किसी विषय पर लिखने के पहले उसकी परिभाषा देने का रिवाज है.हम लिखने जा रहे हैं -प्यार पर.कुछ लोग कहते हैं-प्यार एक सुखद अहसास है.पर यह ठीक नहीं है.प्यार के ब्रांड अम्बेडर लैला मजनू ,शीरी -फरहाद मर गये रोते-रोते.यह सुखद अहसास कैसे हो सकता है?
सच यह है कि जब आदमी के पास कुछ करने को नहीं होता तो प्यार करने लगता है.इसका उल्टा भी सही है-जब आदमी प्यार करने लगता है तो कुछ और करने लायक नहीं रहता .प्यार एक आग है.इस आग का त्रिभुज तीन भुजाओं से मुकम्मल होता है. जलने के लिये पदार्थ (प्रेमीजीव), जलने के लिये न्यूनतम तापमान(उमर,अहमकपना) तथा आक्सीजन(वातावरण,मौका,साथ) किसी भी एक तत्व के हट जाने पर यह आग बुझ जाती है.धुआं सुलगता रहता है.कुछ लोग इस पवित्र 'प्रेमयज्ञधूम' को ताजिंदगी सहेज के रखते हैं .बहुतों को धुआं उठते ही खांसी आने लगती है जिससे बचने के लिये वे दूसरी आग जलाने के प्रयास करते हैं.इनके लिये कहा है नंदनजी ने:-
अभी मुझसे फिर उससे फिर किसी और से
मियां यह मोहब्बत है या कोई कारखाना.
इजहारे मोहब्बत बहुत अहम भूमिका अदा करता है प्रेमकहानी की शुरुआत में.वैसे हमारे कुछ मित्रों का कहना है कि आदमी सबसे बड़ा चुगद लगता है जब वह कहता है-मैं तुम्हें प्यार करता हूं.लोग माने नहीं तो बहुमत के दबाव में संसोधन जारी हुआ-सबसे बड़ा चुगद वह होता है जो प्यार का इजहार नहीं कर पाता.प्रेमपीड़ित रहता है.पर न कर पाता है ,न कह पाता है.
बहुतों से प्यार किया हमनें जिंदगी में.बहुतों का साथ चाहा.बेकरारी से इंतजार किया.संयोग कुछ ऐसा कि ये सारे 'बहुत'नरपुंगव रहे.मादा प्राणियों में दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं याद आता जिस पर हम बहुत देर तक लटपटाये हो.'चुगदावस्था'ने हमारे ऊपर स्पर्शरेखा तक नहीं डाली.
किसी का साथ अच्छा लगना और किसी के बिना जीवन की कल्पना न कर पाना दो अलग बातें है.हमारी आंख से आजतक इस बात के लिये एक भी आसूं नहीं निकला कि हाय अबके बिछुड़े जाने कब मिलें.किताबों में फूल और खत नहीं रखते थे कभी काहे से कि जिंदगी भर जूनियर इम्तहान होते ही किताबें अपनी बपौती समझ के ले जाते रहे.कोई तिरछी निगाह याद नहीं आती जो हमारे दिल में आजतक धंसी हो:-
तिरछी नजर का तीर है मुश्किल से निकलेगा
गर दिल से निकलेगा तो दिल के साथ निकलेगा.
जैसा कि हर ब्लागर होता है हम भी अच्छे माने जाते थे पढ़ने में तथा एक अच्छे लड़के के रूप में बदनाम थे. ज्यादा अच्छाई का बुरा पहलू यह होता है कि फिर और सुधार की संभावनायें कम होती जाती हैं.यथास्थिति बनाये रखने में ही फिचकुर निकल जाता है.जबकि खुराफाती में हमेशा सुधार की गुंजाइस रहती है.तो हमसे भी दोस्त तथा कन्यायें पूछा-पुछौव्वल करती थे.दोस्त सीधे तथा कन्याराशि द्वारा उचित माध्यम (भाई,सहेली जो कि हमारेदोस्तकीबहन होती थीं)हम भी ज्ञान बांटते रहे -बिना छत,तखत तथा टीन शेड के.कभी-कभी उचितमाध्यम की दीवार तोड़ने की कोशिश की भी तो पर टूटी नहीं .शायद अम्बुजा सीमेंट की बनी थी.
हम उस जमाने की पैदाइस हैं जब लगभग सारे प्रेम संबंध भाई-बहन के पवित्र रिश्ते से शुरु होते थे.बहुत कम लोग राखी के धागे को जीवन डोर में बदल पाते.ज्यादातर प्रेमी अपनी प्रेमिका के बच्चों के मामा की स्थिति को प्राप्त होते.आजकल भाई-बहन के संबंध बरास्ता कजिन होते हुये दोस्ती के मुकाम से शुरु होना शुरु हुये है.पर एक नया लफड़ा भी आया है सामने.अच्छाभला "हम बने तुम बने एक दूजे के लिये"गाना परवान चढ़ते-चढ़ते "बहना ने भाई की कलाई पर प्यार बांधा है"का राग अलापने लगता है.
बहलहाल इंटरमीडियेट के बाद हम पहुंचे कालेज. कालेज वो भी इंजीनियरिंग कालेज-हास्टल समेत.करेला वो भी नीम चढ़ा.ऐसे में लड़को की हालत घर से खूंटा तुड़ाकर भागे बछड़े की होती है जो मैदान में पहुंचते ही कुलांचे मारने लगता है.
हास्टल में उन दिनों समय और लहकटई इफरात में पसरी रहती थी.फेल होने में बहुत मेहनत करनी पड़ती थी. जिंदगी में पहली बार हमारी कक्षाओं में कुर्सी,मेज,किताब,कापी, हवा,बिजली के अलावा स्त्रीलिंग के रूप में सहपाठिनें मिलीं.
हमारे बैच में तीन सौ लोग थे.लड़कियां कुल जमा छह थी.तो हमारे हिस्से में आयी 1/50.हम संतोषी जीव . संतोष कर गये.पर कुछ दिन में ही हमें तगड़ा झटका लगा.हमारे सीनियर बैच में लड़कियां कम थीं.तो तय किया गया लड़कियों का समान वितरण होगा.तो कालेज की 10 लड़कियां 1200 लड़कों में बंट गयीं.बराबर-बराबर.हमारे हिस्से आयी 1/120 लड़की .इतने में कोई कैसे प्यार कर सकता है?बकौल राजेश-नंगा क्या नहाये क्या निचोड़े.
संसाधनो की कमी का रोना रोकर काम रोका जा सकता था. पर कुछ कर्मठ लोग थे.हिम्मत हारने के बजाये संभावनायें तलासी गयीं.तय हुआ कि किसी लड़की से टुकड़ों-टुकड़ों में (किस्तों में)तो प्यार किया जा सकता है पर टुकड़ा-टुकड़ा हो चुकी लड़की से नहीं.सो सारी लड़कियों के टुकड़ों को जोड़कर उन्हें फिर से पूरी लड़की में तब्दील किया गया. छोड़ दिया गया उन्हें स्वतंत्र.अब कोई भी बालक किसी भी कन्या का चुनाव करके अपनी कहानी लिखा सकता था.ब्लागस्पाट का टेम्पलेट हो गयीं कन्यायें.
हमारी ब्रांच में जो कन्या राशि थी उसमें उन गुणों का प्रकट रूप में अभाव था जिनके लिये कन्यायें जानी जाती हैं.नजाकत,लजाना,शरम से गाल लाल हो जाना,नैन-बैन-सैन रहित .बालिका बहादुर,बिंदास तथा थोड़ा मुंहफट थी. उंची आवाज तथा ठहाके 100 मीटर के दायरे में उसके होने की सूचना देते.अभी कुछ दिन पहले बात की फोन पर तो ठहाका और ऊंची आवाज मेंकोई कमी नहीं आयी है.कुछ बालकगणों ने घबराकर उसे लड़की मानने से ही इंकार कर दिया.हाय,कहीं ऐसी होती हैं लड़कियां.न अल्हड़ता,न बेवकूफी,न पढ़ने में कमजोर .उस सहपाठिन ने जब कानपुर में नौकरी ज्वाइन की तो मोटर साइकिल से आती-जाती.कानपुर में 15 साल पहले मोटर साइकिल से लड़की का चलना कौतूहल का विषय था.लड़के दूर तक स्वयं सेवको की तरह एस्कार्ट करते.
कालेज में एक समस्या अक्सर आती.साल-छह माह में कोई बालक-बालिका प्रेम की गली में समा जाते.चूंकि प्रेम की गली बहुत संकरी होती है. दो लोग एक साथ समा नहीं सकते लिहाजा एक हो जाते.प्रति बालक-बालिका औसत और नीचे गिर जाता.बाद के दिनों में कन्यायें कुछ इफरात में आयीं लिहाजा बालक-बालिका औसत कुछ बेहतर हुआ.
परोपकाराय सतां विभूतय: की भावना वाले लोग हर जगह पाये जाते है.शादी.काम तो आज की बात है.उन दिनों प्रेमी.काम का जमाना था.लोग रुचि,गुण,स्वभाव,समझ में 36 के आंकडे वाले लड़के-लड़की में प्रेम करा देते.फेक देते प्रेम सरोवर में.कहते तुम्हें पता नहीं पर तुम एक दूसरे को बहुत चाहते हो.मरता क्या न करता-लोग भी जन भावना का आदर करके मजबूरी में प्यार करते.
इसी जनअदालत में फंस गया हमारा एक सिंधी दोस्त.बेचारा लटका रहा प्रेम की सूली पर तीन साल.आखिर में उसे उबारा उसी के एक दोस्त ने.जिस लड़की को वह भाभी माने बैठा था उसको पत्नी का दर्जा देकर उसने अपने मित्र की जान बचाई.एक दोस्त और कितनी बड़ी कुर्बानी कर सकता है दोस्त के लिये.
हमारे ऊपर कम मेहरबान नहीं रहे हमारे मित्र.हमें हमारे प्रेम का अहसास कराया.पर हमने जब भी देखना चाहा प्यार के आग के त्रिभुज की कोई न कोई भुजा या तो मिली नहीं या छोटी पढ़ गयी.गैर मुकम्मल त्रिभुज की भुजायें हमारा मुंह चिढ़ाती रहीं.
-बाकी अगली पोस्ट में
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जय हो गुरूदेव , क्या लिखा है| पटुष के बाद यह अगला झकास आईटम निकला| ब्लागस्पाट के टेम्पलेट से लड़कियों के तुलना , मजा आ गया|
ReplyDeleteअनूप भाई
ReplyDeleteधृष्टता के लिए क्षमा कीजिएगा| मैने ब्लागमेला से अपना नामांकन वापस ले लिया है| पर मैं चिठ्ठा चर्चा का प्रबल समर्थक हूँ| यदाकदा मैं भी अंग्रेजी चिठ्ठो की समीक्षा लिखूँगा| मेरे विचार से चिठ्ठा चर्चा और बुनो कहानी दोनो को प्रस्तावित ब्लागजीन में समाहित कर देना चाहिए|
धृष्टता की कोई बात ही नहीं बंधुवर.ऐसे लेख जनता की संपत्ति होते हैं.हमने नामांकन किया तुमने वापस ले लिया.बात बराबर हो गयी.अब आगे कुछ और अंग्रेजी मत लिखना.हालांकि मैने लिखा था नामांकन बंद पर प्रसेन का रुख देखकर मुझे लगा कि अच्छे लेख सबकी नजर में आने चाहियें.बहरहाल,जहां तक चिट्ठाचर्चा का सवाल है वह केवल तुम्हारी प्रतिक्रया पढ़ के शुरु किया गया .जैसा सब कहेंगे वैसा कर लूंगा मैं.सहयोग तो हम देख रहे हैं कितना मिल रहा है.सब जलेबी,मिठाई खाने में जुटे हैं यहां अंग्रेजी पढ़ते-पढ़ते खोपड़ी भन्ना गयी.
ReplyDeleteadarniya shuklaji,
ReplyDeleteaapki lekhani mein anekon rang hain. lekin jab baat hasyaras ki aati hai to aapka jabab nahin. bhagwan nein aapki lekhni ko abhiyakti ki bharpur shakti di hai. aasha hai aapka lekhan hindi blogs ke asman mein hamesha ujjwal nachhtron ki bhanti chamakta rahega. apke lekhan ki dhara hamesha ganga nadi ki tarah prawahit hoti rahe jisse hum sabhi hindi blogpremi sinchit hote rahen aur aanand ras ka pan karte rahein.
aapke blog par aab kuch baat. aapka lekh prem par us commenteter ki tarah lagta hai jisne khel ko hamesha duur se dekha par khelne ka anand(ya kasht) kabhi nahin uthaya. bandhu, khel par comment karna ek baat hai aur khelne ka sukh pana alag. agar sambhav ho to abbhi us duniyan mein pag badhakar(agar bhabhiji naraj na hon tub) prem ras mein dubki lagakar kuch likhen to baat kuch aur hi hogi.
aasha hai meri baaton ko aap anyatha nahin lenge.aapki rachnaon ka main hamesha pathak rahan hoon aur hamesha rahunga. aapki aagli rachna ki pratiksha mein,
aapka ek prashanshak
क्या बात है, आजकल तुम्हारे अन्जान प्रशंसक बहुत बन गये है?
ReplyDeleteजीते रहो मिंया,लेख तो बढिया लिखे हो, अब इसका पोस्टमार्टम भी हमे करना पड़ेगा......चलो जल्दी ही तुम्हारा और देबाशीष भइया की रचना को शामिल कर दिये देते है, अपने अनुगूँज मे.
प्रशंसकजी,ई 'परदाप्रशंसा' ठीक नहीं.नाम,पता लिख देते तो अच्छा रहता.जीतेन्दर सवाल तो न उछालते.वैसे आप भी मुझे
ReplyDeleteपरोपकारी जीव लगते हैं जो लोगों को 'प्रेमसरोवर' में फेंक के तालियां बजाते रहते हैं.मुझे भी उकसा रहे हैं.बहरहाल मैंने अगली पोस्ट में बाकी बातें लिखने की बात पहले ही लिखी है.देखना है कि आपके जाल में फंसते हैं कि बचते हैं.
गुरूदेव
ReplyDeleteअगला भाग लिखने के चक्कर में बुनो कहानी भाग तीन न भूल जाईयेगा| अगर हमारी जानकारी सही है तो आप ही पटाक्षेप करने वाले हैं ईस कहानी का| मैने तो टिवस्ट दे दिया जीतू भईया की कहानी को| पंकज तो पहला पैरा मुझे देकर अगली कहानी में लग गये| अब हम सब साथस रोककर ईंतजार कर रहे है कि आप कौनसे रस का समावेश करेंगे विभा , छाया और रवि की पति पत्नी और वो वाली कहानी में|
बंधुवर,परेसान न हों.सबका ख्याल रखा जायेगा.पति का भी,पत्नी का भी तथा उनका भी.अगली पोस्ट तो आयेगी ही.क्या आता है वह समय बतायेगा.
ReplyDelete"बहुतों से प्यार किया हमनें जिंदगी में.बहुतों का साथ चाहा.बेकरारी से इंतजार किया.संयोग कुछ ऐसा कि ये सारे 'बहुत' नरपुंगव रहे.मादा प्राणियों में दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं याद आता जिस पर हम बहुत देर तक लटपटाये हो.'चुगदावस्था'ने हमारे ऊपर स्पर्शरेखा तक नहीं डाली."
ReplyDeleteकोई शिकायत नही है, आप को आपकी जीवन-शैली मुबारक - हमे क्या लेना देना. सब कयामत के आसार हैं! राम राम राम घोर कलजुग!! वगैरह वगैरह!!!
बहुतै सही लिखे हो बंधू, हमरे मामला में तो त्रिभुज की एकै भुजा रही, वाहौ आधी, तो ऐसन मा त्रिभुज कैसे पूरो होत। अपन किस्मत है। कोई कोई लोग तो और भी मुश्किल आकार बना लेते हैं, एक बार में कई सारे प्रेम करके।
ReplyDeleteस्वामी जी
ReplyDeleteमादा प्राणियों को छोड़ आप जैसे लोग नर प्राणियों पर क्यों लटपटाते रहते हैं?
कांता बेन