Saturday, July 21, 2007

चिरऊ महाराज

http://web.archive.org/web/20140419220219/http://hindini.com/fursatiya/archives/305

चिरऊ महाराज

[परसाईजी ने 'मेरे समकालीन' नाम से एक् लेख और् चरित्र माला लिखी है। इसके बारे में बताते हुये उन्होंने लिखा -‘मेरे समकालीन’ जो यह लेख और चरित्रमाला लिखने की योजना है, तो सवाल है- ‘मेरे समकालीन’ कौन? क्या सिर्फ़ लेखक? डाक्टर के समकालीन डाक्टर और चमार के समकालीन चमार। इसी तरह लेखक के समकालीन क्या सिर्फ़ लेखक? नहीं। जिस पानवाले के ठेले पर मैं लगातार २५-३० वर्ष रोज बैठता रहा हूं, वह पानवाला मित्र भी मेरा समकालीन है। अपने मुहल्ले का वह रिक्शावाला जो मुझे २५-३० साल ढोता रहा है, वह भी मेरा समकालीन है। जिस नाई से ३० साल दाढ़ी बनवाता रहा, बाल कटवाता रहा और घंटो गपशप करता रहा, वह भी मेरा समकालीन हैं। मेरे ‘घर’ में काम करनेवाले ढीमर को मैं, लंबे दौरों पर जाता, तो घर की एक चाबी दे जाता। वह मेरी डाक संभालकर रखता। घर साफ़ करता। लोगों को मेरी तरफ़ से जवाब देता, वह भी मेरा समकालीन है। हम सब साथ- साथ बढ़े हैं। सहयोगी रहे हैं। एक-दूसरे की मदद की है। साथ ही विकास किया है।
ऐसे ही अपने एक् समकालीन् 'चिरऊ महाराज' के बारे में लिखा परसाईजी का संस्मरण यहां प्रस्तुत है। यह् लेख परसाईजी की पुस्तक जाने-पहचाने लोग में संकलित है।]
खूब स्थूल, मगर कसा शरीर। थुलथुला नहीं। निपट काला रंग। लंबी झर्राटेदार मूछें। बड़ी-बड़ी चमकदार आंखे। मोटे ओंठ। बड़ी मोटी नाक। कुल मिलाकर बहुत दबंग, मगर डरावने नहीं। ऎसे नहीं कि बिना ‘मेकप’ के रामलीला में कुंभकर्ण की भूमिका कर लें। इतना बड़ा डील-डौल और कहलाते थे ‘चिरऊ महाराज’। बचपन में ही इतने स्थूल थे कि मजाक में उन्हें चिड़वा (चिरऊ) कहने लगे थे। ब्राहमण थे तो आगे ‘महाराज’ लगा।
कुरता-धोती पहने, कंधे पर गमछा डाले यह आदमी दूध के पांच बड़े-बड़े कनस्तर लिए मोटर स्टेंड पर इमली के झाड़ के नीचे खड़ा रहता था। लगभग तीस किलोमीटर दूर अपने गांव से यह आदमी ये दोध के कनस्तर लेकर आता था। दोपहर तक दूध खत्म हो जाता। उसके ग्राहक बंधे हुए थे। कुछ होटल बंधे हुए थे। कुछ परिवारों को दूध बंधा था। कुछ फ़ुटकर ग्राहक ले जाते। साख इस आदमी की इतनी थी कि उसके दूध में एक बूंद भी मिलावट नहीं होती न गैरवाजिब दाम लेता- कि दूध खरीदनेवालों की भीड़ लग जाती। इस आदमी को किसी होटल या घर दूध देने नहीं जाना पड़ता था एक ही जगह रखे-रखे बिक जाता था। यह क्रम पंद्रह साल तक तो मैंने रोज देखा है। पाटन में, जहां वे दूध इकट्ठा करते, नापते नहीं थे। पूछते-कितना है? वह कहता- पांच लिटर। वे पैसे दे देते और दूध डलवा
लेते। न किसी से झगड़ाम न विवाद, न झंझट। यह आदमी बोलता बहुत कम था। बीच में रूपराम के पान के ठेले पर जाकर बैठ जाता और पान-तमाखू खाता। कुछ देर बतियाता। सिर्फ़ रूपराम से ही उसकी निजी घरू बातें होती थीं। मैं जब रूपराम के ठेले पर होता, तो यह आदमी एकमात्र सीट पर नहीं बैठता। कहता-पंडित जी, आप बैठिए। मैं इधर नीचे चबूतरे पर बैठ जाता हूं। मैं कहता-नहीं चिरऊ महाहज, आप बैठिए। आप मुझसे बड़े हैं। चिरऊ महाराज कहते- पंडित जी, उमर में बड़ा हूं, पर ज्ञान में आप बहुत बड़े है। हम तो गंवार आदमी हैं।
वे बैठते। कहते- पंडित जी, जमाना बहुत खराब आ गया। यह है कलियुग। बेटे ही बाप की बात नहीं मानते। ईमानदारी रही नहीं है। मैं दूध में पानी बिलकुल
नही मिलाता, तो लोग कहते हैं- चिरऊ महाराज बेवकूफ़ आदमी है। मेरे लड़के तक मुझे बेवकूफ़ समझते हैं। मैं कहता हूं. हम तो बेटा, बिभाएंगे। हम गोस्वामी
की रामायणजी पढ़े हैं। हमारे मरने पर तुम जब मालिक होओ, तब चाहे जो करना। हमारी दाल-रोटी चल रही है। हम ब्राहमण है। ब्राहमण सुदामा ने घरवाली से
कहा था, ‘औरन को धन चाहिए बावरी, बाम्हन को धन केवल भिच्छा।’
चिरऊ महाराज के रोबदाब, दबंगपन, ईमानदारी, साफ़गोई की इतनी प्रतिष्ठा और आतंक कि कोई उनसे गलत बहस नहीं करता था। कोई करता तो वे कहते- भैया,
तुम्हारी ऊटपटांग बात सुनने के लिए यह करमफ़ूटा चिरऊ ही बचा है। दूसरे लोग हैं, उनको सुनाओ।
चिरऊ महाराज पांच बड़े कनस्तर दूध लाते थे और एक छोटा। पर बेचते सिर्फ़ पांच कनस्तर थे। छठे छोटे कनस्तर का दूध गरीब बच्चों को पिला देते।उन्हें देखते ही आसपास के बच्चे दौड़कर आते- चलो, चिरऊ महाराज आ गए। दूध पीएंगे। बच्चे आते जाते और चिरऊ महाराज छोटे गिलास से उन्हें दूध पिलाते जाते। कहते थे- यही हमरा थोड़ा-बहुत पुण्य है। नहीं तो क्या धरा है जिंदगी में। पांच कनस्तर खाली हो जाते और कोई ग्राहक आकर कहता- इस कनस्तर में तो दूध है। यही दे दीजिए। वे कहते- भैया, वह बेचने का नहीं है। बच्चों को मुफ़्त पिलाने के लिए है। क्यों गरीब बच्चों के मुंह का दूध छीनते हो।
चिरऊ महाराज घर से नाश्ता करके दूध पीकर आते थे। दोपहर को मद्रासी होटल में जाते, साथ में एक-दो आदमी और होते। वहां न दोसा खाते, न इडली। मांग
देखकर मद्रास होटल के मालिक त्यागराज आलूबंडा भी बनाने लगे थे। चिरऊ महाराज एक प्लेट भरकर सांभर रखवाते टेबिल पर और आलूबंडो का ढेर। सांभर के
साथ ५-६ आलूबंडे उनका ‘लंच’ था। मोटर स्टेंड पर होटल भी थे, जहां सब्जी, रोटी, दाल खा सकते थे। पर वे आलूबंडे का ही लंच करते। खाकर पेट हाथ फ़ेरते। पान-तमाखू खाते और होटल की एक बेंच पर सो जाते। शाम आते उठते और खाली कनस्तर बस में रखकर गांव लौट जाते।
परोपकारी आदमी थे। जो काफ़ी दूध रोज गरीब बच्चों को मुफ़्त पिलाए, उसकी संवेदनशीलता का अंदाज लगाया जा सकता है। वे वैद्य भी थे। इलाज मुफ़्त करते
थे। कुछ दवाइयां खुद बनाते थे और कुछ दुकानों से खरीदते थे। वे छोटे रोग ठीक कर लेते थे। अपने गांव में या आसपास के गांवो में किसी के बीमार होने की खबर मिलती, तो चिरऊ महाराज दवाइयों का बक्सा लेकर पहुंच जाते। धोखा नहीं देते थे। कुछ अनाड़ी तो यह भी दावा करते हैं कि कैंसर ठीक कर दूंगा। मगर चिरऊ महाराज मरीज की हालत देखते। ज्यादा बीमार होता, तो कह देते,- यह रोग अपने बस का नहीं है। दवा हम दे देते हैं। पर इसे मेडिकल कालेज ले जाओ। काफ़ी जैसा उनका दवाइयों पर खर्च होता था।
चिरऊ महाराज विशेष पढ़े-लिखे नहीं थे। अनुभवी बहुत थे। वे ‘रामचरितमानस’ का रोज पाठ करते थे। रामभक्त थे। वे मानते थे कि कभी राम-राज था, जिसमें
कोई दीन, दुखी और रोगी नहीं था। वे मानते थे कि वैसा राम-राज फ़िर आ सकता है, अगर हम पाप छोड़ दे। सबसे बड़ा पाप है, देश में गोहत्या होना। गोहत्या
बंद हो जाय तो राम-राज आ सकता है।
‘रामचरितमानस’ के प्रति प्रेम, राम के प्रति भक्ति और गौमाता के प्रति श्रद्धा उन्हें स्वामी करपात्री के संगठन ‘रामराज-परिषद’ में ले गई। वैसे चिरऊ महाराज न राजनीति समझते थे, न राजनीति का काम करते थे। वे सांप्रदायिक बिल्कुल नहीं थे। मानवतावादी थे। पर जब ‘रामराज-परिषद’ में शामिल हो गए, तो उसकी राजनीति भी करने लगे।
आम चुनाव आए। स्वामी करपात्री न उन्हें आदेश दिया कि वे फ़ूलपुर से जवाहरलाल नेहरू के खिलाफ़ चुनाव लड़े। सारे मोटर स्टेंड में इसकी चर्चा होती रही।लोगों ने समझाया कि आप नेहरू के खिलाफ़ मत लड़ो। फ़िर वहां डाक्टर लोहिया लड़ रहे हैं। आप फ़जीहत में मत पड़ो। पर चिरऊ महाराज ने कहा- लड़ना तो पड़ेगा। स्वामी जी का आदेश है।
मैंने पूछा- स्वामीजी ने रूपए कितने दिए है?
उन्होंने बताया- हजार रूपए।
मैंने कहा- लोकसभा का चुनाव और हजार रूपए। इतने में तो पोस्टर भी नहीं बनेंगे। चिरऊ महाराज ने कहा- कुछ पास के भी लग जाएंगे। पर लड़ेगे जरूर। मामूली
आदमी के खिलाफ़ चुनाव क्या लड़ना। नेहरू के खिलाफ़ लड़ेगे तो दुनिया में नाम होगा। और हार-जीत का ऎसा है किहानि, लाभ, जीवन, मरन, जस-अपजस विधि हाथ…’ सियावर रामचंद्र की जय।
चिरऊ महाराज बदल गए। लगभग मौन रहनेवाले बहुत बोलने लगे। ‘रामचरितमानस’ उन्हें याद था ही। बात-बात में मानस के उद्धरण देते। वे पूरे नेता हो गए।
कपड़े नए और साफ़ पहनने लगे। मगर दूध के पीपे रोज की तरह ही लाते।
वे उम्मीदवारी का फ़र्म भरने इलाहाबाद गए। साथ में मोटर स्टेंड के दो लोग गए। स्टेशन पर उन्हें मालाएं पहनाई गई। बहुत लोग उन्हें पहुंचाने गए थे। चिरऊ महाराज की जय बोली गई। वे गदगद हो गए। बोले- भैया, हम तो धर्म की लड़ाई लड़ने जा रहे है। भगवान राम का आदेश है। और हम हैं हनुमान- जो राउर अनुसासन पावौं, कंदुक इव ब्रम्हाण्ड उठावौ। राम का प्रताप ऎसा है- बिनु पग चलै सुनै बिनु काना, कर बिनु करै कर्म विधि नाना।
इलाहाबाद का हाल साथ गए लोगों ने बताया। इलाहाबाद में बड़ी चर्चा थी कि ये कौन ‘चिरऊ महाराज’ है जो जवाहरलाल के खिलाफ़ चुनाव लड़ रहे है। नाम था उनका- रामनारायण उरमलिया, पर वे ‘चिरऊ महाराज’ के नाम से ही जाने जाते थे। पोस्टरों में भी नाम के आगे ‘चिरऊ महाराज’ छपा था।
फ़ार्म भरके निकले तो पत्रकारों ने घेर लिया। तरह-तरह के सवाल करने लगे। विदेशी पत्रकार भी बहुत थे। इन्होंने कहा- हमें अंगरेजी नहीं आती। जो बात करना हैं हिंदी में करो। बात ये है, हमें जवाहरलाल से कोई शिकायत नही हैं। वे गौहत्या बंद करवा दें तो हम बैठ जाएंगे।
अब ‘चिरऊ महाराज’ का अंग्रेजी व विदेशी पत्रकारों ने अर्थ निकाला कि ये चिरऊ नाम के देशी राज्य के महाराज हैं। गोडवंश के मालूम होते है। रानी दुर्गावती के वंश में आते होंगे। अंग्रेजी अखबारों ने प्रचार किया- Prince of Chirau State contests against Jawaharlal Nehru, Demanads ban on cow-slaughtler.
इनकी देखा-देखी हमारे क्षेत्र के बाहर के अखबारों ने भी लिखा- चिरऊ राज्य के महाराज पंडित नेहरू के खिलाफ़ लड़ रहे है।
हम लोग मजा ले रहे थे कि हमारे चिरऊ महाराज दुनिया में ‘Prince of Chirau State’ के नाम से विख्यात हो गए।
लोहिया को उनके बारे में सबकुछ मालूम हो गया था। लोहिया ने पूछा- जवाहरलाल से आपको क्या शिकायत है? महाराज ने जवाब दिया- हमें एक ही शिकायत है कि उनके राज में गौहत्या होती है। वे गौहत्या बंद करवा दें तो हम नहीं लड़ेंगे। आपसे कहेंगें कि आप भी बैठ जाओ। एक बात है, लोहिया जी! अगर आप बैठ जाओ तो हम जवाहरलाल को हरा देंगे। लोहिया ने ठहाका लगाया- महाराज, दूध पीओ।
कुछ लोगों ने समझाअ कि यह बौड़म किसम का आदमी है। इससे नेहरू का चरित्र-हनन कराया जा सकता है। एक सांप्रदायिक दल के लोग आए। उनके नेता ने
कहा- आप तो महाराज रामभक्त है। राम मर्यादा-पुरूषोत्तम थे। एक पत्नीव्रतधारी थे। राजा को ऎसा ही होना चाहिए। एक ये राजा है जवाहरलाल, जो चरित्रहीन हैं। इनके औरतों से संबंध हैं। आप इसका पर्दाफ़ाश करो। आप ही इतनी हिम्मत कर सकते है। पोस्टर हम छपा देंगे। आप लिखकर दे दो। चिरऊ महाराज समझ गए। उस नेता से कहा-भैया, क्या तुम्हारी औरत भी जवाहरलाल से फ़ंसी है?
वह बोले- यह क्या बकते है?
महाराज ने कहा- बकता नहीं, कहता हूं। तुम क्या मुझे बौड़म समझते हो। समरथ को नहिं दोस गुसाई- यह तुलसीदास ने कहा है। नेहरू समर्थ हैं। और तुम?
चिरऊ महाराज ने चुनाव-प्रचार ‘रामचरितमानस’ का पाठ करके ही किया। वे जमकर बैठ गए, और जगह-जगह ‘रामचरितमानस’ का पाठ करके प्रचार करते।डीलडौल और व्यक्तित्व के कारण और Prince Chirau State होने के कारण लोग इकट्ठे भी होते। पर कोई उन्हें गंभीरता से लेता नहीं था।
एक श्रूंगवेरपुर है गंगा के किनारे। उस जगह केवटों की बहुत आबादी है। चिरऊ महाराज वहीं राम के सरयू पार करने के केवट-प्रसंग का पाठ करते रहे-

मांगी नाव न केवट आना
कहई तुम्हार मरम में जाना
चरण कमल रज कहैं सब कहई
मानस करनि भूरि कछु अहई
छुवत सिला भई नारी सुहाई
पाहन तें न काठ कठिनाई
तरनिहि मुनि घरनी हुई जाई
बाट परई मोरि नाव उड़ाई
एहि प्रतिपालऊं सब परिवारू
नहीं जानऊं कछु अजर कबारू
जो प्रभु पार अवस कर चहहू
मोहि पद पदम पखारन कहहू
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे।
विहंसे करूना ऎना, चितहू जानकी लखन तन॥


बोल सियावर रामचन्द्र की जय।
चिरऊ महाराज को केवटों के काफ़ी मत मिल गए। कुल दस एक हजार मत उन्हें मिले। हारकर लौटे तो फ़िर वही जिंदगी- धोती-कुरता पहने डब्बों से सबेरे से दूध बेच रहे है।
बहुत दिनों तक बाहर के लोग इस Prince of Chirau State को देखने आते रहे, जो मोटर स्टैंड पर दिन-भर खड़े-खड़े दूध बेचते थे।
कुछ साल पहले चिरऊ महाराज की म्रत्यु हो गई। किसी ने जाना नहीं कि उन्हें कठिन बीमारी है। कोई हल्ला नहीं हुआ। किसी को खास कष्ट नहीं दिया।
दास कबीर जतन से ओढ़ी जस की तस धर दीन्हीं चदरिया!
-हरिशंकर् परसाई

15 responses to “चिरऊ महाराज”

  1. अरूण
    साधुवाद चिरायू महाराज को चिरायू बनानए के लिये
  2. yunus
    इसे पढ़के बहुत अच्‍छा लगा । आजकल परसाई जी की रचनाएं आप लोगों के प्रयास से दोबारा पढ़ने मिल रही हैं । पुराने दिनों की याद ताज़ा हो रही है । जबलपुर का हूं इसलिये सारा परिदृश्‍य पहचाना सा लगता है । आलूबंडे शब्‍द बहुत दिनों बाद सामने आया । परसाई जी उन दिनों के मसिजीवी थे, जब लेखन से आजीविका कमाना बेहद दुरूह काम था, लेकिन वो अपने आत्‍मसम्‍मान की रक्षा करते हुए ठसके के साथ रहे । और ऐसे ऐसे विषयों पर लिखते रहे, जिस पर लिखना दूसरों को हेठी लगता था । परसाई के बाद हमें दूसरा कोई सशक्‍त व्‍यंग्‍यकार नहीं मिला ।
  3. sujata
    बहुत खूब ।आपके प्रयास से परसाई जी को पढ पाए ।धन्यवाद !
  4. Sanjeet Tripathi
    शुक्रिया यह बढ़िया रचना पढ़वाने के लिए! इसे अभी तक नही पढ़ पाया था
  5. अजित
    बहुत बहुत धन्यवाद परसाई जी की महत्वपूर्ण रचना से साक्षात्कार कराने के लिए
  6. anamdasblogger
    मन खुश हो गया, कितनी सादा-सुंदर और सार्थक कहानी है चिरऊ महाराज की. सब कुछ तो है इसमें. आभार
  7. ज्ञान दत्त पाण्डेय
    सुकुलजी, आपके पिताजी के मित्र से मिले थे पर ये महाराज तो विलक्षण हैं. ऐसे तो कुछ प्रतिशत में मिले हैं – पूरे-पूरे नहीं. अब सतर्क रह कर देखेंगे.
  8. masijeevi
    शुक्रिया
  9. Isht Deo Sankrityaayan
    बहुत ख़ूब फुरसतिया जी. इस सार्थक और उत्कृष्ट प्रयास के लिए धन्यवाद शब्द बहुत छोटा पड़ेगा. एक काम अगर आप और कर लेते, यानी विभिन्न ब्लोगों पर यत्र-तत्र छाप रही परसाई जी की रचनाओं को एक जगह इकठ्ठा करने का, तो पक्का है कि आपका फुरसतिया नाम भी सार्थक हो जाता.
  10. सागर चन्द नाहर
    बहुत सुन्दर रचना पढ़वाने के लिये धन्यवाद।
  11. समीर लाल
    आभार, जितनी बार भी पढ़ने मिल जाये, कम है. परसाई जी की हर बात निराली है. आप पेश करते रहें. साधुवाद.
  12. प्रियंकर
    यह संस्मरण पहले भी पढा था , आपके जरिए पुनः पढा . आगे भी पढने को मिलेगा तो फिर से पढूंगा . परसाई का लिखा होता ही ऐसा है . आपको अच्छे साहित्य का ‘कोनसर’ और प्रस्तोता ऐसे ही थोड़े कहा है .
  13. परसाई- विषवमन धर्मी रचनाकार (भाग 1)
    [...] चिरऊ महाराज [...]
  14. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] चिरऊ महाराज [...]
  15. विवेक रस्तोगी
    आलूबंडे अपने यहाँ तो रोजमर्रा का शब्द है, और गोहत्या अभी तक बंद नहीं हुई, इसको बढ़ावा ही मिल रहा है, परसाई जी का चिंतन अभी तक व्यर्थ नहीं है, बस शायद अब चिरऊ महाराज नहीं मिलेंगे ।
    विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..बात करने का बहाना चाहिये तो प्रकृति सबसे अच्छा विषय है

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