पिछलीपोस्ट लिखते समय लगा कि अगली पोस्ट में तफसील से लिखेंगे.पर सब हवा हो गया .इसीलिये संतजन कहते हैं कि आज का काम कल पर नहीं छोडना चाहिये.पर अब क्या करें छूट गया सो छूट गया.
यादें समेटते हुयी याद आयी एक और ठोस मादा पात्र.हमारे स्कूल से घर के रास्ते में बकरमंडी की ढाल उतर के थाना बजरिया के पास एक सुरसा की मूर्ति थी.मुंह खोले बडी नाक वाली.स्कूल से लौटते समय हम भाग के मूर्ति की नाक में उंगली करते.जो पहले करता वह खुश होता कि यह बेवकूफी उसने पहले कर ली.पर इसे तो कोई प्यार नहीं मानेगा इसलिये छोड़ा जाये इसे.
हमारे एक दोस्त हैं.स्वभाव से प्रेमीजीव .उनके बारे में हम अक्सर कहते कि दो अंकों की उमर वाली कोई भी मादा उनके लिये आकर्षण का कारण बन सकती है.दोनो की उमर के बीच का फासला जितना कम होगा और सम्बंधो(रिश्ते) में जितनी दूरी होगी यह संबंध उतना ही प्रगाढ होगा.कई किस्से चलन में थे उनके,जिनका प्रचार वे खुद करते.पर उनके बारे में फिर कभी.
तो हमारे साथ यह संयोग रहा कि किसी से इतना नहीं लटपटा पाये कभी कि किसी का चेहरा हमारी नींद में खलल डाल पाये या किसी की आंख का आंसू हमें परेशान करे तथा हम कहने के लिये मजबूर हों:-
सुनो ,
अब जब भी कहीं
कोई झील डबडबाती है
मुझे,
तुम्हारी आंख मे
ठिठके हुये बेचैन
समंदर की याद आती है.
आज जब मैं सोचता हूं कि ऐसा क्या कारण रहा कि बिना प्यार की गली में घुसे जिन्दगी के राजमार्ग पर चलने लगे.बकौल जीतेन्द्र बिना प्यार किये ये जिन्दगी तो अकारथ हो गयी .कौन है इस अपराध का दोषी.शायद संबंधों का अतिक्रमण न कर पर पाने की कमजोरी इसका कारण रही हो.मोहल्ला स्तर पर सारे संबंध यथासंभव घरेलू रूप लिये रहते हैं.हम उनको निबाहते रहे.जैसे थे वैसे .कभी अतिक्रमण करने की बात नहीं सोची.लगे रहे किताबी पढाई में.जिंदगी की पढाई को अनदेखा करके . कुछ लोगों के लिये संबंधों का रूप बदलना ब्लागस्पाट का टेम्पलेट बदलना जितना सरल होता है .पर हम इस मामले में हमेशा ठस रहे.मोहल्ले के बाद कालेज में भी हम बिना लुटे बचे रहे.
इस तरह हम अपनी जवानी का जहाज बिना किसी चुगदपने की भंवर में फंसाये ठाठ से ,यात्रा ही मंजिल है का बोर्ड मस्तूल से चिपकाये ,समयसागर के सीने पर ठाठे मार रहे थे कि पहुंचे उस किनारे पर जहां हमारा जहाज तब से अब तक लंगर डाले है.मेरी पहली मुलाकात अपनी होने वाली पत्नी से 10-15 मिनट की थी.उतनी ही देर में हम यह सोचने को बाध्य हुये जब शादी करनी ही है तो इससे बेहतर साथी न मिलेगा.दूर-दूर तक शादी की योजना न होने के बावजूद मैने शादी करने का निर्णय ले लिया.यह अपनी जिन्दगी के बारे में लिया मेरा पहला और अन्तिम निर्णय था,और हम आज तक अपने इस एकमात्र निर्णय पर फिदा हैं.---रपट पडे तो हर गंगा.
कहते हैं कि जीवनसाथी और मोबाइल में यही समानता है कि लोग सोचते हैं --अगर कुछ दिन और इन्तजार कर लेते तो बेहतर माडल मिल जाता.पर अपने मामले में मैं इसे अपवाद मानता हूं.
मेरे शादी के निर्णय के बाद कुछ दिन मेरे घर वाले लटकाये रहे मामला.न हां ,न ना.ये कनौजिया लटके-झटके होते हैं.शादी की बात के लिये लड़की वाला जाता है तो लड़के वाले कहते हैं---अभी कहां अभी तो हमें लडकी(शायद जिसने स्कूल जाना हाल में ही शुरु किया हो )ब्याहनी है.हमें एहसास था इस बात का.सो हम वीर रस का संचार करते हुये आदर्शवाद की शरण में चले गये.दाग दिया डायलाग भावी पत्नीजी से---हमारे घर वाले थोड़ा नखरा करेंगे पर मान जायेंगे.पर जिस दिन तुम्हे लगे कि और इन्तजार नहीं कर सकती तो बता देना मैं उसी दिन शादी कर लूंगा.हमें लगा कि महानता का मौका बस आने ही वाला है.पर हाय री किस्मत.घर वालों ने मुझे धोखा दिया.उनके इन्तजार की मिंयाद खतम होने से पहले ही अपनी नखरे की पारी घोषित कर दी.हम क्रान्तिकारी पति बनने से वंचित होकर एक अदद पति बन कर रह गये.
आदर्शवादी उठान तथा पतिवादी पतन के बीच के दौर में हमने समय का सदुपयोग किया और वही किया जो प्रतीक्षारत पति करते हैं .कुछ बेहद खूबसूरत पत्र लिखे.जो बाद में प्रेम पत्र के नाम से बदनाम हुये.इतनी कोमल भावनायें हैं उनकी कि बाहरी हवा-पानी से बचा के सहेज के रखा है उन्हें.डर लगता है दुबारा पढ़ते हुये--कहीं भावुकता का दौरा ना पड जाये.
उन्हीं किन्हीं दिनों किसी दिन सबेरे-सबेरे एक कविता लिखी जिसके बारे में हम कहते हैं पत्नी से कि तुम्हारे लिये लिखी है.
इतने संक्षिप्त घटनाक्रम के बाद हम शादीगति को प्राप्त हुये.दिगदिगान्तर में हल्ला हो गया कि इन्होंने तो प्रेमविवाह किया है. कुछ दिन तो हम बहुत खुश रहे कि यार ये तो बड़ा बढ़िया है.एक के साथ एक मुफ्त वाले अंदाज में शादी के साथ प्रेम फालतू में.
पर कुछ दिन बाद हमें शंका हुयी कुछ बातों से.हमने अपने कुछ दोस्तों से राय ली .पूछा--क्या यही प्यार है. लोगों ने अलग-अलग राय दी.हम कन्फूजिया गये.फिर हमारे एक बहुपाठी दोस्त ने सलाह दी कि तुम किसी के बहकावे में न आओ.ये किताबें ले जाओ.दाम्पत्य जीवन विशषांक की .इनमें लिटमस टेस्ट दिये हैं यह जानने के लिये कि आप अपने जीवन साथी को कितना प्यार करते हैं.इनको हल करके पता कर लो असलियत.हमने उन वस्तुनिष्ठ सवालों को पूरी ईमानदारी से हल किया तो पाया कि बहुत तो नहीं पर पास होने लायक प्यार करते हम अपनी पत्नी को.कुछ सलाह भी दी गयीं थीं प्यार बढ़ाने के लिये.
अब चूंकि परचे आउट थे सो हम दुबारा सवाल हल किये.मेहनत का फल मिला .हमारा प्यार घंटे भर में ही दोगुना हो गया.फिर मैंने सोचा देखें हमारी पत्नी हमें कितना चाहती है.उसकी तरफ से परचा हल किया.हमें झटका लगा.पता चला वह हमें बहुत कम चाहती है.बहुत बुरा लगा मुझे .ये क्या मजाक है?खैर पानी पीकर फिर सवाल हल किये उसकी तरफ से.नंबर और कम हो गये थे.फिर तो भइया न पूंछो.हमने भी अपने पहले वाले नंबर मिटाकर तिबारा सवाल हल किये.नंबर पत्नी के नंबर से भी कम ले आये.जाओ हम भी नहीं करते प्यार.
वैसे भी कोई कैसे उस शख्स को प्यार कर सकता है जिसके चलते उसकी दुकान चौपट हो गयी हो.शादी के पहले घर में मेरी बहुत पूंछ थी.हर बात में लोग राय लेते थे.शादी के हादसे के बाद मैं नेपथ्य में चला गया.मेरे जिगरी दोस्त तक तभी तक मेरा साथ देते जब तक मेरी राय पत्नी की राय एक होती.राय अलग होते ही बहुमत मेरे खिलाफ हो जाता .मै यही मान के खुश होता कि बहुमत बेवकूफों का है.पर खुशफहमी कितने दिन खुश रख सकती है.
रुचि,स्वभाव तथा पसंद में हमारे में 36 का आंकड़ा है.वो सुरुचि संपन्नता के लिये जानी जाती हैं मैं अपने अलमस्त स्वभाव के लिये.मुझे कोई भी काम निपटा देना पसंद है .उसको मनमाफिक न होने पर पूरे किये को खारिज करके नये सिरे से करने का जुनून.मुझे हर एक की खिंचाई का शौक है .बीबीजी अपने दुश्मन से भी इतने अदब से बात करती हैं कि बेचारा अदब की मौत मर जाये.
जब-जब मुझसे जल्दी घर आने को कहा जाता है,देर हो जाती है.जब किसी काम की आशा की जाती है ,कभी आशानुसार काम नहीं करता.जब कोई आशा नहीं करता मैं काम कर देता हूं.झटका तब लगता है जब सुनाया जाता है-हमें पता था तुम ऐसा ही करोगे.
जब बीबी गुस्साती है हम चुप रहते हैं(और कर भी क्या सकते हैं)जब मेरा गुस्सा करने का मन करता तो वह हंसने लगती है.परस्पर तालमेल के अभाव में हम आजतक कोई झगड़ा दूसरे दिन तक नहीं ले जा पाये.
एक औसत पति की तरह मुझे भी पत्नी से डरने की सुविधा हासिल है .हम कोई कम डरपोंक थोड़ी हैं.पर यह डर उसके गुस्से नाराजगीसे नहीं उसकी चुप्पी से है.ऐसे में हम लगा देते हैं 'अंसार कंबरी' की कविता:-
क्या नहीं कर सकूंगा तुम्हारे लिये,
शर्त ये है कि तुम कुछ कहो तो सही.
पढ़ सको तो मेरे मन की भाषा पढ़ो,
मौन रहने से अच्छा है झुंझला पड़ो
ये 36 के आंकड़े बताते हैं कि हमारे घर में ई.आर.पी.तकनीक बहुत पहले से लागू से है.किसी स्वभाव,गुण,रुचि की डुप्लीकेटिंग नहीं.
पर दुनिया में भलाई का जमाना नहीं.कुछ लोगों ने अफवाह उड़ा दी कि हम लोग बड़े खुश मिजाज है.लोगों के लिये हमारा घर तनाव मुक्ति केन्द्र बना रहा(जाहिर है मेरे लिये तनाव केन्द्र)शाहजहांपुर में.
ऐसे में व्यक्ति विकल्प खोजता है.मैंने भी कोशिश की.टुकड़ों-टुकड़ों मे तमाम महिलाओं में तमाम गुण चीजें देखीं जो मुझे लगातार आकर्षित करते रहे.पर टुकड़े,टुकड़े ही रहे. उन टुकड़ों को जोड़कर कोई मुकम्मल कोलाज ऐसा नहीं बन पाया आज तक जो मेरी बीबी की जगह ले सके.विकल्पहीनता की स्थिति में खींच रहे हैं गाडी- इश्क का हुक्का गुड़गुड़ाते हुये.
पत्नी आजकल बाहर रहती हैं.हफ्ते में मुलाकात होती है.चिन्ता का दिखावा बढ़ गया है हमारा.दिन में कई बार फोन करने के बाद अक्सर गुनगुनाते हैं:-
फिर उदासी तुम्हें घेर बैठी न हो
शाम से ही रहा मैं बहुत अनमना,
चित्र उभरे कई किंतु गुम हो गये
मैं जहां था वहां तुम ही तुम हो गये
लौट आने की कोशिश बहुत की मगर
याद से हो गाया आमना-सामना.
साथ ही सैंकड़ो बार सुन चुके गीत का कैसेट सुन लेता हूं:-
ये पीला वासन्तिया चांद,
संघर्षों में है जिया चांद,
चंदा ने कभी राते पी लीं,
रातों ने कभी पी लिया चांद.
x x x x x x x x x x x x
राजा का जन्म हुआ था तो
उसकी माता ने चांद कहा
इक भिखमंगे की मां ने भी
अपने बेटे को चांद कहा
दुनिया भर की माताओं से
आशीषें लेकर जिया चांद
ये पीला वासन्तिया चांद,
संघर्षों में है जिया चांद.
पहली बार यह गीत संभावित पत्नी से तब सुना था जब हमारे क्रान्तिकारी पति बनने की संभावनायें बरकरार थीं, महानता से सिर्फ चंद दिन दूर थे हम.आज सारी संभावनायें खत्म हो चुकी हैं पर गीत की कशिश जस की तस बरकरार है.
मेरी पसंद
बांधो न नाव इस ठांव बन्धु!
पूछेगा सारा गांव , बन्धु !
यह घाट वही,जिस पर हंसकर,
वह कभी नहाती थी धंसकर,
आंखें रह जाती थीं फंसकर,
कंपते थे दोनो पांव, बन्धु!
वह हंसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी ,सहती थी
देती थी सबको दांव बन्धु !
बांधो न नाव इस ठांव बन्धु!
पूछेगा सारा गांव , बन्धु !
--सूर्यकांत त्रिपाठी'निराला'
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Wednesday, January 26, 2005
Wednesday, January 12, 2005
प्रेमगली अति सांकरी
किसी विषय पर लिखने के पहले उसकी परिभाषा देने का रिवाज है.हम लिखने जा रहे हैं -प्यार पर.कुछ लोग कहते हैं-प्यार एक सुखद अहसास है.पर यह ठीक नहीं है.प्यार के ब्रांड अम्बेडर लैला मजनू ,शीरी -फरहाद मर गये रोते-रोते.यह सुखद अहसास कैसे हो सकता है?
सच यह है कि जब आदमी के पास कुछ करने को नहीं होता तो प्यार करने लगता है.इसका उल्टा भी सही है-जब आदमी प्यार करने लगता है तो कुछ और करने लायक नहीं रहता .प्यार एक आग है.इस आग का त्रिभुज तीन भुजाओं से मुकम्मल होता है. जलने के लिये पदार्थ (प्रेमीजीव), जलने के लिये न्यूनतम तापमान(उमर,अहमकपना) तथा आक्सीजन(वातावरण,मौका,साथ) किसी भी एक तत्व के हट जाने पर यह आग बुझ जाती है.धुआं सुलगता रहता है.कुछ लोग इस पवित्र 'प्रेमयज्ञधूम' को ताजिंदगी सहेज के रखते हैं .बहुतों को धुआं उठते ही खांसी आने लगती है जिससे बचने के लिये वे दूसरी आग जलाने के प्रयास करते हैं.इनके लिये कहा है नंदनजी ने:-
अभी मुझसे फिर उससे फिर किसी और से
मियां यह मोहब्बत है या कोई कारखाना.
इजहारे मोहब्बत बहुत अहम भूमिका अदा करता है प्रेमकहानी की शुरुआत में.वैसे हमारे कुछ मित्रों का कहना है कि आदमी सबसे बड़ा चुगद लगता है जब वह कहता है-मैं तुम्हें प्यार करता हूं.लोग माने नहीं तो बहुमत के दबाव में संसोधन जारी हुआ-सबसे बड़ा चुगद वह होता है जो प्यार का इजहार नहीं कर पाता.प्रेमपीड़ित रहता है.पर न कर पाता है ,न कह पाता है.
बहुतों से प्यार किया हमनें जिंदगी में.बहुतों का साथ चाहा.बेकरारी से इंतजार किया.संयोग कुछ ऐसा कि ये सारे 'बहुत'नरपुंगव रहे.मादा प्राणियों में दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं याद आता जिस पर हम बहुत देर तक लटपटाये हो.'चुगदावस्था'ने हमारे ऊपर स्पर्शरेखा तक नहीं डाली.
किसी का साथ अच्छा लगना और किसी के बिना जीवन की कल्पना न कर पाना दो अलग बातें है.हमारी आंख से आजतक इस बात के लिये एक भी आसूं नहीं निकला कि हाय अबके बिछुड़े जाने कब मिलें.किताबों में फूल और खत नहीं रखते थे कभी काहे से कि जिंदगी भर जूनियर इम्तहान होते ही किताबें अपनी बपौती समझ के ले जाते रहे.कोई तिरछी निगाह याद नहीं आती जो हमारे दिल में आजतक धंसी हो:-
तिरछी नजर का तीर है मुश्किल से निकलेगा
गर दिल से निकलेगा तो दिल के साथ निकलेगा.
जैसा कि हर ब्लागर होता है हम भी अच्छे माने जाते थे पढ़ने में तथा एक अच्छे लड़के के रूप में बदनाम थे. ज्यादा अच्छाई का बुरा पहलू यह होता है कि फिर और सुधार की संभावनायें कम होती जाती हैं.यथास्थिति बनाये रखने में ही फिचकुर निकल जाता है.जबकि खुराफाती में हमेशा सुधार की गुंजाइस रहती है.तो हमसे भी दोस्त तथा कन्यायें पूछा-पुछौव्वल करती थे.दोस्त सीधे तथा कन्याराशि द्वारा उचित माध्यम (भाई,सहेली जो कि हमारेदोस्तकीबहन होती थीं)हम भी ज्ञान बांटते रहे -बिना छत,तखत तथा टीन शेड के.कभी-कभी उचितमाध्यम की दीवार तोड़ने की कोशिश की भी तो पर टूटी नहीं .शायद अम्बुजा सीमेंट की बनी थी.
हम उस जमाने की पैदाइस हैं जब लगभग सारे प्रेम संबंध भाई-बहन के पवित्र रिश्ते से शुरु होते थे.बहुत कम लोग राखी के धागे को जीवन डोर में बदल पाते.ज्यादातर प्रेमी अपनी प्रेमिका के बच्चों के मामा की स्थिति को प्राप्त होते.आजकल भाई-बहन के संबंध बरास्ता कजिन होते हुये दोस्ती के मुकाम से शुरु होना शुरु हुये है.पर एक नया लफड़ा भी आया है सामने.अच्छाभला "हम बने तुम बने एक दूजे के लिये"गाना परवान चढ़ते-चढ़ते "बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है"का राग अलापने लगता है.
बहलहाल इंटरमीडियेट के बाद हम पहुंचे कालेज. कालेज वो भी इंजीनियरिंग कालेज-हास्टल समेत.करेला वो भी नीम चढ़ा.ऐसे में लड़को की हालत घर से खूंटा तुड़ाकर भागे बछड़े की होती है जो मैदान में पहुंचते ही कुलांचे मारने लगता है.
हास्टल में उन दिनों समय और लहकटई इफरात में पसरी रहती थी.फेल होने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी. जिंदगी में पहली बार हमारी कक्षाओं में कुर्सी,मेज,किताब,कापी, हवा,बिजली के अलावा स्त्रीलिंग के रूप में सहपाठिनें मिलीं.
हमारे बैच में तीन सौ लोग थे.लड़कियां कुल जमा छह थी.तो हमारे हिस्से में आयी 1/50.हम संतोषी जीव . संतोष कर गये.पर कुछ दिन में ही हमें तगड़ा झटका लगा.हमारे सीनियर बैच में लड़कियां कम थीं.तो तय किया गया लड़कियों का समान वितरण होगा.तो कालेज की 10 लड़कियां 1200 लड़कों में बंट गयीं.बराबर-बराबर.हमारे हिस्से आयी 1/120 लड़की .इतने में कोई कैसे प्यार कर सकता है?बकौल राजेश-नंगा क्या नहाये क्या निचोड़े.
संसाधनो की कमी का रोना रोकर काम रोका जा सकता था. पर कुछ कर्मठ लोग थे.हिम्मत हारने के बजाये संभावनायें तलासी गयीं.तय हुआ कि किसी लड़की से टुकड़ों-टुकड़ों में (किस्तों में)तो प्यार किया जा सकता है पर टुकड़ा-टुकड़ा हो चुकी लड़की से नहीं.सो सारी लड़कियों के टुकड़ों को जोड़कर उन्हें फिर से पूरी लड़की में तब्दील किया गया. छोड़ दिया गया उन्हें स्वतंत्र.अब कोई भी बालक किसी भी कन्या का चुनाव करके अपनी कहानी लिखा सकता था.ब्लागस्पाट का टेम्पलेट हो गयीं कन्यायें.
हमारी ब्रांच में जो कन्या राशि थी उसमें उन गुणों का प्रकट रूप में अभाव था जिनके लिये कन्यायें जानी जाती हैं.नजाकत,लजाना,शरम से गाल लाल हो जाना,नैन-बैन-सैन रहित .बालिका बहादुर,बिंदास तथा थोड़ा मुंहफट थी. उंची आवाज तथा ठहाके 100 मीटर के दायरे में उसके होने की सूचना देते.अभी कुछ दिन पहले बात की फोन पर तो ठहाका और ऊंची आवाज मेंकोई कमी नहीं आयी है.कुछ बालकगणों ने घबराकर उसे लड़की मानने से ही इंकार कर दिया.हाय,कहीं ऐसी होती हैं लड़कियां.न अल्हड़ता,न बेवकूफी,न पढ़ने में कमजोर .उस सहपाठिन ने जब कानपुर में नौकरी ज्वाइन की तो मोटर साइकिल से आती-जाती.कानपुर में 15 साल पहले मोटर साइकिल से लड़की का चलना कौतूहल का विषय था.लड़के दूर तक स्वयं सेवको की तरह एस्कार्ट करते.
कालेज में एक समस्या अक्सर आती.साल-छह माह में कोई बालक-बालिका प्रेम की गली में समा जाते.चूंकि प्रेम की गली बहुत संकरी होती है. दो लोग एक साथ समा नहीं सकते लिहाजा एक हो जाते.प्रति बालक-बालिका औसत और नीचे गिर जाता.बाद के दिनों में कन्यायें कुछ इफरात में आयीं लिहाजा बालक-बालिका औसत कुछ बेहतर हुआ.
परोपकाराय सतां विभूतय: की भावना वाले लोग हर जगह पाये जाते है.शादी.काम तो आज की बात है.उन दिनों प्रेमी.काम का जमाना था.लोग रुचि,गुण,स्वभाव,समझ में 36 के आंकडे वाले लड़के-लड़की में प्रेम करा देते.फेक देते प्रेम सरोवर में.कहते तुम्हें पता नहीं पर तुम एक दूसरे को बहुत चाहते हो.मरता क्या न करता-लोग भी जन भावना का आदर करके मजबूरी में प्यार करते.
इसी जनअदालत में फंस गया हमारा एक सिंधी दोस्त.बेचारा लटका रहा प्रेम की सूली पर तीन साल.आखिर में उसे उबारा उसी के एक दोस्त ने.जिस लड़की को वह भाभी माने बैठा था उसको पत्नी का दर्जा देकर उसने अपने मित्र की जान बचाई.एक दोस्त और कितनी बड़ी कुर्बानी कर सकता है दोस्त के लिये.
हमारे ऊपर कम मेहरबान नहीं रहे हमारे मित्र.हमें हमारे प्रेम का अहसास कराया.पर हमने जब भी देखना चाहा प्यार के आग के त्रिभुज की कोई न कोई भुजा या तो मिली नहीं या छोटी पढ़ गयी.गैर मुकम्मल त्रिभुज की भुजायें हमारा मुंह चिढ़ाती रहीं.
-बाकी अगली पोस्ट में
सच यह है कि जब आदमी के पास कुछ करने को नहीं होता तो प्यार करने लगता है.इसका उल्टा भी सही है-जब आदमी प्यार करने लगता है तो कुछ और करने लायक नहीं रहता .प्यार एक आग है.इस आग का त्रिभुज तीन भुजाओं से मुकम्मल होता है. जलने के लिये पदार्थ (प्रेमीजीव), जलने के लिये न्यूनतम तापमान(उमर,अहमकपना) तथा आक्सीजन(वातावरण,मौका,साथ) किसी भी एक तत्व के हट जाने पर यह आग बुझ जाती है.धुआं सुलगता रहता है.कुछ लोग इस पवित्र 'प्रेमयज्ञधूम' को ताजिंदगी सहेज के रखते हैं .बहुतों को धुआं उठते ही खांसी आने लगती है जिससे बचने के लिये वे दूसरी आग जलाने के प्रयास करते हैं.इनके लिये कहा है नंदनजी ने:-
अभी मुझसे फिर उससे फिर किसी और से
मियां यह मोहब्बत है या कोई कारखाना.
इजहारे मोहब्बत बहुत अहम भूमिका अदा करता है प्रेमकहानी की शुरुआत में.वैसे हमारे कुछ मित्रों का कहना है कि आदमी सबसे बड़ा चुगद लगता है जब वह कहता है-मैं तुम्हें प्यार करता हूं.लोग माने नहीं तो बहुमत के दबाव में संसोधन जारी हुआ-सबसे बड़ा चुगद वह होता है जो प्यार का इजहार नहीं कर पाता.प्रेमपीड़ित रहता है.पर न कर पाता है ,न कह पाता है.
बहुतों से प्यार किया हमनें जिंदगी में.बहुतों का साथ चाहा.बेकरारी से इंतजार किया.संयोग कुछ ऐसा कि ये सारे 'बहुत'नरपुंगव रहे.मादा प्राणियों में दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं याद आता जिस पर हम बहुत देर तक लटपटाये हो.'चुगदावस्था'ने हमारे ऊपर स्पर्शरेखा तक नहीं डाली.
किसी का साथ अच्छा लगना और किसी के बिना जीवन की कल्पना न कर पाना दो अलग बातें है.हमारी आंख से आजतक इस बात के लिये एक भी आसूं नहीं निकला कि हाय अबके बिछुड़े जाने कब मिलें.किताबों में फूल और खत नहीं रखते थे कभी काहे से कि जिंदगी भर जूनियर इम्तहान होते ही किताबें अपनी बपौती समझ के ले जाते रहे.कोई तिरछी निगाह याद नहीं आती जो हमारे दिल में आजतक धंसी हो:-
तिरछी नजर का तीर है मुश्किल से निकलेगा
गर दिल से निकलेगा तो दिल के साथ निकलेगा.
जैसा कि हर ब्लागर होता है हम भी अच्छे माने जाते थे पढ़ने में तथा एक अच्छे लड़के के रूप में बदनाम थे. ज्यादा अच्छाई का बुरा पहलू यह होता है कि फिर और सुधार की संभावनायें कम होती जाती हैं.यथास्थिति बनाये रखने में ही फिचकुर निकल जाता है.जबकि खुराफाती में हमेशा सुधार की गुंजाइस रहती है.तो हमसे भी दोस्त तथा कन्यायें पूछा-पुछौव्वल करती थे.दोस्त सीधे तथा कन्याराशि द्वारा उचित माध्यम (भाई,सहेली जो कि हमारेदोस्तकीबहन होती थीं)हम भी ज्ञान बांटते रहे -बिना छत,तखत तथा टीन शेड के.कभी-कभी उचितमाध्यम की दीवार तोड़ने की कोशिश की भी तो पर टूटी नहीं .शायद अम्बुजा सीमेंट की बनी थी.
हम उस जमाने की पैदाइस हैं जब लगभग सारे प्रेम संबंध भाई-बहन के पवित्र रिश्ते से शुरु होते थे.बहुत कम लोग राखी के धागे को जीवन डोर में बदल पाते.ज्यादातर प्रेमी अपनी प्रेमिका के बच्चों के मामा की स्थिति को प्राप्त होते.आजकल भाई-बहन के संबंध बरास्ता कजिन होते हुये दोस्ती के मुकाम से शुरु होना शुरु हुये है.पर एक नया लफड़ा भी आया है सामने.अच्छाभला "हम बने तुम बने एक दूजे के लिये"गाना परवान चढ़ते-चढ़ते "बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है"का राग अलापने लगता है.
बहलहाल इंटरमीडियेट के बाद हम पहुंचे कालेज. कालेज वो भी इंजीनियरिंग कालेज-हास्टल समेत.करेला वो भी नीम चढ़ा.ऐसे में लड़को की हालत घर से खूंटा तुड़ाकर भागे बछड़े की होती है जो मैदान में पहुंचते ही कुलांचे मारने लगता है.
हास्टल में उन दिनों समय और लहकटई इफरात में पसरी रहती थी.फेल होने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी. जिंदगी में पहली बार हमारी कक्षाओं में कुर्सी,मेज,किताब,कापी, हवा,बिजली के अलावा स्त्रीलिंग के रूप में सहपाठिनें मिलीं.
हमारे बैच में तीन सौ लोग थे.लड़कियां कुल जमा छह थी.तो हमारे हिस्से में आयी 1/50.हम संतोषी जीव . संतोष कर गये.पर कुछ दिन में ही हमें तगड़ा झटका लगा.हमारे सीनियर बैच में लड़कियां कम थीं.तो तय किया गया लड़कियों का समान वितरण होगा.तो कालेज की 10 लड़कियां 1200 लड़कों में बंट गयीं.बराबर-बराबर.हमारे हिस्से आयी 1/120 लड़की .इतने में कोई कैसे प्यार कर सकता है?बकौल राजेश-नंगा क्या नहाये क्या निचोड़े.
संसाधनो की कमी का रोना रोकर काम रोका जा सकता था. पर कुछ कर्मठ लोग थे.हिम्मत हारने के बजाये संभावनायें तलासी गयीं.तय हुआ कि किसी लड़की से टुकड़ों-टुकड़ों में (किस्तों में)तो प्यार किया जा सकता है पर टुकड़ा-टुकड़ा हो चुकी लड़की से नहीं.सो सारी लड़कियों के टुकड़ों को जोड़कर उन्हें फिर से पूरी लड़की में तब्दील किया गया. छोड़ दिया गया उन्हें स्वतंत्र.अब कोई भी बालक किसी भी कन्या का चुनाव करके अपनी कहानी लिखा सकता था.ब्लागस्पाट का टेम्पलेट हो गयीं कन्यायें.
हमारी ब्रांच में जो कन्या राशि थी उसमें उन गुणों का प्रकट रूप में अभाव था जिनके लिये कन्यायें जानी जाती हैं.नजाकत,लजाना,शरम से गाल लाल हो जाना,नैन-बैन-सैन रहित .बालिका बहादुर,बिंदास तथा थोड़ा मुंहफट थी. उंची आवाज तथा ठहाके 100 मीटर के दायरे में उसके होने की सूचना देते.अभी कुछ दिन पहले बात की फोन पर तो ठहाका और ऊंची आवाज मेंकोई कमी नहीं आयी है.कुछ बालकगणों ने घबराकर उसे लड़की मानने से ही इंकार कर दिया.हाय,कहीं ऐसी होती हैं लड़कियां.न अल्हड़ता,न बेवकूफी,न पढ़ने में कमजोर .उस सहपाठिन ने जब कानपुर में नौकरी ज्वाइन की तो मोटर साइकिल से आती-जाती.कानपुर में 15 साल पहले मोटर साइकिल से लड़की का चलना कौतूहल का विषय था.लड़के दूर तक स्वयं सेवको की तरह एस्कार्ट करते.
कालेज में एक समस्या अक्सर आती.साल-छह माह में कोई बालक-बालिका प्रेम की गली में समा जाते.चूंकि प्रेम की गली बहुत संकरी होती है. दो लोग एक साथ समा नहीं सकते लिहाजा एक हो जाते.प्रति बालक-बालिका औसत और नीचे गिर जाता.बाद के दिनों में कन्यायें कुछ इफरात में आयीं लिहाजा बालक-बालिका औसत कुछ बेहतर हुआ.
परोपकाराय सतां विभूतय: की भावना वाले लोग हर जगह पाये जाते है.शादी.काम तो आज की बात है.उन दिनों प्रेमी.काम का जमाना था.लोग रुचि,गुण,स्वभाव,समझ में 36 के आंकडे वाले लड़के-लड़की में प्रेम करा देते.फेक देते प्रेम सरोवर में.कहते तुम्हें पता नहीं पर तुम एक दूसरे को बहुत चाहते हो.मरता क्या न करता-लोग भी जन भावना का आदर करके मजबूरी में प्यार करते.
इसी जनअदालत में फंस गया हमारा एक सिंधी दोस्त.बेचारा लटका रहा प्रेम की सूली पर तीन साल.आखिर में उसे उबारा उसी के एक दोस्त ने.जिस लड़की को वह भाभी माने बैठा था उसको पत्नी का दर्जा देकर उसने अपने मित्र की जान बचाई.एक दोस्त और कितनी बड़ी कुर्बानी कर सकता है दोस्त के लिये.
हमारे ऊपर कम मेहरबान नहीं रहे हमारे मित्र.हमें हमारे प्रेम का अहसास कराया.पर हमने जब भी देखना चाहा प्यार के आग के त्रिभुज की कोई न कोई भुजा या तो मिली नहीं या छोटी पढ़ गयी.गैर मुकम्मल त्रिभुज की भुजायें हमारा मुंह चिढ़ाती रहीं.
-बाकी अगली पोस्ट में
Thursday, January 06, 2005
अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है
ठेलुहा नरेश ठेलुहों के बारे में कहते हैं:-
एक ढूढ़ो हजार मिलते हैं,
बच के निकलो टकरा के मिलते है.
ऐसे ही अतुल टकरा गये एक पागल आदमी से(वो खुद कहता है यह- हम नहीं).पूछा-तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं?अब वह बता ही नहीं रहा कि अतुल क्या करें.बहुत नाइंसाफी है.
अतुल ने अपनी बात रखी तुरंत कि कहीं फिर देरी का इल्जाम न लगा दे कोई.चौपाल पर रखी ताकि सब सुन सकें. रोजनामचा में इसे देख कर कितने दोस्त दुश्मन बनेगे कह नहीं सकता-यह पढ़कर लगा कि अतुल का मुंहफटपन कितना समझदार है.पत्नी की सलाहों का असर है लगता है.
ब्लागमेला मैंने जब देखा था तो मैंने भी काफी सोचा था.मुझे याद आयी थी अतुल की मेल जिसमें हिंदी के छा जाने का जिक्र था.फिर कुछ दिन हम श्रद्घापूर्वक सारे हिंदी के चिट्ठों का नामांकन करते रहे.अतुल ने अगर कुछ लिखा तो जरूर नामांकन कराया-सबसे पहले .जीतेन्द्र भी ज्यादा पीछे नहीं रहते रहे.मैं लगभग अंत में जितने बचे ब्लाग होते थे उनका नामांकन कर देता था.
ब्लागमेला का फायदा यह मिला कि हमें शायद कुछ पाठक मिले.कुछ कलियां फूटीं.मेरा ख्याल है स्वामीजी जैसे साथी भी वहीं से हिंदी के चिट्ठे देखकर लिखने लगे.जो टिप्पणियां हैं वे खिन्न करने वाली हैं.इस लिहाज से अतुल का गुस्सा जायज है.पर गुस्से का अंदाज बता रहा है कि जैसे मिर्ची अतुल के ही लगी है और वही पूंछ रहे हैं-तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं.
भाई अतुल,यह पहली घटना नहीं है.इसके पहले भी एक शहजादी के नखरे हम देख चुके हैं.कुछ सूत्रवाक्य मेरा हमेशा साथ देते हैं.उनमें से एक है-जिसके जितनी अकल होती है वो उतनी बात करता है.तो जितनी अकल इनकी थी वैसी ही बात की इन्होंने.इसमें अपना खून काहे जलाते हो?फिर एक-दो लोग अगर बेवकूफी की बात करें तो सारी बिरादरी थोड़ी बेवकूफ हो जाती है.आगे किसी का कमेंट भी है-यह जानकारी दिलचस्प है कि हिंदी एक क्षेत्रीय भाषा है.लगता है कि कुछ ज्यादा ही आशा हम लगाये रहे ब्लागमेला से.तभी यह बात झटके की तरह लगी.
बहरहाल अतुलभाई,यह मानते हुये भी कि सारे अंग्रेजी ब्लागर सिरफिरे नहीं हैं,मैं तुम्हारी बात का समर्थन करता हूं और ब्लागमेला मेला में नामांकन बंद.किसी अंग्रेजी ब्लाग पर टिप्पणी न करना -यह बात ठीक नहीं लगती. इतना गुस्सा ठीक नहीं.थूक दो पिच्च से.बायीं तरफ.गुस्सा कमजोर आदमी का काम है.गांधीजी भी तो कहे हैं-पाप से घृणा करो,पापी से नहीं.बापूजी की बात मान लो. गुस्सा कमजोर आदमी का काम है .फिर अपने देवाशीष,पंकज,रवि,जीतेन्द्र,शैल,रमन,काली,स्वामी वगैरह के अग्रेजी ब्लाग भी तो हैं.मान जाओ.न हो तो श्रीमतीजी से सलाह ले लो.वे जरूर बतायेंगी कि हम ठीक कह रहे हैं.उनकी सहज बुद्धि पर हमें भरोसा है.
यहां तक तो बात मिर्ची लगने तक थी.अब जो यह मिर्ची लगी उसका किया क्या जाये?
भारतीयब्लागमेला(वर्तमान) का उपयोग तो सूचनात्मक/प्रचारात्मक होता है.किसी चीज को पटरा करने के दो ही तरीके होते हैं:-
1.उसको चीज को टपका दो(जो कि संभव नहीं है यहां)
2.बेहतर विकल्प पेश करो ताकि उस चीज के कदरदान कम हो जायें.
चूंकि हिंदी में ब्लाग कम लिखे जाते हैं अत:केवल हिंदी के लिये ब्लागमेला आयोजित करना फिजूल होगा.हां यह किया जा सकता है कि सभी भाषाओं के ब्लाग की साप्ताहिक समीक्षा की जाये.जो नामांकन करे उसकी तो करो ही जो न करे पर अगर अच्छा लिखा हो तो खुद जिक्र करो उसका और उसे सूचित करो ताकि वो हमसे जुड़ाव महसूस करे.तारीफ ,सच्ची हो तो,बहुत टनाटन फेवीकोल का काम करती है.है कि नहीं बाबू जीतेन्दर.तो शुरु करो तुरंत ब्लागमेला.
दूसरी बात ब्लागमैगजीन शुरु करने की है.इसे अविलंब शुरु किया जाये.तकनीकी जानकारी हमें नही है पर लगता है कि ज्ञानी लोग लगे हैं.जितनी जल्द यह हो सके उतना अच्छा.शुभस्य शीघ्रम.तारीख तय करो.26जनवरी या बसंतपचमी(निराला जयंती)तक हो पायेगा?कुछ बोलो यार अतुल,पंकज,देबू,जीतू तथा देवाधिदेव महाराज इंद्रकुमारजीअवस्थी.ब्लागजीन में भी चिट्ठाचर्चा हो सकती है.
झटकों में ऊर्जा होती है.उसका सदुपयोग किया जाना चाहिये.बात बोलेगी हम नहीं.ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते.पता नहीं अगली मिर्ची कब लगाये कोई.
पंकज ने मेरा नामांकन भी किया.इस मुरव्वत के लिये हम धन्यवाद भी न दे पाये.हम वह कैटेगरी खोजते रहे जिसके लिये नामांकन किया गया.बहरहाल अब हम शुक्रिया अदा करते हैं पंकजजी का.ज्यादा देर तो नहीं हुयी पंकज भाई!
हिंदी चिट्ठाजगत अभी शुरुआती दौर में है.आगे फले-फूलेगा.मैं सोचता हूं कि हिंदी का जितना साहित्य नेट पर लाया जा सकता है वह ले आया जाये. सूर,कबीर,तुलसी से शुरु करके.कैसे कर सकते हैं -बतायें ज्ञानीजन.
अतुल की देखादेखी मुझे भीसंस्मरन लिखास हो रही है.इंजीनियरिंग कालेज में थे तो हम तीन लोग साइकिल से भारतदर्शन करने गये थे.तीन महीने सड़क नापी.डायरी खोज के हम भी लिखना शुरु करते हैं-जिज्ञासु यायावर के संस्मरण.
मेरी पसंद
अंगारे को तुमने छुआ
और हाथ में फफोला नहीं हुआ
इतनी सी बात पर
अंगारे पर तोहमत मत लगाओ.
जरा तह तक जाओ
आग भी कभी-कभी
आपद्धर्म निभाती है
और जलने वाले की क्षमता देखकर जलाती है.
--कन्हैयालालनंदन
एक ढूढ़ो हजार मिलते हैं,
बच के निकलो टकरा के मिलते है.
ऐसे ही अतुल टकरा गये एक पागल आदमी से(वो खुद कहता है यह- हम नहीं).पूछा-तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं?अब वह बता ही नहीं रहा कि अतुल क्या करें.बहुत नाइंसाफी है.
अतुल ने अपनी बात रखी तुरंत कि कहीं फिर देरी का इल्जाम न लगा दे कोई.चौपाल पर रखी ताकि सब सुन सकें. रोजनामचा में इसे देख कर कितने दोस्त दुश्मन बनेगे कह नहीं सकता-यह पढ़कर लगा कि अतुल का मुंहफटपन कितना समझदार है.पत्नी की सलाहों का असर है लगता है.
ब्लागमेला मैंने जब देखा था तो मैंने भी काफी सोचा था.मुझे याद आयी थी अतुल की मेल जिसमें हिंदी के छा जाने का जिक्र था.फिर कुछ दिन हम श्रद्घापूर्वक सारे हिंदी के चिट्ठों का नामांकन करते रहे.अतुल ने अगर कुछ लिखा तो जरूर नामांकन कराया-सबसे पहले .जीतेन्द्र भी ज्यादा पीछे नहीं रहते रहे.मैं लगभग अंत में जितने बचे ब्लाग होते थे उनका नामांकन कर देता था.
ब्लागमेला का फायदा यह मिला कि हमें शायद कुछ पाठक मिले.कुछ कलियां फूटीं.मेरा ख्याल है स्वामीजी जैसे साथी भी वहीं से हिंदी के चिट्ठे देखकर लिखने लगे.जो टिप्पणियां हैं वे खिन्न करने वाली हैं.इस लिहाज से अतुल का गुस्सा जायज है.पर गुस्से का अंदाज बता रहा है कि जैसे मिर्ची अतुल के ही लगी है और वही पूंछ रहे हैं-तुझे मिर्ची लगी तो मैं क्या करूं.
भाई अतुल,यह पहली घटना नहीं है.इसके पहले भी एक शहजादी के नखरे हम देख चुके हैं.कुछ सूत्रवाक्य मेरा हमेशा साथ देते हैं.उनमें से एक है-जिसके जितनी अकल होती है वो उतनी बात करता है.तो जितनी अकल इनकी थी वैसी ही बात की इन्होंने.इसमें अपना खून काहे जलाते हो?फिर एक-दो लोग अगर बेवकूफी की बात करें तो सारी बिरादरी थोड़ी बेवकूफ हो जाती है.आगे किसी का कमेंट भी है-यह जानकारी दिलचस्प है कि हिंदी एक क्षेत्रीय भाषा है.लगता है कि कुछ ज्यादा ही आशा हम लगाये रहे ब्लागमेला से.तभी यह बात झटके की तरह लगी.
बहरहाल अतुलभाई,यह मानते हुये भी कि सारे अंग्रेजी ब्लागर सिरफिरे नहीं हैं,मैं तुम्हारी बात का समर्थन करता हूं और ब्लागमेला मेला में नामांकन बंद.किसी अंग्रेजी ब्लाग पर टिप्पणी न करना -यह बात ठीक नहीं लगती. इतना गुस्सा ठीक नहीं.थूक दो पिच्च से.बायीं तरफ.गुस्सा कमजोर आदमी का काम है.गांधीजी भी तो कहे हैं-पाप से घृणा करो,पापी से नहीं.बापूजी की बात मान लो. गुस्सा कमजोर आदमी का काम है .फिर अपने देवाशीष,पंकज,रवि,जीतेन्द्र,शैल,रमन,काली,स्वामी वगैरह के अग्रेजी ब्लाग भी तो हैं.मान जाओ.न हो तो श्रीमतीजी से सलाह ले लो.वे जरूर बतायेंगी कि हम ठीक कह रहे हैं.उनकी सहज बुद्धि पर हमें भरोसा है.
यहां तक तो बात मिर्ची लगने तक थी.अब जो यह मिर्ची लगी उसका किया क्या जाये?
भारतीयब्लागमेला(वर्तमान) का उपयोग तो सूचनात्मक/प्रचारात्मक होता है.किसी चीज को पटरा करने के दो ही तरीके होते हैं:-
1.उसको चीज को टपका दो(जो कि संभव नहीं है यहां)
2.बेहतर विकल्प पेश करो ताकि उस चीज के कदरदान कम हो जायें.
चूंकि हिंदी में ब्लाग कम लिखे जाते हैं अत:केवल हिंदी के लिये ब्लागमेला आयोजित करना फिजूल होगा.हां यह किया जा सकता है कि सभी भाषाओं के ब्लाग की साप्ताहिक समीक्षा की जाये.जो नामांकन करे उसकी तो करो ही जो न करे पर अगर अच्छा लिखा हो तो खुद जिक्र करो उसका और उसे सूचित करो ताकि वो हमसे जुड़ाव महसूस करे.तारीफ ,सच्ची हो तो,बहुत टनाटन फेवीकोल का काम करती है.है कि नहीं बाबू जीतेन्दर.तो शुरु करो तुरंत ब्लागमेला.
दूसरी बात ब्लागमैगजीन शुरु करने की है.इसे अविलंब शुरु किया जाये.तकनीकी जानकारी हमें नही है पर लगता है कि ज्ञानी लोग लगे हैं.जितनी जल्द यह हो सके उतना अच्छा.शुभस्य शीघ्रम.तारीख तय करो.26जनवरी या बसंतपचमी(निराला जयंती)तक हो पायेगा?कुछ बोलो यार अतुल,पंकज,देबू,जीतू तथा देवाधिदेव महाराज इंद्रकुमारजीअवस्थी.ब्लागजीन में भी चिट्ठाचर्चा हो सकती है.
झटकों में ऊर्जा होती है.उसका सदुपयोग किया जाना चाहिये.बात बोलेगी हम नहीं.ऐसे अवसर बार-बार नहीं आते.पता नहीं अगली मिर्ची कब लगाये कोई.
पंकज ने मेरा नामांकन भी किया.इस मुरव्वत के लिये हम धन्यवाद भी न दे पाये.हम वह कैटेगरी खोजते रहे जिसके लिये नामांकन किया गया.बहरहाल अब हम शुक्रिया अदा करते हैं पंकजजी का.ज्यादा देर तो नहीं हुयी पंकज भाई!
हिंदी चिट्ठाजगत अभी शुरुआती दौर में है.आगे फले-फूलेगा.मैं सोचता हूं कि हिंदी का जितना साहित्य नेट पर लाया जा सकता है वह ले आया जाये. सूर,कबीर,तुलसी से शुरु करके.कैसे कर सकते हैं -बतायें ज्ञानीजन.
अतुल की देखादेखी मुझे भीसंस्मरन लिखास हो रही है.इंजीनियरिंग कालेज में थे तो हम तीन लोग साइकिल से भारतदर्शन करने गये थे.तीन महीने सड़क नापी.डायरी खोज के हम भी लिखना शुरु करते हैं-जिज्ञासु यायावर के संस्मरण.
मेरी पसंद
अंगारे को तुमने छुआ
और हाथ में फफोला नहीं हुआ
इतनी सी बात पर
अंगारे पर तोहमत मत लगाओ.
जरा तह तक जाओ
आग भी कभी-कभी
आपद्धर्म निभाती है
और जलने वाले की क्षमता देखकर जलाती है.
--कन्हैयालालनंदन
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