Wednesday, December 04, 2024

नदी के मुँह से निकलती भाप

 पिछले हफ़्ते शाहजहाँपुर गए। चार दिन रहे। मित्रों से मेल मुलाक़ात हुई। कुछ लोगों से मिलना रह गया। शहर में इधर-उधर आने जाने के दौरान देखा कि सड़क पर भीड़ बहुत बढ़ गयी है।  सड़कें तो उतनी ही चौड़ी जितनी पहले थीं लेकिन कारों और ई रिक्शों  की संख्या की बहुत बढ़ गयी है। छोटी ,पतली संकरी गलियों तक में लोग कार घुसाकर चलते दिखे। 

सड़क पर भीड़ के बावजूद कहीं किसी को उत्तेजित होते नहीं देखा। लोग तसल्ली से जाम हटने का इंतज़ार करते दिखे। एक दिन हम एक गली से निकल रहे थे। रास्ता पता नहीं था लेकिन शार्टकट के लालच और गूगल महाराज के निर्देशन के चलते एक गली में घुस गए। गली इतनी ही चौड़ी थी कि सिर्फ़ एक कार ही गुजर सकती थी। सामने से एक ठेलिया आ रही थी। ठेलिया वाले ने कार आते देखकर ठेलिया क़रीब पचास कदम पीछे खींची। कार को निकलने दिया। एक लड़के ने कार आते देखकर सड़क किनारे खड़ी अपनी  मोटरसाइकिल और किनारे की ताकि कार निकल सके। 

रामप्रसाद बिस्मिल , अशफ़ाक उल्ला खान और रोशन सिंह के बलिदान के चलते शाहजहाँपुर को शहीदों की धरती कहते हैं। वहाँ के लोगों के सड़क व्यवहार के चलते हमें लगा यह धैर्य की धरती भी है। 

शहर प्रवास के दौरान एक दिन खन्नौत नदी देखने गए। गेस्ट हाउस से थोड़ी ही दूर से गुजरती है नदी। सुबह निकले तो देखा सड़क पर टहलते लोग दिखे। मार्निग वाकर समूह के लोग शायद आकर लौट चुके थे। सुबह काम वाले लोगों को ठेकेदार का मुंशी जमा कर रहा था। फुटपाथ किनारे एक बढ़िया एक बुजुर्ग से बतिया रही थी। बतिया क्या रही थी बुजुर्ग से कुछ कह रही थी। बुजुर्ग चुपचाप उसको देखते हुए उसकी बातें सुन रहा था। 

कैंट के तिराहे से ज़रा सा आगे दायीं तरफ़ को नदी की तरफ़ का रास्ता है। रास्ते के दोनों तरफ़ खड़े पेड़ों की जड़ें ऐसे दिख दातों की तरह दिख रहीं थीं जिनके मसूढ़े खुल गए हों। पेड़ कभी भी गिरने के लिए तैयार दिखे। 

थोड़ा आगे चलने पर रास्ते में झाड़-झंखाड़ के चलते ऊपर आ गए। खेत-खेत होते हुए नदी की तरफ़ बढ़े। 

नदी के पास पहुँचकर एक मोटरसाइकिल दिखी। उसके पीछे एक लड़की और साथ में एक लड़का। उनके पास से गुजरने तक   लड़का मोटरसाइकिल स्टार्ट कर चुका था। लड़की उसके पीछे बैठकर चली गयी। सुबह-सुबह वे दोनों भी नदी देखने आए होंगे। 

नदी तसल्ली से बह रही थी। जाड़े के समय  मुँह से निकली हवा भाप की तरह लगती है। बहती नदी के मुँह से भी भाव निकल रही थी। निकली हुयी भाप इठलाती हुई खेतों की तरफ़ जा रही थी। थोड़ा आगे चलकर यह भाप कोहरे में बदल गयी थी। ऐसा लगा मानो कोहरे ने नदी के रास्ते में अवरोध लगा दिया हो ताकि उसको रास्ता न दिखे न और वह ठहर जाए। आगे न बढ़े। लेकिन नदी किसी रास्ते की मोहताज थोड़ी होती है। वह तो खुद अपना रास्ता बनाती है। वह धड़ल्ले से बहती रही। 

सामने देखा नदी का पानी तिरछा होकर बह रहा था। शायद उसको तिरछे होकर आगे बढ़ने में ज़्यादा सहूलियत लग रही हो। शतरंज के ऊँट की तरह तिरछा बहता पानी आगे बढ़ता जा रहा था। 

थोड़ी देर बहती नदी को देखने के बाद लौटने की सोची। इस बीच एक जानवर नदी में घुसता दिखा। लगा कोई मोटा कुत्ता होगा। थोड़ी देर में वह बग़ल से होकर आगे जाता दिखा और फिर नदी में घुस गया। पानी पीने लगा। हमें लगा कोई जंगली जावनर होगा। हम लौट लिए। 

लौटते समय देखा वह जानवर हमसे आगे निकलकर खेत में पड़ी किसी चीज़ को खा रहा था। वह हमारे रास्ते में था। हमको लगा वह कुछ खाने का बहाना करते हुए हमारा इंतज़ार कर रहा था। 

अभी तक निर्लिप्त भाव से उस जानवर को देखने के कारण हमको उससे कोई डर नहीं लगा। लेकिन अब हमारे रास्ते में होने के कारण हमारी निर्लिप्तता क्लीन बोल्ड हो गयी। उसकी डर और आशंका बैटिंग क्रीज़ पर आ गयीं। हमको लगा पास से गुजरते ही यह जानवर हम पर हमला करेगा। सम्भावित हमले से बचने के लिए अपने को तैयार करने लगे। खेत में पढ़े दो अद्धे हाथ में ले लिए। सोचा अगर हमला करेगा तो पहले इसे मारेंगे। डर कर भागेगा तो ठीक नहीं तो मोबाइल फेंककर मारेंगे। मोबाइल फेंककर मारने की सोचते हुए उसकी क़ीमत एक बारागी ध्यान में आई लेकिन मोबाइल उस समय मेरे हाथ में मौजूद एक अद्धे से ज़्यादा क़ीमत का नहीं लगा। 

यह भी सोचा कि अगर उस जानवर ने हमला किया तो फ़ौरन गेस्ट हाउस में सो रहे बेटे को फ़ोन करेंगे। लोकेशन भेजकर उसको बुला लेंगे। 

यह सब सोचते हुए हम बहुत आहिस्ते से आगे बढ़े। आगे कुछ झोपड़ियाँ दिखीं। हम सीधे न लौटकर झोपड़ियों की तरफ़ बढ़ते गए। उस जानवर से हमारी दूरी बढ़ती गयी। हमारा डर भी काम होते हुए और कम होता गया। 

झोपड़ियों के बाहर कुछ लड़कियाँ और बच्चे मौजूद थे। कुछ कुत्ते भी खेल रहे थे उनके आसपास।  हमको वहाँ से गुजरते देखकर उन्होंने हमारी तरफ़ देखा। हमने उनसे चलते-चलते बातचीत की। उन्होंने बताया कि वे न जाने कब से यहाँ रह रहे हैं। हमने उनसे बताया  -'यहाँ एक जानवर दिखा इसीलिए इधर से गुजर रहे हैं।'

फिर पूछा भी क़ि यहाँ जंगली जानवर अक्सर आते रहते हैं। तुम लोगों को डर नहीं लगता। 

'अरे हमारे इन कुत्तों के कारण उनको खुद डर लगता है। वो इधर नहीं आते' -एक बच्ची ने बताया। 

यह सुनकर हमारा रहा-बचा डर भी विदा हो गया। कुछ आगे ही सड़क भी दिखने लगी। हम सड़क पर आ गए। 

लौटते हुए स्कूल जाते बच्चे दिखे। दो बच्चियाँ साइकिल पर जाती आपस में बतियाती भी जा रही थीं। हमारे बग़ल से गुजरते हुए एक बच्ची के कुछ कहने पर दूसरी ने कहा -'ओक्खे।' 

हम उन सड़क पर गुजरते लोगों को , मैदान में खेलते बच्चों और आर्मीगेट पर ड्यूटी पर तैनात सिपाहियों को देखते हुए वापस गेस्ट हाउस लौट आए। 

Sunday, December 01, 2024

किनारे पे न चलो, किनारा टूट जाएगा


पिछले दिनों कानपुर का 150 साल पुराना गंगापुल टूट गया। इस पुल पर से कई बार गुजरे हैं। अनेक यादें जुड़ी हैं। पुल गिरने की खबर मिलने पर देखने गए पुल। शहर होते हुए घर से दूरी 15 किलोमीटर। गंगाबैराज की तरफ़ से जाते तो दूरी 23 किलोमीटर दिखा रहा था। समय लगभग बराबर। शहर होते हुए गए। जहां से पुल शुरू होता है वहीं पर गाड़ी सड़क किनारे ही खड़ी कर दी। रेती में पुल के नीचे -नीचे चलते हुए उस हिस्से की तरफ़ गए जो हिस्सा टूटा था। 

पुल का टूटा हुआ हिस्सा नदी के पानी में धराशायी सा लेटा  था। क्या पता वह गाना भी गा रहा हो -'कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले ये जगह साथियों।' पुल के आसपास पक्षी तेज आवाज़ में चहचहाते हुए शायद पुल के बारे में ही चर्चा कर रहे थे।

एक दूधिया अपने दूध के कनस्तर पानी में धोकर रेती में औंधाए रखकर गंगा स्नान कर रहा था। स्नान करके नदी से निकलते हुए एक बुजुर्ग को नदी किनारे निपटते देखकर भुनभुनाते हुए कहने लगा -' यह भी नही कि गंगाजी से ज़रा दूर होकर निपटें। एकदम किनारे ही गंदगी करने बैठ गए।'

उसके भुनभुनाने के अन्दाज़ से लग रहा था कि उसकी मंशा केवल खुद को और उसके बग़ल से गुजरते हमको सुनाने तक सीमित थी। थोड़ा ज़ोर से बोलता तो आवाज़ उस निपटते बुजुर्ग तक पहुँच जाती। लेकिन उसकी मंशा शायद भुनभनाने तक ही सीमित थी। बुजुर्ग उसकी भुनभुनाहट से निर्लिप्त निपटने में तल्लीन रहा।

बाद में उस बुजुर्ग के पास से गुजरते हुए लगा कि उसको बैठने में कुछ तकलीफ सी थी। बड़ी मुश्किल से  बैठे-बैठे सरकते हुए वह नदी की तरफ़ जाता दिख रहा था। उसकी तकलीफ़ का अन्दाज़ अगर दूध वाले को होता तो शायद वह कम भुनभुनाता। 

वहीं चार छोटे-छोटे बच्चे रेत पर खेल रहे थे। उनमें तीन बच्चे थे , एक बच्ची।  पास जाकर देखा तो वे रेत को नदी के पानी से गीला करके बालू के खिलौने बना रहे थे। 'कौन सा खिलौना बना रहे हो ?'  पूछने पर बच्चों ने बताया -'खाना पकाने के खिलौने बना रहे हैं।' शुरुआत चौके से हुयी। चौका बनाने के बाद उनमें से एक बच्चा थाली या परात जैसा कुछ बना रहा था।

बच्चों ने आपस में एक-दूसरे के बारे में बताया। बच्ची थोड़ा मुखर सी लगी। उसके बारे में एक बच्चे ने बताया -'ये गाली बकती है।' 'क्या गाली बकती है ? ' पूछने पर बच्चे ने बताया कि क्या-क्या गाली बकती है बच्ची। आम जन-जीवन में रोज़मर्रा की गालियाँ बताई बच्चे ने। बच्चों की बातचीत सुन सकते हैं यहाँ वीडियो में। 

बच्चों को खेलता छोड़कर हम आसपास थोड़ा टहले। लोग रेत में अपने-अपने हिसाब से ज़मीन घेरकर गर्मी के फल उगाने की तैयारी कर रहे। गोबर की खाद भी दिखी वहीं। हम एक घेरे में घुस गए यह सोचते हुए कि आगे निकलने का रास्ता होगा। लेकिन जगह इस तरह से घिरी हुई थी कि उसको पार करने का कोई जुगाड़ नहीं था। हमको वापस लौटना पड़ा।

लौटकर देखा तो बच्चे खिलौना बनाने के काम पूरा करके या स्थगित करके नदी में नहा रहे थे। हमारे पास पहुँचने तक वो बाहर निकल आए। हमने उनके फ़ोटो खींचने के लिए पूछा तो सब तैयार हो गए। पोज बनाकर भी खड़े हो गए। एक बच्चे ने उँगली से 'V' का निशान भी बनाया। उसको देखकर बच्ची ने  भी उँगली 'V' वाले अन्दाज़ में फैला ली। बच्ची ने पहले 'V' का निशान ऊपर की तरफ़ करके बनाया। बाद में  दोनों आखों को घेरते हुए 'V' का निशान बना लिया। 

फ़ोटो देखकर बच्चे खुश हो गए। एक ने उत्साहित होकर कहा -'अबे अब हमारे फ़ोटो वायरल हो जाएँगे। इंस्टाग्राम पर लगाएँगे अंकल।' सब बच्चों ने चहकते हुए  फिर से फ़ोटो देखे और दोबारा पोज देकर फ़ोटो खिंचवाए। वे खुश हो गए। मेरे मन हुआ कि काश ये फ़ोटो उन बच्चों को दे पाते। अब सोच रहे हैं कि बनवाएँगे फ़ोटो। कभी शुक्लागंज गए तो लेते जाएँगे। दे देंगे बच्चों को। 

बच्चों ने बताया कि उनमें से तीन बच्चे स्कूल जाते हैं। एक सबसे छोटा बच्चा स्कूल नहीं जाता। उसके बारे में बच्चों ने कहा -'ये स्कूल नहीं जाता , गाली बकता रहता है।' मुझे ताज्जुब हुआ कि पाँच-दस मिनट में ही गाली देने की शिकायत बच्ची से हटकर एक बच्चे की तरफ़ मुड़ गयी। 

बच्चों के नाम पूछे तो पता चला उनके नाम जैन खान, बिलाल खान , शाहबाज़ अली खान और आलिया खान हैं। सब एक ही परिवार के बच्चे हैं। सगे ,चचेरे  भाई-बहन। शाहबाज़ अली खान ने अपना नाम और लम्बा बताया था। लेकिन बाद में अपना नाम शाहबाज़ अली खान तक ही सीमित करने को राज़ी हो गया। बच्चे शुक्लागंज में गोताखोर मोहल्ले में रहते हैं। शायद उनके घर वाले नाव चलाने का काम करते हों। हो सकता है कोई गोताखोर भी हों। 

हमने बच्चों से पूछा -'कोई कविता या कोई शायरी आती है ? आती हो तो सुनाओ।'

बच्चों ने फ़ौरन एक शायरी सुनाई । 

किनारे  पे न चलो, किनारा टूट जाएगा ,

चोट तुम्हारे  लगेगी , दिल हमारा टूट जाएगा।

सबसे पहले शायरी  शाहबाज़ अली खान और आलिया ने सुनाई। फिर सभी ने बारी -बारी यही शायरी दोहराई। हड़बड़ी में शायरी के लफ़्ज़ इधर-उधर होते रहे। बच्चे एक-दूसरे को 'अरे चुप ' कहते हुए अपने अन्दाज़ में शायरी सुनाते रहे। 

बच्चों से हमने कोई और भी कविता या शायरी सुनाने को कहा तो उन्होंने कहा -'हमको यही आती है।' 

बच्चे आपस में खेलने में मशगूल हो गए। हम वापस लौट लिए। 

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