Friday, September 11, 2009

…जन भाषा के हायपर लिंक

http://web.archive.org/web/20140419161331/http://hindini.com/fursatiya/archives/683

48 responses to “…जन भाषा के हायपर लिंक”

  1. nirmla.kapila
    कांटे सौ-सौ प्रश्न उछालें
    कलियों के मुंह पर हो ताले
    फ़ूलों, एक विनय है
    ऐसी गंध मुझे मत देना।
    निरमला जोशी जी की सुन्दर रचना के लिये और आपकी लाजवाब पोस्ट के लिये आभार!
    निर्मलाजी: शुक्रिया-कविता और पोस्ट को पसंद करने का! :)
  2. Khushdeep Sehgal
    अनूपजी, भाषा-विज्ञान का फलसफा ज़्यादा नहीं समझता, बस इतना जानता हूं कि दिल की बात दिल से कहनी चाहिेए, ताकि वो लोगों के दिलों तक जाए…
    कुशलदीप सहगल: शुक्रिया। सहिऐ कहते हैं आप! :)
  3. डा. खुरपेंचिया

    इनका एक्ठो सबदकोष बनाया जाय, जी ।
    और लोकभाषा कल्याण समिति के हवाले की जाय,
    ऊहाँ से रिजेक्ट होय, तो ब्लागरों की ड्यूटी है, कि आपके साथ
    कँधे से कँधा मिला कर इसको मान्यता दिलायें । इत्तै तो करना है कि,
    रोज गूगल ट्राँस्लेटर में आठ-दस ठँई शब्द सज़ेशन माँ ठेल दें, जो होगा देखा जायेगा !
    खुरपेंचिया* = खुर में पेंच ठोकने वाले जुगाड़ू का यह नाम हमरा पेटेन्ट होय चुका है, जी ।
    डाक्टर साहब: आपको पेटेन्ट मुबारक होय। ज्ञानजी के हिल्ले ही दे दिया जाये सुबह-सुबह शब्द ठेलने का काम। :)
  4. Saagar
    मैं तो जी आपसे सहमत हूँ… ज़मीनी भाषा ही ज़यदे काम करे हे… पब्लिक को जोड़े सो जोड़े भी, औरो मनोरंजन भी करे हे…
    शब्द लगता है ऐसे ही बनते हैं। तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये
    लगता है नहीं, है जनाब, है….
    सागरजी: शुक्रिया। आप तो हमारी पार्टी के हुये। :)
  5. Pankaj
    नमस्कार , साहब जी
    पंकजजी: नमस्कार है! नमस्कारै है! :)
  6. डा. खुरपेंचिया

    वईसे जनहितार्थ यहू सूचित करना प्रासँगिक रहेगा कि,
    क्वचित + अन्य + यद्यपि का सँधि विग्रह है, क्वचिदन्य्तोअपि ।
    क्वचित प्रकाशं क्वचित्प्रकाशं,
    नभ: प्रकीर्णाम बुधरम विभाति ।
    क्वचित क्वचित पर्वत सनिरुद्धम ,
    रुपं यथा शान्त महार्णवस्य ॥

    एहिका मायने May or may not be definite से जोड़ लेयो, भाई जी ।
    डा.साहब बात मतलब की नहीं है उच्चारण की है। अर्थ तो जब अरविन्द जी कन्फ़र्म करें तब सही माना जायेगा। :)
  7. Abhishek Ojha
    बात जो कहना चाह रहे थे आप वो तो ठीक हैये है लेकिन आपकी शैली पर हम तो लट्टू हो गए आज थोडा ज्यादा ही. पहले ३-४ पैराग्राफ में ही. बिलकुल धाँसू.

    अरे अभिषेक भाई लट्टू होने की बात पढ़कर तो हमार मन गुलगुला हो गया। सौन्दर्य अनुपात चमक गया मन का। शुक्रिया
    । :)
  8. रंजना
    निर्मला जोशी जी की कविता ने तो बहा ही लिया अपने संग…..बहुत बहुत आभार आपका इसे पोस्ट करने के लिए..
    सीधी सरल भाषा में शब्द श्रृजन की जो सुन्दर विवेचना आपने प्रस्तुत की.. सच कहूँ कथन शैली आपकी ऐसी है कि वह तथ्य को सीधे मन में उतार देती है…
    बहुत बहुत लाजवाब लगा आपका यह आलेख..
    रंजनाजी: आपका बहुत-बहुत शुक्रिया लेख पसंद करने के लिये। कविता सच में बहुत अच्छी लगी मुझे भी। नीचे निर्मला जोशी का लिंक दिया है। आप उनकी और कवितायें देख सकती हैं। :)
  9. घोस्ट बस्टर
    मुझे नहीं लगता कि ज्ञान जी किन्हीं नये शब्दों के प्रवर्तक हो जाने की अभिलाषा से नये शब्द गढ़ते होंगे. वे स्वयं कह चुके हैं कि ये तो सिर्फ़ टंग-ट्विस्टर हैं. दिल में आया और बस कह दिया. ऐसे अधिकांश शब्दों का केवल तात्कालिक महत्व होता है, यानि केवल उस पोस्ट पर. आनन्द लेकर आगे बढ़ लेना ज्यादा उचित होगा. पर आप तो बहुत गम्भीरता से ले बैठे.
    अरविंद मिश्र जी को सुनकर अच्छा नहीं लगेगा, पर काफ़ी प्रयास के बाद भी मैं इस शब्द (क्वादिंद्च…) का उच्चारण याद नहीं कर पाया हूं. ना पहले कभी सुना था और ना ही अन्यत्र कहीं सुनने की आशा करता हूं.
    बाकी इस पोस्ट में बहुत सारी बातें हैं जिनसे १००% सहमत हूं.
    ————————
    शब्दों की महत्ता उनके प्रचलन में है। सम्प्रेषित न हुआ तो वो शब्द कैसा? बांट,बंटखरे ,अद्धे-पौने, किलो-पसेरी भले ही परिभाषा में न इस्तेमाल किये जायें लेकिन तौल के लिये चलते तो वहीं हैं। अप्रचलित भारी-भरकम शब्द पेरिस के संग्रहालय में धरी प्लेटिनम इरीडियम की राड से अधिक नहीं जिनका इस्तेमाल केवल परिभाषा में होता है -कुमार मित्तल के जमाने से।
    —————————-
    ये पूरा पैरा जादुई लगा. अजदक जी का नाम लिया जा सकता है. भले अजीबो-गरीब शब्दों का भारी-भरकम शब्दकोष हो उनके पास, पर यदि भावों का पाठक तक उचित सम्प्रेषण ही ना हो सके तो उसका महत्व क्या है?
    और उदाहरण भी जोरदार दिया है आपने. “कुमार-मित्तल” का नाम सुनकर तो साष्टांग करने की इच्छा हो आयी.
    कुल मिलाकर शानदार आलेख.

    घोस्ट बस्टरजी: शुक्रिया! ज्ञानजी की शब्द प्रवर्तक होने की कोई अभिलाषा नहीं है। यह वे कई बार लिख चुके हैं! न ही मेरे द्वारा उनके प्रयास को कोई गम्भीरता से लेने वाली बात है। बस बात की बात वाली बात है। निकलती चली गयी। आजकल सबसे ज्यादा शब्द ज्ञानजी के कीबोर्ड से निकल रहे हैं मेरे देखे ब्लागस में!
  10. MUMBAI TIGER
    भारी भरकम शब्द सर्जना को पढना हम जैसे सीधे-साधे हिन्दी भाषियो के लिऎ हिमालय चढने के बराबर है. और शब्दों का तोडिया मोडिया प्रवर्तन कई बार पढने के बाद भी हलक से निचे नही उतरता है. इसलिऎ सभी आदरणीय शब्द प्रोडेक्शनकर्ताओ ने नम्रनिवेदन गरिब हिन्दी का सरलीकरण करे, कठोरीकरण नही!
    हेपी ब्लोगिग कहने का मन कररिया है! ♥♥♥♥♥♥ ♥♥♥♥♥♥ ♥♥♥♥♥♥
    मुम्बई ब्लागर: शुक्रिया आपके विचार के लिये। हिन्दी का हिन्दीकरण (सरलीकरण) करने की मांग आपके जायज है। :)
  11. ज्ञानदत्त पाण्डेय
    मेरा नाम के साथ लिखा गया है तो मैं यह ऑन रिकार्ड बता दूं कि हिन्दी लिखना मेरे लिये प्रारम्भ से कठिन रहा है। सोचने की प्रॉसेस अंग्रेजी में चलती थी और हिन्दी में शब्द नहीं मिलते थे। एक आध का “अपरिपक्व और असमझ का ताना” न मिला होता तो अपनी दुकान काफी पहले बन्द कर चुके होते। यह मात्र जिद है कि बिलानागा ठेलते रहे।
    बाबा कबीर की तरह मैने भी सोचा कि भाषा की मजूरी नहीं करनी। वह जहां तक साथ दे, ठीक। नहीं तो कुछ भी कच्चा-पक्का गढ़ कर सम्प्रेषण पूरा करना है।
    और भाषा के महन्तों/साहित्य के ठेकेदारों से अरुचि भी इसी भाव के चलते है। बहुत से कहने वाले होंगे कि लिखने की तमीज नहीं है – पर हू केयर्स! और यह भी है कि हफ्ते भर न पोस्ट करूं तो भूलने में देर न लगेगी लोगों को। पर हू केयर्स। जो कुछ शब्द लिखे हैं वे भदेस हैं और उनकी शेल्फ लाइफ उसी पोस्ट भर की है – यह मुझे मालुम है। पर हू केयर्स!
    केयर करने लगें तो दुकान ही बन्द कर लें! :-)
    ज्ञानजी: कित्ते तो क्यूट लग रहे हैं आप इस तरह सफ़ाई नुमा देते हुये। सफ़ाई नहीं जी हू केयर्स नुमा कहते हुये! हमने आपकी भाषा के बारे में बहुत पहले लिखा है कि ज्ञानजी के लिये अपनी भाषा महल में सोती सुन्दरी की तरह है जिसकी तलाश में वे एक राजकुमार की तरह अंग्रेजी भाषा के जंगल में लिये तलवार पसीना बहा रहे हैं! इसी टाइप का कुछ! और भी बहुत कुछ लेकिन वह फ़िर कभी! :)
    लेकिन आप सच्ची में बहुत क्यूट लगते हैं इस तरह हू केयर्स लिखते हुये! :)
  12. sanjay bengani
    भाव व्यक्त होने चाहिए. बाकि बाते आनी-जानी.

    संजय बेंगाणी: वोई तो हम कह रहे हैं! 
    :)
  13. हिमांशु
    “शब्द लगता है ऐसे ही बनते हैं। तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये। ”
    बस ! बस ! यही तो ! यही तो ! ऐसे ही बनते हैं । हमको भी लगता रहा । हम कह न पाये ।
    आज की प्रविष्टि तो हैरतअंगेज है । हम तो एकदमै धड़ाम ।
    हिमांशु: अरे आप धड़ाम हो गये? आश्चर्य। सुखद! शुक्रिया। :)
  14. अगेन द सेम खुरपेंची

    एक जिज्ञासा उभर आयी,
    लगे हाथ ज्ञान गुरु जी से निवारणौ हो जाय ।
    ई विश्व स्वास्थ्य सँगठन ( WHO ) भाषा के मामले में कब से देखरेख ( CARES )करने लगा, जी ?
    अतिशय आँग्ल-प्रेम में मुझ विह्वल को इसका यही अर्थ लौक रहा है, जी ।
    गूगल सर्च मौन है कि हू केयर्स कौन है ?
    डा.साहब:हू केयर्स प्रवक्ता इज नन अदर दैन ज्ञानदत्तजी पाण्डेय!:)
  15. Dr.Arvind Mishra
    हमें लगता है की कुछ गम्भीर चर्चा की मांग है यहाँ ! भाषा निश्चित तौर पर वही होनी चाहिए जो सहज ही लोकगम्य हो ,लोक हितकारी हो -”भाषा भनिति भूति भल ……”
    अब तो एक और अर्थ क्वचिदन्य्तोअपि का आ गया ,’कुछ अन्यत्र से ‘भी के अलावा – “May or may not be definite” क्षद्मनामी डॉ खुर्पेचिया का आभार !
    लेकिन हम यहाँ यह अपेक्षा जरूर करते हैं की कुछ प्रतिशत तो जरूर चिट्ठाजगत में ऐसे लोग होने चाहिए जिन्हें संस्कृत की अत्यल्प जानकारी हो -मैंने संस्कृत नहीं पढी ,मगर इस भाषा से मुझे रागात्मक लगाव है -यह कई भाषाओँ की जननी है और शब्द के उदगम और व्युत्पत्ति की प्रमाणिक जानकारी देती है !
    अब अगर क्वचिदन्य्तोअपि का उच्चारण इतना ही मुश्किल है तो मुझे हैरत है के हम उन्ही महान पूर्वजों के कैसे वंशज है जिन्होंने वेद और उपनिषदों को पूरा का पूरा कंठस्थ किया और वाचिक -श्रुति परम्परा में ही इसे हजारो साल अक्षुण रखा ! और हम आज शायद यह स्व- औचित्य साबित करने के प्रमाद भाव में यह कह रहे हैं की एक सरल सा संस्कृत का शब्द नहीं उच्चारित कर सकते ! यह अफसोसजनक है ! हम बस काम निकालने वाले लोग हैं !
    अगर नहीं कर सकते तो उन्मत्त होकर न कहिये इस बात को ! यह ज़रा सी रूचि से सीखा जा सकता है मगर सीधा सा सवाल है की क्या मिलेगा सीख कर ! यह हमारी नीयत है !
    अब अनूप जी गाहे बगाहे इस मुद्दे को उठाकर अपनी आदत के मुताबिक मौज लेते है और मासूम बिचारे उनकी जाल में फंसते जाते है ! घोस्ट बस्टर भाई भी फंसे हैं जो हमारे प्रिय चिट्ठाकार रहे हैं -शेखी न बघारो भाई ! आपकी उम्र इतनी नहीं हुयी की ज्ञान से इतना विकर्षण हो जाय …..
    रही ज्ञान जी बात उनका यूपोरियन टर्म मुझे कभी नहीं भूलेगा ! कई और शब्द भी उनके दिए हुए है ! अब शब्दों के उपयोग होने और न होने से उनकी अर्थवत्ता की चर्चा ही बेमानी है ! विग्य समाज में हमारे उच्चारण और शब्द ज्ञान ही हमें पृथक करते हैं !
    मुझे लगता है की अगर ऐसे ही अनूप जी मौज लेते रहे और लोग बाग़ उनकी चाल जाल में फंसते रहे तो ब्लॉग साहित्य और मुख्यधारा के साहित्य की खाईं और बढ़ती ही जायेगी !
    नयी पीढी को भी भाषा संस्कार देने का दायित्व हमारा है ! कहीं हम अपने उत्तरदायित्व से तो च्युत नहीं हो रहे हैं ?
    और यह भी सुनिए अनूप जी जिस हास्य व्यंग से आप व्यामोहित हैं साहित्य में उसकी भी ख़ास बिसात नहीं है ! हम कूप मंडूक वृत्ति से ऊपर उठें और ब्लॉग साहित्य को पूरे समर्पण और उत्तरदायित्व बोध के साथ समृद्ध करें ! हा हां ही ही बहुत हो गयी है !

    डा.अरविन्द मिश्र: आपको लग रहा है तो सहिऐ लग रहा होगा। कर डालिये गम्भीर चर्चा। डा.खुर्पेचिया छ्द्मनामी नहीं वे नामौपारिचकता से ऊपर उठे डा. अमर कुमार हैं। ब्लाग-ब्लाग वासी डा.अमर कुमार किसी एक नाम के मोहताज नहीं हैं! हर टिप्पणी के लिये अलग-अलग नाम धारण कर लेते हैं।
    अब इस बात पर क्या कहें कि उन महान पूर्वजों के वंशज हैं जिन्होंने संस्कृत में न जाने क्या-क्या किया ! इत्ता सरल सा नाम याद नहीं कर पाते। इस तरह शरमाने लगे तो न जाने किस-किस बात पर शर्मा-शर्मी होगी। तब शायद इस बात पर भी शर्म आया कि हमारे सबके पूर्वज दिगम्बर रहते थे और हम ऊषा फ़्रंटलाइन पहनते हैं। फ़िर तो हमें इस बात पर भी शर्माना पड़ेगा कि हमारे पूर्वज अपनी भाषा को इस तरह न बना सके कि धड़ल्ले से सब आज भी प्रयोग करते रहते। करने न करने पर शर्माने की बात करें तो अपने-अपने समय के चलन की बात है। फ़िर तो शायद इस बात पर शर्माना पड़े कि हमारे महान पूर्वज ई-मेल तक करना नहीं जानते थे। हमारे ये सारे उदाहरण बेफ़िजूल हैं ऊलजलूल हैं। लेकिन आपके शर्माने वाली बात पर यही समझ आयी मुझे।
    घोस्टबस्टरजी इत्ते मासूम हो गये कि हमारे जाल में फ़ंस जायें! कित्ती तो मनोहारी बात है। प्रात:काल की समीर के समान आनन्दित करने वाली।
    अव्वल तो हमारी समझ में ब्लाग और साहित्य का कोई मुकाबला ही नहीं है। ब्लाग केवल अभिव्यक्ति का एक माध्यम है। ब्लाग रसॊई गैस की तरह जिसमें आप साहित्य की रोटी भी पका सकते हैं और अभिव्यक्ति के दूसरे आयाम में। पाडकास्ट, वीडियो,फ़ोटॊ आदि-इत्यादि,वगैरह-वगैरह।
    नयी पीढ़ी को भाषा संस्कार देने का गुरुतर दायित्व आपै निबाहिये महाराज। हम तो नयी पीढ़ी से भाषा सीख रहे हैं। सच कहें तो हम खुदै अपने को नयी पीढ़ी का मानते हैं इधर-उधर की मौज-मजे की भाषा सीख रहे हैं। हास्य-व्यंग्य की साहित्य में बिसात न हो तो न सही लेकिन जिन्दगी इसके बिना सूनी है। इस मामले में हम आपके बनारसै के तन्नी गुरु के फ़ालोवर हैं। हमें साहित्य-फ़ाहित्य के पास न जाना है। जिस ससुरे को आना होगा हमारे पास आयेगा। समर्पण और उत्तरदायित्व वाले काम आपै करिये महाराज! हम तो ऐसे ही ठीक हैं। समर्पित और उत्तरदायी बन जायेंगे तो ससुर उहां भी हास्य-व्यंग्य घुस जायेगा। आपका चौका खराब हो जायेगा। आपको लगेगा कि समर्पण और उत्तरदायित्व का हल्का भी दूषित कर दिया हमने हा हा ही ही से।
    लेकिन थोड़ा हा हा ही करके देखिये। आपकी खूबसूरती में हन्ड्रेड परसेन्ट इजाफ़ा तो कहीं नहीं गया। सच्ची। हंसके तो देखिये। :) :)
  16. ताऊ रामपुरिया
    बहुत पावन विचार हैं जी.
    रामराम.
    ताऊ जी: पावन प्रतिक्रिया के लिये शुक्रिया।
    रामराम!
  17. Shiv Kumar Mishra
    “हटमलित हैं। जुड़े हैं।”
    अद्भुत पोस्ट है.
    ‘हटमलित’ शब्द के गढ़न के लिए साहित्य अकादमी, ब्लॉग अकादमी,….ई अकादमी.. ऊ अकादमी सब अकादमी पुरस्कार आपको ही मिलेगा.
    अजित भाई की टिपण्णी पढ़ने के लिए वापस आऊंगा. इसे धमकी न समझा जाय. यह केवल स्नेहात्मक धमकत्व भाव लिए एक सूचना है….:-)
    शिवकुमारजी: अद्भुत टिप्पणी है! हटमल शब्द आदि चिट्ठाकार के ब्लाग/कमेंट में कहीं देखा था। वहीइत का फ़ुंदना जोड़कर यहां ठेल दिया। अकादमी, फ़कादमी की बात छोड़कर मौज त मती लीजिये जी। ये सब पुरस्कार छंटे हुये जिम्मेदार लोगों को मिलते हैं जो साहित्य सृजन करते हैं। हा ही करने वालों की बात पर इस तरह के इनाम की बात करने से इनाम की वो कम होती है जिसे हिन्दी में गरिमा कहते हैं। अजित भाई से अनुरोध किया है लेख पढ़ने का। आपके स्नेहात्मक धमकत्व के आभारी हैं फ़िलहाल तो। आजकल यह स्नेह दुलर्भ हो गया है। सब तरफ़ आदर , फ़ादर विचरण करते हैं। :)
  18. विवेक सिंह
    एक एक कर सब बुजुर्गों का नम्बर ले रहे हैं फुरसतिया,
    अगला नम्बर किसका लगेगा ? जानने की उत्सुकता हो रही है,
    एक बात अजीब लगती है कि समान अवस्था के होकर भी अनूप जी की गिनती जवानों में होती है और समीर जी की बुजुर्गों में !
    विवेक: हम इस बात से असहमत होने की अनुमति चाहेंगे कि एक-एक कर बुजुर्गों का नम्बर ले रहे हैं फ़ुरसतिया। उत्सुकता का जबाब भी इसी में है! समीरलालजी की गिनती बुजुर्गों में कौन करता है? वे तो क्यूट हैं। क्यूटपना धारण करने वाला व्यक्ति भला बुजुर्ग कैसे हो सकता है। :)
  19. विवेक सिंह
    लगता है कीडे-मकोडों ने ब्लॉगिंग छोडी नहीं है, वे यहीं कहीं हैं, हमारे आस्-पास,
    हम सोचे थे अब खुलकर हा हा ठी ठी कर पायेंगे !
    विवेक: जब तक खुलकर न कर पाओ तक तक स्वाइन फ़्लू वाला मास्क लगा के कर लो! :)
  20. डाक्टर अमर कुमार
    वह खुरपेंची मैं हूँ, भाई अरविन्द जी,
    यह तो आपने अब तक लिंक पकड़ कर जान ही लिया होगा ।
    यह सँधिविग्रह प्रामाणिक है, और मैं सँस्कृत का विद्वान भी नहीं ।
    विभिन्न भाषाओं के प्रति प्रेम के चलते कुछ सँदर्भ ग्रँथों से सानिध्य बना रहता है, बस इतना ही समझें ।
    कोई डाक्टर क्या अपने को केवल दवाईयों तक ही सीमित रखे, तो बाकी जन भी यहाँ बन्दूक की गोली बनाते और पैक करते दिखने चाहियें !
    हर ब्लाग का अपना माहौल, अपना ऑरा ( Aura ) होता होगा न, अरविन्द जी !
    सो, यहाँ भी वही ऑरा एक अलग तरह से है, इसमें साहित्य के बनने बिगड़ने की बात ही कहाँ आती है ?
    इस माहौल में पाठक को ढाल कर अपनी तरह से नचा लेना भी कोई गुण होता होगा, कि नहीं ?
    किसी मार्मिक दृश्य पर कुछ जन यह कह सकते हैं, स्वाँग कर रहा है.. तो दूसरे जन रोने लग पड़ते हैं ।
    यह क्या है, जबकि सभी जानते हैं कि, सारा खेल पैसे के बदले किये जाने वाले अभिनय का है ।
    यहाँ विवाद या प्रमाद जैसी कोई बात नहीं दिख रही, इसलिये हस्तक्षेप कर रहा हूँ ।
    रही बात क्षद्मनामी होने की… तो यह विशेषाधिकार मैं अनूप शुक्ल से छीना है ।
    उनके हर पोस्ट पर मेरा परिचय अलग अलग है ।
    शुरु में तो, यह मैं केवल माडरेशन के सत्य को उजागर करने की चिन्ता में किया करता था ।
    यह उनकी सदाशयता है कि उन्होंने कभी कहीं इसका जिक्र भी न किया ।
    ऎसा भी कह सकते हैं कि, श्रीमान जी बड़े घाघ हैं जिन्होंनें मेरे मँसूबों को ताड़ कर विफ़ल कर दिया । यह तो अपना नज़रिया है भाई, का किया जाये ?
    आख़िर हमलोग चैन से क्यों नहीं सकते ?
    यदि किसी सज्जन के पास श्री अनूप शुक्ल का फोन नम्बर हो, तो वह मुझे मेल कर दे ।
    आभारी रहूँगा ।
    डा.साहब: आपकी सब बातें सच हैं लेकिन निजता की रक्षा में कमर कस के जुटे रहने के कारण मैं अनूप शुक्ल का फॊन नम्बर अभी तो नहीं दे सकता। बाद में भले आप फोन करके ले लीजिएगा। :)
  21. Panchayati
    अप्रचलित भारी-भरकम शब्द पेरिस के संग्रहालय में धरी प्लेटिनम इरीडियम की राड से अधिक नहीं जिनका इस्तेमाल केवल परिभाषा में होता है -कुमार मित्तल के जमाने से।
    —————————————
    अरे भाई, चुन्नीगन्ज (कानपुर) के बी. एन. एस. डी. कालेज़ मे कई साल पहले पढी बाहरवी कक्षा की याद दिला दी.

    पंचायती: अरे आप तो फ़िर हमारे स्कूल के हुये। हम भी वहीं के पढ़े हैं! ई देखिये कहानी वहां की
    । :)
  22. अभय तिवारी
    का बात है.. आज मौज लेते लेते सीरिय्साअ गए? वैसे बढ़िया है..!

    अभय तिवारी: अरे सीरियस कौन! न भैया बस मौज है!
     :)
  23. anitakumar
    हिन्दी दिवस तो सोमवार को है और आप ने आज ही मौज ले ली, हम अरविन्द जी से सहमत नहीं , अगर उन्हें हा हा ही ही अच्छी नहीं लगती तो न लगे वो गंभीर साहित्यिक पोस्ट तलाश लें हमें तो आप का ये अंदाज बहुत अच्छा है। मौजों का मौसम चल पड़ा है तो हमें भी विवेक की तरह इंतजार है जानने का कि अगली मौज किसकी, और हां भई ये बात तो हम भी जानना चाहेगें कि विवेक का ये कहना कि आप और समीर जी एक ही अवस्था के हैं तो……।
    कटियाज्ञानी शब्द भी घणा सुंदर लागा और पाठक जी के शब्द भी
    भाषा तो है मुस्कानों का ही एक रूप,
    अधरों से बहता यह आंखों का पानी है,
    भाषा तो पुल है मन के दूरस्थ किनारों पर,
    पुल को दीवार समझ लेना नादानी है।
    आभार
    अनीताजी: शुक्रिया। बाकी हमारे लिये तो हर दिन हिन्दी दिवस है। जिसके बारे में लिखेंगे उसी से मौज है! कोई पिलान थोड़ी बनता है! :)
  24. समीर लाल ’उड़न तश्तरी’ वाले
    कटियाज्ञानी
    ये तो नोट करके रख लिया..आप उछालते चलें..हम लोकते चलेंगे.
    रचनाऐं दोनों पसंद आईं. बहुत आभार.
    समीरलालजी: शुक्रिया नोट करने का, आभार लोकन शपथ हेतु! :)
  25. alpana verma
    !!!!!!!!!!क्वचिदन्य्तोअपि—@अरविन्द जी…ब्लॉग का यह नाम रखने से पहले कम से कम आस्थमा के मरीजों की सोची होती!!!!!
    आप के ब्लॉग का यह नाम वाकई कठिन है.लेकिन है classic!एक दम यूनिक !
    —–@fursatiya ji -आप की पसंद -निर्मला जोशी जी की कविता बहुत अच्छी लगी.
    [देर से पोस्ट पर पहुँचने का यह नुक्सान की टिपण्णी लिखने के लिए इतना स्क्रॉल करना पड़ता है..अब कविता का अंश कॉपी करना चाह रही थी.लेकिन दोबारा पेज स्क्रॉल कौन करे.]
    अल्पनाजी: शुक्रिया। आपको निर्मला जोशी जी कविता मेल से भेज दी! साथ में उनकी कविताओं का लिंक भी! । :)
  26. Blogger Community
    Lovely post! Dropping by…
    p/s: We would like to invite all of you to join our blogging community which helps you to get more visitors to your blogs. It’s totally free and you get the chance to meet other celebrity bloggers. Visit us at Free Blog Traffic
    ब्लागर्स कमुनिटी: शुक्रिया। :)
  27. Lovely
    इ दोनों ओर हलाल करने वाली दुधारी तलवार कहाँ मिली है अनूप जी :-)..हमका बताई देव जरा.
    बाकी हम इस मुद्दे पर बोलने की योग्यता नही रखते. कोई निष्कर्ष सर्वसम्मति से निकल आये तो हमें बता दीजियेगा :-)

    लवली: इस तरह के मुद्दों पर सर्वसम्मति कहां बनती है!
     :)
  28. गौतम राजरिशी
    शब्दाविष्कारकों को मेरा नमन !
    गौतम राजरिशी: शुक्रिया जी शब्दाविष्कारियों की तरफ़ से। :)
  29. अर्केजेश
    कविता पसंद आई । लोक मेँ तो सहज स्फूर्त शब्द ही चलेँगे जैसा कि आपने कहा। संस्कृत इसीलिए अप्रचलित ह�
    अर्कजेशजी: शुक्रिया आपकी टिप्पणी का! सहमति है आपसे:)
  30. वन्दना अवस्थी दुबे
    सच है. क्लिष्ट भाषा न तो पल्ले पडती है और न ही उसमे मिठास होती है. अपनेपन की बू तो बिल्कुल भी नहीं. तद्भव शब्द इसीलिये अपने आप ही बन गये और तत्सम शब्दों से ज़्यादा चलन में आ गये. घिसे-घिसाये गोल-गोल शब्द ही ज़्यादा असरदार हैं , एकदम सच्ची बात.

    वन्दनाजी: शुक्रिया आपकी सच्ची-मुच्ची बात के लिये
    । :)
  31. अजित वडनेरकर
    भवानी भाई की प्रसिद्ध उक्ति याद आ रही है-
    “जिस तरह हम बोलते हैं उस तरह तू लिख. और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख”
    आपने बहुत अच्छा लिखा। सौ फीसद सहमत हैं। घोस्टबस्टर की टिप्पणी की ज्यादातर बातों को (अरविंद मिश्र जी से संबंधित चर्चा को छोड़कर) हमारे मन की अभिव्यक्ति समझ लिया जाए। बहुत देर से आए हैं यहां और सबने काफी कुछ कह दिया। ब्राडबैंड अब जाकर सुधरा है:)
    अजित वडनेरकरजी: शुक्रिया। भगवान करे आपका ब्राडबैंड सलामत रहे। :)
  32. Lovely
    अनूप जी उवाच :- इस तरह के मुद्दों पर सर्वसम्मति कहां बनती है!
    :-) नही बनती इसी लिए कहा .. वैसे यह होते रहना चाहिए ..हलचल बनी रहती है, परिदृष्य में :-)
    लवली: हो ही तो रहा है:)
  33. चंद्र मौलेश्वर
    “तड़ से देखा, भड़ से सोचा और खड़ से बाहर आ गये।”
    वाह! क्या डेलिवरी सिस्टम है जी:)
    चंद्रमौलेश्वर जी: वाह क्या टिप्पणी है! शुक्रिया। :)
  34. Dr.Arvind Mishra
    @अनिता जी , आप अपना शब्द भंडार मत बढाईये और आपके छात्र आपका अनुसरण करें ! श्रेष्ठ शिक्षिका के महान छात्र ! और हाँ अंगरेजी ,लैटिन शंब्दों पर नित न्योछावर होते रहिये ! क्योंकि वह कुछ पैसे /जुगाड़ बनाता है ! दुनिया ही यही कर रही है फिर आप ही क्यों अपवाद बने ?
    @अल्पना जी ,सच कहा आपने ,भाषाई अस्थमा वाले ही इसका उच्चारण नहीं कर पा रहे हैं ,हा हा ,प्रयास से भी डर रहे हैं की कहीं सांस ही न उखड जाए -मुझे तो मजा आता है कठिन शब्दों के उच्चारण से जबकि मुझे सच में वह बीमारी है बचपन से ही जिसका अनाम आपने लिया है !
    श्री अनूप शुक्ल : मैं भूल गया था कि इस देश में अभी ज्यादा वक्त पहले नहीं ,एक शैतान हुआ था नाम था मैकाले उसके अवतरण से हमारे यथोक्त पूर्वजों के बिचारे कुछ वंशधर भी संदूषित होते गए ! बहरहाल बात लम्बी हो जायेगी ! कहना कम समझना अधिक !
    पूर्वजों का नगापन ही दिखता है हमें .अब वह सुघढ़ उत्कृष्ट प्रशंसा बोध और विनयशीलता कहाँ कि हम उनके गुणों को भी लक्ष्य कर सकें -यह भूलते हुए कि आज बहुत कुछ उन्ही का दिया हम जी रहे हैं -यह तो कृतघ्नता से भी बढ़ कर कुछ हुआ !कामिल बुल्के जैसे विदेशी भी हैं जिनके अवदानों से हमारी आँखे खुल जानी चाहिए मगर हम तो बस अपनी ही अहमन्यता में डूबे रहते हैं ! हैं छटाक भी नहीं ! अपनी श्रेष्ठ विरासत से भी मुंह मोड़ कर उसकी भी मौज उडाना बस एक सस्ती टुच्चई है और सतहीपन !
    शब्द ज्ञान तो मनुष्य को समृद्ध करता है -अंगरेजी के गिटर पिटर को तो हम डिक्शनरी ले ले खोजते फिरते हैं मगर यह निष्ठां हिन्दी शब्दों के लिए क्यों नहीं ? इसलिए ही तो कि उससे कैसे कोई जुगाड़ सफलकैसे होगा ?
    ब्लॉग महज निजी अभिव्यक्ति का माध्यम ही है (बासी समझ ) तो क्यों नहीं उसे ताले में बंद कर रखते ? क्यों सार्वजनिक किये हुए हैं ? यदि सार्वजनिक हैं तो सामाजिक सरोकारों से भी जुड़ना होगा ! हंसी ठट्ठा वहीं तक ठीक है जब तक वह अधकचरेपन और अपसंस्कृति का प्रसार न करे !
    अप नई पीढी के हैं,हम तो पुरनियें हो चले -आपकी जिम्मेदारी हमसे अधिक है ! यही गुजारिश है कि हिन्दी चिट्ठाजगत को एक और अधकचरेपन -अप संस्कृति का अड्डा मत बनने दीजिये !
    हम तो बार बार यही कहेगें कि नया सीखने के लिए उम्र आड़े हाथ नहीं आती -लेकिन यहाँ तो लोग क़समें खाए बैठे हैं !
    किमाधिकम …..
  35. Dr.Arvind Mishra
    हिन्दी दिवस कब है अनूप जी ?
    अरविन्दजी: पूछ के बतायेंगे किसी पुरानी पीढ़ी वाले से या फ़िर ताऊ के यहां पहेली आयोजित करके। :)
  36. Isht Deo Sankrityaayan
    भाई बड़ी लंबी चर्चा हुइ गई. सुकुल जी आपकी जनभाषा की पक्षधरता और उसके विकास के क्रम वाली बात से तो हम सौर फ़ीसदी सहमत हन, लेकिन अरविन्द जी की बात में भी दम है. शब्द बेचारे ऐसहीं चलाने ही से तो चलत हैं, न चलावैं त कौनो न चलैंगे. भला बताइए सात समुन्दर पार से आके लोग हियां अंगरेजी, फारसी त का का चला गए, तौन चल गया और अपनै भाषा क शब्द न चलै, ऐसा कैसे होगा जी? चलेन दीजिए और मिसिर जी हमहूं लोग गर्व किय जाए कि ऊ चला दिए.
    इष्टदेवजी: हम गर्व करने के लिये तैयार हैं! जब मिसिरजी सीटी बजायेंगे हम कल्लेंगे। :)
  37. विवेक रस्तोगी
    एक स्वस्थ चर्चा चलो हमारा भी ज्ञान बढ़ गया है।
  38. anitakumar
    हमें तो समझ नहीं आ रहा कि डा अरविन्द जी किस बात पर इतना बुरा मान रहे हैं। हंसी ठट्ठा अधकचरेपन और अपसंस्कृति का प्रसार कैसे हो गया? हंसना बुरी बात है क्या?
  39. Abhishek
    लगे रहो महारथियों :)
  40. हिन्दी तेरा रूप अनूप- श्रीलाल शुक्ल
    [...] पिछले लेख में बात शुरू हुई थी जनभाषा से और फ़िर वह सरकायी , धकेली जाती हुयी हिन्दी, संस्कृति, अंग्रेजी , मैकाले, फ़ैकाले होते हुये बरास्ते संस्कृति और विनम्रता आदि होते हुये हिन्दी दिवस पर जाकर खड़ी हो गयी। इसी सिलसिले में मुझे श्रीलाल शुक्लजी का एक लेख याद आया जो हिन्दी पर दो टिप्पणियां के नाम से है। उसमें से एक टिप्पणी मैं यहां पेश कर रहा हूं। देखें कि भाषा के संबंध में क्या कहना है श्रीलालजी का। [...]
  41. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
    मुझे आज इस चर्चा को पढ़ने का मौका बहुत देर से मिला। इससे एक अच्छी बात हुई और एक खराब। खराब यह कि मुझे अब अपना मत व्यक्त करने में कठिनाई महसूस हो रही है। इतने बड़े-बड़े लोगों के बोलने के बाद किसी छोटे का मुँह खोलना शोभा नहीं देता। खैर…
    अच्छी बात यह हुई है कि पूरा मसला एक ही बैठकी में निपट लिया। सबने मिलकर जितनी बातें कही हैं उससे मुझे एक हाल का आजमाया उदाहरण फिर से आपलोगों के समक्ष प्रस्तुत करने का मन हो रहा है। भाषा के सम्बन्ध में हमारा आचरण और सोचने का तरीका वैसा ही होना चाहिए जैसा हम अपनी पोशाक के बारे में सोचते और धारण करते हैं।
    किसी को सूट-बूट और टाई-कोट-पैंट में सहूलियत होती है तो कोई मटके का कुर्ता और ब्रैस्लेट की धोती झाड़ कर प्रसन्न है। कोई ‘फॉर्मल’ पहन रहा है तो कोई ‘कैजुअल’ में फिट है। कोई महंगी जीन्स और ट्रेण्डी टीशर्ट पहनकर आत्ममुग्ध है तो कोई कुर्ता-पाजामा पहनकर ‘नेता’ बना हुआ है। सभी परिधान अच्छे हो सकते हैं और देश, काल, वातावरण के अनुसार अलग-अलग लोगों द्वारा पसन्द किए जाते हैं। अब यदि एक खास पसन्द का व्यक्ति बाकी परिधानों को अस्वीकार्य बताने लगे या दूसरा आदमी पहले की पसन्द को नकारने लगे, और उससे भी आगे बढ़कर एक दूसरे की खींचाई करने का सीन बन जाय तो समझिए कि कुछ गड़बड़ हो रही है। वहाँ वही सब होगा जिसे हिन्दी में व्यर्थ की चिल्ल-पों कहा जाता है।:) [नकल मारने के लिए अ-शर्मिन्दा हूँ:), लीजिए एक और शब्द जिसका प्रयोग मैने पहली बार किया...]
    भाषा तो ऐसी निधि है जो अपनी-अपनी क्षमता और व्यक्तिगत पसन्द के अनुसार नित्यप्रति बढ़ाई जा सकती है। मात्रा, गुणवत्ता और वैविध्य के तीनो आयाम खुले हुए हैं। इसमें कोई आपसी विरोध नहीं है। जिसकी जितनी पैठ हो वह उसे उतना आगे बढ़ा सकता है। बस एक बात का ध्यान रहे कि जिस प्रकार गन्दी, फटी, मैली-कुचैली और तन ढँकने के बजाय नंगा रखने वाली पोशाक को सभी खराब मानते हैं उसी प्रकार अशुद्ध, अश्लील, अनर्गल, असंप्रेष्य, और संवाद स्थापित करने में असफल भाषा की वकालत नहीं की जा सकती। बाकी, भाषा का मूल उद्देश्य संवाद पहुँचाना है जो जरूर पूरा होना चाहिए। नियमों से प्रतिबद्धता, अनुशासन और सलीका किसी भी काम को सर्वस्वीकार्य बनाते है। भाषा भी इसका अपवाद नहीं है।
    हमें सूर, कबीर और तुलसी तीनों को समान रूप से सम्मान करना सिखाया गया है। सबने अपने-अपने तरीके से बात कही है। कभी एक को खराब और दूसरे को अच्छा कहना सही नहीं होगा। परसाई और शरद जोशीका अपना महत्व है तो महावीर प्रसाद द्विवेदी और रामचन्द्र शुक्ल का महत्व कमतर नहीं है। प्रेमचन्द सम्मानित हैं तो जयशंकर प्रसाद का भी अपना एक ऊँचा स्थान है।
    यह विविधता किसी बहस का विषय नहीं हो सकती बल्कि यह हमारे भाषा की समृद्धि को निरूपित करती है। अलग-अलग ब्लॉगर्स की भाषा भिन्न-भिन्न शैली की है तो यह अच्छा ही है। सबलोग एक ही जैसा लिखेंगे तो इसका अवसान तय जानिए। इसलिए फुरसतिया का जबरिया लेखन भी अच्छा है और क्वचिदन्यतोऽपि का गाम्भीर्य भी स्वागतयोग्य है। ज्ञानजी के दैनिक गंगादर्शन और रेलपरिचालन की रंगीन तस्वीरें भी लुभावनी हैं तो सत्यार्थमित्र के फीके रंग पर कार्तिकेय की छमाही दुश्चिन्ता भी आकर्षित करने वाली है। जिस बाजार में हर टाइप का माल मिले वही तो सुपरमार्केट है।
    भीड़ भी तभी आएगी इस कन्ने… :)
    जय हो…!
  42. गौतम राजरिशी
    बड़े दिनों बाद ब्लौग पे एक सार्थक बहस दिखी है। ये पोस्ट और इसकी टिप्पणियाँ धरोहर जैसी हैं इस हिंदी ब्लौग-जगत के लिये!
    शुक्रिया देव!
  43. Satish Pancham
    बहुत जमकर संघर्ष हो रहा है :)
    लगता है अनूप जी, साहित्यिक तौलिया लपेटे, जनेउ को कंधे के आगे पीछे घसीटते बनारस के तन्नी गुरू वाला कमेंट दिये हैं , तभी तो संक्षेप में ही बहुत कुछ कह रहा है उनका कमेंट।
  44. Lovely
    हा हा हा ..सार्थक बहस इसे कहते हैं? ..वाह! वाह! वाह!!
  45. hempandey
    मेरे जैसे अनेक हिन्दीभाषियों को क्वचिदन्यतोऽपि जैसे शब्द उतने क्लिष्ट नहीं जान पड़ते होंगे जितना अंगरेजी का-
    PNEUMONOULTRAMICROSCOPICSILICOVOLCANOCONIOSIS
    या शेक्सपीयर द्बारा प्रयुक्त – Honorificabilitudinitatibus
    निर्मला जी की सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद.
  46. amrendra nath tripathi
    thoda sukoon mila
  47. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] …जन भाषा के हायपर लिंक [...]

No comments:

Post a Comment