Thursday, October 12, 2006

मूंदहु आंख कतहुं कछु नाहीं

http://web.archive.org/web/20110925154914/http://hindini.com/fursatiya/archives/198

मूंदहु आंख कतहुं कछु नाहीं

सबेरे हम उठने के बाद कुछ देर फिर’लेट’गये और अपने दफ़्तर जाने के लिये हमेशा की तरह फिर ‘लेट’ हो गये। हम इंतजार करते रहे बिस्तर पर पड़े-पड़े कि कब घड़ी हमारे ‘लेट’ होने के समय तक पहुंचे तकि हम हड़बड़ा के उठें और धड़धड़ाते हुये दफ्तर पहुंचें। समय पर आप पहुंचते हैं तो आप ‘रूटीनी’ हो जाते हैं। ‘डल’, लकीरी ,सीधे-सादे आदमी का तमगा चिपकते देर नहीं लगती। देरी से जाने का मजा ही कुछ और है। आप दस मिनट देरी से पहुंचने मात्र से इतनी ऊर्जा अपने अंदर संजो लेते हैं कि सोचते हैं कि आज सारे काम निपटा ही देने हैं। वो तो भला हो सबेरे की दफ्तरी चाय का जिसके पीते ही आप सामान्य होकर कामकाज करने लगते हैं वर्ना अगले दिन कुछ करने को रहे ही न!
जाते-जाते अखबारों पर भी निगाह पड़ ही जाती है तो क्या करें! दिखता है कि कानपुर दुनिया में प्रदूषण में विश्व में सातवें नम्बर पर आ गया। यह एक सर्वेक्षण रिपोर्ट है। इस तरह की सर्वे रपटें हमारे लिये एकतरफा समाचार होती हैं। आज किसी नंबर पर कर दिया हमारे शहर को कल कहीं। हमारा शहर इन सर्वे लहरों की छाती के ऊपर अलसाये से पड़े निर्लिप्त तिनके की तरह है। ले चलो जहां ले चलना है, इधर या उधर। आज सातवें, कल दसवें पर। परसों किसी और नम्बर पर। यह तो हुआ गंदगी के मामले में। किसी और मामले में कोई और नंबर हमारे माथे पर चस्पां हो जाता है। हम एक नोटिस बोर्ड हो गये हैं जिसमें कोई भी आकर अपनी सूचना चिपका जाता है। शहर के लोगों पर इसका कोई असर नहीं पड़ता।
हमारे फैक्ट्री कालपी रोड पर स्थित है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग है। नगर निगम की गाड़ियां कूड़ा उठाकर हमारी निर्माणियों के सामने से जाती हैं। सड़क होने के नाते वहां स्पीड-ब्रेकर भी हैं। स्पीड ब्रेकर एक बाधा है। बाधा को देखकर ड्राइवर (देखकर बाधा विविध बहु विघ्न घबराते नहीं)इसे जल्दी से जल्दी पार कर लेना चाहता है और गाड़ी और तेज हो जाती है। ऊर्जा और गति के तमाम नियमों के बंधन में बंधी गाड़ी बेचारी खिलौने की तरह उछलती है। अपने पास का कुछ कूड़ा सड़क पर छोड़कर अपनी मंजिल की ओर बढ़ जाती है। मुझे लगता है कि सड़क किसी वेटर की प्लेट की तरह है जिस पर वह कूड़े से भरा ट्रक अपने पास के कूड़े की कुछ टिप छोड़ जाता है।
कूड़े की गाड़ियां अक्सर मुक्त अर्थव्यवस्था की तरह खुली रहती हैं। गाड़ी का कूड़ा सड़क के कूड़े से जुड़ाव की भावना के वसीभूत होकर जगह-जगह उसे ‘हाऊ डू यू डू’ कहने के लिये गाड़ी से उतर कर उससे बतियाने लगता है और उसे पता ही नहीं चलता कि ट्रक कब उसे छोड़कर आगे बढ़ गया। वह न्यूटन के जड़त्व के नियम का गुलाम होकर वहीं पड़ा-पड़ा ट्रक के कूड़े से वियोग में टसुये बहाता रहता है। कुछ हर हाल में खुश रहने वाले व्यवहारिक कूड़े के टुकड़े यहां भी खुशी तलाश ही लेते हैं और कहते हैं, ‘आयम बेटर आफ हेयर’ आसपास ताजी हवा तो है।
कभी-कभी ऐसा होता है कि हम भावुकता के शिकार हो जाते हैं और बदलाव के बारे में सोचने लगते हैं। अब बदलाव भी दो तरह के होते हैं एक सार्थक दूसरा निरर्थक। यह खुशी की बात है कि निरर्थक बदलाव के लिये कुछ करना नहीं पड़ता है। केवल निर्लिप्त, क्रियाहीन बने रहने पड़ता है। न ऊधो से लेना न माधो को देना का मुफ्तिया पैकेज अपने दिमाग में डाउनलोड कीजिये और मजे से निरर्थक बोले तो बेमतब या सही कहें तो नकारात्मक बदलाव अपने चारो तरफ होते देखिये। आप देखिये कि आपके एकदम बगल में कोई मसाले की पीक आकर गिरी है जिससे आप सिर्फ इसलिये बच सके हैं कि अगले से आप सुरक्षित दूरी पर हैं। आपके देखते-देखते सामने की दुकान का दुकानदार उठा और अपनी जिप खोलकर दीवार से सटकर हल्का होने लगा है। वह थोड़ा हड़बड़ाया हुआ है काहे से कि उसकी दुकान पर उसे ग्राहक दिखने लगा है और दूर से आता वह दुकानदार भी नजर आने लगा जो अपना ठेला लिये चला आ रहा है। उसी दीवार के पा खड़े होकर उसे आजकी दिहाड़ी कमानी है। दीवार से सटा आदमी अपनी दुकान से ग्राहक के जाने, दीवार के पास लगने वाली ठेलिया के पास आते जाने के तनाव से एक साथ जूझता हुआ अपने अंदर के दबाब को जल्दी से जल्दी कम करने के तनाव से एकसाथ निपटने के लिये अभिशप्त है।
पता नहीं दुनिया भर के डाक्टर दिल के दौरों के कारणों के लिये कोलस्ट्राल, चर्बी और मोटापे जैसे निरीह कारणों को इसके लिये काहे दोषी ठहराते हैं! पता नहीं क्यों वे इन सब अमानवतावादी स्थापनाऒं के खिलाफ कुछ न कहकर अफजल को बचाने के लिये पिली पड़ी हैं गोया हमारे महामहिम राष्ट्रपति बिना सोचे-बिचारे ही सब कुछ कर देंगे।
इस तरह के नकारात्मक बोले तो निरर्थक बदलाव में सुविधा यह होती है कि किसी को कुछ करना नहीं पड़ता है। इसमें ऊर्जा बिल्कुल खर्च नहीं होती। आप मानो न मानो लेकिन यह सच है भाई! हम कोई आपसे झूठ थोड़ी ही बोलेंगे। यह हम अपने पढ़े हुये और देखे हुये अनुभव से कह रहे हैं। देखिये जिसको मन आया और उसने हमारे यहां तम्बू लगाकर पहले अस्थायी कब्जा किया और फिर पक्का मकान बना लिया और हम खड़े-खड़े गुबार देखते रहे। हमारी धर्मशाला पर उसने अपना महल बना लिया और हम निर्लिप्त रहे। ये जो अपना देश में भ्रष्टाचार की इत्ती प्रगति है वो ऐसे ही थोड़ी हो गयी अगर हम निर्लिप्त न रहते तो भला मिलते कहीं इतने ‘अमेजिंग रिजल्ट्स’? अशिक्षा, गरीबी, बेकारी और न जाने कितनी अटरम-सटरम उपलब्धियां कहां संभव हैं भाई बिना उदासीन हुये। और इसका फायदा भी देखिये न! हमें रोने के लिये कोई रोज-रोज कोई नया बहाना खोजना नहीं पड़ता। ये हैं न शाश्व्त कारण। अब रोने के फायदे बताने लगें तो फिर बात से भटक जायेंगे बस इतना जान लीजिये कि रोने से आंखें खूबसूरत होती हैं। आपको कोई भी खूबसूरत आंख दिखे आप उससे बहे हुये दरिया के बारे में भी सोचना।
ये देखिये हमें बताना सार्थक बदलाव के बारे में था और कहानी निरर्थक में सुना गये। गये थे हरिभजन को ऒटन लगे कपास। बहरहाल दुर्घटना से देर भली मानते हुये हम सार्थक की भी बात करते हैं।
हां तो हम कह रहे थे कि सार्थक बदलाव के लिये मेहनत करनी पड़ती है, पसीनागीरी करनी पड़ती है। तो ऐसा ही हुआ कि हमारे फैक्ट्री के महामहिम को पता नहीं भावुकता के किन क्षणों में चौथे माले के अपने कमरे से सड़क पर अपना पूरा बदन उघाड़े कूड़े को अपने आगोश में समेटे नगर निगम का ट्रक( बकौल श्रीलाल शुक्ल- ट्रकों का जन्म ही सड़कों से ब्लात्कार करने के लिये हुआ है) जाता दिखा। आदमी जब ऊपर से देखता है तो उसे चीजें दूर से दिखती हैं दूर तक दिखती हैं और अगर और कुछ बेहतर नहीं है देखने के लिये तो देर तक भी दिखती हैं।
ऐसे ही दूर-दूर-देर के झमेले में फंसे महामहिम को ट्रक, ट्रक पर लदा कूड़ा और हर स्पीड ब्रेकर पर अनायास गिरता और कूड़े से जुड़ता कूड़ा दिखा। उनको लगा होगा कि ये स्पीड ब्रेकर नाके पर खड़ा सिपाही है जिस पर ट्रक कूड़े की रिश्वत टिका कर आगे बढ़ लेता है। एक बारगी तो उन्होंने तय किया कि स्पीड ब्रेकर तुड़वा दें लेकिन उनको उनके काबिल सलाहकार ने समझाया कि साहब वो तो एक घंटे का काम है लेकिन इसमें तकनीकी समस्या यह है कि फिर आडिट वाले सवाल उठायेंगे कि जब स्पीड ब्रेकर उखड़वाना था तो आगे स्पीड ब्रेकर है का बोर्ड काहे लगवाया। सौ रुपये के खर्चे का जस्टीफिकेशन देने में हजार रुपये खर्च हो जायेंगे। इस तकनीकी सलाह और सुरक्षा की आड़ में स्पीड ब्रेकर की जान तो बच गई। लेकिन चौथी मंजिल से नीचे सड़क पर जाता, दिखता, गिरता, मिलता, उड़ता और बैठ जाता कूड़ा साहब को लगातार परेशान करता रहा।
ऐसी ही एक दिन साहब भावुक हो गये और फिर तो नगर निगम से लिखा-पढ़ी हुई और अंतत: तय हुआ कि निर्माणी के सामने से जो कूड़ा जायेगा उसका ट्रक ढका रहेगा। नीले बरसाती कागज के नीचे ढंका हुआ कूड़ा बार-बार हवा के झोंके का सहारा लेकर सिनेतारिकाऒ की तरह वजह-बेवजह अपन वदन उघाड़कर दिखाता रहता। हमें ऐसे सौंदर्य पूर्ण कूड़े के उपयुक्त कोई कविता शेर याद नहीं थे लेकिन नीले बरसाती कवर के उघड़ते, ढंकते ढेर को देखते हुये मुझे अक्सर जयशंकर प्रसाद की कविता याद आती:-
नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अंग।
बहरहाल कूड़ा परदे में चला गया लेकिन लेकिन स्पीड ब्रेकर उसका गिरना बरकरार रहा। गति और जड़त्व और नाके पर वसूली के नियम शाश्वत होते हैं। साहब चले गये हैं। हमारे नजरों के सामने ट्रक पर जाते कूड़े और जेहन में उनका कूड़े के खिलाफ भावुक अभियान सुरक्षित है।
ऐसे ही तमाम उदाहरण हैं जिनके बल पर ही हम इसी तरीके की तमाम उपलब्धियां हासिल करने में सफल होते हैं। कभी प्रदूषण में सातवें, कभी भ्रष्टाचार में अव्वल, कभी अनुशासन में लद्धड़, कभी तहजीब में फुस्स-पटाखा और न जाने क्या-क्या!
बहरहाल ये सब तो आम बाते हैं होती रहती हैं। हर शहर में। लेकिन पिछले दिनों एक घटना हमारे शहर में घटी जिसका जिक्र किसी सर्वे में नहीं हुआ न ही किसी टी.वी. वाले ने इसका कवरेज किया। अखबार भी के अगले दिन घटना की विस्तार से खबर देकर खामोश हो गये।
हुआ यह कि कानपुर के कोतवाली थाना क्षेत्र के मोहल्ले रामनारायण बाजर में एक मुस्लिम परिवार का एक लड़का उसी मोहल्ले में हुये भगवती जागरण के समय हुई छेड़खानी के बाद हुयी गुम्मेबाजी में मारा गया। हिंदू लड़की से हुयी छेड़खानी का आरोप मुस्लिम लड़कों पर लगा और मिश्रित आबादी होने के कारण तनातनी के बाद गालीगलौज, गुम्मेबाजी, गोलीबाजी की रस्में अदा की गयीं। जो लड़का मारा गया वह किसी छेड़छाड़ में शामिल नहीं था लेकिन पत्थर कोई पासवर्ड पूछकर तो गिरते नहीं हैं लिहाजा वह पहले घायल हुआ फिर अगले दिन मर गया। एक हिंदू जनप्रतिनिधि ने हिंदुऒं की तरफदारी की थी और मुस्लिम लड़का मारा गया लिहाजा तनाव बढ़ता गया।
कानपुर एक दंगाप्रधान शहर भी है। साल में तीन-चार बार किसी न किसी इलाके में इतने दिन कर्फ्यू जरूर लग जाता है कि उस इलाके के लोग इन सब घटनाऒं के आदी से हो जायें।
लड़के के मरने के कारण चाहे जो रहे हों लेकिन वह मुस्लिम था और मिश्रित आबादी होने के नाते उस इलाके में मुस्लिम जवानी और भड़काने वाले लोग भी पर्याप्त मात्रा में थे। हिंदू लोग भी ईंट का जवाब पत्थर से देने के लिये अपने को लैस करने में जुट गये थे। खून का बदला खून के नारों के बीच दंगे की भूमिका बन गयी थी और लोगों ने दो-तीन दिन के राशन-पानी का इंतजाम भी करने का मन बनाना शुरू कर दिया था।
इसी सब तनातनी के बीच कुछ लोग भड़के हुये लोगों को समझाने बुझाने के प्रयास में लगे रहे। वे समझाने बुझाने वाले लोग ज्यादातर मुहल्ले के ही थे और शायद स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में काफ़ी देर बनी रही। बहुत से बुजुगों ने हाथ-जोड़कर लोगों को रोका तमाम दुनियावी बातों का हवाला दिया। कुछ लोगों के गुस्से में आगे बढ़ने पर लोग उनके आगे सड़क पर लेट तक गये। मुहल्ल्ले के लोगों में न जाने कहां से नैतिक साहस आ गया कि वे दंगायी मिजाज वाले सिरफिरों के आगे दीवार की तरह अविचलित खड़े रहे।
जैसा कि अगले दिन के अखबारों से पता चला कि यह भीषण तनाव की स्थिति करीब छह-सात घंटे लगातार बनी रही। पुलिस को भी खुद को शांत रहकर लोगों को शान्त रखने में पसीना आ गया।
इस सारे तनाव पूर्ण घटना का पटाक्षेप तब हुआ जब अपने जवान बेटे की मौत से बुरी तरह टूटे बाप ने भरी भीड़ के सामने हाथ जोड़कर कहा- मैं अपना इकलौता बेटा खो चुका हूं। वह तो चला गया और किसी और की मौत से तो वापस आ नहीं जायेगा। अब मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि अब जो हो गया सो हो गया लेकिन अब किसी और के घर का चिराग बुझाने का कोई काम न करो।
इसके बाद भीड़ धीरे-धीरे छंट गयी। अगले दिन अखबार मोहल्ले वालों और खासकर मारे गये लड़के के पिता की सहनशीलता, मानवता की विजय, इंसानियत जीती जैसे विवरणॊं से भरे दे।
इसके अगले दिन फिर शहर के अखबार हत्या, लूट, चेन छीनने, शोहदे को पीटने में जुट गये थे।
दुनिया के किसी सर्वे की किसी भी रिपोर्ट में इस घटना का कोई जिक्र नहीं हुआ। शहर के किसी भी अखबार में उस मोहल्ले के लोगों के व्यवहार के पीछे की केमेस्ट्री खोजने के लिये न कोई जहमत उठायी गयी न ही इस घटना का पोस्ट मार्टम नहीं हुआ।
एक लिहाज से यह सही भी है। पोस्टमार्टम मरे हुये लोगों का होता है। जीवनदायिनी घटनायें का पोस्टमार्टम कैसा? वे तो हमारे-आपके दिल में धड़कने बनकर यादों में खुशबू की तरह महकती रहती हैं।
ऐसी घटनायें ऐसा नहीं कि हमारे ही शहर में होती हैं। आपके भी यहां तमाम ऐसी घटनायें होती होंगी। वास्तव में तो ऐसा दुनिया के हर शहर में,हमेशा, भले ही कम क्यों न हो, होता रहा है लेकिन इनका कोई सर्वे नहीं किया जाता। इसमें मेहनत लगती है। और आपाधापी के इस युग में अब मेहनत करने की आदत कम होती जा रही है।
आप आंखें खोलकर देखें तो अपने आसपास भी इस तरह की घटनायें होती दिखेंगी वर्ना तो तुलसीदास जी ने कहा ही है -मूंदहु आंख कतहुं कछु नाहीं
मेरी पसंद


छत के किसी कोने में
अटकी वह बूंद
टीन पर ‘टप्प’ गिरी
समय के अंतराल पर
गिरना जारी है उसका
लय-सीमा बंधी वह
गिरने के बीच
प्रतीक्षा दहला देती है
कि अब गिरी…अब गिरी. वर्षा थम चुकी है
छत से बहती तेज धार
एकदम चुप है
पर यह धीरे-धीरे संवरती
शक्ति अर्जित कर
गिरती है ‘टप्प’ से

सुकीर्ति गुप्ता

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

11 responses to “मूंदहु आंख कतहुं कछु नाहीं”

  1. अतुल
    “वे तो हमारे-आपके दिल में धड़कने बनकर यादों में खुशबू की तरह महकती रहती हैं।”
    पर अफसोस सिर्फ यही है कि यह खुशबू फैलयी जाये तो समाज का भला हो पर वह जिम्मेदारी उठाने वाले तो कोला बेचने , चौबीस घंते मसालेदार खबरो की जुगत मे लगे हैं।
  2. mitul
    व्यंग बहुत अच्छा है अनूप भाई, हमे पसंद आया। ‘अमेजिंग रिजल्ट्स’ का फारमूला सही समझाया है आपने। यह लेख भी पंच सितारा है आपका। सभी बातो से हम सहमत हैं।
    वैसे, हमारा बस कहाँ कि मूंदे अपनी आँखे, वे सूसरी खूद ही तो बंद रहती है।
  3. अनुराग श्रीवास्तव
    अनूप भाई लिखा बहुत की सहज तरीके से है। दिल खोल कर रख दिया हो जैसे – पत्रकारिता और ब्लागिंग में शायद यही अंतर है – यहां इंसान दिल से लिखता है। उस पर ‘किसी’ भी प्रकार का दबाव नहीं होता, दिल की बात सुनने के अतिरिक्त शायद और कोई अपेक्षायें भी नहीं होती। मेरी सोच गलत भी हो सकती है – पर भैया दिल तो मेर यही कहता है।
    पूर्व का मानचेस्टर कहलाने वाला कानपुर, सरकार द्वारा परोसे जा रहे सौतेले व्यवहार के कारण तिल तिल करके अपना अस्तित्व खोता जा रहा है। हलांकि अपना अस्तित्व बचाने के लिये जूझ तो रहा है लेकिन सरकारी प्रणाली या नीलियों के वाण ऐसे हैं कि घायल नगर को वापस अपने पैरों पर खड़े होने में लम्बा अर्सा लग सकता है।
    कानपुर के लिये दिल से प्रार्थना “Get Well Soon Kanpur!”
  4. Jatin Jain
    bhai, pichhle kuchh dino se blog padhna chaaloo kiya hai. Anoop bhai, aapka lekhan padhna, kaam ke beech achchha refreshing break deta hai.
  5. SHUAIB
    आपने इस लेख मे अपने शहर का आइना दिखा दिया अनूपजी, और पढने मे भी मज़ा आया।
  6. समीर लाल
    आदमी जब ऊपर से देखता है तो उसे चीजें दूर से दिखती हैं दूर तक दिखती हैं और अगर और कुछ बेहतर नहीं है देखने के लिये तो देर तक भी दिखती हैं।
    *******
    पत्थर कोई पासवर्ड पूछकर तो गिरते नहीं हैं लिहाजा वह पहले घायल हुआ फिर अगले दिन मर गया
    *******
    अति सुंदर. इस तरह के लेख बहुत कम पढ़ने को मिलते हैं.
    आप यदि इसमें से शहर का नाम हटा लें तो भारत के अधिकतर शहरों का रहने वाला हर पाठक इसे अपने शहर पर लिखा व्यंग ही समझेगा.
    आगे भी जारी रखें इस तरह के लेख.
  7. राकेश खंडेलवाल
    सिर्फ़ कानपुर नहीं आज यह दर्पण है हर एक नगर का
    शुतुर्मुर्ग से, नजर छुपा कर करते हल हर एक समस्या
    दोषारोपण करें दूसरों पर, हम साफ़ बचें संकट से
    हमने यह ही वर पाया कर पांच साल की कड़ी तपस्या
  8. Anoop Bhargava
    बहुत अच्छे अनूप भाई …
  9. आशीष
    शुक्ला जी, सच में आप हंसते हंसाते बहुत कुछ कग गये। श्री लाल शुक्ल जी का उद्धरण अच्छा लगा “ट्रकों का जन्म सड़कों का बलात्कार करने के लिये हुआ है”, शायद उसी तरह से टैपुओं का जन्म वातावरण का बला्त्कार करने कि लिये हुआ है। वैसे क्या कानपुर और क्या भोपाल, भारत के दूसरी श्रेणी के ज़्यादातर शहर कूड़े कि डिब्बे हैं और प्रदूषण की थाली हैं। अगर हम गिने चुने शहर मसलन पूना, चंडीगढ, और नागपुर को छोड़ दें, स्थिति बहुत अच्छी नहीं है।
  10. फुरसतिया » दीवाने हो भटक रहे हो मस्जिद मे बु्तखानों में
    [...] कानपुर एक दंगा प्रधान शहर है। यहां पिछले दिनों एक दंगा होते-होते रह गया। इसमें मुस्लिम परिवार का लड़का मारा गया था। दोनों समुदाय के लोग दंगा करने पर उतारू थे। दिन भर मोहल्ले के लोग दंगा टालने के लिये कोशिशे करते रहे। अंत में बुजुर्ग ने जिसका लड़का मारा गया था लोगों से अनुरोध किया – मैं अपना इकलौता बेटा खो चुका हूं। वह तो चला गया और किसी और की मौत से तो वापस आ नहीं जायेगा। अब मेरी आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि अब जो हो गया सो हो गया लेकिन अब किसी और के घर का चिराग बुझाने का कोई काम न करो। [...]
  11. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 4.चिट्ठाचर्चा,नारद और ब्लाग समीक्षा 5.मूंदहु आंख कतहुं कछु नाहीं 6.अपनी रचनायें भेजें 7.लिखिये तो छपाइये [...]

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