Monday, August 31, 2015

खुशहाली का इनकम से कोई सम्बन्ध होता है?

आज दोपहर को पुलिया पर ये भाई जी मिले। एकदम तसल्ली से बीड़ी पी रहे थे। हमने भी बिना डिस्टर्ब किये तसल्ली से बात की। शुरुआत 'लेडीज़ साइकिल' पर चलने से हुई। फिर एक बार जब शुरू हुई तो होती गयी। बात निकलेगी तो दूर तलक जायेगी की तर्ज पर।

रसीद नाम है इनका। खेत खलिहान बाग़ बगीचे में मजदूरी का काम करते हैं। जान पहचान के लोग बुलाते रहते हैं। आज भी एक ने बुलाया था। वहीं जा रहे थे। रस्ते में पुलिया पड़ी तो बीड़ी फूंकते हुए आरामफर्मा हो लिए। मजदूरी के 150 से 200 रूपये तक मिल जाते हैं रोज।

3 लड़के और 2 लड़कियों के बाप रसीद शुरूआती पढ़ाई के बाद नहीं पढ़े। 2 या 3 तक पढ़े हैं। सरकण्डे की कलम और होल्डर से लिखना याद है। पुलिया पर लिखकर भी बताया। बोले -समय की पढ़ाई बढ़िया होती थी। अख़बार वगैरह बांच लेते हैं।

लड़के भी कोई 5 कोई 7 कोई 8 तक पढ़ा है। सब धंधे से लगे हैं। कबाड़ का धंधा है। किसी की मोटर रिपेयर की दुकान। दो बेटों और एक बेटी की शादी हो गयी। दूसरी बिटिया पढ़ रही है। जिंदगी मजे से कट रही। बेटे काम करने को मना करते हैं।पर खुद-खर्च और हाथ-पाँव चलाते रहने के लिए काम करते रहते हैं।

बीड़ी, पान और चाय के शौक़ीन रसीद इसीलिये रोजा भी नहीं रहते क्योंकि भूख तो सध जाती पर बीड़ी की तलब पर वश नहीं। लड़के रहते हैं रोजा। 2 बण्डल बीड़ी पी जाते हैं रोज। हमने कहा सेहत को नुकसान होगा। देखो साँस फूल रही तुम्हारी तो बोले-अब आदत पड़ गयी। बाकी इस उमर में बीमारियां तो पकड़ने को दौड़ती ही हैं।
कभी-कभी दोस्तों के साथ दारू भी पी लेते हैं। बढ़िया कच्ची मिल गयी तो।

बीबी टोकती नही दारू और बीड़ी के लिए यह पूछने पर बोले-अब क्या ठोकेगी? वो अपनी बहु बच्चों में मस्त रहती है। हम बाहर पड़े रहते हैं अपने में मस्त।

बीबी का नाम अफ़साना बेगम बताया रसीद ने। हमने पूछा-अलग पड़े रहते हो मतलब बीबी से बातचीत मोहब्बत ख़त्म हो गयी क्या? इस पर रसीद मुस्कराते गए बोले-अरे अब बहू बेटों के सामने उसके बगल में साथ में थोड़ी बैठते हैं। बाकी तो आदमी बन्दर की औलाद होता है। कित्ता भी बुढ्ढा हो जाये लेकिन कुलाटी मारना थोड़ी भूलता है।

सुबह चार बजे उठकर चाय की दुकान पर चाय पीने चले जाते हैं। सब्जी भाजी ले आते हैं। गैस फैस का काम कर देते हैं। फिर जहां काम मिलता है निकल लेते हैं। कभी-कभी एकाध रोज बाहर ही रह जाते हैं। घर में सबको पता है कोई परेशान नहीं होता।

150 से 200 से रूपये रोज कमाने वाले 45 साल के रसीद को जिंदगी से कोई शिकायत नहीं। खुशहाल हैं। मजे में हैं।

मैं यह सोचते हुए दफ्तर चला गया कि क्या खुशहाली का इनकम से कोई सम्बन्ध होता है?

Sunday, August 30, 2015

जहां देख लो जाम लगा

अनूप शुक्ल की फ़ोटो.कल जैसे ही कानपुर पहुंचे, लखनऊ चलने का फरमान जारी हुआ। पता तो पहले भी था लेकिन मन में कहीं यह भी था कि शायद न जाना पड़े।

जाने का साधन कार। स्टार्ट किये तो हुई नहीं। धक्का लगवाये - हो गयी। अपने देश में कोई काम बिना धक्का लगाये होता कहां है। देश की बात तो हवा-पानी के लिये कहे। यह बात तो न्यूटन बाबा के जड़त्व के नियम के हिसाब से है-' कोई भी वस्तु अपनी स्थिति में बनी रहना चाहती है जब तक उस पर बाह्य बल न आरोपित किया जाये।'

बैटरी का हमको कई महीनों से पता है कि खत्म हो चुकी है। अक्सर असहयोग धरना दे देती है। लेकिन धक्का लगने पर फिर स्टार्ट। सुबह एक बार धक्का लगने पर दिन भर चल जाती। जैसे क्रिकेट खिलाड़ी के रिटायरमेंट का हल्ला मचने पर वह अच्छा खेल जाता है और लोग डबल हल्ला मचाते हैं -'अभी बहुत क्रिकेट बची इसमें।इसको खेलने दिया जाय।' उसी तरह स्टार्ट होने के पहले सोचते कि बस आज ही बदलते हैं बैटरी। लेकिन गाड़ी चलने के बाद लगता अभी बहूत बैटरी बची है इसमें। इसको चलने दिया जाये।

बहरहाल गाड़ी जब स्टार्ट हो गई तो चल दिए।सड़क पर भीड़ मिली। गंगा बैराज पर तमाम लोग पिकनिक मनाते दिखे। आगे गंगा किनारे घास फ़ूस और हरियाली की चादर बिछी मिली। हम सुहानी धूप में गाना सुनते हुए चल रहे थे:

आजा सनम मधुर चांदनी में हम-तुम मिलें
तो वीराने में भी आ जायेगी बहार।
कुछ दूर आगे कई गाड़ियां कतार में खड़ी थीं।हम भी खड़े हो गए। लेकिन गाड़ी बन्द नहीं की। डर था कि कहीँ बन्द हो गयी तो धक्का परेड की जरूरत होगी।भीड़ में धक्का कौन लगाएगा।गर्मी से बचने के लिए एसी भी चला रहे थे। जाम देर तक लगता दिखा तो यह डर भी लगा कि पेट्रोल जो लगातार कम हो रहा था -कहीँ खत्म न हो जाए। बैटरी के कारण गाड़ी बन्द न करने के निर्णय और पेट्रोल के चलते बन्द करने की इच्छा के दो पाटों के बीच मेरा मन पिस रहा था।

इस बीच लोग अपनी-अपनी तरह से जाम से निकलने का प्रयास कर रहे थे। जिसको जहां जगह मिलती, घुस जाता। आगे जाकर फंस जाता। एक पगडण्डी टाइप रास्ता दिखा जो आगे जाकर क्रासिंग पर मिलता दिख रहा था। कुछ गाड़ी वालों ने बिना कुछ सोचे उस पर अपनी गाड़ियां हांक दीं। आगे जाकर फंस गए। जो जाम सिर्फ सड़क पर था वह अब वैकल्पिक रास्ते पर लग गया था। कुछ ऐसा ही जैसे वैकल्पिक राजनीति करने के हल्ले के साथ आये लोग परम्परागत राजनीति करने वालों जैसी ही और कुछ मामलों में और भी चिरकुट राजनीति करते पाये जाते हैं। हम मुख्य सड़क पर जाम में फंसे हुए पगडण्डी पर फंसे गाड़ीवानों के निर्णय पर हंस रहे थे।

इस बीच कई दुपहिया वाहन वाले दूसरी तरफ से उचक-उचककर खेत,पगडंडी होते हुए क्रासिंग के पास पहुंचने की कोशिश में लग गए। जाम की एक तीसरी लाइन भी लग गयी। तीनों लाइनों में फंसे गाड़ीवान यही समझ कर खुश हो रहे थे कि वे बेहतर जाम में फंसे हैं। अब यह अलग बात कि उनके साथ की सवारियां उनको इस बात के लिए कोस रहीं थीं कि वे गलत जाम में फंस गए।

अगर लोग जाम लगाने में लगे तो कुछ उसको खुलवाने में भी लगे थे।उन्होंने एक बस ड्राइवर को कोसते हुए सबको बता दिया कि अगर वह बस बीच में न घुसेड़ता तो अब तक जाम खुल जाता। पता चलते ही जाम में फंसे लोग मिलकर भुनभुनाते हुए बस वालों को कोसने लगे।इनमें वे लोग भी शामिल थे जिन्होंने इधर-उधर घुस कर स्थानीय जाम में इजाफा किया था। यह कुछ ऐसे ही जैसे लाखों का नियमित घपला करने वाले अरबों का घोटाला करने वालों को कैसे।

जाम खुलवाने वाले अनायास ही 'जाम दरोगा' हो गए। लाइन तोड़ कर आने वालों को घुड़कने लगे-'बहुत जल्दी है तुमको।सबर नहीं है। पीछे हटो।लाइन से लगो।' लोग पीछे हो जाते। इस बीच लोग गाड़ियों से हवा खोरी करने के लिए नीचे उतरने लगे। एक फुट आगे बढ़ने की गुंजाईश दिखती तो लपक कर बैठ लेते। एक ने पीक थूकने के इरादे से गाड़ी का दरवज्जा खोला। लेकिन इस बीच गाड़ी चल दी, उसने पीक सहित मुंह अंदर कर लिया।
अगल-बगल की गाड़ियों में लोग ऊबते हुए, झींकते हुए उबासी लेते हुए बैठे थे। कुछ लोग बतियाते हुए हंस भी रहे थे। कुछेक लोग अपने मोबाईल में घुसे मुस्करा रहे थे। शायद वे कोई मजेदार पोस्ट पढ़ रहे होंगे या मनपसन्द दोस्त से बतिया रहे होंगे। वे जाम में फंसे होते हुए भी जाम से बाहर थे। उनके मन कलकत्ता,दिल्ली, रामपुर, झुमरी तलैया में विचरण कर रहे होंगे- 'उनहिं न व्यापी जाम गति।'

जाम में फंसे हुए हमने त्यौहार के दिन बाहर निकलने के निर्णय को कोसा। निर्णय पत्नी का था लेकिन हम सीधे उनको जिम्मेदार ठहराने से बचना चाहते थे। इसलिए जिमेदारी के लिए 'हम' का प्रयोग कर रहे थे। वो यह समझकर चुप रहीं कि मैंने इस निर्णय की जिम्मेदारी अपने सर पर ले ली है। हम यह सोचकर प्रफुल्लित कि बहाने से ही सही मैंने आधा दोष तो उनके सर मढ़ ही दिया और वो कुछ बोल नहीं पायीं।
हमने भी मौका पाते ही जाम में फंसे-फंसे एक कविता फोटो सहित ठेल दी:
अहा सड़क जीवन भी क्या
जहां देख लो जाम लगा।
हमको मोबाईल व्यस्त देख श्रीमती जी ने देखा लेकिन कुछ बोली नहीं। इस बीच जाम दो फुट सरका तो उन्होंने कस के टोंका-'आगे बढ़ाओ गाड़ी।' उनके टोंकने में नाराजगी का भी तड़का था।हमने जल्दी से गाड़ी आगे बढ़ाई।गाड़ी कुछ ज्यादा ही तेजी से बढ़ी और आगे एक टेम्पो के एंगल से जा मिली। बम्पर घायल हो गया। गाड़ी खड़ी हो गयी।

गाड़ी को दुबारा स्टार्ट किया हुई नहीं। बैटरी 'धक्का मुआवजा' मांगने लगी। इसी विकट समय में जाम खुल गया। अगल-बगल की सब गाड़ियां चिंचियाने, भर्राने लगीं। हम निरीह से चाबी घुमा रहे थे। गाड़ी आगे नहीं बढ़ रही थी।

इसके बाद हम सबकी निगाहों में 'जाम विलेन' बन गए। पीछे वालों का वश चलता तो वो हमको रौंदकर आगे निकल जाते। फिर हमने 'जाम दरोगा' से अनुरोध किया धक्का लगाने का तो उसने मुझे कुछ सुनाने के लिए मुंह खोला लेकिन साथ में 'श्रीमती कवच' देखकर कुछ नहीं बोला। धक्का लगवाया। श्रीमती भी साथ लगने को हुईं तो बोला-आप गाड़ी में बैठिये। क्रासिंग के पास चढ़ाई में जाम में फंसी किसी की गाड़ी में धक्का लगाना बड़े पौरुष का काम है। हमारी गाड़ी ने नखरे किये लेकिन उसने उसको स्टार्ट होना पड़ा।

आज मीडिया में किसी नेता की लोकप्रियता का पैमाना है यह कि उसके कहने पर इतने लोग जमा हुए। गलत पैमाना है यह। जमा तो लोग ऐसे ही हो जाते हैं। नेता की लोकप्रियता इस बात से आंकी जानी चाहिए कि उसके कहने पर जाम हट गया ।जो जितना बड़ा जाम हटवा दे वह उतना बड़ा नेता।

आगे थोड़ी देर पर फिर जाम मिला। लेकिन हम बड़े जाम को झेलकर आये थे सो ज्यादा डरे नहीं। लेकिन गाड़ी बन्द नहीं की। हमको पक्का पता चल गया था कि बैटरी के दिन पुरे हुए। इसको न बदला तो किस्तों में नर्क रोज मिलेगा। दूसरों की भलमनसाहत का बहुत इम्तहान लेना ठीक नहीं।

हमने अपने हुंडई के अखिलेश को फोन लगाया। हमारी गाड़ी जब भी कहीँ रुकी हमको सबसे पहले वही याद आते। सोचा ऐसा न हो कि बैटरी बदलवा लें और समस्या कोई और हो। अखिलेश ने नम्बर बताया उन्नाव के हुंडई डीलर का। हम वहां पहुंचे। पता चला कि वे लोग जाने ही वाले थे पर फोन आया अखिलेश का तो रूक गए। एकदम वहीं पर बैटरी ने फिर दम जैसा तोड़ दिया।फिर वर्कशाप के लोगों ने धक्का लगाकर गाड़ी स्टार्ट की। देखकर तय पाया गया कि बैटरी ही गयी है। अब उसको विदा करने का वक्त आ गया।

समस्या जो हम सोच रहे थे वही थी यह सोचकर थोड़ा अच्छा लगा यह जानकर कि हम सही सोच रहे थे।हम और वर्कशाप वाले इस बात पर एकमत थे कि बैटरी बदल देने के अलावा कोई चारा नहीँ। यह कुछ सरकार और विपक्ष के इस बात पर एकमत होना जैसा था कि देश से गरीबी, भुखमरी मिटानी होगी।

बैटरी बदलने का निर्णय लेने के बाद बैटरी खोज शुरू हुई। वर्कशाप वाले रखते नहीं बैटरी। बगल की दुकान बन्द। एक ने बताया कि पास में एक दुकान पर हो सकती है। हम पत्नी को वर्कशाप पर छोड़कर फिर से गाड़ी को धक्का स्टार्ट करके बैटरी खोज में निकले। वर्कशाप का एक बच्चा साथ था। आगे मोड़ पर बैटरी ने फिर असहयोग किया। गाडी फिर रुक गयी। बच्चा अकेला। धक्का दे नहीं पा रहा था। अंतत: वह पैदल गया बैटरी खोज में। पांच मिनट की दूरी पर थी दुकान।

बच्चा जब चला गया तो हमको पत्नी की सुरक्षा की चिंता हुई।वर्कशाप में उनको अकेला छोड़ आये थे।कोई और ग्राहक थे नहीं। कई बार फोन किये उनको कोई न कोई बात के बहाने। अपने कार से आने के निर्णय को भी कोसा। मोटरसाइकिल से भेजना चाहिए था बैटरी लेने बच्चे को।

लेकिन कुछ देर में ही बच्चा बैटरी वाले को लेकर आ गया। दोनों ने मिलकर धक्का लगाया गाडी को। गाडी दुकान पर पहुंची। बैटरी बदली गयी। 15 साल गाड़ी पुरानी गाड़ी के तो लगा अच्छे दिन आ गए। हम गाड़ी को बार-बार स्टार्ट करते हुए उस सुख को महसूस करते रहे जिससे कई दिनों से वंचित रहे।

आगे जाम फिर मिला। लेकिन हम उससे ज्यादा चिंतित हुए बिना 'जाम सुख' लेते हुए कभी चींटी और कभी खरगोश की चाल से लखनऊ पहुंचे। अब लौटते समय न जाने किस गति से लौटना हो।

कानपुर और लखनऊ दो स्मार्ट सिटी बनने वाले हैं।दोनों के बीच की 80 किमी की दूरी है। दो स्मार्ट शहरों की 80 किमी की दुरी तय करने में 8 घण्टे लगे।स्मार्ट शहर बन जाने पर इसमें कोई बेहतरी होगी लगता नहीं।
हम इसी तरह स्मार्ट होते जा रहे हैं।

Saturday, August 29, 2015

अहा सड़क जीवन भी क्या

अहा सड़क जीवन भी क्या
जहां देख लो जाम लगा।

कोई इधर काटता जल्दी से
कोई पलट लौटता आगे से।

कोई पों पों पों करती गाड़ी
काट बगल से हुआ अगाड़ी
ऐसी चलता हम अंदर बैठे
लाइन वाहनों की पिछाड़ी।

देखो बस घुस गयी बीच में
जाम बढ़ गया औ झाम हुआ
दो मिनट में खुलता रस्ता जो
लगता घण्टे का काम हुआ।

बीबी झल्लाती है दूल्हे पर
बस वाला मुआ घुसा कैसे
दुपहिया निकलीं सब खेतों से
चौपहिया खड़ी सब ऐसे वैसे।

क्या अब मितरों को याद करें
खुलवाओ जाम फरियाद करें
ये देखो रेल दिखी पटरी पर
अब थोडा और इंतजार करें।

Friday, August 28, 2015

आम आदमी की जिन्दगी का एक दिन





आज सुबह ठीक 5 बजे उठ गए। कट्टा कानपुरी का रात रिकार्ड वीडियो फेसबुक पर सटाया।उसके दो ठो शेर फिर से:
मेरी महबूबा मेरी बीबी बने न बने कोई बात नहीं
मैं उसके बच्चों को ट्यूशन पढाना चाहता हूँ।
मेरे अब्बा की तमन्ना थी मैं फर्राटे से अंग्रेजी बोलूं
मैं पोस्टमैन का पूरा एस्से सुनाना चाहता हूँ।
लोग सुबह-सुबह सरपट भागते हुए से मॉर्निंग वाक कर रहे थे। एक आदमी लुंगी पहने टहल रहा था।उसकी लुंगी के दो हिस्से आपस में हर मुद्दे पर मतभेद रखने वाले जीवनसाथी की तरह हर कदम पर अलग-अलग फ़ड़फ़ड़ा रहे थे। कमर पर बंधी गांठ ही विवाह बन्धन की तरह उनको एक साथ रखे थी वरना क्या पता वे अलग हो लेते।
बहुत दिन से Rohini को देखा नहीं था।उसका घूमने का समय और रुट तय है।छह बजे तक वह लौट जाती है।हम साढ़े पांच बजे निकले थे।यह समय उसके लौटने का होता है। हम गेट नम्बर छह जहां तक होकर वह वापस लौटती है गए।वहां से लौटते हुए काफी दूर तक नहीं दिखी तो मुझे लगा कि लौट गयी होगी या फिर आज निकली नहीं होगी वाक के लिए।

लेकिन फैक्ट्री के गेट नम्बर 3 के आगे स्कूल के पहले तेजी से वाक करते हुए दिखी रोहिनी। दो महीने करीब के बाद मुलाकात हुई। बोली -मैं जब भी वाक पर निकलती तो मेस के सामने से गुजरते हुए देखती कि शायद अंकल निकल रहें हों सुबह की साइकिलिंग पर।

इस बीच रोहिनी की नौकरी वहीं लग गयी है जहां से वह पीएचडी कर रही है। सोमवार से जाना होगा शायद। पीएचडी का काम भी चल रहा है आगे। 6-7 किलोमीटर दूर है कालेज। जाने का साधन के बारे में मैंने सुझाव दिया साइकिल से जाया करो। जब तक अपनी खरीदना तब तक मेरी ले लेना।

रोहिनी टहलने के समय के प्रति बहुत नियमित है।एन सीसी के दिनों से आदत है।आर्मी में जाना चाहती थी।पर जब जाने का मौका मिला उस समय तक ग्रेजुएशन पूरा करने के मन के चलते नहीं जा पायी।

व्हीकल गेट से शोभापुर रेलवे क्रासिंग तक हम लोग साथ-साथ बात करते गए। वह तेज टहलते हुए और मैं धीमे साइकिल चलाते हुए।रास्ते में सब सुबह टहलने वालों से नमस्ते/गुडमॉर्निंग भी होती जा रही थी। हनुमान मन्दिर के पास जो सरदार जी मिले थे वे लौटते हुए दिखे। एक दिन वे उल्टे ब्रिक्स वाक करते हुए दिखे थे।

रोहिनी ने बताया कि उसकी मम्मी भी हमारे बारे में जानती हैं।यह भी कि मेरा जन्मदिन 16 सितम्बर को पड़ता है। उसकी बिटिया का जन्मदिन भी 16 सितम्बर को पड़ता है। बिटिया की खूब सारी फोटो एक दो दिन पहले लगाई थीं उसने। बिटिया को भी स्टाइलिश फोटो खिंचवाने का शौक है।हर मम्मी की तरह रोहिनी को भी अपनी बिटिया बहुत शरारती लगती है।

16 सितम्बर को मैं 52 साल का हो जाऊंगा।रोहिनी की बिटिया 2 साल की।हमने कहा दोनों मिलकर जन्मदिन मनाएंगे। कुल जमा 54 साल मिलकर धमाल करेंगे।

कई बार की मुलाकात के बावजूद रोहिनी की फोटो नहीं ली थी मैंने अब तक। आज पूछकर ली। तीन फोटो में वही सबसे अच्छी लगी मुझे जिसमें वह हंसते हुए दिख रही है। सलामत रहे यह हंसी सदैव।

रोहिनी शोभापुर रेलवे फाटक के बाद अपने घर की तरफ चली गयी। ओवरब्रिज के नीचे लोग सुबह का खाना बना रहे थे। तीन चूल्हे जो दिख रहे यहां वो सब कुण्डम से आये लोगों के हैं। एक आदमी पतीली और भगौना मांज रहा था। हमने पूछा -घर में भी कभी मांजते हो बर्तन। बोला -नहीं। घर में वह काम करने में आदमी की मर्दानगी को बट्टा लगता है जो काम वह बाहर रोज करता है।एक आम हिंदुस्तानी मर्द अपनी मर्दानगी की रक्षा इसी तरह करता है कि घर में रहते हुए वो वे काम न करे जो आम तौर पर औरताना माने जाते हैं।

महिला अकेली आई है घर से बाहर काम करने। आदमी घर में रहता है। काम नहीँ करता। एक बेटी एक बेटा है घर में।बेटा भी काम करता है।बिटिया शादी लायक है। किसी बात के जबाब में महिला बोली-घर में खाने को रोजी रोटी का जुगाड़ होता तो यहां घूरे में काहे को पड़े होते।

आदमी को 250 रूपये और औरत को दो सौ रुपये मिलते हैं दिहाड़ी। आदमी औरत की दिहाड़ी में 20% भेदभाव ।
जनधन योजना या फिर 1 रूपये वाली बीमा योजना के बारे में कुछ नहीं पता इनको। ये सारी योजनाएं अख़बारों,टीवी, रेडियो और सोशल मिडिया पर पायी जाती हैं। उनमें से किसी तक इनकी पहुंच नहीं है।यह हाल स्मार्ट सिटी बनने जा रहे जबलपुर के बीचोबीच रहते लोगों के हैं। फिर दूर दराज के गावों तक कितनी पहुंचती होंगी योजनाएं इसका अंदाज लगाया जा सकता है।

मैंने कहा कि इसके बारे में बताएंगे अगले हफ्ते। कोशिश करेंगे कि ओवरब्रिज के नीचे रहते लोगों को इसके बारे में बता सकें।

मेरे बात करते करते एक आदमी उस महिला के पास खड़ा होकर बीड़ी पीते बात करने लगा।मैंने फौरन सोचा कि क्या यह महिला भी बीड़ी पीती है। और भी कई बातें। यह सोचते ही मुझे लगा कि मेरा नजरिया स्त्री के प्रति एक आम पुरुष के नजरिये से अलग कहां है। औरत घर से बाहर कमाने को निकली है। पति और बच्चे घर में छोड़कर। हर संघर्ष करते हुए भी पुरुष सोचता है कि स्त्री  सुलभ माने जाने वाले गुणो को भी धारण किये रहे।

आगे दीपा मिली। हैण्डपम्प पर नहाने जा रही थी।उसके पापा ने बताया -" पहले घर का काम करती थी। पढ़ती रहती थी। सब खेलती रहती है।न घर का काम न पढ़ाई। हमने कह दिया-जाओ हैण्ड पम्प से नहा कर आओ।"
लौटकर दीपा से मिलने की सोचकर हम आगे चले गए। चाय की दुकान पर अख़बार में छपी एक आतंकी सज्जाद के पकड़े जाने की सुचना पर लोग प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे थे। कुछ इस तरह:

1.साले को निपटा देना चाहिए था।।पकड़कर क्या सेल को बिरियानी खिलाएंगे।
2. अभी साले कसाब को दो साल खिलाया पिलाया।अब इस साले पर करोंडो बरबाद करेंगे।
3. यहां साले को पंखा तलक नसीब नहीं। उसको साले को ऐसी में रखेंगें।
4. मार देना चाहिए। साले से कहते भाग और मार देते गोली। कहते भाग रहा था साला।
उपरोक्त प्रतिक्रियाओं में हर वाक्य की शुरुआत या फिर अंत माँ-बहन की गालियों के सम्पुट से हो रहा था।हम लिख नहीँ रहे लेकिन आप यथास्थान उनको लगाकर पढ़ सकते हैं।

लौटते हुए देखा कि दीपा नहाकर लौट रही थी। सर पर बाल्टी और हाथ में कपड़े। उसके लिए लाया बिस्कुट का पैकेट दिया उसको और बताया कि अंकल उसके लिए बस्ता लाने वाले हैं। उसका बस्ता फट भी गया है।
पापा कि शिकायत पर पुछा तो बोली- हम खेलते रहते हैं इसलिए पापा ने आज हैण्ड पम्प पर भेजा नहाने। सर खुजाती दीपा से पूछा-रोज सर क्यों नहीं धोती तो बोली पापा मना करते हैं। हमने उसके पापा को कहा रोज धोने के लिए टोकते क्यों हो तो बोला-अब नहीं टोंकेगे।शैम्पू ला देंगे आज ।

दीपा से हमने कहा-तुमको किताबें ला देंगे ।पढ़ा करना। शाम को कभी आएंगे मिलने। फिर कहा-पर तुम तो कारखाने में रहती हो। इस पर वह बोली-आप आओगे तो हम आ जाया करेंगे घर।इसके फौरन बाद अपने पापा की तरफ देखकर बोली-पापा आप भी आ जाया करो जल्दी। पापा कुछ बोला नहीं लेकिन मुझे अभी भी दीपा की बात याद आ रही है।

चलते हुए पिता बेटी की फोटो ली। बच्ची पिता की बगल में सिमटी हुई है। पिता के साथ बेटी के चेहरे पर आश्वस्ति और पिता के चेहरे पर अनगढ़ वात्सल्य भाव को ब्यान करने के लिए शब्द नहीं मेरे पास।
सुबह हो गयीं। आप मजे से रहें।।जिनके प्रति आपके मन में कोई भी अच्छे भाव हैं प्रदर्शित कर लें।संकोच न करें। आपका दिन मंगलमय हो। शुभ हो।

Thursday, August 27, 2015

अधूरे पड़े कामों की लिस्ट

आज पानी बरस रहा। घूमने नहीं जा पाये। खराब लगा। कुछ अच्छा भी। खराब इसलिए कि किसी से मुलाकात नहीं हो पायी। अच्छा इसलिए कि इत्मिनान से टीवी देखते हुये,चाय पीते हुए बाहर बरसते पानी को देख रहे हैं।
इतना लिखने के बाद मन किया पत्नी को फोन करने का। वो अभी स्कूल में होगी। फोन किया उठा नहीं। कई काम एक के बाद एक याद आये करने के लिए। कल शाम को मन किया ऐसे कामों की सूची बनाई जाए जो मैं पिछले दिनों करना चाहता था लेकिन शुरू भी नहीं कर पाया।

आगे कुछ लिखने के पहले कुछ दोस्तों के गुडमार्निंग आ गए व्हाट्सऐप और फेसबुक पर। कुछ को हमने पहले से भेज दिए। आते-जाते गुडमॉर्निंग कहीं मिलते होंगे एक-दूसरे से तो पता नहीं आपस में हाउ डू यु डू करते होंगे कि नहीं। क्या पता करते भी हों।

सम्भव है मेरे मोबाईल से निकला सन्देश जिस मोबाईल टावर पर सुस्ता रहा हो उसी टावर पर दोस्त का भी सन्देश बैठकर चाय पी रहा हो।दोनों आपस में बातचीत करके जहां से आये और जहां जा रहे वहां के हाल-चाल ले रहे हों।

क्या पता हमारे मोबाइल से निकला सन्देश दोस्त के मोबाइल से निकले सन्देश से कहता हो-'अरे जल्दी जाओ यार,आज वो टहलने नहीं गया। इंतजार में है कि जल्दी से सन्देश आये तो मुस्कराये।'
सन्देश वार्ता को फिर से स्थगित कामों की लिस्ट बनाने वाले विचार ने धकिया दिया। बोला अब तुम जाओ हम पर काम होने दो। काम शुरू हो तब तक सामने टीवी पर मुकेश की आवाज गूंजने लगी:
चाँद सी महबूबा हो कब ऐसा मैंने सोचा था
हाँ तुम बिलकुल वैसी हो जैसा मैंने सोचा था।
येल्लो एक आइडिया और उछलकर सामने आ गया। जैसे ललित मोदी और व्यापम घोटाले को धकियाकर गुजरात में पटेल आरक्षण का मुद्दा मीडिया पर पसर जाये वैसे ही यह नवका आइडिया बोला-पहले हम पर लिखिए न जी। देर किये तो हम किसी और के की बोर्ड चले जाएंगे। तमाम लोग बैठे हैं सुबह-सुबह हमको लपकने के लिए।

हमने आइडिया को देखा। नई सी लगती चीज कह रहा था 'चाँद सी महबूबा' वाले गाने के सिलसिले में।बोलता है--'देखिये बिम्ब की दुनिया में भी कितना घपला है गुरु। महबूबा स्त्रीलिंग होती है। महबूब पुल्लिंग। लेकिन देखिये यहां महबूबा को चाँद जैसी बताने की भी बात हुई। ऐसा सालों से हो रहा है।कितना बड़ा बिम्ब घोटाला है यह। बिम्ब की दुनिया में यह समलैंगिकता न जाने कब से जारी है और आज तक किसी ने इस पर एतराज नहीं किया।'

हमने आइडिया से कहा-ठीक है। तुम तो पहले भी कई बार आ चुके दिमाग में।लिखेंगे कभी इत्मीनान से।हड़बड़ी न करो। आराम से रहो। आइडिया भुनभुनाने लगा। उसकी मुद्रा कुछ ऐसी दिखी मानो कुछ और आइडिये उसका साथ देते तो दिमाग में इंकलाब जिंदाबाद कर देता।

कुछ और लिखने के पहले पास में रखे थर्मस को उसका ढक्कन 4 चक्कर घुमाकर चाय निकाली। ठण्डी हुई चाय को पिया। दो ही घूंट तो बची थी। मन किया कि और मंगा लें क्या चाय? फिर मन के उसी हिस्से ने तय किया -अब नहीं। बहुत हुई दो चाय सुबह से।

अधूरे पड़े कामों की लिस्ट फिर से फड़फड़ाने लगी।बोली हमपर लिखो पहले। हमने कहा इतनी बड़ी लिस्ट कैसे लिखे भई तुम पर। लिस्ट बोली हमें कुछ न पता। नहीं लिखोगे तो और जोर से फड़फड़ाने लगेंगे। लिखो चाहे आधा-अधूरा ही लिखो। 'आधा-अधूरा' से लगा कि लिस्ट वाला आइडिया पढ़ा-लिखा सा है। मोहन राकेश का नाटक 'आधे-अधूरे' पढ़ने की तरफ इशारा कर रहा है।

खैर आइये आपको कुछ उन बातों का जिक्र करते हैं जो हम।करना चाहते थे लेकिन अब तक कर नहीं पाये। बिना किसी क्रम देखिये:
1. मन था कि कोई एक दक्षिण भारतीय भाषा सीखें।नहीँ सीख पाये।
2. मराठी शब्दकोश के सहारे पु.ल.देशपांडे को पढ़ना चाहते थे। नहीं पढ़ पाये।
3. अपने पास रखी सब किताबें पढ़ने का इरादा अमल में नहीं ला पाये।
4.साइकिल से नर्मदा परिक्रमा करने का आइडिया अमल में नहीँ ला पाये।
5.पेंटिंग और कोलाज बनाना सीखने का मन था। नहीं कर पाये।
6. किसी छुट्टी के दिन पैसेंजर ट्रेन से पचास-साठ किलोमीटर जाकर वापस आने की सोच अमल में नहीं ला पाये।
7.जिन लोगों के रोज फोटो लेते उनको बनवाकर देने का मन था फोटो । नहीं दे पाये।
8. नेत्र दान, देहदान का फ़ार्म भरना था। नहीं भर पाये।
9.एक लेख लिखना था - स्त्री -पुरुष का लिंग साल में एक माह के लिए बदलना अगर अनिवार्य होता तो समाज व्यवस्था पर उसका क्या असर होता।
10. एक लेख इस पर भी कि साल एक माह जीवनसाथी का मनमर्जी के साथी के साथ रहने की व्यवस्था होती समाज में तो क्या फर्क पड़ता।
12.अपने फेसबुक के सारे लेख उठाकर ब्लॉग पर डालना चाहता था। अब तक पूरा नहीं कर पाया।
13. अपने व्यंग्य लेख की किताब पूरी करने का मन था। नहीं हो पाया।
14. नियमित कम से कम एक व्यंग्य लेख लिखने की चाहत पर अमल नहीं कर पाया।
15. अपने कई मित्रों से अरसे से बात नहीं कर पाया उनसे बात करने का मन था। नहीं कर पाया।
16.फेसबुक पर जिनके अनुरोध आये उनको स्वीकार करना था नहीं कर पाया।
17.जिन कामों को हम समय की बर्बादी मानते हैं उनको कम करना चाहते थे नहीँ कर पाये।
18.कई पुरानी पिक्चर्स देखने का मन था नहीं देख पाये।

ओह कितनी तो इच्छायें है जिनको हम पूरा करना चाहते हैं लेकिन कर नहीं पाये। अभी तो शुरू भी नहीँ पाये लिखना। इनमें दफ्तर और पारिवारिक जिंदगी से सम्बंधित बातें तो लिखी ही नहीं।

बहरहाल यह सोचते हुए कि अभी तक नहीं किया तो क्या आगे तो कभी किया जा सकता है न। वो कहा गया है न-सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है। आगे देखा जायेगा।

फ़िलहाल तो दफ्तर का समय हुआ। चलना पड़ेगा। चलते हैं। आप मजे करो। मस्त रहा जाए। खुश। मुस्कराते हुए।मुस्कराता हुआ इंसान दुनिया का सबसे खूबसूरत इंसान होता है। आप भी हैं अगर अभी आप मुस्करा रहे हैं। सच्ची ।

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इसमें सब मिले हुए हैं

कल ट्रेन दो घण्टा से भी ऊपर आई। हमारा डब्बा प्लेटफार्म से करीब 20 मीटर नीचे आता है। गिट्टियों पर चलते हुए पैर फिसलता है तो गाना याद आ जाता है- 'आज रपट जाएँ तो हमें न बचइयो' हम फिर खुद को हड़काते हैं कि ट्रेन में बैठने तक जूते ही पहनने चाहिए। चप्पल आरामदायक भले लगें लेकिन खतरनाक हैं।

गिट्टियों के ऊपर खम्भे के पास खड़े होकर ट्रेन का इंतजार करते रहे। समय बीत गया तो नेट देखे। गाड़ी डेढ़ घण्टा पीछे खड़ी थी। हमारे साथ के लोग प्लेटफार्म की तरफ लौट गए। हम वहीं पटरी के किनारे पड़े एक सीमेंट स्लीपर पर पसर के बैठ गए। बगल में बैठे लोगों की लंतरानी सुनते रहे।

रेल लेट होती रही। रात अपनी 'गुडमार्निंग' कहते हुए आई और पसर गई। कई मालगाड़ियां खरामा-खरामा बगल से गुजर गयीं। दो मीटर की दूरी पर बैठे यही सोचते रहे कि जो लोग इनके नीचे जानबूझकर आ जाते हैं उनको कित्ती जोर की चोट लगती होगी।

चारो तरफ अँधेरा पसर गया। पटरी के किनारे बैठे हम सोचते रहे कि कोई सांप अगर आ गया और हमको दिखा नहीं तो का होगा। काट-कूट लिया तो बहुत हड़काये जाएंगे कि क्या जरूरत थी जब पटरी किनारे बैठने की जब पता था कि ट्रेन लेट है।

खुद भले अँधेरे की गोदी में बैठे थे पर नेट की लुकाछिपी के बीच दोस्तों से भी जुड़े रहे जहां पूरी रौशनी थे। पोस्ट्स देखते रहे।

ट्रेन आई तो लपके। टीटी दरवज्जे पर ही खड़ा था स्वागत के लिए। पूछिस- 5 नम्बर बर्थ। ए के शुक्ला।मन किया 'या' बोल दें। फिर ध्यान आया कि कोई चैटिंग थोड़ी कर रहे जहां लोग भाव मारने के लिए 'फोटो' को 'पिक' और 'हाँ' की जगह 'यप्प'/'या' बोलते हैं। हमने फिर उसको 'हां' बोला और बैठ गए बर्थ पर। बर्थ में चार्जर प्वाइंट लगा था और ठीक भी था यह देखकर हमारी बांछे वो शरीर में जहां कहीँ भी हों खिल गयीं।

बैठते ही घर से लाया खाना खाया। बचे हुए छोले हाथ से उँगलियाँ चाटते हुए खाये। सुबह देखा तो चम्मच भी मिली झोले में। लगा कि चीजें हमारे पास होती हैं लेकिन हम सोचते हैं वो होंगी नहीं और अपना काम निकाल लेते हैं। वे चीजें विरहणी नायिका सी अपने उपयोग का अंतहीन इंतजार करती रहती हैं।

सुबह आँख खुली तो गाड़ी कटनी स्टेशन पर रुकी। एकदम सामने चाय वाला था। लेकिन हमारे कने फुटकर पैसे न थे। पांच सौ का नोट। चाय वाले ने साफ मना कर दिया कि एक चाय के लिए वो पांच सौ वाले गांधी जी को फुटकर में नहीं बदलेगा।

ऊपर की बर्थ से नीचे आया बच्चा इन्जिनियरिग करके हांडा टू व्हीलर में काम करता है। 2010 में कोटा से इंजिनयरिंग किया। चार साल बाद कम्पनी बदल करके इस कम्पनी में आया। कुँवारा है। सगाई हो चुकी है।
हमने पूछा कि शादी खुद की मर्जी से कर रहे या घर वालों की मर्जी से। बोला-घर वालों की मर्जी से। हमने पूछा-कोई प्रेम सम्बन्ध भी रहा क्या? बोला-हां। दो साल रहा। हमने पूछा-उससे शादी क्यों नहीं की? बोला-दोनों के घर वाले नहीं माने। हमने कहा-बड़े बुजदिल हो यार। प्रेम किया और शादी नहीं कर पाये। फिर पूछा-किसने मना किया? तुमने या लड़की ने। बोला- दोनों ने। जब दोनों के ही घर वाले नहीं माने तो दोनों ने तय किया कि घर वालों की मर्जी के खिलाफ शादी नहीं करेंगे।

लड़के से मैंने कहा- सही में प्रेम था। और सही में शादी करना चाहते थे तो घरवालों की मर्जी के खिलाफ करनी थी शादी यार। क्या खाली टाइमपास प्रेम था। बोला-मैं छह महीने अड़ा रहा। पर फिर पापा डिप्रेशन में चले गए। फिर हमने तय किया नहीं करेंगे शादी। लड़की की शादी हो भी गयी।

शादी किसी का व्यक्तिगत निर्णय है। कोई प्रेम करे वह शादी करना भी चाहे यह जरूरी नहीं। लेकिन करना चाहे पर कर न पाये सिर्फ इसलिए कि घर वाले नहीं मान रहे । यह अच्छी बात नहीं। जात-पांत और हैसियत के चलते प्रेम सम्बंधों का परिवार वेदी पर कुर्बान हो जाना अपने देश का सबसे बड़ा सामाजिक घोटाला है। यह घोटाला सदियों से हो रहा है पर कोई इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता क्योंकि इसमें सब मिले हुए हैं।
गाड़ी जबलपुर पहुंच गई। इसलिए फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो।

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Wednesday, August 26, 2015

लिखे जो खत रकीब को ....

कल एक वीडियो लगाया अपनी आवाज में उस पर दोस्तों में काम भर की दाद मिली। हो सकता है तारीफ बस यूँ ही टाइप हो लेकिन सहज विश्वासी होने के नाते हमने उनको सच माना। तारीफ़ को सच मानते ही 'कट्टा कानपुरी' की दूसरी तुकबन्दियाँ भी ठुनकते हुए बोली- हमको भी 'यू ट्यूब' ले चलो। फेसबुक पर सटाओ।
हमने हीला-हवाली की तो कुछ युवा तुकबन्दियां तो नारेबाजी करने लगीं। नारे चुक गए तो इंकलाब जिंदाबाद और वन्देमातरम की चिंघाड़ लगाने लगी। मजबूरी में फिर हमने एक मोहब्बत की तुकबन्दी को 'यू ट्यूब' पर डाल दिया। सुनिए।आप भी लाइक तो कर ही चुके।

यह वीडियो और कल का वीडियो भी लगाते हुए कहना यह है कि जिन मित्रों को कविता /कहानी/ व्यंग्य पाठ या फिर गीत में रूचि है वे भी अपनी आवाज में यू ट्यूब पर टेप करके साझा कर सकते हैं। हमसे खराब आवाज तो किसी की ही हो शायद।जब हम साझा कर सकते हैं तो आप क्यों नहीं।
फिलहाल यह वीडियो सुनिए:

https://www.youtube.com/watch?v=AnTooQ5CVqU

सुन सुन दीदी तेरे लिए

सुन सुन दीदी तेरे लिए
एक रिश्ता आया है।
https://www.youtube.com/watch?v=URgwYbOoNuM
पंकज टी स्टाल पर यही गाना बज रहा। आज निकले तो पुलिया छट्ठू सिह दुसरे पुलियाहरों के साथ दिखे। खड़े हो गए हमको देखकर। अटेंशन टाइप। हम भी उनके सम्मान में साइकिल से उतरकर बतियाने लगे।
गाना बजने लगा:
बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ
आदमी हूँ आदमी से प्यार करता हूँ।
https://www.youtube.com/watch?v=cLSAwKmFxZM
पहले के मुकाबले समय कैसे बदला है। यह पूछने पर छट्ठू सिंह ने बताया-बहुत बदल गया। आदमी के पास खाने को नहीँ था पहले। सन 42 में एकबार खाता था आदमी लेकिन पहलवानी करने जाता था। हौसले की बात कर रहे थे शायद। मुंह में एक्को दांत नहीँ। आवाज मुंह से निकलती लेकिन इधर-उधर फुट लेती। समझ नहीं आती। हाल बकौल Mukesh Sharma जी -हाथ पांव कीर्तन कीर्तन, मुंह पंजीरी बांटे।
छट्ठू दिन कलकत्ता, आसाम भी रहे । वहां के किस्से सुनाये। बताया- जीवन में कोई ऐसा नहीँ जिसको पास कोई दुःख नहीं हो।
बाजू आ आ आ
बाबू समझो इशारे हौरन पुकारे पम पम पम
यहाँ चलती को गाड़ी कहते हैँ प्यारे पम पम पम
https://www.youtube.com/watch?v=e47BnRL1H74
रस्ते में कई अभिभावक मिले । दुपहिया वाहनों पर अपने स्कूल जाते बच्चों को बस में बैठाने के लिए खड़े थे। बस का इन्तजार कर रहे थे। वाहनों की कुर्सी पर बैठे हुए। गाना बज रहा है:
सावन का महीना पवन करे शोर
जियरा रे झूमे ऐसे, जैसे वन मां नाचे मोर।
https://www.youtube.com/watch?v=LWy_RhgFeVA

पंकज टी स्टॉल पर चाय पी रहे हैं लोग। एक आदमी बड़े ध्यान से सिगरेट पी रहा है। ध्यानमग्न। प्याज की कीमत, सेंसेक्स की धड़ाम से मुक्त गगनबिहारी सोच को डिस्टर्ब करना ठीक नहीं लगा। सिगरेट पीकर एक इंच सफेद हिस्से के साथ उसने जमीन पर फेंक दिया। सिगरेट का टुकड़ा धुंए के साथ सुलगता हुआ जमीन पर पड़ा था। उससे करीब दो फिट की दूरी पर एक दूसरा टुकड़ा सुलग रहा था। पता नहीं दोनों एक दूसरे को देख पा रहे थे कि नहीं। देख पाते तो शायद यह गाना गाते जो बज रहा है:
अंखियो के झरोखे से, मैंने देखा जो साँवरे
तुम दूर नजर आये,बड़ी दूर नजर आये।
https://www.youtube.com/watch?v=KqpIIaCJggY
गांजा पीने वाले आड़ में गांजा बना रहा हैं। जैसे कट्टरपंथी लोग पहले अपने अनुयायियों का मूल दिमाग निकालकर बाहर करते हैं फिर उसमें अपनी विचारधारा ठूंसते हैं उसी तरह ये गंजेड़ी बीड़ी की तम्बाकू निकाल कर उसमें तैयार गांजा भर रहे हैं। जैसे अपनी विचारधारा से लैस करने के बाद कमांडर कहता होगा- अब यह बन्दा तैयार हो गया- काम के लिए/प्रचार के लिये/संहार के लिये। वैसे ही बीड़ी में गांजा भरने के बाद गंजेड़ी सोचता होगा -बीड़ी तैयार हो गई। अब आएगा परम आनंद।
अगला गाना बजने लगा:
सारे के सारे
गामा को लेकर
गाते चले।
https://www.youtube.com/watch?v=b_kTeoaSkek

चाय की दूकान पर अनीता आ गयी। कूड़ा बिनती है।आज उठने में देर हो गयी। तबियत ठीक नहीं है।लेकिन आ गई कि 40-50 का कुछ तो मिल जायेगा।पूछती है-चाय पी लें भैया? चाय पीते हुए बताती-आदमी रिक्शा चलाता है। सब पैसा दारु में उड़ा देता है। इसलिये कूड़ा बीनना पड़ता है।चार बच्चे हैं ।दो लड़के, दो लड़की। बड़ी बेटी 22 की।
उम्र पूछने पर बोली -60 के होंगे। फिर शादी के समय की उम्र करीब 18 साल और बच्ची की उम्र 22 साल मिलाकर उम्र तय होती है- 40 से 42 साल। फोटो खिंचवाने को पहले मना किया फिर कहा-खींच लो।दिखाई तो जिन भावों से देखती रही फोटो वह मुझे समझ नहीं आया आँखों में क्या भाव थे। अपने को देखते हैं कभी-कभी तो कैसे मिले-जुले भाव होते होंगे कुछ वैसे ही।मुझे सबसे ज्यादा उदासी और असहायता का भाव दिखा।शायद मेरी समझ में उसकी आर्थिक सामाजिक स्थिति की बात भी छायी हो।
पंकज टी स्टाल से चलते समय गाना बज रहा है:
आ जा सनम, मधुर चांदनी में हम-तुम मिले
तो वीराने में भी आ जायेगी बहार,
झूमने लगेगा आसमां।
https://www.youtube.com/watch?v=B5MBVZpPzi0
मधुर चांदनी तो मिलेगी 12 घण्टे बाद। अभी तो आप सूरज भाई की किरणों की संगत में मजे से रहिये। मुस्कराइए। देखिये और महसूस करिये कि पूरी कायनात आपकी मुस्कान के साथ कदमताल कर रही है।
हां, और सम्भव हो तो इन गानों को सुनिए भी जिनको सुनते हुए मैंने यह पोस्ट लिखी। बताइये कैसा लगा?
रांझी में पंकज टी स्टाल से की गयी पोस्ट की गलतियां कमरे पर पहुंचकर ठीक की जाएँगी।तब तक आप मस्त रहें।
सब लोग सुखी रहें । स्वस्थ रहैं। मस्त रहें।
मन करे तो ’कट्टा कानपुरी’ का कलाम सुनें मेरी आवाज में
https://www.youtube.com/watch?v=No9FXPiKMUQ&feature=youtu.be

फ़ेसबुक लिंक:
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Tuesday, August 25, 2015

सेंसेक्स गिरा धड़ाम से

सेंसेक्स गिरा धड़ाम से, लगी बड़ी जोर की चोट,
प्याज उचकता देखता, खड़ा बाजार को ओट।

उचक रहा था जोर से, बस फिसल गया है पाँव,
आवारा सा तो है घूमता, लग जाता ठाँव-कुठांव ।

मरहम पट्टी है हो रही, जारी हो रहे बयान,
कुछ हुआ नहीं बाजार को, बस निकल गए हैं प्रान।

-कट्टा कानपुरी

Monday, August 24, 2015

द्विवेदी जी से मुलाकात

कल शाम Sharma Shankar Dwivedi जी से मिलना हुआ। हम लोग आर्डनेंस फैक्ट्री कानपुर में काफी दिन साथ रहे। कानपुर से रिटायर होने के पहले मेडक और उसके पहले व्हीकल फैक्ट्री जबलपुर में रहे।

मूलत: कन्नौज के रहने वाले द्विवेदी अपने देश के ऐसे तमाम लोगों की तरह हैं जिनमें प्रतिभा खूब होती है लेकिन जिनको जानकारी के अभाव में मंजिल देर से मिलती है। पढ़ने लिखने में अच्छे होने के बावजूद कन्नौज में कहां किसको पता कि आगे क्या करना होता है। शुरुआत वी ऍफ़ जे से अराजपत्रित अधिकारी के रूप में करके फिर जबलपुर में रहकर ही ए एम आई ई किया। यू पी एस सी से राजपत्रित अधिकारी हुए और अंतत: कानपुर रिटायर हुए संयुक्त महाप्रबन्धक के पद से।

जानकारी के अभाव में जो उपलब्धियां खुद को देर से मिलीं उनको अपने बच्चों के माध्यम से पूरा करने का काम किया ।मेहनत और लगन से पढ़ाये उनके दोनों बेटे अमेरिका में व्यवस्थित हैं।


भाभी जी की दोनों बहुरिया अमेरिकन हैं। वो थोड़ा हिंदी सीखी तो भाभी जी थोड़ा
अंग्रेजी। कल स्काइप पर अमेरिका में अपनी बहुरिया और उसके बच्चों से बतियाती हुई भाभी जी के चेहरे की चमक देखकर लगा कि ख़ुशी अगर कुछ होती है तो उसका एक 'स्नैप शॉट' यह रहा।

बहुत दिन बाद मुलाक़ात और बातचीत हुई द्विवेदी जी से। अपने काम काज में अव्वल रहे हमेशा द्विवेदी जी। भाषा पर जबरदस्त अधिकार। बोलते बहुत अच्छा हैं। उनको सुनते हुए लगता है कि काश ऐसी दमदार आवाज हमारी भी होती। साल के कुछ महीने बेटों के पास गुजारते हैं अमेरिका में। वहां के संस्मरण लिखने चाहिए द्विवेदी जी को।

हमारा लिखा पढ़ते रहते हैं दोनों लोग। भाभी जी ने अभी अलग खाता नहीं बनाया फेसबुक पर। हमारी एक तुकबन्दी को द्विवेदी ने फैक्ट्री की पत्रिका में प्रकाशित किया था। देखिये आप भी:

आओ बैठें ,कुछ देर साथ में,
कुछ कह लें,सुन लें ,बात-बात में।

गपशप किये बहुत दिन बीते,
दिन,साल गुजर गये रीते-रीते।

ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।

पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।

बस तनातनी है, बड़ा तनाव है,
जितना भर लो, उतना अभाव है।

हम कब मुस्काये , याद नहीं ,
कब लगा ठहाका ,याद नहीं ।

समय बचाकर , क्या कर लेंगे,
बात करें , कुछ मन खोलेंगे ।

तुम बोलोगे, कुछ हम बोलेंगे,
देखा – देखी, फिर सब बोलेंगे ।

जब सब बोलेंगे ,तो चहकेंगे भी,
जब सब चहकेंगे,तो महकेंगे भी।

बात अजब सी, कुछ लगती है,
लगता होगा , क्या खब्ती है ।

बातों से खुशी, कहां मिलती है,
दुनिया तो , पैसे से चलती है ।

चलती होगी,जैसे तुम कहते हो,
पर सोचो तो,तुम कैसे रहते हो।

मन जैसा हो, तुम वैसा करना,
पर कुछ पल मेरी बातें गुनना।

इधर से भागे, उधर से आये ,
बस दौड़ा-भागी में मन भरमाये।

इस दौड़-धूप में, थोड़ा सुस्ता लें,
मौका अच्छा है ,आओ गपिया लें।

आओ बैठें , कुछ देर साथ में,
कुछ कह ले,सुन लें बात-बात में।

तमाम यादें हैं। उनको साझा करने के लिए और नई जोड़ते रहने के लिए हमारे ये बुजुर्गवार स्वस्थ,सानन्द सलामत रहें। जोड़े से ऐसे ही सटे हुए फोटो खिंचवाते रहें सालो साल।

Sunday, August 23, 2015

चाय के बहाने कुछ यादें


सुबह की शुरुआत चाय से होती है। अगर टहलने नहीं जाते तो उठने के पहले बोल देते हैं लाने के लिए।। उठकर जब तक मुंह धोते हैं तब तक चाय आ जाती है।

चाय की शुरुआत जब हुई तब हम कानपुर के गांधीनगर वाले कमरे में रहते थे। सबेरे अंगीठी जलती। अम्मा चाय बनाती। सबको देती।

जाड़े के दिनों की याद है। पत्थर के कोयले की अंगीठी के पास अंगीठी तापते हुए चाय पीते। अम्मा कुछ दिन तक चाय में नमक डालकर पीती रहीं। फिर छोड़ दिया।

अम्मा चाय शुरू से स्टील के ग्लास में पीतीं थीं। कांच के ग्लास या कप में चाय कभी नहीं पी। पानी भी स्टील के ग्लास में ही पीती थीं। हम उनसे मजे लेते थे-'तुम बहुत चालाक हो अम्मा! स्टील के गिलास में इस लिए चाय पीती हो ताकि कोई देख न ले और तुम भर कर पियो।'

चाय जब अंगीठी में बनती थी तब तो दिन में सिर्फ दो ही बार मिलती। जाड़े में जबतक अम्मा पूजा करतीं तब तक पहले कच्चे कोयले को और फिर पत्थर के कोयले को दफ़्ती से धौक के सुलगा देते। फिर चाय बनती। अंगीठी में चाय बनती थी इसलिए दिन में सिर्फ दो बार ही हो पता।

फिर इंजीनियरिंग कालेज गए। वहां 30 पैसे की चाय मिलती। धड़ल्ले से पीते रहते। कुछ नहीं समझ आता तो चल देते चाय की दूकान पर। घण्टों बरबाद होते। आबाद होते।

घर में गैस आने के बाद दिन में कई बार चाय बनती। सुबह इस समय तक 2 से 3 चाय हो ही जाती। कभी दोपहर तक आधा दर्जन चाय हो जाती। कभी-कभी डांट भी पड़ती। बस, अब चाय नहीं। अम्मा थीं तो देखतीं कि बहुत मन है बच्चे का तो अपने खुद के 'अब चाय नहीं मिलेगी' के फरमान को धता बताते हुए धीरे-धीरे चलते हुए चुप्पे से मेज पर चाय धर देतीं। कहतीं- 'चुपचाप पी लो। अब इसके बाद नाम न ले देना चाय का।'

हमारे साथ के तमाम लोग लेमन टी, ब्लैक टी या और तमाम तरह की टी पीते हैं। लेकिन हम दूध की चाय के अलावा और कोई चाय पसन्द नहीं कर पाते।' ब्लैक टी' को हम SAG टी मतलब सीनियर एडमिस्ट्रेटिव ग्रेड टी कहते हैं जो कि लोग ऊँचे ओहदे पर पहुंचकर पीने लगते हैं। हमें SAG हुए 3 साल हुए लेकिन चाय के मामले में हम 'एक चाय व्रता' हैं। दूध,चीनी और पत्ती वाली चाय के अलावा और किसी को पसन्द नहीं कर पाते।

हम चाय ज्यादा पीने के लिए बदनाम हैं। दिन में कई बार पीते हैं। मुझे लगता है कि शायद ऐसा है नहीं। कई बार चाय आती है। थर्मस में रखी रह जाती है।दफ्तर में भी ऐसा होता है। चाय तो मुझे लगता है कि सिर्फ एक आदत है। कुछ और नहीँ तो चाय सही। हमारे बॉस तो कई बार घण्टी बजाते है और जब तक अर्दली आता है तब तक भूल जाते हैं कि किसलिए बुलाया। याद आ गया तो ठीक। नहीं याद आया तो बोल देते हैं- चाय ले आओ। गेट सम कॉफी।

हमारी अर्दली भी दिन में दो तीन बार खासकर लंच के समय यह शाम को जाते समय पूछ लेती है- साहब चाय बना दें। हम दफ्तर में नहीं होते तो जाते समय चाय बनाकर प्लेट से ढंककर रख जाता है दूसरा अर्दली। भले ही ठण्डी होने के चलते हम उसको न पी पाएं।

हमारे दफ्तर (खुद और मीटिंग का मिलाकर) और कमरे की चाय का कुल खर्च 1000 -1200 होता है। इसमें मीटिंग्स और दूसरों के दफ्तर में पी गयी चाय का खर्च नहीं शामिल। हम कई मजदूरों से बात करते हैं।कइयों की महीने की आमदनी 4/5 हजार है। जितनी आमदनी में कोई अपना परिवार चलाता है उसका एक चौथाई हम सिर्फ इसलिए खर्च देते हैं क्योंकि और कुछ समझ नहीं आता करने को।

खैर खर्च की तो कोई सीमा नहीं।खर्च करने को तो कोई छत पर हेलिपैड बनवाता है, कोई लाख रूपये के पेन से लिखता है, कोई लाखों का सूट पहनता है। हम तो सिर्फ 1000 रूपये खर्चते हैं।

अब आप कहेंगे कि यह तो ऐसे ही हुआ जैसे कोई अरबों-खरबों के घोटाले की दुहाई देते हुए अपने लाख दो लाख के घपले जायज बताये। संसद ठप्प होने को गरियाता हुआ खुद का काम बन्द रखे यह कहते हुए-महाजनो एन गत: स: पन्था।

लोग कहते हैं चाय से एसिडिटी होती है। लेकिन हमें नहीं हुई अब तक। चाय के पहले हमेशा पानी पीते हैं। चाय हमेशा ठण्डी करके पीते हैं। कोल्ड ड्रिंक गर्म करके। लेकिन चाय अगर ठण्डी मिली तो कहते हैं गर्म करके लाओ। चाय को ठंडा करना हमारा काम है। हम।करेंगे।कोई और क्यों करे इसको ?

चाय सम्वाद का माध्यम भी है। किसी से बात करनी है तो बैठाकर चाय मंगा लेते हैं। आजकल चाय की दूकान पर भी बात इसी बहाने होती है लोगों से। खड़े हुए और चुस्की लेते हुए बतियाने लगे। उमाकांत मालवीय जी की कविता है न:

एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो बस सामान यह रहा।
कभी-कभी सोचते हैं कि चाय छोड़ दें। लेकिन फिर लगता है कि चाय छोड़ देंगे तो उन लोगों को कितनी परेशानी होगी जिनके यहां हम जाते हैं तो वो हमको चाय पिलाते हैं। चाय एक सस्ता सहज आथित्य पेय है। हम किसी दूसरे को क्यों परेशान करें। लेकिन सोचते हैं कम।कर दें? कितनी कम करें ? बोलो दोस्तों -10 ? 8? 5? या और ज्यादा। बताओ देखते हैं फिर।

जो लोग स्वास्थ्य कारणों से चाय छोड़ते हैं उनका तो फिर भी ठीक। लेकिन जो चाय को खराब मानकर पीते ही नहीं उनके चेहरे पर 'हम चाय पीते ही नहीं' कहते हुए वही तेज और आत्मविश्वास दीखता है जो बकौल वैद्य जी ब्रह्मचर्य की रक्षा करने पर दीखता होगा।

हम भी कहां-कहां टहला दिए आपको चाय के बहाने सुबह-सुबह। आज इतवार है। कइयों की छुट्टी होगी। मजे करिये। हमारी तो फैक्ट्री खुली है। रक्षाबन्धन की छुट्टी के बदले आज ओवर टाइम। हम ओवर टाइम वाले तो नहीं लेकिन दूकान खुली है तो जाना तो होता है न। चलते हैं दफ्तर।

देखिये आपको हम बहाने से बता भी दिए कि सरकारी लोग भले ही कितना बदनाम हों लेकिन कुछ लोग हैं जो इतवार को भी दफ्तर जाते हैं।

फिलहाल तो आप मजे कीजिये। मस्त रहिये।हम चलते हैं दफ्तर।

फ़ेसबुक पोस्ट :
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Friday, August 21, 2015

एक चाय की चुस्की एक कहकहा

छट्ठू सिंह
सुबह निकले तो पुलिया पर दो बुजुर्ग मिले।हाल-चाल लेन-देन हुआ। कई लोगों के बारे में बताये कि वो याद कर रहे थे। हमको पुलकित टाइप हुए कि लोग हमको याद करते हैं।

ये यादें भी न बड़ी जालिम चीज होती हैं। कहीँ भी, कभी भी बेसाख्ता जेहन में घुसकर खलबली मचा सकती हैं।कोई वीसा, पासपोर्ट नई चहिये इनको। बिना 'में आई कम इन' कहे आपके स्मृति पटल पर पसर जाती हैं। तम्बू तान देती हैं। हो सकता है आप किसी का खिलखिलाता, होंठ बिराता चेहरा याद कर रहे हो और वो ऐन उसी वक्त किसी जाम में फंसा पसीने से लथपथ जाम खुलने का इन्तजार कर रहा हो। जब किसी की याद में आपकी नींद उड़ी हो उस समय वह पंचम सुर में खर्राटे ले रहा हो। यह भी हो सकता है कि यादों का छापा दोनों जगह एक साथ पड़े और दोनों किसी एक ही बात को याद करके खिल रहे हों। यह 'याद अनुनाद' की स्थिति बड़ी जालिम और खुशनुमा टाइप होती होगी। इसके बारे में फिर कभी।

आगे एक सज्जन पीठ की तरफ चलते हुए 'ब्रिस्क वॉक' कर रहे थे। उनकी तेजी देखकर लगा कि इनकी टहल तो शिक्षा व्यवस्था की तरह है। लगातार पिछड़ती जा रही है।

मोड़ पर ही मिले छट्ठू सिंह। उम्र अस्सी साल। 1935 की छपरा, बिहार की पैदाइश। सन् 42 का गदर देखा।आजादी आते देखी। परिवार में छठे नम्बर पर थे सो नाम मिला छट्ठू सिंह। खुद के पांच बच्चे थे। एक नहीं रहा।चार बचे।

बर्तन का काम करते हैं। ऑटो चलते हैं। कलकत्ता में बैलगाड़ी चलाई। टनों माल ढोते थे। जबलपुर आये सन् 1978 में। तब से यहीं हैं।

दांत सारे मुंह से समर्थन वापस लेकर बाहर हो गए हैं छट्ठू सिंह के। लेकिन बाकी स्वास्थ्य टनाटन है।चपल गति से टहलते हुए बोले-पहले का खानपान।बात ही कुछ और थी।बत्तीसी लगवाने के सवाल पर बोले-डाक्टर बोलता है केविटी बनाएगा। ये करेगा। वो करेगा। हम बोले-'दुत। ऐसे ही काम चल रहा चकाचक। नहीं लगवाये।'
बिहार चुनाव की बात पर बोले-हमारा वोट तो यहां है। जो जीतेगा सो जीतेगा। कभी-कभी जाते हैं घर।

महेश
चाय की दुकान पर मिले महेश। उम्र करीब 50 साल।साईं मन्दिर में भीख मांगने का काम करते हैं। पहले होटल में काम करते थे। 50 रूपये मिलते थे। फिर कुछ साल भीख भी मांगी। अब 10 साल से भीख मांगते हैं। खाना पीना भी मन्दिर में ही होता है।

पिता व्हीकल फैक्ट्री से रिटायर है। 22 साल पहले। इत्ते से थे (जमीन से एक फुट ऊपर हाथ दिखाकर) तब माँ नहीं रही। बाप ने दूसरी शादी कर ली तब हम इत्ते से थे( हाथ थोडा और ऊपर करके बताया) तब दूसरी शादी कर ली।दूसरी माँ प्यार नहीं करती थी। बाप दारु के नशे में रहता। दादी-बाबा हमारे पैर पकड़कर मरे यह कहते हुए कि तुम हमारे भगवान हो।इतनी सेवा की हमने उनकी।

हमने पूछा -शादी नहीं की? बोले नहीं की। हमने पूछा -क्यों? बोले-बाप ने की ही नहीं। हमने पूछा-कभी किसी औरत का साथ रहा? बोले-नहीं रहा। हमने आजतक किसी लेडिस को छेड़ा नहीं। हमने कहा-बात छेड़ने की नहीं भाई। हम साथ की बात पूछ रहे।फिर हमने पूछा-साथ रहने का मन तो करता होगा किसी के? इस पर बोले महेश-हां क्यों नहीं करता। लेकिन बाप ने शादी ही नहीं की तो क्या करें?

हमें लगा क्या मजेदार है अपना देश। लड़का चाहे और सब मर्जी से करे लेकिन शादी बाप की मर्जी से ही करता है। अपने समाज में शादी एक ऐसा खाता है जिसका पासवर्ड माँ-बाप को ही पता होता है। उन्हीं से खुलता है।
कोई नशा नहीं करते कहते हुए महेश ने जेब की पुड़िया से कलकत्ता बीड़ी निकाल कर सुलगा ली।
अपने परिवार के बारे में बताते हुए बोले-बड़ा भाई राजेश ट्रक चलाता था। दो साल से लापता है। उसके चार बच्चे हैं।एक लड़की तीन लड़के। सब हमारे घर रहते हैं। बाप खर्च देता है। पढ़ते हैं।भाभी बर्गी में रहती है। लोगों के घरों में बर्तन मांजती है।

भाई के लापता होने की खबर बाप ने कहीँ छपाई नहीं।छपाता ,टेलीविजन में दिखाता तो शायद मिल जाता।
भाई क्यों लापता हो गया? इस पर बोले महेश- क्या पता? लेकिन वो कहता था कि ये बच्चे हमारे नहीं। इनकी शक्ल हमसे नहीं मिलती। जैसे मेरी आँख की पुतली देख रहे न।हमारे भाई और हमारी आँख की पुतली एक जैसी है।भाई के बच्चों की शक्ल उससे नहीं मिलती।

भाभी का किसी से चक्कर था क्या? यह पूछने पर बोले महेश- क्या पता? लेकिन दोनों में लड़ाई होती थी।भाई घर आते ही भाभी से लड़ता था कि ये बच्चे उसके नहीं।भाभी कहती थी- तुम्हारे वहम का क्या इलाज किसी के पास।

मुझे यही लगा कि बच्चे किसी के हों लेकिन वो भी इसी तरह की कहानी लेकर बड़े हो रहे होंगे-बाप छोड़ गया।मां चली गयी। उनको उन अपराधों की सजा मिल रही जो उन्होंने किये ही नहीं।

कमीज देखकर हमने पूछा-कितने दिन हुए इसको धोया नहीं? बोले-बाप की है पैन्ट शर्ट। मन्दिर से कुरता पायजामा मिला था। वो बड़ा है। घर में रखा है। ये छाता भी वहीं से मिला।

चाय के पैसे देने लगे तो 100 का नोट का फुटकर नहीं बोले राजू चाय वाले। इस पर महेश ने दस का नोट निकाल कर मेरे भी पैसे देने की पेशकश की।हमने मना करते हुए उनकी चाय के पैसे भी दिए और साथ में बैठकर एक चाय और पी।

हमने बताया कि हम भी व्हीकल में नौकरी करते हैं।इस पर महेश बोले-फिर तो आप हमारे बाप को जानते होंगे। मुन्ना सिंह ठाकुर। हमने कहा नहीं जानते। फिर पूछा महेश ने-क्या रात ड्यूटी थी तुम्हारी। हमने कहा -नहीँ दिन की है। जायेंगे अभी।

हमने शादी की बात दुबारा चलाते हुए सलाह दी- खुद कोई लड़की देखकर क्यों शादी नहीं कर लेते। साथ में कोई मांगती हो। विधवा हो। पड़ोस में हो जिससे लगता है ठीक रहेगा उससे कर लो शादी। इस पर महेश बोले-'डिफाल्टर लड़की नहीं चहिये।' डिफाल्टर मांगने वाली के लिए कहा या विधवा के लिए पता नहीं लेकिन यह अपने समाज में स्त्री के बारे में आम पुरुष की सहज सोच को बताता है।

चलते हुए महेश मेरे बगल में खड़े होकर बोले-कोई लड़की निगाह में हो तो बताना। घर आना। बात करेंगे। हमने पूछा-कैसी लड़की चाहिए? बोले-30/35 की उम्र की ।मैंने कहा-तुम पचास के और तुमको लड़की चाहिए 30/35 की।उसका भी तो मन अपनी उमर का लड़का चाहता होगा।

लौटकर आते हुए स्व. उमाकांत मालवीय की कविता (http://www.anubhuti-hindi.org/…/u/umakant_malviya/ekchai.htm )पंक्ति न जाने कैसे याद आ गयी:
एक चाय की चुस्की
एक कहकहा
अपना तो इतना सामान ही रहा।
एक अदद गंध
एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या
बातचीत की।
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा
छू ली है एक नहीं सभी इंतहा।
आपका दिन शुभ हो। आप स्वस्थ रहें। मुस्कराते रहें।चेहरे पर मुस्कान से बेहतर कोई सौंदर्य प्रसाधन नहीं बना आजतक। जरा सा धारण करते ही चेहरा दिपदिप करने लगता है। मुस्कराइए क्या पता आपकी मुस्कान युक्त शक्ल किसी की जेहन में हलचल मचा रही हो।अगर आपको पता है तो आप भी उसको याद करिये। क्या पता 'याद अनुनाद ' हो जाए।

फ़ेसबुक लिंक
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10206267112010177

Thursday, August 20, 2015

लड़कियों के साथ छेड़खानी के खिलाफ़

अपने यहां आये दिन लड़कियों के साथ छेड़खानी की घटनायें बढती जा रही हैं। इनमें तथाकथित अच्छी परवरिश पाये लड़के भी शामिल होते हैं। समाज का हिसाब-किताब कुछ ऐसा बन सा गया है कि वे जो करते हैं उसमें उनको कुछ गलत भी नहीं लगता। लेकिन एहसास कराये जाने पर वे शर्मिन्दा होते हैं।

3 मिनट की इस फ़िल्म में ऐसा ही कुछ दिखाने की कोशिश की गयी है। एक अकेली जाती लड़की को दो लड़के छेड़ते हैं। सड़क पर तमाम लोग यह होते देखते हैं पर कोई प्रतिरोध नहीं करता। लेकिन एक दूसरी लड़की जो अपने दोस्त के साथ होती है आगे बढ़कर छेड़छाड़ का विरोध करती है और उस लड़कों का मोबाइल छीन लेती है। इसके बाद बाकी लोग भी उन लड़कों के चारो तरफ़ इकट्ठा हो जाते हैं। सबको देखकर अकेली लड़की को छेड़ने वाले लड़कों को अपनी गलती का एहसास होता है। वे शर्मिन्दा होकर वहां से जाने लगते हैं। उनके शर्मिन्दगी के एहसास को देखकर भीड़ में से दो लड़के आगे आकर उनके कन्धे पर हाथ रखते हैं और फ़िल्म इस संदेश के साथ खत्म होती है:
You have two roads to choose
one will make you protect her
other will make you her
for she is not only one
पिक्चर बनाई है अजित थामस ने। कैमरा पृथ्वीराज नायर। स्क्रिप्ट अनन्य शुक्ल। एडीटर अक्षय कुमार। असिस्टेण्ट डायरेक्टर और आवाज नवनीत कुमार। शूटिंग में भाग लिया मनिपाल इंस्टीट्यूट के बच्चों ने।
यह सब इसलिये बता रहे कि स्क्रिप्ट लिखने वाले और इस फ़िल्म में छेड़छाड़ का विरोध करने वाले का रोल किया है वो अनन्य हैं हमारे छोटे सुपुत्र हैं। हम हाफ़ सेंचुरी मार गये उमर की अभी तक एक्को स्क्रिप्ट न लिख पाये और एक ये हैं कि 19 साल की उमर में पहली स्क्रिप्ट लिखकर फ़िल्म भी बनवा लिये।

बधाई हो बच्चा। तुमको और सब दोस्तों को। पहला वाला रास्ता चुनने का विवेक और हौसला बना रहे। हमेशा। smile इमोटिकॉन Anany Shukla

https://www.youtube.com/watch?v=Bpb7T6R1XNY

...और ये फ़ुरसतिया के ग्यारह साल


फ़ूलऔर ये मजाक-मजाक में ग्यारह साल हो गये ब्लॉगिग करते हुये।

जब ब्लॉगिंग शुरु की थी तब इंटरनेट किर्र-किर्र करके शुरु होता था। फ़ोन या नेट में से एक ही चालू रह सकता था। डेस्कटॉप का जमाना। फ़िर लैपटॉप आया तो हमारी सबसे बड़ी तमन्ना यह थी कि बगीचे की धूप में बैठकर ब्लॉगिंग कर सकें।

अब स्मार्टफ़ोन आ गया है। तो कहीं से भी बैठकर या खडे होकर लिखा जा सकता है। लेकिन ब्लॉग पर लिखना कम हो गया है। फ़ेसबुक पर लिखते हैं फ़िर उसको मय टिप्पणी ब्लॉग पर सहेज लेते हैं। पर एक बात है कि हम भले ही फ़ेसबुक पर लेकिन मन मूलत: ब्लॉगर वाला ही है। लम्बी पोस्ट न लिखें तो लगता ही नहीं कि लिखा गया कुछ। कभी-कभी फ़ेसबुक पर वनलाइनर भी ठेल देते हैं लेकिन जब तक पोस्ट न लिखें तो मजा नहीं आता।

जब  ब्लॉग शुरु किया था तो लगता था कि हफ़्ते में एक पोस्ट लिख दी तो बहुत हुआ। आज हाल यह है कि कभी-कभी चार पोस्ट्स भी ठेल देते हैं। कुछ पाठक दोस्तों ने शिकायत भी की है कि उनकी भलमनसाहत का नाजायज फ़ायदा उठा रहे हैं हम।

शुरुआत में व्यंग्य लेख ही लिखने की सोचते थे। फ़िर कट्टा कानपुरी आये। इसके बाद सूरज भाई। फ़िर पुलिया पुराण और अब रोजनामचा। हरेक को पसंद करने वाले अलग-अलग पाठक हैं। कुछ को सूरज की नामौजूदगी से शिकायत, कुछ कहते हैं पुलिया किधर गयी। मेरे व्यंग्य लेख पसंद करने वाले अजीज दोस्त कहते हैं -ये जो पुलिया-फ़ुलिया, साइकिल बाजी है न यह सब लफ़्फ़ाजी है। टाइम पास। इसको लेखक मत समझें शुक्ला जी। बहुत दिन हुई मटरगस्ती। अब कुछ लिखना भी हो जाये।

पिछले साल कुछ व्यंग्य लेख अखबारों में छपे भी। सोचते थे कि कम से कम एक व्यंग्य लेख रोज लिखें। बाकायदा शाम को अखबार लेकर टेलिविजन के सामने बैठते  थे। तीन-चार विषयों पर लिखने की सोचने थे। कभी तो शुरु भी कर देते थे। लेकिन फ़िर दिन की कोई घटना सारे विषयों को फ़ुटा देती और सामने खड़े होकर कहती- पहले मुझ पर लिखो। क्या करते -मानना पड़ता।

लेकिन अब मन करता है कि हफ़्ते में कम से कम एक व्यंग्य लेख लिखकर अखबारों में भेजना चाहिये। न छपे तो उसको ब्लॉग में डाल देंगे इस सूचना के साथ कि इसको अखबार में भेजा था। छपा नहीं तो यहां पोस्ट कर रहे हैं। आप बांच लो।

गतवर्ष दिसम्बर ’पुलिया पर दुनिया’ किताब प्रकाशित की। पहले ’ई बुक’ फ़िर प्रिंट आन डिमांड भी। ये किताबें आन लाइन आर्डर करके यहां से ले सकते हैं:

1. पुलिया पर दुनिया - ई-बुक
2. पुलिया पर दुनिया- श्वेत श्याम मतलब ब्लैक एंड व्हाइट
3. पुलिया पर दुनिया - रंगीन

कुल जमा 48 किताबें बिकीं अब तक। 46 ई-बुक, 1 ब्लैक एंड व्हाइट और एक रंगीन। रंगीन हमने खुद खरीदी है देखने के लिये कि कैसी लगती है किताब। कुछ मिलाकर रॉयल्टी के बने 1753 रुपये (इसे भी मंगाने के लिये हमने अपने खाते का विवरण नहीं भेजा है) ।  इसमें 28 रुपये ब्लैक एंड व्हाइट के और बाकी सब ई-बुक के। रंगीन वाली हमने खुद खरीदी इसलिये उसमें कोई रायल्टी नहीं।

किताबें खरीदने वालों में मेरे मित्र और नियमित पाठक ही हैं। जो लोग मेरा लिखा पढते हैं और तथाकथित रूप से पसंद भी करते हैं उन लोगों ने किताब न खरीदने के ये कारण बताये:

1. क्या खरीदें किताब। सब तो पढ़ लेते हैं फ़ेसबुक पर।
2. पचास बिक जायें फ़िर खरीदेंगे आपकी किताब।
3. कम्प्यूटर ठीक हो जाये फ़िर खरीदकर आराम से पढेंगे।
4. यार बहुत कोशिश की लेकिन खरीद नहीं पाये।
5. यार हमको भी खरीदकर पढ़नी पडी तब तो हो चुका।

 यह सब ऐसे ही। वैसे भी हिन्दी का आम पाठक बहुत समझदार होता है। वही किताबें खरीदता है जो कई लोग बता चुके हैं कि बहुत अच्छी है। फ़िर मेरी किताब तो सिवाय भूमिका और समर्पण के नेट पर मौजूद है। फ़िर क्यों पैसे खर्च करे कोई।

बहरहाल जितना कुछ लिखा अब तक उसको संजोकर उनको किताब की शक्ल देने का मन है। कुछ इस तरह:

1. व्यंग्य लेख
2. सूरज भाई पर लिखी पोस्ट्स- ’सूरज की मिस्ड काल’ शीर्षक से
3.पुलिया पर दुनिया भाग 2
4. पलपल इंडिया में छपे लेख- ’लोकतंत्र का वीरगाथा काल’ शीर्षक से
5. शेर- तुकबंदियां - ’कट्टा कानपुरी’ के नाम से।
6. साइकिलिंग के किस्से- ’रोजनामचा' या किसी और नाम से।
7. ब्लॉगिंग से जुडे किस्सों पर एक किताब।

यह सब पता नहीं कब होगा। अभी तो सबसे पहले काम यह करना है कि फ़ेसबुक पर जो लिखा उनको उठाकर ब्लॉग में सहेजना है। फ़ेसबुक पर पोस्ट खोजे मिलती नहीं।

ब्लॉगिंग के दरम्यान तमाम दोस्त, प्रशंसक मिले। बहुत प्यारे रिश्ते बने। फ़ेसबुक में लिखने के दौरान भी कई बहुत प्यारे दोस्त बने। उनसे जुड़कर लगता है तमाम कमियों के बावजूद दुनिया बहुत खूबसूरत और हसीन है।  यह एहसास ही अपने आप में बहुत प्यारा है।



ब्लॉगिंग से जड़े अपने तमाम पुराने दोस्तों को भी याद करता हूं जिनके साथ हमने शुरुआत की थी लिखने की।

रविरतलामी का एक बार फ़िर से शुक्रिया जिन्होंने बताया ब्लॉग क्या होता है।

ई-स्वामी का भी शुक्रिया जो करीब दस साल हिन्दिनी के माध्यम से मेरे लिखने की व्यवस्था की।

फ़ुरसतिया ब्लॉग के 11 साल पूरे होने मौके पर अपने तमाम पाठकों का शुक्रिया टाइप अदा करता हूं जो मेरे लिखे को पढते रहे। उनको भी  जिनकी प्रतिक्रियां से मुझे यह भ्रम बना रहा हम कितना भी बुरा लिखते हों लेकिन कुछ लोग हमारे लिखे का इंतजार करते हैं।

बाकी और बहुत सारे लोग याद आ रहे हैं जो समय,समय पर साथ रहे। पाठक के रूप में प्रशंसक के रूप में, निदक के रूप में और न जाने किस-किस रूप में। सब मिलाकर जो एहसास बन रहा है वह बड़ा हसीन टाइप है।खूबसूरत, मनमोहक और न जाने कैसा-कैसा। लेकिन उसके बारे में फ़िर कभी। अभी चला जाये।:)

मेरी पसंद

(ब्लॉग के दिनों में कुछ लोगों के हिसाब से हम ऐसे थे)

भये छियालिस के फ़ुरसतिया
ठेलत अपना ब्लाग जबरिया।
 
मौज मजे की बाते करते
अकल-फ़कल से दूरी रखते।
लम्बी-लम्बी पोस्ट ठेलते
टोंकों तो भी कभी न सुनते॥

कभी सीरियस ही न दिखते,
हर दम हाहा ठीठी करते।
पांच साल से पिले पड़े हैं
ब्लाग बना लफ़्फ़ाजी करते॥

मठाधीश हैं नारि विरोधी
बेवकूफ़ी की बातें करते।
हिन्दी की न कोई डिगरी
बड़े सूरमा बनते फ़िरते॥

गुटबाजी भीषण करवाते
विद्वतजन की हंसी उड़ाते।
साधु बेचारे आजिज आकर
सुबह-सुबह क्षमा फ़र्माते॥

चर्चा में भी लफ़ड़ा करते
अपने गुट के ब्लाग देखते।
काबिल जन की करें उपेक्षा
कूड़ा-कचरा आगे करते॥

एक बात हो तो बतलावैं
कितने इनके अवगुन भईया।
कब तक इनको झेलेंगे हम
कब अपनी पार लगेगी नैया॥
भये छियालिस के फ़ुरसतिया
ठेलत अपना ब्लाग जबरिया।

अनूप शुक्ल


सूचना:1.   एक , दो , तीन , चार , पांच , छह , सात , आठ  नौ     और दस साल पूरे होने के किस्से।
2. फ़ुरसतिया के पुराने लेख

Tuesday, August 18, 2015

डोनट और अल्म्युनियम के बर्तन

आज दोपहर को पुलिया पर डोनट बेचते हुए राजा से मुलाकात हुए। पहली बार 2 अक्टूबर,14 को प्रवेश के हाथ से खाये थे डोनट (http://fursatiya.blogspot.in/2014/10/blog-post_20.html )। उस दिन पूरे देश में स्वच्छता अभियान की हवा चल रही थी। हम झाड़ू-पंजा चलाकर आये थे। दस महीने में स्वच्छता अभियान की आंधी गुजर सी गयी। अब शायद दो अक्टूबर को फिर कुछ हल्ला हो।

राजा तीन भाई हैं। तीनों डोनट बेचते हैं। राजा आठ तक पढ़े हैं। बक्से में 200 के करीब डोनट हैं।एक 5 रूपये का। पिछले साल भी यह इतने का ही था। घर में खुद बनाते हैं।मैदा से। 200 से 250 रूपये रोज बच जाते हैं।
जब तक हम राजा से बात कर रहे थे तब तक साइकिल पर अलम्युनियम के बरतन बेचने वाले संतोष सोनकर वहां आ गए। घमापुर में रहते हैं। हफ्ते में एक दिन वीएफजे और मढ़ई की तरफ निकलते हैं बरतन बेचने के लिए।

दस साल पुरानी साइकिल पर पीछे रखी बड़ी पतीली का दाम हमने पूछा तो बताया 1000 रुपया। ढाई किलो करीब की पतीली है। 450 रुपया किलो के हिसाब से बेचते हैं बरतन। सच तो यह है कि अगर हम पूछते नहीं तो पता भी न चलता कि क्या भाव बिकते हैं अल्युमिनियम के बर्तन।

संतोष के पिताजी भी बर्तन का ही काम करते थे। दो साल पहले नहीं रहे तो सन्तोष ने शुरू किया काम। सात भाई और एक बहन में सबसे बड़े हैं सन्तोष। दो छोटे भाई (भी फेरी लगाते हैं) और सन्तोष मिलकर घर का खर्च चलाते हैं। अक्सर लोग ख़ास धर्म के लोगों को आबादी की बढ़ोत्तरी से जोड़ते हैं। लेकिन 'पुलिया पर दुनिया' देखते हुए मैंने अनुभव किया कि ज्यादा बच्चे होने का कारण व्यक्ति के धर्म से अधिक उसके सामजिक,आर्थिक परिवेश से जुड़ा मामला है।

सन्तोष ने स्कूल का मुंह नहीं देखा। पढ़े-लिखे बिल्कुल नहीं हैं। सिर्फ पैसे की गिनती और तौल के बारे में पता है।

फोटो लेने के बाद देखा कि सूरज की रौशनी की चमक में फोटो साफ़ नहीं दिख रही। कुछ ऐसे ही जैसे बाजार की चमक और अपने जीवन की आपाधापी में हमको सन्तोष जैसे लोगों की जिंदगी के बारे कुछ अंदाज नहीं होता। फोटो तो दूसरे कोण से खींचेंगे तो अच्छी आ जायेगी लेकिन इनकी जिंदगी कैसे बेहतर होगी इसका कुछ पता नहीं।

आपको कुछ पता है?

चढ़ावे की सुगन्ध नाले की दुर्गन्ध खतम कर देती है

सुबह पानी बहुत हल्का बरस रहा था।रिमझिम से भी हल्की बौछार।मेस में बच्चे से पालिथीन माँगा।उसने जेब से निकालकर दे दिया। उसमें मोबाईल लपेटकर निकल लिए।

लोग छाते लेकर टहल रहे थे। हम रामफल के घर की तरफ निकले। हनुमान मन्दिर के बाहर चार महिलाएं उनको सर नवा कर पूजा कर रही थीं। सामने नाले में भयंकर बदबू करता पानी बह रहा था। हल्का झाग और हरा सा रंग। वहीं सड़क पर दो हमउम्र सूअर के बच्चे टहलते दिखे। पता नहीं भाई थे या दोस्त लेकिन शक्ल मिल रही थी।

हनुमान जी सबसे पॉपुलर देवता हैं। लेकिन देखकर बड़ा खराब लगा कि जो देवता दिन रात अपने सामने बहती दुर्गन्ध रोकने का इंतजाम नहीं कर सकता वह भक्तों के कष्ट क्या दूर करेगा। यह भी
हो सकता है कि उनको दुर्गन्ध अखरती न हो। चढ़ावे की सुगन्ध नाले की दुर्गन्ध खतम कर देती है।

इसी क्रम में कमाई के सम्बन्ध में यह डायलाग याद आ गया-यहां कमाई बहुत है। बस पैसा नाली में पड़ा है और मुंह से उठाना है। यह भी लगा कि ये जो तमाम घपले-घोटाले होते हैं उनके करगुजरिये नाली का पैसा मुंह से उठाने में सिद्ध होते हैं।

रामफल की पत्नी घर के बाहर बैठी थी। सांस, शुगर और बीपी की तकलीफ से हलकान। उनका लड़का सन्तोष फैक्ट्री में काम करता है। प्राइवेट लैबरी। रोज काम नहीं मिलता। फैक्ट्री में जितनी संख्या में लेबर मांगे जाते हैं उससे कम होने पर भारी पेनाल्टी है।इस चक्कर में ठेकेदार ज्यादा लोगों को रोल में रखता है ताकि कभी कमी न हो जाये लेबरों की। बदल-बदलकर काम पर भेजता है।


यह जो ठेकेदारी की प्रथा है इसने एक ही काम करते आदमी को दो तबकों में बाँट दिया है।प्राइवेट काम करने वाले को समान काम के लिए फैक्ट्री के कामगार का दसवां हिस्सा के बराबर पैसा मिलता है।मतलब काम और वेतन के मामले में सब आदमी बराबर होते हैं लेकिन कुछ ज्यादा बराबर होते हैं।

गुड्डू के बारे में पता । फल का ठेला लगा रहे हैं लेकिन रामफल जैसा अनुभव और लगन नहीं है। उनको पता नहीं कि कब कौन सा फल लाना है। कैसे खराब होने से पहले उसको निकालना है। यह सन्तोष ने बताया जो कि गुड्डू के भाई हैं। गुड्डू 7 बजे सोकर उठते हैं।

आगे कुछ लोग सड़क पर गाते बजाते पेड़ के नीचे जा खड़े हुए। कन्हैया के भजन गा रहे थे। जिस पेड़ के नीचे खड़े थे वह खेरे माई का मन्दिर है। ये लोग रोज इसी तरह टहलते हुए भजन गाते हुए सुबह की सैर करते हैं।

विरसा मुंडा चौराहे पर चाय की दुकान पर चाय पी।राजू की पत्नी की चोट अब ठीक है। एक ऑटो के अंदर बच्चे के साथ बैठी एक महिला चाय पी रही थी। ऑटो वाले ने मसाले की पुड़िया फाड़कर उसको मसाला भी खिलाया। टोकने पर बोला-आदत पड़ गयी है।पता चला कि महिला ऑटो ड्राइवर की भाभी हैं। साथ में बच्चे को लेकर रोज सुबह घुमाते हैं।वीआईपी सवारी हैं।

बरसात रिमझिम होने लगी।एक अख़बार वाला हॉकर अख़बारों को सहलाते हुए पालीथीन न लेकर आने का अफ़सोस किया। बच्चा बीएससी में पढ़ता है।वीरेंद्र नाम है। स्कूल कभी कभी जाता है।साथ के बच्चे ने उसके बारे में बताते हुए कहा-ये भविष्य के अब्दुल कलाम हैं। उसने कहा-हम उनके जैसे कहां।अब्दुल कलाम जैसी शिद्दत से मेहनत करने वाले लोग कितने होते हैं।


साथ का बच्चा भी अख़बार बेचता है। शिवम नाम है। हाईस्कूल में एक साल ड्राप किया तो एक साल पिछड़ गया। दोनों ने एक-दूसरे के लिए अपनापे का इजहार करते हुए एक-दूसरे की तारीफ की। वीरेंद्र ने शिवम को छोटा भाई सरीखा बताते हुए उसकी फोटो देखकर कहा-एकदम हीरो लग रहा है तू तो।

आगे एक कोचिंग में बच्चे अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। कुछ बच्चियां शायद ट्यूशन पढ़कर निकल रहीं थीं साईकिल पर। पता चला बच्चे 11 वीं में पढ़ते हैं। ट्यूशन किसी कम्पटीशन के लिए नहीं 11 वीं के लिए आये हैं। मुझे लगा जिस समाज में 11वीं ने पास होने के लिए बच्चों को ट्यूशन पढ़ना पड़े उससे वाहियात शिक्षा व्यवस्था और क्या हो सकती है। फिर अनायास श्रीलाल शुक्ल याद आ गए।उन्होंने लिखा है-'हमारे देश की शिक्षा नीति रास्ते में पड़ी कुतिया है जिसे देखो इसे लात लगा देता है।'

एक जगह साइकिल में हवा भरवाये। मुन्ना सिंह राठौर 1970 में नरसिंहपुर से जबलपुर आये। कुछ साल दूध का काम किये। फिर साइकिल का काम।दो बेटे प्राइवेट काम करते हैं। बच्ची की शादी कर दी। दामाद भी प्राइवेट काम करता है।150 से 200 रोज कमा लेते हैं साइकिल की दुकान से मुन्ना।


दूकान पर एक स्टूल दिखा। 'रोमर' के गियर को वेल्डकरके बनाया गया स्टूल।मुझे तक पता भी नहीं था कि कोई रोमर साइकिल भी आती है। सुबह से 11 बजे तक दुकान के बाद घर जाते हैं मुन्ना। फिर शाम को 5 बजे दुबारा आते हैं दूकान पर।

पुल के नीचे दीपा मिली। पाउडर मन्जन करते हुई।सर के बाल उलझे हुए। बोली-आपने जो फोटो लगाई मेरी वो मुझे भैया ने दिखाई थी। पता लगा कि हमारे यहां के एक सप्लायर ने उसकी साल भर की फ़ीस जमा करके और उसके लिए ड्रेस खरीद कर दी है। सुरक्षा के लिहाज से पापा के आने तक अपने कम्पाउंड से बाहर न जाने की हिदायत के साथ।उन्होंने ही दीपा को फेसबुक पर उसको फोटो दिखाई । मैंने दीपा से कहा -तुम्हारी सारी फोटो तुमको हम बनवा कर देंगे।

मेरे देखते-देखते दीपा ने बाल्टी के पानी से नहाया। बाकी बचे पानी में कपड़ा भिगोकर निचोड़ा।वहीं फैलाया।फिर फोटो देखते हुए कविता सुनाई:
"धम्मक धम्मक करते आया हाथी"
उसका स्कूल है आठ बजे से। वह तैयार होने चली गयी। हम भी चले आगे।

रेलवे क्रासिंग पर स्कूल ड्रेस में तीन बच्चियां एक मोबाईल पर कुछ देखती हुई बात कर रहीं थीं।

आगे सड़क किनारे एक बुजुर्ग एक हाथ में छाता पकड़े दूसरे हाथ की सहायता से गीली धरती को और गीला कर रहे थे। धार देखकर अनायास 35 साल पहले गणित में पढ़ाई के दौरान पढ़ा गया पैराबोला का सूत्र याद आ गया- y2=4 ax .बुजुर्गवार की धार आधा पैराबोला बना रही थी। हृदयेश जी के उपन्यास की याद भी आई जिसमें चार बुजुर्गों की जिंदगी की दास्तान है। उनमें से एक अपनी पैंट गीली हो जाने से अक्सर परेशान रहता है।
पुलिया पर फैक्ट्री की दोनों महिलायें आ चुकी थी। हूटर बजने का इंतजार करते हुए बैठी थीं।

लौटकर पालीथीन हमने मेस में कमलेश को लौटा दिया।उसके पास भी तो मोबाइल है।उसकी भी सुरक्षा जरूरी हैं।

दिन शुरू हो गया। आपको मुबारक हो।

Monday, August 17, 2015

देश का सबसे बड़ा सामाजिक घोटाला

कल ट्रेन दो घण्टा से भी ऊपर आई। हमारा डब्बा प्लेटफार्म से करीब 20 मीटर नीचे आता है। गिट्टियों पर चलते हुए पैर फिसलता है तो गाना याद आ जाता है- 'आज रपट जाएँ तो हमें न बचइयो' हम फिर खुद को हड़काते हैं कि ट्रेन में बैठने तक जूते ही पहनने चाहिए। चप्पल आरामदायक भले लगें लेकिन खतरनाक हैं।

गिट्टियों के ऊपर खम्भे के पास खड़े होकर ट्रेन का इंतजार करते रहे। समय बीत गया तो नेट देखे। गाड़ी डेढ़ घण्टा पीछे खड़ी थी। हमारे साथ के लोग प्लेटफार्म की तरफ लौट गए। हम वहीं पटरी के किनारे पड़े एक सीमेंट स्लीपर पर पसर के बैठ गए। बगल में बैठे लोगों की लंतरानी सुनते रहे।

रेल लेट होती रही। रात अपनी 'गुडमार्निंग' कहते हुए आई और पसर गई। कई मालगाड़ियां खरामा-खरामा बगल से गुजर गयीं। दो मीटर की दूरी पर बैठे यही सोचते रहे कि जो लोग इनके नीचे जानबूझकर आ जाते हैं उनको कित्ती जोर की चोट लगती होगी।

चारो तरफ अँधेरा पसर गया। पटरी के किनारे बैठे हम सोचते रहे कि कोई सांप अगर आ गया और हमको दिखा नहीं तो का होगा। काट-कूट लिया तो बहुत हड़काये जाएंगे कि क्या जरूरत थी जब पटरी किनारे बैठने की जब पता था कि ट्रेन लेट है।

खुद भले अँधेरे की गोदी में बैठे थे पर नेट की लुकाछिपी के बीच दोस्तों से भी जुड़े रहे जहां पूरी रौशनी थे। पोस्ट्स देखते रहे।


ट्रेन आई तो लपके। टीटी दरवज्जे पर ही खड़ा था स्वागत के लिए। पूछिस- 5 नम्बर बर्थ। ए के शुक्ला।मन किया 'या' बोल दें। फिर ध्यान आया कि कोई चैटिंग थोड़ी कर रहे जहां लोग भाव मारने के लिए 'फोटो' को 'पिक' और 'हाँ' की जगह 'यप्प'/'या' बोलते हैं। हमने फिर उसको 'हां' बोला और बैठ गए बर्थ पर। बर्थ में चार्जर प्वाइंट लगा था और ठीक भी था यह देखकर हमारी बांछे वो शरीर में जहां कहीँ भी हों खिल गयीं।

बैठते ही घर से लाया खाना खाया। बचे हुए छोले हाथ से उँगलियाँ चाटते हुए खाये। सुबह देखा तो चम्मच भी मिली झोले में। लगा कि चीजें हमारे पास होती हैं लेकिन हम सोचते हैं वो होंगी नहीं और अपना काम निकाल लेते हैं। वे चीजें विरहणी नायिका सी अपने उपयोग का अंतहीन इंतजार करती रहती हैं।

सुबह आँख खुली तो गाड़ी कटनी स्टेशन पर रुकी। एकदम सामने चाय वाला था। लेकिन हमारे कने फुटकर पैसे न थे। पांच सौ का नोट। चाय वाले ने साफ मना कर दिया कि एक चाय के लिए वो पांच सौ वाले गांधी जी को फुटकर में नहीं बदलेगा।

ऊपर की बर्थ से नीचे आया बच्चा इन्जिनियरिग करके हांडा टू व्हीलर में काम करता है। 2010 में कोटा से इंजिनयरिंग किया। चार साल बाद कम्पनी बदल करके इस कम्पनी में आया। कुँवारा है। सगाई हो चुकी है।
हमने पूछा कि शादी खुद की मर्जी से कर रहे या घर वालों की मर्जी से। बोला-घर वालों की मर्जी से। हमने पूछा-कोई प्रेम सम्बन्ध भी रहा क्या? बोला-हां। दो साल रहा। हमने पूछा-उससे शादी क्यों नहीं की? बोला-दोनों के घर वाले नहीं माने। हमने कहा-बड़े बुजदिल हो यार। प्रेम किया और शादी नहीं कर पाये। फिर पूछा-किसने मना किया? तुमने या लड़की ने। बोला- दोनों ने। जब दोनों के ही घर वाले नहीं माने तो दोनों ने तय किया कि घर वालों की मर्जी के खिलाफ शादी नहीं करेंगे।

लड़के से मैंने कहा- सही में प्रेम था। और सही में शादी करना चाहते थे तो घरवालों की मर्जी के खिलाफ करनी थी शादी यार। क्या खाली टाइमपास प्रेम था। बोला-मैं छह महीने अड़ा रहा। पर फिर पापा डिप्रेशन में चले गए। फिर हमने तय किया नहीं करेंगे शादी। लड़की की शादी हो भी गयी।

शादी किसी का व्यक्तिगत निर्णय है। कोई प्रेम करे वह शादी करना भी चाहे यह जरूरी नहीं। लेकिन करना चाहे पर कर न पाये सिर्फ इसलिए कि घर वाले नहीं मान रहे । यह अच्छी बात नहीं। जात-पांत और हैसियत के चलते प्रेम सम्बंधों का परिवार वेदी पर कुर्बान हो जाना अपने देश का सबसे बड़ा सामाजिक घोटाला है। यह घोटाला सदियों से हो रहा है पर कोई इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाता क्योंकि इसमें सब मिले हुए हैं।
गाड़ी जबलपुर पहुंच गई। इसलिए फ़िलहाल इतना ही। आपका दिन शुभ हो।

Sunday, August 16, 2015

एक हॉकर की जिंदगी

इन भाईजी का नाम है राजेश मिश्रा। हमारे यहां पिछले 14 साल से अख़बार देते हैं। शुक्लागंज में रहते हैं। शुक्लागंज मतलब उन्नाव से आर्मापुर तक अख़बार बांटने आते हैं। मतलब रोज कम से 50 -60 किमी साइकिलिंग करते हैं। 

मिसिर जी का दिन सुबह ढाई बजे शुरू होता है। सुबह उठकर 3 बजे तक शुक्लागंज से चलकर रेलवे स्टेशन आते हैं। वहां अख़बार लेते हैं। फिर स्टेशन से  शुरू करके अख़बार बांटते हुए अर्मापुर तक आते-आते 7 से 8 तक बज जाते हैं।

अख़बार के ग्राहकों से भले मिसिर जी भगतान महीने के महीने या तीन महीने लेते हों लेकिन स्टेशन से एजेंसी से अख़बार सब्जी की तरह खरीदते हैं। पैसा का भुगतान रोज का रोज करते हैं। 1500 रूपये के अख़बार रोज खरीदकर बांटते हैं।

उन्नाव जिला के तकिया गाँव के रहने वाले हैं राजेश जी। 7 किमी दूर है उन्नाव से। चार बीघा खेती है। बच्चे हैं नहीं। मियां बीबी दो जन का खर्च चल जाता है हॉकरी और खेती से।
तीन चार साल पहले मिसिर जी से बात हुई तो बोले-आँख से दिखाई कम पड़ता है। आपरेशन करवाना है लेकिन करवा नहीं पा रहे क्योकि फिर एक महीने अख़बार नहीं बाँट पाएंगे। ग्राहक छूट जाएंगे।।

हमने सुझाव दिया कि कोई दूसरा लड़का रख लो एक महीने के लिए। बाँट देगा अखबार एक महीने। इस पर बोले-नहीं हो पायेगा साहब। कहीँ का अख़बार कहीँ पड़ जाएगा। 

कल फिर मिसिर जी मिले तो हमने पूछा-आपरेशन करवा लीजिये मिसरा जी। फिर वही बात कही उन्होंने-ग्राहक छूट जाएंगे। 

हां लेकिन अबकी हमने मिसेज का आपरेशन करवा दिया आँख का। 27 हजार रुपया खर्च हुए। हमने फिर कहा-अपना भी करवा लो। बता देना लोगों से। सब हो जाएगा।

इस पर बोले मिसिर जी-अब बस कुछ दिन की बात और। फिर गांव चले जाएंगे। वहीं रहेंगे। 58 के होने वाले हैं।लगता है हॉकर का काम छोड़ने के बाद ही आँख का इलाज करवा पाएंगे। इस बार आँख के अलावा साँस भी फूलती लगी। 

गाँव जाने के तर्क बताते हुए बोले- वहां लुंगी बनियाइन पहने भी घुमेंगे तो कोई टोंकने वाला तो नहीं होगा। यहां बिना शर्ट पैंट घर से निकलने में शरम। दूसरी बात गाँव में जो घर में होगा वह खाएंगे। यहां शहर में तो बाजार में तो पचास चीजें देखकर जीभ लपलपाती है। गाँव चले जाएंगे। जित्ता है उत्ते में गुजर हो जायेगी आराम से।

बाजार में बढ़ते उपभोक्तावाद से बचने का यही उपाय है कि अपनी आवश्यकताएं कम की जाएँ। लेकिन बाजार के बीच रहकर उसके आकर्षण से बचना कितना कठिन काम है। जिनके पास पैसा है उनका पैसा जीने की जरूरी चीजों से इतर बातों में ही खर्च होता है। तमाम लोगों की जितनी आमदनी महीने की होगी उतना तो कई लोगों का फोन, मोबाईल, नेट  का बिल का खर्च होगा।

कल जब हमने कहा -मिसरा जी रुको चाय पी के जाना। इस पर  वो बोले- नहीं साहब, केवि (केंद्रीय विद्यालय) स्कूल में अख़बार देना है अभी। वहां लोग इंतजार कर रहे होंगे।

राजेश मिश्रा जी के बारे में लिखा सिर्फ इसलिए कि कभी आपके यहां अख़बार देरी से आये तो यह न सोंचे कि  हॉकर  लापरवाह है या बदमाश। उसकी भी कुछ समस्याएं हो सकती हैं। है कि नहीं। :)

Saturday, August 15, 2015

क्या आजादी क्या सिर्फ तीन थके हुए रंगो का नाम है

कल रात ट्रेन में बैठे। चलते ही तीन बच्चे बगल में आ बैठे। बोले– बैठ जाएँ अंकल जी।हमने कहा–ठाठ से। कहां तक चलना है? बोले –सिहोरा तक। सिहोरा मतलब –चालीस मिनट।

सिहोरा में बच्चे उतर गए। इतनी देर में सबके हाल समाचार हो गए। उतरते हुए हैप्पी जर्नी भी बोल गए।

3 टियर में चार्जिंग प्वाइंट देखकर सुखद लगा। फ़ालतू में एसी में जाने के लिये हुडकते हैं। वहां चार्जिंग प्वाइंट एक और मोबाइल चार। साइड बर्थ पर भी चार्ज। मतलब वातानुकूलित डिब्बे से ज्यादा चार्जिंग प्वाइंट। अब यह अलग बात कि जब चार्ज करने के लिए मोबाइल लगाया तो उसकी केवल एक बत्ती जली। मानो चार्जिंग बिंदु हमसे चैटिंग करते हुए बायीं आँख मारने वाला फोटो बना रहा हो।

सामने वाले भाई जी ने पहले ठोंक पीटकर चार्जिंग प्वाइंट को ठीक करने की कोशिश की। लेकिन नठिया बैरी ठीक न हुआ। इसके बाद सामने वाले भाई जी ने अपना मोबाईल निकालकर हमारा चार्ज करने का उदार न्योता दे दिया। वो बात अलग कि हमरे पास पावर बैंक भी था इसलिए हम उनसे बोले–पहले आप कर लीजिये फिर करेंगे।

थोड़ी देर बाद टिफिन खोलकर सर झुककर खाना खाये। कुछ सालों पहले लोग रेल में खाना साझा करके खाते थे। लेकिन अब सब अपना अपना।खीर भी रखी थी मेस बालक ने। चावल कड़े लगे। हम यह सोच रहे थे कि चावल कम पके हैं या फिर ये प्लास्टिक वाले चावल हैं।

चद्दर बिछाकर बीच वाली बर्थ पर सो गए। नींद का इंतजार करने लगे। लेकिन नींद लगता है कहीँ टहल रही थी। नेटवर्क कंचनमृग की तरह आ जा रहा था।ऑनलाइन मित्र के जबलपुर में किये नमस्ते का जबाब कटनी में मिला। मेसेज बेचारे का क्या हाल हुआ होगा। टावर टावर भटकते हुए मेरे मोबाईल में आने के लिए कितना बेचैन हुआ होगा सन्देश।

करवट बदलते हुए कई बार पेट के बल लेटने को हुए लेकिन दिल के फड़फड़ाने की बात सोचकर रुक गए। पेट के बल लेटने पर हुई परेशानी की बात हमने क्या बताई कि अब हाल यह कि कई शुभचिंतक नमस्ते बाद में करते हैं यह पहले पूछते हैं–पेट के बल तो नहीं लेटे? रहीमदास जी सही ही कहे थे:

रहिमन निज मन की व्यथा,मन ही रखो गोय
सुनि अठिलैहैं लोग सब,बाँट न लैहै कोय।
कुछ समझ में नहीं आया तो मन किया थोडा बोर हो ले। लेकिन बोरियत भी कहीँ फूट ली थी। फिर हमने सोचा कि भले खुद न हो लेकिन मित्रों को तो कर ही सकते हैं सो 'कट्टा कानपुरी' के सौजन्य से यह तुकबन्दी ठेल दी:
ट्रेन तो पटरी पर चल रही है
चांदनी खेत में टहल रही है।
यादों से कह रहे चुप बैठो,
बेफालतू में मचल रही है।
नींद न जाने किधर फूट ली,
इंतजार में आँख बिछल रही हैं।
बहुत देर तक नेटवर्क इसको लिए टहलता रहा।पोस्ट ही नहीं की कविता। बोला –इतनी रात को इतनी बोर तुकबन्दी क्यों ठेल रहे भाई जी। हमने हड़काया –अरे ज्यादा कविता मर्मज्ञ मत बनो। फटाक से पोस्ट करो वरना आजादी की पूर्वसंध्या पर तुम्हारे खिलाफ पोस्ट लिख दूंगा एक ठो।

जहां हड़काया नेटवर्क ने फौरन तुकबन्दी ठेल दी।

गोविंदपुरी स्टेशन पर उतरे तो एक महिला, जो शायद किसी रिश्तेदारी में जा रही थी, अपने बच्चे को हड़का रही थी–ज्यादा जिद करोगे तो यहीं छोड़ देंगे। सीढ़ियों पर लोग सिंहासन की तरह बैठे थे।कोई अपनी कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं। हम बचते हुए उतरे।

हमारे ऑटो वाले को हमने फोन कर दिया था। वो इंतजार करते मिले।घर पहुंचकर देखा तो अख़बार वाले मिसिर जी अख़बार लिए खड़े थे। टीवी पर प्रधानमंत्री जी भाषण दे थे।

घर पहुंचते ही वाईफाई नेटवर्क फ़ड़फ़ड़ा के मोबाइल में घुस गया।पत्नी स्कूल गयीं थी। घर में काम करने वाली चन्दा दो कप चाय बना लाई। एक कप में एक ग्लास में। हम चाय पीते हुए यह पोस्ट लिख रहे हैं यह सोचते हुए कि ऐसी आजादी और कहां ?

याद तो धूमिल की कविता भी आ रही है:
'क्या आजादी क्या सिर्फ तीन थके हुए रंगो का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है।'
लेकिन हमने धूमिल की कविता से कहा–बहन जी आज आप नेपथ्य में रहिये थोडा। आज 'यह देश है वीर जवानों का,अलबेलों का मस्तानों का दिन है'। 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' का दिन है।

आप सबको स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनायें।

नीचे फोटो में मेरी नातिन स्वतन्त्रता दिवस की पूर्व सन्धया पर अपने स्कूल की फैंसी ड्रेस में भारत माता के वेश में।फोटो बिटिया Swati ने भेजा।

Friday, August 14, 2015

जहां सोच वहां शौचालय

आज मेस से निकलते ही ये भाई जी मिले। नाम किशोरी लाल रजक। रहवैया जिला पन्ना।

साईकिल पर बेचने निकले सामान को कोई बुढ़िया के बाल कहता है कोई कुछ और। बुढ़िया के बाल तो सफेद होते हैं लेकिन यहाँ तो गुलाबी हैं।

साईकिल में 100 पैकेट बुढ़िया के बाल हैं। एक की कीमत 5 रुपया। शक्कर का आइटम। रंग मिलाकर बनता है। एक बेचने पर 2 रुपया कमा लेते हैं किशोरी लाल।

दो बच्चे हैं किशोरी लाल के। बड़ा ड्राइवरी कर रहा। छोटा हाईस्कूल में पढ़ रहा। पत्नी घर में। मढ़ई में रहते हैं।
साइकिल कित्ती पुरानी है पूछने पर पच्चीस साल पुरानी है। बोले– शादी में मिली थी। शादी की साईकिल अभी तक चल रही है। उम्र पूछने पर बोले–चालीस पैंतालीस साल। कुछ पक्का नहीं। क्या जरूरत भी पता करने की। कौन इनको मुकदमा लड़ना है किसी अदालत में। किसी बड़े पद पर होते तो साल भर के अंतर के लिए मथ देते कचहरी अपनी उम्र ठीक कराने के लिए।

पन्ना से जबलपुर आने कारण बताये कि पत्नी का एक पैर खराब है। विकलांग है। घुटने से नीचे खराब। गांव में लेट्रिन की समस्या होती थी इसलिए पत्नी को जबलपुर लाये। गांव में संयुक्त परिवार और लेट्रिन की समस्या के चलते पत्नी को समस्या होती थी।

मतलब 'जहां सोच वहां शौचालय' के नारे के बहुत पहले से लोग शौचालय की जरूरत महसूस कर रहे हैं। यह अलग बात कि उसके लिए आदमी को पन्ना से जबलपुर आना पड़ा। हो सकता है रोजगार भी कारण रहा हो लेकिन किशोरी लाल ने जबलपुर आने का कारण पत्नी का पैर खराब होना और पन्ना में शौचलय न होना ही बताया।



'जो पत्नी/बच्चों से करे प्यार /वो घर में शौचालय से कैसे करे इंकार' नारा सोच/शौचालय वाले नारे से बेहतर नारा हो सकता है न।

अभी बुढ़िया के बाल बेचते किशोरी गर्मी में कुल्फी बेचते हैं। इसके पहले कभी ठेकेदारी भी करते थे।
हमने भी एक पैकेट बुढ़िया के बाल लिए। एक पैकेट में दो गोले। अभी तक खाया नहीं। आपके साथ खाएंगे। एक आप लो एक हम। बताइये भी कैसा लगा?