Monday, January 30, 2017

बजट देश का बनाम घर का



बजट माने आमदनी और खर्चे का हिसाब-किताब। आज वैसे तो सब कुछ बाजार तय करता है। लेकिन देश का बजट सरकार बनाती है। बजट बनाने का काम बातें बनाने से ज्यादा जिम्मेदारी का होता है। बातें बनाने में जो सबसे होशियार होता है उसको यह काम सौंपा जाता है। बढिया कपड़े पहने, ब्रीफ़केस थामे वित्त मंत्री संसद में पहुंचकर बजट पेश कर देता है। थोड़ी देर तक लोग सुनते हैं। मेजें थपथपाते हैं। फ़िर ऊंघने लगते हैं। टीवी पर बजट देखते लोग चैनल बदलकर चाय पीने लगते हैं।

अक्सर वित्त मंत्री बजट पेश करते हुये एकाध शेर सुना देते हैं। बजट के दरम्यान शेर सुनाने का मकसद यह जाहिर करना होता है कि बजट को लेकर ज्यादा सीरियस होने की जरूरत नहीं है। शेरो शायरी की तरह ही इसे मन बहलाव के रूप में लिया जाये। पैसे पर किसी का जोर नहीं है। अपनी मर्जी से आता-जाता है। शेरो शायरी भी आमतौर पर गुजरे हुये शायरों/कवियों की होती है। वित्तमंत्री को भी खटका लगा रहता है कि हालिया शायर का कलाम पेश किया तो कहीं रायल्टी या फ़िर राज्यसभा की सीट न मांगने लगे शायर कि गजल पूरी सुनायेगा।

कुछ लोगों का कहना है कि बजट के समय शेरो-शायरी की बजाय चुटकुले सुनाये जाने चाहिये। चुटकुले आसानी से समझ आ जाते हैं। इस बारे में जब हमने एक भूतपूर्व वित्त मंत्री की राय मांगी तो नाम न बताने की शर्त के साथ उन्होंने खुलासा किया- ’बजट अपने आप में एक बड़ा चुटकुला होता है। ऐसे में और चिल्लर चुटकुले सुनाना राजा भोज और गंगू तेली जैसी बात हो जायेगी।’

बजट को चुटकुला कहने वाली बात पर हमने मंत्री की कड़ी निन्दा कर दी। कहा- ’ऐसा कहना देशद्रोह है।’ इस पर वे हंसने लगे। उनको देखकर हमें भी हंसने के लिये मजबूर होना पड़ा। मजबूरी जो न कराये।

बजट पेश होने के बाद उस पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की रस्म निभाई जाती है। सरकार के सहयोगी बजट को अच्छा, प्रगतिशील और सकारात्मक बताते हैं। विरोधी इसको खराब, विकास विरोधी और नकारात्मक बताते हैं। प्रतिक्रिया देने का यह अभ्यास इतना सटीक होता है कि लोग सोते से जागकर बिना बजट भाषण सुने उस पर अपनी राय जाहिर कर सकते है। कोई राजनेता किस दल का है इसकी पहचान बजट पर उसकी राय से की जा सकती है बशर्ते उसने राय देने के तुरंत पहले दलबदल न किया हो।
बजट पेश होने के बाद टेलिविजन वाले उसकी समीक्षा करते हैं। टेलिविजन वाले अर्थशास्त्रियों को पकड़कर चैनल पर बजट चर्चा करते हैं। अर्थशास्त्री का चुनाव करने समय चैनल वाले शायद यह देखते होंगे कि बंदा इंटर में अर्थशास्त्र में फ़ेल तो नहीं हुआ था। इसके अलावा यह कि वह इकोनामी में हालिया फ़ैशन वाले जुमले जैसे कि फ़िस्कल, डिपाजिट, ग्रोथ, डिप्रेसियेशन, अप्रेशियेशन, डिनोमिनेशन बिना अटके बोल पाता है कि नहीं। इस बार जिन लोगों के चुनाव हुये उनके नोटबंदी पर बयान भी नोट किये जा रहे हैं।
एक अर्थशास्त्री ने तो साफ़ कह दिया -’मैं तो डिनोमिनेशन की जगह नोटबंदी ही बोलूंगा। इसकी अंग्रेजी बोलने में दस में ग्यारह बार जबान अटकती है।’
कुछ चैनल सड़क चलते, बस पकड़ते, सब्जी खरीदते, दाल छौकते, अंडा उबालते , चाय छानते लोगों के मुंह के आगे कैमरा अड़ाकर बजट के बारे में बयान उगलवा लेते हैं। लोग भी अदबदाकर बवाल काटने की गरज से कुछ भी बोल देते हैं। आम तौर पर लोगों का ’बजट बयान’ विशेषज्ञों के मुकाबले बेहतर समझ में आने वाला होता है।
बजट बनाने के लिये जो टीम चुनी जाती है उसे हफ़्तों सबसे अलग रखा जाता है। बजट लीक न हो इसका ख्याल रखने के लिये उनको घर-परिवार से काट दिया जाता है। बाहरी दुनिया से एहतियातन उनका संपर्क कट जाता है। कुछ लोग कहते हैं कि उनको बनाये बजट के चलते हुये देशवासियों की हुई तकलीफ़ के बदले एडवांस में ’बजट इमारत’ में सजा-ए-तन्हाई दी जाती है। लीक होने की बात पर लोगों का कहना होता है कि जिनके इशारे पर बनता है उनको बजट लीक की क्या जरूरत। कहीं कुछ मनमाफ़िक न हुआ तो बाद में बदलवा लेते हैं लोग।
बजट के दौरान तमाम तरह की योजनायें अपने साथ होने वाले सलूक की कल्पना करती हुई सहमी सी पड़ी रहती हैं। उनके हाल मंदी के समय शुक्रवार को ’पिंक स्लिप’ मिलने की आशंका में दिन बताने वाले कामगार सरीखे हो जाते हैं। गये साल मलाईदार मानी जानी वाली योजना की धुकपुकी इस बजट में खटाईदार बन जाने की आशंका से बढी रहती है। शिक्षा बजट, स्वास्थ्य बजट गरीबों की पेट की तरह सिकुड़ने के लिये अपने को तैयार करने लगते हैं। किसानों के कर्ज माफ़ी वाला बजट पूरी गर्मी बीत जाने पर बादल की उमड़-घुमड़ से थोड़ा उत्साहित दीखता है।
मध्यवर्ग की रुचि इनकम टैक्स में छूट में सबसे ज्यादा रहती है। सरकारी कर्मचारी का एकसाइज/सेल्सटैक्स में बदलाव न देखकर खुश हो जाता है कि फ़ाइलों में बदलाव का बवाल बचा। अखबारों में बजट के विवरण समझ में न आने वाले अंदाज में हफ़्तों छापे जाते हैं। परस्पर विरोधी विद्वानों की राय छापी जाती हैं। क्या मंहगा हुआ , क्या सस्ता यह बताया जाता है। सस्ते के लिये धड़ाम, मंहगे के लिये आसमान लिखा जाता है। जिन अखबारों के संवाददाता बजट की बातें नोट करने में चूक जाते हैं वे वित्त मंत्री की ड्रेस पर ध्यान केंद्रित करके उसका सौंदर्य वर्णन करते हुये ’बजट रिपोर्ट’ बना देते हैं।
घर का बजट का सीन भी इससे अलग नहीं होता। पैसे होने पर सबके हर अरमान पूरे होते हैं। तंगी होने पर आगे से संभलकर खर्च करने के कभी न अमल में लाये जाने वाले प्रण लिये जाते हैं। जिसके खर्च में कटौती होती है वही नेता विरोधी दल बन जाता है। बजट को विकासविरोधी बताता है। थोड़ी सी मांग पूरी हो जाने पर खुश हो जाता है। समर्थक दल में वापस आ जाता है।
सरकार और घरेलू लोगों के अलावा एक बहुत बड़ा तबका ऐसा है जिसको बजट नाम की चिडिया का ’ब’ तक नहीं पता। बजट में जिन नौकरियां, घर, सुविधाओं की घोषणा होती हैं वे उन तक पहुंचने की बात तो छोड़ दीजिये उनकी खबर तक उन तक नहीं पहुंचती। उनको पता ही नहीं चलता कि सरकार उनके भले के लिये करोड़ों, अरबों, खरबों खर्च का पयाना बांधे हुये है। बजट की कोई हलचल उन तक नहीं पहुंचती। बजट चाहे 28 फ़रवरी को पेश हो जाहे 1 फ़रवरी को उनको इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता। रोज की रोजी-रोटी जुगाड़ना और अगले दिन का सूरज देखने की चुनौती ही से जूझते हुये ऐसे लोगों के लिये ’बजट पर बातें’ करना विलासिता की बातें हैं।
आबादी के लिहाज से देश के इस सबके बड़े तबके की चिन्ता भाषणों के अलावा कहीं होती नहीं, घर इनके पास है नहीं ऐसे में इनके बजट की बात क्या की जाये। सालों से बजट उनके लिये एक तमाशा है :
तमाशा है 
जो ज्यों का त्यों चल रहा है
अलबत दिखाने के लिये
कहीं-कहीं सूरते बदल रहा है।
खैर उनकी बात छोडिये। उनका तो हमेशा से ऐसे ही चलता आया है। आगे भी चलेगा। देश का बजट वित्तमंत्री जी देख लेंगे। आप बताइये आपका बजट कैसा होगा?

Saturday, January 28, 2017

मोदी डांस, सोनिया डांस

घंटाघर चौराहे के पास सड़क पर खड़ा यह नौजवान अचानक मोदी, मोदी, मेरा मोदी का नारा लगाते हुये बीच सड़क पर डांस करने लगा। सीने पर मुहर्रम वाले अंदाज में हाथ मारते हुये मोदी के समर्थन में पैरोडी वाले गाने गाता हुआ करीब पांच मिनट तक डांस करता था। सवारियां उसको और खुद को बचाते हुये आगे निकलती रहीं। टेम्पो और रिक्शे बगलियाते हुये निकलते रहे। सवारी के इंतजार में खड़े टेम्पो वाले और पास के होटल वाले ने बताया -’आज पहली बार देखा इसको।’
कुछ देर में मोदी डांस करते उस युवक ने अपनी ऊपर की बनियाइन सौरभ गांगुली वाली स्टाइल में घुमाते हुये सड़क पर फ़ेंक दी और ज्यादा उन्मुक्त होकर सड़क पर डांस करने लगा। डांस करते हुये हाथ में लिया हुआ लाल टीका भी लगाता जा रहा था माथे पर।
कुछ देर के डांस के बाद थक गया वह तब ’डांस ब्रेक’ के लिये रुका तो हमने उससे बतियाने की कोशिश की। डांस की तारीफ़ सुनकर उसने कहा -’ अब सोनिया डांस भी दिखाते हैं।’
हम कुछ कहें इसके पहले ही उसने बीच सड़क पर स्टार्ट एक्शन लिया और पंजे का निशान बनाते हुये सोनिया , सोनिया कहते हुये ठुमकने लगा।
दो विरोधी दलों के शीर्ष नेताओं के नाम पर एक सरीखी श्रद्धा से डांस करते हुये उस युवक का व्यवहार एकदम कारपोरेट सरीखा था जो हर पार्टी को एक समान श्रद्धा से चंदा देते हैं ताकि जो भी जीते लेकिन सरकार अपनी ही हो।
कुछ देर में थककर वह नौजवान रुक गया और फ़िर टहलते हुये कहीं चला गया।
अपडेट: वीडियो कमेंट में देख सकते हैं। 

Wednesday, January 25, 2017

धूप थोड़ी देर से आयी आज

धूप थोड़ी देर से आयी आज
दिन लगा एक बार फ़िर झुंझलाने
हमेशा देर से आती है धूप जाड़े में
थमाना होगा इसको भी नोटिस।
दिया कहीं नोटिस तो बैठ जायेगी
लंबी छुट्टी पर धूप चली जायेगी
ठिठुर जायेंगी सुबह, दोपहर,शाम
हफ़्तों आने में नखरे दिखायेगी।
धूप आहिस्ते-आहिस्ते से आती है
पेड़,पत्ती,फ़ूल को दुलराते,सहलाते
दिन धूप को देख मुस्काता है
ताजे गुलाब सा खिल जाता है।
-अनूप शुक्ल

Monday, January 23, 2017

दलबदल कि दिलबदल

चुनाव की तारीख आते ही दलबदल की घंटी बजने लगती है। जनसेवकों की नींद में धुत, खर्राटा मारती आत्मा जाग जाती है। हल्ला मचाने लगती है- “उठो लली अब आंखे खोलो, जनसेवा हित फ़ौरन दल बदलो।“ जैसे कांजीहाउस में कैद जानवर दीवार टूटने पर अदबदाकर जिधर सींग समाया उधर भागते हैं वैसे चुनाव की घोषणा होते ही जनसेवक जिस पार्टी से सीट पक्की हो उस पार्टी में शामिल हो जाते हैं। जिनसे कभी 36 के आंकड़े थे वे उलटकर 63 में बदल जाते हैं।
जनसेवक की सार्थकता जनता की सेवा में है। जनसेवा मतलब टिकट मिलना, चुनाव लड़ना, विजयी होना और सरकार में कोई सेवादार पद प्राप्त करना। पद न मिला तो सेवा कार्य में अड़चन होती है। इसीलिये लोग संभावित सत्ता पाने वाले दल से चुनाव लड़ना चाहते हैं। उसी से जुड़ना चाहते हैं। चुनाव के समय चलने वाली हवा में वे सरकार बनाने वाली पार्टी को सूंघते हैं। आदमी कुत्ते में बदल जाता है। आत्मा की आवाज पर जमीर बेंच देता है। दलबदल लेता है। अकेले या समर्थकों सहित नये दल में शामिल हो जाता हैं।
पहले लोग दलबदलुओं को खराब निगाहों से देखते थे। सोचते थे कि सत्ता के लिये दलबदल किया। लालची है। लोलुप है। लेकिन समय के साथ लोगों की सोच बदली है। दलबदल अब मौका परस्ती नहीं रहा। वह उचित अवसर की पहचान है।
एक ही दल में रहते हुये जननेता की इज्जत कम होती जाती है। बेटा बाप को अध्यक्षी से बेदखल कर देता है। चेले गुरु को मार्गदर्शक मंडल के किले में कैद कर देते हैं। सलाह तक लेना बन्द कर देते हैं। उसको आशीर्वादी रोबोट में बदल देते हैं। उसकी इज्जत करने लगते हैं। राजनीति में नेता की सबसे बड़ी बेइज्जती तब ही होती है जब लोग उसकी केवल इज्जत करने लगे। जबकि दलबदल में हमेशा संभावनायें बनी रहती हैं। एक दल के मार्गदर्शक मंडल में गिना जाने वाला नेता दल बदलते ही नवोदित हो जाता है।
पहले जनसेवा सरकारी नौकरी की तरह थी। लोग जिस दल से राजनीति शुरु करते उसी में ताजिन्दगी रहते। अब सरकारी नौकरियां खत्म हो रही हैं। हर काम ठेके पर हो रहा है। प्राइवेट नौकरियां बढ रही हैं। इनमें काम करने वाले नौकरी बदलते रहते हैं। आज किसी कंपनी में काम करने वाला कर्मचारी कल को प्रतिद्वन्दी कम्पनी में दोगुनी तन्ख्वाह में काम पा जाता है। चुनाव में सरकार बनाने के लिये पैसा कारपोरेट देता है। इसलिये कारपोरेट की आदतें भी चुनाव लड़ने वाले अपना लेते हैं। जिसका पैसा होगा उसी की तरह हरकतें भी तो करेंगे। चुनाव में दलबदल करते रहते हैं। जो पार्टी बढिया पैकेज दे उसको ज्वाइन कर लेते हैं।
जनसेवा के लिये दलबदल करता जनसेवक केदारनाथ सिंह की कविता के सड़क पार करते आदमी की तरह आशा का संवाहक होता है:
“मुझे सड़क पार करता हुआ आदमी
हमेशा अच्छा लगता है
क्योंकि इससे एक उम्मीद बँधती है
कि सड़क के उस ओर शायद एक बेहतर दुनिया हो। “
दलबदल के बाद जनसेवक नये नारे लगाने लगता है। नयी बेवकूफ़ियां करने लगता है। नयी तरह से जनता को बेवकूफ़ बनाने लगता है।
दलबदल के पीछे कारण जनसेवा के क्षेत्र में बढती गलाकाट प्रतियोगिता है। जनसेवा में बरक्कत बहुत है। भौत पैसा है। जिनके पास कभी खाने के लाले पड़े रहते थे उनके नाम आय से अधिक सम्पत्ति में दर्ज हो जाता है। जनसेवक जहां हाथ मार देते हैं वहां से पैसा फ़ूट पड़ता है। इसलिये हर जनसेवक चाहता है कि जाहे जान भले ही चली जाये लेकिन जनसेवा का अवसर हाथ से न जाये। एक बार जनसेवा से बेदखल हुये तो गये काम से। जनसेवा का अवसर मिलना जनसेवक के लिये जरूरी होता है। चुनाव में टिकट मिलना जनसेवक के लिये उतना ही जरूरी होता है जितना जरूरी आईसीयू में आक्सीजन। टिकट न मिला तो गया जनसेवक।
इसीलिये चुनाव का बिगुल बजते ही जैसे ही जनसेवक की आत्मा जागती है वह दिल को दलबदल का आदेश देती है। दिल कभी-कभी दलबदलने से मना करता है। दिल है कि मानता नहीं आत्मा की आवाज। लेकिन आत्मा तो हाईकमान होती है। वह दलबदल को जरूरी मानती है। दिल अगर जिद करता है तो वह दिलबदल कर दलबदल कर लेती है। दिल का बाईपास कर लेती है। करोड़ों के चुनाव खर्च में कुछ लाख का खर्च बाईपास के लिये सही। नये दिल से नये दल में प्रवेश करती है। नया दिल, नये दल में धड़धड़ करता हुआ नये नारों की गूंज में जनता की नये तरह से सेवा की कसमें खाता है।
जनता बेचारी दलबदल करके आये जनसेवक से सेवा कराने के लिये अपने को तैयार करने लगती है। जनता के पास सेवा कराने के अलावा और कोई विकल्प भी तो नहीं है।

Thursday, January 19, 2017

सड़क पर जिन्दगी



कल दोपहर सड़क पर धूप में टहलते हुये जिन्दगी से रूबरू हुये। लोगों से गपियाये, बतियाये। फ़ोटो खैंचे। सबकी कमेंट्री फ़ोटो के साथ है। देखिये साथ लगी फ़ोटो।
सबसे पहली फ़ोटो खैंची दो बुजुर्ग महिलाओं की। वे धूप में बैठी बतिया रही थीं जैसे कभी अम्मा दोपहर में धूप तापते हुये आराम करती थीं।
संयोग कि शुरुआती कई फ़ोटो बुजुर्गों के ही आये। लगा कि फ़ोटो थीम ’सड़क पर मार्गदर्शक लोग’ रखा जाये। लेकिन फ़िर युवा लोग भी दिखे। जिन्दगी धड़कती हुई दिखी। धड़कती हुयी एकदम -धड़धड़ाती हुई।
जितनी फ़ोटो खैंच पाये उससे ज्यादा खैंच नहीं पाये।
एक बुजुर्ग महिला , जिसकी उमर 70 के करीब होगी, एक युवा से लड़के को सड़क पार करा रही थी। बुढिया हांफ़ रही थी , बच्चे को सड़क पार करा रही थी। बच्चा शायद मानसिक दिव्यांग था। बुजुर्ग महिला बच्चे का हाथ थामे हुये अपने साथ , हाफ़ते हुये , ले जा रही थी। बुढिया का सहारा बन सकने की उमर में बच्चा खुद के लिये सहारे का मोहताज था।
झकरकटी पुल के ऊपर से देखा एक बच्चा सड़क पर साइकिल चला रहा था। अचानक हैंडल मुड़ गया। बच्चा सड़क पर गिर गया। बच्चे ने पीछे देखा। कोई दिखा नहीं जिसके मत्थे अपने गिरने का आरोप लगा सके। साइकिल उठाकर वह फ़िर घुटने सहलाते हुये पैडलियाते हुये चला गया।
एक बस पर कुछ लोग साइकिलें लाद रहे थे। बस गोला जा रही थी। फ़ोटो खैंचते तो बढिया आता। लेकिन तब तक बैटरी खल्लास हो चुकी थी।
एक जगह हमको फ़ोटो खैंचते देख एक लड़के ने कुछ पूछा तो हमने बताया ऐसे ही खींच रहे हैं फ़ोटो। तुम्हारी भी खींच लें?
वो बोला - "हम क्या सलमान खान हैं जो हमारी खैंचोगे। आज वो भी अंदर हो जायेगा।"
हमने कहा -"वो तो छूट गया।"
उसने कहा-" उसके पास बहुत पैसा है। खूब पैसा पेल देगा। निकल आयेगा बाहर। पैसा अंदर-हीरो बाहर।"
एक लड़की अपनी सहेली को साइकिल के कैरियर पर बिठाये चली जा रही थी। साइकिल धीमी हुई। साइकिल चलाती हुई लड़की ने उचककर जोर से हईस्सा वाला पैडल मारा। साइकिल चल दी। पीछे बैठी बच्ची पैर सड़क से दो इंच उपर उठाये बत्तख के पंखो से हिलाती चलती जाती दिख रही थी।
एक रिक्शावाला रिक्शा चलाता जा रहा था। उसका शायद एक पैर खराब था। वह एक पैर से पैडल को धक्का लगाता। दूसरा पैर सीधा रखते हुये पैड़ल के नीचे आने का इंतजार करता। जब आ जाता तब उसको धक्का लगाते हुये आगे चलता।
एक जगह एक बच्ची खुले में ईंटों की आड़ में पीठ के सहारे छिपी हुई थी। शायद छुपन-छुपाई /आइस-पाइस खेल रही थी। मजे की बात वह खुले में छिपी थी। उसको खोजने वाला अंदर अंधेरे में था कहीं। उसको खुले में छिपते देखकर हमें लगा कि हम दुनिया में बहुत कुछ ऐसा यह सोचकर करते हैं कि हमको कोई देख नहीं रहा। लेकिन ऐसा होता नहीं है। हमको तमाम लोग देख रहे होते हैं। भले ही हमको दिखता नहीं हो।
बच्ची को सड़क पर छुपन-छुपा देखते हुये यह भी लगा कि हममें से तमाम लोग बड़े होकर बचपन के खेलों को याद करते हुये सोचते हैं कि अब बच्चे उन खेलों को खेलते नहीं हैं। लेकिन ऐसा होता नहीं है। दुनिया में कोई भी खेल कभी खतम नहीं होता। वे किसी न किसी रूप में अस्तित्व में बने रहते हैं। बस उनके खेलने वाले बदल जाते हैं।
देखिये अब फ़ोटो इत्मिनान से। जिसका उन्वान मने शीर्षक है ’सड़क पर जिन्दगी।’
कैसा लगा बताइयेगा।

Wednesday, January 18, 2017

मोबाइल चौपाल

एक घर में कई मोबाइल रहते थे। तरह-तरह के। कोई पुराने माडल का। कोई एकदम नया। घर के अलग-अलग सदस्यों के साथ रहते-रहते मोबाइल की दिनचर्या भी उनके मालिकों के हिसाब से ढल गयी थी। कोई जेब में रहने का आदी था तो कोई पर्स में। किसी को तकिये के नीचे सुकून मिलता तो कोई मेज पर ही पड़ा रहता। लावारिश सा। किसी पर दिन भर फ़ोन आते तो किसी के कान घंटी सुनने को तरस जाते। मोबाइल एक ही घर में रहते परिवार के सदस्यों सरीखे आपस में कभी मिल नहीं पाते थे। कभी जेब में, पर्स में आते जाते दूसरे मोबाइल को देख भर लेते जैसे घर के सदस्य घर से बाहर आते-जाते एक दूसरे को देख लेते। कभी-कभी यह भी होता कि एक साथ घंटी बजने पर दूसरे के होने का पता चलता जैसे घर के सदस्य आते जाते बोल-बतिया लेते तो उनको लगता कि उनके अलावा कोई दूसरा भी है घर में।
एक दिन जाने क्या हुआ कि किसी ने घर के सारे मोबाइल एक मेज पर रख दिये। रख क्या दिये मेज पर लिटा दिये। ऐसा लगा कि सारे मोबाइल अगल-बगल की कब्रों में लेटे हुये हैं। पर कब्र लिखना ठीक नहीं होगा क्योंकि मोबाइल बाकायदा जिन्दा थे। उनमें घंटियां बजती थीं। वाइब्रशेसन मोड में नागिन डांस सा करते तो लगता कि उनके पेट में मरोड़ सरीखी उठी है। हाथ से छूटकर कभी गिरते तो आवाज होती। इससे लगता कि शायद उनको भी चोट लगती हो। दर्द होता हो। गिरने पर चिल्लाते हों- ’अरे, बाप रे, हाय अम्मा। मर गये।’
गिरने पर किसी-किसी मोबाइल की तो बैटरी निकलकर उनसे इत्ती दूर जाकर गिरती कि मानों कसम खा रही हो कि कुछ भी हो जाये अब इस मोबाइल के साथ नहीं रहना। इससे अब नहीं पटनी अपन की। लेकिन कुछ ही देर में शरीफ़ गृहस्थन सरीखी मोबाइल के करेंट सप्लाई करने लगती। तो जब साथ-साथ लेटे दिखे तो मोबाइल तो लगा कि किसी कोचिंग मंडी वाले शहर के किसी पेइंग गेस्ट वाले हास्टल में बच्चे एक के बगल में एक लेटे हुये हों।
अब जब मोबाइलों ने एक-दूसरे को साथ-साथ देखा तो सब आपस में बतियाने लगे। अब वे मोबाइल थे कोई आदमी तो थे नहीं जो मिलने पर बातचीत की शुरुआत ही यह सोचकर नहीं कर पाते कि पहले कौन शुरु करे। मोबाइल एक दूसरे के हाल-चाल पूछने लगे। बतियाने लगे। कोई क्रम नहीं था उनकी बातचीत में। न हम उनकी भाषा समझते थे लेकिन अन्दाज लगा सकते हैं कि वे क्या बतियाये होंगे आपस में। उनमें सीनियारिटी, जूनियारिटी का भी कोई लफ़ड़ा नहीं था इसलिये बेतकुल्लुफ़ जो मन आ रहा था बतिया रहे थे। हमको जैसी समझ में आई उनकी बातें वैसी ही आपको बता रहे हैं।
एक एकदम नये से मोबाइल को सब मोबाइल को देखकर चौंधिया से गये। मोबाइल एकदम चमक सा रहा था। लेकिन मोबाइल के चेहरे पर दुख सा पसरा था। असल में वो घर में सबको बुजुर्ग सद्स्य के साथ रहता था वो उस जमाने का था जब फ़ोन का मतलब सिर्फ़ ’हलो हलो’ होता था। मोबाइल के तमाम नये से नये फ़ीचर उसके लिये बेमतलब थे। फ़ोन भी वो बस इतना ही प्रयोग करता जितना भयंकर डायबिटिक मिठाई खाता होगा। फ़ोन कभी वो खुद नहीं करता था। कोई फ़ोन आता तो कांपते हाथों उठाता और जरा देर में ही –’अच्छा, रखते हैं’ कहकर रख देता। फ़ोन बेचारा अपने सारे लेटेस्ट फ़ीचर के इस्तेमाल की तमन्ना लिये कुढता रहता। उसको लगता कि जैसे इंजीनियरिंग करने के बाद संविदा पर पानी पिलाने के काम में लगा दिया गया हो। उसके हाल उन राल्स रायस कारों सरीखे थे जिनको एक राजा ने कूड़ा ढोने के काम में लगा दिया था। कभी-कभी वह ऐसे ही सोचने लगता जैसे की कब्र में पांव लटकाये शेखों की एकदम नयी उमर की बीबियां सोचती होंगी। फ़ोन हमेशा में मनौती मानता रहता –’ हे भगवान हमको इसके पास से किसी नई वाले के पास भेजो। चोरी ही करा दो। कुछ तो उपयोग हो हमारा।’ लेकिन उसकी बूढे मालिक से दूर जाने की हर तमन्ना अधूरी ही रह जाती क्योंकि बुजुर्गवार के पास और कोई काम तो था नहीं सो उसकी ही देखभाल करते।
एक बुजुर्ग मोबाइल जो देखने में ही मार्गदर्शक मोबाइल टाइप लगा था अपने किस्से सुनाते हुये बोला- ’हम इस घर के पहले मोबाइल थे। घर के अकेले मोबाइल थे हम। सब हमको अपने हाथ में लपकते रहते। सब अपने-अपने तरह से प्रयोग करते हमको। कोई फ़ोटो खैंचता, कोई बतियाता, कोई गेम खेलता। उन दिनों फ़ोन की दरें इतनी सस्ती थी तो थीं नहीं कि जित्ता मन आये बतियाओ। लोग फ़ोन करते जो घड़ी देखते रहते कहीं ज्यादा खर्च न हो जाये। घड़ी देखने के चक्कर में यह भी भूल जाते बात क्या हुई। हर काल के बाद बैलेन्स चेक करते। खर्चा बचाने की गरज से फ़ोन करने अधिकार केवल बड़े लोगों को था। पर काल रिसीव करने का अधिकार सब लोगों को था। घंटी बजते ही बच्चे इत्ती तेज भागते बच्चे हमको उठाने के लिये कि अगर उत्ती तेज ओलम्पिक में भागते तो गोल्ड मेडल झटक लाते। बच्चे लोग गेम खेलते रहते। बीच की उमर वाले बच्चे जिनको फ़ोन करने की इजाजत नहीं थी वो मिस्ड काल करके अपने फ़ोन करने की हसरत मिटाते। कोई भी दस डिजिट का फ़ोन अपने मन मिलाते। नम्बर दस में नौ बार गलत होता। किसी एक नम्बर पर घंटी जाती तो खुश हो जाते और फ़ौरन फ़ोन काट देते कि कहीं उधर से उठ न जाये। सबके हाथ में रहते घूमते दिन कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता।
नये वाले मोबाइल बुजुर्ग मोबाइल के हाल देखकर ताज्जुब करने लगे और सोचने लगे कहीं यह झूठ तो नहीं बोल रहा अपना भाव बढाने के लिये। लेकिन उसकी हालत पर तरस खाकर वे कुछ बोले नहीं। बुजुर्ग मोबाइल बोला- ’अक्सर हमको अपने पास रखने के लिये घरवालों में बहस तक हो जाती। बच्चे हमारे लिये छीना झपटी करने लगते। एक दिन तो इतना हल्ला मचा कि घर वाले ने मारे गुस्से के हमको मेज पर पटक दिया। प्लास्टिक की मेज में तिकोना छेद हो गया। हमारी बैटरी अलग गिरी, कवर अलग, सिम कहीं और। हमारा तो रामनाम ही सत्य हो गया था। लेकिन पुराने जमाने के मोबाइल थे हम। फ़ौरन जुड़े और चलने लगे। अब भी जब कभी उस मेज पर धरे जाते हैं तो मेज अपने घाव की तरफ़ इशारा करते हुये कहती है तुम्हारे ही चक्कर में चोट खायी है हमने यह। हम भी मुस्करा के रह जाते हैं। कभी सारी बोलते हैं तो मेज झिड़क देती है कहते हुये-’ इसमें तुम्हारा क्या दोष। हम तो बने ही उपभोग के लिये हैं। इसी बहाने हमारी तुम्हारी खुशनुमा याद तो है।’ जब वह खुशनुमा कहती है तो मन कैसा हो जाता है वह नयी पीढी के तुम लोग नहीं समझोगे जो ’हलो, हाय बोलने के पहले आई लव यू बोलने के आदी हो गये हैं।’
बुजुर्ग मोबाइल के किस्से को नये मोबाइल मुंह बाये सुन रहे थे। उसके हाल देखकर सब सोचने लगे कि बताओ कभी पूरे घर में राज करने वाले का हाल यह हो गया कि कोई पूछता तक उनको। पड़ा रहता एक कोने में मेज की दराज में। कोई पेपरवेट तक के काम के लिये उसका उपयोग नहीं करता। सब फ़ोनों को एक बार फ़िर से लगा कि किसी को अपने हाल पर बहुत घमंड नहीं करना चाहिये कि वही सबसे अच्छा है। एक दिन सबके इस बुजुर्ग मार्गदर्शक मोबाइल होने हैं जिसका उपयोग लोग मारपीट में ही करने की सोचेंगे।
एक ब्लैकबेरी का मोबाइल बेचारा किसी आईसीयू में मरीज की तरह लेटा हुआ था। उसके अगल-बगल के रबड़ के पार्ट निकले हुये थे। एकदम अधनंगा सा लग रहा था मोबाइल। फ़टेहाल। सूखे इलाके के किसान सरीखा उजड़ा-उखड़ा मुंह। उसके हाल देखकर ऐसा लग रहा कि जैसे किसी पुरातात्विक इमारत के दरवाजे, खिड़कियां लोग निकालकर ले गये हों। देखकर लग ही नहीं था कि कभी इस मोबाइल का जलवा सारी दुनिया में था। उसकी बैटरी भी निकली हुई थी। बिना बैटरी के मोबाइल ऐसे गृहस्थ सरीखा लग रहा था जिसकी घरवाली भरी बुढौती उसको अकेला छोड़कर चली गयी हो।
ब्लैकबेरी मोबाइल कुछ बोल नहीं पा रहा था। उसका सिम भी हटा दिया गया था। उसके हाल उस दबंग दरोगा सरीखे थे जिसको कप्तान की बीबी की नाराजगी के चलते लाइन हाजिर करके किसी थाना किसी दूसरे दरोगा को थमा दिया गया हो। मोबाइल बेचारा अपने सिम और बैटरी के वियोग में उदास उजड़ी आंखों से दूसरे मोबाइलों को सूनी आंखों से ताक रहा था। सबने उसकी तरफ़ से आंखे फ़ेर लीं लेकिन वह अपना अपराध बोध बयान करने लगा-’ हमारे साथ वाली बैटरी कभी हमको छोड़कर नहीं गयी। हमेशा हमारे साथ रही। हमारे कारण ही गरम होकर वह फ़ूल गयी। हमने बेमतलब उस पर शक किया और फ़िर कवर खोलकर बाहर कर दिया। पता नहीं कहां होगी वह आज। किसी कूड़ेदान में या किसी गाय के पेट में।’ मोबाइल बेचारा बैटरी और बिछड़े सिम की याद में डूब गया।
जो मोबाइल नयी उमर के लोगों के पास थे उनके किस्से अलग टाइप के थे। वे इत्ती जल्दी-जल्दी अपनी बात कह रहे थे कि पता ही नहीं चल रहा था कि आवाज किसके मुंह से निकल रही थी।
एक बोला – ’हमारी तो बैटरी इत्ती जल्दी खतम हो जाती है उत्ती जल्दी तो बाबू लोग सरकारी ग्रांट भी नहीं खर्च कर पाते। इधर भरी उधर खल्लास। हमेशा पावरबैंक के सहारे दिन कटता है। ऐसा लगता है जैसे डायलिसिस पर हों। जरा देर के लिये पावरबैंक हटा कि पूरा ब्लैक आऊट हो जाता है।’
दूसरा बोला-’ पहले ये चार्जिंग वाली पिन इत्ता जोर से चुभता थी जैसे कोई मोटी सुई चुभा रहा हो। अब हाल यह हो गये हैं कि चार्जिंग प्वाइंट और पिन दोनों इत्ती ढीली हो गयी हैं कि मिलते ही बुजुर्ग दम्पतियों की तरह झगड़ने लगते हैं। मिलते ही चिंगारी निकलती है। बिना चिंगारी निकले चार्ज ही नही होता। जाने कब नया जार्जर नसीब होगा।
वह कुछ और कहता तब तक बगल वाला मोबाइल बोला –’ आजकल हर मोबाइल नया चार्जर चाहता है। हरेक की तमन्ना रहती है कि उसको नया चार्जर चार्ज करे। लेकिन सिर्फ़ चाहने से होता तो फ़िर बात की क्या थी। जो भाग्य में बदा है उसी से निभाना पड़ता है।’
एक मोबाइल अपने धारक के गुणगान करने में लगा था। मेरी ये तो मुझे कभी कान के पास से हटाती ही नहीं। इसकी सब सहेलियां ईयर प्लग यूज करती हैं लेकिन ये मुझे हमेशा कान से सटा के रखती हैं। बोलती इत्ता धीरे हैं कि मेरे पर्दे को जरा सा भी फ़ील नहीं होता कि कोई बोल रहा है। ऐसा लगता है कोई शहद घोल रहा है। फ़ोन करने के बाद इत्ता आहिस्ते से रखती हैं पर्स में कि जरा सा भी झटका नहीं लगता।
अरे यार तुम्हारे भाग्य बढिया हैं जो ऐसे के साथ हो। हम जिस लड़के के साथ रहते हैं वो तो हमें ऐसे पटकता है जैसे पुराने जमाने में लोग नौकरियों से इस्तीफ़ा पटकते थे। हर काल के बाद फ़ेंक देता है बिस्तरे पर। हड्डी पसली हिल जाती है। लगता है हमसे छुट्टी पाना चाहता है। आजकल मोबाइल भी तो रोज नये-नये आ रहे हैं।
ऐसे ही तरह-तरह की बातें करते हुये मोबाइल लोग इतना अंतरंग हो गये कि आपस में फ़ुसफ़ुसाते हुये साझा करने लगे कि उनके मालिक उनका कैसे उपयोग करते हैं।
एक बोला –’वो दिन भर में इत्ती सेल्फ़ी लेती है कि क्या बतायें। जितनी बार सेल्फ़ी लेती है मुझमें देखती है। मुझे कोसती है कि अच्छी नहीं आई फ़ोटो। अब हम मोबाइल हैं जैसा थोबड़ा होगा वैसा ही तो बतायेंगे मोबाइल से। कोई फ़ेसबुक फ़्रेंड थोड़ी हैं जो बिना देखे वाह, वाऊ, आसम, झकास, कटीली कहने लगें। तो वो फ़ोटो देखकर हमसे गुस्सा जाती है कि हमने अच्छी फ़ोटो नहीं खींची। पर वही फ़ोटो जब वो फ़ेसबुक पर अपलोड करती है तो बढिया कमेंट देखकर इत्ता प्यार से चूमती है कि बताते शरम आती है। मन करता है कि वह सिर्फ़ अपनी फ़ोटो खैंचकर अपलोड करती रहे।’
दूसरा मोबाइल बताने लगा-’ हमारा मालिक तो इत्ता मेसेजिंग करता है कि हमको लगता है हम फ़ोन न हुये मेसेज कुली हो गयी। दो ठो सिम हैं। दोनों पर एक साथ तमाम लोगों से बतियाता है। सबसे कहता है सिर्फ़ तुमसे ही बात कर रहे हैं। इत्ता झूठ बोलता है कि कभी तो मन करता है फ़ेंक के बैटरी मारे इस झुट्ठे के मुंह में। इत्ते सारे झूठे संदेशे सीने में लादे-लादे छाती दर्द करने लगती है हमारी। लेकिन अब क्या करें। जैसा मालिक मिला है वैसा निभाना पड़ेगा।’
मेसेजिंग की बात एक मजेदार बात आई। एक मोबाइल ने किस्सा मोड में आते हुये बताना शुरु किया। एक बार हमारे वाले मेसेज कर रहे थे। भाव मारने के लिये अंग्रेजी में टाइप कर रहे थे। नई दोस्त बनी थी। सो लव और हेट वाले मोड में थे। दोनों कहते थे कि अगर साथ टूटा तो आत्महत्या कर लेगें। आजकल के प्रेमियों में जाने कौन सा फ़ैशन चला है कि वे जीने की बात करने बाद में करते हैं, मरने का हिसाब पहले बना लेते हैं। तो हुआ यह एक दिन आदतन शुरुआत करते ही ’आई लव यू’ बोले। फ़िर ज्यादा ही इम्प्रेशन मारने के मूड में थे तो उनके लिये ’आई हेट’ लिख दिये जो इस संग से चिढते हैं। अब जाने इंटरनेट कनेक्शन गड़बड़ा गया कि अंग्रेजी के हिज्जे आगे-पीछे हो गये उस तक संदेशा जो पहुंचा वो था –’ आई हेट यू।’ उसने संदेश देखते ही सुसाइड कर लिया।
सब मोबाइल ओह, अरे, हाय दैया कहते हुये दुखी हो गये। इस पर उस मोबाइल ने बताया –’ अरे ऊ वाला सुसाइड नहीं यार, वो सुसाइड कर ली मतलब इनको ब्लाक कर दी। इनसे बातचीत बन्द की उसने। नये से बात करने लगे दोनों। नये से ’आई लव यू’ होने लगा।
सब मोबाइल बोलने लगे- ’बड़े बदमाश हो तुम हो बे। हमारी तो जान ही ही निकल गयी थी आत्महत्या की बात सुनकर।’
उस मोबाइल ने सबको आंख मारी और सब हंसने लगे। सब तरफ़ उनकी हंसी गूंजने लगी। इस बीच घर के लोग भी जग गये और सब अपने-अपने मोबाइल उठाकर अपने-अपने काम में जुट गये।

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Sunday, January 15, 2017

किताबें और मेले


सबको पता है कि मेलों का आयोजन मिलने-जुलने, जरूरत का सामान खरीदने-बेचने के अलावा मनोरंजन के लिये होता था। फ़िल्मों के जुड़वां भाई बिछुड़ने के लिये मेले ही आते थे। खरीद-बिक्री, मनोरंजन और मिलने-जुलने का काम आजकल मॉल्स में होने लगा है। इस लिहाज से मेले, मॉल्स के पूर्वज हैं। संयुक्त परिवार टूटने के बाद एकल परिवार की तर्ज पर मेलों की जगह अब मॉल्स ने ले ली है। मॉल्स की चहारदीवारी और मोबाइल के बढ़ते चलन के चलते मॉल्स में जुड़वां भाइयों का बिछुड़ना बन्द सा हो गया है।
पुस्तक मेला में किताबें बिकने के आती हैं। प्रकाशक बड़ी रकम खर्च करके दुकान लगाते हैं। जैसे महिलायें ट्रायल के नाम पर कपड़े पहनकर फ़ोटो खींचकर दुकान से निकल लेती हैं वैसे ही लेखक मेले में आकर किताबें उलटते-पलटते हैं। किताबों के साथ फ़ोटो खिंचाकर वापस रख देते हैं। इसके बाद अपनी किताबों की कम होती बिक्री पर चिंता करते हुये सेमिनार करते हैं।
पुस्तक मेले में प्रकाशक किताबें बेंचने के लिये तरह-तरह के फ़ंडे अपनाते हैं। किताबों के दाम दोगुने से भी अधिक करके आधे से भी कम दाम पर बेंचते हैं। मेला खत्म होते-होते छूट का प्रतिशत बढता जाता है। मेले में लाई हुई किताबें प्रकाशकों के लिये जवान बेटियों सरीखी होती हैं जिनको वह अपने पास से जल्दी से जल्दी विदा कर देना चाहता है।
लेखक भी प्रकाशकों का मुफ़्त का बिक्री एजेंट बन जाता है। मुफ़्त में या फ़िर चाय-नाश्ते के बदले दिन भर अपने जान-पहचान के लोगों को पकड़-पकड़कर किताब खरीदवाता है। किताबों पर ऑटोग्राफ़ देने की खुशी हासिल करने के लिये कई लेखक तो पाठकों को किताब अपनी तरफ़ से सप्रेम भेंट करने से भी नहीं चूकते। अधिकतर प्रकाशक बेचारे उस बंदर की तरह होते हैं जिनके हिस्से लेखक और पाठक रूपी बिल्लियों के हिस्से की रोटियी ही बदी होती हैं।
जैसे शहरों में उचक्के, जेबकतरे मोहल्ले के थाने के आस-पास ही पाये जाते हैं वैसे ही पुस्तक मेले में लेखक भी अपने प्रकाशक की दुकान के आसपास ही मंडराता मिलता है। उसको लगता है पता नहीं कब कौन ऑटोग्राफ़ लेने आ जाये।

जिन लेखकों ने पैसे देकर किताबें छपवाई होती हैं वे बेचारे दुकान के पास ही अपनी किताब की बिक्री की दुआ करते रहते हैं। उनको डर सा लगा रहता है कि दुकान से दूर होने पर दुआ कहीं कबूल न हुई तो कहीं प्रकाशक किताब की छपाई के और पैसे न मांग ले। पैसे देकर किताब छपवाने वाले लेखक के हाल उस मजूर जैसे होते हैं जिनको उनका ठेकेदार बिना मजदूरी के दिहाड़ी पर काम करवाने के बाद उनसे इस बात का कमीशन ऐंठ लेता है कि इस मजदूरी के प्रमाणपत्र के आधार पर तुमको सरकारी नौकरी के पात्र हो जाओगे।
किताबों के धंधे एकमात्र विलेन के रूप में कुख्यात प्रकाशक के लिये हर नया लेखक आशा-आशंका अनिश्चित कोलाज सरीखा होता है। उसके लिये यह अंदाज लगाना मुश्किल होता है कि लेखक उसके लिये हिट साबित होता या फ़्लॉप। इसीलिये प्रकाशक किसी अनजान लेखक पर दांव लगाने में हिचकते हैं। कुछ लोग किताब की बीमा के पैसे के रूप में छपाई का पैसा लेखक से धरवा लेते हैं।
लेखक से किताब छापने के पैसे वसूलकर प्रकाशक मीडिया को बताता है कि सस्ते दाम में पुस्तकें छापकर वह समाज और साहित्य की सेवा कर रहा है। लेखक बेचारा प्रकाशक को अपने पैसे से साहित्य सेवा का श्रेय लूटते देखता रहता है। उसको आशा रहती है कि शायद इस किताब के छपने के बाद वह सफ़ल लेखकों की गिनती में शामिल हो जाये और उसकी अगली किताब बिन पैसे छपे।
मेले में किताबों के लोकार्पण की धूम मची रहती है। पहले दिन से बिकने लगी किताबों का लोकार्पण मेले के पांचवे दिन होता है। यह कुछ ऐसे ही है जैसे ससुराल में तीन महीने रह चुकी किसी कन्या के फ़ेरे मंडप(लेखक मंच), दूल्हा (लेखक) और पंडित (विमोचनकर्ता) उपलब्ध होते ही करा दिये जायें।
पुस्तक मेले में लोकार्पण की संक्रमण इतना तगड़ा होता है कि मासिक पत्रिकाओं के प्रकाशक अपनी पत्रिकाओं के विमोचन करवाते हैं। किसी भी विमोचन समारोह में सर्जिकल मुद्रा में घुसकर अपनी पत्रिका को झंडे की तरह फ़हराते हुये विमोचन करा देते हैं। पुस्तक मेला शुरु होते-होते अगर ग्यारह न बजते होते तो शायद दैनिक समाचार पत्र रोज अपने अखबार का विमोचन कराने के बाद ही हॉकर को अखबार वितरण के लिये सौंपते।
मेले में लोकार्पण करने वाले लेखकों की पूछ भी बढ जाती है। मार्गदर्शक मंडल की स्थिति को प्राप्त लेखक की स्थिति-’बूढे भारत में आई फ़िर से नई जवानी थी’ वाली हो जाती है। वह एक स्टॉल से दूसरे स्टॉल लोकार्पण करता घूमता है। प्रकाशक लोकार्पण के मौके पर चाय पीने आई भीड़ को देखते हुये किताब की बिक्री के प्रति थोड़ा आशावान हो जाता है, लेखक भावविभोर होता है। ऐसे में किताबों के कई सुधी पाठक विमोचन के बाद लेखक को बधाई देते हैं। सामने धरी किताबों में से एक को हाथ में लेकर विमोचन मुद्रा में लेखक के साथ फ़ोटो खिंचवाते हैं। किताब के बारे में बात करते हुये चाय-चुश्कियाते हैं। इसके बाद विमोचन स्थल से तड़ीपार हो जाते हैं। किताबों की चोरी चोरी नहीं कहलाती’ सूत्र वाक्य उसकी हौसला आफ़जाई करता रहता है।
समाज में किताबें पढने की कम होती आदत के बावजूद किताबों की होती बिक्री इस बात का परिचायक है कि किताबों को पसंद करने वाले पाठक अभी भी समाज में हैं। ये पाठक भले ही किताब पढे न लेकिन किताबों को खरीदकर अपने पास रखते हैं। जैसे पुराने जमाने में राजा लोग कहीं भी दौरे पर जाते थे तो वहां से निशानी के तौर पर एक नई रानी उठा लाते थे। लाकर अपने रनिवास में डाल देते थे। किताबों से प्रेम करने वाले पाठक पुस्तक मेला से किताबों खरीदकर लाते रहते हैं। अपनी आलमारियां भरते रहते हैं। किताबें भी अपने पढे जाने के इन्तजार का इन्तजार करती रहती हैं जैसे पुराने जमाने में रनिवासों में राजकाज में डूबे राजा के रनिवास में पधारने के इन्तजार में अपने बाल सफ़ेद करती रहती थीं।
आप गये कि नहीं पुस्तक मेला? कोई किताब खरीदी कि नहीं? बताइये अपने अनुभव किताबों के बारे में।

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Saturday, January 14, 2017

व्यंग्य की चौपाल




व्यंग्य की अब जुड़ रही है चौपाल आज,
पहुँचो साथी आप भी छोड़ो बाकी काज,
पाठक, लेखक बैठकर करेंगे आज विचार,
हाल क्या हैं व्यंग्य के किधर जाएगा यार,
कुछ मत अब सोचिये निकल लीजिये आप
छूट गयी चौपाल तो होगा बहुत 'संताप'।
आज हिंदी व्यंग्य से जुड़े पाठक और लेखक साथियों का जमावड़ा होना तय हुआ है। 'व्यंग्य की चौपाल' में हिंदी व्यंग्य से जुडी बातें कही-सुनी जाएँगी। कहा-सुनी होने की भी दिव्य संभावना है। हिंदी व्यंग्य के नामचीन लेखकों के दर्शन भी होंगे।
चौपाल शुरू होने से पहले हिंदी व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर Anoop Mani Tripathi को युवा व्यंग्यकार सम्मान भी प्रदान किया जाएगा।
चौपाल में जिसको भी माइक मिला वह पक्का कुछ न कुछ बोलेगा। जितने वक्ता होंगे उससे कुछ ज्यादा ही उनके नजरिये होंगे भले ही उनका मतलब एक ही निकले (हो सकता है कोई मतलब भी न निकले)। लेकिन जिनको पढ़ते आये हैं उनको सुनने का अपना मजा है।
चौपाल की अध्यक्षता अपने ख्यातनाम उम्र से वरिष्ठ नागरिक हो चुके लेकिन तेवर और लेखन में युवाओं से भी युवा का एहसास दिलाने वाले प्यारे आदरणीय Harish Naval जी करेंगे।
इसके अलावा दिल्ली में मौजूद व्यंग्य से जुड़े तमाम 
दिग्गज जिनके वहां पहुँचने की आशा है उनमें Anup SrivastavaArvind Tiwari Sushil Siddharth, Subhash Chander Alok Puranik, Kamlesh Pandeyसंतोष त्रिवेदी, अर्चना चतुर्वेदी और अन्य साथी होंगे। (बाकी साथी अपने नाम जोड़ लें और पहुंचे घटनास्थल पर)
तो दिल्ली में पाये जाने वाले साथियों चलिए मुंह हाथ धोकर गर्म कपडे धारण करके निकल लीजिये। मेट्रो या फिर ऑटो या निज वाहन से पहुंचिये हिंदी भवन। वहां चाय-वाय का भी इंतजाम होगा। होना ही चाहिए। चाहिए कि नहीं मित्रों।
मेट्रों से पहुँचने वाले लोग ITO मेट्रों स्टेशन पहुंचें। वहीँ पास में ही है हिंदी भवन। कार्यक्रम 11 बजे से शुरू होने की बात है।
मेरी किताब जो मित्र लोग खरीदें हो और उनको उसमें मेरे आटोग्राफ न मिलने का अफ़सोस हो तो वे हिंदी भवन आकर आटोग्राफ ले सकते हैं। आटोग्राफ का कोई शुल्क नहीं लगेगा।
तो उठिए, तैयार होइए और निकल लीजिये। अपन भी उठते हैं तैयार होने के लिए। 

किशोरीलाल चतुर्वेदी युवा पुरस्कार एवं व्यंग्य की चौपाल


आज नई दिल्ली के 'हिंदी भवन' सभागार में हमारे प्रिय साथी अनूपमणि त्रिपाठी को प्रथम 'किशोरीलाल चतुर्वेदी युवा पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार अर्चना चतुर्वेदीने अपने पिताजी स्व. पिता की स्मृति में प्रारम्भ किया है। अनूपमणि इस पुरस्कार के सर्वथा योग्य लेखक हैं।
पुरस्कार प्रदान करने का कार्य Harish Naval जी anup, Anup Srivastava Subhash Chander Arvind Tiwari श्रवण कुमार उर्मिलिया, Kamlesh Pandey संतोष त्रिवेदीRamesh Tiwariअनूप शुक्ल, गिरीश पंकज, आदि इत्यादि बुजुर्गों, साथियों की उपस्थिति में हुआ।
पुरस्कार समारोह की शुरुआत में अर्चना चतुर्वेदी ने अपने पिताजी को याद करते हुए अपने जीवननिर्माण में उनके महत्व का उल्लेख करते उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की।
पुरस्कार मिलने के बाद जब अनूपमणि से अपने उदगार व्यक्त करने को कहा गया तो उन्होंने भावुक/नर्वस होने की बात कहते हुए कहा - 'यह पुरस्कार मिलने के बाद अब मैं प्रयास करूँगा कि आप लोगों की अपेक्षाओं पर खरा उतर सकूं। आलस्य को त्यागकर बेहतर लेखन कर सकूं।'
पुरस्कार स्थल पर उपस्थित लोगों द्वारा एक मत से दिए प्रस्ताव पर अमल करते हुए पुरस्कार की राशि अनूपमणि की गृहस्वामिनी को सौंप दी गयी।
पुरस्कार समारोह के बाद ’व्यंग्य की चौपाल’ की शुरुआत हुई। वहां उपस्थित सभी लोगों ने अपनेअपने परिचय दिए। परिचय देने में लोग सहज ही विस्तार से अपना बखान करने लगे तो अध्यक्ष हरीश नवल जी और सुभाष चन्दर ने भी लोगों को संक्षेप में अपनी बात कहने की बात कहते हुए टोंका। इसके बाद लोग कम शब्दों में लेकिन विस्तार से ही अपना परिचय देने लगे।
बाद में पता लगा कि हरीश जी को और सुभाष जी को भी पुस्तक मेला के किसी कार्यक्रम में भी मंच पर बैठकर लोगों को संक्षेप में अपनी बात कहने का निर्देश देना था। इस चक्कर में उन्होंने वहां बैठे अन्य लोगों पर समझदार होने का आरोप भी लगाते हुए यह कहा--'यहां बैठे सभी लोग समझदार हैं। आप अपनी बात कहते हुए दोहराव से बचें।'
लोगों ने वाकई समझदारी का परिचय दिया और हरीशजी के इस आरोप का कोई जबाब नहीं दिया।
सुभाष चन्दर जी ने विषय प्रवर्तन किया और यह चिंता व्यक्त करते हुए बात शुरू की कि व्यंग्य संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। अख़बार में उसकी जगह सिकुड़ती जा रही है।व्यंग्य के कालमों की शब्द संख्या कम होती जा रही है। उन्होंने कहा- "हमको इस पर विचार करना करना है कि व्यंग्य कैसे लिखा जाए ताकि सार्थक व्यंग्य रचा जा सके।"
इसके बाद के संचालन का जिम्मा अनूप शुक्ल को दे दिया गया। अनूप शुक्ल ने कुछ उलटा सीधा बोलते हुए एकाध लोगों को मंच पर बुलवाया। संयोग कि जिसको भी बुलवाया उसको भी लगा कि माइक फिर मिले या मिले इसलिए व्यंग्य के बहाने जो भी बोलना है अभी ही बोल लिया जाए।
माइक के यह हाल देखकर अध्यक्ष को फिर अपना अगला कार्यक्रम याद आया। यह भी याद आया कि बाहर खड़ी टैक्सी का बढ़ता बिल भी उनको ही चुकाना है। अत: उन्होंने संचालक की व्यवस्था ही खत्म कर दी। कहा -'सब लोग एक-एक करके फटाफट व्यंग्य के बारे में चिंतित होते जाओ।'
संचालक बेचारा चुपचाप यह सोचते हुए अपनी जगह पर बैठ गया कि किसी समारोह को बिना कतर ब्योंत के चलाने के लिए आवश्यक होना चाहिये कि:
1. समारोह का अध्यक्ष तय करते समय उनसे इस बात का शपथपत्र ले लिया जाए कि समारोह के साथ लगा हुआ कोई और कार्यक्रम नहीं है उनका।
2. अध्यक्ष के टैक्सी का बिल आयोजकों द्वारा ही चुकाया जाये।
इसके बाद सभी साथियों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये। तात्कालिक बनाम सार्वकालिक व्यंग्य का राग बजा, सरोकारी व्यंग्य बनाम सपाट लेखन, राजनितिक लेखन बनाम सामाजिक व्यंग्य, कूड़ा लेखन बनाम अच्छे लेखन की खूब चर्चा हुई।
संतोष त्रिवेदी तो व्यंग्य के कूड़ा लेखन पर जिले के स्वास्थ्य अधिकारी की तरह भन्नाए हुए थे। उनका कहना था कि अखबारी स्तम्भ का लेखन और किताब में छपने वाला लेखन अलग रखा जाना चाहिए। कमलेश पांडेय का कहना था कि स्तम्भ का लेखन खराब होगा और पत्रिकाओं का अच्छा यह कहना ठीक नहीं। उनका कहने का मतलब शायद यह रहा होगा कि हुनरमंद लेखक अपनी प्रतिभा से पत्रिकाओं में भी चौपट व्यंग्य लेख लिख सकता है।
कमलेश ने यह भी कहा कि हर व्यंग्य अमूमन तात्कालिक घटनाओं पर ही प्रतिक्रिया होती है। बाद में यह समय तय करता है कि वह कैसा बना।
इस पर अरविन्द तिवारी जी ने सन्तोष त्रिवेदी की बात का मतलब समझाते हुए बताया कि संतोष के कहने का मतलब यह था कि जब छपे हुए लेखों का संकलन किया जाये तो तात्कालिक प्रवृत्ति वाले लेखन को छाँट दिया जाना चाहिए। अरविन्द जी ने सुरजीत और संतोष के कुछ लेखों का जिक्र करते हुएउनकी तारीफ़ भी की।
अरविन्द जी ने शरद जोशी और हरिशंकर परसाई के उदाहरण देते हुये कहा कि अब ऐसे स्तम्भ कम लिखे जा रहे हैं जो आम आदमी के सरोकार से जुड़े हों।सरोकार के कारण ही परसाई जी की रचना 'हम बिहार से चुनाव लड़ रहे हैं 'आज भी प्रासंगिक है ।
खराब व्यंग्य को ख़ारिज करने की बात पर अपनी बात रखते हुये रमेश तिवारी ने हाल में मौजूद कई व्यंग्यकारों की अच्छी-अच्छी रचनाओं के नाम एक एक की तरफ ऊँगली के इशारे से गिनाते हुए बताते हुए कहा -'जब ऐसी रचना की जाती है तब वह यादगार रचना बनती है। कालजयी रचना बनती है।'
रमेश भाई की आवाज इतनी बुलन्द थी और बात कहने का अंदाज पिच पर खड़े और बैठे के बीच वाली मुद्रा में एलबी डब्ल्यू की अपील करते हुए तेज गेंदबाज वाला था कि किसी की हिम्मत अपनी रचना की तारीफ़ का विरोध करने की न हुई। हमारी कोई अच्छी रचना उनको उस समय याद नहीं आई। हमने इस पर जिस तरह की सांस ली उसको लोग सुकून की सांस कहते हैं।
पाठकों में सुधी पाठक Pramod Kumar और Pawan Kumar भी थे। प्रमोद जी ने लेखकों को चुनौती सी देते हुए कहां- ' हम आपकी कदर करने को बेताब हैं लेकिन आप वैसा लिखें तो सही। पवन मिश्रा ने सवाल उठाया कि अच्छी रचना और खराब रचना का पैमाना क्या होता है इसको कैसे तय किया जाए। एक और श्रोता जो प्रकाशन से जुड़ी हैं उन्होंने यह सवाल उठाया कि प्रकाशन के लिए अच्छी रचनाओं का चयन कैसे किया जाए।
हरीश जी ने इस पर व्यंग्य के समझने वाले लेखकों को अपने सम्पादन पैनल में रखने का सुझाव दिया।
लेखिका एवम् प्रकाशक डॉ Neeraj Sharma ने जानकारी देते हुए बताया कि आजकल व्यंग्य लेखन की किताबें बहुत मांग में हैं। हम लोगों को बच्चों के लिए भी व्यंग्य लेखन करना चाहिए। सहज भाषा में बच्चों के लिए साहित्य की बहुत जरूरत है।
अनूप शुक्ल को मौका मिला तो उन्होंने परसाई जी के लेखन की विराट सम्वेदना की बात कहते हुए कहा -" आज का अधिकांश लेखन कुंजी लेखन टाइप हो रहा है। शिल्प, फार्मेट , शैली आदि तो पहले के लेखकों को पढ़कर सीखा जा सकता है लेकिन व्यंग्य का कच्चा माल जो लोक अनुभव से आता है वह कम है। दिन-प्रतिदिन जटिल होते जीवन के अनुभव लेकर लिखने की बजाय पहले से स्थापित मान्यताओं पर अधिकतर लेखन हो रहा है। इसीलिये वह लोगों तक पहुंच नहीं रहा। प्रभावित नहीं कर रहा।"
खराब लेखन और कूड़ा लेखन की बात करते हुए अनूप शुक्ल ने कहा कि आज व्यंग्य की मांग है तो बहुतायत में लिखा जा रहा है व्यंग्य। यह कुछ इस तरह जैसे सन 2000 में वाई टू के की समस्या के समय जिसको भी की बोर्ड चलाना आता था उसको कम्प्यूटर विशेषज्ञ मानकर अमेरिका जाने का मौका मिल गया। आज व्यंग्य बहुतायत में लिखा जा रहा है। उसका अधिकांश अगर कूड़ा है तो उसके पीछे हलकान होने की बजाय बढ़िया लिखा जाय। कूड़ा लेखन का स्यापा करने की बजाय बढ़िया लेखन क्या होता है यह लिखकर बताया जाये।
सन्तोष त्रिवेदी ने इस पर कहा कि आप लोगों ट्रेनिग दीजिये। अनूप शुक्ल ने कहा कोई किसी को लिखना नहीं सिखा सकता। लोग लिखते-लिखते सीखते हैं।
तब तक रमेश तिवारी ने कूड़ा लेखन के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक करते हुए बुलन्द आवाज में कहा-'बाजार की मांग पर लिखा जाने वाले लेखन को मैं साहित्य मानने से इनकार करता हूँ।'
अनूप शुक्ल ने माइक हाथ में होने का फायदा उठाते हुए उतनी ही बल्कि और माइक का सहारा मिल जाने के कारण और बुलन्द आवाज में कहा -'मत मानिए।' इसके बाद अपनी बात के समर्थन में तर्क देते हुए कहा कि लोग लिखते-लिखते सीखते हैं। आप जब सबसे पहले लिखते-बोलते होंगे तब के और आज की गुणवत्ता में बहुत फर्क आया होगा।
बुलन्द आवाजों की जुगलबन्दी देखकर सुभाष चन्दर जी चहके -'यह हैं असली चौपाल के तेवर।'
सुधी पाठक प्रमोद कुमार ने लोगों के सीखने के दौर के लेखन को कूड़ा लेख्नन की बजाय अपरिपक्व लेखन कहने का सुझाव दिया। अपाहिज को दिव्यांग कहने की तर्ज पर कूड़ा लेखन को अपरिपकव लेखन कहने का सुझाव अध्यक्ष जी को पसंद आया। इस पर किसी ने पूछा-'अगर कोई ताजिंदगी कूड़ा लेखन करता रहे तो उसको कबतक अपरिपक्व लेखन कहते रहेंगे। लेकिन इस पर आगे चर्चा नहीँ हुई।
इस बीच व्यंग्यकार आलोक पुराणिक आ गए। उनको बोलने के लिए बुलाया गया तो समय सीमा की बन्दिश हटा ली गयी। उनकी तारीफ़ करते हुए अनूपमणि ने कहा-'आलोक पुराणिक जी ने अपने नियमित लेखन द्वारा उस समय पाठकों को व्यंग्य से जोड़ा जब व्यंग्य के पाठक कम हो रहे थे।
आलोक पूराणिक ने विस्तार से अपनी बात रखी। उनका कहना था कि किसी के लिखे को खारिज करने, कूड़ा बताने में समय गंवाने की बजाय हम अच्छा काम करके बताएं। उनका मानना यह था कि जैसे-जैसे कोई रचनाकार बेहतर काम करता जाता है वैसे वैसे उसके भीतर अपने काम को अच्छा मानने का संकोच बढ़ता जाता है।
आलोक जी ने सुझाव दिया व्यंग्य में नए प्रयोग होने चाहिए। 'पंच बैंक' पर काम होना चाहिए, ’फोटो व्यंग्य’ लिखे जाने चाहिए, व्यंग्य का अन्य विधाओं से फ्यूजन होना चाहिए। इनाम-विनाम , गुटबाजी , मठाधीशी की परवाह किये बगैर काम करना चाहिए। बढ़िया काम ही आगे जाता है । बाकी सब यहीं धरा रह जाता है।
इसी समय अनूप मणि ने सवाल किया -'जब हम समाज से सवाल करते हैं , नेताओं के आचरण पर ऊँगली उठाते हैं तो क्या हमको व्यंग्यजगत की विसंगतियों पर सवाल नहीं उठाने चाहिए?'
अनूप मणि का सवाल आलोक पुराणिक से था। वे जबाब दें तब तक सुभाष जी ने दिनकर का पंच मार दिया:
'जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनके भी अपराध।'
लेकिन अनूपमणि को जबाब चाहिए था। उन्होंने फिर सवाल उठाया। आलोक ने जबाब देने की अनुमति मांगी।लेकिन अध्यक्ष जी को अचानक फिर अगला प्रोग्राम और इन्तजार करती टैक्सी याद आ गई। उन्होंने कार्यक्रम छोड़कर चले जाने की धमकी दी। जाने के लिए खड़े भी हो गए। लेकिन फिर रुक गए। उनको याद आ गया होगा कि अभी अध्यक्षीय भाषण तो रह ही गया।
और कोई मौका होता तो अनूपमणि शायद पसड़ जाते लेकिन इनाम मिलने के फौरन बाद खाई जिम्मेदारी की कसम याद आ गई। अपने सवाल को पुचकार के शांत कर दिया यह कहते हुये--'बैठ जाओ बेटा , तुमको जल्दी ही बढ़िया वाला जबाब दिलवायेंगे।'
वहीं पर गिरीश पंकज जी की किताब का विमोचन भी हुआ। गिरीश जी ने अपनी बात शुरू करते हुए कहा-
'मैंने जब से लिखना शुरू किया तबसे लगातार हरीशजी के पीछे लगा हूँ।मैं अधिक समय नहीं लूँगा । बस एक मिनट में..."
"हरीश जी को ठिकाने लगा दूंगा"--जब तक गिरीश जी कुछ बोले तब तक सन्तोष त्रिवेदी ने उनका वाक्य पूरा कर दिया।
ठहाकेदार सामूहिक हँसी के बाद गिरीश जी बिना किसी की परवाह किये सार्थक लेखन करने की बात कही।
हरीशजी ने अपनी बात कहते खूब मजे लिए, समझाइश दी और नकारात्मक पृवृत्तियो से बचने की सलाह दी। उन्होंने बताया- "व्हाट्सऐप पर दो ग्रुप हैं।एक वलेस दूसरा व्यंग्ययात्रा। एक में ज्ञानमार्गी धारा बहती है, दूसरे में प्रेममार्गी। मैने दोनों से बचने के लिए व्हाट्सऐप हटा दिया है। मतलब- ’न रहेगा व्हाट्सएप न बहेगी कोई धारा।’
आलोक पुराणिक ने तीसरी 'नवलमार्गी धारा ' चलाने का आह्वान किया जिसमें व्यंग्य के नए प्रयोग हों।
हरीशजी ने अनूपमणि के सवाल पर विस्तार से बात करते हुए बुजुर्ग होने का पूरा लुत्फ़ उठाते हुये समझाइश दी -'हमको दूसरे का आचरण देखने से पहले खुद का आचरण देखना चाहिए। किसी के प्रति खराब भाव कोयले की तरह होते हैं। जिस तरह कोयला जल जाने पर भी अंगीठी सुलगती रहती है उसी तरह खराब भाव खत्म होने के बाद भी मन दुःखी रहता है।
अच्छे लेखन के बारे में बताते हुए हरीश जी ने लेखन में असमान तुलनाओं के रोचक उदाहरण देते हुए इनसे बचने की सलाह दी। किसी के जैसा लेखक बनने की बजाय खुद की तरह लिखने की सलाह दी।
अंत में सुभाष जी ने सबको धन्यवाद दिया। अनूप श्रीवास्तव जी भी बोले।
बाद में सभी बचे हुए लोग पास की चाय की दूकान पहुंचे। वहां चाय के कई दौर चले। उससे ज्यादा ठहाकों के। उसमें भाग लेने के लिए ही हरीश जी अगले कार्यक्रम की अध्यक्षता छोड़कर वापस आ गए।
चाय की दूकान पर बतकही का जो दौर चला उसको देखकर सुभाष जी बोले -यह है असली चौपाल।
असली चौपाल किस्से फिर कभी। फिलहाल अनूपमणि त्रिपाठी को बधाई।अर्चना चतुर्वेदी को साधुवाद।

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