Friday, January 27, 2006

बिहार वाया बनारस

http://web.archive.org/web/20110926115601/http://hindini.com/fursatiya/archives/102

[हम इधर आशीष को शादी करने लिये उकसा रहे हैं उधर वे हमें साइकिल यात्रा लिखने के लिये कोंच रहे हैं। कालीचरन भी आशीष की आवाज में हवा भर रहे हैं। तो पढ़ा जाये किस्सा यायावरी का।]

बनारस से बाद में भी संपर्क बना रहा। तमाम यादें भी जुड़ीं। जब हम बाद में बनारस पढ़ने के लिये गये तो हमारे पास समय इफरात में था। हमने पूरा समय मौज-मजे में गुजारा वहां।बनारस ,खासकर ‘लंकेटिंग’ की कुछ झलकियांकाशीनाथ सिंह के जनवरी के हंस में पढ़ सकते हैं।

बनारस का ही एक वाकया याद आ रहा है। हम एम टेक में पढ़ रहे थे। नौकरी के लिये इंटरव्यू कम्पटीशन वगैरह के लिये भी तैयारी करते रहते थे। गुरुओं से संबंध कुछ दोस्ताना सा हो गया था। कुछ गुरुजन तो अबे-तबे की अनौपचारिकता तक आ गये थे। चाय,पान-वान के लिये भी पूछा-पुछउवल होने लगी थी। लेकिन यह तो बाद की बात है।

शुरू के दिनों की बात है। हमें एम टेक में स्कालरशिप मिलती थी।उन दिनों एक हजार रुपये महीना।घर से पैसे आने बंद हो गये थे कि अब तो खर्चा खुदै चलायेगा विद्यार्थी। लेकिन पहली स्कालरशिप मिलने में देर हो गई। हमारे पास के पैसे खतम होने लगे।हम रोज जाते क्लर्क के पास लेकिन बाबूजी बहुत दिन तक सफलता पूर्वक टालते रहे।

एक दिन कुछ ज्यादा ही हो गया। पूछने पर पता नहीं क्या बाते हुईं याद नहीं लेकिन बात बहस के पाले में चली गई तथा बाबू जी के मुंह से निकला -”हम आपके नौकर नहीं हैं।

यह सुनते ही हमारे बलियाटिक साथी यादवजी का धैर्य चुक गया। वे दहाड़ते हुये से बोले-
"सुनो,तुम हमारे नौकर हो और वो सामने वाले कमरे में जो हेड आफ डिपार्टमेंट बैठे हैं वो भी हमारे नौकर हैं।"
समझने में कोई कमी न रह जाये इसलिये यादव ने अपनी बात का ‘हिंदी अनुवाद’ भी करके करके बताया-
“हम यहां इस लिये नहीं पढ़ने आते हैं कि तुम यहां नौकरी करते हो। तुम्हें नौकरी यहां इसलिये मिली है क्योंकि हम यहां पढ़ते हैं। हमारे लिये तुम रखे गये हो।हम तुम्हारे लिये नहीं आये हैं।”

कहना न होगा कि इस व्याख्या का तुरंत लाभ हुआ। हमें अगले दिन अपनी स्कालरशिप मिल गई।
तबसे से हम हजारों बार लोगों का यादवजी का उल्लेख करके बता चुके हैं- संस्था के लिये कर्मचारी रखे गये हैं। कर्मचारियों के लिये उत्पादन संस्था नहीं खुली है।

घटना की शाम जब हम हल्ले-गुल्ले के परिणाम के बारे में आशंकायें जता रहे थे तब यादवजी ने सैंकड़ों बार सुनाया सुभाषित हमें फिर से झिला दिया-

"बलिया जिला घर बा ,त कउन बात के डर बा।"
मालवीय पुल से गंगा नदी
मालवीय पुल से गंगा नदी
बनारस से हम सबेरे ही नास्ता करके चल दिये।बनारस की संकरी गलियां दिन चढ़ने के साथ भीड़ भरी होने लगती हैं। थीं।बीएचयू से हमारा रास्ता गंगा के किनारे की सामान्तर सड़क से था। इसी के किनारे तमाम मंदिर बने हैं।सबेरा होने के कारण मंदिरों से शंख-घंटे-घड़ियाल की आवाजें आ रहीं बाबा विश्वनाथ मंदिर भी यहीं बना है। मध्यकाल में यह मंदिर अलाउद्दीन खिलजी ने तुड़वा कर इसके सामने मस्जिद बनवा दी थी।बाद में मंदिर का पुनर्निमाण कराया गया।मंदिर-मस्जिद आमने -सामने होने के कारण तथा तोड़-फोड़ के इतिहास के कारण त्योहारों-पर्वों पर यहां तनाव तथा चौकसी बढ़ जाती है।

इसीलिये हमारे कनपुरिया शायर-गीतकार अंसार कम्बरी कहते हैं:-
शायर हूँ कोई ताजा गज़ल सोच रहा हूँ,
मस्जिद में पुजारी हो मंदिर में मौलवी,
हो किस तरह मुमकिन ये जतन सोच रहा हूँ।
जीटी रोड पर बनारस से निकलकर हम मालवीय पुल पर आ गये। वहां से गंगा को फिर से देखा। शहर के सारे घाटों को गोलाई में समेटे गंगा पुल के नीचे बह रही थीं। सबेरे का समय।हल्के बादल छाये थे। घाट बहुत खूबसूरत लग रहे थे। गंगा को देखकर हमें कविता पंक्तियां याद आ रहीं थीं:-

लहरे उर पर कोमल कुंतल,लहराता ताल तरल सुंदर।
मनोरम दृश्यदेखकर मन कर रहा था कि यहीं रुके रहें। लेकिन रुकना हमारा धर्म नहीं है। यात्रा ही हमारी मंजिल है(पंकज बाबू नोट करें कि ये डायलाग हमने २३ साल पहले डायरी में लिखा था । किसी शहजादी से टोपा नहीं था। सवारी का अंतर जरूर है।उसमें हम क्या कर सकते हैं!)

कुछ दूर जाने पर बारिश शुरू हो गयी । हमने अपने रेनकोट निकाल लिये। पहली बार प्लास्टिक के रेनकोट का उपयोग होने जा रहा था। जहां हम रेनकोट पहन रहे थे वहीं एक उत्साही सज्जन ने हमें रोककर चाय पिलाई।उनसे विदा लेकर हम मुगलसराय रेलवे स्टेशन देखने गये।

स्टेशन देखकर गोलानी बोला-यहां देखने को है क्या? पास में खड़ा एक टैक्सी ड्राइवर यह सुनकर उदास हो गया। वह फिर काफी देर तक मुगलसराय की खासियत बताता रहा।

स्टेशन पर तमाम जगह लिखा था-बिना टिकट यात्रा उन्मूलन हमारा उद्देश्य है। हमें लगा हम लोग उन्मूलन को उन्मूलित करके बिना टिकट यात्रा का उद्देश्य पूरा करने में जुटे रहते हैं।

मुगलसराय स्टेशन से २६ किमी दूर उप्र की सीमा समाप्त हो गई। हम बिहार में प्रवेश करने वाले थे।

राज्य सीमा पर

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जिंदगी में पहली बार अपने प्रदेश से बाहर दूसरे प्रदेश में प्रवेश कर रहे थे।बिहार के बारे में हमारे नकारात्मक बातें हमने सुन रखीं थी। तमाम चुटकुले। तमाम कमियां। सबसे बदहाल राज्य । आजादी के बाद का सबसे कुशल प्रशासन वाला राज्य भ्रष्टाचार,अशिक्षा,गुंडागर्दी,भाई-भतीजावाद,जातिवाद के लिये बदनाम हो चुका था।

बिहार में घुसते ही हमें वहां की हालत का अंदाजा होने लगा।सड़कें हेमामालिनी के गाल की चिकनेपन से बहुत दूर मुहांसों -चेचक के गढ्ढों से युक्त थीं। हमारे सामने एक प्राइवेट बस रुकी। लोग उसमें चढ़ने के लिये लपके। पहले छत पर बैठे । जब बस की छत पूरी तरह से ठसाठस भर गई तब बची सवारियां मजबूरन अंदर बैठीं।

बिहार की बस

बिहार की बस
सड़क के दोनों तरफ कैमूर की पहाड़ियां फैली हुईं थीं। ज्यों-ज्यों हम सासाराम के नजदीक आते जा रहे थे,पहाड़ियां साफ होती जा रहीं थीं। अभी तक हम बिहार में हम जितने भी लोगों से मिले थे उन सबका व्यवहार हमारे प्रति बहुत अच्छा था। लेकिन सब लोग हमें आगे संभलकर रहने की हिदायत दे रहे थे । रास्ते में ढोर (जानवर)चराने वाले तमाम छोटे-छोटे बच्चे मिले। पढ़ने- लिखने की उमर में बच्चे स्कूल का मुंह देखने से वंचित जानवर चरा रहे थे। देखकर दुख हुआ।
कुछ सालों पहले सरकार ने यह अनौपचारिक शिक्षा परियोजना के नाम से एक योजना चलाई थी। इसके तहत अनुदेशकों की मानदेय पर नियुक्ति हुई थी। यह योजना थी कि जो बच्चे किसी कारणवश स्कूल नहीं जा पाते तथा काम-धाम करने करने लगते हैं उनको उनके कार्यस्थल के पास ही दिन में उनकी सुविधानुसार दो घंटे पढ़ाया जाये। किताबें,कागज आदि सब मुफ्त में था। दो साल बाद कक्षा पांच के समकक्ष शिक्षा देने की योजना थी।

अन्य तमाम योजनाओं की तरह यह योजना भी अफसल साबित हुयीं जिनलोगों को इसके कार्यान्वयन के लिये चयकित किया गया था उन्होंने नाम के अनुरूप पढ़ाने की कोई औपचारिकता नहीं दिखाई।अंतत: विश्वबैंक ने योजना की गति देखकर अनुदान देना बंद कर दिया तथा योजना भी हो गई।

शाम होते-होते हम सासाराम पहुंच गये। वहां हम सिंचाई विभाग के अतिथि गृह में रुके। उन दिनों सासाराम तीन बातों के लिये जाना जाता था।

1.जगजीवन राम का चुनाव क्षेत्र
2.रोहतास जिले का व्यवसायिक केंद्र
3. अफगान शासक शेरशाह सूरी का मकबरा

इस सूची में वहां के निवासियों ने दो बातें और जोड़ ली थीं- मच्छर तथा बरसात।
शेरशाह का मकबरा

शेरशाह का मकबरा
शेरशाह का मकबरा पत्थरों से बना है। मकबरे के चारो तरफ हरे जल(काई के कारण) तालाब,तालाब में कमल के फूल तथा तालाब को चारो तरफ से घेरे मखमली दूब इस इमारत की शोभा में बढ़ोत्तरी कर रही थीं। मकबरे के सबसे ऊपरी सिरे से पूरा सासाराम साफ दिखाई देता है।

शेरशाह सूरी के मकबरे को देखते समय हम सोच रहे थे कि कैसा रहा होगा यह शासक जिसने कलकत्ते से पेशावर तक राजमार्ग बनवाया जिसपर चलते हुये हम यहां तक पहुंचे। आज सैकडों साल बाद जिस राजमार्ग को चौड़ा करवाने में सरकारें तमाम साधनों के बावजूद रोने लगती हैं उसको पहली बार बनवाने में तमाम युद्धों से निपटते हुये बनवाने में शेरशाह को कितना मेहनत लगी होगी?

आज लिखते हुये यह भी सोच रहा हूं कि कितने दुबे (सत्यदेव दुबे स्वर्णचतुर्भुज योजना में इंजीनियर थे जो सड़क निर्माण में अनियमितता को रोकने के कारण मारे गये।)जैसे लोग खपे होंगे!
सासाराम से अगले दिन हम गया को लिये चल दिये।

मेरी पसंद

एक आदमी रोटी बेलता है,
एक आदमी रोटी सेंकता है,
एक तीसरा भी है,
जो न रोटी बेलता है न सेंकता है
वह रोटिंयों से खेलता है
मैं पूछता हूँ-
यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।

-धूमिल

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

7 responses to “बिहार वाया बनारस”

  1. प्रत्यक्षा
    हमलोग सासाराम में साल भर रहे हैं. घर के गेट से सीधा रास्ता शेरशाह के मकबरे को जाता था और वहीं खडे खडे भी गुम्बद नज़र आता था.तस्वीर देख कर पुराने दिन याद आये.
    प्रत्यक्षा
  2. प्रत्यक्षा
    हमलोग सासाराम में साल भर रहे हैं. घर के गेट से सीधा रास्ता शेरशाह के मकबरे को जाता था और वहीं खडे खडे भी गुम्बद नज़र आता था.तस्वीर देख कर पुराने दिन याद आये.
    प्रत्यक्षा
  3. अतुल
    एक बार सासाराम पर रामविलास पासवान भी टीवी पर कोई कविता सुना रहे थे जो अब याद नही।
  4. फ़ुरसतिया » हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती
    [...] कहां बदी थी यायावरी। गया के मच्छर सासाराम के मच्छरों से भी जबर थे। उनसे खून � [...]
  5. Rajiv Sinha
    Main Sasaram ka hi rahnewala hu. Naukri-chakri ke chackkar me itna door aa gaya ki, 5-6 sal se phir jana nahi ho pa raha hai. Kuch tasviron se kuch lekhak ke sansamarno se phir yaad aa gaya ek bar phir hamara Sasaram.
  6. Devendra
    राजीव भाई, पता नहीं की आप वोही बल विकास वाले हैं. हमें तो सासाराम बहुत भाता है. बिहार तो यूं ही बदनाम है, पर बहार आकार पता चलता है की हम कितने सरीफ हैं. लोग बईमानी की बात करतें है, पर बहार जाकर देखो की बिहार के लोग कितने सरीफ हैं. कम से कम हम नारी की इग्गत करतें हैं. बिहार Jindabad
  7. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
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