Tuesday, October 15, 2024

ब्लिंकइट मतलब -पलक झपकते

घर का  सामान आमतौर पर हम ही लाते हैं। बाज़ार पास है। टहलते हुए चले जाते हैं। ले आते हैं। काफ़ी सामान कैंटीन से भी आ जाता है। जो सामान यहाँ नही मिलता उसके लिए मॉल चले जाते हैं। घर का सामान आनलाइन नहीं ही मंगाते हैं। 

 दो दिन पहले चना और कुछ और सामान लाना था। हमने जाने में कुछ देर की। तब तक बेटे का फ़ोन आ गया। बातचीत में उसको पता चला कि ये सामान लाना है तो उसने कहा -'अभी आर्डर कर देते हैं। दस मिनट में आ जाएगा।' 

खाने-पीने का सामान, केक वग़ैरह बच्चे पहले भी मंगाते रहे हैं आनलाइन आर्डर करके। लेकिन दाल-चना परचून की दुकान वाली चीजें नहीं मंगाई गयीं थी अब तक। 

बच्चे ने सामान आर्डर कर दिया। 'ब्लिंकइट' एप से। लिंक हमको दे दिया। बताया दस मिनट में आ जाएगा सामान। दस मिनट में सामान घर आ जाना एप के नाम को ही सार्थक करता लगा। 'ब्लिंकइट' मतलब -पलक झपकते।

दस मिनट से कुछ पहले ही डिलीवरी बालक का फ़ोन आ गया। वह मेरे घर से क़रीब दो किलोमीटर दूर था। फ़ोन किया तो मैंने उसको रास्ता बताया। वह आया तो मैंने उससे पूछा -' पता तो यहाँ का दिया था। दो किलोमीटर दूर कैसे पहुँच गए?'

बालक ने बताया कि लोकेशन वहीं की दिखा रहा था। इसीलिए वहाँ पहुँच गए। 

बालक से ब्लिंकइट के काम करने के तरीक़े के बारे में पूछा तो पता चला -'पास ही आवास-विकास में बड़ा स्टोर है। आर्डर मिलते ही डिलीवरी बालक सामान लेकर लपकते हैं पहुँचाने के लिए। दस मिनट में डिलीवर हो जाता है। दस मिनट में नहीं डिलीवर होता है सामान तो कारण बताना पड़ता है। 

बालक की मोटरसाइकिल पर ढेर धूल जमी थी। हमने कहा -'साफ़ रखा करो।' तो बोला बालक -'समय ही नहीं मिलता।'

समय न मिलने की कहानी बताते हुए बोला बालक -'काम बहुत करना पड़ता है। सुबह से शाम तक डिलिवेरी करते हैं। कम्पनी वाले पैसा बचाने के लिए लड़के कम रखते हैं। 

सामान देकर बालक चला गया। हमको एक नई सामान सेवा की जानकारी हुई।

शाम को एक और सामान का आर्डर किया बेटे ने। सुबह यह रह गया था। सामान देने के लिए आया बालक फिर दो किलोमीटर दूर था। पता यहाँ का था लेकिन लोकेशन दो किलोमीटर दूर की। डिलीवरी बालक ने कहा -'लोकेशन यहाँ की ही है। आपके घर कैसे आएँ?' 

हमने रास्ता समझाया। लेकिन बालक अपनी परेशानी बताता रहा। उसकी समस्या यह भी थी या सही समझे तो यह ही थी कि दो किलोमीटर अतिरिक्त चलने में हुए तेल का भुगतान कौन करेगा? 

हमने कहा -'आ जाओ। देख लेंगे।'

बालक आया। सामान लेने के बाद हमने पूछा -'पता तो यहीं का है। तुम क्या वहाँ डिलीवर कर देते जहां लोकेशन के हिसाब पहुँचे थे ?'

उसने कहा -'आपकी बात सही है लेकिन हमको भुगतान लोकेशन के हिसाब से होता है। लोकेशन से अलग डिलीवरी करने पर तेल का पैसा अपने पास से लगता  है। '

पता चला कि बेटे ने चूँकि बाहर से आर्डर किया था सामान इसलिए लोकेशन और पते में अंतर था। अगर हम करते घर से आर्डर तो लोकेशन और पता एक रहता। 

बेटे ने चार सौ किलोमीटर दूर से किया था आर्डर। चार सौ किलोमीटर दूर से आर्डर करने पर लोकेशन और पते में दो किलोमीटर का अंतर आया। मतलब ब्लिंकइट एप में  0.5% की शुद्धता से दूरी का हिसाब करता है। 

बालक ने बताया कि वह यह काम करते हुए पढ़ाई भी करता है। कुछ कंपटीशन की तैयारी भी कर रहा है। उसकी बहन भी नर्सिंग का कोर्स कर रही है। दोनों साथ रहते हैं। संघर्ष है लेकिन मेहनत जारी है। 

आर्डर के हिसाब से एक डिलिवरी के लिए बालक को तीस रुपए मिलने थे। हमने आपने वायदे के मुताबिक़ उसे दे दिए। वह चला गया। 

बालक के जाने के बाद हम काफ़ी देर से इस बारे में सोचते रहे कि आज हर काम के लिए सेवाएँ उपलब्ध हैं। आप पैसा खर्च कीजिए हर सुविधा आपके पास हाज़िर है। पैसे के ज़ोर पर लोग अपनी सरकार तक बनवा ले रहे हैं। एक से एक बदमाश लोग मसीहा बने बैठे हैं इधर-उधर के पैसे के बल पर। 

लेकिन वो लोग क्या करें जिनके पास पैसे नहीं हैं? जिनके लिए ज़िंदगी जीना ही मुहाल है वे कौन सी सेवा लें? काश कोई ऐसा एप होता जो लोगों की न्यूनतम ज़रूरतों का इंतज़ाम करने में सहायक होता। 

लेकिन हमारे सिर्फ़ सोचने से क्या होता है ? दुनिया तो अपने चलन के हिसाब चलती है।




Sunday, October 13, 2024

शरद जोशी के पंच -14

 1. हमारे प्रजातांत्रिक देश में एक बड़ी सुविधा है कि आप महात्मा गांधी से सहमत होकर सत्तारूढ़ पार्थी चला सकते हैं और इसी महात्मा गांधी से सहमत होकर विरोधी दल बना सकते हैं। 

2. मुझे बीड़ी पीता आदमी एक खादी पहने व्यक्ति से ज़्यादा गांधीवादी लगता है। इसमें भारतीय आत्मनिर्भरता है। बीड़ी की टेक्नोलाजी और पैकिंग, जिसे हम बंडल कहते हैं, भारत में परम्परा से विकसित टेक्नोलाजी है।

3. भ्रष्टाचार से परिचय बाल्यकाल में हो जाता है। जन्म लेते ही बच्चे को पता लग जाता है कि नर्स को कुछ लिए-दिए बिना उसकी सफलता से जचकी नहीं हो पाती। 

4.  पिछले वर्षों में व्यवस्था में मनुष्य के जीवन की सारी सुविधाएँ कम करते और छीनते हुए बाज़ार उपभोक्ता सामग्री से पाट दिया है। रिटायर्ड अफ़सर भी चैन से नहीं बैठता। वह प्राइवेट पार्टी के चक्कर काटता, चंद रुपयों के लिए सरकारी रहस्य बेचता, अपने पुराने प्रभाव को भुनाते हुए टेंडर मंज़ूर करवाता फिरता है। नौकरियाँ तलासता रहता है ,ताकि जीवन की सुरक्षा बनी रहे और जीवन की और ऐश की सामग्रियाँ ख़रीदी जा सकें। 

5.  जगह और परिस्थितियाँ पक्ष में हों ,तो शासन करने वाला हद दर्जा नीच हो सकता है।

6. जिसमें ख़रीदने की ताक़त होती है, उसका कभी कुछ नही बिगड़ता। 

7. संसार के सभी देश एक कोण से दुकान होते हैं। 

8. लू चली तो लोग मरे, ठंड बढ़ी तो लोग मरे, बाढ़ आयी तो कुछ डूब गए, तूफ़ान आया और इतनी मौतें हुई, प्रकृति संबंधी हर सूचना इस देश में मृत्यु की सूचना है। 

9. हमारे देश में हेलिकाप्टर का यही महत्व है कि बाढ़ का तांडव देखा जाए। पानी जब जमा हो जाए तब उस पर आंसू बरसाकर पानी का स्तर और उठाया जाए। 

10. सड़क से लेकर जंगल तक हमने आदमी को भगवान भरोसे छोड़ दिया है। किसी के मरने से हमें कमी महसूस नहीं होती। हमारे देश के बड़े लोग शायद उसे माल्थस के सिद्धांत के अनुसार ज़रूरी और सही मानते होंगे। 

11. सरकार यह मानकर चलती है कि मौसमी मौतें तो होंगी। जब सब कुछ नष्ट होने के साथ मौतें भी होंगी, तब हम भोजन के पैकेट गिराएँगे। जीवित को बचाने के लिए नहीं, मृतकों का श्राद्ध करने के लिए। हमारी यह संवेदना है, यही संस्कृति है। 

एक युवा के साथ कुछ देर

दो दिन पहले शहर में कहीं जाना था। शाम का समय। एक मांगलिक कार्यक्रम में। पहले सोचा अपनी गाड़ी से जाएँ। लेकिन फिर शहर में गाड़ी खड़ी करने की समस्या और दीगर बातें सोचकर तय किया कि ओला से चले जाएँ।
गाड़ी बुक की। तीन बार। तीनों बार ड्राइवर बोला -'आपकी लोकेशन से दूर हैं। कुछ पैसे राइड के अलावा दें तो आएँ।' हमने राइड कैंसल कर दी।
ये ओला/उबर/रैपिडो वाली गाड़ियाँ बुक होती हैं तो गाड़ी वालों को पैसा वहीं से मिलता जहां से सवारी उठाते हैं। सवारी तक पहुँचने की दूरी उनको अपने खर्चे पर तय करनी होती है। कई बार ऐसा भी होता है कि पाँच किलोमीटर की दूरी के लिए पाँच से ज़्यादा किलोमीटर तय करना होता है। ड्राइवर मना कर देता है या ज़्यादा पैसे माँगता है। कम्पनियों को इसका इलाज करना चाहिए कुछ।
बहरहाल राइड कैंसल करने के बाद तय किया अपनी गाड़ी से ही चलते हैं। निकल ही रहे थे क़ि फ़ोन आया -'कहाँ आना है? किस जगह है घर आपका?'
पता चला कि हमारे राइड कैंसल करने के बाद भी अगली गाड़ी बुक हो गयी। पता नही कैसे? जबकि हमने बुकिंग से मना किया था।
ख़ैर हम इंतज़ार कर रहे थे गाड़ी। नक़्शे पर गाड़ी आती दिखी। पास आ गयी। लेकिन कहीं कोई कार दिखी नहीं। हमने फ़ोन किया तो पास आ गए दुपहिया वाहन का ड्राइवर बोला -'आ गए। चलिए।'
हमारे लिए ताज्जुब की बात थी। अपनी समझ में हमने कार की बुकिंग की थी। वो भी करके कैंसल कर दी थी। ये दुपहिया कहाँ से बुक हो गयी?
'हो जाती है जब आप कोई भी गाड़ी का विकल्प क्लिक करते हैं।'-हेलमेट लगाते हुए दुपहिया सवार बोला।
बहरहाल हम बमुश्किल तमाम बैठे पीछे। सीट काफ़ी ऊँची लगी। पैर घुमा के बैठने में लगा कि जाँघ का जोड़ हिल गया। शायद इसीलिए महिलाएँ एक तरफ़ ही पैर करके बैठती हैं दुपहिया गाड़ियों में।
दुपहिया चालक बालक ही था। बताया कि दादानगर में एक कम्पनी काम करता है। एकाउंटेंट का। बीकाम किया है। शाम को कुछ देर गाड़ी भी चला लेता है। अक्सर दादानगर से कल्याणपुर घर जाते हुए बीच की सवारी उठा लेता है। कभी घर से भी निकल जाता है गाड़ी लेकर। महीने में पाँच-सात हज़ार कमाई हो जाती है इससे। उसको शेयर मार्केट में लगा देता है। पैसा कमाता है, पैसा बचाता है।
एक कम्पनी के शेयर के बारे में बताया। पंद्रह हज़ार में शेयर ख़रीदे थे। सत्रह हज़ार का फ़ायदा हुआ। वो फ़ायदा निकाल लिया हमने। फिर ख़रीद लिए दूसरे शेयर। अपने पैसे निकाल लिए। अब पड़े रहेंगे। कुछ न कुछ देंगे ही फ़ायदा।
हमें लगा कि शायद Vivek Rastogi की पोस्ट्स पढ़ते हुए ज्ञान लेता रहता होगा।
शादी अभी नही हुई है। कह रहा था -'अभी कुछ कमाई कर लें। फिर शादी भी हो जाएगी।'
बालक ने बताया -'काम की कमी नहीं है आज भी। लड़के करते नहीं। वो घर बैठे आराम का पैसा चाहते हैं। लगी-लगाई नौकरी चाहते हैं सब जिसमें कोई मेहनत न करनी पड़े। बस पैसा मिलता रहे, चाहे कम मिले।'
अपने भाई के बारे में भी बताया -' वो कुछ करता नहीं। बस टाईम बरबाद करता रहता है।'
ऐसे तमाम लोग मेरी जानकारी में भी हैं जो किसी बड़े काम लायक़ काबिल नहीं लगते लेकिन कोई दूसरा काम करना नहीं चाहते। हाथ में आए काम से बढ़िया काम की तलाश में निठल्ले बैठे हैं। सालों से। लेकिन सामने दिखने वाले काम को शुरू नही करते।
गंतव्य पर पहुँचने पर बिल आया 41 रुपए। सात किलोमीटर दूरी तय की थी 41 रुपए में। हमें याद आया कि कार के 150 से ऊपर दिखा रहा था। सौ रुपए बचे। नया अनुभव हुआ सो अलग।
बालक ने हमको छोड़ा उस समय रात के क़रीब साढ़े नौ बज रहे थे। उसके काम का समय सुबह ग्यारह से शाम चार बजे तक का है। मतलब लगभग दस बजे सुबह से रात दस तक काम में जुटा रहता है बालक।
आज के समय शहरों में तमाम युवा ऐसी ज़िंदगी जी रहे हैं। दिन भर काम। मैं यह सोच रहा था कि ज़िंदगी की सबसे चमकदार उमर में उनके मनोरंजन और आनंद के मौक़े एकदम सिमट गए हैं। सामाजिकता की गुंजाइश कम से कम होती जा रही है। युवाओं के ऐसी ज़िंदगी कितनी सुकूनदेह है ?

Saturday, October 12, 2024

शरद जोशी के पंच -13

 1.   भारत व्यवस्थित रूप से अव्यवस्थित देश है। यहाँ आप जहां-जहां व्यवस्था देखेंगे,वहीं-वहीं अव्यवस्था उतनी अधिक देखेंगे। आप निश्चित नहीं कर पाएँगे कि आप जो देख रहे हैं ,उसमें व्यवस्था क्या है और अव्यवस्था कितनी है।

2.  जहां बिना हड़ताल का डर बताए मज़दूरों को मंहगाई-भत्ता न देना रिवाज बन गया है, जहां मध्यम तबके के कर्मचारी कभी इज्जत नहीं पाते और जहां मैनेजमेंट कभी मानवीय दृष्टि से नहीं देखता ,वहाँ आप जापान छोड़ कोरिया के बराबर नहीं पहुँच सकते। 

3. शिकायत की जाती है कि भारतवासी से पूरी तरह काम लेना कठिन है। पर कोई भारतवासी पूरी शक्ति से अपना श्रेष्ठ दे सके इसका बुनियादी इंतज़ाम भी नहीं है।  

4. इस देश में मज़दूर को मजूरी करना आता हो या नहीं ,अफ़सर को अफ़सरी करना ख़ूब आता है। और इस अफ़सर में मानवीय तत्व का नितांत अभाव है।

5. इसे देश में बड़े पायेदार नेताओं की दो ही दुर्दशाएँ हैं। वे केंद्र में रहकर अपने राज्य के नाम पर रोते-झींकते रहें या राज्य के मुख्यमंत्री बन केंद्र के चरण पखारते रहें। 

6. अधिक दहेज देना अपनी बहन या अपनी बेटी को अपने जीवन से सदा के लिए काट देने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है। 

7. प्राचीनकाल में लड़कियाँ ब्याह देने के बाद भारतीय बाप वानप्रस्थ आश्रम में पड़ा संन्यास आश्रम के बारे में सोचने लगता था। कारण स्पष्ट है, नंगे को फ़क़ीर बनने की प्रेरणा आसानी से मिलती है। 

8. महानगर का अर्थ गगनचुंबी इमारतें होता है, झोपड़ी नहीं। अमीरों को नौकर चाहिए पर नौकरों को घर दिए जाएँ ,यह मुनाफ़ों के अर्थशास्त्र के अनुकूल नहीं। ज़मीन की क़ीमत आदमी से ज़्यादा है। इमारत की क़ीमत इंसानियत से ज़्यादा है। 

9. बम्बई बिल्डरों, मालिकों और धंधेबाज़ों का शहर है। हर कार्यालय उसकी एजेंसी है। रईसों का स्वार्थ जब व्यक्त होता है ,वह नगर की सुंदरता की बात करता है। वह नगर के पाप कम करने का जेहाद नहीं छेड़ता, वह नगर की सुंदरता की लड़ाई छेड़ता है। 

10. जब सब बरबाद हो चुकेगा ,तब नेता अपने बिलों से निकलेंगे, दुःख-दर्द सुनेंगे, जुल्म पर आश्चर्य करेंगे। आश्वासन देंगे। तब राजनीति चालू होगी। गरीबों की सहानुभूतियां  बटोरी जाएँगी ताकि वोटों की फसल उस मैदान से भी काटी जा सके ,जहां कभी झोंपड़े थे। 



Friday, October 11, 2024

दशहरा मेला दिन में

 सबेरे टहलने निकले। गेट के बाहर तीन गाएँ 'अनमन धरना मुद्रा' में बैठी ऊँघ सी रहीं थी। रात भर वहीं बैठी, सोयीं होंगी। गोबर के तीन-चार 'छोत' इस बात की पुष्टि कर रहे थे कि गायों का कोई अलग शौचालय नहीं होता। जहां बैठ गयीं, वहीं निपट लीं। उनको हटाने की कोशिश की। दो तो तुरंत उठकर चल दीं। तीसरी वहीं बैठी रही। उसको बगलिया के सड़क पर आ गए। गायों को डिस्टर्ब करने में ख़तरा बढ़ गया है आजकल। क्या पता कई जानवर सोचते हों -'अगले जनम मोहे गईया ही कीजो।'

सड़क पर भी जगह-जगह पड़े गोबर के ढेर पढ़े थे। गायें निपटी होंगी रात में या सुबह।
पार्क में बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे। कुछ बच्चे भागते हुए मैदान पर विकेट लगाने के बाद टीम सेलेक्ट करते दिखे। एक सड़क पर कुत्ते भौंकते दिखे। उनकी बात समझ में नही आ रही थी। उनको भौंकते देख मुझे टीवी चैनलों की तीखी बहस याद आ गयी। कुत्तों की भाषा मुझे नहीं आती कि वे किस बात की चर्चा कर रहे थे लेकिन यह तो अनुमान लगाया जा सकता है कि वे हालिया विधानसभा चुनाव के बारे में चर्चा नही कर रहे थे। न ही ईरान-इज़रायल, रूस-यूक्रेन लड़ाई के बारे में चिंतित थे। इन इंसानी चोचलों से निर्लिप्त वे भौंकने में लगे थे। अपन रास्ता बदलकर, दूसरी सड़क से निकलकर आगे बढ़ गए।
आर्मापुर थाने के सामने सड़क पर हमको ठोकर लगी। गिरते-गिरते बचे। गिरने से बच जाने का सुकून मन में लिए-लिए पीछे मुड़कर देखा। कांकरीट की सड़क पर हो गए गड्ढे में सरिया निकली हुई थी। उसी में पैर फँसा था। गिरते-गिरते बचे। आज मेले का दिन है। सरिया कटने तक दो-चार लोग ज़रूर यहाँ लड़खड़ाएँगे। गिरेंगे।
सड़क पर मोबाइल देखते हुए चलने में ये खतरे तो होते ही हैं।
आर्मापुर बाज़ार से होते हुए रामलीला मैदान गए। पूरे मैदान में प्लास्टिक की पन्नियाँ, काग़ज़, ख़ाली पैकेट दिख रहे थे। जिन लोगों ने मेले में दुकाने लगायी हैं उनमें से कुछ लोग मैदान में दिख रहे थे। एक महिला चाय पीते हुए चाय के ग्लास से अपने गाल सेंकते हुए सामने बैठे आदमी से बतियाते हुए मेले के किस्से सुना रही थी।
रामलीला मंच के सामने एक महिला ज़मीन पर बैठी हुई इधर-उधर देख रही थी। उसके तीन छोटे-छोटे बच्चे उसके अग़ल-बग़ल सो रहे थे। मेले में खिलौने बेचने आयी थे वह। बताया -'कल बहुत कम खिलौने बिके।' रावतपुर के पास से आयी है वह सपरिवार मेले में खिलौने बेचने। छोटे खिलौने। हमारी बातचीत सुनकर उसके बदल में सोए उसके आदमी की नींद खुल गयी। रज़ाई से मुँह निकालकर उसने अपने होने की घोषणा की। हम आगे बढ़ गए।
मैदान में लगी अधिकतर दुकाने बंद थीं। एक तरफ़ रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले टुकड़ों में रखे थे। उनको जोड़कर पुतले बनाए जा रहे हैं। पुतलों के हिस्से के अग़ल-बग़ल बैठे-खड़े लोग आपस में बतिया रहे थे।
मेले में लगी एक चाट के दुकान में बारे में बताते हुए एक ने कहा -'वह अपनी दुकान हटा रहा है। बता रहा था कि दस हज़ार का सामान लाया था। एक हज़ार की बिक्री नहीं हुई दो दिन में। इससे ज़्यादा तो अपनी चाट की ठेलिया में कमा लेता है।'
हमने कहा -'आज शायद मेले में भीड़ बढ़ेगी। लोग आएँगे। आज छुट्टी है दशहरे की। बिक्री बढ़ेगी। '
'अरे उसने दुकान समेट ली अपनी। जा रहा है लेकर अपना टीम-टामड़ा।' -दुकान की तरफ़ देखते हुए एक आदमी बोला।
अधबने पुतलों के टुकड़े इधर-उधर पड़े हुए थे। दो सिर अग़ल-बग़ल रखे थे। पुतलों के शरीर के बाक़ी हिस्से , हाथ-पैर इधर-उधर रखे थे।
वहाँ मौजूद लोग पुतला बनाने वालों की चर्चा कर रहे थे। बताया -' जहूर बनाते थे यहाँ के पुतले। सालों तक वही बनाते रहे। इसके बाद उनके लड़के ने बनाए।'
इस बार पुतले बनाने का काम मुस्तकीम को मिला है। पचास साल से बना रहे हैं दशहरा में दहन के लिए पुतले। पुतले बनाने का काम अपने गुरु बाबू खां आतिशबाज से सीखा। पहले वे केवल पुतलों की टाँगे बनाते थे। गुरु जी के न रहने पर पुतला बनाने लगे। सचेंडी में रहते हैं। वहाँ चप्पल-जूते की दुकान है। साल भर दुकान चलाते हैं। दशहरा में पुतला बनाते हैं।
मुस्तकीम ने बताया -' बीस जगह पुतले बनाने का काम मिला है शहर में। आज शाम तक दस -बारह बन जाएँगे। बाक़ी कल तक सब खड़े हो जाएँगे।'
पुतलों के ढाँचे बांस की खपच्चियों के बने हैं। ढाँचे के ऊपर धोती का कपड़ा (पतला मारकीन का कपड़ा) चढ़ाते हैं। उसके ऊपर सफ़ेद काग़ज़ फिर रंगीन पुतले वाला काग़ज़। बारिश के पानी की बूँदों के चलते पुतले मटमैले हो गए हैं। उनको पेट्रोल से पोंछ कर चमका दिया जाएगा।
पुतले के धड़ में बांस की खपच्ची बाहर तक निकली है। निकली हुई खपच्ची के सहारे उसको लुढ़काकर इधर-उधर किया जा रहा है।
इस बीच चाय आ गयी। काम स्थगित करके वे पन्नी में लाई हुई चाय को छोटे-छोटे कप में डालकर वहीं बैठकर पीने लगे। उन लोगों ने हमको भी चाय पीने का निमंत्रण दिया लेकिन हमने मना कर दिया। वे चाय पीते हुए अलग -अलग जगह के पुतलों की चर्चा करने लगे । ककवन , सचेंडी, आज़मगढ़, शाहजहाँपुर। एक ने कहा -'आज़मगढ़ का पुतला सबसे बड़ा बनता है।' दूसरे ने कहा -'शाहजहाँपुर का पुतला सबसे बड़ा बनता है- हमने दस साल बनाया है।'
हमने भी शाहजहाँपुर के पुतले के पक्ष में वोट दे दिया और वहाँ का पुतला सबसे बड़ा हो गया। शाहजहाँपुर में 1992 से 2001 तक रहने के दौरान वहाँ की रामलीला की अनगिनत यादें हैं। बाद में 2019 से 2022 तक वहाँ रहे ज़रूर लेकिन कोरोना के चलते मेला नही लग पाया।
पुतले वाली जगह से आगे बढ़कर एक जगह कुछ बच्चे एक कूदने वाले झूले पर कूदते दिखे। चार-पाँच बच्चे कूदते हुए आपस में बतिया रहे थे। हमको फ़ोटो लेते देखकर मेरा मोबाइल देखने लगे। एक ने पूछा -' आइफ़ोन है चच्चा - देख लें?' हमने कहा -'देख लो।' दो-तीन बच्चों ने मेरे मोबाइल देखा।
उनको मोबाइल दिखाते हुए सबसे पहले ,बिना बताए जो विचार मेरे दिमाग़ में घुसा उसने कहा -'कहीं बच्चा मेरा मोबाइल फ़ोन लेकर भाग न जाए।' हमने अपने दिमाग़ को डपट दिया। दिमाग़ बेचारा सहम गया। बोला -'अरे हम तो बता रहे हैं, दुनिया में ऐसा होता है।' हम फिर डपट दिया दिमाग़ को -'चुप रहो । शट अप ।'
बेचारा दिमाग़ सहमकर चुप हो गया।
बच्चे ने मोबाइल देखते हुए दाम पूछा। हमने बताया -'हमको पता नहीं।हमारे बेटे ने लाकर दिया है।'
एक बच्चे ने बताया -बीस हज़ार का होगा। हमारे मोहल्ले में एक जन लाए हैं।'
बच्चे फिर उछलने में तल्लीन हो गए। वो पूरे पैसे और समय की क़ीमत वसूल कर रहे थे।
पता चला बच्चे रावतपुर से आए हैं मेला घूमने। सबने अपने-अपने नाम बताये -'आलोक, रिंकूँ , साहिल, सौरभ।' बाद में उछलते हुए बच्चों ने अपने नाम बदल दिए। कुछ देर में फिर बताया -'हमारे नाम ये नहीं , ये हैं।' हमने उनके नए नाम भी बिना याद किए स्वीकार कर लिए।
बच्चों ने बताया कि वे रावतपुर गाँव से आए हैं। 25 रुपए मिले हैं घर से मेले में घूमने के। दस रुपए झूले वाला लेगा। बाक़ी के पैसे कुछ खाया-पिया जाएगा।
बच्चों ने यह भी बताया कि वे शाम को यहाँ ग़ुब्बारे बेचने भी आते हैं। कल पचास -सौ रुपए के ग़ुब्बारे बेचे।
हम चलने लगे तो झूले पर कूदते हुए बच्चों ने पूछा -'चच्चु यहाँ पानी का नल कहाँ है ? नहाना है। गर्मी लग रही है।'
हमने नल के बारे में बता दिया और चल दिए। आगे एक चाय की दुकान वाला बता रहा था कि उसकी भी बिक्री बहुत कम हुई कल। मेले में भीड़ आयी नहीं। चाय वाले की ठेलिया पर उसकी बच्ची सोयी थी। शायद पत्नी भी। वहीं एक छोटी चप्पल पड़ी थी।बच्ची की चप्पल है। उस चप्पल की जोड़ीदार चप्पल मेले में कहीं खो गयी है। चप्पल बेकार हो गयी।
उस छुटकी चप्पल को देखकर मुझे नर्मदा बांध के निर्माण में डूब जाने वाले गाँव 'हरसूद' के लोगों के विस्थापन की याद आई। लोग जब गाँव छोड़कर जा रहे थे तो इसी तरह छूट गए सामानों की रिपोटिंग करते हुए विजय मनोहर तिवारी ने किताब लिखी थी - 'हरसूद -30 जून।' (विनय मनोहर तिवारी से हुई बातचीत का लिंक )
बिछुड़ी हुई चप्पल मेले के किसी कोने में अकेले गुमसुम अपनी जोड़ीदार चप्पल की याद में गुम होगी। क्या पता किसी को मिल ही जाए और चप्पलें भी मेले में बिछुड़े भाई-बहनों की तरह कभी मिल जाएँ।
दुकान से आगे बढ़कर मेले से निकलकर अपन घर की तरफ़ चल दिए।






Thursday, October 10, 2024

शरद जोशी के पंच -12


1. क्रिकेट या टेनिस में सफलताएँ खिलाड़ी को कमजोर और पत्रिकाओं को मज़बूत बनाती हैं। पत्रिका का एक अंक उम्मीद लगाता है, दूसरा उसी निराशा का विश्लेषण करता है।

2. इस देश में सभी काम श्रीगणेश की कृपा से आरम्भ हो जाते हैं। संस्थाएँ ज़ोर-शोर से खुल जाती हैं, चाहे बाद में निकम्मी और ढोंगी साबित हो जाएँ। आंदोलन आरम्भ होते हैं, जिसके सदस्य कुछ दिनों बाद आपस में लड़ने लगते हैं। प्रवत्तियाँ जल्दी ही दुष्प्रवत्ति में बदल जाती है।

3. इस देश को श्रीगणेश के अतिरिक्त दो देवताओं की ज़रूरत है। एक ऐसा देवता, जिसकी कृपा से आरम्भ हुआ काम ठीक से चलता रहे, बना रहे, सम्भला रहे। और दूसरा देवता हमें चाहिए समापन के लिए। जिसकी कृपा से बेकार और पुरानी चीजें ख़त्म हो जाएँ।

4. भारतीय बाज़ारों का नजारा यह है कि यहाँ सस्ती चीजें रईस ग्राहकों का इंतज़ार करती हैं और मंहगी चीजें गरीब ग्राहकों का। हथकरघे की साड़ी की ग्राहक इंपाला में आती है और टेरीकाट,नायलोन की ग्राहक बेचारी पैदल या बस में।

5. हमारे देश में यही होता है। योजनाएँ बनाती रहती हैं, काम नही होता। होता है तो देर से होता है, और योजना का काम तो निश्चित ही देर से होता है।

6. वास्तव में इस देश की सबसे कठिन और सबसे बड़ी योजना तो योजना बनाने की योजना है। जब योजना पूरी हो जाती है तो, सबको काम पूरा करने का संतोष मिल जाता है, बल्कि उसके बाद काम करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।

7. हर योजना के दो लक्ष्य होते हैं। एक आर्थिक लक्ष्य और दूसरा भौतिक लक्ष्य। आर्थिक लक्ष्य पूरे हो हाते हैं, भौतिक लक्ष्य अधूरे रह जाते हैं। नींव खुद जाती है, खम्भे खड़े हो छत का इंतज़ार करते हैं। छत लग जाती है, तब रंग रोगन के लिए स्वीकृति नहीं मिलती। योजना का बड़ा लक्ष्य है काम करने वालों को वेतन और भत्ता देना। उसके बाद वास्तविक काम के लिए रुपया नही बचता, क्योंकि योजना-व्यय में कटौती हो जाती है।

8. जब भी बाढ़ आती है,केंद्र से बयान आते हैं। इतने वर्षों से ये बयान ही चट्टान की तरह खादे बाढ़ को रोक रहे हैं। बयान यह है कि बाढ़ की समस्या के दूरगामी और स्थायी उपाय किए जाने चाहिए।

9. इस देश में प्रांत समस्यायों से चमक में आते हैं और केंद्र बयानों से। भगवान दोनों को बराबर मौक़ा देता है।

10. लोगों का स्वभाव है कि जब तक उन्हें दांत का दर्द नहीं होता वे पेट-दर्द की शिकायत करते रहते हैं। इसलिए पेट-दर्द की समस्या का हल दाँत का दर्द हो गया है।


रतन टाटा के अनमोल बोल

 कल देश के जाने-माने परोपकारी उद्योगपति रतनटाटा का 86 वर्ष की अवस्था में निधन लम्बी बीमारी के बाद निधन हो गया। स्व. रतन टाटा को विनम्र श्रद्धांजलि। 

रतन टाटा के अनमोल बोल :

1.  हम लोग इंसान हैं कोई कम्प्यूटर नहीं, जीवन का मज़ा लीजिए इसे हमेशा गम्भीर मत बनाइए।

2. जीवन में आगे बढ़ने के लिए उतार-चढ़ाव बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ईसीजी में एक सीधी रेखा का मतलब है कि हम जीवित नहीं हैं।

3. हम सभी के पास समान प्रतिभा नहीं है,लेकिन हम सब के पास समान अवसर हैं अपनी प्रतिभा को विकसित करने के लिए।

4. 'सत्ता' और 'धन' मेरे दो प्रमुख सिद्धांत नहीं हैं।

5. अगर आप तेज चलना चाहते हैं , तो अकेले चलिए लेकिन अगर आप दूर तक चलना चाहते हैं तो ,साथ-साथ चलें।

6.  अगर लोग आप पर पत्थर मारते हैं तो उन पत्थर का उपयोग अपना महल बनाने में करें। 

7. अच्छी पढ़ाई करने वाले और कड़ी मेहनत करने वाले अपने दोस्तों को कभी मत चिढ़ाओ। एक समय ऐसा आएगा कि तुम्हें उनके नीचे भी काम करना पड़ सकता है।

8. मैं सही फ़ैसले लेने में विश्वास नही करता। फ़ैसला लेता हूँ और फिर उसे सही साबित कर देता हूँ।

9. जिस दिन मैं उड़ान भरने में सक्षम नहीं हूँ , वो मेरे लिए एक दुखद दिन होगा।

10. टीवी जीवन का असली नहीं होता और ज़िंदगी टीवी सीरियल नहीं होती। असल जीवन में आराम नहीं होता ,सिर्फ़ और सिर्फ़ काम होता है।

11.  अपना जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहता है , इसकी आदत डाल लो। 

-हिंदी दैनिक हिंदुस्तान से साभार 

Wednesday, October 09, 2024

फ़ेसबुक की सामुदायिक भावना

 कुछ दिन पहले एक लम्बी पोस्ट लिखी थी। एक बातचीत का विवरण देते हुए रपट लिखी थी

पोस्ट में मेहनत से फ़ोटो लगाए थे। उनके कैप्शन थे। वीडियो थे। लिखने में क़रीब चार- पाँच घंटे लगे थे। फ़ोटो लगाने, कैप्शन लिखने में भी आधा घंटा क़रीब लगा। संबंधित लोगों को टैग करने में भी समय लगा।
फ़ेसबुक ने पोस्ट कुछ देर बाद हटा दी। यह कहते हुए कि पोस्ट फ़ेसबुक की कम्यूनिटी भावना के विपरीत है।
कुछ देर बाद फिर पोस्ट की। फिर वही लिखते हुए पोस्ट हटा दी फ़ेसबुक ने।
हमने कुछ मित्रों से कारण पूछा। पोस्ट पढ़ चुकी Bhavna ने सुझाया कि पोस्ट में उपयोग किए शब्द 'प्रगतिशील' से फ़ेसबुक का हाज़मा ख़राब हुआ लगता है। 'प्रगति' और 'शील' को अलग-अलग करके देखिए। हमने किया। सब जगह 'प्रगति' शब्द को 'शील' शब्द से अलग कर दिया। दोनों के बीच गैप दे दिया। क़रीब 18 जगह 'प्रगति' और 'शील' में सम्बंध विच्छेद करना पड़ा।
इसके बाद पोस्ट प्रकाशित की तो फ़ेसबुक ने कोई एतराज नही किया। पोस्ट प्रकाशित हो गयी।
शायद सोशल मीडिया में 'प्रगति' बिना ' शील' से अलगाव के सम्भव नहीं।
यह नमूना है फ़ेसबुक के पोस्ट प्रकाशन पर नियंत्रण करने का। और भी पोस्ट्स इसी तरह से नियंत्रित की जाती होंगी। जिनकी पोस्ट नियमित हटाई जाती होंगी उनकी काट भी वे उसी तरह खोजते होंगे।
इसी सिलसिले में याद आया कि रवींद्र कालिया जी के उपन्यास 'खुद सही सलामत है' में एक महिला पात्र मल्लाही गालियाँ देती है। अपने पात्र से सीधे-सीधे गालियाँ दिलाने में कालिया जी का परहेज़ रहा होगा या नया प्रयोग पर उस पात्र का चित्रण करते हुए कालिया जी ने उसकी गालियों में अक्षरों का क्रम उलट दिया है।
'प्रगति' और 'शील' से शुरू हुई बात 'मल्लाही गालियों' तक पहुँच गयी। फ़ेसबुक जो कराए।

 शरद जोशी के पंच -11

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1. इस देश में समझदारी के कदम उठाने के लिए व्यवस्था दुर्घटना का इंतज़ार करती है।
2. पर्यावरण-पर्यावरण रोने से पर्यावरण ठीक नहीं होगा। गैस-गैस चिल्लाने से गैसें कम नहीं होंगी। सत्ता के बाप में हिम्मत नहीं कि वह कोई कारख़ाना एक जगह से दूसरी जगह हटा सके, सिफ़ारिशों पर अमल करा सके, कड़ा कदम उठा सके, जो कारख़ानेदार की मंशा के विपरीत हो। आजकल उद्योगों की लल्लो-चप्पो करने के दिन हैं।
3. विकास का अर्थ इस देश में होता है सुखी वर्ग को और अधिक सुविधाएँ प्रदान करना।
4. विकास के काम अड़ंगे डालना राष्ट्रीयता के विरुद्ध है। अत: देश का प्रमुख नारा हुआ 'ठेकेदारों को कमाने दो, गरीबों का हित उसी में है।
5. सारे आचारों में भ्रष्टाचार इस देश में सबसे सुरक्षित है। वह दुबककर काम करने के बाद सीना उठाकर चलता है।
6. भ्रष्टाचार हमारे यहाँ एक सम्मानित आधार है। काफ़ी लोग उसे व्यवहार मानते हैं। ऊपरी कमाई करना व्यावहारिकता मानी जाती है। भ्रष्ट व्यक्ति की प्रशंसा में कहा जाता है कि आदमी प्रैक्टिकल है।
7. भ्रष्टाचार इस देश में उल्टी गंगा है। वह समुद्र से पानी बटोरकर हिमालय तक पहुँचाती है। एक इंस्पेक्टर जब सौ रुपए लेता है तो वह शान से कहता है,मैं अकेला नही खाता। ऊपर वालों को भी खिलाना होता है।
8. भ्रष्टाचार निजी कौशल पर आधारित एक सामुदायिक कर्म है।
9. इस देश में भ्रष्टाचार छत पर चढ़कर वायलिन बजाता है। लोग उसकी लय से मोहित रहते हैं। उसे दाद देते हैं।
10. भ्रष्टाचार एक पत्थर है। दिन-रात यह देश उस पत्थर को हाथ में ले सिर पर ठोंकता रहता है और दर्द से कराहता-अफ़सोस करता रहता है। तो आप उसका क्या कर पाए? धीरे-धीरे यह दर्द मीठी गुदगुदी बन गया है। हम इसे रोकने में अपने को कहीं से असमर्थ पाते हैं।

Thursday, October 03, 2024

 शरद जोशी के पंच -8

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1. यह भारतीय सेंसर बोर्ड है,जो सेक्स बेचने वाले बड़े निर्माताओं की जेब में पड़ा रहता है। कोई खोखलापन तो हममें है ही कि हम यह सहन करते हैं।
2. किसी भी मामले की जाँच करना अपने आप में एक अद्भुत रहस्यमय कला है। आप कहें कि हमने फ़लाँ हरकत आँख से देखी तो वे आपकी आँखों की जाँच पड़ताल करेंगे और यह पता लगाने की चेष्टा करेंगे कि जिससे देखा गया वह आँख ही थी।
3.आधुनिक जीवन में एक मूल्य पिछले वर्षों उभरा है कि वे सारी बातें, जिनसे करों की गति धीमी होती है,ग़लत है,उन्हें समाप्त करो।
4. आज़ादी के बाद इस देश में सड़कों के नक़्शे ऐसे बने हैं कि जिन रास्तों से नेता गुजरते हैं,उन रास्तों से अच्छे लोग नही गुजरते।
5. राजनीति में तो यह है कि सड़कों पर हाकी होती है, नेताओं के ड्राइंगरूम में शतरंज। समस्या फ़ुटबाल की तरह उछलती है,हाल बास्केटबाल की तरह डाले जाते हैं, संवाद टेनिस की तरह चलते हैं। दोनों बात करने वाले सुरक्षात्मक खेल खेलने वाले क्रिकेटरों की तरह लम्बे समय तक रन न बनने देते हैं, न आउट होते हैं। जिसके हाथ स्ट्राइकर आ जाए वही कैरम की अधिकांश गोटें ले लेता है।
6. इस देश में, जहां एक नेताईरी के साये में दूसरी नेतागीरी पनपती है, पिछड़े क्षेत्रों में प्रधानमंत्रियो की यात्राओं का बड़ा महत्व है। वह आकार उँगली पर पर राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का गोवर्धन उठाता है और स्थानीय समस्याएँ उसकी छाया में छिप जाती हैं।
7. प्रधानमंत्री जब कहता है कि ग़रीबी सारे देश में है और हमें उससे लड़ना है,तो लोकल गरीब संतोष की साँस लेते हैं कि चलो, अखिल भारतीय मामला है, जब निपेटगा तब निपटेगा। वे अपनी ग़रीबी के स्थानीय कारणों के प्रति क्षमाशील हो जाते हैं।
8. प्रधानमंत्री का आगमन एक जश्न होता है जब स्थानीय नेता,भ्रष्ट छूटभैये,नायब तहसीलदार,तहशीलदार,स्थानीय एम.एल.ए. ,एम.पी., मंत्री,मुख्यमंत्री,पुलिस अफ़सर,थानेदार सब एक हो जाते हैं। इस शर्त पर कि तू मेरी शिकायत मत करना,मैं
तेरी नही करूँगा, वे एक दूसरे के काफ़ी काम कर देते हैं।
9. इस देश में पटवारी गाँव की सच्चाई तहसीलदार से छिपाता है, कलक्टर ज़िले की सच्चाई मुख्यमंत्री से छुपाता है, मुख्यमंत्री राज्य की सच्चाई प्रधानमंत्री से। 'सब ठीक है', 'सब चंगा है' , 'सब अच्छा चल रहा है' की गूंज बनी रहती है।
10. खबरें हर क़िस्म की हैं और वे हर दिशा से आती हैं। दूसरों को तंग करने,उसे नष्ट करने का एक दर्शन देश में विकसित हो गया है। हर व्यक्ति के पास पिस्तौल नही है सौभाग्य से, मगर उसका दिमाग़ धीरे-धीरे पिस्तौल हो गया है। वह लगा भले न पाए, मगर एक निशाना हर एक के दिमाग़ में है।

Sunday, September 29, 2024

हमारी प्रगतिशील चेतनाओं के 100 साल




 कल कानपुर की 'अनुष्टुप' संस्था द्वारा 'गिरिराज किशोर स्मृति व्याख्यानमाला- 4' का आयोजन किया गया। इस बार के व्याख्यान का विषय था – ‘हमारी प्रगति शील चेतनाओं के 100 साल।‘

वक्ताओं के इंतज़ार में मंच 


कार्यक्रम की सूचना अनीता मिश्रा और फिर भावना मिश्रा की मार्फ़त काफ़ी पहले ही पहले मिल गयी थी। साथ ही हिदायत भी कि रहना है कार्यक्रम में। लिहाज़ा कार्यक्रम में हाज़िर होना लाज़िमी था। कार्यक्रम के समय तीन बजे से ठीक दो मिनट पहले पहुँच गए सभागार।
हमारे पहुँचने तक कुछ लोग ही वहाँ थे। इसके बाद लोग आहिस्ते-आहिस्ते आए।आते गए। साढ़े तीन बजे तक हाल लगभग पूरा भर गया। कार्यक्रम शुरू हुआ।
कार्यक्रम की शुरुआत में अनीता मिश्रा ने कार्यक्रम से परिचय कराने का काम किया।
कार्यक्रम की शुरुआत करते हुए अनीता मिश्रा 
अपनी बात शुरू करते हुए अनीता जी ने आदतन, लोगों के मिलने-जुलने के कम होते चलन का ज़िक्र करते हुए , मज़े लिए कि पुराने समय लोग दोस्तों पर मुक़दमे कर दिया करते थे ताकि मुक़दमे की तारीख़ों पर मुलाक़ात होती रहे।
इसके बाद उन्होंने गिरिराज किशोर जी की स्मृति में हुई पहले की व्याख्यानमालाओं के बारे में जानकारी दी।
कानपुर के प्रख्यात कथाकर स्व. गिरिराज किशोर जी की स्मृति में व्याख्यानमाला की शुरुआत 2021 में हुई। पहली व्याख्यानमाला का विषय था –‘अहिंसा और प्रतिपक्ष।‘ 2022 में सम्पन्न व्याख्यानमाला-2 में ‘साहित्य और सिनेमा’ पर बात हुई। 2023 में हुई व्याख्यानमाला-3 में 'लिफ़ाफ़े में कुछ रोशनी भेज दे' विषय के अंतर्गत ' अदबी खतूत पर बातचीत' हुई।
पहली तीनों व्याख्यानमालाएँ मर्चेंट चेम्बर हाउस के सभागार में हुईं। उसमें श्रोताओं की भीड़ से हाल भर जाता। बैठने में असुविधा होती। इसलिए इस बार सभा का आयोजन हरिहरनाथ शास्त्री सभागार में किया गया। कानपुर में टेस्ट मैच होने के चलते ऐसा अनुमान था कि शायद कुछ कम लोग आएं लेकिन हाल पूरा भरा था। बारिश वजह से कल के मैच का निरस्त हो जाना भी कारण रहा होगा।


मोबाइल बंद रखने का आग्रह करते हुए अनीता मिश्रा। 
कार्यक्रम के संचालन के लिए मंच वीएसएसडी कालेज के प्राध्यापक डा आनंद शुक्ल को सौपने के पहले अनीता मिश्रा ने इफ़्तिख़ार आरिफ़ का यह शेर सुनाकर लोगों के मोबाइल बंद करा दिए:
“उमीद-ओ-बाम(आशा-निराशा) के मेहबर (आपाधापी) से हट के देखते हैं,
ज़रा सी देर को दुनिया से कट के देखते हैं।“
मतलब जहां हो वहीं के होकर रहो। इधर-उधर से नाता तोड़ दिया जाए फ़िलहाल।



बातचीत के संचालन की शुरुआत करते हुए डा आनंद शुक्ल ने पिछले 100 वर्षों की उल्लेखनीय घटनाओं का ज़िक्र करते हुए कहा –‘बीसवीं सदी दो महायुद्धों की गवाह है। शमशेर की कविता –‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ के शीर्षक की तरह अनेक घटनाओं ने पिछले 100 वर्षों की प्रगति शीलताओं के निर्माण में अपनी भूमिका अदा की है। इसके निर्माण में रूसी क्रांति, गांधी का आगमन, असहयोग आंदोलन, ख़िलाफ़त आंदोलन जैसी घटनाओं की लम्बी श्रंखला है। प्रगति शील आंदोलन भी इस प्रगति शील चेतना का अहम हिस्सा है।‘
विषय प्रवर्तन करते हुए प्रियंवद जी 
विषय प्रवर्तन करते हुए वरिष्ठ कथाकार प्रियंवद जी ने प्रगति शीलता का मतलब साफ़ करते हुए कहा –
‘प्रगति शीलता का मतलब पुनर्जागरण, नवजागरण या रिनेशाँ नही है। नवजागरण या पुनर्जागरण का मतलब तो उस चेतना को फिर से पा लेना हुआ जो कभी हमारे पास थी। बीच में खो गयी और हमने उसे फिर से पा लिया हो। यह प्रगति शीलता नही है।
100 वर्षों की प्रगति शीलताओं से मतलब यह होगा कि पिछले सौ वर्षों में हमने नया कुछ ऐसा पाया जो मनुष्य से मनुष्य को जोड़ता है। समाज को बेहतर बनाता है।‘
प्रियंवद जी ने कहा –‘ 100 वर्षों की प्रगति शीलताओं पर चर्चा अपने में बहुत व्यापक है। मैं हिंदू समाज और मुस्लिम समाज की प्रगति शीलताओं पर चर्चा करूँगा। देश के सामने आज यह बहुत बड़ा मुद्दा है। हमें इस पर बात करनी चाहिए।‘
प्रगति शील चेतना के प्रस्थान बिंदु की पड़ताल करते हुए उन्होंने कहा –‘कोई भी चेतना एकाएक प्रस्फुटित नही होती। इसकी एक प्रक्रिया होती है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम को प्रगति शील चेतना का समय माना जाता है। लेकिन मेरी समझ में ऐसा नही था।
इसके और सौ साल पीछे जाएँ तो देखते हैं क़ि ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक ‘लफ़ंगा क्लर्क’ क्लाइव देश पर एक क़ब्ज़ा कर लेता है। देश में राजे-रजवाड़े आपस में अपने-अपने हितों के लिए लड़ रहे थे। यह प्रगति शील चेतना के लक्षण नही थे।'


1857 के संग्राम के बाद दो काम हुए:
पहला –‘मुग़ल शासन का अंत हुआ। विक्टोरिया शासन की शुरुआत हुई।‘
दूसरा-‘ हिंदू और मुसलमान की अलग-अलग धाराएँ बनी।‘
मुस्लिम समाज के प्रमुख प्रगति शील व्यक्तित्वों की चर्चा करते हुए प्रियंवद जी ने कहा –‘ मुस्लिम समाज में सर सैयद अहमद खां, अल्लामा इक़बाल और शुरू के मोहम्मद अली जिन्ना प्रमुख व्यक्ति थे। तीनों में प्रगति शील चेतना थी। लेकिन अफ़सोस कि बाद में तीनों एक घोर अप्रगति शील विचार वाले देश की स्थापना की ज़मीन तैयार करने के कारक बने ।
इक़बाल शुरुआत में कम्युनिस्ट थे। उनकी नज़्में हैं जो ग़रीबों के हिमायत की बात करती हैं। एक नज़्म में वे कहते हैं –‘ऐसे खेत जला दो जो ग़रीबों को रोटी न दे सके।‘ यही इक़बाल आगे चलकर एक इस्लामी राष्ट्र बनाने में सहायक हुए जो अपने में एक घोर अप्रगति शील बात थी।
कार्यक्रम के संचालक प्रोफ़ेसर आनंद शुक्ल 
जिन्ना शुरुआत में राष्ट्रवादी थे। बाद में उन्होंने एक मुस्लिम राष्ट्र की स्थापना में प्रमुख भूमिका अदा की।
हिंदू समाज के प्रगति शील लोगों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा –‘सावरकर शुरू में अंग्रेज विरोधी थे। राष्ट्रवादी थे। बाद में मुस्लिम विरोधी हो गए।‘
देश में हुए विभिन्न आंदोलनों की वि संगतियो की चर्चा के क्रम में प्रियंवद जी ने ख़िलाफ़त आंदोलन की चर्चा की। उनके अनुसार –‘ 1921 में हिंदुस्तान में हुए ख़िलाफ़त आंदोलन की पहली माँग तुर्की में ख़लीफ़ा राज की बहाली के लिए थी जबकि उसी समय में तुर्की में कमाल पाशा के नेतृत्व में ख़लीफ़ा का राज ख़त्म हो गया था ।
कमाल पाशा ने तुर्की में अपने समाज को सब तरह के बंधनो से आज़ाद कराने के कदम उठाए। पर्दा खतम कर दिया।
गांधी जी ने अपने हिसाब से धर्म को राजनीति से जोड़ा। यह एक ग़लत कदम था।‘


अपनी बात के बीच में प्रियंवद जी ने मुस्लिम समाज के प्रगति शील व्यक्तित्व हमीद दलवई (1932- 1977) का ज़िक्र किया। उन्होंने मुस्लिम समाज में सुधार के तमाम प्रयास किए। 1966 में उन्होंने मुस्लिम समाज में तीन तलाक़ ख़त्म करने और सामान नागरिक संहिता लागू करने की बात कही। अनेक बुनियादी सवालों को उठाया। दुर्भाग्य यह रहा कि 1977 में 45 साल की उमर में चल बसे।
प्रियंवद जी के विषय प्रवर्तन के बाद पहले वक्ता सलिल मिश्र जी को बुलाने के पहले संचालक आनंद शुक्ल ने जानकारी दी कि प्रेमचंद के उपन्यास रंगभूमि के प्रकाशन के सौ वर्ष हो गए हैं। इस उपन्यास के प्रमुख पात्र सूरदास के माध्यम से भारतीय समाज की अंतर्निहित चेतना की तरफ़ इशारा करते हुए उन्होंने कहा –‘सूरदास की झोपड़ी जला दी गयी। बच्चा मिठुआ पूछता है –‘दादा अब क्या करोगे? सूरदास कहता है –‘फिर बनाएँगे।‘ वह फिर पूछता है –‘उसके बाद भी जलाई जाएगी तब क्या करोगे? वह कहता है ‘फिर बनाएँगे।‘ आख़िर में सूरदास कहता है –‘हज़ार बार जलाई जाएगी, हज़ार बार बनाएँगे।‘
यह भारतीय समाज की अंतर्निहित चेतना है।
अपनी बात कहते हुए सलिल मिश्र जी 
सलिल मिश्र जी ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन और साम्प्रदायिक राजनीति पर किताबें लिखी हैं। हिस्ट्री आफ इमोशन , इमोशन्स इन पालिटिक्स एंड पालिटिक्स आफ इमोशन्स , साझा अतीत खंडित वर्तमान जैसी विषयों पर उनका काम है। उन्होंने प्रगति शीलता के इतिहास, वर्तमान दुविधा और भविष्य पर अपने विचार रखे।
सलिल मिश्र जी ने प्रगति शीलता के इतिहास पर चर्चा करते हुए कहा:
'प्रगति शीलता हमारा वर्तमान नही है। यह हमारी इच्छा है। एक यूटोपिया है कि हम वहाँ तक पहुँचे।
प्रगति शील विचार एक संकट से गुजर रहा है। यह कोई नई बात नही है। यह संकट हमेशा रहा है।
संकट यह नही है कि इसको जनता का व्यापक समर्थन नही है। प्रगति शील विचारों के समर्थक हमेशा अल्पसंख्यक रहे हैं।
आज का संकट यह है कि लोगों में प्रगति शील विचारों के प्रति आस्था में कमी आई है। कुछ लोग यह सोचने लगे हैं कि इस पतन के लिए कहीं ये विचार ही तो ज़िम्मेदार नही?


प्रगति शील विचारों की पड़ताल प्रगति शील लोग ही करते हैं। हमको इन विचारों को बेहतर तरीक़े से समझने के लिए बाहर से देखना होगा।
ह्यूमन इमेजिनेशन की सीमाओं को लांघ पाना आसान नही है। ह्यूमन इमेजिनेशन का सारा विस्तार और सीमाएँ तत्कालीन सामाजिक स्थितियों पर निर्भर करता है।
प्रगति शीलता अपने मूल विचार का विरोध भी करती है। फ़्रांस की क्रांति के कई तत्वों को रूस की क्रांति ने ख़ारिज कर दिया गया था ।
ईसाई धर्म की धारणा है कि दुनिया के ख़त्म होने पर नई दुनिया बनेगी। यह पहले की दुनिया से बेहतर होगी।
मार्क्स का कहना था –‘दार्शनिकों ने दुनिया को समझा है। ज़रूरत तो इसे बदलने की है।‘
रूस का मार्क्सवाद और के यूरोप के मार्क्सवाद में अलगाव था। रूस के मार्क्सवाद का यूटोपिया ख़त्म हो जाने के बाद वहाँ नयापन ख़त्म हुआ और ऊर्जा में कमी आई।
यूरोप के देश साम्राज्यवादी थे। उसी तरह के उनके विचार थे। वहाँ का मार्क्सवाद भी वहाँ की स्थितियों में फँस के रह गया।
भारत में सनातनी सोच के गांधी की दृष्टि बहुत कुछ मार्क्स के करीब थी।'
प्रगति शीलता की वर्तमान समय दुविधाओं की चर्चा करते हुए सलिल मिश्र जी ने कहा :
'दुविधाएँ नियति हैं। ये परिस्थितियों में ही निहित होती हैं।
किसी भी समाज का बहुत छोटा हिस्सा प्रगति शील होता है। वह समाज के बड़े हिस्से की प्रगति के लिए प्रयास करता है।
किसी भी समाज की प्रगति शीलता के लिए धर्म, परम्परा और सामाजिक ताने-बाने से लड़ना होता है। यह सब समाज के बड़े हिस्से को प्रभावित करते हैं।
प्रगति शीलता के सामने चुनौती (भविष्य) पर बात करते हुए सलिल मिश्र जी ने अकादमिक अन्दाज़ में अपनी बात कहते हुए कहा :
मुझे लगता है आज प्रगति शीलता के सामने सबसे बड़ी चुनौती रूढ़िवाद की है। पुनरुत्थानवाद की है। संकीर्णता की है।
रूढ़िवाद और दक्षिण पंथ का नज़दीकी रिश्ता है।
हर दकियानूस दक्षिण पंथी होता है लेकिन हर ज़रूरी नही कि हर दक्षिण पंथी दकियानूस हो।
परम्पराओं से जितना बड़ा ब्रेक यूरोप में हुआ उतना भारत में नही हुआ।
पिछले दस वर्षों में भारत में रूढ़िवाद और दक्षिण पंथ में सम्बंध कमज़ोर हुआ है।
रूढ़िवाद मानता है कि मानव जीवन की सीमाएँ होती हैं। इनको पहचानना, मानना और उनका अतिक्रमण न करना रूढ़िवाद का उद्धेश्य होता है।
आज दक्षिण पंथ ट्रांसफ़ारमेटिव हो गया है। यह स्थिति प्रगति शीलता के लिए एक चुनौती भी है इसमें एक अवसर भी है।
रूढ़िवाद और दक्षिण पंथ की चुनौती पर अकादमिक चर्चा आज के दक्षिण पंथ के चर्चित जुमले –‘आपदा में अवसर पर’ पर ख़त्म हुई। कैसे इसका मुक़ाबला किया जाना है यह बात श्रोताओं के विवेक पर छोड़कर सलिल मिश्र जी ने अपनी बात ख़त्म की।
अगले वक्ता के रूप में गौहर रजा जी को बुलाते हुए संचालक जी ने जानकारी दी कि वे अपनी गम्भीर बीमारी के बावजूद कार्यक्रम में आए हैं। डा आनंद शुक्ल ने रजा साहब की प्रसिद्द नज़्म ‘सच ज़िंदा है’ के अंश सुनाकर उनको अपनी बात कहने के लिए आमंत्रित किया :
जब सब ये कहें, ख़ामोश रहो
जब सब ये कहें, कुछ भी ना कहो
तब समझो कहना लज़िम है
मैं ज़िंदा हूँ, सच ज़िंदा है,
अल्फ़ाज़ अभी तक ज़िंदा हैं
(पूरी नज़्म यहाँ सुन सकते हैं)
अपना वक्तव्य देते हुए गौहर रजा साहब 
गौहर रजा साहब ने अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहा-‘ किसी भी समाज में प्रगति शीलता के लिए सबसे ज़रूरी तत्व बराबरी की भावना है। हमारा समाज धर्म, जाति, भाषा, खान-पान, रहन-सहन आदि के लिहाज़ से एक बंटा हुआ समाज था। इंसान, इंसान बराबर नही हो सकता। सबको बराबर अधिकार नही थे।जाति के आधार पर छुआछूत, ग़ैरबराबरी हमारा उपलब्ध सामाजिक ढाँचा था। मंत्र सुन लेने भर पर कानों में पिघला शीशा डाल देने की सोच हमारे समाज के एक बड़े हिस्से का आदर्श था। कहीं बराबरी का भाव नही था।
हमारे समाज में बराबरी के विचार बाहर से आए। हमारे यहाँ एक तरफ़ तो विदेशी दासता से मुक्ति के लिए स्वतंत्रता आंदोलन है दूसरी तरफ़ समाज के मूल्यों का संघर्ष है।
हमको यह याद रखना चाहिए कि अंग्रेजों के ख़िलाफ़ संघर्ष नस्लवाद से संघर्ष नही था । गोरी चमड़ी से संघर्ष नही था । यह एक विदेशी ताक़त से संघर्ष था ।




प्रगति शीलता के लिए आवश्यक वैज्ञानिक चेतना हमारे यहाँ विज्ञान से नही बल्कि लेखकों,शायरों से मिली। प्रेमचंद, साहिर, कृष्णचंदर, मंटो आदि अनेक लेखकों/कवियों से मिली। प्रगति शील लेखक संघ के लोगों का वैज्ञानिक चेतना के प्रसार में बहुत बड़ा योगदान है।
गांधी को अहिंसा का रास्ता अपनाने के लिए सीख 1857 के संग्राम की विफलता से मिली। उनको अन्दाज़ हो गया था कि हम हिंसा से उनका मुक़ाबला नही कर सकते। ऐसे लोगों से मुक़ाबले की ताक़त आपस में बराबरी की भावना से ही मिल सकती है। बिना सबको साथ लिए लड़ाई सम्भव नहीं।
वैज्ञानिक चेतना और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष साथ-साथ चलते हैं।
आर एस एस का प्रोपेगंडा है कि जहां-जहां मुस्लिम समाज है वहाँ-वहाँ लोकतंत्र विफल हुआ। सचाई है कि म्यांमार, श्रीलंका, नेपाल में लोकतंत्र विफल हुआ जबकि वहाँ मुस्लिम समाज नही है। आज इस ग़लत प्रचार से मुक़ाबला करना हमारी बड़ी चुनौती है।
प्रगति शील चेतना के लिए वैज्ञानिक चेतना ज़रूरी है। जब 1956 में जब ‘वैज्ञानिक चेतना’ संविधान में जोड़ा गया था तो नेहरू सरकार पर दो आपत्तियाँ लगाई गयीं थी:
1. आपकी सरकार ने यह काम पहले क्यों नही किया गया था?
2. उस समय कुम्भ मेले में कुछ रूढ़ि वादी अफ़वाहें फैलाई जा रही थीं। यह चर्चा हुई कि यदि संविधान में ‘वैज्ञानिक चेतना’ पहले जुड़ा होता तो शायद यह स्थिति नही बनती।
सोवियत यूनियन के ख़त्म होने के कारण प्रगति शील तबके के विश्वास में कमी आई है। आज धर्म के हिंसक तत्व को बढ़ावा मिला है।
किसी भी समाज में शीर्ष व्यक्ति की सोच और आचरण का प्रभाव उस समाज के लोगों पर पड़ता है। लोग उसके आचरण और व्यवहार से प्रेरणा ग्रहण करके या नक़ल करके उसके अनुसार आचरण का प्रयास करते हैं। नेहरू ने वैज्ञानिक चेतना के प्रसार की आवश्यकता समझी और उसके लिए कोशिश की। आज स्थिति ऐसी है कि :
-हमारे प्रधानमंत्री डाक्टरों के बीच हमारे पुराने समय में प्लास्टिक सर्जरी की बात करते हैं। यह ताज्जुब की बात है। लेकिन डर लगता है जब डाक्टर लोग उनकी इस बात पर ताली बजाते हैं।
-डर लगता है जब वे नाले की गैस से चाय बनाने की बात करते हैं और लोग ताली बजाते हैं।
-एक जज कहता है कि मोर के आँसुओ से प्रजनन होता है।
ज़िम्मेदार माने जाने पदों पर बैठे लोगों द्वारा इस तरह की बातें लोगों की वैज्ञानिक चेतना पर हमला है। लोगों को अवैज्ञानिक बातें करने के लिए उकसाती हैं। ऐसी बातें आम लोगों को अवैज्ञानिक बातें करने के लिए उकसाती हैं। इनसे समाज प्रतिगामी मूल्य ग्रहण करता है।
आज हम लोग बाबाओं के दौर में आ गए हैं। राजनीति की शुरुआत बाबाओं के आशीर्वाद होती है। यह प्रवृत्ति वैज्ञानिक चेतना के लिए बहुत बड़ा ख़तरा है।
वैज्ञानिक चेतना से अलगाव के लिए आज शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिगामी काम हो रहे हैं। हाईस्कूल से डार्विन के विकासवाद के बारे में लेख हटा दिया, पीरियाडिक टेबल हटा दी। इसके पीछे शायद सोच यह स्थापित करना हो कि हमारा विकास बंदर से नही हुआ, हम पाँच तत्वों से बने हैं इसके अलावा और तत्वों वाली टेबल की क्या ज़रूरत?
कार्यक्रम का आनंद लेते हुए सुधी श्रोता 
गौहर रजा साहब ने आगे कहा :
‘ ज़रूरी नही कि सभी धार्मिक लोग अवैज्ञानिक सोच से ग्रस्त हों। पश्चिम के तमाम वैज्ञानिक धार्मिक थे लेकिन उन्होंने अपनी बात कही । धार्मिक रहते हुए भी अवैज्ञानिक स्थापनाओं का विरोध किया। धार्मिक रहते हुए भी वैज्ञानिक चेतना का प्रसार किया।
ग़ैर हिंसक धार्मिक ताक़तों और हिंसक ताक़तों का तकनीक से कोई झगड़ा नही है। ये जो ताक़तें अपने मकसद में सफल होने के लिए धर्म का इस्तेमाल करती हैं उनसे मुक़ाबला करने के लिए धर्म से मुक़ाबला ज़रूरी है।‘






आख़िर में अपनी बात ख़त्म करते हुए गौहर रजा साहब ने आह्वान करते हुए कहा:
‘अपने काम में वैज्ञानिक चेतना लाने की कोशिश नही की तो बड़ा नुक़सान होगा।‘
अपनी बात ख़त्म करने के बाद गौहर रजा जी ने लोगों की फ़रमाइश पर अपनी एक कविता ‘यह मेरा देश है’ सुनाई। कविता सुनाते हुए गौहर रजा जी कहीं अटके भी लेकिन उनके वाचन से कविता के भाव साफ़ सम्प्रेषित हो रहे थे। कविता यहाँ क्लिक करके सुन सकते हैं ।
वक्ताओं के तक़रीर के बाद श्रोताओं ने सवाल किए। वक्ताओं ने उनके जबाब भी दिए।
एक श्रोता ने कहा –‘प्रगति शीलता की चर्चा करते हुए किसी वक्ता ने बाबा साहब का ज़िक्र नही किया। जबकि उन्होंने मनुस्मृति जैसी प्रतिगामी किताब का विरोध किया और अनेक प्रगति शील विचार रखे।‘
गौहर रजा जी ने इस बात का जबाब देते हुए कहा-‘ बाबा साहब का देश की प्रगति शीलता में बहुत बड़ा योगदान है। उनका नाम लेने से रह गया। नाम और भी कई छूट गए। हमारी बात को भावना के रूप में ग्रहण किया जाए।
एक सवाल पूछते हुए बात रखी गयी –‘पिछली सदी के केवल दो महायुद्धों की चर्चा जबकि तथाकथित कोल्ड वार के समय में छोटे-छोटे देशों के बीच लगभग 200 युद्ध हुए।‘
इस बात को सही बताते हुए सलिल मिश्र जी ने आगे कहा –‘1857 में अपने यहाँ नेशन की कोई अवधारणा नही थी। उस समय हुए संग्राम को हमारे देश के ही लोगों ने दबाया। दक्षिणपंथ आज हाइपर एक्टिव है। आज प्रगति शीलता को दक्षिण पंथ से बड़ा ख़तरा है।
दक्षिण पंथ को एक स्पेक्ट्रम के रूप में देखा जाना चाहिए । इसके एक सिरे पर यथास्थितिवाद और दूसरे सिरे पर तानाशाही है। यह धर्म का अपने हिसाब से इस्तेमाल करता है।
प्रियमन जी ने शिकायती अन्दाज़ में कहा –‘ प्रियंवद जी ने जो विषय प्रवर्तन किया उसके हिसाब से वक्ताओं ने अपनी बात नही रखी। किसी ने इस बात पर चर्चा नही की कि पिछले सौ साल में प्रगति शील चेतना रही की नही?
इस पर गौहर रजा जी ने कहा –‘हमारे वक्तव्य में हमने लेखकों, कवियों और प्रगति शील संगठन द्वारा प्रगति शील चेतना के प्रसार में किए काम का उल्लेख करते हुए बताया –‘कम्युनिस्ट लोग समाज में वैज्ञानिक चेतना के प्रसार के प्रति आरआरएस की प्रतिगामी सोच के प्रसार के मुक़ाबले ज़्यादा प्रतिबद्ध और सक्रिय थे।‘
श्रोताओं में मौजूद मोहम्मद ख़ालिद ने पूछा –‘मैं ठेके पर काम करने वाले मज़दूरों का ठेकेदार हूँ। विचारों से नास्तिक हूँ। मैं अपने मज़दूरों के बीच वैज्ञानिक चेतना का कैसे प्रसार कर सकता हूँ?’
उनकी बात का जबाब देते हुए गौहर रजा जी ने कहा-‘ आम तौर पर हम लोग कम पढ़े लिखे लोगों को वैज्ञानिक चेतना से लैस नही मानते। जबकि ऐसा होता नही है। कोई भी व्यक्ति वैज्ञानिक चेतना से शून्य नही होता। आम लोग जो स्कूल नही जाते वे भी वैज्ञानिक चेतना से लैस होते हैं। जबकि बहुत पढ़े-लिखे लोग भी बहुत कम वैज्ञानिक चेतना से युक्त हो सकते हैं।
एक सवाल पूछा गया –‘क्या प्रगति शील विचार बाहर से आया?’
इसका जवाब देते हुए गौहर रजा साहब ने कहा-‘ कुछ भी बाहर से या अंदर से नही आता। तमाम विचार सार्वभौमिक होते हैं। अलग-अलग तरह के विचार फ़ीडर की तर्ज़ पर काम करते हैं। एक समाज के सभी सवाल दूसरे समाज पर जस के तस लागूँ नही किए जा सकते। विचारों की दुनिया बहुत जटिल होती है। हमको अपने समाज के प्रति जागरूक रहते हुए देखना है कि कैसे हम अपने समाज को प्रगति शील बनाएँ।
सवाल - जबाब का सिलसिला और भी चलता लेकिन समय काफ़ी हो चुका था इसलिये बातचीत को विराम दिया डा आनंद शुक्ल ने प्रसिद्ध पोलिस कवियत्री विस्लावा सिम्बोसर्का की कविता पढ़कर जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं:
हमारी बीसवीं सदी को दूसरी से बेहतर होना था
लेकिन ऐसा नही हुआ
झूठ से पहले सच को पहुँच जाना चाहिए था
लेकिन ऐसा नही हुआ
उम्मीद पहली सी चुलबुली लड़की नही रही
सबसे भोले सवाल हैं,सबसे ज़रूरी सवाल।
(पूरी कविता यहाँ दूसरे अनुवादक की प्रस्तुत है)
शताब्दी का पतन
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हमारी बीसवीं सदी पहले से बेहतर होनी थी जो अब कभी नहीं होगी
बचे हैं इसके गिनती के साल
डांवांडोल है इसकी चाल
सांसें बची हैं कम.
बहुत चीजें घटी हैं
जो नहीं घटनी चाहिए थीं
और जो होना चाहिए था
नहीं हुआ.
खुशी और बसंत- दूसरी चीजों के बजाय नजदीक आने चाहिए थे.
डर पहाड़ों और घाटियों से दूर भागना चाहिए था!
सच को जीतना था
झूठ के ऊपर.
कुछ एक परेशानियां नहीं आनी थीं
जैसे भूख युद्ध आदि
असहाय लोगों की असहायता का
आदर होना था
विश्वास या कुछ इसी तरह का कुछ और.
जिसने मौज मस्ती का सोचा था संसार में
अब फंसा पड़ा है
बेकार के कामों में.
मूर्खता में मज़ा नहीं
बुद्धिमत्ता में खुशी नहीं
उम्मीद
नौजवान लड़की नहीं है अब हाय.
ईश्वर सोच रहा था अंततः
आदमी अच्छा और मजबूत दोनों है
पर अच्छा और मजबूत
अभी भी दो अलग अलग आदमी हैं.
हम कैसे रहें? किसी ने मुझसे चिट्ठी में पूछा
मैं भी उससे पूछना चाहती थी
वही प्रश्न.
बार-बार, हमेशा की तरह
जैसा कि हमने देखा है
सबसे मुश्किल सवाल
सबसे सीधे होते हैं.
(अनुवाद: हरिमोहन शर्मा)
अंत में संस्था की तरफ़ से खान अहमद फ़ारुक साहब ने धन्यवाद प्रस्ताव पेश किया। वक्ताओं, श्रोताओं के प्रति उनकी उपस्थिति के लिए आभार कहा। खान अहमद फारूक साहब खुद बहुत अच्छे वक्ता हैं और पहले की व्यायाख्यान माला में उनके वक्तव्य को लोगों ने बहुत चाव से चुना था।
गोष्ठी में सारे शहर के लगभग सभी प्रबुद्ध माने जाने वाले लोग उपस्थित थे। गोष्ठी के बाद चायपान करते हुए लोगों के अपने विमर्श शुरू हुए।
आपस के विमर्श ही आगे चलकर सामाजिक विमर्श का ज़रिया बनते हैं।
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