Tuesday, November 26, 2019

.....और यह एक और छक्का।

हमारे छोटे साहब जादे Anany इंजीनियरिंग की पढ़ाई किये हैं। बैंकिग का काम करने वाली कम्पनी गोल्डमैन सैक्स में काम करते हैं। इसके अलावा कविता तो लिखते ही हैं। उनके कविता पढ़ने के अंदाज को देखकर हमारे कुछ मित्र हमसे कहते भी हैं - सीखो कुछ अनन्य से। 🙂
पिछले हफ्ते अनन्य के यहां क्रिकेट टूर्नामेंट हुआ। करीब 700 लोग शामिल हुए अलग-अलग टीमों से। इस टूर्नामेंट में अनन्य को सर्वाधिक रन बनाने के लिए 'बेस्ट बॉट्समैन' की ट्राफी मिली। रन बनाने में अहम भूमिका अनन्य की जांघ की पेशी में खिंचाव की रही । दर्द की वजह से दौड़ना मुश्किल इसलिए छक्कों से रन बनाने पड़े। 🙂
अब इस बात का कोई मतलब थोड़ी है कि मैच टेनिस बॉल से खेले गए। ट्राफी तो चमकदार है।
बहुत बहुत
बधाई
अनन्य बेटा। बहुत-बहुत प्यार। 🙂






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Monday, November 25, 2019

वर्ल्ड ट्रेड सेंटर – गिरा हुआ और नया वाला

पहले दिन की घुमाई में अपन ने न्यूयार्क की सड़कें, इमारतें, गाड़ियां देखीं। टाइम्स स्क्वायर और एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग देखी।

न्यूयार्क में कई जगहें देखनी थीं। दिन कम थे, देखना ज्यादा था। सड़क पर चलते-चलते थक गये। दोस्तों ने सुझाया कि हमको वहां किसी बस सेवा की शरण में चला जाना चाहिये।
न्यूयार्क में घूमने के लिये Hop on Hop off बस सेवा उपलब्ध हैं। Hop on Hop off मतलब जहां मन आये चढ जाओ, जहां मन आये उतर जाओ। न्यूयार्क की प्रसिद्द इमारतों, स्मारकों के पास से होकर यह बस सेवा गुजरती है। कई बस कम्पनियां हैं वहां। न्यूयार्क पहुंचते ही एजेन्ट बस सेवा के बारे में बताने के लिये लपकते हैं। अधिकतर एजेंट , महिला और पुरुष दोनों, ब्लैक समुदाय के दिखे।
हमने टॉप व्यू की Hop on Hop off बस सेवा ले ली। 55 डालर में 5 दिन। मतलब 11 डालर एक दिन के एक जन के। कुल 110 डालर मतलब 7700 रुपये शहर की सडकों में घूमने के। बस सेवा की तर्ज पर अपन ने ट्रेन सेवा का भी हफ़्ता वाला पास खरीदने की बात सोची। लेकिन काउंटर बालिका ने बताया कि हफ़्ते के बीच खरीदने से कोई फ़ायदा नहीं। पास लिया जायेगा हफ़्ते भर का। सेवा मिलेगी दो दिन। हमने ट्रेन पास लेने का इरादा त्याग दिया।

अगले दिन जब न्यूयार्क पहुंचे तो देखने की हमारी लिस्ट में सबसे ऊपर ’वर्ल्ड ट्रेड सेंटर’ था। ’वर्ल्ड ट्रेड सेंटर’ के ट्विन टावर दुनिया में सबसे अधिक चर्चा में तब आये जब 11 सितम्बर , 2001 को अलकायदा के आतंकवादियों ने दो विमान अपहरण करके एक के बाद एक टकराकर दोनों टावर उड़ा दिया। दुनिया में यह घटना 9/11 घटना के रूप में जानी जाती है। टावर उड़ाये जाने के पहले दुनिया की सबसे ऊंची इमारत थे। इसके पहले यह दर्जा एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग को मिला था। टावर उड़ा दिये जाने के बाद एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग फ़िर कुछ दिन दुनिया की सबसे ऊंची इमारत रही।
टावरों का आतंकवादियों द्वारा उड़ाया जाने की घटना से अमेरिका दहल गया था। इस घटना के बाद अमेरिका में सुरक्षा में बहुत कड़ाई हुई। कई किस्से हैं इसके। शक होने पर किसी को रोक लेना। वापस कर लेना आदि।
ट्विन टावर उड़ने की घटना की दुनिया भर में अलग-अलग प्रतिक्रियायें हुईं थीं।अमेरिका उस समय इतना बौखलाया हुआ था कि कहने लगा -’जो हमारे साथ नहीं वह आतंकवादियों के साथ है।’
प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर जी मैंने इस बारे में एक सवाल किया था-
“जब आपने अमेरिकन टावरों पर हमला होते देखा टीवी पर तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या थी?
इस पर गिरिराज जी का जबाब था -
"हालांकि मैं हिंसा का हिमायती नहीं हूं पर मैंने इस बारे में 'अकार' के संपादकीय में लिखा था -ऐसा लगा जैसे किसी साम्राज्ञी को भरी सभा में निर्वस्त्र कर दिया गया हो।सारे देशों के महानायक उसे शर्मसार होने से बचाने के लिये समर्थनों की वस्त्रांजलियां लेकर दौड़ पड़े हों। उसके बाद हमें यह भी दिखा कि कितने डरपोंक हैं अमेरिकन।मरने से कितना डरते हैं वे। मुझे लगता है कि अगर एकाध बम वहां गिर जाते तो आधे लोग तो डर से मर जाते।वे।पाउडर के डर से हफ्तों कारोबार ठप्प रहा वहां। “

इस घटना के 18 साल बाद हम उस स्थल पर थे। ट्विन टावर जिस जगह पर था अब वहां पक्के, गहरे तालाब जैसे बने थे। उनमें लगातार पानी बह रहा था। तालाब के चारों तरह उन लोगों के नाम लिखे थे जो इस घटना में मारे गये थे। इस हमले में उन इमारतों और उनके आसपास रहने वाले कुल 2,606 लोग मारे गये थे। इसके अलावा विमानों में सवार 157 लोग भी मारे गये। आसपास की अनेक इमारतें पूर्णत: या फ़िर आंशिक रूप से बरबाद हो गयीं थीं। आठ महीने लग गये थे इन इमारतों का मलबा हटने में।
ट्विन टावरों को देखने के लिये दुनिया भर के लोग आये हुये थे। दुर्घटना में मारे गये एक व्यक्ति के परिवार के लोग वहां उनका जन्मदिन मनाने आये हुये थे। उनकी पत्नी , बच्चे और मित्र मौजूद थे। मारे गये व्यक्ति के बारे में बताते हुये उसको याद कर रहे थे। वहां उपस्थित लोगों से गले मिल रहे थे। हम भी गले मिले उन लोगों से।
उस जगह पर तरह-तरह के फ़ूल लगाये गये थे। घास पर चलने की मनाही थी। वहां तैनात सुरक्षा कर्मी इमारतों के अवशेष पर पैर रखने, बैठने से टोक रहे थे।
एक गिलहरी घास पर तसल्ली से फ़ुदक रही थी। गिलहरी इतनी स्वस्थ थी कि उसकी तुलना में अपने यहां की गिलहरियां बच्ची लगें। अमेरिका खाता-पीता देश है। आम तौर पर हर चीज बड़ी उधर। वहां के प्याज देखकर भी मुझे अपने यहां के प्याज उसके मुकाबले में नाबालिग से लगे।
ध्वस्त वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की याद में वहां म्यूजियम बनाया गया है। उसको देखने की भी लम्बी लाइन लगी थी। लेकिन हम लोग उसे देखने नहीं गये। समय कम था हमारे पास, फ़ीस ज्यादा थी उसकी। समय और फ़ीस के तालमेल के अभाव में म्यूजियम देखना स्थगित हो गया।
पुराने ट्रेड सेंटर के बगल ही नई इमारत बन गयी है। इस इमारत में तमाम दुकाने हैं, आफ़िस हैं। कैफ़ेटेरिया हैं और भी न जाने क्या-क्या हैं। अपन नीचे की मंजिल ही देख पाये। इतने में ही बहुत समय खर्च हो गया।
इमारत के नीचे वाली मंजिल में कुछ कला संबंधी चीजें भी रखीं थीं प्रदर्शनी के लिये। सब कुछ इतना चकाचौंध भरा कि देखें तो बस देखते ही रह जायें।
ट्रेड सेंटर में इधर-उधर घूमते रहने के बाद स्टारबक्स की एक दुकान में चाय पी गयी।
बाहर निकलकर भी फ़ोटो खिंचाई। एक-दूसरे की फ़ोटो खिंचाते और सेल्फ़ियाते हुये बोर हो जाने के बाद अपन ने वहां हम दोनों की साझा फ़ोटो खिंचाने के लिये वहां तफ़री कर रहे एक नौजवान से अनुरोध किया। फ़ोटो खिंचाने के बाद पता चला कि बच्चा डेहरी आन सोन का था। न्यूयार्क में घूमने आया था। दोस्तों के साथ। दस साल से टहल रहा है अमेरिका में।
ट्विन टावर और वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से निकलकर हम न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज की तरफ़ बढ गये।

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Sunday, November 24, 2019

एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग- दुनिया की सबसे ऊंची इमारतों में एक

 


’टाइम्स स्क्वायर’ घूमते हुये भूख लग आई। नेट पर भारतीय होटल खोजे गये। कई मिले। लेकिन जब उनको खोजने निकलते भटक जाते। इस चक्कर में टहलाई काफ़ी हो गयी। भटकने के बाद अंदाज हुआ कि कैसे सही जगह पहुंचा जाता है। बाद में स्ट्रीट और एवेन्यू का गणित भी समझ आ गया।

खाने का जुगाड़ खोजने के दौरान कई नुक्कड़ों पर पूछा लेकिन पक्का पता नहीं चला। एक नुक्कड़ की गुमटी पर अपनी दुकान पर बैठे एक भले मानुष बंगाली में फ़ोन पर किसी से बतिया रहे थे। हमारे पूछने पर बात करना स्थगित करके हमको जबाब दिया – ’आई डोंट नो।’ ’आमि जानि न’ की जगह ’आई डोंट नो’ सुनकर सांस्कृतिक झटका सा लगा लेकिन उतने से झटके से हम उससे उबर भी गये।
बहरहाल काफ़ी भटकने के बाद एक हिन्दुस्तानी होटल मिला। डेढ खाने की मेज की चौड़ाई और करीब सात-आठ मेज की लम्बाई वाला होटल। काउंटर पर पंजाबी अंग्रेजी बोलती महिला। लगा पंजाब के किसी ढाबे में पहुंच गये। ढोसा आर्डर किया। आठ डालर का एक ढोसा। जब तक ढोसा आता तब तक मोबाइल चार्ज कर लिया उसी दुकान से। मोबाइल चार्जिंग ढाबे के मीनू में था नहीं सलिये उसके पैसे नहीं पड़े।

डोसे आये। मुलायम और बेस्वाद। एक तो काफ़ी जल भी गया था गोया किसी नौसिखिये न मजबूरी में सेंका हो।
पेट भरने के बाद अपन आगे बढे। पास ही एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग थी। 102 मंजिल की इमारत है यह इमारत। 1931 से 1970 तक दुनिया की सबसे ऊंची इमारतों में शुमार यह बिल्डिंग सामान्य ज्ञान की किताबों में किसी न किसी रूप में मौजूद रही। बाद में दूसरी इमारतें इससे भी ऊंची बनीं लेकिन जितनी प्रसिद्ध यह इमारत हुई उतनी शायद दूसरी नहीं। अमेरिकन लोग इस इमारत को दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक मानते हैं।
बिल्डिंग देखने गये। नीचे पूरी इमारत का माडल लगा बना हुआ था। माडल देखते ही मन ललच गया। ऊपर चल के भी देखा जाये। पता किया कि ऊपर की मंजिल तक जाने फ़ीस 65 डालर है। डालर ज्यादा नहीं लगे सुनने में। लेकिन उसको रुपये में
बदलते ही होश उड़ गये। 4500 रुपये फ़ीस इमारत देखने के। दोनों को मिलाकर 9000 रुपये। इत्ता मंहगा एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग दर्शन। लेकिन इमारत देखने के उत्साही जोश ने उड़े हुये होश को जल्द ही काबू में कर लिया। टिकट खरीद के लाइन में लग गये ।

इमारत में जैसे-जैसे ऊपर पहुंचते गये वैसे-वैसे उसके निर्माण से जुड़ी बातें पता चलती गयीं। बनाने वालों ने इमारत बनाई साथ में उसका निर्माण इतिहास भी लगभग जैसे का तैसा फ़ोटो/वीडियो के सहारे संरक्षित किया है। गजब की कलाकारी। 17 मार्च 1930 को शुरु करके 102 मंजिल की इमारत साढे तेरह महीने 1 मई 1931 को बनकर तैयार हो गयी। मतलब हर महीने लगभग साढे सात मंजिल।
एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग की निर्माण प्रक्रिया देखते हुये हमें अपने यहां का सीओडी ओवरब्रिज याद आया जो बेचारा 14 साल से भी अधिक हुये अपने पूरे होने की राह ताक रहा है। यह भी अपनी तरह का एक रिकार्ड ही है।
इमारत के निर्माण की प्रक्रिया के वीडियो और फ़ोटो देखकर ताज्जुब भी हुआ। साथ ही ’ कोई काम नहीं है जब मुश्किल , जब किया इरादा पक्का’ वाला भाव भी फ़िर महसूस हुआ। एक वीडियो में दिखाया कि इमारत की रिबेटिंग करते समय कैसे गर्म रिबेट उछालकर बाल्टी जैसे कन्टेनर में फ़ेंक कर पकड़ाये जा रहे हैं।



इमारत के निर्माण में लगभग 3500 कामगार रोज काम पर लगते थे। इनमें से अधिकतर आयलैंड और इटली से आये प्रवासी मजदूर थे। काम का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इमारत के निर्माण में लगभग 200 ट्रक निर्माण सामग्री रोज लगती थी। इमारत में लोहे का काम करने वालों के लिये न्यूयार्क टाइम्स मैगजीन ने लिखा – ’मजदूर लोहे का जाल बुनने वाले मकड़ी की तरह इमारत बना रहे थे।’
इमारत के किस्से बयान करते हुए उसके निर्माण में जिनका योगदान रहा उनके किस्से तफ़सील से बयान किये गए थे। कामगारों की मूर्तियां भी बनी थीं जिनके बगल में बैठकर हमने फोटोबाजी भी की।
वहीं मौजूद म्यूजियम के बगल में बीहड़ वीडियो भी थे। उनसे भयंकर आकृतियां बन रहीं थीं जिनके साथ लोग फोटो खिंचा रहे थे। हमने भी खींचे।

सबसे ऊपर 102 वीं मंजिल पर पहुंचते हुये रात हो गयी थी। चारो तरफ़ अंधेरा हो गया था। आसपास की इमारतें रोशनी में चमक रहीं थीं। तेज हवा चल रही थी। पानी बरसने लगा था। लगा कि न्यूयार्क हमको एम्पायर इस्टेट बिल्डिंग पर पाकर भावुक हो गया हो।
बाहर निकलते हुए इमारत के जिस हिस्से से निकले वहां तमाम यादगार के लिए मॉडल मिल रहे थे। लेकिन उनकी कीमत देखकर हम बिना उनकी तरफ देखे बाहर निकल आये। हमारे होश ने अब जोश पर कब्जा कर लिया था।
लौटते हुये रात हो गयी थी। बारिश में भीगते हुये , भागते हुये स्टेशन पहुंचे। वापसी का टिकट सुबह ही ले लिया था। थोड़ी देर बाद ही ट्रेन भी आ गयी।
ट्रेन पकड़कर घर आ गये। स्टेशन पर सौरभ आ गये थे हमको लेने के लिये। न्यूयार्क की तरह न्यूजर्सी भी ठंडा रहा था। घर पर गर्मागर्म चाय हमारा इंतजार कर रही थी। यह हमारा अमेरिका में तीसरा दिन था।

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Saturday, November 23, 2019

टाइम्स स्क्वायर -दुनिया की सबसे भीड़ भरी जगह

 



अमेरिका पहुंचकर पहले दिन तो आराम किया गया। 'जेट लैग'की इज्जत भी करनी थी न । दूसरे दिन स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी देखने गए। फिर तीसरे दिन न्यूयार्क पर धावा बोला गया।
न्यूजर्सी से न्यूयार्क ट्रेन से गये। ' न्यू ब्रानस्विक स्टेशन' घर से करीब 10 मिनट की दूरी पर है। हमारे दामाद सौरभ Saurabh रोज स्टेशन छोड़ देते। हालांकि छूट्टी उन्होंने अपने बच्चे की देखभाल के लिए ली थी। लेकिन हमारे वहां पहुंच जाने पर हमारी भी देखभाल उनके जिम्मे आ गयी।
ट्रेन में टीटी हमारा टिकट लेने के बाद उसको अपने पास धर लेते थे। टिकट के बाद वो अपने यहां रोडवेज बसों में मिलने वाली चौकोर लम्बी टिकट जैसी पर्ची पंच करके हमारी सीट पर फंसा देते। कुछ देर बाद वह पर्ची भी अपने साथ ले जाते। हमको बार-बार लगता कि हमारी टिकट भी इनके पास, उनकी लगाई पर्ची भी उनके पास। अगर कहीं कोई पूछता तो हमारे पास तो टिकट का कोई सबूत नहीं । कोई बेटिकट साबित करके जुर्माना ठोंक देता। बड़ी बेइज्जती ख़राब होती परदेश में।
मामला कुछ समझ में नहीं आया। न हम टीटी से पूछ ही पाए। लेकिन हम टिकट खरीदने की रसीद अपने साथ रखे रहते। कोई पूछेगा तो दिखा देंगे। लेकिन किसी ने पूछा नहीं।
घण्टे भर बाद न्यूयार्क स्टेशन आ गया। न्यूयार्क पेन स्टेशन।
न्यूयार्क शहर बारे में हमने किताबों में पढ़ा था, ऊंची इमारतों वाला शहर, कभी न सोने वाला शहर, वैभव सम्पन्नता और चकाचौंध के लिए विख्यात शहर। मारियो पूजा के उपन्यास ’गाडफ़ादर’ में अमेरिकी जीवन के अपराध के किस्से भी न्यूयार्क के इलाके के हैं। मैनहट्टन इलाके में दुनिया भर की कम्पनियों के ऑफिस हैं। अमेरिकी किताबों-फिल्मों के अनगिनत किस्सों की गवाह हैं न्यूयार्क की गलियां। उसी न्यूयार्क को पास से देखने पहुँचे हम।
न्यूयार्क एवेन्यू और स्ट्रीट में बंटा हुआ शहर है। किसी एक्सेल शीट के कालम और रो की तरह यहां की गलियां और एवेन्यू क्रम से पूरे शहर को तरतीब से रखे हैं। सब कुछ बढ़ते , घटते क्रम में। यह नहीं कि सत्तावनवी गली के बगल में इकसठवी गली अपना डेरा डाल ले। सब कुछ तरतीब से।
स्टेशन से निकल कर सड़क का ट्रैफिक देखा। कार, बस की भीड़ थी सड़क पर। किनारे साइकिल सवारों की लेन। साइकिलें धड़ल्ले से चल रही थीं। जगह-जगह किराये की साइकिल भी खड़ीं थीं फुटपाथ में। सिटी बाइक की। जहां से मन आये उठा लो। इसके बाद जहां मन आये धर दो। हमारा भी मन हुआ कि चलाएं साइकिल हम भी। लेकिन रजिस्ट्रेशन के झमेले के चलते चलाये नहीं । अलबत्ता एक जगह साइकिल पर खड़े होकर फोटो जरूर खिंचा लिए।
सड़क पर पैदल चलने वालों की बड़ी इज्जत दिखी। पैदल यात्रियों के सड़क पार करते समय गाड़ियां रुकी रहतीं। पैदल यात्रियों के भी पार करने के सिग्नल बने होते हैं। यह नहीं कि जब मन आये सड़क पार कर लो। एक और बात यह कि पैदल यात्री सड़क की शुरुआत में बने पैदल पार पथ से ही सड़क पार करते। यह नहीं कि जहां मन आया सड़क को फलांग गए।
वहीं सड़क पार न्यूयार्क टाइम्स अखबार का दफ्तर दिखा। मन किया जाएं अखबार के सम्पादक से मिलें । कहे कि भारत का पेज देखने वाले संवाददाता से कहें कि भाई हमारा इंटरव्यू ले लेव। छाप देव, वायरल हुई जइहै। बात होती तो हम भी पूछते कि तुम्हारे यहां मजीठिया आयोग की सिफारिशें लागू है कि तुम लोग भी भारतीय पत्रकारों की तरह लिखकर दे दिए हो -'हमको नहीं चाहिए मजीठिया आयोग।'
लेकिन यह सोचकर कि दिन बीत जाएगा इस बवाल में हम न्यूयार्क टाइम्स के सामने सड़क पार से ही फोटो खिंचाकर आगे बढ़ गए। हमारा अगला पड़ाव था टाइम्स स्क्वायर !
टाइम्स स्क्वायर दुनिया के सबसे भीड़ वाले इलाकों में गिना जाता है। लगभग 3.5 लाख रोज यहां से गुजरते हैं। मतलब 13 करोड़ लोग साल भर में ! मतलब पांच आस्ट्रेलिया साल भर में न्यूयार्क स्क्वायर से टहल जाते हैं।
पहले टाइम्स स्क्वायर का नाम Longacre Square था। 1904 में न्यूयार्क टाइम्स के इमारत इधर बनी तो इसका नाम भी टाइम्स स्क्वायर पड़ गया। क्रासवर्ड आफ़ द वर्ल्ड, हार्ट आफ़ द वर्ल्ड , सेंटर आफ़ युनिवर्स जैसे नामों से मशहूर टाइम्स स्क्वायर नाम से मशहूर टाइम्स स्क्वायर दुनिया की तमाम चहल-पहल भरी गतिविधियों और घटनाओं का केन्द्र है।
जब हम पहुंचे टाइम्स स्क्वायर तो वहां लोगों की भीड़ जमा थी। फ़ुटपाथ पर बनी सीढियों बैठकर, लेटकर फ़ोटो खिंचा रहे थे। सेल्फ़िया रहे थे। Father Duffy Square के आसपास भी फ़ोटोबाजी हो रही थी। लोग दूसरों की फ़ोटो खींचने में सहयोग कर रहे थे। थैंक्यू वेरी मच, हैव अ नाइस डे की बौछार हो रही थी।
चारों तरफ़ मकान-मकान भर ऊंचाई के इलेक्ट्रानिक विज्ञापन चल रहे थे। सारा इलाका रोशनी से गुलजार। हम तो इत्ती रोशनी देखकर हक्का-बक्का सा होने को हुये लेकिन फ़िर आंख मूंदकर संभाल लिये खुद को।
वहीं कुछ लोग तालियां बजाते हुये डांस कर रहे थे। उनको देखते हुये हमने वीडियो बनाया। डांस खत्म होने के बाद एक लड़के ने जिमनास्ट की फ़ुथपाथ पर कलाबाजी खाते हुये डांस किया। एक के बाद दूसरे हाथ पर पूरे शरीर को टिकाते हुये डांस किया। डांस खत्म होने पर देर तक तालियां बजती रहीं।
डांस खत्म होने के बाद अपन ने मोबाइल कैमरा दूसरी तरफ़ घुमाया। कैमरे की जद में सड़क पर मार्च करती हुयी कुछ लड़कियां थीं। भयंकर सर्दी में जबकि हम जैकेट में भी ठिठुर रहे थे, वे लड़कियां केवल रंगबिरंगी शर्ट और चड्ढी पहने टहल रहीं थीं। उनके हाथ में कोई तख्ती भी थीं। जुलूस जैसा निकाल रहीं थीं वे। कुछ ही देर में उनका जुलूस आगे बढ गया। हम लोग ’टाइम्स स्क्वायर’ के बाकी हिस्से देखते रहे। फ़ोटो खींचते रहे। वीडियो बनाते रहे।
काफ़ी देर तक हमने जी भरकर जितना देख सकते थे उतना टाइम्स स्क्वायर देखा। इसके बाद बचा हुआ ’टाइम्स स्क्वायर’ बाकी लोगों के देखने के लिये छोड़ कर आगे बढ गये।
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Thursday, November 21, 2019

कैलीफ़ोर्निया के समुद्र तट पर



वैसे तो सैनफ़्रांसिस्को समुद्र किनारे बसा है। लेकिन यहां समुद्र किनारे सामान्यतया व्यापारिक गतिविधियों के केन्द्र हैं। कल कैलीफ़ोर्निया के समुद्र तट के नजारे देखने निकले। मोंट्रे Monterey बीच गये टहलने। रहने की जगह से 120 मील लगभग। 120 मील मतलब 60 कोस मतलब लगभग 190 किमी। कानपुर से इलाहाबाद की दूरी धर लीजिये।

निकलते-निकलते दोपहर हो गयी।
शहर से निकलते हुये एक सड़क दिखी। बीच का हिस्सा लाल। पता चला कि सड़क के यह हिस्सा केवल बस के लिये है। दूसरी गाड़ी चली तो जुर्माना !
बहरहाल वह सड़क सामने थी। हमको उस पर जाना नहीं था। हम दायें मुड़कर चल दिये। दूरी बताई 2 घंटा 21 मिनट लगभग। गूगल मैप के सहारे आगे बढे।
अमेरिका में रास्ते केवल गूगल मैप और नेट के सहारे ही तय किये जाते हैं। शहर में भी अगर नेट न हो तो लोगों के लिये चलना मोहाल हो जाये। कोई बताने वाला नहीं। अपने यहां की तरह नहीं कि एक से पूछो तो पांच लोग रास्ता बताने के लिये मौजूद। कभी-कभी पांच में पांचों लोग अलग रास्ता बताते हैं। आपकी मर्जी किसकी सलाह मानकर आगे बढते हैं। विविधताओं का देश है भाई अपना। फ़िर एक जगह का एक रास्ता कैसे हो सकता है।
शहर के बाहर निकलते ही अमेरिकी देहात का महासागर शुरु हो गया। लेकिन रागदरबारी की तरह यहां कोई ट्रक सड़क पर खड़ा नहीं मिला। सड़क पर गाड़ियां खड़ी होने पर चालान हो जाते होंने शायद यहां ! एक जगह सड़क बन रही थी। पूरा अमला खड़ा था। सड़क रिपेयर के लिये बन्द थी।
एक जगह गाड़ी में पेट्रोल भरवाया। पेट्रोल पम्प पर कोई इन्सान नहीं था। क्रेडिट कार्ड फ़ंसाओ। नोजल गाड़ी में धरो और भर लो जितना भरना हो पेट्रोल। हमने भरवाया। 10.744 गैलन के 42.75 डालर। मतलब 40.67 लीटर के 3078 रुपये। मतलब लगभग 76 रुपये लीटर ! कहने का मतलब भारत में पेट्रोल के दाम के लगभग बराबर !
पेट्रोल पम्प पर रेस्ट रूम भी था। एकदम चकाचक। न कहीं कोई गन्दगी न कोई लफ़ड़ा। यह बात यहां हमने हर जगह देखी। शहर से 200 किलोमीटर दूर समुद्र किनारे सूनसान में भी बने रेस्ट रूम का फ़्लस और ड्रायर चालू हालत में दिखे। सफ़ाई का जज्बा यहां लोगों की आदत में शामिल है।
सड़क किनारे दोनों ओर बड़े-बड़े खेत। सैंकडों मीटर तक एक ही खेत । एक ही फ़सल। जगह जगह स्प्रिंकलर से सिंचाई होती दिखी। कुछ साझे के घर दिखे, गांव सरीखे। लेकिन वहां कोई बैलगाड़ी नहीं दिखी न कोई गाय-बैल। सब जगह लाइन से कारें खड़ी थीं।
मोंट्रे पहुंचकर पार्किंग में गाड़ी खड़ी की। सामने ही दो युवा किसी वाद्ययंत्र को बजाते हुये गाना गा रहे थे। हमने उनका फ़ोटो लिया। बच्चे ने टोंका कि ऐसे बिना कुछ दिये फ़ोटो लेना अनइथिकल है।
अच्छे खाते-पीते घर के बच्चे पैसे के लिये गाना गा रहे हैं यह मेरे घ्यान में ही नहीं आय। लेकिन बाद में देखा उनके पास कुछ डालर जमीन में धरे थे। हमने भी एक डालर दिया और कुछ देर उनसे बतियाये। उनका वीडियो भी बनाया पूछकर। उनमें से एक का कहना था कि वे गाना अपनी खुशी के लिये गाते हैं।
बच्चे जहां गाना गा रहे थे वहां एक स्मारक बना है। कुछ लोगों की मूर्तियां हैं। पता चला कि ये मूर्तियां उन लोगों की हैं जिन लोगों के चलते यह जगह प्रसिद्ध हुई। सबसे ऊपर जान स्टेनबेक (John Steinbeck) की मूर्ति है।
जानस्टेनबेक प्रसिद्द अमेरिका लेखक थे। उनको 1962 में साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला। 1945 में लिखे हास्य उपन्यास Cannery Row से यह जगह लोगों के बीच प्रसिद्द हुई। यह अलग बात कि स्मारक का उद्घाटन 2014 में हुआ जबकि स्टेनबेक 1968 में ही इस दुनिया से विदा हो गये।
शायद लेखकों के स्मारक हर जगह एक ही गति से बनते हैं।
अन्य लोगों ने भी इस जगह को अपने तरह से मशहूर किया। इन लोगों के अलवा कुछ समुद्री जीवों की मूर्तियां भी थीं। एक मेढक भी दिखा कोने में बैठा हुआ। क्या पता मेढकों की दुनिया में वह किस तरह प्रसिद्ध हुआ हो। शायद उनकी दुनिया में भी कोई नोबल इनाम बंटता हो। अलग तरह से टर्राने पर अलग इनाम मिलता हो।
कुछ देर फ़ोटोबाजी के बाद अपन वहीं एक भारतीय रेस्टोरेंट में खाना खाया। पनीर, रोटी, पराठा। एकदम हिन्दुस्तानी स्वाद। रेस्टारेंट के काउंटर पर बोतले अलग अंदाज में टंगी थीं। बस खुलने को आतुर। यहां के रेस्टोरेंट्स में हमने कहीं भी नाबालिक उम्र के बच्चे को काम करते नहीं देखा। बहुत कड़क कानून हैं इस मामले में यहां।
खाने के बाद अपन 17 वी मील की ड्राइव पर निकले। समुद्र किनारे चलती सड़क पर कई दर्शनीय स्थल हैं। हर स्थल पर उसके बारे में विवरण। संक्षिप्त इतिहास। हर जगह पर मुख्य सड़क से हटकर बनी सड़क पर पार्किंग स्थल। 17 वीं मील वाली सड़क का रास्ता पता करते समय नेट गोल हो गया। सड़क भूलभुलैया हो गयी। कुछ देर वहीं भटकते रहे।
वहीं पर सड़क किनारे हिरन टहलते दिखे। ताज्जुब हुआ कि आबादी के इतने नजदीक हिरन बेखौफ़ टहल रहे थे। मन किया हिरनों से ही रास्ता पूछ लें –’हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी’ कहते हुये। लेकिन पूछने से पहले ही नेट आ गया। हम सही रास्ते की तरफ़ चल दिये।
सबसे पहले एक बीच मिला। उसमें कैलीफ़ोर्निया के बीच के संरक्षण की बातें लिखीं थीं। फ़िर स्पेनिश बे बीच मिला। चट्टानों के बीच लहरें उछलती-कूदती किनारे तक आ रहीं थीं। किनारे छूकर लौट जा रही थीं। वर्ड रॉक में चट्टानों पर खूब सारी चिडियां चौपाल लगाये बैठी दिखीं। एक जगह सील बे दिखा जहां खूब सारी सील आरामफ़र्मा थीं। उनके आराम में खलल डाले बिना हम आगे बढ गये।
कुछ दूरी बाद साइप्रस के पेड़ दिखे। एक चट्टान पर एक अकेला साइप्रस का पेड़ दिखा।' लोन साइप्रस' के नाम से मशहूर इस पेड़ की उमर 250 साल है। ढाई सदी से यह पेड़ अकेला खड़ा है। दुनिया में न जाने कितनी घटनाओं के किस्से हवाओं ने इसको आकर सुनाये होंगे। सबको सुनकर यह पेड़ चुपचाप अकेला खड़ा है। पेड़ भी अपने बुजुर्ग को इज्जत की निगाह से देखते खड़े दिखे। पेड़ों में मार्गदर्शक मण्डल की व्यवस्था नहीं होती होगी।
वहीं बीच पर सैम मोर्स (1885-1969) के नाम एक समर्पण है जिन्होंने इस पेबल बीच को बनाने और बचाने में अपना योगदान दिया।
आगे एक भुतहा पेड़ था। उसको भी बड़ी इज्जत से नाम बताकर रखा गया। अपने यहां तो ऐसे भुतहे पेड़ हर गांव में होंगे लेकिन उनकी इज्जत नहीं होती !
विकसित देशों के समुद्र तट अपने किनारों पर दिगम्बर मुद्रा में धूप-स्नान करते लोगों के लिए ख्यात नाम हैं ।घण्टों समुद्र तट पर टहलते हुए ऐसे लोग कहीं नहीं दिखे । धूप की अनुपस्थिति और वीकेंड न होना शायद इसका कारण रहा हो।
इस बीच बरसात शुरू हो गयी। शाम भी हो गयी। हम वापस लौट लिए। हमारा अगला पड़ाव था संजीव अग्रवाल Sanjeev Agrawal का घर। हमारे कालेज के साथी संजीव से 9 साल बाद मुलाकात हो रही थी। अपनी ब्रांच इलेक्ट्रिकल के टॉपर रहे संजीव ने अपनी 34 पहले की शराफत और शैतानी बरकरार रखी है अपनी कातिल मुस्कान सहित।
संजीव के घर में ही गुलाबी शहर के बाशिंदे बिंदास देवेश गोयल Devesh Goyal और उनके परिवार से मुलाकात हुई। साथ मुकेश गर्ग Mukesh Garg से भी। मुकेश दौड़धूप और यात्राप्रेमी हैं। उनके फेसबुक पेज पर हाफ मैराथन की फोटो है। मानसरोवर यात्रा भी कर चुके हैं।
बतकही और खाते-पीते कब देर रात हो गयी पता ही नहीं चला। तमाम यादें दोहराई गयीं। बाल-बच्चों के बारे में जानकारियां साझा हुईं। चलते समय शानदार खाने के लिए भाभी जी को कई बार धन्यवाद देते हुए हम विदा हुए। परदेश में यह एक शानदार यादगार मुलाकात रही।

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Wednesday, November 20, 2019

शहर अभी सोया हुआ है


सुबह के छह बजने वाले हैं। पूरा सैनफ्रांसिस्को नींद के आगोश में लेटा हुआ है। मन करता है शहर को वंशीधर शुक्ल की कविता सुनाकर जगा दें:
उठ जाग मुसाफ़िर भोर भई
अब रैन कहाँ जो सोवत है।
लेकिन कविता अवधी में है। शहर अवधी समझता नहीं है। उसके लिए अंग्रेजी में अनुवाद कराना होगा।
सड़क पर गाड़ियां पार्किंग लेन में खड़ी हैं। उठते ही भागने को तैयार।
उधर भारत मे रात होने वाली है। शाम के साढ़े सात बजे गए उधर। खैरियत कि तारीख दोनों जगह एक ही है।
इत्ती सुबह पूरा शहर सोया कैसे है यार ! कानपुर में तो इस समय पूरा शहर अंगड़ाई लेकर उठ खड़ा होता है। चाय की दुकान पर लोग बतकही शुरू कर देते हैं। अखबार कई हिस्सों में बंट कर पढ़े जाने लगते हैं। सुलभ शौचालय गुलजार होने लगते हैं। मन करता है निकलकर पूछें किसी से सड़क पर।
लेकिन पूछें किससे? कोई तो सड़क पर आता-जाता दिखता नहीं। सड़क भी सब कुछ बेंच कर सोई हुई है।
चलते हैं अब चाय बनाने। आप भी पियोगे? बनाये आप के लिए भी ?

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Tuesday, November 19, 2019

यहां सब कुछ एटटोमैटिक है


कल टहलते हुए शाम हो गयी। मन किया कुछ चाय-काफी हो जाय। मन करते ही एक काफी की दुकान दिख गयी। दुकान नहीं गुमटी। रोबोट गुमटी। न बैठने को बेंच न पढ़ने को फटा हुआ अखबार। काफी बनाने और सर्व करने वाला भी रोबोट था।

रोबोट था तो बोल भी नहीं सकते कि भइया जरा कड़क काफी बनाना। दूध थोड़ा कम , पत्ती ज्यादा। उसको तो तय तरीके के ऑर्डर ही समझ आते हैं। दाएं-बाएं कुछ नहीं। चाय की दुकानों के स्थाई ग्राहक और दुकानदार के बीच तो उनकी अपनी भाषा और संकेत चलते हैं। ग्राहक गया और ऊँगली दिखाकर आर्डर उछाल दिया। चाय वाला भी ग्राहक के हिसाब से मूड के हिसाब से बतियाते हुए पूछ भी लेता-'क्या बात है कुछ उखड़े-उखड़े लग रहे हो?'
काफी आर्डर करते ही रोबोट हवा में डांस सा करने लगा। अपनी बाहें उठाकर भांगड़ा सा करता हुआ। क्या पता उसके मन में कैसेट बज रहा हो -'ये देश है वीर जवानों का , अलबेलों का मस्तानों का।'
डांस करते हुए रोबॉट इधर-उधर घूमता रहा। हर बार मुड़ते हुए बांहे ऊपर करता। मानों यो-यो कर रहा हो। काफी देर हो गई। रोबोट इधर-उधर घुमते हुए डांस ही करता रहा। काफी का कहीं अता-पता नहीं। सच कहूँ कि वह मुझे लोकतंत्र के किसी झांसेबाज नेता सा ही लगा। जो कोई वादा करके भूल गया और खुशी के मारे नाच रहा हो।
कुछ देर बाद लगा कि यह काफी ला क्यों नहीं रहा। रोबोट है कोई आदमी थोड़ी जो पैसे मार जाए। देखा तो पता चला कि जो टोकन नम्बर आया वह भरना था। भरते ही काफी सर्व कर दी। पीते हुए टहलने लगे हम।
रोबोट काफी की दुकान से आगे बढ़ते हुए यही सोचते रहे कि यहां सब कुछ एटटोमैटिक है। इंसान लगातार अनुपस्थित होता जा रहा है। आम चाय वाला तो किसी को मुफ्त में भी चाय भी पिला सकता है। पंकज बाजपेयी को उनके मोहहले के चाय वाले पिलाते ही हैं। इन रोबोट में भी जुगाड़ हो जाएगा कि गरीब लोगों को मुफ्त चाय पिलाएं।लेकिन और न जाने कितने लफड़े हैं जिनका हिसाब होना है अभी।
सबसे बड़ी बात तो यह कि अभी नाबालिग बच्चों के दुकानों पर काम करने की मनाही है। लेकिन रोबोट बेचारा पैदा होते ही दुकान पर काफी बेंचने लगा। न स्कूल का मुंह देखा, न खेल के मैदान गया। किसी गरीब के बच्चे सा पैदा होते ही दुकान में बैठ गया। क्या पता आने वाले समय में रोबोट संगठित हों। अपने लिए अधिकार मांगे। न्यूनतम शिक्षा, न्यूनतम सुविधा का। अभी तो वो अल्पसंख्यक हैं। और आज की दुनिया में बहुसंख्यक लोग सारे तर्क और उदारता बिसराकर कम संख्यक लोगों की ऐसी-तैसी करने पर जुटे हैं। आशा है कि रोबॉट बहुतायत में होने के बदले की भावना से काम करने की बजाय उदारता से आदमियों का ख्याल रखेंगे।
रोबॉट आदमी की सुविधा के लिए बनाए गए। लेकिन वो आदमी को ही ठिकाने लगा रहे हैं। उनकी नौकरियां खा रहे हैं। उनका मुकाबला करने को आदमी उनसे बड़ा रोबोट बनता जा रहा हैं।हंसना-मुस्कराना-बोलना-बतियाना भूलता जा रहा है।
इतने दिन हमने यहां किसी को जोर से बोलते नहीं सुना, हल्ला मचाते नहीं देखा। लोग थैंक्यू-वेलकम के अलावा इतना आहिस्ते बोलते हैं जैसे डरते हों कि जोर से बोलने पर एफबीआई जांच न हो जाये। दुनिया भर में हल्ला मचाने वाले देश के नागरिक ध्वनि प्रदूषण को लेकर बहुत संजीदा हैं।
अमल ने बताया कि उसके एक दोस्त के पार्टी में ताली बजाने की आवाज को भी लोगों ने ध्वनि प्रदूषण मानकर ताली बजाने से परहेज किया। ताली न बजाकर हाथ के पंजे हवा में हिलाकर ताली बजाई।
कुछ खरीदने के लिए माल गए। वहां भी आदमी नदारत। खुद सामान उठाओ, बिल बनाओ, कार्ड हिलाओ, भुगतान करो, सामान लेकर निकल आओ।
ऐसे एटटोमैटिक होते समाज में आदमी दिखना सुकून का हिसाब है। कल यहां दो रिक्शेवाले दिखे। वो शायद सवारी के इंतजार में थे। कनपुरिया रिक्शे वालों की तर्ज ओर बीड़ी पीते नहीं दिखे। न ही गुटखा खाते। न ही रिक्शे को चारपाई बनाकर सोते दिखे। तने बैठे थे रिक्शे पर। मुस्तैद-चुस्टैद। मन किया कि पूछें -'घण्टाघर चलोगे?' लेकिन दूरी की बात सोचकर फिर पूछे नहीं।
उबर करके घर आ गए। उबर भी तो एटटोमैटिक है।

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Monday, November 18, 2019

दुनिया की सबसे धूर्त सड़क पर




सैन्फ़्रान्सिस्को पहाड़ पर बसा शहर है। कुछ सड़कें ऐसी मानों किसी पहाड़ी की चढाई-उतराई उठा के धर दी गयी हो। कट-पेस्ट करके। किसी घिसी हुई क्लच वाली कार तो कहो सड़क चढ ही न पाये। हमारी सैंट्रो सुंदरी तो चढ़ने के पहले ही मना कर दे -'हम न चढ़ब।'

वीएफ़जे में ट्रकों की जांच के लिये टेस्ट ट्रैक याद आ गयी। वहां टेस्ट ट्रैक में खड़ी चढाइयां हैं यह जांचने के लिये कि गाड़ी चढाई-उतराई में कैसे काम करेगी ! सैनफ़्रांसिस्को की सड़कें देखकर लगा कि जगह-जगह टेस्ट ट्रैक बनाये गये हों।
सड़कें आम तौर पर चौड़ी हैं। चौड़ी सड़कों वाले शहर में एक बहुत संकरी सड़क भी है। वन वे मतलब एकतरफ़ा। पहाड़ी नदी की तरह बलखाती यह सड़क अपने मोड़ों के चलते बदनाम है। सड़क का नाम है Lombard Crooked Street . अमेरिका की इस धूर्त सड़क को देखने लाखों लोग आते हैं। यह दुनिया की सबसे टेढी-मेढी सड़क मानी जाती है।
मानी जाने की बात अलग लेकिन सैनफ़्रान्सिस्को में ही लोम्बार्ड गली से भी अधिक टेड़ी -मेढी गलियां हैं। लेकिन एक बार बदनाम हुये तो हो गये। यह् ऐसे ही हुआ कि अरबों-खरबों के घपलों के बीच भी चन्द लाखों की ढगी करने वाले नटवरलाल जैसे लोग ज्यादा बदनाम हों।
सड़क के दोनों तरफ़ मकान हैं। मोड़ों पर रंग-बिरंगे फ़ूल हैं। सड़क के किनारे पैदल चलने की सीढियां हैं। सात-आठ मोड़ हैं। इनमें गाड़ियां केवल ऊपर से नीचे ही चलती हैं। एक समय में केवल एक ही गाड़ी गुजर सकती है।
इस संकरी सड़क को देखकर युसुफ़ी साहब की तंग गलियों वाली यह बात याद आ गयी:“उस शहर की गलियां इतनी तंग थीं कि अगर मुख्तलिफ़ जिंस (विपरीत लिंगी) आमने-सामने से आ जायें तो निकाह के अलावा कोई गुंजाइश नहीं रहती।“
अब चूंकि गाड़ियों के निकाह नहीं होते इसलिये गाड़ियां एक-दूसरे के पीछे अकेली उतरतीं रहीं।
सड़क की कुल लम्बाई एक किलोमीटर से भी कम होगी। लेकिन हल्ला इतना कि पूछो नहीं। बनारस की गलियां कम टेढी-मेढी थोड़ी हैं। अगले मोड़ पर खड़ा आदमी नहीं दिखता। हमारे गांव के पास एक गांव का नाम ही सकरी है। वहां भी एक गाड़ी ही निकल सकती है एक समय में।
सड़क मोड़ देखते हुये महाराष्ट्र के घाट सेक्सन याद आ गये। वहां हर मोड़ पर लिखा रहता है- ’पुढे रास्ता वलणम आहे। वाहना हलू न !’ –आगे रास्ते टेढा है। वाहन धीरे चलाइये।
सड़क पर जगह-जगह सावधान रहने के सूचना पट्ट लगे थे- ’कृपया गाड़ियों में कोई बैग न छोंड़ें। यहां शीशे तोड़कर चोरियां होती हैं।’
पता चला कि यहां गाड़ियों के शीशे तोड़कर चोरियां बहुत होती हैं। सावधानी हटी-दुर्घटना घड़ी। यह समस्या इतनी आम है कि पुलिस भी रिपोर्ट लिखकर छोड़ देती है। इससे ज्यादा कुछ नहीं कर पाती। गाड़ियों से चोरी की समस्या का कारण आर्थिक असमानता ही है। कुछ लोग इतने विपन्न हैं कि जो मिला वही लेकर भाग जाते हैं।
रास्ते में एक इमारत में मरम्मत का काम हो रहा था। इमारत के चारो तरफ़ काम करने वालों की सुरक्षा के लिये लकड़ी के पटरे लगे थे। यह तो अपने यहां भी होता है तमाम जगह। लेकिन एक और बात यहां दिखी कि मरम्मत की जा रही इमारत को चारों तरफ़ से कपड़े से ढंककर रखा गया था ताकि मरम्मत की धूल रास्ते में न उड़े।
धूर्त सड़क देखकर फ़िर सैन होजे गये। वहां अमल-अरणिमा हैं। Amal Chaturvedi-Arnima Chaturvediअमल हमारे वरिष्ठ साथी रहे चतुर्वेदी जी के पुत्र हैं। जबलपुर से पढने के बाद अमेरिका आये। यहां एमएस किया और पीएचडी करने के बाद एक कम्पनी में रिसर्च कर रहे हैं। रिसर्च कैंसर की रोकथाम से सम्बन्धित है। खोज इस बात की हो रही है कि इन्सान के डीएनए से भविष्य में होने वाले कैंसर की सम्भावनायें यदि हों तो पता चल सके और उनका इलाज हो सके। अमल की पत्नी अरणिमा भी जबलपुर में पढी हैं। एनटीपीसी की नौकरी छोड़कर अब यहां से मास्टर्स करने की योजना बना रही हैं।
अमल के घर के आसपास तमाम खूबसूरत इमारतें हैं। बगल में कुछ दूर पर सैंमसंग की भव्य इमारत है। लेकिन वहां कोई इंसान दिखा नहीं। पता चला कि अभी वहां आफ़िस शुरु नहीं हुआ है। सुरक्षा के लिये एक रोबोट टहलता दिख जाता है कभी-कभी।
भव्य इमारतों के बीच में एक बहुत बड़ा फ़ार्म हाउस है। फ़ार्म हाउस में खूब बड़ा खाली मैदान है। पीछे संतरे का बगीचा है। पेड़ों में संतरे लगे हैं। कोई बाउंडरी नहीं। लेकिन कोई भी संतरों को तोड़कर भागता नहीं दिखा। अमल ने बताया कि इस तरह के बगीचों के पास के पास जाना भी खतरनाक है। वो गोली मार सकता है। प्राइवेट संपत्ति में अतिक्रमण रोकने पर इस तरह की बात आम है।
यहां गोली मारने की घटनायें वैसे भी अक्सर होती रहती हैं। स्कूलों में बच्चे अपने साथियों को गोली मार देते हैं। शहरों में भी कोई पगला जाता है। यहां के मूल निवासियों को बाहर से आये लोगों के प्रति गुस्सा भी है इस बात का कि ये लोग उनकी नौकरियां खा जा रहे हैं। बड़ी कम्पनियों के लोग इसीलिये अपने परिचय पत्रों में कम्पनी का नाम नहीं लगाते। अपनी पहचान छुपाते हैं ताकि उनको खतरा न हो।
बगीचे के बीच बने एक घर में ऊपर अपने यहां के पुराने जमाने के टेलिविजन के एंटीना की तरह का कोई एंटीना लगा था। क्या पता इनके यहां भी टेलिविजन कार्यक्रम देखते हुये एंटीना हिलाकर पूछता हो –’अब आया कि नहीं? ’ अन्दर से आवाज आती हो-’थोड़ा-थोड़ा आ रहा है। हां, हां अब आ गया। यहीं छोड़ दो।’
जिस रेस्टोरेंट ( करी अप नाउ )में हम लोगों ने खाना खाया वहां भारतीय खाना मिलता है। घुसते ही दीवार पर नशे की लत से बचाने की मंशा का कोलाज बना है। ’आफ़्टर व्हिस्की , ड्राइविंग रिस्की’ जैसे नारों के साथ बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है- ’मैं तुम्हारे बच्चे की मां बनने वाली हूं।’ मतलब गाड़ी संभल के चलाओ।
हाइवे से लौटते हुये सबसे पहली लेन में डायमंड के आकार के निशान सड़क पर बने दिखे। अमेरिका और कनाडा में इस तरह की सड़कें खास तरह की सवारियों के लिये सुरक्षित होती हैं। खास तरह की गाड़ियां साइकिल, मोटरसाइकिल इलेक्ट्रिक गाड़ी , बस , बग्घी, आपात गाड़ियां (एम्बुलेंस आदि) जिनके चलने से या तो पर्यावरण प्रदूषण कम होता हो या फ़िर जो सुरक्षा की नजर से जरूरी हो। पर्यावरण के प्रदूषण के लिहाज से आमतौर पर दो या अधिक सवारियों वाली गाड़ियों के लिये सुरक्षित होती हैं ये सड़कें। ज्यादा लोग चलेंगे गाड़ी में तो प्रति व्यक्ति पर्यावरण कम होगा। कोई दूसरी गाड़ी चलने पर फ़ाइन ठुक जाता है यहां।
सड़कों पर यहां दूरियां मिनट में बताने का चलन है। सड़क किनारे एलसीडी सूचना पटों पर दूरियां मिनटों में दिखाई गयीं थीं। यह समय ट्रैफ़िक की औसत गति के हिसाब से होता है।
सैनफ़्रान्सिस्को लौटने तक शाम हो गयी थी। हम लोगों को समुद्र में टहलते क्रूज पर जाना था। समुद्र किनारे जाने के लिये गाड़ी खड़ी करना था। गाड़ियां यहां पर या तो सड़क किनारे पार्किंग की जगहों पर खड़ी की जाती हैं या फ़िर जगह-जगह बनी पार्किंग में। सड़क किनारे पार्किंग मुफ़्त है। लेकिन अक्सर पार्किंग की जगह मिलना मुश्किल होता है। सड़क किनारे की पार्किंग में भी ऐसी जगह पार्किंग नहीं कर सकते जहां आग बुझाने वाले पाइप लगे हैं, या जो किसी के लिये आरक्षित हैं। ऐसा करने पर जुर्माना हो सकता है।
सड़क पर पार्किंग की जगह मिली नहीं। एक पार्किंग स्टेशन पर खड़ी की गयी गाड़ी। 20 डालर ठुक गये। 20 डालर मतलब 1400 रुपये। पार्किंग के खर्चे पहले पता होते तो कानपुर से अपना एक गैरज उठाये लाते। सारा खर्च निकल आता।
समुद्र किनारे पहुंचकर पता चला कि क्रूज छह बजे चलेगा। ’ रेड एंड व्हाइट फ़्लीट’ कम्पनी का क्रूज था। इसकी स्थापना 1915 में हुई थी। एक सदी से अधिक के समय से यह अभी तक पारिवारिक व्यवसाय के रूप में ही चल रहा है।
क्रूज पर पहुंचने के कुछ देर बाद वह चल दिया। समुद्र में करीब डेढ घंट घूमते रहे। क्रूज से शहर की खूबसूरती, लाइटिंग, गोलडन गेट की खूबसूरती के अलावा और तमाम नजारे देखते रहे। काफ़ी और खाने का इन्तजाम भी वहीं था। डेक पर एक गायक गिटार बजाते हुये गाना गा रहा था। लोग समुद्र और आसपास की खूबसूरती निहारते हुये फ़ोटो खिंचा रहे थे। एक जोड़ा आपस में लगातार एक-दूसरे को चूमने में जुटा था। वहीं दूसरा जोड़ा यह काम किस्तों में कर रहा था।
हम लोगों ने जी भर कर समुद्र सौंदर्य निहारा। इसके बाद वीडियो काल करके अपने घर वालों और दोस्तों को लाइव इस खूबसूरती के दीदार कराये। डेढ घन्टे बाद उसने उतारकर क्रूज के फ़ोटोग्राफ़र ने हमको वह फ़ोटो दी जिसे उसने क्रूज पर चढते समय दी थी।
क्रूज से वापस आते हुये रात हो गयी थी। खाना-पीना पहले ही हो चुका था। दिन भर की घुमाई से थके थे ही। वापस आकर सो गये।

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