हम कल से अपराध बोध के शिकार हैं.अलका जी की कविता जहाज पर हमारी टिप्पणी के कारण पंकज भाई जैसा शरीफ इंसान चिट्ठा दर चिट्ठा टहल रहा है.कहीं माफी मांग रहा है.कहीं अपने कहे का मतलब समझा रहा है. हमें लगा काश यह धरती फट जाती .हम उसमें समा जाते.पर अफसोस ऐसा कुछ न हुआ.हो भी जाता तो कुछ फायदा न होता काहे से कि जब यह सुविचार मेरे मन में आया तब हम पांचवीं मंजिल पर थे.फर्श फटता भी तो अधिक से अधिक चौथी मंजिल तक आ पाते.धरती में समाने तमन्ना न पूरी होती.
अपराध बोध दूर करने का एक तरीका तो यह है कि क्षमायाचना करके मामला रफा-दफा कर लिया जाये.शरीफों के अपराधबोध दूर करने का यह शर्तिया इलाज है.पर यह सरल-सुगम रास्ता हमारे जैसे ठेलुहा स्कूल आफ थाट घराने के लोगों को रास नहीं आता.जहां किसी भी अपराधबोध से मुक्ति का एक ही उपाय है,वह है किसी बङे अपराधबोध की शरण में जाना(जैसे छुटभैये गुंडे से बचाव के लिये बङे गुंडे की शरण में जाना) ताकि छोटा अपराधबोध हीनभावना का शिकार होकर दम तोङ दे.
चूंकि सारा लफङा कविता के अनुवाद में कमी बताने को लेकर रहा सो अपराधबोध से मुक्ति के उपाय भी कविता के आसपास ही मिलने की संभावना नजर आयी.कुछ उपाय जो मुझे सूझे :-
1.कविता का और बेहतर अनुवाद किया जाये.
2.एक धांसू कविता अंग्रजी में लिखी जाये.
3.एक और धांसू तारीफ की टिप्पणी कविता के बारे में की जाये.
4.कविता के दोष खोजे-बताये जायें.
पहले तीनों उपाय हमें तुरन्त खारिज कर देने पङे.दीपक जी ने कविता के अनुवाद को बेहतर करने की कोई गुंजाइश छोङी नहीं हमारे लिये. अंग्रेजी हमारी हमीं को नहीं समझ आती तो दूसरे क्या बूझेंगे हमारी अंग्रजी कविता. टिप्पणी वैसे ही 29 हो चुकीं कविता पर अब 30 वीं करने से क्या फायदा?सिवाय संख्या वृद्धि के.इसलिये कविता में कमी बताने का विकल्प हमें सबसे बेहतर लगा.चूंकि कविता की तारीफ काफी हो चुकी इसलिये संतुलन के लियेआलोचना भी जरूरी है.(जैसा मकबूल पिक्चर में ओमपुरी कहते हैं).'द शिप' कविता एक प्रेम कविता है.इसकी पहली दो लाइने हैं:-
बाहों के उसके दायरे में
लगती हूँ,ज्यूँ मोती सीप में
इसके अलावा कविता में कश्ती,साहिल,सीना,धङकन,जलते होंठ,अनंत यात्रा जैसे बिम्ब हैं जो यह बताते हैं कि यह एक प्रेम कविता है.अब चूंकि इसकी तारीफ बहुत लोग कर चुके हैं सो हम भी करते हैं(खासतौर पर यात्रा ही मंजिल है वाले भाव की).आलोचना की शुरुआत करने का यह सबसे मुफीद तरीका है.
कविता की दूसरी पंक्ति का भाव पूरी कविता के भाव से मेल नहीं खाता.बेमेल है यह.पूरी कविता प्रेम की बात कहती है.प्रेम ,जिसमें सीना,धङकन,जलते होंठ हैं ,दो युवा नर-नारी के बीच की बात है.जबकि दूसरी पंक्ति (सीप में मोती)में मां-बेटी के संबंध हैं.सीप से मोती पैदा होता है.यह संबंध वात्सल्य का होता है.हालांकि प्रेमी -प्रेमिका के बीच वात्सल्य पूर्ण संबंधपर कोई अदालती स्टे तो नहीं है पर बाहों के घेरे में जाकर वात्सल्य की बात करना समय का दुरुपयोग लगता है.खासकर तब और जब आगे सीना,साहिल,गर्म होंठ जैसे जरूरी काम बाकी हों.
चूंकि अलका जी ने यह कविता जो मन में आया वैसा लिख दिया वाले अंदाज में लिखी है.स्वत:स्फूर्त है यह.ऐसे में ये अपेक्षा रखना ठीक नहीं कि सारे बिम्ब ठोक बजाकर देखे जायें.पर यह कविता एक दूसरे नजरिये से भी विचारणीय है.अलका जी की कविता के माध्यम से यह पता चलता है कि आज की नारी अपने प्रेमी में क्या खोजती है.वह आज भी बाहों के घेरे रहना चाहती है और सीप की मोती बनी रहना चाहती है. पुरुष का संरक्षण चाहती है.उसकी छाया में रहना चाहती है.यह अनुगामिनी प्रवृत्ति है.सहयोगी, बराबरी की प्रवृत्ति नहीं है.
इस संबंध में यह उल्लेख जरूरी है आम प्रेमी भी यह चाहता है कि वह अपनी प्रेमिका को संरक्षण दे सके.इस चाहत के कारण उन नायिकाओं की पूंछ बढ जाती जो बात-बात पर प्रेमी के बाहों के घेरे में आ जायें और फिर सीने में मुंह छिपा लें.अगर थोङी अल्हङ बेवकूफी भी हो तो सोने में सुहागा.अनगिनत किस्से हैं इस पर. फिल्म मुगलेआजम में अनारकली एक कबूतर उङा देती है.सलीम पूछता है-कैसे उङ गया कबूतर ?इस पर वह दूसरा कबूतर भी उङाकर कहती है -ऐसे.अब सलीम के पास कोई चारा नहीं बचता सिवाय अनारकली की अल्हङता पर फिदा होने के.
मेरे यह मत सिर्फ कविता 'द शिप' के संदर्भ में हैं.अलका जी के बारे में या उनकी दूसरी कविताओं के संबंध में नहीं हैं.आशा है मेरे विचार सही संदर्भ में लिये जायेंगे.
यह लिख कर मैं पंकज जी के प्रति अपराध बोध से अपने को मुक्त पा रहा हूं.बङा अपराध कर दिया .बोध की प्रतीक्षा है.
मेरी पसंद
(कच-देवयानी प्रसंग)
असुरों के गुरु शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या आती आती थी.इसके प्रयोग से वे देवता-असुर युद्ध में मरे असुरों को जिला देते थे.इस तरह असुरों की स्थिति मजबूत हो रही थी .देवताओं की कमजोर.देवताओं ने अपने यहां से कच को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने के लिये भेजा.कच नेअपने आचरण से शुक्राचार्य को प्रभावित किया और काफी विद्यायें सीख लीं.
असुरों को भय लगा कि कहीं शुक्राचार्य कच को संजीवनी विद्या भी न सिखा दें.इसलिये असुरों ने कच को मार डाला. इस बीच शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी कच को प्यार करने लगी थी .सो उसके अनुरोध पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या का प्रयोग करके कच को जीवित कर दिया.असुरों ने कच से छुटकारे का नया उपाय खोजा. शुक्राचार्य को शराब बहुत प्रिय थी.असुरों ने कच को मार कर जला दिया और राख को शराब में मिलाकर शुक्राचार्य को पिलादिया.कच ने शुक्राचार्य के मर्म में स्थित संजीवनी विद्या ग्रहण कर ली और पुन: जीवित हो गया.
जीवित होने के बाद देवयानी ने अपने प्रेम प्रसंग को आगे बढाना चाहा.पर कच ने यह कहकर इंकार कर दिया --मैं तुम्हारे पिता के उदर(पेट) में रहा अत: हम तुम भाई-बहन हुये .इसलिये यह प्रेम संबंध अब अनुचित है.यह कहकर कच संजीवनी विद्या के ज्ञान के साथ देवताओं के पास चला गया.
बाद में देवयानी का विवाह राजा ययाति से हुआ.
(संदर्भ-ययाति.लेखक-विष्णु सखाराम खाण्डेकर)
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बहुत बढ़िया, अच्छा लिखे हो अनूप बाबू। अब जब कविता के बखिए उखाड़ने की बात शुरु हो ही गई है तो एक ठौ हमरी भी सुन लो। कविता में जब अंदर की आवाज यह कहती है कि
ReplyDeleteक्यूँ भूल गई के कश्ती कभी ठहरी नहीं
बहते रहना उसकी मंजिल है, रुकना नहीं।
तो इसका क्या अभिप्राय है। प्रेम में चाहे नर हो या नारी यह स्थापित है कि दोनो पड़ाव डाल ही देंगे और ठहर जाएंगे। ऐसा नहीं होता तो भईया सभी वकील बन जाते हैं बहुत पैसे बनेंगे।
पंकज
अरे पंकजजी,कविता के संदर्भ में देखो.चुंबन के बाद कहा गया कि यहीं ठहरना लक्षय नहीं है.इसके आगे की यात्रा हमारा लक्षय है.जो कि प्रेमियों के बीच सरव्था स्वाभाविक बात है.इस यात्रा के पूरी होने के बाद का बयान चूंकि कुछ है नही लिहाजा कुछ कहना ठीक न होगा-फिलहाल.
ReplyDeleteअरे बाबा रे बाबा.. इ मतलब तो हम समझे ही नहीं थे। इस मूढ़ बालक को आप जैसे ज्ञानी लोगों के सत्संग का बहुत फायदा हो रहा है।
ReplyDeleteपंकज
बंधुवर,न हम ज्ञानी हैं न ही आप मूढ.आप की जिज्ञासा ने ये विचार का रास्ता बताया.यह हमारा सोच है.कोई दूसरा और नये, बेहतर अर्थ तलासेगा-जैसी उसकी दृष्टि होगी.स्व.रमानाथ अवस्थी जी की एक कविता कहती है:-
ReplyDeleteमेरी कविता के अर्थ अनेकों हैं,
तुमसे जो लग जाये लगा लेना.
इसको बोलते है, एक अनार सौ बीमार,
ReplyDeleteबेचारी ने एक कविता क्या लिखी.. सैकड़ो इकट्ठे हो गये, अनुवाद को,
लोगो ने लेख पर लेख लिख मारे, एक हम है,कि कौनो नही पूछता,
अनुवाद की तो बात ही कुछ और है,
सही है भाई, काश हम भी लड़की होते, तो सभी लोग हमारे ब्लाग के आसपास
ही टहल रहे होते ....खैर अब का हो सकता है.
DEEPAK JESWAL
ReplyDeleteSIRJI...ek anuwaad ne yeh qahar dhaa diya! Baap re!! kabhi socha na tha, kyunki anuwaad toh humne yunh kar diya tha.....
kabhi aayiye hamare dar bhi.....
http://randomexpressions.rediffblogs.com
बंधुवर ,अनुवाद का मामला तो पंकज भाई के यहां ही रफा-दफा हो गया. फिर जीतेन्दर भाई आप अल्का जी को बेचारी काहे बता रहे हो ?
ReplyDeleteयह ठीक नहीं है शायद.लङकी होने से आपके आसपास लोग टहल रहे होते पता नहीं है कितना सही है?पर सुनते तो हैं कि लिंग परिवर्तन संभव है.इच्छा हो तो पता करें गुंजाइस.
दीपक जी मैंने आप का ब्लाग देखा है.पढा भी है कुछ.फिर देखूंगा.आप तो हिन्दी लिखना सीख गये हैं.लिखिये.
बहुत सुन्दर, आपके अंदाज को देख कर तो हम आपके कायल हो गये। और शुक्राचार्य वाला प्रसंग तो काफ़ी अच्छा लगा । ऐसे ही और मजेदार प्रसंग सुनायें ।
ReplyDeleteआशीष
अब बुढापे मे आकर क्या लिंग परिवर्तन कराया जाय... जो है जैसा है चलने दो.
ReplyDeleteसोचता हूँ एक आध ब्लाग, किसी लड़की के नाम पर लिख कर देखा जाय, शायद कुछ फर्क पड़े, आपका क्या विचार है?
वैसे अगर अलका जी महिला न होतीं, तो शायद इतना बवाल न होता ।
ReplyDeleteआशीष
सोच को अंजाम देने में देर क्यों कर रहे हो बंधुवर ?शुभस्य शीघ्रम.वैसे जवानी (यौवन)का उमर से कोई संबंध नहीं होता.हरिशंकर परसाई जी ने अपने लेख "पहिला सफेद बाल "में लिखा है-यौवन सिर्फ काले बालों का नाम नहीं है.यौवन नवीन भाव,नवीन विचार ग्रहण करने की तत्परता का नाम है.यौवन साहस,उत्साह,निर्भयता और खतरे भरी जिंंदगी का नाम है.और सबसे ऊपर ,बेहिचक बेवकूफी करने का नाम यौवन है.
ReplyDeleteएक शायर फरमाते हैं:-
जवानी ढल चुकी खलिशे(चाह)मोहब्बत आज भी लेकिन/वहीं महसूस होती है जहां महसूस होती थी.
मित्र ये बताओ कि ये रेव ३ वाला विवरण कहां मिलेगा। हम उत्सुक हैं उसके दीदार के लिये।
ReplyDeleteझाङे रहो कलट्टरगंज में है -रेव-3 विवरण .
ReplyDeleteहां वो तो पढ़ा था, मुझे लगा कि कुछ और था जो मैंने नहीं पढ़ा ।
ReplyDeleteआशीष