Tuesday, October 30, 2007

गुस्से के कुछ सौंदर्य उपमान

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गुस्से के कुछ सौंदर्य उपमान

मिज़ाज, ज़बान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट,पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था खोया पानी]
मीटिंग अच्छी-खासी चल रही थी। साहब को अचानक किसी बात पर गुस्सा आ गया। वैसे वे गुस्से के लिए कभी किसी बात के मोहताज भी नहीं रहे। जब मन आया कर लिया। कभी-कभी तो बेमन से भी गुस्से के पाले में कबड्डी खेलने लगते। लेकिन बेमन से गुस्सा करने में उनको वो मजा न आता। लगता गुस्सा न करके बंधुआ मजदूरी कर रहे हों।
गुस्से की गर्मी से अकल कपूर की तरह उड़ गयी। जो मोटी अकल जो उड़ न पायी वो नीचे सरक कर घुटनों में छुप गयी। दिमाग से घुटने तक जाते हुये शरीर के हर हिस्से को चेता दिया कि साहब गुस्सा होने वाले हैं। संभल जाओ। सारे अंग अस्तव्यस्त होकर कांपने लगे। कोई बाहर की तरफ़ भागना चाह रहा था कोई अंदर की तरफ़। इसी आपाधापी में उनके सारे अंग कांपने लगे। मुंह से उनके शब्द-गोले छूटने लगे। मुंह से निकलने वाले शब्द एक दूसरे को धकिया कर ऐसे गिर-गिर पड रहे थे जैसे रेलने के जनरल डिब्बे से यात्री उतरते समय कूद-कूद कर यात्रियों पर गिर-गिर पड़ते हैं।
गुस्से में साहब के मुंह से निकलने वाले बड़े-बड़े शब्द आपस में टकरा-टकरा कर चकनाचूर हो रहे हैं। बाहर निकलने तक केवल अक्षर दिखाई देते हैं। लेकिन वे जिस तरह से बाहर टूट-फ़ूट कर बाहर सुनायी देते हैं उससे पता नहीं लगता कि अक्षर बेचारा किस शब्द से बिछुड़कर बाहर अधमरा गिरा है। ‘‘ सुनाई देता तो पता नहीं लगता कि ‘हम‘ से टूट के गिरा है ‘हरामी’ से। हिम्मत खानदान का है या हरामखोर घराने का! अक्षरों का डी.एन.ए. टेस्ट भी तो नहीं होता।
साहब गुस्से में कांप रहे हैं। किसी पम्प सेट के पाइप सरीखे उनका मुंह हिल रहा है। शब्दों की धार बाहर निकल रही है। गुस्से में कांपने का मतलब यह नहीं होता कि गुस्सा बहुत तेज है। कांपना ड्रर के मारे होता है कि अगला भी न गुस्साने लगे। न्यूटन का क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम हर जगह सही साबित होता है।
मैंने आज तक जितने गुस्सैल लोग देखे हैं हमेशा उनके गुस्से को ऊर्जा के गैरपरम्परा गत स्रोत की तरह पाया। अगर लोगों के गुस्से के दौरान निकलने वाली ऊर्जा को बिजली में बदला जा सके तो तमाम घरों की बिजली की समस्यायें दूर हो जायें। जैसे ही कोई गुस्से में दिखा उसके मुंह में पोर्टेबल टरबाइन और जनरेटर सटा दिया। दनादन बिजली बनने लगेगी। अभी लोग गुस्सैल लोगों से बचते हैं। तब लोग गुस्सैल लोगों से बिजली के खंभे की कटिया से सटे रहेंगे।
जैसे लोग नहाते समय आमतौर पर नहाते समय कपड़े उतार देते हैं वैसे ही गुस्से में लोग अपने विवेक और तर्क बुद्धि को किनारे कर् देते हैं। कुछ लोगों का तो गुस्सा ही तर्क की सील टूटने के बाद शुरू होता है। बड़े-बड़े गुस्सैल लोगों के साथ यह सच साबित हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने लक्ष्मण जी के गुस्से का सौंदर्य वर्णन करते हुये लिखा है-

माखे लखन कुटिल भई भौंहें। रदपट फ़रकत नयन रिसौंहें॥
लक्ष्मणजी तमतमा उठे। उनकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं। ओंठ फ़ड़कने लगे और आंखे गुस्से के मारे लाल हो गयीं।

गुस्से के लक्षण देखते ही उनकी तर्क बुद्धि ने उनसे समर्थन वापस ले लिया और वे बोले-
जो राउर अनुशासन पावौं। कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥
काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकऊं मेरू मूलक जिमि तोरी॥

यदि भगवान राम की आज्ञा पाऊं तो ब्रह्मांड को गेंद की तरह उठा लूं। उसे कच्चे घड़े की तरह फोड़ डालूं। सुमेरू पर्वत को मूली की तरह तोड़ दुं।

जिस ब्रह्मांड में हम खड़े हैं उसे उठाने और घड़े के समान फोड़ देने की कल्पना केवल गुस्से में ही की जा सकती है। पोयटिक जस्टिस के सहारे। हम तो अपनी कुर्सी सहित अपने को उठाने की कल्पना करने में ही परेशान हो जायें। :)
गुस्से में आदमी चाहे जौन सी भाषा बोले समझ में नहीं आती। लेकिन भारत में लोग गुस्सा करते समय और प्यार जताते समय अंग्रेजी बोलने लगते हैं। ऐसा शायद इसलिये होगा कि जो भाषा समझ में न आये उसमें अटपटी बातें बेझिझक कही जा सकती हैं।
मुझे तो यह भी लगता है कि शायद भारत की भाषा नीति भी गुस्से के कारण बनी। आजादी के बाद लोग अंग्रेजों से बहुत खफ़ा रहे होंगे। अब अंग्रेज तो हमारी भाषायें सीखने से रहे। (जब हम ही नहीं सीखते तो वे क्या सीखेंगे? ) इसलिये उनके प्रति गुस्सा जाहिर करने के लिये लोगों ने अंग्रेजी का प्रयोग शुरू किया। सोचा होगा दस बीस साल में जब सारा गुस्सा खतम हो जायेगा तब अपनी भाषायें अपना लेंगे। लेकिन अंगेजी अब काफ़िर की तरह मुंहलगी होगी। कम्बख्त छूटती ही नहीं।
गुस्से में अंग्रेजी के महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब साहब तेज आवाज में अंग्रेजी बोलने लगें तो समझा जाता वे गुस्से में हैं। लेकिन इसे गुस्सामीटर की तरह मानना जल्दबाजी होगी। होता दरअसल यह है कि गुस्सा करने का वाले का दिमाग पटरी से उतर जाता है। सो भाषा को भी अपनी पटरी बदलनी पड़ती है। इसलिये देशज भाषायें बोलने वाला अंग्रेजी बोलने लगता है, अंग्रेजी जानने वाला फ़्रेंच बोलने लगता है, फ़्रेंच जानने वाला फ़्राई होकर लेटिन बोलने लगता है। मतलब जो जिस भाषा में सहज होता उससे अलग दूसरी भाषा का दामन पकड़ लेता है ताकि असहज लगे। लोगों को पता लगे कि अगला गुस्से में है। यही नहीं भाषा के अलावा लोग दूसरे प्रशाधन भी इस्तेमाल करते हैं। बड़बोला मौन हो जाता है, मितभाषी बड़बोला हो जाता है। धीमे बोलने वाला चिल्लाने लगता है। चिल्लाने वाला चिंघाड़ने लगता है। चिंघाड़ते रहने वाला हकलाने लगता है। हकलाते रहने वाले के मुंह में ताला पड़ जाता है।
गुस्सा करने वाले के दुख एक गुस्सा करने वाला ही जानता है।
क्या आपको गुस्सा आ रहा है? :)

13 responses to “गुस्से के कुछ सौंदर्य उपमान”

  1. अनिल रघुराज
    गुस्से का मनोविज्ञान अच्छा पकड़ा है आपने।
  2. संजय बेंगाणी
    हाँ गुस्सा आ रहा है, हमारी मस्खरी कर के आनन्द ले रहें है? छोड़ेंगे नहीं….. >:
  3. ज्ञानदत पाण्डेय
    मैं इस बात से सहमत हूं के क्रोध में व्यक्ति का व्यवहार सामान्य के उलट होता है। क्रोध से सम्मोह होता है, मोह से स्मृति विभ्रम, स्मृति विभ्रम से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से मानव का नाश – गीता 2(63)। यह सब व्यवहार में निश्चय ही इम्प्यूरिटी लाते हैं।
    आपकी पोस्ट का दार्शनिक महत्व है। मुझे तो अक्रोध बहुत महत्वपूर्ण विषय लगता है चरित्र निर्माण में।
  4. rachana
    **गुस्सा करने वाले के दुख एक गुस्सा करने वाला ही जानता है।**
    और गुस्सा नही कर पाने वाले के भी अपने दुख होते हैं!
    **क्या आपको गुस्सा आ रहा है? **
    कल का लेख पढ कर गुस्सा आने की शुरुवात हुइ थी लेकिन आज गायब हो गया!
    बहरहाल दोनो ही लेख पढकर मजा आया.
  5. समीर लाल
    बिल्कुल गुस्सा नहीं आ रहा है बल्कि लेखनी पर मोहाये मूँह बाये बैठे हैं. क्या क्या बिम्ब इस्तेमाल किये हैं-जबरद्स्त. पूरे प्रवाह के साथ. कल्पनाशीलता झूम झूम के नाची है और कलम ने जो नृत्य दिखाया है कि जियरा चहक चहक गया.बहुत खूब. आपसे ऐसी ही लेखनी की उम्मीद बहुत दिन से लगाये बैठा था. बहुत बधाई और ऐसे ही जारी रहें.
  6. नितिन
    हां, आप अपनी लेखनी को इसी तरह क्यों नहीं चलाते रहते हैं, क्यों फालतू में अपनी लेखन-उर्जा संकलको की रस्साकशी में बरबाद करते हैं?
    लेख बहुत अच्छा है।
  7. फुरसतिया » क्रोध किसी भाषा का मोहताज नहीं होता
    [...] हमारे तमाम दोस्तों ने हम पर गुस्सा करते हुये कहा है कि हमें किसी झग़ड़े में पड़ने की बेवकूफ़ी नहीं करनी चाहिये। कुछ दोस्तों ने गुस्से वाली पोस्टों पर भा गुस्सा किया यह कहते हुये कि अजीब बेवकूफ़ी है-त्योहारों मे मौसम में गुस्से की बात करते हो। [...]
  8. kamalkant
    bahut acha
  9. seema gupta
    ” ha ha ha ha haha ha ha ha ha ha ha ha ha ha ye artical pdh kr hmara to gussa na jne khaan kaafur ho gya ha ha ah ah ah aha ha ha ha ha ha ah “
  10. ….गुस्से के पाले में कबड्डी
    [...] सोचा कि एक पुरानी पोस्ट ही ठेल दी जाये। [...]
  11. …..इति श्री इलाहाबाद यात्रा कथा
    [...] गुलछर्रे उड़ाये। हा-हा, ही-ही की। उनका गुस्सा इधर-उधर के निशाने पर फ़ूट रहा है। उनकी [...]
  12. amrendra nath tripathi
    ee ras lekar likhne kee adaa bhee gajab hai aapkee !!!!!!!
  13. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] गुस्से के कुछ सौंदर्य उपमान [...]

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