Tuesday, February 23, 2021

साइकिलिंग कम ख़बरबाजी ज्यादा

 

इतवार को लगभग 13 किमी साइकिल चली। घण्टे भर से भी कम पैडलियाये होंगे। लेकिन फोटो खूब हुईं। न केवल फोटो बल्कि बयानबाजी भी। बयानबाजी साइकिलिंग के समर्थन में। हमारे नाम से कई अखबारों में साइकिलिंग के प्रचार के लिए बयान छपे। पढिये आप भी। शुरू कर दीजिये साइकिलिंग। कुछ फोटो भी हैं देखिये।

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Monday, February 22, 2021

मेहनत कभी बेकार नहीं जाती

 

काफी दिन बाद कल साइकिल चली। पिछले कई इतवार सर्दी या फिर आलस्य के चलते स्थगित रही साइकिल बाजी। आठ बजे मिलना था गोविंद गंज फटकिया पर। हम पांच मिनट लेट पहुंच गए घटनास्थल पर।
रास्ते में सड़क पर जो नजारे दिखे उनसे एक बार फिर लगा कि रोज निकलना चाहिए घूमने।
कामसासू काम्प्लेक्स के बाहर दुकाने सजने लगीं थी। एक फल वाला कल की हुई कमाई के नोट गिन रहा था। कोने पर मांगने के लिए बैठी बुढ़िया जम्हाई लेते हुए दाताओं का इंतजार कर रही थी। पुल की चढ़ाई में सांस फूल गयी। पिछले पहिये में हवा कम थी। कई दिन बाद साइकिल चली इसलिए भी ऐसा लगा।
प्रयाण के पहले फोटो बाजी हुई। बिना फोटो आजकल कोई काम नहीं होता। बिनु फोटो सब सून। अलग-अलग एंगल से फोटो हुए तब पैडल पर पैर धरे गए।
गोविंदगंज से केरूगंज तक जाना था कल। सीधी सड़क। बहादुरगंज, घण्टाघर , चौक होते हुए। सुबह के समय खाली सड़क पर बमुश्किल 20 मिनट की साइकिलिंग। इत्ती जल्दी मंजिल पर पहुंचकर करेंगे क्या? लिहाजा जगह-जगह रुककर फोटो बाजी हुई। सड़क पर गुजरती बारात में जगह-जगह रुककर किये जाने वाले डांस की तर्ज पर रास्ते में पड़ने वाले चौराहों पर रुककर फोटोबाजी हुई।
रास्ते में हमारे साथियों ने हमारी जेब से निकलकर गिरे पांच सौ रुपये का नोट हमारे हवाले किया। पांच सौ का नोट हमारी जेब में पड़े-पड़े बोर हो गया होगा। मौका पाते ही फरार हो गया। पैसे की फितरत खर्च होने की होती है। ठहरना पसन्द नहीं उसको। मौका मिलते ही बाजार भागता है। हमारी जेब से भी इसीलिए फूटा होगा लेकिन साथियों ने गिरते हुए देख लिया तो फिर से वहीं पहुंच गया, जेब में। जेब के रुपये हंस रहे होंगे उस पर -'बहुत उचक रहे थे। आना पड़ा न यहीं। पड़े रहो चुपचाप। बाहर बहुत बवाल है।'
सड़क पर गुजरते साइकिल वालों को देखकर कुछ लोगों ने सोचा कि साइकिल रैली निकल रही है। किसी घटना के समर्थन में या किसी के विरोध में। एकाध ने पूछा भी -' पेट्रोल के बढ़ते दाम के खिलाफ रैली है क्या?' लोग हर घटना को अपनी नजर से देखते हैं। हमने भी देखा।
एक भाई जी मुंह में ब्रश करते हुए अपने घर के सामने की सड़क पर झाड़ू लगा रहे थे। ब्रश 'पकड़' की तरह उनके मुंह के कब्जे में था। मंजन का झाग होंठो के दोनों किनारों से निकलकर सफेद मूछों की तरह झलक रहा था। वो मुंह से निकलते मंजन के झाग से बेखबर झाडू लगाने में तल्लीन थे।
सड़क पर चाय, पकौड़े , जलेबी की दुकानें गुलजार हो गईं थी। कुछ जनरल मर्चेंट वाले अपनी दुकानें खोलकर मोबाइल में मुंडी घुसाए ग्राहक का इंतजार कर रहे थे। मोबाइल पर जिस तरह लोगों का झुकना बढ़ रहा है उससे ताज्जुब नहीं कि आगे आने वाली पीढ़ियां सर कुछ नीचे झुकाये पैदा होने। होमोइरेक्टस की तर्ज पर उस घराने का नाम 'होमोटिल्टस' रखा जाए।
केरूगंज चौराहे पर पहुंचकर नास्ता ब्रेक हुआ। एक दुकान पर जलेबी-दही सूती गई। जितनी ऊर्जा निकली होगी, उससे दूनी ग्रहण की गई। जमकर फोटोबाजी हुई। साइकिल साथी न जाने कितने कैमरों में कैद हुए। अपन भी हुए।
हमारे साथ सेल्फ़ियाते हुए Vipin Rastogi ने बताया कि उनकी बड़ी तमन्ना थी हमसे मिलने की। हमारे देखादेखी उन्होंने साइकिल फिर से चलानी शुरू की। यह सुनकर अपन को थोड़ी देर के लिए 'कुछ खास' होने का एहसास हुआ। लेकिन हम फौरन ही उससे मुक्त भी हो गए। अलबत्ता विपिन फौरन फेसबुकिया दोस्ती हो गयी उसी चौराहे पर।
चलने के पहले केरूगंज चौराहे पर फिर फोटोबाजी हुई। चौराहे पर तैनात सिपाही भी जलेबी-दही खाकर इस जमावड़े को प्रफुल्लित नयनों से देख रहे थे। वहां मौजूद एक सिपाही को सुनाते हुए मैंने कहा -'चलो वरना भाई जी दौड़ा लेंगे जाम लगाने के लिए।' भाईसाहब ने प्रसन्नवदन इस हमारी इस आशंका का, जलेबी का टुकड़ा मुंह में दबाते हुए ,फौरन खण्डन किया।
बाद में बातचीत करते हुए सिपाही जी ने बताया कि 30 किलोमीटर दूर गांव से आकर रोज सुबह ड्यूटी पर तैनात हो जाते हैं।
लौटते हुए साथ के लोग आगे निकल गए। हम खरामा-खरामा लौटे। एक दुकान को खोलते हुए भाई जी का नकली पैर दिखा। किसी दुर्घटना में कट गया होगा।
सड़क किनारे एक छुटके मन्दिर के चबूतरे पर एक कुत्ता आंख मूंदे , जीभ निकाले जम्हूआते हुए पहरेदारी टाइप कर रहा था। हमने डरते हुए उसका दूर से फोटो लिया। डर इस बात का कि कहीं बिना परमिशन फोटो लेने पर नाराज होकर भौंकने न लगे।
आगे सड़क पर दो जूते पड़े दिखे। साइज औऱ रंग से एक ही पैर के जूते लगे। जिस किसी भी पैर के जूते रहे हों लेकिन वे चलते एक ही तरफ होंगे। एक ही दिशा में। लेकिन सड़क पर पड़े जूते एक दूसरे के विपरीत मुंह किये हुए थे। ऐसा लगा जैसे एक ही पार्टी के, समान विचारधारा के लोग, पार्टी बदलते ही एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करने लगते हैं। चुनाव के समय ऐसा खासतौर पर होता है।
एक दूसरे की विपरीत दिशा में होते हुए भी जूते चुप थे। एक दूसरे के खिलाफ कोई बयानबाजी नहीं कर रहे थे। उनको शायद एहसास हो कि कभी वे दोनों एक ही आदमी के पैरों के जूते थे। आदमी और जूते में शायद यही फर्क होता है।
शहीद चौराहे पर तैनात पुलिस वाले अखबार और मोबाइल में डूबे हुए सुरक्षा व्यवस्था में चुस्तैद थे।
एक घर के बाहर बैठा आदमी अपने दोनो पैरों को दूरतक फ़ैलाये हुए अखबार में पूरा डूबकर खबरें पढ़ने में तल्लीन था। कोई खबर बचकर निकल न जाये, अनपढी न रह जाए।
वापस मन्दिर होते हुए आये। मन्दिर के बाहर सूरज की रोशनी में मांगने वालों की भीड़ थी। कुछ लोग अपनी गाड़ी में पैर फैलाये हुए आराम से बतिया रहे थे। मांगते हैं तो क्या हुआ, आराम का हक तो सबको हैं। काम के वक्त आराम तो सब करते हैं।
लौटते हुए बचे हुए लोगों के साथ चाय पी गयी पंकज की दुकान पर। पंकज ने कहा-'हर इतवार को हम आपका इंतजार करते थे।' कोई हमारा इंतजार करता है यह अपने में खुशनुमा एहसास है।
चाय के साथ Ashish Bhardwaz की शादी की वर्षगांठ और बेटे के जन्मदिन की बधाई दी गई। पंकज ने गाना गाया -'घोड़ी पे होकर सवार, आया है दूल्हा यार।'
इस बीच वहां फैक्ट्री से रिटायर्ड कर्मचारी शुक्ला जी भी आ गए। इन्होंने तगड़ा सलाम मारकर नमस्ते किया। बोलने-सुनने के मोहताज शुक्ला जी के चेहरे पर पूरी गर्माहट पसरी हुई थी।
वापस आते हुए कामसासू काम्प्लेक्स गए। ओपी सुबह छह बजे से दस बजे तक एक ओवरआल बनाने के बाद धूप में अंगड़ाई ले रहे थे। स्वेटर उल्टा पहने थे। हमने ध्यान दिलाया तो बोले अब पहन लिया। पहने रहेंगे ऐसे ही। कल सीधा कर लेंगे।
कामगार को पहनावे की बजाय पेट की चिंता रहती है। पहनावा तो पेट भरने के बाद याद आता है।
सड़क किनारे कुछ जानवरों के पुतले रखे महावीर मिले। जयपुर के रहने वाले , लखनऊ से होते हुए शाहजहांपुर आये हैं बेचने। इस काम को 'घोड़े का काम' कहते हैं। पुतलों में घोड़ों के अलावा हिरन, हाथी आदि के पुतले भी थे। इसके अलावा पंजाबी ढोल बजाने का भी काम करते हैं।
जिंदगी के बारे में बात करते हुए बोले महावीर -'मेहनत करना चाहिए। मेहनत कभी बेकार नहीं जाती। मेहनत करना चाहिए, बाकी भगवान पर छोड़ देना चाहिए।'
खास स्टाइल में बाल बनाये हुए हैं महावीर ने। हमने पूछा तो बताया -'टाइगर श्राफ का स्टाइल है यह है। हमको पसन्द है।'
हमको टाइगर श्राफ का अंदाज नहीं था। लेकिन यह देखकर अच्छा लगा कि रोजी-रोटी के लिए शहर-शहर भटकने वाला भी अपना कोई शौक रहता है। किसी का स्टाइल पसन्द है उसको। स्टाइल मण्डूक नहीं है वह।
आपको किसका स्टाइल पसन्द है?

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Thursday, February 18, 2021

इतिहास को तोड़ा नहीं जा सकता केवल समझा जा सकता है

 हंगरी में मैंने योरोपीय ज्ञान, उदारता , दक्षता और प्रोफ़ेशनलिज्म को देखा और जाना जिसकी धाक पूरी दुनिया में जमी हुई है। हंगेरियन हालांकि अपने को पूरा योरोपियन नहीं मानते पर फ़िर भी जर्मनी के बहुत निकट रहने के कारण वे पूरी तरह योरोपियन हो गये है। कुछ रोचक प्रसंग हैं जिनके माध्यम से हंगरी के समाज को थोड़ा बहुत समझा जा सकता है। सन 1988-89 में जब पूर्वी और केन्द्रीय योरोप रूस के प्रभाव और समाजवादी सत्ता से बाहर निकला तो बहुतेरे देशों के शहरों में जो कम्युनिस्ट समय के नेताओं और विचारकों की मूर्तियां आदि लगी थीं उन्हें तोड़ दिया गया था। लेकिन हंगरी में ऐसा नहीं किया गया। हंगेरियन लोगों ने शहरों के केन्द्रों या अन्य स्थानों पर लगी कम्युनिस्ट युग की मूर्तियों को उखाड़ा और बुदापैश्त के बाहर एक मूर्ति पार्क बनाकर उन सब मूर्तियों को वहां लगा दिया। इसी तरह बुदापैश्त के पुराने के पुराने गिरजाघर की पुताई करने के सिलसिले में जब पिछली पुताई की परतें साफ़ की जा रही थी तो अचानक गिरजाघर के मुख्य भाग की दीवार पर कुरान की आयतें लिखी मिलीं। तुर्की ने हंगरी पर लगभग 200 साल शासन किया था और गिरजाघरों को मस्जिदें बना दिया था। तुर्की का शासन खत्म होने के बाद मस्जिदें पुन: गिरिजाघर बन गई थीं। इस गिरिजाघर में भी कभी मस्जिद थी। इसी कारण कुरान की आयतें लिखीं मिल गईं थी। गिरिजाघर में लिखी, कुरान की आयतों को मिटाया नहीं गया बल्कि वह जगह उसी तरह छोड़ दी गई।

हंगेरियन मानते हैं कि इतिहास को तोड़ा नहीं जा सकता केवल समझा जा सकता है।
असगर वजाहत Asghar Wajahat के लेख शहर फ़िर शहर है’ से

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Monday, February 08, 2021

कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

 

बड़े दिन बाद कल निकले। जगह-जगह दरबान तैनात। कुछ मुस्तैद, कुछ मोबाइल में डूबे हुए। मानो मोबाइल में कोई एप लगा हो जिससे आते-जाते लोगों को देखते हुए निगरानी की जा रही हो। टोंकने पर मासूम से बहाने, अभी बस जरा देख रहे थे। स्मार्ट फोन इंसान को बेवकूफ, कामचोर और लापरवाह बना रहे हैं। जिसको देखो सर झुकाए डूबा हुआ है मोबाइल में।
मैदान में बच्चे खेल रहे थे। ज्यादातर क्रिकेट। उचकते हुए गेंदबाजी,बल्लेबाजी कर रहे थे। सड़क किनारे तमाम लोग बैठे योग कर रहे थे। पेट फुलाते, पचकाते कपाल भाती और दीगर आसन चालू थे। पास कुछ कुत्ते टहलते हुए योग करने वालों को देख रहे थे कुछ इस अंदाज में मानो कह रहे हों-'हमारी ऐसे ही दौड़ते-भागते कसरत हो जाती है हमको क्या जरूरत योग-फोग करने की।'
सड़क पर एक आदमी सीधा आता दिखा। उसका एक हाथ चप्पू की तरह आगे-पीछे चल रहा था। सड़क पर नाव की तरह चल रहा हो मानो। दूसरा हाथ सीधा, एकदम सीधा राष्ट्रगान मुद्रा में अकड़ा हुआ लटका था। उसके पीछे खड़खड़े पर एक आदमी निपटान मुद्रा में बैठा निकल गया। शायद कोई सामान लादने जा रहा हो।
कामसासू काम्प्लेक्स में रहने वाले लोगों में से कुछ मशीनों पर बैठकर काम करने लगे थे। सुबह सात बजे काम शुरू करके कुछ लोग रात ग्यारह बजे तक सिलाई करते हैं। आम आदमी को पेट की आग बुझाने के लिए बहुत पसीना बहाना बहाना पड़ता है। अनगिनत , अनजान लोग ऐसे ही जिंदगी गुजार देते हैं। इनकी कहानी कहीं दर्ज नहीं होती। बेनाम, गुमनाम लोगों का जिक्र हमेशा आदि, इत्यादि में ही होता है।
कामसासू काम्प्लेक्स के बाहर दो बच्चे लकड़ियां फेंककर ऊपर फंसी पतंग और उससे लगा मंझा हासिल करने की कोशिश कर रहे थे। कई बार की कोशिशों के बाद भी पतंग फंसी नहीं तो हमने भी सहयोग किया। हम असफल रहे। लेकिन बच्चे लगे रहे। अंततः लकड़ी में मंझा फंस ही गया। बच्चे खुशी-खुशी चौवा करते हुए मंझा लपेटने लगे। बच्चो के चेहरे पर -'कोशिश करने वालों की हार नहीं होती' का इश्तहार चिपका हुआ था।
बातचीत की तो पता चला कि वे तीन और पांच में पढ़ते हैं। लॉकडाउन के चलते स्कूल बंद चल रहै हैं। बतियाते हुए भी बच्चों का पूरा ध्यान पतंग और मंझे की तरफ लगा हुआ था। हमको एक बार फिर केदार नाथ सिंह जी की कविता याद आ गई:
हिमालय किधर है?
मैंने उस बच्चे से पूछा जो स्कूल के बाहर
पतंग उड़ा रहा था
उधर-उधर - उसने कहा
जिधर उसकी पतंग भागी जा रही थी
मैं स्वीकार करूँ
मैंने पहली बार जाना
हिमालय किधर है?
मोड़ पर एक घर में एक कूरियर वाला कोई सामान डिलीवर कर रहा था। सुबह सात बजे कूरियर की डिलीवरी। कितना तकलीफ देह होगा उसके लिए। लेकिन निकलना पड़ा होगा उसको भी। समाज जैसे-जैसे अनेक लोगों के लिए आधुनिक और आरामदेह होता जा रहा है वैसे-वैसे तमाम लोगों के लिए कठिन, तकलीफदेह और क्रूर भी होता जा रहा है।समाज की सुविधा और उत्पादकता बढ़ाने वाले तमाम उपाय किन्ही दूसरे लोगों की बेबसी और परेशानी की नींव पर टिके हुए हैं।
आगे कैंट आफिस के पास दो लोग लकड़ियां बिन रहे थे। रिक्शा बगल में खड़ा था। आदमी लकड़ी से पत्ते हटा रहा था। महिला उनको इकट्ठा कर रही थी। पास गए हम तो महिला ने सर पर पल्ला कर दिया। आदमी रुक गया। बताया कि पास ही चिनौर में रहता है। रिक्शा चलाकर पेट पालते हैं। यहाँ लकड़ियां दिखीं तो ले जा रहे हैं जलाने के लिये, खाना बनाने के लिए।
कुछ देर की बात के बाद वे सामान्य हो गए। बतियाते हुए लकड़ियाँ बीनने लगे। महिला भी सहज हो गयी। बताया कि बच्चे घर में हैं।
और बतियाते लेकिन तब तक साइकिल क्लब के लोगों की पुकार आ गयी। हम उधर चल दिये।

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Saturday, February 06, 2021

दरवज्जे की पल्ले से झांकती धूप

 

नींद खुली तो बाहर चिडियों की आवाज सुनाई दी। ऐसा लगा किसी मामले पर बहस चल रही हो। चिड़िया बहस भले कर रहीं थीं लेकिन आवाज में कर्कशता नहीं थी। क्या पता वे बहस न करके आपस में लड़िया रही हों पर हम उसको बहस समझ रहे हों। इंसान दूसरे में अपना ही अक्स खोजता है। जो जैसा होता है , दूसरे को भी उसी पैमाने से नापता है।
दरवज्जा खोलकर देखा। चिड़ियां फुदकते हुए और टहलते हुए कड़क्को जैसा कुछ खेल रहीं थीं। सहज भाव से फुदकते हुए। फुदकते हुए चिचिया भी रहीं थी। इंसान इसी को वर्जिश करना कहता है। लेकिन वर्जिश तो पहले कहते थे। अब तो वर्कआउट कहने लगे हैं शायद।
एक ही हरकत के लिए शब्द कितनी तेजी से बदलते हैं। कई बातें जो कभी भ्रष्टाचार मानी जाती थीं, अब वे सहज शिष्टाचार की पार्टी में शामिल होकर देशसेवा कर रही हैं। कई तो मलाईदार पदों पर काबिज हो गईं हैं।
चिड़ियों की बातचीत समझ में नहीं आने के बावजूद अच्छी लग रही थी। लेकिन हम ज्यादा देर तक उसको सुने नहीं। वापस घरघुसुवा हो गए। क्या पता चिड़ियां कोई ऐसी बात कर रहीं हों जिसको कोई समाजविरोधी मानकर उनके खिलाफ एफआईआर करवा दे। चिड़ियों का क्या, वे तो फुर्र होकर कहीं और फुदकने, चहकने लगेंगी। बवाल हमारे मत्थे आएगा।
हम वापस आ गए। गये तो अकेले थे लेकिन वापस लौटे तो कई किलो कायनात साथ लाये। साथ के सामान में खुली हवा थी, हवा की खुशबू थी, चिड़ियों की चहकन थी, पेड़ों की पत्तियों की हिलडुल थी। तमाम खुशनुमा दोस्तों की मुस्कान और भी न जाने क्या-क्या था।
कमरे में आकर देखा कि दरवज्जे के पल्ले को हल्के से खोलकर धूप चुपचाप कमरे के अंदर आ गयी। हमको देखकर छह फुटिया धूप मुस्कराई। बड़ी तेज। कमरा जगमगा सा गया। धूप जिस तरह अंदर घुसी आहिस्ते उससे लगा पुरानी पिक्चरों की संयुक्त परिवार की कोई बहुरिया बेआवाज अपने नए-नवेले पति के पास आई हो। धूप की शरारती मुस्कान देखकर लगा कि शायद अब गाना गाने ही वाली है:
'मैं तुमसे मिलने आई, मंदिर जाने के बहाने।'
यह भी लगा कि पूजा के लिए बनाए गए मंदिर और दूसरे धर्मस्थल कैसे उन अरमानों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किये गए जिनको समाज ने सहज होते हुए भी गलत माना और वर्जित किया।
धूप बहुत प्यारी और चमकीली लग रही थी। उसका फोटो खींचा तो धूप का चेहरा सफेद हो गया। जैसे नायिका को उसके कड़क बाप ने उसको उस लड़के की साइकिल के कैरियर पर बैठे देख लिया हो जिसको बाप बदमाश समझता हो।
धूप थोड़ी देर बाद वापस चली गयी। शायद बाहर अपनी सहेलियों के साथ खेलने लगी हो।

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Tuesday, February 02, 2021

चश्मा, बजट और रिमोट

 

कल बजट आया। देश का बजट। आमदनी और खर्च का लेखाजोखा। दिन में तो देख नहीं पाया। दफ्तर के चक्कर में-जबकि दफ्तर में टीवी दिन भर चलता रहा। इससे अंदाज लगा सकते हैं कि कितनी तल्लीनता से काम करते हैं। अंदाज तो खैर यह भी लगाया जा सकता है कि दिन भर टीवी की खबरें देखने के बाद भी हवा नहीं कि क्या हो रहा देश में।
बहरहाल शाम को टीवी खोला तो चश्मा गोल। मिला ही नहीं। सब जगह खोज लिया। दाएं-बाएं। अलमारी-ड्रार। कई बार खोजने के बाद नहीं मिला तो मान लिया कि या तो कार में छूटा या दफ्तर में। एक बार लापरवाही के लिए खुद को कोसकर रजाई में दुबककर दूर से टीवी सुनते रहे, पास से मोबाइल में घुसे रहे। पोस्ट पढते रहे। टिपयाते रहे। बीच-बीच में दोस्तों-सहेलियों को ' हाउ- डू-यू-डुआते' भी रहे।
टीवी पर बजट के समर्थन और विरोध में प्रवक्ता भिड़े हुए थे। एंकर उनको कभी उकसा रहा था, कभी समझा रहा था। बहस करने वालों के तर्कों को उलट-पुलट कर अपनी एंकरिंग की रोटी सेंक रहा था। बीच-बीच में एक्सपर्ट अपनी विशेषज्ञ वाली राय दे रहा। राय देते हुए विशेषज्ञ इस बात का पूरा ख्याल रख रहा था कि उसकी बात किसी की समझ में न आ जाये।
बिना चश्मे के बजट समाचार और बहस सुनते हुए हमको बजट अच्छा-खराब कुछ नहीं लगा। लगा कोरोना काल की तरह 'बजट-स्वाद' गुम हो गया है। 'बजट कोरोना' की शंका हुई हमको। हम डर गए। तब तक सुनाई पड़ा कि पीएफ बजट के ब्याज पर भी टैक्स लगेगा। बजट का स्वाद थोड़ा कड़वा लगा। टैक्स बढ़ने की खबर तो खली लेकिन 'बजट-कोरोना' से बचने के एहसास ने मन खुश कर दिया। मोबाइल और चार्जर के दाम बढ़ने की खबर से हमको कोई फर्क नहीं पड़ा। हमारे पास कई मोबाइल और चार्जर हैं। अगले बजट तक चल ही जायेंगे। इस बीच मोबाइल भी सस्ते हो जाएंगे।
75 साल की उम्र के लोगों को जो टैक्स की छूट मिली है वो हमारे किसी काम की नहीं। उस लिहाज से तो अभी तो हम जवान हैं।
इस बीच एक बार फिर चश्मे की याद आई। बेचारा अकेला कहीं पड़ा होगा- किसी राजनैतिक दल के मार्गदर्शक सदस्य की तरह, अपनी फर्जी खुशनुमा यादों में डूबे किसी चुके हुए साहित्यकार की तरह। मन किया चश्में में कोई ट्रैकर लगवा लेते पता चल जाता कहाँ है। कोई अलार्म लगवा लेते चश्मे में जिससे कि दो-तीन मीटर दूर होते ही भन्नाने लगता। हम लगा लेते उसे फिर से। लेकिन वह भी बवाल ही होता। पता चलता कि कहीं जरूरी मीटिंग में हैं, गुपचुप-गुपचुप वाले साइलेन्स मोड वाली बतकही में और तबतक चश्मा भन्नाने लगा। सुविधा कभी अकेली नहीं आती। सुविधा और असुविधा जुड़वा बहने हैं। हर सुविधा अपने साथ कोई न कोई असुविधा भी लाती है।
बहरहाल जब टीवी पर खबरें देखते हुए बोर टाइप हो गए तो टीवी बन्द करने के लिए रिमोट टटोला। रिमोट भी नदारद। हमें गुस्सा आया। ये बदमाश रिमोट भी मिल गया चश्मे के साथ। मानो सरकार बनाएगा चश्मे के साथ मिलकर। हमको उठना पड़ा। जाड़े में रजाई से उठने का दर्द रजाई में दुबकने वाले ही जानते हैं। बहरहाल उठे दायें-बाएं होते हुए। इधर-उधर टटोला। देखा। रिमोट मिल गया। रिमोट के बगल में ही चश्मा भी दिख गया। उल्टा-पुलटा पड़ा था। रिमोट और चश्मा दोनों सटे-सटे पड़े थे। हमको देखकर हड़बड़ा गए होंगें। न जाने क्या कर रहें हो जाड़े में रजाई में दुबके हुए। मन तो किया पहले कि चश्मे को पकड़ के कुच्च दें लेकिन फिर छोड़ दिया। उसकी भी क्या गलती।
अब सुबह हो गयी। सूरज भाई अभी तक आये नहीं हैं। कोहरा भयंकर है। पेड़ को पेड़ और चिड़िया को चिड़िया नहीं दिखाई दे रही है। सूरज भाई भी शायद अपना चश्मा खोज रहे हों। कहीं सात घोड़ों वाले रथ में न भूल गए हों। क्या पता झल्ला रहे हों। मिलेंगे तो पूछेंगे।

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Monday, February 01, 2021

इतवारी निठल्लाबाजी के बहाने

 

समय बिताने/बर्बाद करने के लिए हर समाज अपने तरीके अपनाता है। बचपन में अपन समय बिताने के लिए अंत्याक्षरी खेलते थे। थोड़े बड़े हुए तो क्रिकेट खेला काफी दिन। अब बारी है सोशल मीडिया की।
सोशल मीडिया ने संसार के तमाम निठल्लों को तसल्ली से समय बर्बाद करना सिखाया है। जितने निठल्लों को समय बर्बाद करना सिखाया उससे ज्यादा लोगों को निठल्ला बनाया है इस सामाजिक मीडिया ने। सामाजिक मीडिया ने लोगों को बहुत तेजी से असामाजिक बनाया है।
बहरहाल बात क्रिकेट की। अंग्रेजों ने ईजाद की क्रिकेट। उनके पास समय इफरात था। खाली समय को बिताने की गरज से उन्होंने क्रिकेट का जुगाड़ किया। खुद तो निठल्ले थे इसलिए क्रिकेट जैसे समय खपाऊ खेल का इंतजाम किया। खुद निठल्ले होने के अलावा उन तमाम लोगों को भी निठल्ला बनाया जहां उनकी हुकूमत थी।
अंगरेज लोगों ने मैदान में खेले जाने वाली क्रिकेट का ही इंतजाम किया इससे लगता है कि उनके घरेलू ताल्लुकात गड़बड़ाए रहते होंगे। मियां-बीबी में पटती नहीं होगी। लिहाजा इज्जत और सुकून को तलाश में क्रिकेट में पूरी हुई।
कल हम भी क्रिकेट खेले। बहुत दिन बाद। मौसम सुबह गड़बड़ था। लेकिन दोपहर के पहले पूरा क्रिकेटियाना हो गया। धूप खिल गयी। लगता है सूरज भाई को खबर मिल गई थी कि अपन भी खेलेंगे इसलिए जाड़े के लिहाज सबसे बेहतरीन क्वालिटी की एकदम साफ, धुली-पूछी धूप का इंतजाम कर दिया मैच के पहले।
मैच में टॉस जीतकर हमारी टीम ने बैटिंग चुनी। हमारे ओपनर बल्ले घुमाते रहे लेकिन गेंद बल्ले से रूठी-रूठी एकदम पास से निकलकर विकेटकीपर के पास चली जाती रही। गेंद को भी बुरा लगता होगा कि वो जब खुद आ रही है बल्ले से मिलने तो बल्ला लालचियों की तरह उसकी तरफ क्यों लपक रहा है।
हाल यह रहा कि बहुत देर तक गेंद और बल्ले में बातचीत तक नहीं हुई। कुछ देर बाद जब हुई भी गेंद जरा दूर जाकर बैठ गयी। रन अलबत्ता बनते रहे। बल्ले से ज्यादा अतिरिक्त रन बने शुरू में। हमारे एक खिलाड़ी कैच हुए, दूसरे रन आउट। इसके बाद अपन आये मैदान में।
बहुत दिन बाद खेलने उतरे तो लग रहा था पहली गेंद खेल जाएं, बहुत है। फिर लगा एक रन बन जाये तो समझो इज्जत बच गयी। बहरहाल गेंद भी खेली गई, रन भी बने। दो बार बल्ला जरा तेजी से घूमा, गलती से गेंद पर लग गया। गेंद भन्नाती हुई बाउंड्री की तरफ भागती चली गईं। दोनों बार चार रन मिले।
खेलते समय हवा के कारण जुल्फें बार बार माथे के छज्जे के कपड़े की तरह लटक जातीं फिर आंखों के सामने आ जातीं। जितनी बार बाल आंख के सामने आते हमको उतनी बार श्रीमती जी की याद मय उनके उलाहने के याद आती -'माथे पर बाल इत्ते बड़े क्यों रखवाए?'
सच जो है वो मैंने बयान किया। अब लिखने के लिए यह भी सच है कि मैदान में जहां रन बनाने में जहां कठिनाई हो रही थी वहां हमको श्रीमती जी की याद आ रही थी। मतलब कठिन समय में साथ।
इससे अंदाज लगाया जा सकता है कि शरीक-ए-हयात की यादें, उलाहने इंसान का किस कदर पीछा करते हैं। शाहिद रजा Shahid Raza ऐसे ही थोड़ी कहते हैं:
हरेक बहाने तुम्हें याद करते हैं
हमारे दम से तुम्हारी दास्तान बाकी है।
बहरहाल हमने ज्यादा लालच न करते हुए खरामा-खरामा गेंदे खेली। गेंदों को पूरी इज्जत दी। रन बनाने का जिम्मा अपने साथी कर्नल जिवेंद्र को सौंपा। उन्होंने धुंआधार बल्लेबाजी करते हुए 49 रन बनाए और अंत तक आउट नहीं हुए
हमने फाइनली भी आउट होने के पहले दो बार आउट होने की कोशिश की। रन आउट होते-होते बचे। ऐन समय पर भागकर विकेट पर पहुंचने की कोशिश में दो बार लद्द से मैदान में गिरे। गिरे तो अपनी गलती से। मन जितनी तेजी से विकेट पर पहुंच जाता, तन उतनी फुर्ती नहीं दिखा पाता। तन और मन के तालमेल के अभाव में जमीन से जुड़ना हुआ। गनीमत यह रही कि कहीं चोट नहीं लगी। नाराज होकर किसी हड्डी ने समर्थन वापस नहीं लिया। वैसे भी शरीर में कोई चुनाव थोड़ी चल रहे थे जो कोई अंग किसी पार्टी से इस्तीफा देकर दूसरी पार्टी को ज्वाइन करे।
आखिर में हम आउट हुए अपनी ही मर्जी से। रन आउट। विकेटकीपर के हाथ में गेंद पहले पहुंच गई। हम नहीं पहुंच पाए क्योंकि इस बार हम गिरे नहीं। बहरहाल 20 बाल पर 18 रन का स्कोर रहा अपना। यह स्कोर गावस्कर के उस स्कोर से स्ट्राइक रेट से तो बढ़िया ही था जब उन्होंने नॉटआउट रहते हुए 36 रन बनाए थे, 60 ओवर में।
हमारी टीम ने 4 विकेट पर 135 रन बनाए। 4 में 3 लोग रन आउट हुए।
जबाब में दूसरी टीम ने 3 रन पहले 20 ओवर खर्च कर डाले। लिहाजा हम 3 रन से जीत गए। जीतने के पहले कई बार हारते हुए लगे। हार भी जाते अगर दूसरी टीम के शुरुआती बल्लेबाज मैच को दस ओवर में ही खत्म करने वाले अंदाज में न खेलते। हमारी तरफ से अनुराग, ऋषि और डॉक्टर सिंह ने नाजुक मौकों पर बेहतरीन कैच पकड़े। पैट्रिक दास, अरविंद श्रीवास्तव और पंकज ने बढ़िया गेंदबाजी की।
मैच के सबसे सफल बल्लेबाज अमन रहे। दो छक्के और कई चौके लगाए। लेकिन साथ न मिलने के कारण जिता नहीं पाए। हमारी तरफ से बाद के ओवर में बढ़िया गेंदबाजी और फील्डिंग के कारण हमारी टीम जीत गयी।
मैच को रोमांचक बनाने में अच्छा खेलने वाले बल्लेबाजों, विकेट लेने वाले गेंदबाजों, फील्डरों से भी अधिक योगदान दूसरी टीम के कप्तान दिनेश सिंह का रहा। 30 साल बाद बल्ला पकड़ने वाले दिनेश ज्याफ बायकॉट की तरह मजबूत बल्लेबाजी कर रहे थे। हम लोगों की स्ट्रेटेजी थी कि दिनेश सिंह को आउट नहीं होने देना है। रन नहीं बनने देना है। लेकिन दिनेश सिंह ने हमारी इस योजना को फ्लॉप करते हुए खुद रिटायर्ड हर्ट हो गए। टीम के और लोगों को मौका दिया। इससे उनकी टीम फिर संघर्ष में लौट आई और जीतते-जीतते बची।
कल के खेल से दो सीख मिली:
1. शरीर स्वस्थ रखने के लिए नियमित वर्जिश जरूरी है।
2. क्रिकेट और जिंदगी में बहुत फर्क नहीं है। दोनों जगह आखिरी दम तक जूझने से सफलता मिल ही जाती है।
एक दिन के खेल में दो सीख मिलना कम थोड़ी होता है।

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