पिछले हफ़्ते फूलबाग की तरफ़ जाना हुआ। दोपहर का समय। जाम जैसा तो नहीं लगा लेकिन चौराह किसी व्यस्त कामकाजी इंसान जैसा लगा। हर चेहरा बिजी बिजी। सड़क पर एक सवारी मूलगंज, एक सवारी मूलगंज की आवाज़ सुनाई दे रही थे। सामने एलआईसी की बड़ी इमारत के बग़ल से आता ट्रैफ़िक।
चौराहे के पास सड़क के डिवाइडर पर बनी जगह पर बैठे सैकड़ों कबूतर चीयर लीडर्स की तर्ज़ पर हवा में उड़कर , करतब जैसा दिखाते हुए वापस आकार बैठ जाए। सामने दीन दयाल उपाध्याय की प्रतिमा दिखाई दे रही थी। वहीं कहीं कामरेड राम आसरे की प्रतिमा भी लगी थी। लेकिन वह दिख नहीं रही थी। कामरेड अब हर जगह नज़र ओझल हो रहे हैं।
लौटते समय बिरहाना रोड होते हुए आए। सड़क के दोनों ओर ज्वैलर्स ही ज्वैलर्स। अलावा इसके तमाम प्रसिद्द पुरानी दुकाने। दुकानों के सामने दुकानों के साइनबोर्ड के अलावा दुकानों के नाम के बोर्ड एक साइज़ में लटके दिखे। दुकानों की ड्रेस की तरह।
सड़क किनारे एक लाइन में चार-पाँच मक्खन मलाई के ठेले दिखे। कानपुर की मक्खन मलाई प्रसिद्ध है। तमाम लोगों ने इसकी तारीफ़ में लिखा है। लेकिन हमने पहले कभी खायी नहीं थे। सोचा अभी तक नहीं खाए तो अब खा लें। एक ठेले से सौ ग्राम ली। दोने में थमा दी उसने। साथ रुपए की सौ ग्राम। वहीं खड़े-खड़े खाई।
हर ठेले पर स्व. कल्लू मक्खन वाले की फ़ोटो इश्तहार की तरह लगी थी। 1960 में बेचना शूरू किया होगा कल्लू जी ने। बाद में और लोग लगाने लगे। ऐसा लगा सब उनके ख़ानदानी हैं। लेकिन पूछने पर पता लगा ऐसा है नहीं। सब बस फ़ोटो लगाए हैं उनकी।
फ़ायदे के लिए प्रसिद्ध हो गए इंसान से ज़बरियन सम्बंध बनाना आम बात है। गांधी से घृणा करने की हद तक नापसंद करने वाले मंच पर गांधी जी की जय बोलते हैं।
आगे मारवाड़ी लाइब्रेरी दिखी। 1918 में स्थापित लाइब्रेरी का शहर के पुराने लोग गर्व से ज़िक्र करते हैं। पहली मंज़िल पर स्थित लाइब्रेरी पर चैनल वाला दरवाज़ा लगा है। सरका के अंदर गए तो एक आदमी ने हमको जिस अन्दाज़ में देखा उसका हिंदी अनुवाद करें तो लगे वह पूछ रहा था-' कौन? क्या चहाते हैं?'
हमने बिना पूछे डरते-डरते टाइप बता दिए -'आर्मापुर में रहते हैं। लाइब्रेरी देखनी है।'
उसने अंदर बैठे किसी आदमी से पूछा और कहा -'मेम्बर बनना होगा। तब देख पाएँगे किताबें।'
मेम्बर फ़ीस 300 रुपए प्रति वर्ष। किताबें इशु करानी हो तो आठ सौ रुपए। एक बार में दो किताबें इशु होंगी। पंद्रह दिन के लिए।
हम वहीं कुर्सी पर बैठकर मेज़ पर रखे अख़बार देखने लगे। कुछ लोग वहाँ बैठे पढ़ रहे थे। नोट्स नुमा कुछ ले रहे थे। बीस-पचीस लोग होंगे। लाइब्रेरी में लगभग 30-35 हज़ार किताबें होंगी। अलमारियों पर उनको देने वाले लोगों के नाम लगे थे।
अख़बार पलटकर देखने के बाद सबसे पास की अलमारी देखी हमने। चाँद का फाँसी अंक और अन्य दुर्लभ किताबें मौजूद थीं वहाँ। संदर्भ ग्रंथ जो वहीं बैठकर देखे जाते हैं।
आगे और किताबें देखने की कोशिश करने पर लाइब्रेरी के एक कर्मचारी ने धीरे से बताया कि बिना सदस्य बने किताबें देखने की अनुमति नहीं है। थोड़ा चकित हुए हम। लाइब्रेरी कोई गोपनीय जगह है क्या जिसका सदस्य बने बिना किताबें देख तक न सकें। यह पहली बार देखा किसी लाइब्रेरी में। मन किया सदस्य बन जाएँ लेकिन फिर यह सोचकर कि घर से इतनी दूर लाइब्रेरी आना-जाना हो नहीं पाएगा, नहीं बने सदस्य।
थोड़ी देर और वहाँ रहकर बिना किताबें देखे वापस चले आए। आते समय हमको किताबें देखने से रोकने वाले शख़्स ने रजिस्टर पर नाम पता लिखने को कहा ताकि सनद रहे कि हम वहाँ आए थे। हमने लिख दिया और वापस आ गए। आते समय और अभी भी सोच रहे थे कि इतना लाइब्रेरी में आम इंसान को किताब देखने न देना क्या पठन विरोधी व्यवहार नहीं है?
सड़क पर फिर चहल-पहल मिली। एक नुक्कड़ पर एक शाकाहारी भोजनालय में कुछ लोग खाना खा रहे थे। दुकान पर बोर्ड लगा था -संगम शाकाहारी भोजनालय, नया गंज चौराहा। मालकिन श्रीमती मुन्नी देवी शुक्ला। अब मालिकन जैसे शब्द दुकानों में कहाँ चलते हैं।
सड़क के दोनों तरफ़ दुकानों में पुराने अन्दाज़ में गाव-तकिए लगे दुकानों के कर्मचारी बैठे दिखे। कुर्सी मेज़ और काउंटर वाले समय में कुछ ही जगह गाव तकिए वाली व्यवस्था दिखती है।
आगे तिराहे पर कटे-फटे नोट बदलने वाले बैठे थे। मन किया वो नोट बदल लें जो थोड़ा फटा होने के चलते मक्खन वाले ने लेने से मना कर दिया था। लेकिन फिर नहीं बदला।
आगे कलट्टरगंज बाज़ार है। छह साल पहले जब बाज़ार आए थे तो यहाँ काम करने वाली मज़दूर परदेशन से मिले थे। उनसे फ़ोटो उसको देने आए थे। सोचा मिला जाए फिर उनसे। पता किया तो मालूम हुआ परदेशन नहीं रहीं। कब नहीं रहीं पूछने पर लोगों से समय दो तीन महीने से लेकर दो-तीन साल तक बताया। जिस दुकान पर काम करती मिली थी उस दुकान वाले ने निर्लिप्त भाव से बताया -'बीमार थी। कई जगह काम करती थी। नहीं रही।'
बाज़ार में सन्नाटा था। दुकानें बंद। जगह-जगह लोग ताश खेलते हुए समय काट रहे थे। एक जगह दो कुत्ते एक बोरी को नोचते हुए उस पर क़ब्ज़े के लिए झगड़ रहे थे। देखकर मुझे राजनीतिक पार्टियों के लोग याद आए जो चुनाव चिन्ह या खुद को असली पार्टी बताते हुए संघर्ष करते हैं। अपने बग़ल में हो रहे कुत्तागीरी से निर्लिप्त ताश खेलते हुए समय बिताने वाले लोग शतरंज के खिलाड़ी वाले नवाबों जैसे लोग लगे जो अपने आसपास से बेपरवाह शतरंज खेलने में डूबे थे।
घंटाघर चौराहे पर आते-जाते लोगों को देखते रहे कुछ देर। लग रहा पूरा शहर ही बेतहाशा भागा चला रह है कहीं। घंटाघर का टावर कानपुर स्मार्ट सिटी लिमिटेड के बोर्ड के पीछे सहमा सा खड़ा दिखा। शहर की अनगिनत ऐतिहासिक घटनाओं का गवाह घंटाघर किसी कमजोर हो चुके बुजुर्ग की तरह अपने आसपास गुजरते जन-प्रवाह को देख रहा था।
घंटाघर से विजय नगर तक के आटो में बैठे। रास्ते में घंटाघर से चटाई मोहाल, डिप्टी पड़ाव के रास्ते का वीडियो बनाया। विजय नगर से आर्मापुर गेट तक दूसरे आटो में आए । आर्मापुर गेट पर, एक बच्ची जो शायद स्कूल से घर जा रही थी, ने आटो वाले से गरीब आवाज़ में कहा -'दस रुपए देंगे।' जबाब में आटो वाले ने वात्सल्य, अपनापे और प्यार के मिले-जुले स्निग्ध भाव से बच्ची को देखते हुए कहा -'बिटिया तुम जितना देओगी उतने में ले चलेंगे।' बच्ची चुपचाप आटो में बैठ गयी। आटो चल दिया।
आर्मापुर गेट से पैदल घर तक आते हुए हमारे ड्राइवर रहे संजय ने हमको पैदल आते देख लिया। हमको ज़बरियन गाड़ी में बैठकर घर छोड़ा।