Wednesday, May 21, 2008

ऐसा अक्सर होता है….

http://web.archive.org/web/20140419215532/http://hindini.com/fursatiya/archives/435

ऐसा अक्सर होता है….

ऐसा आजकल रोज होता है।
रात देर आफ़िस से आते हैं। चाय-चुस्की के बीच घर वालों से बतियाते हैं। बतियाते क्या, अपने बारे में ही शिकायतें सुनते हैं। ये कहा था वो कहा था। ये नहीं किया वो नहीं हुआ।
सोचते हैं कुछ लिखा जाये ब्लाग पर। फ़िर पढ़ने में इतना मशगूल हो जाते हैं कि लिखना बिसरा जाता है। और फिर खाना खाकर लेटे-लेटे किताब/किताबें पढ़ते -पढ़ते सो जाते हैं।
सोते समय पढ़ने की आदत न जाने कब से है। चाहे जितना थके हों, चाहे जितना परेशान हों, चाहे जहां हों -कुछ न कुछ पढ़ने का मन हमेशा रहता है। चाहे आधा पन्ना पढ़ें। पढ़ लेते हैं तो सुकून मिलता है।
ऐसा नहीं है कि रोज कुछ नया पढ़ते हों या ऐसा कुछ दुर्लभ पढ़ते हों जो आपने या किसी और न पढ़ाअ हो। जो पसंदीदा है वही बारबार लौट-लौट के पढ़ते हैं। तमाम अनपढ़ी किताबें पढ़ने के इंतजार में अपनी बाट जोह रही हैं।
यह बेवकूफ़ी की बात भले लगे, लगेगी ही(मुझे खुद लगती है) लेकिन मैं अक्सर ऐसा सोचता हूं कि मेरे घर में घर के सदस्यों के अलावा सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण चीज अगर कुछ है तो वो हैं मेरी किताबें। और सब कुछ चला जाये और किताबें बचीं रहे तो लगेगा कि कुछ खास नहीं गया।
इसके बावजूद मैं किताबें ठीक से नहीं रखता। सजा के , करीने से रखने की आदत नहीं। इधर-उधर न जाने किधर-किधर पड़ी रहती हैं। जहां पढ़ते हैं वहीं छोड़ देते हैं। लेकिन कहीं जाती नहीं। तुरन्त मिल जाती हैं। कभी-कभी पत्नी किताबें करीने से आलमारी में लगा देती हैं। तब अगर मुझे नहीं मिलती तो थोड़ा , औकात भर, झल्लाता हूं- तुम्हारा तो बस चले तो हमें भी अलमारी में सजा दो। :)
किताबों बेतरतीब रहती हैं तो मिल जाती हैं। कायदे से रखने में बिला जाती हैं। कायदे से रखने में खोजना पड़ता है। यह अजीब विरोधाभास है न! शायद अपने अस्त-व्यस्त , लस्टम-पस्टम व्यक्तित्व को सही साबित करने का लचर बहाना।
तमाम चीजे खोयीं हैं। एक पासबुक, कुछ सर्टिफ़िकेट, जरूरी कागज और न जाने क्या अगड़म-बगड़म। लेकिन लगता है सब मिल जायेंगे। कहीं नहीं गये हैं। घर में ही हैं। कई को इसीलिये खोजने की कोशिश भी नहीं करता क्योंकि डर है कि यह ‘लगना’ कहीं छलावा न साबित हो। :)
अरे, ई क्या हुआ। हम रात की कथा बताते ही रह गये और इधर सुबह हो गयी। जो कहना चाहते थे वो कह ही न पाये। :)
हां, तो होता यह है कि सबेरे आजकल जल्दी उठ जाते हैं तो सोचते हैं कि अपनी आज की पोस्ट लिखें। फिर सोचते हैं कि देखें और लोगों ने क्या लिखा? ज्ञानजी और आलोक पुराणिक ने क्या कहा-सुना? उनके ब्लाग पर और लोगों ने क्या टिपियाया है। इसी में आठ बज जाते हैं और आफ़िस जाने का समय हो जाता है। तब मन में लगता है एक पोस्ट घसीट दी जाये। अक्सर नहीं कर पाते। :)
फिर शाम से वही कहानी दोहराई जाती है।
ऐसा रोज भले न हो लेकिन अक्सर होता है।
आपके साथ भी क्या ऐसैइच होता है?

22 responses to “ऐसा अक्सर होता है….”

  1. mehek
    hota hai aisa hi hota hai,dusron ke post padhne aur tippani padhne mein anand bahut aata hai aur khud kuch bhi nahi likh pate:);).
  2. आलोक पुराणिक
    ये सारे क्रियेटिव बंदों के लक्षण हैं
    बहुत व्यवस्थित लोग बहुत महान क्रियेटिव लोग नहीं होते। अव्यवस्था क्रियेटिविटी की पहली शर्त है।
    पत्नी को समझाइये कि वह आपको महानता और क्रियेटिवटी के रास्ते पर देखना चाहती हैं या सिर्फ साफ आलमारीयुक्त पति।
    जमाये रहिये।
  3. मुक्ति
    चाय कौन बनाता है?…:-)
  4. काकेश
    जी ऐसाइच होता है.हमारे साथ रोज ऐसाइच हो रहा है. किताबों के बारे में हमारी पत्नी जी से अक्सर लड़ाई होती है. हमें फैली हुई किताबें अच्छी लगती है. सामने रहती हैं तो पढ़ने लग जाते हैं और पत्नी जी उन्हे अलमारी में रख देती हैं. यदि कभी पढ़ने की सुध आ गयी तो फिर उन्ही से मांगनी पड़ती हैं.
  5. bhuvnesh
    हा हा….सही कहा अक्‍सर मैं भी सोचता हूं कि कुछ लिखा जाए पर पहले बाकी के ब्‍लॉग्‍स पढ़ लें और इधर-उधर की खाक छान लें फिर फुर्सत से लिखेंगे.
    इस चक्‍कर में सिर्फ पाठक बनकर ही संतोष करना पड़ रहा है.
  6. प्रतीक पाण्डे
    अगर आपके साथ ऐसा हो रहा है, तो हम बेचारों का क्या होगा? पोस्ट लिखिए धड़ाधड़, ताकि हम भी कुछ प्रेरणा ले सकें। :)
  7. kirtish
    ऐसैइच होता है सरजी. :D
  8. प्रत्यक्षा
    कौन सा पढ़ा पढ़ रहे हैं आजकल ?
  9. Ghost Buster
    कहा तो यही जाता है कि किताबें मनुष्य की सबसे अच्छी मित्र हैं. तो अगर आपको घर में परिवारिजनों के बाद सबसे महत्वपूर्ण यही लगती हैं तो इसमें बेवकूफी की कोई बात हमें तो नहीं लगती. हमारी किताबें तो अलमारियों में बड़े करीने से सजी रहती हैं, इतनी ज्यादा कि निकाल कर पढ़ने का समय ही नहीं मिलता. नयी नयी जुड़ती रहती हैं और पुरानी वहीं की वहीं. अब आपकी तरह अस्त-व्यस्त करके देखते हैं, शायद बात बन जाए.
  10. Gyan Dutt Pandey
    यही तो हम कहना चाह रहे थे। डिट्टो!
    और आपने हमारे स्टाइल की मुन्नी पोस्ट लिखना क्यों शुरू कर दिया जी? इनमें वो मजा नहीं आता।
  11. यूनुस
    फुरसतिया जी
    हमारी आपबीती अपने नाम से छापकर आपने ठीक नहीं किया ।
    जे बहुत बेईमानी है ।
    आपसे किसने कहा कि ये आपकी आपबीती है ।
    हंय जी ।
  12. दिनेशराय द्विवेदी
    आप ने अपना नहीं सब का हाल सुना दिया पर किताबें अगर तरतीब से रखी हों तो घर में सब पढ़ सकते हैं। यह होना चाहिए। आप भाभी को या किसी और को पुस्तकालयाध्यक्ष क्यों नहीं बना देते इस से औरों के साथ आप को भी आसानी हो जाएगी।
  13. Shiv Kumar Mishra
    आप एक दिन के लिए इस कार्क्रम को स्थगित कर एक फुरसतिया पोस्ट लिखिए भइया….वैसे हमारे साथ भी ऐसा ही होता है.
  14. abha
    अपन के साथ भी ऐसा होता है पर देर सबेर चीजें मिल जाती वही भ्रम वाली बतिया मै भी नहीं ढूढती और क्या कहें ,कहेगें यही कि इ पूरी पोस्ट अपनी लग रही है…….
  15. anitakumar
    चलिए सब की प्रतिक्रियाएं पढ़ कर एक बात की तो शांती हो गयी मन में कि अगर कभी कोई ब्लोगर मित्र हमारे घर अचानक आ गया तो हमें अपने घर के रद्दी की दुकान दिखने पर कोई शर्म नहीं आयेगी। अपना भी हाल तेरे जैसा है क्या करे हम भी लाइफ़ स्टाइल ऐसा है…।:)
  16. Dr.Anurag Arya
    बिल्कुल ऐसा ही होता है श्रीमान जी…
  17. समीर लाल
    सबकी राम कहानी कह गये आप तो. :)
    पढ़िये पढ़िये, खूब मन लगाकर पढ़िये.
  18. आशा जोगलेकर
    पहली बार आपके ब्लॉग पर आई बडा मजा़ आया । सबके साथ एसा ही होता हे पर फिर भी लिखने का वक्त भी निकाल ही लेते हैं ।
  19. रजनी भार्गव
    आप क्यों हमारी कैटगरी में शामिल हो रहे हैं। हमारे साथ तो ये हमेशा होता है।
  20. ajay dandhanadhan
    kitabbe agar bhikri nahi hongi to pata kaise chalega ki abhi tak kaun si kitab padni baki hai? aur agar kitabye padhi nahi jaingee , tho sabdho ka bhandar kaise …….
    lage raho fursathiya bhai…..
  21. डा० अमर कुमार
    एक मैं ही अपवाद हूँ क्या ?
    मेरी लगभग 300 किताबें एक ज़गह पर सजा कर रखने की वज़ह
    से दीमकें चट कर गयीं ।शायद किसी शोध में उनको मेरा संग्रह
    खंगालना पड़ा होगा । किंतु दुःख बहुत हुआ जब रामप्रसाद बिस्मिल
    की ज़ेल में आत्मकथा भी साफ़ कर गयीं । सोचा होगा क्रांतिकारियों
    की जीवनी का तुम क्या करोगे ?
    लेकिन मैं अब ज़्यादा सजा कर किताबों की कँटिया लगा कर बैठा हूँ ।
    कभी तो घूमफिर कर टोह लेने तो आयेंगी, बेचारी विद्वान दीमकें !
  22. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] ऐसा अक्सर होता है…. [...]

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