Monday, April 26, 2021

सच और हसीन झूठ

 

झूठ की भीड़ में एक अकेला सच खड़ा था।
सच अकेला था लेकिन निडर था।
झूठ की भीड़ अकेले सच से डरी खड़ी थी। पता नहीं किस झूठ की पोल खोल दे।
एक अकेला सच अनेकों झूठ पर भारी था।
झूठ की भीड़ में खुसफुसाहट डर बढ़ रहा था। लोग फुसफुसाते हुए आपस में कह रहे थे -'यार इस सच के बच्चे ने जीना मुहाल कर रखा है। यह तो बहुत बड़ी समस्या है हमारे लिए। कब तक इसके डर के साये में जिएंगे हम। इसका कोई इलाज नहीं क्या?'
दुनिया में ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका कोई इलाज न हो। एक शातिर झूठ ने कहा। निकलेगा इसका भी इलाज निकलेगा। चिंता न करो। देखते रहो। थोड़ा इंतजार करो।
झुट्ठों की भीड़ इंतजार करने लगी।
कुछ देर बाद एक हसीन झूठ इठलाता हुआ सच की तरफ बढ़ा। सच जब तक कुछ समझ पाए तब तक झूठ ने उसको चूम लिया और गले लगकर कहा -' सच में तुम कितने बहादुर हो सच। मैं तुम्हारी बहादुरी पर फिदा हूँ। आई लव यू।'
सच कुछ देर को हक्का-बक्का रह गया। जब उसको समझ आया कि उसको चूमने वाला 'झूठ' है तब उसने उसको झिड़ककर दूर किया। हसीन झूठ मुस्कराते हुए झूठ की भीड़ में वापस लौट आया।
कुछ ही देर में सच को हसीन झूठ द्वारा चूमे जाने का वीडियो वायरल हो गया। उसमें से सच द्वारा झूठ को झिड़ककर दूर करने का सीन गायब था।
सच बेचारा डाक्टर्ड और वायरल वीडियो के अधूरे होने की बात कहते हुए अपनी सफाई पेश कर रहा था। लेकिन झूठ की भीड़ में कोई उसकी सुनने को तैयार नहीं था।
सच अभी भी अकेला खड़ा था। सामने झूठ की भीड़ थी। लेकिन अब झूठ की भीड़ से सच का डर खत्म हो गया था। सच के हसीन झूठ के साथ के वायरल वीडियो ने सच को झूठ का 'आदमी' साबित कर दिया था।
सच 'सत्य परेशान हो सकता है लेकिन पराजित नहीं' का स्टेटस लगाए अकेला परेशान खड़ा था।
हसीन झूठ और शातिर झूठ साथ मिलकर अठखेलियां मना रहे थे। हसीन झूठ को झूठ समाज के सर्वोच्च सम्मान से नवाजा गया था।
पूरा झूठ समाज उल्लास मनाते हुए भी डरा हुआ था कि अबकी बार फिर सच सामने आया तो उसका मुकाबला कैसे करेंगे।

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Sunday, April 25, 2021

पानी छीलकर आक्सीजन बनाएं

 

सुबह हुई तो चिड़ियों की चहचहाहट सुनाई दी। सब अपने-अपने अंदाज में चहचहा रहीं थीं। कोई ची ची, कोई टी टी। चींचीं चींचीं, कोई कुहू कुहू। बीच-बीच में तो सब एक साथ हल्ला मचाने लगतीं। मानों झगड़ रहीं हैं कि चींचीं बोल, कुहू-कुहू क्यों बोलती है। क्या पता वह जबाब देती हो -"हमारी मैडम ने यही सिखाया है। हम तो ऐसे ही बोलेंगे।"
बीच-बीच में एक कौवा भी कांव-कांव करने लगा। सब चिड़ियां उस पर हंसने लगती। कौवा बेचारा फुदककर दूर चला गया।
निकल कर देखा तो चिड़िया, न कौवा कोई भी मास्क नहीं लगाए थी। पेड़ के पास फुदकती भी बिना मास्क टहल रही थी। मन किया हड़का दें, चालान करवा दें इनका। लेकिन फिर नहीं किया। क्या पता इनके प्रोटोकाल में न हो मास्क लगाना। हो सकता है इनकी चोंच ही इनका मास्क हो।
आजकल बिना मास्क कोई दिखता है तो उससे दूरी बना लेते हैं। सपने भी बिना मास्क वाले नहीं देखते। अभी एक आइडिया आया। बहुत धांसू टाइप का लग रहा था। लेकिन हमने उसको दिमाग के मेन गेट पर ही रोक दिया। हड़का दिया -'बिना मास्क अंदर नहीं घुसोगे।' बेचारा आइडिया मुंह लटका के निकल लिया बाहर।
कोरोना का आतंक हर तरफ पसरा है। हर अगले पल किसी के 'शांत' हो जाने की खबर आ रही है। लगातार फोन आ रहे हैं, मेसेज भी। किसी को कहीं बिस्तर चाहिए, किसी को ऑक्सीजन सिलिंडर। हम किसी दूसरे को फोन करते हैं। वह किसी और को करता होगा। जिंदगी की जद्दोजहद जारी है।
इस बीच कई लोग अपने ठीक होने की खबर देते हैं। किसी को सिलिंडर मिल गया, किसी को बेड। कोई बताता है कि डॉक्टर ने उसको हड़काया कि कोरोना टेस्ट भले पॉजिटिव है लेकिन फेफड़े एलर्जी के कारण खराब हैं। ये दवाई लो। आराम से रहो। हफ्ते भर बाद उनके ठीक होने की खबर आती है। 92 साल के बुजुर्ग डॉक्टर की तारीफ कर रहे हैं जो कोरोना मरीजों को भी धड़ल्ले से देख रहे हैं, दूरी बनाते हुए। पिछले साल भी देखते रहे। 92 साल के डॉक्टर धनात्मक ऊर्जा से भरपूर हैं।
टीवी पर खबर आती है अस्पताल में ऑक्सीजन खत्म हो रही है। मरीजों की जान को खतरा है। नीचे किसी नेता का बयान आता है -'आक्सीजन की कोई कमी नहीं होगी।' 'आक्सीजन की कमी की खबर' और 'ऑक्सीजन की कमी नहीं होगी' में पहले बहस और फिर मारपीट हो जाती है। इस भी अगली खबर किसी अस्पताल में आग लगने कुछ लोगों के मरने की खबर आ जाती है। आक्सीजन वाली दोनों खबरें पर्दे के पीछे जाकर बेशर्मी से हंसने लगती हैं।
आक्सीजन की कमी की बात सोचते हुए पुरानी कल्पना फिर आ गई दिमाग में। उस कल्पना में अपन इतना विकसित हो चुके हैं कि पानी के अणुओं को मूंगफली की छीलकर हाइड्रोजन और आक्सीजन अलग-अलग कर सकते हैं। हवा से नायट्रोजन और दीगर गैसों को तखलिया बोलकर आक्सीजन का मन मनचाहा उपयोग कर सकते हैं। बाद बाकी जब कभी पानी की जरूरत होती हो दो मुट्ठी हाइड्रोजन और एक मुट्ठी आक्सीजन मिलाकर तीन अंजुरी पानी बनाकर प्यास मिटा लेते।
हम पानी छीलकर आक्सीजन बना रहे थे कि बाहर बगीचे में पेड़ से कच्ची अमिया टप्प से नीचे गिर गयी। एक गिरी सैकड़ों पेड़ पर अभी हैं। पेड़ पर लगी अमियां नीचे गिरी अमियां के लिए दुखी हो रहीं होगी। उसके लिए शोक संदेश लिख रहीं होंगी। RIP के साथ हाथ जोड़ रहीं होंगी।
इसी बीच हमारे एक अजीज दोस्त के 'हमारे बीच न रहने' की खबर व्हाट्सअप पर आ जाती है। मित्र लोग दुखी होने लगते हैं। कुछ लोग पहले 'न रहने वाले' लोगों के साथ इस मित्र के लिए भी दुखी होने लगते हैं। तब तक कोई इसी दिवंगत मित्र का दो दिन पहले का संदेश फिर से लगा देता है जिसमें उस मित्र ने अपने ठीक होते स्वास्थ्य का हवाला देते सभी मित्रों को विस्तार से धन्यवाद दिया था।
मुझे अपने मित्र से हफ्ते भर पहले की चहकते हुए पुरानी यादें साझा करते हुए की गई लम्बी बातचीत याद आती है। इस बातचीत में मित्र ने कुछ दिन बाद रिटायर होकर तसल्ली की जिंदगी जीने की योजना भी थी। योजना पर अमल होने के पहले ही मित्र हमेशा के लिए रिटायर हो गए।
शहर में लाकडाउन है। मास्क लगाने के सख्त आदेश हैं। कुछ दिन में लगता है मास्क अनिवार्य ड्रेस कोड में आ जायेगा। शर्ट, पैंट, बनियाइन भले न पहनों पर मास्क जरूर लगाओ। मास्क न लगाना अश्लील और आपराधिक माना जायेगा। जिस देश के नागरिक जितने अनुशासित होकर मास्क लगाएंगे वह उतना ही विकसित माना जायेगा। देशों की प्रगति 'मास्क इंडेक्स' से नापी जाएगी।
'मास्क इंडेक्स' और प्रगति वाली बात से याद आया कि पिक्चरों में जितने भी दूसरे ग्रहों के प्राणी दिखाए जाते हैं वे सब हमसे ज्यादा विकसित होते हैं। वे सब मास्क लगाए रहते हैं। मास्क मतलब विकास। मास्क मतलब प्रगति।
लेकिन मास्क तो आम जनता के लिए होते हैं। जनता की भलाई की जिम्मेदारी जिन पर वे मास्क नहीं , मुखौटे लगाते हैं। पूरी दुनिया में ऐसा हो रहा है। अवाम की भलाई के लिए तैनात लोग तरह-तरह के मुखौटे लगाए उछल-कूद रहे हैं। जनता की सोचने-समझने की ताकत का अपहरण हो गया है। अवाम सर झुकाए अपने जीवन की रक्षा में हलकान है। जनता के आका पस्त जनता के सर पर कबड्डी खेलते हुए उसका 'कल्याण करने में मस्त' हैं।
मास्क और मुखौटे वाले आइडिये को हमने बहुत तेज हड़काया। ये क्या फालतू की बात करते हो। हमारी हड़काई से वह सहम गया और मारे घबराहट के भारतमाता की जय और वन्दे मातरम कहने लगा। हमने उसको तसल्ली देते हुए इस तरह की बेफालतू की बातें करने से मना किया। उसने कहा है कि ठीक है साहब नहीं करेंगे लेकिन सच तो यही है:
"तमाशा है
जो ज्यों का त्यों चल रहा है
अलबत दिखाने को कहीं-कहीं सूरत बदल रहा है।"
इस बीच सूरज भाई अपना चाय का कप खाली करके निकल लिए हैं। जाते-जाते बोले कि बातें तो तुम हमेशा की तरह बेवकूफी वाली ही करते हो लेकिन ये जो पानी की बूंद छीलकर आक्सीजन बनाने वाला आइडिया है न वो पेटेंट करा लो। क्या पता कभी अमल में आ जाये।
सूरज भाई तो सलाह देकर निकल लिए। हमको यह नहीं समझ में आ रहा कि वो सही में कह रहे थे या हमको 'जनता' बना रहे थे।
इस बीच हमारे एक दोस्त कोरोना को हराकर घर वापस आ गए हैं। दूसरे मित्र की कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई है। और लोग भी ठीक हो रहे हैं।
सब ठीक होगा। बस थोड़ा सावधान रहें। मास्क लगाएं, दूरी बनाएं। हौसला रखें। मस्त रहें।
और हां, ये पानी को मूंगफली की तरह छीलकर आक्सीजन बनाने वाले आइडिया पर अपनी राय बताएं। झिझक हो तो इनबॉक्स में बताएं। हम किसी से कहेंगे थोड़ी। 🙂

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Thursday, April 22, 2021

कोरोना बहुत डरपोक है

 

साल भर से कोरोना का हल्ला मचा है। भगदड़ मची है। जिसे देखो कोरोना से हलकान है। मरहूम गब्बर सिंह से भी जबर जालिम , डरावना हो गया है। जहां देखो वहां घुस जाता है। चैन लूट लेता है। मन करता है जय-वीरू को बुलाकर फिर पकड़वा दें लेकिन याद आता है जय भी इसके चक्कर में आ चुके हैं। वीरू भी वरिष्ठ नागरिक हो चुके हैं। उनको कष्ट देना ठीक नहीं।
जबसे कोरोना आया तबसे इससे निपटने के इतने तरीके आ गए बाजार में कि पूछो मत। हर तरीका दूसरे की विरोधी पार्टी का। अगर सब तरीकों को एक साथ रख दिया तो बचाव के तरीकों में महाभारत हो जाय। तीसरा विश्वयुध्द कोरोना से बचाव के तरीकों का हो जाये। पता नहीं कौन विजयी हो लेकिन सरकार एकांत की बनेगी ।
तरह-तरह के तरीके आये कोरोना से निपटने के। कोई बताइस कोरिया के लोग उल्टे हाथ से काम करने लगे जिससे वायरस से बचे रहें। थाली, दीपक भी जले। एक दोस्त ने लम्बी बहस के बाद साबित किया कि अपने समाज में घूंघट और पर्दा कोरोना से बचाव के लिए ही थे। एक ने बताया कि डायनासोर के विलुप्त होने का कारण कोरोना था। सबको कोरोना हो गया, आक्सीजन मिली नहीं और वे निपट लिए।
हमको रोज नए-नए तरीके बताए गए। जितने अपनाए उससे ज्यादा मटियाये। कुछ तो अपनाने की शुरआत के पहले ही फर्जी साबित कर दिए गए। पिछले हफ्ते हमको रोज हड़काया गया कपूर, लौंग, अजवाइन की पुटलिया ताबीज की तरह लटकाने के लिए। दिन भर सूंघने के लिए। हम टालते रहे, डांट खाते रहे। आज तय किया था लटका ही लेंगे। लेकिन सुबह ही एक दोस्त ने लिंक भेजा जिसमें बताया गया था कि इसका कोई फायदा होने का प्रमाण नहीं। हर अवसर आपदा बन रहा है। कोरोना हर एक को अपनी पार्टी की सदस्यता दिला रहा है। लगता इसको भी चुनाव लड़ने की हुड़क मची है। सरकार बनाएगा ससुरा यह भी। बहुत नीच, कमीना है यह कोरोना भी।
ऊपर से देखने में ऐसा लगता है कि हम लोग बहुत डरे हुए हैं कोरोना से। लेकिन सच्चाई यह है कि कोरोना भयंकर रूप से डरा हुआ है। डर के मारे ही जान बचाने के लिए रूप बदल कर घूम रहा है। हर जगह नई तरह से जा रहा है। दबे पांव घुस रहा है। बहुत डरा हुआ है। डर के मारे घिग्घी बंधी हुई कोरोना की। भीड़ में घुसकर, चुनाव रैली में छिपकर अपनी जान बचा रहा है। लेकिन कब तक जान बचाएगा। बस इसके दिन पूरे हुए ही समझिए।
मजे से रहिये। निपट जाएगा कोरोना भी। न वो दिन रहे न ये रहेगे। हिम्मत रखिये कुंवर नारायण की कविता पंक्ति को याद करते हुए:
"कोई लक्ष्य
मनुष्य के साहस से बड़ा नहीं,
हारा वही जो लड़ा नहीं।"
आइये सब मिलकर लड़ते हैं। कोरोना की ऐसी-तैसी करते हैं। हौसला बनाये रखिये। मुस्कराते रहिये। हौसला और मुस्कान दुनिया के हर वायरस के एन्टीवायरस हैं।
जो होगा, देखा जाएगा। निपटा जाएगा। दम बनी रहे, घर चूता है तो चूने दो।

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Tuesday, April 20, 2021

आपका क्या होगा जनाबे अली

 

तीन मीटर दूरी पर रखे रेडियो पर यह गाना बज रहा है। बार बार कह रहा है -'आप का क्या होगा जनाबे अली।' जैसे हमी से सवाल कर रहा हो। मन किया उठकर जाएं और उमेठ के बंद कर दें कहते हुए -'बड़ा आया पूछने वाला -आप का क्या होगा जनाबे अली।'
लेकिन आलस्य ने बरज दिया। आलस्य को लोगों ने 'बेफालतू' में बदनाम किया है। आलस्य के चलते तमाम 'हिंसाबाद' रुक जाता है। किसी को पटककर मारने की मंशा उठाने, पटकने और फिर मारने में लगने वाली मेहनत को सोचकर स्थगित हो जाती है। दुनिया में आलस्य के चलते न जाने कितने बुरे काम होने से बचे हैं। आलस्य की महिमा अनंत है। चुपचाप भले काम करता रहता है यह बिना अपना प्रचार किये।
रेडियो को लगता है हमारे गुस्से की भनक मिल गयी। इसीलिए 'पान पराग' का हल्ला मचाने लगा। बदमाश है रेडियो। जैसे आजकल मीडिया एक बवाल को दबाने के लिए दूसरे बवाल की बाइट फुदकती है वैसे ही रेडियो ने भी 'जनाबे अली' से ध्यान बंटाने के लिए 'पान पराग' चला दिया।
बहरहाल पान पराग की बात पर हंसी आई। सुबह-सुबह की चाय के बाद पान पराग कौन खाता है। चाय वह भी अदरख वाली। लेकिन 'पान पराग' का कॉन्फिडेंस है भाई। सबेरे डंके की चोट पर पान पराग का हल्ला मचा रहा है। वैसे इस कॉन्फिडेंस की वजह है। किसी कनपुरिये मसाला भक्त को कोई अमृत भी दे मसाला खाने के बाद तो मुंह में मसाले के आनन्दातिरेक में आंख बंद करके कहेंगे -'अभी मसाला खाये हैं।' मल्लब मसाले के बाद अमृत कैसे पी लें, मसाले का अपमान होगा।
बहरहाल बात चाय की हो रही थी। सुबह से तीसरी चाय पी। अदरख वाली। पहली चाय में अहा, अहा। दूसरी में ठीक , ठीक। तीसरे कप तक मामला आते आते चाय की इमेज वही हो गयी जो लोकतंत्र में सरकारों के तीसरे चुनाव तक हो जाते हैं। एंटीइनकंबेंसी फैक्टर हर जगह होता है। चुनाव की सुविधा होती तो एक ही केतली की तीसरी चाय पीने के बजाय दूसरी केतली की चाय ही पीते, भले ही पीने के बाद वह पहली से घटिया लगती।
हम और कुछ सोंचे तब तक रेडियो सिटी ने हल्ला मचा दिया कि सीसामऊ में 'ए टू जेड' में सब कुछ मिलता है। दुकान न हुई डिक्शनरी हो गयी। वैसे ये डिक्शनरी भी एक लफड़ा है। पहले तो देखते थे। आजकल तो सब आनलाइन है।स्पेलिंग के हाल बेहाल हैं। जिन शब्दों के साथ बचपन और जवानी में उठते-बैठते रहे उनकी तक याद धुंधला जाती है अक्सर। अक्सर भूल जाते हैं कि किसी शब्द में 'आई' लगेगा कि 'वाई'। 'ई' 'एल' के पहले आएगा या बाद में। इस चक्कर में डॉक्टरों की तरह गड्ड-मड्ड लिख देते हैं। बिना सीपीएमटी किये डाक्टर बन जाते हैं। हमने तो लिख दिया 'गोलिया' के। झेलें पढ़ने , टाइप करने वाले। हड़काने का मौका अलग से मिलता है-'तुमको यह तक नहीं आता। कौन स्कूल में पढ़े हो।'
कभी सोचते हैं कि शब्द भी अगर बोल-लिख सकते और अपने साथ रोज होते दुर्व्यवहार की शिकायत 'मीटू' अभियान के तहत करते तो अनपढ़ों के अलावा दुनिया के सब लोग कटघरे में खड़े होते।
हम और कुछ सोचते तब तक गाना बजने लगा :
'सावन आया रे
तेरे मेरे मिलने का मौसम आया रे।'
हमने हड़काया रेडियो को। हमको हनीट्रैप में फंसा रहा है। जैसे विकसित देश पिछड़े मुल्कों को अपनी पुरानी तकनीक नई कहकर टिका देते हैं वैसे ही ये मुआ रेडियो सावन बीत चुकने के बाद सावन के आने की खबर सुना रहा है। मीडिया की तरह हरकतें कर रहा है। सावधान न रहते तो सही में मिलने के लिए हाथ में गुलदस्ता लेकर निकल लेते।
बहरहाल बाल बाल बचे। अब आगे का किस्सा फिर कभी। अभी चलते दफ्तर। देर हुई तो सही में सुनना पड़ेगा -'आप का क्या होगा जनाबे अली।'

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Monday, April 19, 2021

जीने की राह


1. डर जंगल की आग की तरह फैलता है। एक का डर दूसरे को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। निराशा बढ़ने लगती है और समझ ही नहीं आता कि आगे क्या?

पर, डर ही सब कुछ नहीं है। साहस भी, डर जितना ही संक्रामक है। किसी एक की हिम्मत चुटकियों में पूरे माहौल को बदल देती है। और फिर, अपनी शक्ति के बूते हम तो सब कर पाते हैं, जो कठिन समय में करना जरूरी होता है।

2. हम शक्ति को पूजते तो हैं, पर उसे समझते नहीं हैं। हम अपनी शक्ति को बेकार ही खर्च कर देते हैं। भूल जाते हैं कि हम सब अपनी सोच से कहीं ज्यादा साहसी और कहीं ज्यादा दूसरों को मजबूती देने में मदद कर सकते हैं। फिर प्यार ही तो है, जो बचा रहता है और हमेशा याद आता है। बेहतर है कि हम दूसरों को डर के बजाय अपना प्यार दें।
Poonam Jain दैनिक हिंदुस्तान के नियमित स्तम्भ 'जीने की राह' में।

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Tuesday, April 13, 2021

अपना पराठा बचाएं, चूहों को निपटाएं

अखबार में खबर पढ़ी-डलिया से पराठा गुम होने से महिला हुई बेहोश। दो पराठे में से एक पराठा डलिया से गायब हो गया। महिला ने देखा और बेहोश। बाद में यह समझाया गया कि पराठा चूहा ले गया।
पराठा गायब होने पर महिला के बेहोश होने के पीछे कई कारण रहे होंगे। न जाने क्या-क्या सोच रही होगी महिला। क्या पता आटा खत्म हो गया हो घर में, कल कैसे बनेगा खाना , यह सोच रही हो। या कोई और चिंता कर रही हो। उसी समय पराठा गायब देखकर झटका लगा हो और बेहोश हो गयी हो।
चूहे द्वारा पराठा ले जाने वाली बात इसलिए समझाई गयी होगी कि चूहे आमतौर पर ले जाते होंगे पराठे। चूहे अनाज खाने, चुराने के लिए मशहूर हैं। गल्ला गोदामों की अनाज की कमी/चोरी चूहों के मत्थे ही जाती है। बिहार में तो बांध कुतर गए थे चूहे।
चूहों की तरह कई सरकारी महकमों के लोग भी बदनाम हैं समाज की चीजें कुतरने के लिए। अखबार की एक खबर के मुताबिक एक आदमी ने खुदकशी कर ली। अखबार के मुताबिक खुदकशी का कारण यह था कि उसकी नाबालिग बेटी का अपहरण गांव कुछ ताकतवर लोगों ने कर लिया था। पुलिस लड़की की बरामदगी के लिए एक लाख रुपये मांग रही थी। उस आदमी ने 20 हजार जुगाड़ के दे दिए। बाकी के 80 हजार नहीं जुगाड़ पाया। पुलिस दाम कम करने को राजी नहीं हुई होगी। उस आदमी ने मजबूरी में आत्महत्या कर ली।
अखबार के मुताबिक आदमी का लिखा सुसाइड नोट जिसमें पुलिस द्वारा पैसे मांगे जाने का जिक्र होगा पुलिस ने फाड़ दिया। मामला एकाध दिन की सुर्खी के बाद रफा-दफा होने की गुंजाइश बन गयी।
एक पेंशनर द्वारा दी जानकारी के मुताबिक लेखपाल ने उनकी रिपोर्ट लिखने के लिए पन्द्रह हजार लिए थे।
इसी तरह के चूहे समाज को खोखला कर रहे हैं। अफसोस यह भी कि इनके लिए कोई चूहामार दवाई भी नहीं मिलती। जो मिलती है उसके मारक तत्व खत्म चोरी हो जाते हैं।ये चूहे उसको खाकर और ताकतवर हो जाते हैं। चूहामार दवाई इन चूहों के लिए नशे के काम आती है।
चूहे पकड़ने के लिए चूहेदानी का प्रयोग पहले ही असफल हो चुका है। बकौल परसाई जी :
"सरकार कहती है कि हमने चूहे पकड़ने के लिये चूहेदानियां रखीं हैं. कुछ चूहेदानियों की जब हमने जांच की तो पता लगा उसमें घुसने के छेद से बड़ा छेद, पीछे से निकलने के लिये होता है। चूहा जैसे ही फंसता है उधर से निकल जाता है क्योंकि पिंजड़ा बनाने वाले चूहों से मिले हुये हैं और चूहा पकड़ने वाले भी। हम पिंजड़ा देखते हैं वे उन्हें छेद दिखा देते हैं।
हमारे हिस्से बस चूहेदानी खरीदने का खर्च बढ़ रहा है..."
इलाज क्या है इसका। इलाज यही है कि अपने आसपास के चूहों को पहचान कर उनसे दूर रहा जाए। उनके दांत तोड़ने की व्यवस्था की जाए। चूहों के सारे बिल बन्द किये जायें।
अपने पराठे को बचाने के लिये चूहे को निपटाना जरूरी है।

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Saturday, April 10, 2021

साइकिल के जन्मदिन के बहाने

कल हमारी साइकिल छह साल की हो गई। 2015 में जबलपुर में रांझी से ली थी। लेने के बाद घण्टी लगवाई, गद्दी बदलवाई। एक दो बार ट्यूब बदले। उसके अलावा टनाटन है साइकिल। पैडल मारते ही स्टार्ट हो जाती है।
साइकिल का साथ भले छह साल का हो गया लेकिन उसकी कोई पहचान अगर कहे तो शायद न बता पाए। कई साइकिलों के बीच अगर खड़ी हो और हमको अपनी साइकिल चलाने को कहा जाए तो बड़ी बात नहीं कि किसी दूसरी साइकिल की गद्दी की धूल झाड़कर पैडल मारने लगें। इतने सालों के साथ के बाद भी ऐसा अजनबीपन निहायत गैरजिम्मेदाराना है। लेकिन ऐसा होता है। साथ रहने वालों की तो बात छोड़िये कई बार अपन खुद को अजनबी लगते हैं। लगता है कि कहीं देखा है, मिले हैं लेकिन कहां देखा , कहां मिले यह ध्यान नहीं आता। फिर लगता है, अबे ये तो अपन ही है।
साइकिल की पहचान की बात से याद आया कि उसका हैंडल जंगिया गया है। ताला खुला रहता है। ऐसी अनगिनत साइकिलें होंगीं दुनिया में। लेकिन लगता है इतने से पहचान लेंगे साइकिल को।
कुछ दोस्त हमारी साइकिल को पुरानी बताकर बदलने की सलाह देते हैं। गियर वाली लेने को कहते हैं। लेकिन अपन को यही , बिना गियर वाली पसन्द है। गियर वाली साइकिल में इंसान गियर तो जल्दी-जल्दी मारता है लेकिन साइकिल चलती अपनी ही गति हैं।
बावजूद नापंसगी के पिछले दिनों हमारे बच्चों ने हमको गियर वाली जबरियन गिफ़्टियाँ दीं। बच्चों के प्यार से निहाल होने के बावजूद उनको फिजूलखर्ची पर टोंकते हुए बेमन से साइकिल खोली गई। कसवाई गई। पता चला साइकिल और हमारे साइज में जो अंतर के चलते उसको चलाने का एक ही तरीका है कि साइकिल और हम दोनों साथ-साथ सड़क पर साथ-साथ पैदल चलें।
साइकिल के साथ पैदल चलने में वैसे कोई बुराई नहीं। लेकिन गियर वाली साईकिल को बुरा लग सकता है कि उसकी बेइज्जती हो गई। अगर किसी हीरे को कोई रईस पेपरवेट की तरह प्रयोग करे या रॉल्स रॉयस से शहर का कूड़ा उठवाया जाए तो उनको बेइज्जती महसूस होगी न। किसी की 'बेइज्जती खराब' करने का अपना कोई इरादा नहीं रहता।
हमारे एक अजीज दोस्त हैं जो कद और अक्ल दोनों मामले में थोड़ा नाटे टाइप होने के साथ-साथ अपने ऊलजलूलपन के कारण भी जाने जाते हैं। हमको बहुत चाहते हैं। उनको हमारी नई छोटी साइकिल के उपयोग का एक तरीका यह भी समझ में आया कि अपन अपना साइज थोड़ा लम्बाई में कम करवा लें। उनका कहना था कि मेडिकल में आजकल सब कुछ सम्भव है। लेकिन शुक्र उनका इस बात का कि उन्होंने हमारी लम्बाई में बदलाव के उपाय को साइकिल की कीमत के मुकाबले खर्चीला बताते हुए खुद खारिज कर दिया यह कहते हुए कि यह काम कोई सरकारी खर्चे पर तो होगा नहीं लिहाजा क्या फायदा पैसा बर्बाद करने में।
नई साइकिल चली भले नहीं हो लेकिन उपयोग उसका भी हो रहा है। होली के मौके पर उसका उपयोग जोड़ो के साथ फोटॉग्राफी में हुआ। चीजें अपना उपयोग करा ही लेती हैं। पुरानी साइकिल भी चल ही रही है टनाटन।

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Thursday, April 08, 2021

लम्बा मारग दूरि घर

 

आज फिर सपना दिखा। वही पुराना, सदाबहार। इम्तहान के लिए निकलना है। देरी हो रही है। समय कम। डर हावी है कि कहीं समय पर पहुंच न पाए तो पेपर छूट जाएगा। करेला ऊपर से नीम चढा यह कि अभी फाइनल रिवीजन बाकी है।
रिवीजन करना है। निकलना है। पहुंचना है। इम्तहान देना है। लेकिन हो कुछ नहीं रहा है सिवाय चिंता के। कुछ नहीं करने पर सिवाय चिंता के कुछ नहीं होता। यह भी कह सकते कि सिर्फ चिंता करने से कुछ नहीं होता।
सपना भले पुराने टाइप का है लेकिन इस बार साधन बदले हैं। पहले सपने में रिक्शा रहता था। इस बार कार है। लगता है सपने में भी प्रमोशन हो गया। सवारी मंहगी हो गई। कार के साथ जाम की भी चिंता है। जाम लगा होगा तो पहुंच नहीं पाएंगे समय पर।
रिक्शे की जगह सपने में आई। लगता है आटोमोबाइल बिरादरी ने स्पांसर किया है सपना। बाजार सपनों में भी घुसपैठ करने लगा। मंहगे होते पेट्रोल के चलते कारों की बिक्री कम हुई तो सपने में बिकने लगी।
तरह तरह की बाधाएं कबीर दास जी के दोहे की याद दिला रही हैं :
"लंबा मारग दूरि घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यूं पाइए, दुर्लभ हरि दीदार।"
अब नींद खुल गई लेकिन सपना भूला नहीं है। लेकिन सुकून है कि अब इम्तहान देने नहीं जाना पड़ेगा। इम्तहान से सबको डर लगता है। यह अलग बात है जिंदगी के स्कूल में हर समय कोई न कोई इम्तहान चलता रहता है। उसमें फेल-पास की चिंता नहीं होती। पता भी नहीं चलता कि किसी इम्तहान में शामिल हैं।
यह तो हुई सपने की बात। कल नहाते हुए एक बड़ा धांसू आइडिया आया था दिमाग में। बिना पूछे घुस गया था। पहले तो गुस्सा आया कि डांट के 'गेटआउट' कह दें। लेकिन आइडिया इतना क्यूट था कि नहीं बोल पाए। उसकी खूबसूरती पर फिदा हो गए।
आइडिया एक फैंटेसी पर एक उपन्यास लिखने का था। जो फैंटेसी आई थी दिमाग में वह इतनी हसीन थी कि तय किया कि नहाना छोड़कर पहले उसको पेटेंट करा लें। लेकिन आर्किमिडीज जैसी दीवानगी के अभाव में हमने पेटेंट का काम छोड़कर लिखने की बात तय की। सोचा कि लिखकर अच्छे से कई ड्राफ्ट के बाद उपन्यास किसी प्रकाशक को दे देंगे। भले ही वह छापे , न छापे। अपन तो लिख देंगे उपन्यास। बन जाएंगे -'अन छपे उपन्यास' के लेखक। जब तक छपेगा तब तक दो-चार भाषाओं में अनुवाद भी करा लेंगे। इनाम-उनाम की बात भी कर लेंगें। इधर उपन्यास छपे, उधर इनाम मिले।
यह सब तो बड़ा हसीन ख्वाब था जो अपन ने नहाते हुए देखा। आज सुबह जगने पर जब सपने की याद की तो कल के ख्वाब को भी याद क़िया। पता चला ख्वाब तो याद है लेकिन फैंटेसी के डिटेल कहीं गोल हो गए। फैंटेसी आइडिये के साथ फरार। याद ही नहीं आ रहा कि क्या लिखने की सोच रहे थे।
बहुत गुस्सा आया। कल लिखकर रख लेना चाहिए था। एक उपन्यास का कच्चा माल जरा सी लापरवाही से गायब हो गया। मन किया पकड़ के कुच्च दें अपनी लापरवाही को। लेकिन छोड़ दिया। ले-देकर लापरवाही ही तो है जो हमेशा साथ रहती है। यह भी रूठ गई तो बचेगा क्या अपन की शख्सियत में।
लेकिन मजे की बात यह कि अपन को सोते हुए देखा सपना, जो परेशानी वाला है , तो याद है लेकिन हसीन ख्वाब की तफसील भूल गई। इससे साबित होता है कि बुरी चीजें हम शिद्दत से याद रखते हैं, अच्छी चीजें याद करने में लापरवाही बरतते हैं।
बहरहाल जो हसीन ख्वाब जागते हुए देखा था वह आखिरी नहीं था। फिर देखा जाएगा और अमल में भी लाया जाएगा- इंशाअल्लाह।
आप भी देखिए कोई हसीन ख्वाब और अमल में भी लाइये। न ख्बाब में कोई राशनिंग है और न ही उनके अमल में लाने में।

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Wednesday, April 07, 2021

आराम का मामला है

 

ये फेसबुक पर ऑटो टिप्पणी के जो विकल्प आते हैं न वो हमको 'अभिव्यक्ति दिव्यांग' बना रहे हैं। किसी पोस्ट पर टिप्पणी करते समय फेसबुक सुझाता है खूब, बहुत खूब, अद्भुत, शानदार। पोस्ट के अनुकूल टिप्पणी देखते ही हम उसे भेज देते हैं। खुश हो जाते हैं कि बिना मेहनत काम हो गया। बढ़िया टिप्पणी हो गयी।
लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। वह यह कि फेसबुक और दूसरे मीडिया भी हमको अपने पर निर्भर बना रहे हैं। अपने पास उपलब्ध विकल्पों में से ही किसी एक को चुनने के लिए उकसा रहे हैं। हम चुनते भी हैं। आराम का मामला है।
मामला भले आराम का है लेकिन सोचिये तो अपन 'अभिव्यक्ति दिव्यांग' होते जा रहे हैं। टिप्पणियां एकरस और मशीनी होती जा रही हैं। हमारी तरफ से फेसबुक काम कर रहा है। बिना पैसे का नौकर हम पर हुक्म चला रहा है। हम उसके इशारे पर नाच रहे हैं।
दूसरे पर निर्भरता हमको कमजोर और अपाहिज बनाती है। देश दुनिया के स्तर पर यह और तेजी से हो रहा है। हम अपनी सेवा के लिए जिन लोगों को अपना प्रतिनिधि चुनते हैं वे दिन पर दिन समाज विरोधी, मानवता विरोधी और निकृष्टतर होते जा रहे हैं। हम मजबूरी में उनसे ही अपना 'कल्याण' कराने को अभिशप्त हैं। हम कुछ कर नहीं पाते क्योंकि हम खुद कुछ करने की बात सोचना ही भूलते गये हैं।
हम जितना आधुनिक और आरामतलब बन रहे हैं उतने ही अपाहिज और असहाय भी।
है कि नहीं ?

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Monday, April 05, 2021

अरुण यह मधुमय देश हमारा


अरुण यह मधुमय देश हमारा
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कल साइकिलिंग लिए अपन निकल लिये समय पर। साथी इन्तजार कर रहे थे। 'उद्घाटनिया फोटोबाजी' के बाद सब निकल लिए।
सड़क ऊबड़खाबड़ मिली शुरू में। साइकिल का मूड कुछ उखड़ा-उखड़ा रहा। कुछ दूर बाद जाकर सड़क शरीफ हो गयी। साइकिल भी चहकते हुए चलने लगी। हर इंसान की तरह साइकिल भी अच्छी सोहबत चाहती है।
साइकिलिंग क्लब के सदस्यों की साइकिलें अलग-अलग तरह की हैं। कुछ लोगों के पास गियर वाली साईकिलें हैं। शायद हल्की चलती हों। लेकिन बड़े कद वालों के लिए छुटकी वाली साईकिलें कुछ अटपटी लगती हैं। गियर होने के चलते जल्दी-जल्दी पैडल मारते हैं लेकिन साइकिल चलती उतनी ही स्पीड से हैं। झुके-झुके साइकिल चलाना भी कुछ-कुछ 'सरेंडर मुद्रा' लगती है। शायद रेसिंग के लिए ठीक हो। लेकिन ज्यादा दूर तक चलने में मजेदार नहीं लगती। अपन की बिना गियर वाली साइकिल इस मामले में बढ़िया लगती। सीधे बैठकर चलाना आरामदायक है।
गांव, सड़कें सब ऊंघती हुई लगीं। अलसाई सी। चेहरे से सूरज भाई के लिए शिकायती भाव -'डिस्टर्ब कर दिया सुबह-सुबह।'
जिधर से गुजरते उधर लोग सीधे होकर हमको दूर से, देर तक, दूर तक देखते। एक जगह से गुजरते हुए किसी को कहते सुना -'साइकिल रैली निकल रही है।'
खेतों में फसलें खड़ी थीं। पौधे एकदम सावधान, स्वाभिमानी मुद्रा में खड़े थे। मानो सूरज भाई को सलामी दे रहे हों। 'गार्ड ऑफ ऑनर' जैसा कुछ। मजाल कोई हवा उनको हिला जाए। क्या पता सूरज भाई के सम्मान में राष्टगान जैसा कुछ बज रहा हो। लेकिन पौधों का राष्ट कहां होता है। जब राष्ट्र नहीं तो राष्ट्रगान कैसा ?उनका तो 'फ़सलगान' होता होगा। 'फ़सलगान' या फिर 'खेतगान'। उनकी अपनी भाषा होगी। जो भी हो उसके भाव शायद जयशंकर प्रसाद जी की कविता जैसे होंगे कुछ-कुछ :
'अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहां पहुंच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा।'
एक खेत में बगुले, जोड़ों में ,खड़े थे। शायद जुते हुए खेत में पिकनिक मनाने आये होंगे। अलग-अलग अंदाज में पोज बनाते हुए, पंख फड़फड़ाते हुए बगुले खुश-खुश दीख रहे थे। शायद सेल्फी वगैरह भी ले रहे हों। कहीं अपने सोशल मीडिया में अपलोड करने के लिए वीडियो भी बना रहे हों। लेकिन कोई बगुला मास्क नहीं लगाए था। वे भी हम आदमियों की तरह लापरवाह हो रहे हैं । कोरोना की किसी को चिंता नहीं।
कोरोना इधर फिर उछलकर आ गया है। तेजी से बढ़ रहा है। सम्भलकर रहें। दूरी बनाये, मास्क लगाएं। खुद बचें, अगले को भी बचाएं।
एक गांव के नुक्कड़ पर एक गुमटी पर मोबाइल सिम और उससे सम्बंधित सामान बिक रहा था। मेमोरी डाउनलोड होती है लिखा था। मेमोरी डाउनलोड किसी मोबाइल से करने की बात होगी। क्या पता कल को इंसानों की मेमोरी भी डाउनलोड होने लगे। एक इंसान की मेमोरी डाउनलोड करके रख लो फिर कोई चिंता नहीं कि भूल जाएंगे कुछ। अगर ऐसा होने लगेगा तो उसके नियम कायदे भी बनेंगे।
दफ्तर की मेमोरी अलग होगी, घर की अलग। दोस्तों की अलग, रिश्तेदारों की अलग। इंटरव्यू के लिए इंसानो की मेमोरी चेक होगी। जिसकी मेमोरी ठीक पाई गई उसके चुनाव होंगे। शादियां ' कुंडली मैचिंग' के बजाए 'मेमोरी मैचिंग' से होंने लगें। गठबंधन की जगह 'मेमोरी मर्जर' होने लगे। पंडितों की जगह प्रोग्रामर ले लेंगे।
चुनावों के समय लोग दल बदल की जगह 'मेमोरीबदल' करेंगे। किसी माफिया की मेमोरी डाउनलोड करके साधु सन्यासी की मेमोरी में मिला देंगे और वो चुनाव जीत कर शपथ ग्रहण करते समय भाषण देते हुए कहने लगे -'हम अपराधियो को पूरा संरक्षण देंगे। अपराध के लिए अवसर उपलब्ध कराएंगे।'
इस पर साधु की मेमोरी शायद विरोध करे -' साधु-साधु यह कह रहे हैं आप?' क्या पता इस पर माफिया की मेमोरी शरीफ साधु की मेमोरी को लात मारकर बाहर कर दे और पूरे स्पेस पर कब्जा कर ले। क्या पता इस जूता-लात में पूरा सिस्टम ही क्रैश हो जाये। सब कुछ नए सिरे से फार्मेट करना पड़े। बहुत बवालिया काम है इंसानों की मेमोरी डाउनलोड करना। इससे दूर ही रहना अच्छा।
अभी तो सुबह है। सुहानी भी और खुशनुमा भी। जिंदगी बहुत खूबसूरत है आपकी मुस्कान की तरह। मुस्कराइए कि आप इस खूबसूरत कायनात में हैं।

 https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222063543751098

Saturday, April 03, 2021

रुप्पू

 आज ज्योति त्रिपाठी रुचि द्वारा लिखा उपन्यास रुप्पू पढा। पेज नम्बर 7 से 160 तक पूरा उपन्यास एक सिटिंग में पढ़ गये। बहुत दिन बाद ऐसा हुआ कि कोई किताब एक दिन में पढ़ ली जाए। वरना पिछले कई महीनों से ऐसा होता आ रहा है कि एक से एक अच्छी मानी जाने वाली किताबें जितनी तेजी से शुरू हुई उतनी ही तेजी से, बिना पूरी पढ़े गए, उनकी जगह दूसरी किताबें आती गयीं।

किताब एक सिटिंग में पढ़ ली जाए इससे उसकी पठनीयता तो अच्छी कही ही जा सकती है। इस मामले में तो ज्योति को पूरे नम्बर मिलने चाहिए।
ज्योति की कविताएं पिछले कई सालों से पढ़ते आये थे। स्त्री सँघर्ष और घर परिवार में आने वाली चुनौतियों और उनके बारे में पूर्वाग्रहों के बारे में बड़ी बेबाकी से लिखती रही हैं ज्योति। अक्सर उनकी अभिव्यक्ति चकित करती रहती है। समाज में महिलाओं की स्थितियों पर लिखी ज्योति की कुछ कविताएं तो इस विषय पर लिखी सबसे बेहतरीन कविताओं से कमतर नहीं हैं। आने वाले समय में शायद उनकी कविताओं का मूल्यांकन हो सके।
कविताओं से फेसबुक लेखन शुरू करके ज्योति क़िस्त-दर-क़िस्त वाले अंदाज में किस्से लिखने लगीं। लिखने का रोचक अंदाज होने के कारण पाठक उनका इंतजार करने लगे। शुरू में कुछ पोस्ट्स मैने भी पढ़ी। लेकिन फिर एक साथ पढ़ने की सोचकर पढ़ना छूट गया। ज्योति पाठकों की मांग पर लिखती रहीं। इसी तरह करते-करते कई किस्से बन गए उनके। किस्से मतलब उपन्यास।
ऐसे ही एक धारावाहिक किस्से की किस्तों को एक साथ करके जो किस्सा मुकम्मल हुआ वह उपन्यास 'रुप्पू' के रूप में सामने आया। रुप्पू एक बदसूरत लड़की की जिंदगी की चुनौतियों से जूझने की कहानी है।
रुप्पू की जिंदगी में कई 'उतार ही उतार'आये। जिंदगी लगातार कठिन होती रही। जिन पर भरोसा किया उनमें से अधिकतर से धोखे मिले। कई बार टूटी रुप्पू लेकिन हर बार खुद को संभाला। फिर चुनौतियों का सामना किया। कई बार अवसाद में आई रुप्पू। आत्महत्या की कोशिश की। लेकिन फिर जिंदगी की विजय हुई। रुप्पू अपने पैरों पर खड़ी हुई। मजबूत बनी।
रुप्पू के व्यक्तित्व की खासियत में से एक यह भी है कि वे अपने साथ अन्याय करने वाले , धोखा देने वाले के प्रति भी, उसकी परिस्थितियों को ध्यान करते हुए, उसको क्षमा कर देती है। निरन्तर धोखा खाने के बावजूद अपने पति को गलतियों को अनदेखा करते हुए उसकी अच्छाइयां देखकर जुड़े रहने की कोशिश करती है। गलत से गलत व्यक्ति की अच्छाइयों को भी देखने की यह नजर ज्योति के व्यक्तित्व का सहज अंग है।
ज्योति की यह सोच उनकी कविताओं में भी लगातार दिखती है। स्त्री का पक्ष लेते हुए कविताएं लिखने के बावजूद ज्योति की कविताओं में आने वाले पुरुष पात्र अपनी तमाम कमियों के बावजूद 'उतने बुरे नहीं ' होते जितने उनको समझा जाता है। उनमें बहुत कुछ ऐसा होता है जिनके चलते उनके प्रति प्यार उमड़ता है।
बहरहाल बात रुप्पू की। इस उपन्यास की कहानी अपने समाज में एक ऐसी लड़की की कहानी है जिसको आमतौर पर खूबसूरत नहीं माना जाता। केरल में जो लड़की बिंदास रहती है वह रांची पहुंचकर बेचारी हो जाती है। बाकी किस्से पढ़ने के लिए किताब पढिये।
ज्योति का यह पहला उपन्यास है। जितनी जल्दी यह उपन्यास आया उससे बहुत खुशी हुई। उपन्यास में कई कमियां होंगी। लेकिन वह देखना आलोचकों का काम है। हम तो आनंदित और प्रमुदित हो रहे हैं यह सोचकर कि अभी और कई उपन्यास और कविता संकलन आएंगे ज्योति के।
ज्योति को उसके उपन्यास की
बधाई
।शुभकामनाएं।
किताब खरीदने का लिंक यह रहा


https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10222053962151564