Saturday, June 24, 2006

अमरीकी और उनके मिथक

http://web.archive.org/web/20110101192748/http://hindini.com/fursatiya/archives/147

अमरीकी और उनके मिथक

पिछले दिनों एक सर्वे में मुंबई को विश्व के सबसे बदतमीज शहरों में से एक माना गया। वहीं न्यूयार्क को सबसे सबसे ज्यादा तमीजदार शहरों में माना गया। अब ये सर्वे तो आपके हाथ की चीज होते हैं। सबमें ‘उलट/पलट अभियांत्रिकी’ (रिवर्स इंजीनियरिंग) होती है। आपको अगर साबित करना है कि दुनिया में जवाहरलाल नेहरू के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं तो अमेरिका के किसी ‘क्रच’ के बच्चों से पूछ लो। पचास में पचासों बच्चे कंधे उचका देंगे । फिर आप छाप दो अमेरिका में हुये सर्वे के मुताबिक वहाँ नेहरू को कोई नहीं जानता। हर दूसरे दिन ब्वायफ्रेंड बदलने वाले समाज के यौन रुचि के आंकडे़ आप छत्तीसगढ़ के किसी अखबार में प्रकाशित कर दो -लड़कियां अब मुखर हो रहीं हैं। अधिकांश शादी के पहले यौन सुख को बुरा नहीं मानतीं।
इसी तरह के तमाम अधपके सर्वे हमारी रुचि तथा कौतूहल अमेरिका के बारे में बढ़ाते हैं। हमारे तमाम ब्लागर दोस्त अमेरिका में हैं लेकिन कुछ ऐसा है कि वे वहां के जीवन के बारे में उतनी बेबाकी से नहीं लिखते। लिखते हैं तो वहां के झूलों के बारे में,पार्किंग समस्या के बारे में या खरीद के विवरण। लिहाजा हमारा कौतूहल यथावत बना रहा। अमरीका हमारे लिये अजूबा बना हुआ है,आज भी।
अमेरिका के यौन जीवन के खुलेपन की अक्सर चर्चा होती है। जब मैंने चैटिंग में नये-नये हाथ आजमाने शुरू किये थे तो कुछ दिन एक पचास साल की अमरीकी महिला से बात हुयी है। वह न्यूयार्क की थी। इस सबसे तमीजदार शहर की वह महिला बात करते-करते अचानक ‘गाट टु गो’ कह कर फूट लेती थी। कुछ दिन बाद उसके शौक पता चले-स्क्रैप बुक मेकिंग,,घुड़सवारी तथा नेट पर जुआ खेलना। हमारे लिये अमरीका के साथ-साथ वहाँ के लोग भी अजूबा लगे। कुछ दिन बाद पता चला कि किसी दूसरे शहर में वह काम करने चली गयी थी -काम मिला था वासिंग का । मतलब हमारी दोस्त धोबिन थी। बातों-बातों में उसने बताया कि उसके पहले वाला पति जो कि उसका दूसरा पति था शराबी था तथा उसे अक्सर ठोंक-पीट देता था। तथा नये पति के साथ वह खुश थी। फिर कुछ दिन बाद पता चला कि तीसरे पति के साथ भी उसका कुछ लफड़ा हो गया। हुआ यह कि जब वह बाहर कमाने गयी थी तब किसी कमसिन ने उसके पति के ऊपर डोरे डाले तथा उसे पटा लिया। बाद में उसने सूचित किया खुदा के शुक्र से अब सब ठीक हो गया है।
एक दूसरी लगभग ३० साल की उम्र वाली सहेली ने बताया कि उसका पांच साल पहले तलाक हो गया था। कारण पूछने पर उसने बताया -बस ऐसे ही पटी नहीं।
इनके लिये मेरा एक ही पत्नी के साथ १५ साल से खुशी-खुशी रहना सुखद आश्चर्य तथा कौतूहल का विषय था। उनकी नजरों में मैं भाग्यशाली हूँ जो हमें ऐसा जोड़ा मिला जिसके साथ हम इतने साल खुशी-खुशी गुजर -बसर कर रहे हैं।
एक महिला आन्ध्र प्रदेश की है जो हिंदी अच्छी जानती है और खूब गाने की लाइनें बताती रहती है। वो हमारा चिट्ठा भी पढ़ती है और कहती है कि हमें किताब छपाना चाहिये।उससे बात करते हुये पता चला कि उसका पति जो कि आन्ध्रप्रदेश का ही है वहां जाकर दूसरी महिला के चक्कर में पड़ गया है। वह परेशान है कि वह उसे तलाक भी नहीं देता तथा उसके बच्चे भी,जो कि वहां के जीवन में रम गये हैं, उसका पक्ष नहीं लेते हैं।कुछ दिन वह पति से अलग रही किसी पुरुष मित्र के साथ।नौकरी तलाशी,की। लेकिन वह अब फिर वापस घर लौट आयी।
एक लड़का एक दिन बहुत देर बतियाता रहा तथा अफगानिस्तान और ईराक पर अमेरिकी आक्रमण के अमेरिकी तर्क बताता रहा। वह लगातार घंटे भर बहस करता रहा कि बगदाद में अमेरिकी आक्रमण ईराक के हित में है।
नेट का सच हालांकि छलावा होता है फिर भी बहुत कुछ वहां के बारे में जाना इस बातचीत के माध्यम से। अब काफी दिन हो गये किसी को आन लाइन देखे,बातचीत हुये। लगता है वहां भी लोगों की चैटिंग की आदत छूटती जा रही है।
पिछले वर्ष अमरिकी जीवन पर एक किताब पढ़ी थी। डा.पोलसन जोसफ, जो कि अमेरिका में एक प्रवासी भारतीय हैं(मूल रूप से केरल के) ,ने अमेरिकी जीवन के बारे में अपनी किताब अमेरिका:एक अद्‌भुत दुनिया में तटस्थ रूप से अमेरिका के बारे में लिखा है।उन्होंने अमेरिका के महत्व की प्रशंसा करते हुये यह भी बताया है कि भौतिक विकास और मात्र सुख की कामना से उत्पन्न होंने वाली समस्यायें क्या-क्या हैं।उन्होंने बताया:-
आर्थिक दृष्टि से समृद्ध अमेरिका में आज लोग खाने-पीने तथा यौन सम्बन्ध रखने से डरते हैं। सैकड़ों तरह से मोड़ने योग्य पलंग और पानी की बिस्तर के बावजूद यहाँ के तीस प्रतिशत लोग ठीक से सो नहीं पाते।
यूनाइटेड स्टेट्‌स दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है और इससे सारी दुनिया घृणा करती है।
मवेशियों को वजन बढा़ने के लिये भुना हुआ अनाज दे दिया जाता है। आदमी का वजन कम करने के लिये घास-फूस की बिस्कुट खिलायी जाती है। यह उनके जीवन के अन्तर्विरोध का एक अजीब पहलू है। कहा जाता है कि काम में तनाव और मानसिक संघर्ष से गैस्ट्रिक अल्सर होता है। उसकी रोकथाम के लिये बनाई जाने वाली दवाइयों में से एक ‘सैनटक’ गोली है । उसके लिये अमेरिका प्रतिवर्ष हजार करोड़ डालर का खर्च कर रहा है।इससे उनके तनाव का अन्दाजा लगाया जा सकता है। पता नहीं कि सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ बिस्मार्क ने क्यों कहा था.” A special providence take care of fools drunkards and the united status “। सम्भवत: उस समय यूरोप के लोगों की अमेरिका के संबंध में यही धारणा रही होगी। आज अमेरिका शक्तिशाली देश और समृद्ध देशों का नेता तथा कई देशों का रक्षक और मददगार देश है। आज यदि अमेरिका को खाँसी हुई तो कई देश बुखारग्रस्त हो जायेंगे। उस अमेरिका की दाद दी जानी चाहिये जिसने दुनिया को समझाया कि निजी क्षेत्र में अद्यतन तकनीकी का उपयोग करके उत्पादन में जोर देने पर मनुष्य क्या कुछ नहीं प्राप्त कर सकता। वह अपने जीवन को कितना सुखमय बना सकता है।
अमेरिका की दाद दी जानी चाहिये जिसने दुनिया को समझाया कि निजी क्षेत्र में अद्यतन तकनीकी का उपयोग करके उत्पादन में जोर देने पर मनुष्य क्या कुछ नहीं प्राप्त कर सकता।
उत्साही,अध्यवसायी और मदद करने को उद्यत अमेरिकी लोगों से अविकसित देशों को काफी कुछ सीखना है।
अमेरिका के बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुये नोबेल पुरस्कार विजेता सुप्रसिद्ध नाटककार हैराल्ड पिंटर ने कहा है:-
‘यहां अमेरिका में ‘अर्थ’ के पीछे ‘सेना-तंत्र’ खड़ा है। यूनाइटेड स्टेट्‌स दुनिया का सबसे शक्तिशाली देश है और इससे सारी दुनिया घृणा करती है।’
अमेरिका के दो बार राष्ट्रपति रह चुके राष्ट्रपति विल्सन ने अमेरिकी व्यवस्था के बारे में तीखा तथ्य एक वाक्य में कहा:-
अमेरिका में उद्योगपतियों का एक गुट सड़क पर किसी आदमी को पकड़ता है,उसे व्हाइट हाउस ले जाता है और देशवासियों से कहता है-यह तुम्हारा राष्ट्रपति है।
इन सब पढ़ी पढ़ाई बातों के अलावा मुझे अमेरिकी बेहद डरपोक से लगते हैं। मुझे याद है जब वाईटूके का हल्ला मचा था तब पूरा अमेरिका घबराया,बौराया हुआ था, ट्विनटावर गिरने के बाद सकपकाया अमेरिका तथा उसके बाद एंथ्रेक्स पाउडर के डर से आफिस बंद करके घरों में सिमट गये दुबके अमेरिकी। बुश तथा अलगोर के चुनाव में जिस तरह कई दिन मामला अटका रहा उसे सोचकर हंसी आती है।
अमेरिका में उद्योगपतियों का एक गुट सड़क पर किसी आदमी को पकड़ता है,उसे व्हाइट हाउस ले जाता है और देशवासियों से कहता है-यह तुम्हारा राष्ट्रपति है।
बहरहाल हमारे सोच तो हवा-हवाई हो सकते हैं लेकिन ज्याँ पाल सार्त्र जिन्होंने कि नोबल पुरस्कार यह कहकर ठुकरा दिया था कि” नोबल पुरस्कार हमारे लिये आलू का बोरा है और आलू मुझे बिल्कुल पसंद नहीं हैं” के विचार पढ़िये अमेरिकी समाज के बारे में।
प्रख्यात फ्रांसीसी अस्तित्ववादी ज्याँ पाल सार्त्र ने अब से कोई चार दशक पहले(१९६५ में)अमरीका के बड़बोलेपन पर एक निबंध लिखा था,जिसमें अमरीका में व्याप्त मिथकों के मुलम्मे को खुरच-खुरच कर लोगों के सामने प्रस्तुत किया गया था। उस वक्त अपने लेख के मार्फत सार्त्र ने जो सवाल उठाये थे,आज वे वामन से विराट का स्वरूप ले चुके हैं।”द नेशनल वेबसाइट” पर उपलब्ध इस महत्वपूर्ण निबंध का अनूदित सारांश जबलपुर से प्रकाशित होने वाली प्रगतिशील त्रैमासिक पत्रिका वसुधा में प्रकाशित हुआ था। निबंध का अनुदित सारांश शशांक दुबे ने उपलब्ध कराया था।
यह लेख चूंकि करीब चालीस साल पुराना है इसलिये हो सकता है कि इस दौरान रंगभेद की स्थितियों में बदलाव आये हों। अब जो हमारे जो साथी अमेरिका में रहते हों या जो वहाँ के बारे में जानते हों वे बता सकें तो बतायें सच क्या है। वर्ना हमारे लिये तो अमेरिका अजूबा ही बना रहेगा।
अक्सर यूनाइटेड स्टेट्‌स के बारे में बढ़-चढ़ कर बातें की जाती हैं। मगर एक बार जो व्यक्ति अटलांटिक पार कर ले तो वह,बावजूद उनकी मार्मिक किताबों के ,उनसे सहमत नहीं हो सकता । इसका मतलब यह नहीं कि वह उनकी बातों पर यकीन नहीं करता। लेकिन उसकी सहमतियाँ कमजो़र पड़ जाती हैं। यार लोग हमारे चरित्र को समझाने की और हमारे उद्देश्यों को सुलझाने की कोशिश करते हैं। ये हमारे हर काम को सिद्धांतों,पूर्वाग्रहों ,धारणाओं और विचारों से जोड़ते हैं। उस समय हम इनकी बात सुनते हुये असहज हो जाते हैं।हमारी समझ में नहीं आता कि इनकी बातों को खारिज़ करें या स्वीकारें। हो सकता है,इनकी व्याख्या सच हो,लेकिन वह कौन सी सच्चाई है ,जिसकी व्याख्यायें दी जा रहीं हैं। हम गहरी दोस्ती का, जीवन का,मन में उठने वाली तरंगों का अपनी,अपनी मन-मरजी से जीने का ,किसी के बारे में निरंतर विमर्शों और कल्पनाओं का और इन सबसे बढ़कर ‘मामूली नहीं कुछ खास होने ‘ का अभाव महसूस करते हैं। थोड़े में कहें ,तो आजादी की की कमी का महसूस करते हैं। इसी प्रकार प्यूरिटवाद,यथार्थवाद,आशावाद सरीखी कुछ पिटीपिटाई धारणाएं हैं जिनके बारे में यूरोप में कहा जाता है कि अमेरिकियों के मूल सिद्धान्त हैं। इन धारणाओं पर बौद्धिक जुगाली तो बड़ी अच्छी लगती है, लेकिन जब हम शाम को न्यूयार्क के थर्ड एवेन्यू या सिक्स्थ एवेन्यू या टेन्थ एवेन्यू पर भटकते हैं तब उनकी कलई खुल जाती है। कहा जाता है कि इन गलियों में दुकानदार ग्राहक का मासूम चेहरा देखकर उधार देने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन हकीकत में हम वहाँ पाते है दुनिया के सबसे करुण चेहरे ,अनिश्चिततायें,खोजबीन,भौचक्क चेहरे,यातना करती आंखें और तब हम जान पाते हैं कि कि इस सबसे खूबसूरत पीढ़ी के पास देने को कुछ नहीं है। हमें इस सिस्टम को बदलने का मौका तो मिल जाता है, लेकिन लोगों को समझने का नहीं।
उनके जीवन में त्रासदी नहीं है,लेकिन त्रासदी का भय व्याप्त है और यह भय उन्हें घेरे हुये है।
यह सिस्टम एक विशाल बाहरी उपकरण है। एक कठोर मशीन ,जिसे यूनाइटेड स्टेट्स की आत्मा कह सकते हैं। इसे अमरीकावाद कहा जाता है-मिथकों,मूल्यों, नुस्खों ,स्लोगनों, आकृतियों और अनुष्ठानों का विशाल काम्प्लेक्स। हालांकि इसका भूत तमाम अमरीकियों के सिर पर सवार नहीं है। हो भी कैसे? दरअसल यह लोगों से बाहर की चीज है,जिसे उनके सामने पेश कर दिया गया है। यह कुछ नहीं ,एक चतुर किस्म का प्रोपेगंडा है। यह उनमें नहीं है, लोग इसमें हैं। वे इसके खिलाफ संघर्ष करें या स्वीकार करें,उनका इसमें दम घुटे या वे इस पर सवार हो जायें, वे इसके आगे समर्पण कर दें या इसमें से नया अन्वेषण करें, वे इसके लिये हाजिर रहें या बच निकलें,हर हाल में यह उनके बाहर ही रहेगा।,उनसे परे। क्योंकि ये इन्सान हैं और वह वस्तु। यहां बडे़-बड़े मिथक हैं। खुशी के मिथक,तरक्की के,आजादी के ,विजयी मातृत्व के। यहां आदर्शवाद और आशावाद है। और फिर अमरीकी हैं ,जो इन विराट बुतों के बीच खड़े हैं और जिन्होंने इन्हीं से जीने का अपने तईं सर्वश्रेष्ठ रास्ता तलाशा है। एक खुशी का मिथक है। काले-जादू का स्लोगन आपको चेतावनी देता है कि आप तुरंत खुश हो जाएं। सुखांत फिल्में थकी हुई भीड़ को जीवन का शुक्ल पक्ष दिखा रही हैं। भाषा में भी अनर्गल वाक्यों के साथ आशावाद ठाठे मार रहा है-हैव ए गुड टाइम,लाइफ इज़ फन, वगैरह-वगैरह। लेकिन कुछ ऐसे भी लोग हैं जो भले ही पारिभाषिक नजरिये से खुश दिखाई देते हों ,लेकिन उनमें एक अजीब सी बेचैनी दिखाई देती है,जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। उनके जीवन में त्रासदी नहीं है,लेकिन त्रासदी का भय व्याप्त है और यह भय उन्हें घेरे हुये है।
उनमें ‘कम से कम’ ऐतिहासिक होने का सामूहिक अहंकार है। उनके सामने वंशगत रीति-रिवाजों और उपलब्ध अधिकारों से पैदा होने वाली समस्यायें और जटिलतायें नहीं हैं। ये किसी परंपरा या लोकसाहित्य से घबराये हुये लोग नहीं हैं। यहां फिल्मों में जनता के लिये अमेरीकी इतिहास रचा जाता है,जिसमें केंटुकी जीन या केनमास चार्लमेगन के लिये कोई जगह नहीं । यहां जाज़ सिगर अल जानसन या कंपोजर गेरश्विन के मार्फत इतिहास दर्शाया जाता है। यहां मनरा डाक्टरिन और अलगाववाद है,यूरोप के प्रति घृणा है,हर अमरीकी में अपने मूल राष्ट्र के प्रति भावनात्मक लगाव है। पुराने महाद्वीप की संस्कृति के बरक्स बुद्धजीवियों की हीन-भावनायें हैं। यहां आलोचक हैं ,जो पूछते हैं,’आप हमारे उपन्यासकारों से प्रेरित कैसे हो सकते हैं?’ और पेंटर कहते हैं’ जब तक मैं यहाँ रहूंगा काम नहीं कर सकूंगा।’ पूरा देश एक निराशाजनक कोशिश में लगा हुआ है कि किस तरह पूरी दुनिया के इतिहास पर कब्जा जमा कर इसे अपने विरासत घोषित किया जाए।
पूरा देश एक निराशाजनक कोशिश में लगा हुआ है कि किस तरह पूरी दुनिया के इतिहास पर कब्जा जमा कर इसे अपने विरासत घोषित किया जाए।
एक मिथक समानता का है तो दूसरी ओर एक मिथक पृथक्करण का भी। समुद्र तट के सामने मौजूद बड़े-बडे़ होटलों ने बोर्ड लगा रखे हैं,यहां यहूदी और कुत्तों को ठहरने की इजाजत नहीं है’। कनेक्टिकट में ऐसी झीलें हैं,जहां यहूदी नहा नहीं सकते और नस्लभेद का तो कहना ही क्या? गुलामों को सबसे निचला दरजा दिया जाता है,तो १६८० के डच अप्रवासियों को सबसे ऊँचा। यहां आजादी का मिथक है और जनता की राय के नाम पर तानाशाही। आर्थिक उदारीकरण का भी मिथक है, मगर बड़ी कंपनियां पूरे देश में पैर पसार रही हैं और वे अंतत: किसी की नहीं हो पा रही हैं । ऊपर से नीचे तक का स्टाफ सरकारी मशीनरी की तरह काम कर रहा है। विज्ञान और उद्योग के प्रति सम्मान है,सकारात्मक नजरिया है,गजेट के प्रति दीवानगी की हद तक प्रेम है। लेकिन न्यूयार्कर शब्द के नाम पर अमरीका की मशीनी सभ्यता का मज़ाक उड़ाया जा रहा है। रोजाना लाखों ‘वंडरमैन कामिक्स’ या ‘जादूगर मेंड्रेक’ के कारनामें पढ़-पढ़कर ज्ञान और चमत्कार की भूख शांत कर रहे हैं।
हजारों वर्जनाएं हैं,जो विवाहेतर संबंधों को अवैध करार देती हैं,मगर कोएजुकेशनल कालेजों के पिछवाड़े वापरे हुये निरोध बिखरे रहते हैं। बहुत से मर्द और औरते हैं,जो नशे की हालत में हमबिस्तर हो जाते हैं और नशा उतरते ही भूल जाते हैं। यहां साफ-सुथरे ,भड़कीले मकान हैं,सफेद झक अपार्टमेंट हैं,जिनमें रेडियो है आर्म चेयर है,पाइप है और छोटी सी जन्नत है,दूसरी ओर इन अपार्टमेंट के रहवासी हैं ,जो रात का खाना खाने के बाद अपनी चेयर,रेडियो,बीबियां और बच्चे छोड़कर गली में निकल लेते हैं,तन्हा शराब पीने के लिये।
हजारों वर्जनाएं हैं,जो विवाहेतर संबंधों को अवैध करार देती हैं,मगर कोएजुकेशनल कालेजों के पिछवाड़े वापरे हुये निरोध बिखरे रहते हैं।
जनता और उसके मिथकों के बीच ,जीवन और उसके प्रस्तुतिकरण के बीच इतनी बड़ी विसंगति आप कहां पायेंगे? बरने में एक अमरीकी ने मुझसे कहा,’ हमें यह खौफ भीतर ही भीतर खाए जा रहा है कि कहीं हमारा पडो़सी हमसे ज्यादा अमरीकी तो नहीं है। ‘ मैं उसकी इस सफाई को स्वीकार करता हूं उसकी बात दर्शाती है कि मिथक कोई लोगों के दिमाग में घुसाया गया प्रोपेगंडा नहीं है बल्कि यह कुछ और है,जिसमें हर अमरीकी अपने वजूद की फिर से तलाश कर रहा है। यह एक बड़ी सच्चाई है जो न्यूयार्क के स्टेचू आफ लिबर्टी से से शुरू होकर हर आजादी के सामने खड़ी हुई है। अमरीकावाद से मुकाबला करने की यह अमेरीकी वेदना एक दोतरफा वेदना है,जिसमें एक ओर तो वह पूछ रहा है,’क्या मैं पूरी तरह से अमरीकी हूँ?’ तो दूसरी ओर वह सवाल कर रहा है,’मैं अमरीकावाद से कैसे बचूँ?’ जो अमरीका में इन दोनों सवालों का जवाब दे सकता है,वह जान सकता है कि वह क्या है और हर आदमी को इस सवाल का अपना जवाब ढूंढना चाहिये।
-ज्याँ पाल सार्त्र

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

22 responses to “अमरीकी और उनके मिथक”

  1. e-shadow
    फुरसतिया जी,
    अमेरिका एक पहेली है, एक विशाल राष्ट्र है, जो कुछ मामलों में सचमुच महान है। इसे समझना इतना आसान नही है, फिर भी आपने जिन लेखों का उद्धरण दिया है, वो आज भी काफी प्रासंगिक हैं। अमरीकावासियों के लिये भी पठनीय लेख, साधुवाद। ः)
  2. Raman Kaul
    East is East and West is West, and never the twain shall meet. दो अलग दुनियाएँ और दो अलग नज़रिए। मुश्किल यह है कि पश्चिम के पैसे के चलते पश्चिम का नज़रिया स्टैंडर्ड माना गया है — हम भी ऐसा सर्वे करें तो उसे कोई पूछेगा नहीं। वरना यह समझना मुश्किल नहीं है कि पश्चिम वालों को हम बदतमीज़, और हमें पश्चिम वाले बदतमीज़ क्यों लगते हैं। मिथक हमारे भी हैं, मिथक उन के भी हैं। हमारे समाज में उतनी ही बुराइयाँ है जितनी उन के समाज में, बस उन की अपनी मुश्कलें हैं, हमारी अपनी।
  3. SHUAIB
    अगर ये सर्वे भारत ने किया होता तो सर्वे रिपोर्ट शायद उलटी होती।
  4. संजय बेंगाणी
    बहुत अच्छा लिखा हैं आपने. यह भी तो एक उपलब्धी हैं कि आज कल हर कोई अमेरिका को जानना समझना चाहता हैं. हमारे मन में अमेरिका कि जो तस्वीर हैं वह सेल्डन के उपन्यासो पर आधारीत हैं. वास्तविक्ता तो वहाँ जा कर देखने पर ही पता चले.
  5. Amit
    एक बात और यह भी है कि आमतौर पर अमेरिका वालों के लिए अमेरिका ही पूरी दुनिया है। अमेरिका के बाहर भी दुनिया है, वहाँ भी लोग बसते हैं, यह उन्हें नहीं मालूम और यदि पता भी है तो भी वे अज्ञानी बने रहते हैं। नई गर्लफ़्रैन्ड के साथ फ़िल्म देखो, बास्केटबॉल या फ़ुटबाल(यानि रगबी) या बेसबॉल का खेल देखो, पॉपकॉर्न खाओ आधे उड़ाओ, सड़क किनारे किसी पगडंडी पर गाड़ी रोक मौज लो और वापस घर। उनके अपने खेल हैं, अपनी फ़िल्में हैं, अपने टीवी कार्यक्रम हैं, बाकी दुनिया जाए तेल लेने, यही आम अमेरिकी सोच है। या मैं गलत हूँ? ;)
  6. Hindi Blogger
    बहुत ही बढ़िया लेख लिखा है. धन्यवाद!
    हम भारतीयों की कमज़ोरी यह रही है कि हम किसी राष्ट्र की अच्छाइयों पर जितना ग़ौर फ़रमाते हैं, उतना उसकी कमियों पर नहीं.
    जैसा कि आपने कहा है हमारे ब्लॉगरों में से ज़्यादातर अमरीका में हैं. वो हमें बताएँ कि अमरीका में स्ट्रीट क्राइम की स्थिति भारत से बुरी है कि नहीं? जघन्य अपराधों के मामले में अमरीका को भारत से ऊपर रखा जा सकता है या नहीं? वहाँ पारिवारिक समस्याएँ भारत से ज़्यादा हैं या नहीं? अमरीका में अमीरों और ग़रीबों के बीच की खाई भी भारत के मुक़ाबले बड़ी है कि नहीं? एक आम अमरीकी एक आम भारतीय के मुक़ाबले ज़्यादा स्वार्थी है कि नहीं? भारत में आमतौर पर विदेशियों को (ख़ास कर गोरों को) जिस तरह इज़्ज़त दी जाती है क्या अमरीका में विदेशियों को (ख़ास कर भूरों को) उस दृष्टि से देखा जाता है?
    कहने की ज़रूरत नहीं कि कैटरीना तूफ़ान ने अमरीका को दुनिया के सामने नंगा कर दिया था. यदि न्यू ऑर्लियन्स के अश्वेतों को या ‘छोटे’ काम करने वाले हिस्पैनिक जनों को भी अमरीकी मान कर देखें तो पता चलेगा कि अमरीका के दो बिल्कुल भिन्न रूप हैं. हालाँकि मात्र डॉलर संचालित जीवन जीने की लालसा रखने वालों के लिए अमरीका के दूसरे रूप की कोई अहमियत नहीं है.
    ख़ुशी की बात है कि ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ के ताज़ा सर्वे को न तो भारत में स्वीकार किया गया है और न ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर.
  7. Anunad
    लेख बहुत अच्छा लगा | जब “न्वायज” की मात्रा “सिगनल” से ज्यादा हो आप जैसे गुनी ही सिगनल को छान(फिल्टर) सकते हैं |
  8. ई-स्वामी » अमरीका तूने नींदिया चुराई!
    [...] भारतीय समय के हिसाब से रात के कम से कम ढाई बजे होंगे जब चैट पर फ़ुर्सतियाजी अवतरित हुए और उन्होंने अपने लेख की कडी थमाई – अमरीका और उनके मिथक. “पढ कर अपने विचार बताओ” आदेश दे कर अंतर्ध्यान हुए. [...]
  9. eswami
    मैंने अपने विचार ब्लाग पर रख दिए हैं, कुछ कडियां हैं जो शायद आपके काम आएंगी.
  10. DesiPundit » Archives » भद्रता के मानदंड
    [...] रीडर्स डाइजेस्ट द्वारा मुम्बई को सबसे अभद्र और न्यू यॉर्क को सबसे तमीज़दार शहर घोषित करने के सिलसिले में अमरीकी मिथकों की चर्चा छेड़ी भारत में बैठे फ़ुरसतिया ने और जवाब में अमरीकी गुण गिनाए अमेरिका में बसे ई-स्वामी ने। दोनों लेख कुछ विचारणीय बिन्दु प्रस्तुत करते हैं, पर अतिशय और सामान्यीकरण के शिकार नज़र आते हैं। [...]
  11. रवि
    मेरे सहकर्मी के एक संबंधी अमरीका में काफी समय से बसे हुए हैं. गाहे बगाहे उनके यहाँ भारत से लोग जाते रहते हैं – घूमने-घामने सैर करने और मिलने.
    एक दफा उनकी सासू जी अमरीका गईं. वहाँ पर जैसा कि हम भारतीयों के दिल में किसी प्यारे से छोटे से बच्चे को देख कर दिल में प्यार उमड़ आता है और उसे अले … ले… ले कह कर गोद में उठा लेते हैं, वैसा ही कुछ उन सासू माँ ने पड़ोस के पार्क में टहलते हुए किया. वह बच्चा अपने अमरीकी मां बाप से अलग घूम रहा था. मित्र की सासू माँ ने बच्चे को कुछ चॉकलेट जैसी चीज भी खाने को दी.
    बस क्या था. बावेला मच गया. बच्चे के पालकों ने पास के पुलिस वालों को बुला लिया और अपहरण का केस दर्ज कर दिया. वह सत्तर साल की भारतीय मां अमरीकी कानून के तहत जेल में बन्द हो गई. उसे छुड़ाने के लिए उस परिवार को पसीने आ गए.
    – सद्व्यवहार के अपने रूप अपने रंग हैं. मेरा बचपना ऐसे मुहल्ले में गुजरा है जहाँ बच्चा पैदा होता है तो सबसे पहले वह मां बोलना सीखने के बजाए मां की गाली देना सीखता है. शुक्र कि बात यह रही कि मैं उस मुहल्ले में बोलना और कैसे बोलना यह तहजीब सीख कर गया था. पंजाब में तो लोग आपकी तारीफ भी मां-बहन की गाली देकर करते हैं.
    जाहिर है, ऐसे सर्वेक्षण विवाद पैदा कर बाजार हासिल करने के उद्देश्य से किए जाते हैं.
  12. फ़ुरसतिया » अमेरिका-कुछ बेतरतीब विचार
    [...] रवि on अमरीकी और उनके मिथकDesiPundit » Archives » भद्रता के मानदंड on अमरीकी और उनके मिथकeswami on अमरीकी और उनके मिथकई-स्वामी » अमरीका तूने नींदिया चुराई! on अमरीकी और उनके मिथकAnunad on अमरीकी और उनके मिथक [...]
  13. इधर उधर की » मिथक - अमरीकी और भारतीय
    [...] अनूप कुमार शुक्ला फुरसतिया जी की अमरीकी और उनके मिथक बहुत रुचि के साथ पढ़ी। उन्होंने अमरीका में रह रहे भारतीय चिट्ठाकारों को इतना उकसाया कि सोचा कुछ लिखा जाए। मुझे जो कुछ कहना था, उस में से बहुत कुछ, और बहुत कुछ और,  ईस्वामी ने कह दिया। तो मैं यह प्रविष्टि दो कारणों से लिख रहा हूँ — एक, इस आरोप का उत्तर देने के लिए कि हम लोग यहाँ के बारे में बेबाकी से नहीं लिखते; दो,  रीडर्स डाइजेस्ट के सर्वेक्षण ने मुंबई की शिष्टता के विषय में जो निष्कर्ष निकाला, वह क्यों निकाला। [...]
  14. तेरे मैनर्स मेरे मैनर्स से सफ़ेद कैसे! at अक्षरग्राम
    [...] (हिंदी चिट्ठामंडल में रीडर्स डाइजेस्ट के हालिया सर्वे से शुरू हुई एक बहस चल रही है, जो इस मुद्दे से कहीं आगे जाती है। मैं फिलहाल बस इस सर्वे के बारे में दो-चार बातें कहना चाहता था, जो टिप्पणियों के लिए बड़ी नज़र आती हैं। इसलिए यहाँ लिख रहा हूँ।) [...]
  15. हिंदिनी » अमरीका शमरीका पर मेरा नजरिया!
    [...] हिंदी ब्लागजगत में छिड़ी ताजा बहस कई दिन से पढ़ी जा रही थी, आनँद भी लिया जा रहा था। आज अपना उल्लेख देखा। लिखना बहुत दिन से टल रहा था। अपना नाम देख कर अब हाथ की खुजली और छपास की पीड़ा को रोकना अब सँभव नही। पेश है मेरा नजरिया रोजनामचा पर। [...]
  16. हम बोलेगा तो बोलोगे कि बोलता है! at अक्षरग्राम
    [...] अनूप भाईसाहब , शुरुआत आपके लेख से हुई। मैं पहले भी स्पष्ट कर चुका हूँ कि उसका उद्देश्य सिर्फ यह था कि अमरीकी समाज आखिर है कैसा, जो मीडिया दिखाता है वैसा न असली भारत है न असली अमरीका। आपकी शिकायत अमरीका से बसे भारतीय ब्लागरो से यह थी कि हम अमरीका समाज का ज्यादा आईना नही दिखाते। मैने इसका प्रमाण भी दिया था कि हम यहाँ के मुद्दो पर भी लिखते हैं। पता नही कहाँ से अमरीका और भारत के बीच श्रेष्टठता की होड़ की बात आ गई। यह लोग इस बात को क्यो नही समझ रहे? ओम मलिक कालसेंटर्स के स्याह पक्ष पर: The Dark Side of Outsourcing[/URL] Dark Side of Outsourcing April 11, 2004 Saturday night, Delhi border Odyssey night club the music is clearly local – bollywood and bhangra hits mixed with some popular songs from the 80s and 90s. Beer is flowing, bodies writhing and people generally seem to be having fun. The night club which is in one of the newer malls that have come up in Gurgaon, a dusty former cow patch, now a shiny suburban high tech haven, is one of the most popular destinations from those who work in the outsourcing/call center business. The place comes alive after midnight when apparently there is a shift change. One thing which i saw was how young many of the call center workers are. They come from small towns which dot the landscape outside Delhi. If they lived at home, there would be no hope of ever finding a job. So they come to New Delhi. They live four to a house, sometimes more, and are driven to their subruban call centers in Toyota SUVs and most of the time eat there. They make about $500 a month, a fortune in local currency if you are young. They have a cell phones, and their accents have been replaced by their adopted accents. They wear expensive clothes, though they are not stylish. The dark circles under their eyes gives them away. Here I got to talk to many who answer my phone calls whenever I have a question about my Amex Bill. Amid their sometimes drunken but polite arguments, you hear the cry for help. The constant pressure of trying to be someone else, faking accents and trying to deal with the abusive behavior of their customers, you find many are crumbling. The late nights, cooped up in cool but antiseptic halls, the call center workers are turning to drink, drugs and sex to find some meaning to their lives. The next day I got to chat with one of the senior executives at a large outsourcing firm about this. Apparently this is not a problem being faced by the junior folks. Even executives are finding that their marriages are crumbling and many are having affairs. The whole thing is so dysfunctional, he pointed out and has been considering getting out of the business because the late night work shift does not allow him to spend any time with his wife and kids. And when I ask him when this call center bubble is going to burst – his response, not anytime, because economics are so good. He is getting out – as fast as he can. [...]
  17. फुरसतिया » पत्रकार ब्लागिंग काहे न करें, जम के करें!
    [...] बहसें पहले भी होती रहीं हैं। हैरी पाटर बनाम हामिद और अमेरिकी जीवन पर तमाम ब्लागर्स ने इसके पहले तमाम गर्मागर्म बहसें कीं लेकिन इतनी श्रद्धापूर्वक नहीं। हिंदी ब्लागिंग के कुछ बेहतरीन लेख अनुगूंज में मिल सकते हैं। [...]
  18. अजित वडनेरकर
    अनायास ही इस पड़ाव पर जा पहुंचा और छह मिनट सत्ताइस सेकंड में इसे पढ़ डाला। बढ़िया लेख था। आपकी इन पंक्तियों से सौ फीसद सहमत हूं-
    ”मुझे अमेरिकी बेहद डरपोक से लगते हैं। मुझे याद है जब वाईटूके का हल्ला मचा था तब पूरा अमेरिका घबराया,बौराया हुआ था, ट्विनटावर गिरने के बाद सकपकाया अमेरिका तथा उसके बाद एंथ्रेक्स पाउडर के डर से आफिस बंद करके घरों में सिमट गये दुबके अमेरिकी। बुश तथा अलगोर के चुनाव में जिस तरह कई दिन मामला अटका रहा उसे सोचकर हंसी आती है।”
    शुक्रिया…
  19. Anonymous
    Lekh achcha hai ,Apko badhai hai.Hindi mai typing nahi aati aor computer bhi apne business ke layak hi janta hu.fir bhi prayas rahega ki aapke lekh padu aor unper apni rai rakh saku.Ab mool vishe per aata hu.
    America ke baare mai apki kahi hui bate sahi hai,kintu ek aisa desh jiski umr abhi mushkil se 500 saal hai aor wo duniya ke shikhar per betha hai nishchay hi prerit karta hai. aor akarshit bhi mai America ka pakshdhar nahi hu,kintu kabhi sochta hu ki use kayar ya dare hue logo ka desh kehna kitna galat prateet hota hai.abhi tak to yehi lagta hai ki koi uski taraf agar ankh uttata hai to wo uski hasti hi mitane per utaru ho jata hai.America ke bare mai vikassheel desho ki wahi mansikta hai jo ek gareeb ki kisi ammir ke bare mai hoti hai,Gareeb Amir se nafrat tou karta hai Lekin Khud bhi Amir banna chahata hai.jarurat amerika ki achchaiyo ko grahan karne ki hai.
    Dhanyevaad.
  20. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] है… 10.सितारों के आगे जहाँ और भी हैं… 11.अमरीकी और उनके मिथक 12.अमेरिका-कुछ बेतरतीब विचार [...]
  21. फिदेल कॉस्त्रो

    इसकी झलकिये पाकर हम खुश हुये,
    रोज शाम को दो तीन दिन आकर यहाँ कायदे से टहलना पड़ेगा !
    इस पोस्ट को टुकड़ा टुकड़ा कुतरने में ज़्यादा मज़ा आयेगा ।
  22. pankaj upadhyay
    “अमेरिका में उद्योगपतियों का एक गुट सड़क पर किसी आदमी को पकड़ता है,उसे व्हाइट हाउस ले जाता है और देशवासियों से कहता है-यह तुम्हारा राष्ट्रपति है।”
    कभी इस पर ध्यान नही गया… अभी देखा तो जैसे कितनी गूढ लाईन है ये…

No comments:

Post a Comment