Monday, August 31, 2020

'लटक मुद्रा' में लोग

 

सुबह साइकिल का ताला खोलने के लिए चाबी घुमाई। खुला नहीं। अकड़ गया। आगे-पीछे किया तो और अकड़ गया। लगा अब खुलेगा नहीं। तुड़वाना पड़ेगा। एक और कोशिश की तो हाथ में आ गया। साइकिल से समर्थन वापस ले लिया। लगता है कोरोना के डर से 'सामाजिक दूरी' बनाने के लिए निकल लिया बाहर। जान है तो जहान है।

दरबान गुमटी पर बैठा मोबाइल में गाना सुन रहा था। घण्टी बजाने पर जोर से नमस्ते किया। हमें लगा कहीं कंधा न उखड़ गया हो। पर वह सलामत था।
सड़क पर लोग टहल रहे थे। पार्क में कसरत कर रहे थे। एक आदमी हाथ ऊपर किये जिस पोज में खड़ा था उसे देखकर लगा वजन उठौवा कसरत में आसमान को उठा लिया हो। नीचे करने में हिचक रहा था वह। कहीं किसी के सर पर न गिर पड़े आसमान।
एक भाई जी सड़क पर टहल रहे थे। एक ही हाथ हिला रहे थे। दूसरा लटका हुआ था। शायद पैरालिसिस के चलते दूसरा हाथ बेकार हो गया हो। दोनों हाथ का काम एक हाथ से ही करने से मामला धीमा हो गया था। चेहरे पर चिंता। इनका हाथ तो पैरालिसिस के चलते गड़बड़ हुआ। लेकिन समाज में तमाम लोग बिना पैरालिसिस ही 'लटक मुद्रा' धारण कर लेते हैं। खून मिल ही रहा है दिल से।काहे को हिलना डुलना । इन्हीं 'लटक मुद्रा' वाले लोगों के चलते समाज को पैरालिसिस हो रहा है।
एक महिला अपनी 'पच्चल' हाथ में सड़क पर टहल रही थी। शायद चप्पल टूट गयी हो या फिर उसको डर हो कि कहीं उसकी चप्पल से सड़क गन्दी न हो जाये।
दो लड़के मोबाइल हाथ में लिए बेंच पर बैठे कुछ सुन-सुना रहे थे। उनके सामने एक लड़का हाथ ऊपर किये धीमे दौड़ रहा था मानों प्रकृति ने उसको 'हैंड्स अप' बोल दिया हो। वह जान के खतरे को देखते हुए हाथ ऊपर किये दौड़ा जा रहा था।
बेंचों पर रखे कांटे वैसे ही थे। कांटे भी सूख गए थे। मुरझाये हुए कांटे शायद पेड़ से अलग होने के दुख में दुखी हों। अपनी जड़ से अलग होने का दर्द कांटे को भी होता है। 'दहिजरा कोरोना' के चलते कांटों को पेड़ से अलग होना पड़ा। क्या पता गाना भी गा रहे हों:
'हमसे का भूल भई, जो ये सजा हमका मिली।'
आगे एक भाई जी फुटपाथ पर अंगौछा बिछाए कसरतिया रहे थे। अनुलोम-विलोम करते हुए सड़क की तरफ ताकते भी जा रहे थे। शायद कहना चाह रहे हों -'हल्के में मत लो हम योगा कर रहे योगा। अनुलोम-विलोम।'
लेकिन सड़क पर केवल टहलने वाले और योग करने वाले ही नहीं थे। एक भाई जी अपनी बहुत स्वस्थ कमर को दोनों तरफ हिलाते हुए शरीर से अलग टाइप करने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन कमर 'जनम-जनम का साथ है, हमारा-तुम्हारा' कहते हुए शरीर से जुड़ी रही। हमारे दिमाग में गाना बजने लगे -'आरा हीले, छपरा हीले, कलकत्ता हीले ला, कि तोहरी लचके जब कमरिया'।
तन्वंगी कमर के लिए आरक्षित गाना स्वस्थ कमर पर आरोपित करते हुए अटपटा सा लगा। लेकिन फिर कमरों के समानता के सिद्धान्त की बात याद आ गयी। हर तरह की कमर को लचकने का एक समान अधिकार है।
मोड़ पर दो लड़के मोटरसाइकिल धकियाते हुए ले रहे थे। हमें लगा पेट्रोल खत्म हो गया होगा। लेकिन पूछा तो बताया कसरत कर रहे थे। मोटरसाइकिल धकियाते हुए वर्क आउट। हमको लगा कि और ज्यादा वर्कआउट करना हो तो कार धकियाते निकलने लगेंगे लोग। पेट्रोल के बढ़ते दाम इसमें सहयोग भी करेंगे।
बहरहाल हम साइकल पर ही वर्क आउट करते हुए वापस आ गए। सूरज भाई इतनी जोर से चमकते हुए मेरे मुंह पर लाइट मार रहे थे कि चेहरा चौंधिया गया अपन का। झटके मुंह फेर लिया। बगीचे की हरियाली सुकून देती लगी। सूरज भाई हमारी पीठ पर किरणों, रोशनी और उजाले की धौल मारते हुए हंसने लगे। पूरी कायनात खिलखिला उठी। सुबह हो गयी।

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Sunday, August 30, 2020

परसाई के पंच- 23

 1. बड़ा नेता जब पार्टीवालों को सावधान करता है कि खबरदार, तुम्हें खरीदने की कोशिश हो रही है ,वह अपनी पार्टीवालों को आदमी नहीं, कद्दू, बैंगन, लौकी समझता होगा। बैगन और लौकी नहीं जानते कि वे बिकने वाले हैं।

2. क्रांति आखिर क्या है? प्याऊ है जिसे पैसेवाला खोल देता है और हम उनका खैराती पानी पीते हैं?
3. राजनैतिक सत्ता हो, सुभीते हों, पैसा हो, आसपास चापलूस और फ़ायदा उठाने वाले हों, तो मन्त्री का वह लड़का कट्टर मूर्ख होगा जो पैसा,दारू, औरत न करे। कोई राजनीतिज्ञ ऐसा नालायक बेटा पैदा नहीं करता।
4. बेचारा आदमी वह होता है जो समझता है कि मेरे कारण तमाम हलचल हो रही है, पर वास्तव में उसके कारण छिपकली भी कीड़ा नहीं पकड़ रही है।
5. बेचारा आदमी वह होता है, जो समझता है कि सब उसके दुश्मन हैं, पर सही यह है कि कोई उस पर ध्यान नहीं देता।
6. बेचारा आदमी वह वह होता है जो समझता है कि मैं वैचारिक क्रांति कर रहा हूं और लोग उससे सिर्फ़ मनोरंजन करते हैं। वह आदमी सचमुच बड़ा दयनीय होता है जो अपने को केन्द्र बनाकर सोचता है।
7. गांधी जयन्ती पर जितना झूठ बोला जाता है, उतना कुल मिलाकर साल भर में नहीं बोला जाता। दूसरे दिन झूठ बोलने में थोड़ा खटका लगता है। २ अक्टूबर को बेखटके झूठ बोला जाता है।
8. धोखों का आविष्कार करने में यह देश बहुत आगे है। विश्व औद्योगिक मेलों में अगर धोखे भी भेजे दिये जायें तो पहला इनाम मिल जाये।
9. बड़े-बड़े लोग रेडियो पर बोलते हैं, भाषण देते हैं कि शिक्षा से चरित्र निर्माण होता है। सुनकर सोचता हूं कि फ़िर इस शिक्षा ने बोलनेवाले को चरित्रहीन क्यों बना दिया?
ये राजनीतिक पदों, शासकीय पदों पर आसीन लोग, खाते-पीते सुखी लोग कहते हैं- शिक्षा का उद्देश्य जीविकोपार्जन या नौकरी पाना नहीं। शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को चरित्रवान बनाना है- याने हमें इस शिक्षा से चरित्रवान बेकार, चरित्रवान भुखमरे, चरित्रवान चोर, चरित्रवान जेबकतरे मिलेंगे, चरित्रवान जीविका कमाने वाला नहीं मिलेगा। यही शिक्षा का सही उद्देश्य है।
10. राजनीति से सन्यास उससे बड़ी राजनीति के लिये लिया जाता है।
11. दस गरीबों को दाना बांटा जाता है, हजारों गरीबों को लूटने के लिये भभूत रमाकर नदी किनारे बैठा साधू नहाती स्त्रियों को देखता है। धूनी लगाये हुये महात्मा डाकुओं को पुलिस हलचल की जानकारी देते हैं। बम भोले के नाद के साथ अग्नि तपते साधु की धूनी में चोरी से सोना गलाया जाता है। बड़े-बड़े काम होते हैं संन्यास से।

परसाई के पंच- 24

 1. संन्यास लेनेवाला राजनीतिक उस साधु की तरह है जो सुबह से ईश्वर-चिंतन के बहाने भोजन-चिन्तन करता है, दोपहर को माल खाकर शाम तक ईश्वर-चिन्तन के बहाने नारी चिन्तन करता है और अंधेरा होने पर किसी भक्तिन के घर में घुस जाता है।

2. किसी खास कम्पनी की सिगरेट निकालो तो उसे जलाने के लिये कम्पनी एक सुन्दरी भी साथ देती है।
3. इस समय मेरे सामने जो विज्ञापन है, उसमें एक युवक एक खास मिल के कपड़े का सूट पहने खड़ा है। उसके चेहरे पर निहायत मूर्खतापूर्ण हंसी है। एक लड़की दायें और एक बायें बाजू से उसे दांत निकालकर, मुग्ध होकर देख रही है। एक लड़की पीछे से झांक रही है।
4. बुद्धि, विद्या, चरित्र का अवमूल्यन हो गया है। इनसे कोई मतलब नहीं। वे विज्ञापन में दिखाते हैं –मूर्खतापूर्ण सौंदर्य या सौंदर्यमयी मूर्खता। समझदार लड़कियां अच्छे कपड़ों से सजी मूर्खता पर मिटती हैं।
5. पढी-लिखी, गुणवती, सुन्दर लड़की को लगता है कि यह सब बेकार है। मेरा बाप अगर बेईमान होता तो मेरे लिये अच्छा पति तो खरीद देता।
6. अगर बैल सूट पहनने लगे तो वह मनुष्य से ज्यादा इज्जतदार हो जायेगा, क्योंकि वह उपभोक्ता हो जायेगा।
7. यदि पृथ्वी पर भेड़ियों की आबादी बढ जाये और वे सूट पहनने लगें तो उत्पादक अपने वैज्ञानिकों से यह घोषणा करा देंगे-’प्रकृति ने भेड़िये को मनुष्य से ऊंची नस्ल का बनाया है। भेड़िया ही वह महामानव या अतिमानव है जिसकी कल्पना मनीषियों ने की है, सबसे ऊपर भेड़िया सत्य है।
8. आज तो युद्ध सामग्री भी उपभोक्ता सामान हो गयी है। इसकी खपत के लिये जरूरी अगर लड़ाई है तो वह उत्पादक के लिये नैतिक है। लड़ाई से हथियारों के खरीदार बढेंगे।
9. बेईमान आदमी पैदा करने के लिये खाद दिया जा रहा है और ईमानदार की फ़सल बिना पानी सूख रही है।
10. अब तो जो आदमी भ्रष्टाचार की बात करता है, वह पिछड़ा हुआ है।
11. इस देश के लोगों को जनमेजय की तरह नाग-यज्ञ करना चाहिये। बहुत नाग हो गये हैं। इन्हें यज्ञ वेदी में झोंकना चाहिये ! स्वाहा ! स्वाहा ! पर नागों के रक्षक कई इन्द्र भी हैं।

Saturday, August 29, 2020

परसाई के पंच- 22

 1. ये हमारे भाग्य-विधाता सारे महापुरुषों की दुर्गति कर रहे हैं। बुद्ध, महावीर, गांधी सबको हास्यास्पद बना रहे हैं। ये डरते हैं कि कहीं कोई मन्त्री हमारा नाम लेकर अच्छी बात न कर दे। लोग हंसेंगे।

2. जांच कमीशनों की रिपोर्ट और लता मंगेशकर के गाने , ये दोनों हमारे जीवन में रस भरते हैं। जिन्दगी जीने लायक है क्योंकि; इसमें लता मंगेशकर और जांच कमीशन है।
3. अनन्त स्कैण्डल हैं इस पवित्र भूमि में। हिमालय जिसका मुकुट है, जिसके चरण सागर धोता है, गंगा-यमुना जिसके हृदय-प्रदेश में शोभित हैं, जिसमें राम और कृष्ण जैसे अवतार हुये, जिसमें दुर्योधन, शकुनि, विभीषण पैदा हुये, उस देव-भूमि में सरकार बदलने से स्कैण्डल नहीं बदलते।
4. देशवासियों की मानसिकता ऐसी हो गयी है कि जो चीज जैसी है, वैसी नहीं मानी जाती। उसमें राजनीति तलाशी जाती है।
5. हम पैंसठ करोड़ भारतवासियों के में नब्बे फ़ीसदी बिना चेहरे के आदमी हैं। हमारी कोई पहचान नहीं है। हम आदमी भी नहीं हैं।
6. राजनीतिज्ञों के लिये हम नारे और वोट हैं; बाकी के लिये हम गरीबी, भूख, बीमारी और बेकारी हैं। मुख्यमंत्रियों के लिये हम सिरदर्द हैं और उसकी पुलिस के लिये हम गोली दागने के निशान हैं।
7. पद पाने से बड़ा रचनात्मक काम कौन सा है। कुरसी पर बैठकर उस कुरसी की मरम्मत करते जाना रचनात्मक काम है।
8. सब एकमत हैं कि अपना भला करना, जनता का कोई ध्यान न रखना, मूर्खों के स्वर्ग में रहना, सत्ता के लाभ के पानी से अपने-अपने खेत सींचना ही मतैक्य है।
9. नंगापन देश की एकता को मजबूत करता है। एक धोती पहने हो और दूसरा नंगा हो, यह फ़ूट का लक्षण है। नंगे-नंगे में कोई भेद नहीं होता है। पार्टी में नंगेपन से एकता आती है।
10. एक अरसे से मेरी भी इच्छा रही है कि एक दो संसद-सदस्य, विधायक या लोकल नेता ही खरीदकर रख लूं, कभी काम आयेंगे। लोग केसर, कस्तूरी और संखिया भी वक्त पर काम आने के लिये घर में रखते हैं।
11. भारतीय लोकतंत्र का हाल यह है कि हर पार्टी के लोग बिकाऊ हैं; जिसे जरूरत हो खरीद ले।

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Friday, August 28, 2020

परसाई के पंच- 21

 1. एक देश है ! गणतन्त्र है ! समस्याओं को इस देश में झाड़-फ़ूंक, टोना-टटका से हल किया जाता है ! गणतन्त्र जब कुछ चरमराने लगता है, तो गुनिया बताते हैं कि राष्ट्रपति की बग्घी के कील-कांटे में कुछ गड़बड़ आ गयी है। राष्ट्रपति की बग्घी की मरम्मत कर दी जाती है और गणतन्त्र ठीक चलने लगता है।

2. सारी समस्यायें मुहावरों, नारों और अपीलों से सुलझ जाती हैं। साम्प्रदायिकता की समस्या को इस नारे से हल कर लिया गया है- हिन्दू-मुस्लिम, भाई-भाई !
3. यह गांधी का देश है। यहां हृदय-परिवर्तन से काम होता है। मैं व्यापारियों से नैतिकता की अपील कर दूंगा। वे कीमतें एकदम घटा देंगे।
4. उनकी बात अलग है। वे भारतीय संस्कृति के हिसाब से करते हैं। रखैल रखेंगे मगर सांस्कृतिक ढंग से उससे राखी बंधवायेंगे, उसे धर्म-बहन बनायेंगे, तब वह रखैल होगी। नेता ज्यादा बूढे हुये तो धर्म-पुत्री बनाकर रखेंगे।
5. अनशन फ़ायदे की चीज है, बशर्ते ज्यादा न खिंचे और मौसम्बी का रस पिलाने के लिये कोई ठीक-ठाक बड़ा आदमी मिल जाये।
6. अनशन पवित्र क्रिया है। किसी भी मांग पर हो सकता है। दूसरे की बीबी हड़पने के लिये भी आदमी अनशन कर सकता है। नैतिक प्रभाव और जनमत का दबाव पड़े तो दूसरे की बीबी मिल सकती है। कुल मामला ’इशू’ बनाने का है।
7. आदमी भले हैं। तबादले में कभी पैसा नहीं खाया, इस हद तक निकम्मे हैं। आदर्शवादी हैं।
8. अब कोई आदमी सुरक्षित नहीं है। एक दिन ऐसा आयेगा, जब इस देश के आधे आदमियों की जांच हो रही होगी; बाकी आधे जांच कमीशनों में होंगे।
9. राजनीतिक लाभ के लिये शुद्ध ब्राह्मण गोमाता का मांस मन्दिर में डालकर हिन्दू-मुस्लिम दंगा करवा देता है।
10. राजनीतिक लाभ मिलता हो तो राजनीतिक सूरमा अपनी धर्मपत्नी से पेमेण्ट पर किसी से बलात्कार करवा के हल्ला कर सकता है कि अमुक जाति के आदमी ने मेरी पवित्रता को भ्रष्ट किया। हरिजन कल्याण के मामले में भी हमारी नीति बड़े पवित्र पाजीपन की है। हरिजन को मन्दिर-प्रवेश कराते हैं और उधर उसकी झोपड़ी में आग लगा देते हैं।
11. धर्म,उपकार और दया की पाखण्ड-महिमा अपार है। सुबह नियम से मछलियों को दाना खिलाते हैं और रात को फ़िश करी’ खाते हैं।

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आओ आलसिया जायें

 

रोज की तरह आज फ़िर पांच बजे जाग गये। जाग गये लेकिन उठे नहीं।
जागने का तो ऐसा है कि अलार्म लगा है। रोज घनघनाता है। वो मोबाइल के हाथ में है। उसको क्या? जबका लगाओ, बज जायेगा। लेकिन अलार्म बजने और उठने में फ़र्क है। उठना मुश्किल काम है जी।
जागने के बाद सोचते रहे लेटे-लेटे कि अब उठ जायें। टहल के आयें। जल्दी उठने और टहलने का गाना गायें। लेकिन फ़िर आलस्य ने हाथ पकड़ लिया- रुको यार। उठ जाना। कहां भाग रहे हो बिस्तर का साथ छोड़कर। कौन चुनाव हो रहे हैं जो दलबदल करो। दो मिनट बाद उठना।
हम आलस्य के बहकावे में आकर दो मिनट लेटे रहे। ऐसे न कित्ते दो मिनट हो गये। फ़िर जब पानी सर के ऊपर होता दिखा और समय घड़ी के पार तो झटके से उठ गये। आलस्य ने लपक के पकड़ने की फ़िर कोशिश की लेकिन हम फ़िर फ़ूट लिये उसकी पकड़ से। झट से कमरे का ताला लगाकर नीचे आ गये। लगे टहलने धांय-धांय। जल्दी-जल्दी। जैसे कोटा पूरा करना हो।
आलस्य के चक्कर में हमारे तमाम काम स्थगित पड़े हैं। जरूरी और गैरजरूरी दोनों। जैसे सिस्टम की संगति में अच्छी योजनायें भी वाहियात अमल में बदल में जाती हैं वैसे ही आलस्य की संगति में जरूरी काम भी गैरजरूरी लगने लगते हैं। अंतत: स्थगित हो जाते हैं। आलस्य जरूरी और फ़ालतू का भेद मिटाता है। सबको समान भाव से देखता है। सबको स्थगित करता है। उसके यहां घपला नहीं चलता कि ले-देकर किसी काम को करवा दे और किसी को स्थगित करवा दे।
आलस्य का वात्सल्य अद्भुत होता है। ऐसे प्रेम से व्यवहार करता है कि उसकी संगति से अलग होने का मन नहीं होगा। लगता है कभी उससे जुदा न हों। लगता है वो हमेशा ये गुनगुनाता रहता है – यूं ही पहलू में बैठे रहो, आज जाने की जिद न करो।
आलस्य को लोग बुरा गुण मानते हैं। न जाने कितने उदाहरण बताकर इसको बदनाम करते हैं। आलस्य को मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु बताते हैं। वे तस्वीर का एक पहलू बताते हैं। दूसरा पहलू नहीं दिखाते।
आलस्य का सौंदर्य अद्भुत होता है। इसकी संगति में व्यक्ति परम आशावादी होता है। अपनी क्षमताओं में असीम वृद्धि महसूस करता है। जो काम महीनों तक टालता रहता है उसके बारे में यही सोचता है अरे दो मिनट का काम- हो जायेगा।
आलस्य व्यक्ति को बुरे काम करने से भी रोकता है। आप किसी को सजा देने की सोचते हैं, नुकसान करने की सोचते हैं, सोचते हैं गड़बड़ करके ही रहेंगे लेकिन आलस्य मुस्कराते हुये आपको बरज देता है- अरे छोड़ो यार फ़िर करना। जान देव। मटियाओ।
सोचिये त जरा अगर हम आलसी न होते तो आज अमरीका और न जाने किसको पछाड़ के कित्ता आगे हो गये होते। लेकिन आगे हो जाने के बाद फ़िर करेंते क्या अकेले आगे खड़े-खड़े। अमेरिका की तरह ही कुछ ऊल-जलूल हरकतें न। इसीलिये आराम से खड़ें हैं। खरामा-खरामा प्रगति करते हुये। हड़बड़ाते हुये प्रगति करने से क्या फ़ायदा? उस प्रगति का क्या सुख जिसको फ़ील न किया जा सके। रास्ते में जो मजा है वो मंजिल में कहां?
देखिये इस बात को कवि किस तरह कहता है:
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।
आलस्य की जब कोई बुराई करता है तो बड़ा गुस्सा आता है। मन करता है पकड़कर हिंसावाद कर दें। लेकिन आलस्य बरज देता है। छोड़ यार। हिंसा कमजोर का हथियार है। आलसी को हिंसा शोभा नहीं देती।
दुनिया में जित्ते भी सुविधाओं के आविष्कार हुये हैं वे सब आलस्य के चलते हुये हैं। सुविधा पाना मतलब आलसी हो जाना। अलग आलस्य की शरण में जाने की भावना न होती तो लिफ़्ट न होती, जहाज न होता, कम्प्यूटर न होता।
और तो और अगर आलस्य न होता तो न घपला होता, न घोटाला न करप्शन न स्विस बैंक ने। न मंदी न बंदी। सब आलस्य के उपजाये हैं ये प्रगति के उपमान। आदमी अरबों इकट्ठा करता है सिर्फ़ इसीलिये कि वो और उसकी औलादें आलस्य का संग सुख उठा सकें।
आलस्य की महिमा अनंत है। अविगत गत कछु न आवै की तरह इसके बारे में बहुत कुछ कहते हुये भी सब कुछ कहना संभव नहीं है। उसमें भी आलस्य आड़े आ जाता है। रोक देता है मुस्कराते हुये -बस,बस बहुत हुय़ी चापलूसी। अब बंद करो ये खटराग। आओ आलसिया जाये।
लेकिन आलस्य न होता तो क्या ये लेख हम पोस्ट कर पाते? बताइये।

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Thursday, August 27, 2020

परसाई के पंच- 20

 1. वास्तव में अनाथ तो उस अनाथालय के अध्यक्ष और मन्त्री और कमेटी के मेम्बर हैं। ये लड़के तो उनके पालनकर्ता हैं। ये बैन्ड बजाकर पैसे मांगते हैं और उस पैसे से उन लोगों का पेट भरता है। ये तो अनाथालय के प्रबन्धकों के माई-बाप हैं। असल अनाथ तो वे हैं जो अनाथालय चलाते हैं।

2. टिकट के मौसम में गांधीवादी बाज होता है। झपट्टा मारा और टिकट ले भागे।
3. अपनी स्त्री से बढकर अपनी प्रसंशा सुनने वाला धैर्यवान श्रोता और कौन मिलेगा।
4. जो जितना बड़ा होता है उतनी ही चापलूसी पसन्द होता है।
5. व्यभिचार से जाति नहीं जाती; शादी से जाती है।
6. अरे, जब यह कहा जाये कि स्त्री बाहर निकले , तब यह अर्थ होता है कि दूसरों की निकलें, अपनी नहीं।
7. अश्लील पुस्तकें कभी जलायी नहीं गयीं। वे अब अधिक व्यवस्थित ढंग से पढी जा रही हैं।
8. स्मगलिंग तो अनैतिक है लेकिन स्मगल किये हुये सामान से अपना या अपने भाई-भतीजे का फ़ायदा होता है, तो यह काम नैतिक हो जाता है।
9. साहूकार खुदा का सच्चा नूर होता है।
10. दुनिया भगवान को पूजती है, पर अपने से कम अक्ल भी उसे समझती है।
11. अगर दो साइकिल सवार सड़क पर एक-दूसरे से टकराकर गिर पड़ें तो उनके लिये यह लाजिमी हो जाती है कि वे उठकर सबसे पहिले लड़ें, फ़िर धूल झाड़ें। यह पद्धति इतनी मान्यता प्राप्त कर चुकी है कि गिरकर न लड़नेवाला साइकिल सवार बुजदिल माना जाता है, क्षमाशील सन्त नहीं।

कोरोना काल की सुबह

बेंच पर बैठे लोग

 सबेरे सड़क हाउसफुल लगती है। कुछ लोग सड़क पर इतनीं तेजी से टहलते हैं गोया उनके मन में डर हो कि कहीं सड़क खत्म न हो जाये। मानो सड़क न हुई कोई कुछ देरी की वैलिडिटी वाला ओटीपी हो जिसका उपयोग न होने पर वह खल्लास हो जाएगा।

सरकारें चुनाव के पहले ताबड़तोड़ लोकलुभावन फैसले लेती है उसी तर्ज पर लोग घर पहुंचने से पहले ताबड़तोड़ टहल लेना चाहते हैं।
कुछ लोग आहिस्ते-आहिस्ते भी टहल रहे हैं। कोई हड़बड़ी नहीं। कोई उतावली नहीं। उनको विश्वास है कि सड़क कहीं भागी नहीं जा रही। यहीं रहना है सड़क को। सड़क भी उनकी ही तरह आलसी है। इसलिए जबरियन हड़बड़ाने का कोई मतलब नहीं।
मोड़ पर कुछ लोग 'राम गिनती' कर रहे हैं। 'राम-राम-राम-59', 'राम-राम-राम-60' । उनको देखकर लगा कि राम शिक्षा का माध्यम भी हो सकते हैं। गिनती गिनते हुए लोग ताली भी बजाते जा रहे हैं। ताली से कोरोना ताली याद आई। खूब ताली-थाली बजाई हम लोगों ने। लेकिन कोरोना गया नहीं। बेहया है। नठिया कहीं का। निठल्ला बैठ गया है घुटने टिकाकर। कोई भला आदमी होता तो एक बार कहने पर निकल गया होता। लेकिन इस बेशर्म को कोई फर्क ही नहीं पड़ता। वो तो कहो सुशांत, प्रशांत जैसे लोगों ने टीवी पर इसका आतंक कुछ कम किया वरना इसी करम जले को देखना-सुनना पड़ता टीवी पर।
आगे बेंचों पर काटें रखे हुए हैं। ताकि लोग बैठें न उनपर। बेंचपर कांटे देखकर लगा कि हर बैठने की जगह कांटो भरी होती है। इसीलिए आजकल सरकारें जल्दी-जल्दी बदल जाती हैं। तबादले तेजी से होते हैं। कांटे हर बैठने की जगह पर होते हैं इसीलिए शायद कुदरत ने इंसान के पिछवाड़े की खाली मोटी बनाई है।
लोग फुटपाथ पर बैठे कसरत कर रहे हैं। कोई कपालभाती कर रहा है, कोई अनुलोम विलोम। कपालभाती करते लोग हवा को इतनी जोर से अंदर दबाते हैं कि हवा बेचारी का दिन घुट जाता होगा। क्या पता हवा के कुछ हिस्से दमतोड़ देते हों। टीवी वाले अगर इसे देख पाते तो मार कवरेज के कपालभाती करने वाले को रिया चक्रवर्ती बना देते।
'अनुलोम', 'विलोम' तो एक बड़े दफ्तर के दो फाटक से घुसने-निकलने जैसा है। गेट दो हैं, दरबान एक ही। हवा को एक गेट से घुसा दिया, दूसरे से निकाल दिया। मजाल कि जिस गेट से घुसे उसी से निकल जाए हवा। लेकिन यह बड़े की बात कि कोरोना काल में थर्मल स्कैनिंग न 'अनुलोम' गेट पर हो रही है न 'विलोम' गेट पर। इसीलिए लफड़े वाली हवा भी शरीफ हवा के साथ अंदर घुसकर गड़बड़ करती है।
बगीचे में कुछ पक्षी मार्निंग वॉक कर रहे हैं। बराबर दूरी बनाए हुए। लगता है उनके यहां भी कोरोना मुनादी हो गयी है। लेकिन कोई पक्षी मास्क नहीं लगाए है। दो कुत्ते भी भागते हुए आये। लेकिन भागते हुए भी 2 गज की दूरी बनाए हुए हैं। एक कुत्ता भागते हुए ठहर गया। किनारे गए। टांग उठाकर पेड़ के तने पर 'शंका निवृत्त' हुआ। निवृत्ति के बाद उसके चेहरे पर जिस तसल्ली के भाव दिखे शायद उसी को विद्वान लोगों ने परमानन्द की संज्ञा प्रदान की है।
पता नहीं कुत्तों के यहां शौचालयों के क्या हाल हैं। शायद बाजार की तरह उनको भी लगता हो, जहाँ खाली जगह देखो निपट- निपटा लो। पूरी दुनिया ही उनके लिए शौचालय है। जहां मन आये, गन्दगी फैलाओ।
पता नहीं कुत्तों के समाज में क्या राजनीतिक व्यवस्था है। जो भी हो, कुत्तातन्त्र, लोकतंत्र से अलग कुछ व्यवस्था होती होगी। लोकतंत्र होता तो जगह-जगह कुत्ते भीड़ इकट्ठा करके भाषण देते। शायद सुअरों की मदद से सभाएं करते। लोकलुभावन वायदे करते।जीतने पर गन्दगी दूर करने की कसम खाते। जीत जाने पर सुअरों से इशारे पर नीतियां बनाते। सुअरों के पनपने के लिए गन्दगी फैलाते। चुनाव में मदद का एहसान उतारते।
ऊपर तारपर एक कबूतर अकेला बैठा है। लगता है 'सेल्फ आइसोलेशन' मोड में है। किसी कोरोना कबूतर के सम्पर्क में आ गया होगा। 'वर्क फ्रॉम वायर' के मजे ले रहा है। चोंच से पीठ सहला रहा है। पंख फुला रहा है। फड़फड़ा रहा है।
उधर सूरज भी अपने बहुरंगे परिधान में आसमान के सिंहासन पर विराजे हुए हैं। वहां कोई कांटे नहीं दिख रहे। उनके जलवे के आगे सब कुछ फीका लग रहा है। उनके जलवे पूरी कायनात के जलकुकड़े लोगों की आंखों में कांटे की तरह चुभ रहे हैं। सुबह हो गयी है। यह कोरोना-काल की सुबह है।

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Tuesday, August 25, 2020

परसाई के पंच-19

 1. विश्वास जितना पक्का होता है, उसके टूटने में उतना ही दर्द होता है।

2.कभी-कभी प्रेम के रिश्ते से घृणा का रिश्ता अधिक मजबूत होता है।
3. आदमी का स्वभाव ही ऐसा होता है। घर का गंगाजल नहीं पियेंगे, दूसरे के नाबदान में मुंह डालते फिरेंगे।
4. हमारे मन में एक बना-बनाया नैतिक सिद्धांत है। जो स्त्रियों की ओर देखे वह बुरा आदमी, जो न देखे वह अच्छा आदमी।
5. प्रेम का ही बाजार गर्म है। जैसे उच्च शिक्षित वर्ग में स्नो, पावडर आदि का फैशन है, वैसे ही प्रेम का भी।
6.जिसे आप ईमानदार समझते हैं, वह बेईमान निकल जाता है और जिसे बेईमान समझते हैं , वह ईमानदार निकल जाता है।
7.शुध्द चीज दुनिया में जरा मुसीबत लाती है। शुद्ध चीज से दूर रहना चाहिए।
8. रोग बड़ा बुजदिल दुश्मन है भाई! निरस्त्र पर वार करता है, सम्भलने नहीं देता।
9. भूख से बचने में ही जिसका हर क्षण लगा रहा है, उसे प्यार करने की फुरसत कैसे मिलेगी?
10. कभी-कभी मरा बाप जिंदा बाप से अच्छा होता है।
11. जिसके पास कुछ नहीं होता, अनंत दुख होता है, वह धीरे-धीरे शहादत के गर्व के साथ कष्ट भुगतता है। जीने के लिए आधार चाहिए और सब अभाव में यह दुख ही जीवन का आधार हो जाता है। वे उसे जकड़े रहते हैं,उसमें गौरव समझते हैं।

Monday, August 24, 2020

परसाई होते तो बताते कि हम कितने बौड़म हो चुके हैं

 

[नवभारत टाइम्स में आज। लेख जो हमने भेजा था उससे कई गुना बेहतर होकर छपा। सम्पादन के लिए नवभारत टाइम्स के राहुल का आभार। Chandra Bhushan जी का शुक्रिया जिनको लगा कि मैं परसाई जी पर लिख सकता हूँ।]

हरिशंकर परसाई के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता उनकी निडरता है। अपने समय की विसंगतियों और संकीर्णताओं पर उन्होंने बेपरवाह लिखा और इसकी कीमत भी चुकाई। नौकरी छोड़ने तक में संकोच नहीं किया। उनकी कलम से तिलमिलाकर लोगों ने उन पर हमले किए। आर्थिक अभाव लगातार बना रहा, फिर भी उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। अगस्त परसाई जी का महीना है, 22 अगस्त उनकी पैदाइश है तो 10 अगस्त उनकी रवानगी।
कोई पूछ सकता है कि आज परसाई होते, तो क्या लिख रहे होते। अगर वे होते तो आज की विसंगतियों पर जरूर कुछ ऐसी नियमित चोट कर रहे होते, जिससे वे बहुत बड़े वर्ग की ‘हिट लिस्ट’ में होते। पहले की ही तरह उन पर लगातार हमले हो रहे होते, बल्कि शायद पहले से भी तेज। शायद हाल यह होता कि उन पर उनकी पहले की लिखी किसी ‘पंच लाइन’ के आधार पर कोई पंचायत स्वत: संज्ञान लेकर सजा सुना चुकी होती। या फिर देश के अनेक स्वघोषित बुद्धिजीवी उनके इस वाक्य, ‘इस देश के बुद्धिजीवी शेर हैं, पर वे सियारों की बारात में बैंड बजाते हैं’ के आधार पर उनके खिलाफ मानहनि का मुकदमा दायर कर चुके होते। अंतरात्मा की आवाज पर दल बदलने वाले लोग, ‘अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिए। जरूरत पड़ी तो फैलाकर बैठ गए, नहीं तो मोड़कर कोने से टिका दिया’ जैसी लाइन लिखने के लिए परसाईजी को सबक सिखाने का निर्देश अपने कार्यकर्ताओं को दे चुके होते।
परसाई कहते थे, ‘मैं सुधार के लिए नहीं, बल्कि बदलने के लिए लिखता हूं। वे यह भी मानते थे कि सिर्फ लेखन से क्रांति नहीं होती। हां, उसकी भावभूमि जरूर बन सकती है।’ वे कहते थे कि मुक्ति कभी अकेले की नहीं होती। नौजवानों को संबोधित करते हुए वे लिखते हैं, ‘मेरे बाद की और उसके भी बाद की ताजा, ओजस्वी, तरुण पीढ़ी से भी मेरे संबंध हैं। मैं जानता हूं, इनमें से कुछ कॉफी हाउस में बैठकर कॉफी के कप में सिगरेट बुझाते हुए कविता की बात करते हैं। मैं इनसे कहता हूं कि अपने बुजुर्गों की तरह अपनी दुनिया छोटी मत करो। मत भूलो कि इन बुजुर्ग साहित्यकारों में से अनेक ने अपनी जिंदगी के सबसे अच्छे वर्ष जेल में गुजारे। बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी और दर्जनों ऐसे कवि हैं, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद से लड़े। रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ और अशफाक उल्ला खां, जो फांसी चढ़े, कवि थे। लेखक को कुछ हद तक एक्टिविस्ट होना चाहिए। सुब्रमण्यम भारती कवि और ‘एक्टिविस्ट’ थे। दूसरी बात यह कि कितने ही अंतर्विरोधों से ग्रस्त है यह विशाल देश, और कोई देश अब अकेले अपनी नियति नहीं तय कर सकता। सब कुछ अंतरराष्ट्रीय हो गया है। ऐसे में देश और दुनिया से जुड़े बिना एक कोने में बैठे कविता और कहानी में ही डूबे रहोगे, तो निकम्मे, घोंचू और बौड़म हो जाओगे।’
परसाईजी की तुलना अन्य व्यंग्यकारों से करते हुए कुछ लोग बड़ी मासूमियत से किसी दूसरे व्यंग्य लेखक को किन्हीं मामलों में उनसे बेहतर भी बता देते हैं। ऐसा करने वाले लोग परसाईजी के साथ ही दूसरे लेखकों से भी अन्याय करते हैं। परसाई मात्र व्यंग्यकार नहीं थे। वे लोक शिक्षक थे, समाज-निर्देशक थे। उन्होंने सामाजिक, राजनीतिक चेतना जगाने का काम किया। जबलपुर में भड़के दंगे रुकवाने के लिए गली-गली घूमे। मजदूर आंदोलन से जुड़े। लोक शिक्षण की मंशा से ही वे अखबार में पाठकों के प्रश्नों के उत्तर देते थे। उनके स्तंभ का नाम था, ‘पूछिए परसाई से’ पहले हल्के और फिल्मी सवाल पूछे जाते थे। धीरे-धीरे परसाईजी ने लोगों को गंभीर सामाजिक-राजनीतिक प्रश्नों की ओर प्रवृत्त किया। यह सहज जन शिक्षा थी। लोग उनके सवाल-जवाब पढ़ने के लिए अखबार का इंतजार करते थे।
आज के समय में परसाईजी कहीं ज्यादा प्रासंगिक हैं तो यह उनके लेखन की ताकत और उनकी विराट संवेदना है। अपने बारे में वे कहते थे, ‘मैं लेखक छोटा हूं, लेकिन संकट बड़ा हूं।’ तो लेखक तो परसाईजी अपने समय में ही बहुत बड़े हो गए थे। आज वे होते तो मौजूदा संकटों पर उनकी चोट भी बहुत बड़ी होती, शायद सबसे बड़ी होती।
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परसाई के पंच-18

 

1. गरीब आदमी के घर में कला और संस्कृति की बातें नहीं होतीं। भूखे की कला-संस्कृति और दर्शन पेट के बाहर नहीं होते।
2. आठ हजार वर्षों की संस्कृति के बोझ से दबे इन कुछ लोगों के घरों का यही हाल है कि जो त्याज्य है, अपवित्र है, हानिकारक है, वही अतिथि के लिये है।
3. बाजार में पूजा सड़ी, गली, छोटी और सस्ती सुपारी, खाने की सुपारी से जो अलग मिलती है, उसके पीछे यही फ़िलासफ़ी तो आधार रूप है कि सड़ा-गला जो है वह धर्म और परमार्थ के लिये है। पूजा की सुपारी वह सड़ी सुपारी है, जो खाने के काम न आ सके।
4. जीवित अवस्था में तुम जिसकी ओर आंख उठाकर नहीं देखते उसकी सड़ी लाश के पीछे जुलूस बनाकर चलते हो। मरते वक्त तक जिसे तुमने चुल्लू-भर पानी नहीं दिया, उसके हाड़ गंगा जी ले जाते हो। अरे, तुम जीवन का तिरस्कार और मरण का सत्कार करते हो।
5. जिन्दगी भर तिरस्कार का स्वाद लेते-लेते सहानुभूति मुझे उसी प्रकार अरुचिकर हो गयी थी जिस प्रकार शहर में रहने वाले को देहात का शुद्ध घी।
6. भगवान ने क्रोध से कहा,”पाप-पुण्य के झमेले में पड़ने वाले कायर ! वह दीवाल क्या मेरी बनायी है? तमाम दीवालें आदमियों ने खड़ी की हैं और तू उन्हें तोड़ने में पाप-पुण्य देखता है? मूर्ख ! तेरा कुत्ता तुझसे ज्यादा समझदार है। वह घुस गया, खाया और डण्डे की मार से मरकर यहां आ गया। उसमें मनुष्यत्व है, तुझमें पशुत्व भी नहीं। मैंने तुम्हें बुद्धि दी है; हाथ-पैर दिये हैं, कार्य-शक्ति दी है- और तू अकर्मण्य, बुजदिल कीड़े सा मर गया।
7. साले, मूर्ख ही शोभा देते हैं।
8. धन की जात एक होती है।
9. लगी-लगायी शादियां वे तुड़वाते थे; लड़कियों की कलंक-कथा उनके मुख से आरम्भ होकर प्रचार पाती थी। बदनामी का कारखाना उन्हीं के घर खुला था, जहां रोज माल बनता था और मुफ़्त बंटता था- लोकहितार्थ; भाई-भाई में अनबन वे ही कराते थे। ये सब सामाजिक कार्य उनके द्वारा होते थे। पवित्र आदमी थे।
10. अनेक भारतीय कुलबधुएं पति के हाथ से पिटना अपना अधिकार और गृहस्थ जीवन का जरूरी दस्तूर मानती हैं। अगर उन्हें यह अधिकार न मिले, तो वे बुरा मानती हैं।
11. जब कोई कुलवधू पिटती है, तब मुहल्ले की स्त्रियों को ऐसा लगता है जैसे कोई त्योहार मनाया जा रहा है।

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Sunday, August 23, 2020

परसाई के पंच-16

 1. जिन सवालों के जबाब तकलीफ़ दें उन्हें टालने से आदमी सुखी रहता है।

2. आत्मविश्वास धन का होता है, विद्या का भी , पर सबसे बड़ा आत्मविश्वास नासमझी का होता है।
3. जनता जानती है कि हम कतई पद-लोलुप नहीं हैं, क्योंकि हम पदों पर हैं। जो पद पर नहीं हैं, वही पदलोलुप होता है।
4. जनता बलिदान करनेवाले से बहुत डरती है। बलिदान करने वाला बड़ा खतरनाक होता है। वह उनसे घृणा करने लगता है, जिनके लिये वह बलिदान करता है। वह उनसे बदला लेता है।
5. सरकारी लिफ़ाफ़ा एक लॉटरी हैं – न जाने उसमें से क्या निकल पड़े, जो जिन्दगी सुधार दे।
6. जब कुल का सयाना अन्धा होता है, तब थोड़े-थोड़े अन्धे सब हो जाते हैं। फ़िर जिसे बुरी बात समझते हैं, उसी को करते हैं।
7. दुनिया में सब लड़ाई को बुरा बोलते हैं। सब शान्ति की इच्छा रखते हैं, पर सब हथियार बनाते जा रहे हैं।
8. अंको का ज्ञान मुझे बचपन में ’पीपरमेण्ट’ की गोलियां गिनकर कराया गया था, बड़ा होने पर मेरा गणित का ज्ञान पैसों में ही उलझ गया और अब मुझे गिनती की जरूरत इसीलिये महसूस होती है कि पहिली तारीख को तन्ख्वाह बांटने वाला बाबू कम रुपये न दे दे, अधिक की तो सम्भावना ही नहीं है।
9. इस विशाल देश में ऐसा कोई पुरुष नहीं, जिसे रूप, गुण, शील में समानता करने वाली योग्य स्त्री न मिल सके।
10. हमारे विश्वास परायण समाज में चन्दा मिलना मुश्किल नहीं है। अब तोअ 25 प्रतिशत कमीशन पर पेशेवर चन्दा इकट्ठा करने वाले भी मिल जाते हैं।
11. विचित्रता और असामन्जस्य अक्सर महानता का भ्रम कराते ही हैं।

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