-भीगीली शैली में श्रीलाल जी हिन्
दी साहित्यिकता का जो लेखा-जोखा रखते हैं, वह तब आंख खोलनेवाला रहा होगा तो अब भी आंखें ही खुलवाता है. कुछ लोग चाहें तो मुंह भी खोल सकते हैं. खुले बाज़ार ने समाज में पैसे की उपस्थिति भले पहले की बनिस्
बत अब ज़्यादा बढ़ा दी हो, हिन्
दी साहित्
य का परिदृश्
य विशेष नहीं बदला है. घटिया ही हुआ है. पढ़ लीजिए, अन्
दाज़ा पा जाइएगा.] --
Pramod Singh 1992 में हिन्दी साहित्य का जो लेखा-जोखा अख़बारों में छपा है, उसे पढ़कर मुझे भी श्री राजेंद्र यादववाली चिन्ता सताने लगी है: कि लोग जमकर लिख क्यों नहीं रहे हैं. पर साधन, सक्रियता, अनर्गल उत्साह की कमी के कारण मैं उनकी तरह इस विषय पर सेमिनार नहीं करा रहा हूं, सिर्फ़ यह टिप्पणी लिख रहा हूं.
कुछ विधाओं के बारे में कोई झमेला नहीं है. जैसे कविता. वह जाती है, वापस आ जाती है. बारह साल पहले उसे अशोक वाजपेयी ने आते देखा था. फिर उसे जाते किसी ने नहीं देखा. दरअसल, कुछ ऋतुकालों को छोड़कर, वह गई नहीं है. वह लीलाधर जगूड़ी, लीलाधर मंडलोई, कुमार अम्बुज, विनोदकुमार शुक्ल आदि के पास पहुंचती रही है. नागार्जुन, त्रिलोचन आदि अब वयोवृद्ध हो गए हैं. वे शायद उसे बुलाते ही नहीं; प्रौढ़ता को लांघ रहे केदारनाथ सिंह, कुंवर नारायण के पास खुलेआम जाते वह हिचकती है. अशोक वाजपेयी के साथ वह ज़रूर इतना टिकी रही है कि वे दो साल में एक संग्रह निकाल दें. बहरहाल, कविताजी मज़े में हैं.
दर्जनों लोग जो नई-नई ड्रेसें ला रहे हैं, उनसे कहानी की वार्डरोब पटी पड़ी है. लघु पत्रिकाओं की शक्ल में कई वार्डरोबें तो ऐसे-ऐसे क़स्बों में रखी हैं कि उनका नाम देखने को नक़्शे पर मैग्नीफाइंग ग्लास लगाना पड़ता है. एक से एक उकसानेवाला माल है: ये डिज़ाइन की साड़ियां हैं, यह रहा ‘एथनिक’ माल. दो-चार थीमों की ऐसी रगड़ाई हुई है कि कहानीजी जवानी में ही बूढ़ी दिखती हैं. पर वे बहुत ख़ुश हैं; उनका चेहरा ज़्यादा ख़ूबसूरत नहीं है, वे इस बात पर भी ख़ुश हैं.
नाटक बहुत कम लिखे जा रहे हैं. अच्छा है. ज़्यादा लिखे जाने लगे तो हम यह वेदवाक्य कैसे कह पाएंगे कि ‘हिन्दी में मौलिक नाटकों का नितान्त अभाव है.’
यात्रा-वृतान्त? वह हिन्दी में कैसे लिखा जा सकता है? नई-नई जगहों पर यात्रा करने के लिए जिनके पास पैसा है, उनमें यात्रा-वृतान्त लिखने की तमीज़ नहीं है. जिनके पास तमीज़ है, उनके पास पैसा नहीं.
जीवन, आत्मकथा, संस्मरण- ये सब कहानी की ही शाखा-प्रशाखा हैं. अगर कहानी समृद्ध है तो इन्हें भी समृद्ध मान लीजिए और कहानी में जीवनी-संस्मरण और जीवनी-संस्मरण में कहानी खोजने की बराबर कोशिश करते रहिए. मिल जाएगी.
रही आलोचना. उसकी फ़िक्र छोड़िए. इसकी ज़रूरत सिर्फ़ विद्यार्थियों को इम्तहान पास कराने के लिए होती है. जितनी ज़रूरी होती है, उससे सौ गुना ज़्यादा आलोचना व्याख्याओं, कुंजियों आदि की राह से उनके पास पहुंचती रहती है. पर आप शायद ऐसी आलोचना के बारे में सोच रहे हैं जिसकी ज़रूरत कवियों, कथाकारों- यानी सर्जनात्मक रचनाकारों को है. पर हिन्दी में रचनाकार नहीं होते, साधक होते हैं, साहित्य-साधक. वे वाद-विवाद में नहीं फंसते.
अन्त में उपन्यास. ‘अन्त में’ इसलिए कि मैं उसी के लिए चिन्तित हूं.
1992 में उपन्यास दो-चार ही आए- रानू-शानू के करिश्मों को भूल जाइए. मेरा मतलब असली उपन्यासों से है. यहां सचमुच ही ‘उपन्यास-साहित्य में सन्नाटा’ पर एक ऐसे सेमिनार की ज़रूरत है जो पूरे साल-भर चले. उसका एजेंडा कुल इतना हो कि सहयोगी उपन्यासकार अपनी-अपनी कोठरियों में बन्द रहें, सिर्फ़ शाम को आधा घंटा कसरत करने के लिए आंगन में निकलें- कारागार में नेहरू-स्टाइल. सौ उपन्यासकारों का यह सेमिनार- जिसमें उपन्यासकार के दोनों वक़्त का खाना, एक कोठरी, कुछ सिगरेट, थोड़ी स्मगिल्ड शराब की गारंटी हो- साल-भर में कम-से-कम सौ उपन्यास आपके हाथ में पकड़ा देगा. यह दीगर बात है कि सब उपन्यासों का एक ही शीर्षक हो: ‘जेल में एक वर्ष’.
लोग ज़्यादा उपन्यास क्यों नहीं लिखते? इसके जवाब में पूरा-का-पूरा उपन्यास लिखा जा सकता है. सच पूछिए तो लिखा गया है. यक़ीन न हो तो अमृतलाल नागर का लगभग छ: सौ पृष्ठों का ‘अमृत और विष्’ पढ़िए. इसीलिए इस प्रश्न पर यहां मैं और कुछ नहीं, सिर्फ़ दो बातें कहूंगा.
एक तो यह कि कविता या कहानी आप सवेरे की सैर में बना सकते हैं और फिर उसे, अपनी तन्दुरुस्ती के हिसाब से, नाश्ते के पहले या बाद में लिख सकते हैं. दो-तीन नाश्तों के आगे-पीछे वह पूरी हो जाएगी. उसके छपने पर आपकी क़िस्मत- यानी आलोचक मंडली- ठीक हुई तो आप उतनी ही ख्याति पा लेंगे जितनी कि एक उपन्यास लिखकर, बशर्ते कि वहां भी आपकी क़िस्मत वैसी ही ठीक हो. याद करें ‘प्रेम पत्र’ या ‘ऐ लड़की’.
पर उपन्यास सवेरे की सैर में नहीं लिखा जा सकता. यह एक पूर्णकालिक धन्धा है. प्रेमचन्द, वृन्दावनलाल वर्मा (जो वस्तुत: वकालत का धन्धा छोड़ चुके थे), भगवतीचरण वर्मा (जिन्होंने वस्तुत: वकालत का धन्धा कभी शुरू ही नहीं किया), इलाचंद्र जोशी, अमृतलाल नागर, यशपाल- सभी पूर्णकालिक उपन्यासकार थे. जयशंकर प्रसाद, सियारामशरण गुप्त, निराला- ये सब पूर्णकालिक कवि थे पर इनके पास इतना समय व बची-खुची कल्पना थी कि उपन्यास भी लिखें. इन सबके न रहने पर उपन्यास का बाज़ार ठंडा हो गया है. अब वह कारोबार दूसरे हाथों में चला गया है. वे, यानी कुछ सरकारी नौकर, अध्यापक, बूढ़े पेंशनर, पत्रकार, राजनीतिक धन्धेबाज़, व्यवसायी या व्यवसाय प्रबन्धक, जो उपन्यास-लेखन को स्विमिंग पूल में रविवासरीय गोताख़ोरी या क्लब में सायंकालीन बिलियर्ड जैसा मानकर चलते हैं, उस युग को वापस नहीं ला सकते जो प्रेमचन्द आदि ने सृजित किया था.
दूसरी बात यह कि उपन्यास-लेखन घाटे का धन्धा है. मेरे मित्र स्व. ज्ञानस्वरूप भटनागर कानपुर में- लगभग बाईस साल पहले ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ के संवाददाता थे. साल में कुछ सामाजिक-आर्थिक अध्ययन छपा करके वह काफ़ी रुपया कमा लेते थे. बदक़िस्मती से मेरी देखा-देखी उन्होंने टेस्ट क्रिकेट की अन्दरूनी दुनिया पर ‘और खेल अधूरा रह गया’ नामक उपन्यास लिखना शुरू किया. डेढ़ साल लगे. फिर बड़ी कोशिशों के बाद जवाहर चौधरी की कृपा से उसे ‘शब्दकार’ ने छापा. उन डेढ़ सालों की निरर्थकता ने भटनागर को तीन साल ग़रीबी में डुबोए रखा. बार-बार वे मुझसे यही पूछते रहे, ‘उपन्यास से कुल इतना मिलता है? तब भी आप नया उपन्यास लिख रहे हैं?’
मैंने भी तीन साल मेहनत करके, लगभग बाईस सौ पन्ने रंगकर लगभग तीन सौ पृष्ठ का एक उपन्यास तैयार किया. एक व्यवसाय-प्रबन्धक मित्र के भड़काने पर पांडुलिपि प्रकाशक को देते समय मैंने, पचास हज़ार की हिम्मत न होने के कारण सिर्फ़ बीस हज़ार रुपये का अग्रिम मांगा. वह मुझे मिल भी गया. दो-तीन महीने बाद दूसरी पुस्तकों की रायल्टी का जो विवरण आया, उसमें यह रक़म काट ली गई थी. नए उपन्यास का अग्रिम, बस: ख़्वाब था जो कुछ था देखा, जो सुना अफ़साना था.
तभी अगर कोई समझदार आदमी नासमझी की झोंक में एक उपन्यास लिख भी डालता है तो वह उसका पहला और अन्तिम उपन्यास होता है. इस स्थिति का सर्वेक्षण कराके मित्र राजेंद्र यादव चाहें तो एक नया सेमिनार करा सकते हैं.
साभार: '1992 का साहित्य: कुछ आंसू, कुछ हिचकियां'; जहालत के पचास साल, श्रीलाल शुक्ल, राजकमल प्रकाशन, 2004.
बजरिये Pramod Singh बरस्ते
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