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Friday, May 31, 2013
जबलपुर टु लखनऊ वाया चित्रकूट
नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस
क्रिकेट में फ़िक्सिंग घोटाला घोटालों में सबसे उदीयमान घोटाला है।
तेजी से उभरा और मीडिया के आसमान पर छा गया। छाया हुआ है हफ़्ते भर से।
इसके पहले के महारथी घोटाले रेलगेट, कोलगेट सब नेपथ्य में चले गये हैं। इसकी आड़ में खड़े हैं। जैसे संयुक्त परिवारों की बहुयें , पल्ला सर पर लिये, दरवाजे की ओट से ड्राइंग रूम की हरकतें निहारती हैं वैसे ही बाकी घोटाले फ़िक्सिंग घोटाले की लीलायें मुदित मन देख रहे हैं।
सब तरफ़ खेल में फ़िक्सिंग घोटाले से बचने के उपायों की चर्चा हो रही है। कोई कानून बनाने की बात कर रहा है।
मेरा सुझाव है कि खेलों में फ़िक्सिंग रोकनी है तो खिलाड़ियों को फ़िक्सिंग न करने के लिये नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस मिलना चाहिये। जिस तरह सरकारी डाक्टरों को अलग से प्रैक्टिस न करने के लिये नॉन प्रैक्सिंग अलाउंस (NPA)मिलता है। उसी तर्ज पर खेलों में फ़िक्सिंग रोकने के लिये खिलाड़ियों को नॉन फ़िक्सिंग अलाउंस (NFA) मिलना चाहिये।
हर खिलाड़ी का नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस उनकी कीमत के हिसाब से होगा। अच्छे खिलाड़ी को ज्यादा , खराब खिलाड़ी को और ज्यादा। अच्छा खिलाड़ी तो मैच की फ़ीस के अलावा विज्ञापन की कमाई से गुजारा कर लेगा। लेकिन खराब खिलाड़ी को विज्ञापन नहीं मिलते तो उसकी प्यास ज्यादा होती है लिहाजा खराब खिलाड़ी को अच्छे खिलाड़ी के मुकाबले डबल नॉन फ़िक्सिंग अलाउंस (NFA) मिलना चाहिये।
कुंआरे खिलाड़ी का एन.एफ़.ए (नफ़ा) शादी -शुदा खिलाड़ी के मुकाबले ज्यादा होना चाहिये। कुंआरे खिलाड़ियों को अपने/अपनी मित्रों को सहेजने में ज्यादा खर्चा होता है। शहरी इलाकों के खिलाड़ी को गांव कस्बे के खिलाड़ी की तुलना में अपनी गर्लफ़्रेंड मेंटेन करने में ज्यादा खर्चा लगता है इसलिये छत्तीसगढ़ वाले का नफ़ा चंढीगढ़ वाले से ज्यादा होना चाहिये।
यह भी हो सकता है नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस और गर्ल फ़्रेंड अलाउंस अलग कर दिया जाये। इससे फ़ायदा यह होगा कि शादी शुदा लोगों को यह अलाउंस देना नहीं होगा। हो सकता है कि शादी शुदा लोग एतराज करें कि ठीक है बीबी मेंटन करने में एलाउंस मत दीजिये लेकिन कुछ तो भत्ता दीजिये हमको भी ताकि बीबी एक अलावा भी किसी को मेंटेन करने का मन करे तो कमी न रहे। ऐसे लोगों को संगीता बिजलानी एलाउंस दिया जा सकता है।
नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस का फ़ायदा यह होगा कि खिलाड़ी का स्तर तय हो सकता है। इसके आधार पर टीम का चयन किया जा सकता है। खिलाड़ी की फ़िक्सिंग क्षमता के हिसाब से उनका टीम में चुनाव किया जा सकता है। सर्वे करा लीजिये। जिस खिलाड़ी का NFA शून्य है उसको निकाल बाहर करिये। यह तरकीब लगाई गयी होती तो वीरेन्द्र सहवाग जैसे खिलाड़ियों को बिना बवाल के अब तक बाहर कर दिया गया होता।
तमाम डॉक्टर लोग नपा (NPA) भी लेते हैं और घर में प्रैक्टिस भी करते हैं। अस्पताल में मरीजे देखते हैं और इलाज के लिये घर बुलाते है। आने वाले समय में नॉन प्रैक्टिसिंग घोटाला भी अवतार ले सकता है।
उसी तर्ज पर हो सकता है कुछ खिलाड़ी नफ़ा( NFA) एलाउंस भी लें और फ़िक्सिंग भी करें। डाक्टरी एक आदर्श पेशा है। उसके आदर्शों को खिलाड़ियों द्वारा अनुकरण किया जाये यह सहज संभाव्य है।जब होगा तब देखा जायेगा।
हो सकता है खेलों की नॉन फ़िक्सिंग घोटाले की इस्कीम आगे चलकर दूसरे पेशों में भी लागू हो। सरकार हर विभाग के लिये, हर मंत्री के लिये, हर पद के लिये उसकी घोटाला क्षमता के अनुसार नॉन घोटाला एलाउंस घोषित कर दे। फ़िर संभव देश में घपले घोटालों का नामोनिशान मिट जाये। घपला करने वाले आजकल के ईमानदारों की तरह अल्पसंख्यक हो जायें।
आप बताइये आपका क्या विचार है इस मामले।
अगर नफ़ा का विचार लागू हुआ आप अपने लिये कित्ता नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस चाहते हैं?
तेजी से उभरा और मीडिया के आसमान पर छा गया। छाया हुआ है हफ़्ते भर से।
इसके पहले के महारथी घोटाले रेलगेट, कोलगेट सब नेपथ्य में चले गये हैं। इसकी आड़ में खड़े हैं। जैसे संयुक्त परिवारों की बहुयें , पल्ला सर पर लिये, दरवाजे की ओट से ड्राइंग रूम की हरकतें निहारती हैं वैसे ही बाकी घोटाले फ़िक्सिंग घोटाले की लीलायें मुदित मन देख रहे हैं।
सब तरफ़ खेल में फ़िक्सिंग घोटाले से बचने के उपायों की चर्चा हो रही है। कोई कानून बनाने की बात कर रहा है।
मेरा सुझाव है कि खेलों में फ़िक्सिंग रोकनी है तो खिलाड़ियों को फ़िक्सिंग न करने के लिये नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस मिलना चाहिये। जिस तरह सरकारी डाक्टरों को अलग से प्रैक्टिस न करने के लिये नॉन प्रैक्सिंग अलाउंस (NPA)मिलता है। उसी तर्ज पर खेलों में फ़िक्सिंग रोकने के लिये खिलाड़ियों को नॉन फ़िक्सिंग अलाउंस (NFA) मिलना चाहिये।
हर खिलाड़ी का नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस उनकी कीमत के हिसाब से होगा। अच्छे खिलाड़ी को ज्यादा , खराब खिलाड़ी को और ज्यादा। अच्छा खिलाड़ी तो मैच की फ़ीस के अलावा विज्ञापन की कमाई से गुजारा कर लेगा। लेकिन खराब खिलाड़ी को विज्ञापन नहीं मिलते तो उसकी प्यास ज्यादा होती है लिहाजा खराब खिलाड़ी को अच्छे खिलाड़ी के मुकाबले डबल नॉन फ़िक्सिंग अलाउंस (NFA) मिलना चाहिये।
कुंआरे खिलाड़ी का एन.एफ़.ए (नफ़ा) शादी -शुदा खिलाड़ी के मुकाबले ज्यादा होना चाहिये। कुंआरे खिलाड़ियों को अपने/अपनी मित्रों को सहेजने में ज्यादा खर्चा होता है। शहरी इलाकों के खिलाड़ी को गांव कस्बे के खिलाड़ी की तुलना में अपनी गर्लफ़्रेंड मेंटेन करने में ज्यादा खर्चा लगता है इसलिये छत्तीसगढ़ वाले का नफ़ा चंढीगढ़ वाले से ज्यादा होना चाहिये।
यह भी हो सकता है नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस और गर्ल फ़्रेंड अलाउंस अलग कर दिया जाये। इससे फ़ायदा यह होगा कि शादी शुदा लोगों को यह अलाउंस देना नहीं होगा। हो सकता है कि शादी शुदा लोग एतराज करें कि ठीक है बीबी मेंटन करने में एलाउंस मत दीजिये लेकिन कुछ तो भत्ता दीजिये हमको भी ताकि बीबी एक अलावा भी किसी को मेंटेन करने का मन करे तो कमी न रहे। ऐसे लोगों को संगीता बिजलानी एलाउंस दिया जा सकता है।
नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस का फ़ायदा यह होगा कि खिलाड़ी का स्तर तय हो सकता है। इसके आधार पर टीम का चयन किया जा सकता है। खिलाड़ी की फ़िक्सिंग क्षमता के हिसाब से उनका टीम में चुनाव किया जा सकता है। सर्वे करा लीजिये। जिस खिलाड़ी का NFA शून्य है उसको निकाल बाहर करिये। यह तरकीब लगाई गयी होती तो वीरेन्द्र सहवाग जैसे खिलाड़ियों को बिना बवाल के अब तक बाहर कर दिया गया होता।
तमाम डॉक्टर लोग नपा (NPA) भी लेते हैं और घर में प्रैक्टिस भी करते हैं। अस्पताल में मरीजे देखते हैं और इलाज के लिये घर बुलाते है। आने वाले समय में नॉन प्रैक्टिसिंग घोटाला भी अवतार ले सकता है।
उसी तर्ज पर हो सकता है कुछ खिलाड़ी नफ़ा( NFA) एलाउंस भी लें और फ़िक्सिंग भी करें। डाक्टरी एक आदर्श पेशा है। उसके आदर्शों को खिलाड़ियों द्वारा अनुकरण किया जाये यह सहज संभाव्य है।जब होगा तब देखा जायेगा।
हो सकता है खेलों की नॉन फ़िक्सिंग घोटाले की इस्कीम आगे चलकर दूसरे पेशों में भी लागू हो। सरकार हर विभाग के लिये, हर मंत्री के लिये, हर पद के लिये उसकी घोटाला क्षमता के अनुसार नॉन घोटाला एलाउंस घोषित कर दे। फ़िर संभव देश में घपले घोटालों का नामोनिशान मिट जाये। घपला करने वाले आजकल के ईमानदारों की तरह अल्पसंख्यक हो जायें।
आप बताइये आपका क्या विचार है इस मामले।
अगर नफ़ा का विचार लागू हुआ आप अपने लिये कित्ता नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस चाहते हैं?
Friday, May 24, 2013
नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस
http://web.archive.org/web/20140419160430/http://hindini.com/fursatiya/archives/4362
नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस
By फ़ुरसतिया on May 24, 2013
क्रिकेट में फ़िक्सिंग घोटाला घोटालों में सबसे उदीयमान घोटाला है।
तेजी से उभरा और मीडिया के आसमान पर छा गया। छाया हुआ है हफ़्ते भर से।
इसके पहले के महारथी घोटाले रेलगेट, कोलगेट सब नेपथ्य में चले गये हैं। इसकी आड़ में खड़े हैं। जैसे संयुक्त परिवारों की बहुयें , पल्ला सर पर लिये, दरवाजे की ओट से ड्राइंग रूम की हरकतें निहारती हैं वैसे ही बाकी घोटाले फ़िक्सिंग घोटाले की लीलायें मुदित मन देख रहे हैं।
सब तरफ़ खेल में फ़िक्सिंग घोटाले से बचने के उपायों की चर्चा हो रही है। कोई कानून बनाने की बात कर रहा है।
मेरा सुझाव है कि खेलों में फ़िक्सिंग रोकनी है तो खिलाड़ियों को फ़िक्सिंग न करने के लिये नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस मिलना चाहिये। जिस तरह सरकारी डाक्टरों को अलग से प्रैक्टिस न करने के लिये नॉन प्रैक्सिंग अलाउंस (NPA)मिलता है। उसी तर्ज पर खेलों में फ़िक्सिंग रोकने के लिये खिलाड़ियों को नॉन फ़िक्सिंग अलाउंस (NFA) मिलना चाहिये।
हर खिलाड़ी का नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस उनकी कीमत के हिसाब से होगा। अच्छे खिलाड़ी को ज्यादा , खराब खिलाड़ी को और ज्यादा। अच्छा खिलाड़ी तो मैच की फ़ीस के अलावा विज्ञापन की कमाई से गुजारा कर लेगा। लेकिन खराब खिलाड़ी को विज्ञापन नहीं मिलते तो उसकी प्यास ज्यादा होती है लिहाजा खराब खिलाड़ी को अच्छे खिलाड़ी के मुकाबले डबल नॉन फ़िक्सिंग अलाउंस (NFA) मिलना चाहिये।
कुंआरे खिलाड़ी का एन.एफ़.ए (नफ़ा) शादी -शुदा खिलाड़ी के मुकाबले ज्यादा होना चाहिये। कुंआरे खिलाड़ियों को अपने/अपनी मित्रों को सहेजने में ज्यादा खर्चा होता है। शहरी इलाकों के खिलाड़ी को गांव कस्बे के खिलाड़ी की तुलना में अपनी गर्लफ़्रेंड मेंटेन करने में ज्यादा खर्चा लगता है इसलिये छत्तीसगढ़ वाले का नफ़ा चंढीगढ़ वाले से ज्यादा होना चाहिये।
यह भी हो सकता है नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस और गर्ल फ़्रेंड अलाउंस अलग कर दिया जाये। इससे फ़ायदा यह होगा कि शादी शुदा लोगों को यह अलाउंस देना नहीं होगा। हो सकता है कि शादी शुदा लोग एतराज करें कि ठीक है बीबी मेंटन करने में एलाउंस मत दीजिये लेकिन कुछ तो भत्ता दीजिये हमको भी ताकि बीबी एक अलावा भी किसी को मेंटेन करने का मन करे तो कमी न रहे। ऐसे लोगों को संगीता बिजलानी एलाउंस दिया जा सकता है।
नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस का फ़ायदा यह होगा कि खिलाड़ी का स्तर तय हो सकता है। इसके आधार पर टीम का चयन किया जा सकता है। खिलाड़ी की फ़िक्सिंग क्षमता के हिसाब से उनका टीम में चुनाव किया जा सकता है। सर्वे करा लीजिये। जिस खिलाड़ी का NFA शून्य है उसको निकाल बाहर करिये। यह तरकीब लगाई गयी होती तो वीरेन्द्र सहवाग जैसे खिलाड़ियों को बिना बवाल के अब तक बाहर कर दिया गया होता।
तमाम डॉक्टर लोग नपा (NPA) भी लेते हैं और घर में प्रैक्टिस भी करते हैं। अस्पताल में मरीजे देखते हैं और इलाज के लिये घर बुलाते है। आने वाले समय में नॉन प्रैक्टिसिंग घोटाला भी अवतार ले सकता है।
उसी तर्ज पर हो सकता है कुछ खिलाड़ी नफ़ा( NFA) एलाउंस भी लें और फ़िक्सिंग भी करें। डाक्टरी एक आदर्श पेशा है। उसके आदर्शों को खिलाड़ियों द्वारा अनुकरण किया जाये यह सहज संभाव्य है।जब होगा तब देखा जायेगा।
हो सकता है खेलों की नॉन फ़िक्सिंग घोटाले की इस्कीम आगे चलकर दूसरे पेशों में भी लागू हो। सरकार हर विभाग के लिये, हर मंत्री के लिये, हर पद के लिये उसकी घोटाला क्षमता के अनुसार नॉन घोटाला एलाउंस घोषित कर दे। फ़िर संभव देश में घपले घोटालों का नामोनिशान मिट जाये। घपला करने वाले आजकल के ईमानदारों की तरह अल्पसंख्यक हो जायें।
आप बताइये आपका क्या विचार है इस मामले।
अगर नफ़ा का विचार लागू हुआ आप अपने लिये कित्ता नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस चाहते हैं?
तेजी से उभरा और मीडिया के आसमान पर छा गया। छाया हुआ है हफ़्ते भर से।
इसके पहले के महारथी घोटाले रेलगेट, कोलगेट सब नेपथ्य में चले गये हैं। इसकी आड़ में खड़े हैं। जैसे संयुक्त परिवारों की बहुयें , पल्ला सर पर लिये, दरवाजे की ओट से ड्राइंग रूम की हरकतें निहारती हैं वैसे ही बाकी घोटाले फ़िक्सिंग घोटाले की लीलायें मुदित मन देख रहे हैं।
सब तरफ़ खेल में फ़िक्सिंग घोटाले से बचने के उपायों की चर्चा हो रही है। कोई कानून बनाने की बात कर रहा है।
मेरा सुझाव है कि खेलों में फ़िक्सिंग रोकनी है तो खिलाड़ियों को फ़िक्सिंग न करने के लिये नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस मिलना चाहिये। जिस तरह सरकारी डाक्टरों को अलग से प्रैक्टिस न करने के लिये नॉन प्रैक्सिंग अलाउंस (NPA)मिलता है। उसी तर्ज पर खेलों में फ़िक्सिंग रोकने के लिये खिलाड़ियों को नॉन फ़िक्सिंग अलाउंस (NFA) मिलना चाहिये।
हर खिलाड़ी का नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस उनकी कीमत के हिसाब से होगा। अच्छे खिलाड़ी को ज्यादा , खराब खिलाड़ी को और ज्यादा। अच्छा खिलाड़ी तो मैच की फ़ीस के अलावा विज्ञापन की कमाई से गुजारा कर लेगा। लेकिन खराब खिलाड़ी को विज्ञापन नहीं मिलते तो उसकी प्यास ज्यादा होती है लिहाजा खराब खिलाड़ी को अच्छे खिलाड़ी के मुकाबले डबल नॉन फ़िक्सिंग अलाउंस (NFA) मिलना चाहिये।
कुंआरे खिलाड़ी का एन.एफ़.ए (नफ़ा) शादी -शुदा खिलाड़ी के मुकाबले ज्यादा होना चाहिये। कुंआरे खिलाड़ियों को अपने/अपनी मित्रों को सहेजने में ज्यादा खर्चा होता है। शहरी इलाकों के खिलाड़ी को गांव कस्बे के खिलाड़ी की तुलना में अपनी गर्लफ़्रेंड मेंटेन करने में ज्यादा खर्चा लगता है इसलिये छत्तीसगढ़ वाले का नफ़ा चंढीगढ़ वाले से ज्यादा होना चाहिये।
यह भी हो सकता है नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस और गर्ल फ़्रेंड अलाउंस अलग कर दिया जाये। इससे फ़ायदा यह होगा कि शादी शुदा लोगों को यह अलाउंस देना नहीं होगा। हो सकता है कि शादी शुदा लोग एतराज करें कि ठीक है बीबी मेंटन करने में एलाउंस मत दीजिये लेकिन कुछ तो भत्ता दीजिये हमको भी ताकि बीबी एक अलावा भी किसी को मेंटेन करने का मन करे तो कमी न रहे। ऐसे लोगों को संगीता बिजलानी एलाउंस दिया जा सकता है।
नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस का फ़ायदा यह होगा कि खिलाड़ी का स्तर तय हो सकता है। इसके आधार पर टीम का चयन किया जा सकता है। खिलाड़ी की फ़िक्सिंग क्षमता के हिसाब से उनका टीम में चुनाव किया जा सकता है। सर्वे करा लीजिये। जिस खिलाड़ी का NFA शून्य है उसको निकाल बाहर करिये। यह तरकीब लगाई गयी होती तो वीरेन्द्र सहवाग जैसे खिलाड़ियों को बिना बवाल के अब तक बाहर कर दिया गया होता।
तमाम डॉक्टर लोग नपा (NPA) भी लेते हैं और घर में प्रैक्टिस भी करते हैं। अस्पताल में मरीजे देखते हैं और इलाज के लिये घर बुलाते है। आने वाले समय में नॉन प्रैक्टिसिंग घोटाला भी अवतार ले सकता है।
उसी तर्ज पर हो सकता है कुछ खिलाड़ी नफ़ा( NFA) एलाउंस भी लें और फ़िक्सिंग भी करें। डाक्टरी एक आदर्श पेशा है। उसके आदर्शों को खिलाड़ियों द्वारा अनुकरण किया जाये यह सहज संभाव्य है।जब होगा तब देखा जायेगा।
हो सकता है खेलों की नॉन फ़िक्सिंग घोटाले की इस्कीम आगे चलकर दूसरे पेशों में भी लागू हो। सरकार हर विभाग के लिये, हर मंत्री के लिये, हर पद के लिये उसकी घोटाला क्षमता के अनुसार नॉन घोटाला एलाउंस घोषित कर दे। फ़िर संभव देश में घपले घोटालों का नामोनिशान मिट जाये। घपला करने वाले आजकल के ईमानदारों की तरह अल्पसंख्यक हो जायें।
आप बताइये आपका क्या विचार है इस मामले।
अगर नफ़ा का विचार लागू हुआ आप अपने लिये कित्ता नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस चाहते हैं?
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Tuesday, May 21, 2013
आइये समय बरबाद करें
http://web.archive.org/web/20140420081734/http://hindini.com/fursatiya/archives/4322
सुबह उठे दफ़्तर गये, दिन बीता बस यों,
शाम हुई लौट के आये, रात हुई गये सो।
समय
आजकल ऐसे ही बीत जाता है। सुबह उठकर चाय पीते हुये लैपटॉप पर खटर-पटर। फ़िर
दफ़्तर। फ़िर डेरे पर। फ़िर सोना। फ़िर जगना। बस यही रोज का मर्रा है।
बचपन में एक ठो श्लोक पढ़ते थे-
अब आजकल किसी से कहा जाये कि वो कविताबाजी करता है अत: बुद्धिमान है तो लोग हंसेंगे और कहेंगे- व्हाट अ जोक? कवितागीरी तो फ़ालतू लोगों का काम है। काव्य शास्त्र मनोविनोद कोई काम है क्या? ये तो फ़ालतू का टाइम खोटी करना है। टोट्टल टाइम वेस्ट। कविता से क्या रोजगार मिलता है।
फ़ुल टाइम कविताबाजी करने को तो लोग बेवकूफ़ी का काम बताते हैं आजकल।
मूर्ख लोग अपना समय नशे में , सोने में और कलह में बिताते हैं। तो क्या माना जाये कि प्राइम टाइम बातचीत में बहस करते, कलह मचाते लोग मूर्ख हैं? फ़ेसबुक के नशे में डूबे लोग बेवकूफ़ हैं? सोते तो सब हैं तो क्या सब लोग मूर्ख हैं?
आजकल तो सोशल मीडिया पर ज्ञानीजन भी बहस करते पाये जाते हैं। कलह सी मचाते हैं। गाली-गलौज या फ़िर न हुआ तो गाली-गलौच ही करते रहते हैं। तो क्या माना जाये कि वे ज्ञानी नहीं हैं। मूर्ख हैं?
कुछ समझ में नही आ रहा है कौन बेवकूफ़। कौन ज्ञानी। गड़बड़ है सब। परिभाषायें समय के हिसाब से बदलती हैं। जिस परिभाषा से कल लोग ज्ञानी समझे जाते रहे होंगे उसई कसौटी पर कस के आज लोगों को बौढ़म ठहरा देते हैं।
अच्छा अगर आपसे पूछा जाये कि आप कैसे अपना टाइम वेस्ट करते हैं तो क्या आप बता पायेंगे फ़टाक से? शायद न बता पायें। शायद आप भड़क भी जायें जस्टिस काटजू की तरह और कहने लगें – हम समय का सदुपयोग करते हैं जी बरबाद नहीं करते।
काम करने वालों के बारे में सोचा जाये तो वे काम करते हैं, काम की चिंता करते हैं, काम करते समय काम की चिंता करते हैं। न होने पर डबल चिंता करते हैं। काम हो जाता है तो और काम करते हैं, नहीं होता तो और नहीं करते। सोचते रहते हैं कि काम नहीं हो रहा।
अगर हमसे कोई पूछे कि हम कैसे समय बरबाद करते हैं तो हम आपको बता सकते हैं। हम समय अपना समय का सदुपयोग करने की योजना बताने हुये समय बरबाद करते हैं।
यह काम हम सुबह से ही करने लगते हैं। सुबह जब जग जाते हैं तो सोचते हैं कि उठे कि न उठें? काफ़ी देर तक इसी सवाल-जबाब में डूबे रहते हैं। जब तय हो जाता है कि उठना है तो सोचते हैं कि अभी उठें कि थोड़ी देर में उठें। जब थोड़ी देर में तय हो जाता है तो फ़िर सोचते हैं कि कित्ती देर में। होते-होते देर इत्ती होती जाती है कि सब समय बरबाद हो जाता है। फ़िर मजबूरी में महात्मा गांधी बन जाते हैं। उठ जाते हैं।
हम इसी तरह हर जगह अपना समय बरबाद करते हैं। कोई काम तभी करते हैं जब उसके करने के अलावा और कोई विकल्प न रहे। इसीलिये कोई भी हमसे कोई काम कहता है हम फ़ौरन हामी भर देते हैं -हां करेंगे। हमें पूरा भरोसा है कि हमारा और उसका ’संयुक्त आलस्य’ काम को शुरु करने की घड़ियां धकिया के इत्ती दूर कर देगा कि काम शुरु ही न होगा। जब शुरु ही न होगा तो खतम तो कैसे होगा आप खुदै समझ सकते हैं।
अब आपको इसई पोस्ट के बारे में बतायें कि हमने इसे कई बार लिखा। आधा-अधूरा। पहले सोचा देश के हालिया करप्शन कथा पर लिखें। लेकिन फ़िर नहीं लिखे। सोचे कि हम लिख देंगे तो फ़िर व्यंग्यकार क्या लिखेंगे? उनके पेट पर काहे लात मारें। फ़िर सोचा एक ठो कार्टून बनायें लेकिन सोचा कार्टूनिस्टों पर आइडिया चोरी का आरोप लगेगा। नहीं बनाये। फ़िर सोचा कि जरा भ्रष्टाचार पर उदास होकर एक ठो रोतीली पोस्ट लिखकर देश खरा हालत पर रोना-धोना मचा दिया जाये। लेकिन फ़िर यह सोचकर रुक गये कि गर्मी के मौसम में वर्षा ऋतु आ जायेगी। मटिया दिये।
इसी तरह कम से कम दस ठो पोस्टों के मसौदे दो-दो लाइन लिखे फ़िर मिटा दिये। एक आइडिया यह भी आया कि सब मसौदे एक साथ पोस्ट कर दिये जायें लेकिन गठबंधन के मसौदों की सरकार का प्रधानमंत्री नहीं तय हुआ सो वह भी नहीं किये। जब ये नहीं कर पाये तो एक विचार यह भी आया कि यही लिखा जाये कि कैसे लिखना टलता जाता है। लेकिन विचार को बेवकूफ़ी की बात मानकर न लिखने की बड़ी बेवकूफ़ी कर डाली।
अब करते-करते हम अपने पास का लिखने वाला सारा समय बरबाद करके उस स्थिति में पहुंच चुके हैं जहां बरबाद करने के लिये और समय नहीं बचता।सो मजबूरन इस लिखे को पोस्ट कर रहे हैं मतलब पोस्ट को चढ़ा रहे हैं।
हमने तो यह बता दिया कि हम अपना समय कैसे बरबाद करते हैं। यह खुलासा केवल ब्लॉग लिखने तक सीमित है। बाकी हरकतों में समय की बरबादी के पत्ते हमने अभी नहीं खोले हैं।
अब क्या आप बतायेंगे कि आप अपना समय कैसे बरबाद करते हैं? आई.पी.एल. देखते हुये समय बरबाद करने का विकल्प भूलकर भी न बताइयेगा- पुलिस पूछताछ के लिये बुला सकती है।
यह कहना और बड़ी हंसी का मसौदा होगा अगर आप कहेंगे कि – यह पोस्ट पढ़कर समय बरबाद किया।
परसाई जी के पीछे लगभग भागते हुये
मैंने सुनाई अपनी कविता
और पूछा
क्या इस पर इनाम मिल सकता है
अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है
सुनकर मैं सन्न रह गया
क्योंकि उस वक्त वे
छात्रों की एक कविता प्रतियोगिता की
अध्यक्षता करने जा रहे थे।
आज चारों तरफ़ सुनता हूं
वाह, वाह-वाह, फ़िर से
मंच और मीडिया के लकदक दोस्त
लेते हैं हाथों हाथ
सजा कैसी,कोई सख्त बात तक नहीं करता
तो शक होने लगता है
परसाई जी की बात पर नहीं
अपनी कविता पर।
-नरेश सक्सेना
आइये समय बरबाद करें
By फ़ुरसतिया on May 21, 2013
शाम हुई लौट के आये, रात हुई गये सो।
बचपन में एक ठो श्लोक पढ़ते थे-
काव्य-शास्त्र-विनोदेन कालः गच्छति धीमताम् ।मतलब बुद्धिमान लोग अपना समय काव्य शास्त्र मनोविनोद में गुजारते हैं। मूर्ख लोग अपना समय नशा, सोने और कलह करने में बिताते हैं।
व्यसनेन तु मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ॥
अब आजकल किसी से कहा जाये कि वो कविताबाजी करता है अत: बुद्धिमान है तो लोग हंसेंगे और कहेंगे- व्हाट अ जोक? कवितागीरी तो फ़ालतू लोगों का काम है। काव्य शास्त्र मनोविनोद कोई काम है क्या? ये तो फ़ालतू का टाइम खोटी करना है। टोट्टल टाइम वेस्ट। कविता से क्या रोजगार मिलता है।
फ़ुल टाइम कविताबाजी करने को तो लोग बेवकूफ़ी का काम बताते हैं आजकल।
मूर्ख लोग अपना समय नशे में , सोने में और कलह में बिताते हैं। तो क्या माना जाये कि प्राइम टाइम बातचीत में बहस करते, कलह मचाते लोग मूर्ख हैं? फ़ेसबुक के नशे में डूबे लोग बेवकूफ़ हैं? सोते तो सब हैं तो क्या सब लोग मूर्ख हैं?
आजकल तो सोशल मीडिया पर ज्ञानीजन भी बहस करते पाये जाते हैं। कलह सी मचाते हैं। गाली-गलौज या फ़िर न हुआ तो गाली-गलौच ही करते रहते हैं। तो क्या माना जाये कि वे ज्ञानी नहीं हैं। मूर्ख हैं?
कुछ समझ में नही आ रहा है कौन बेवकूफ़। कौन ज्ञानी। गड़बड़ है सब। परिभाषायें समय के हिसाब से बदलती हैं। जिस परिभाषा से कल लोग ज्ञानी समझे जाते रहे होंगे उसई कसौटी पर कस के आज लोगों को बौढ़म ठहरा देते हैं।
अच्छा अगर आपसे पूछा जाये कि आप कैसे अपना टाइम वेस्ट करते हैं तो क्या आप बता पायेंगे फ़टाक से? शायद न बता पायें। शायद आप भड़क भी जायें जस्टिस काटजू की तरह और कहने लगें – हम समय का सदुपयोग करते हैं जी बरबाद नहीं करते।
काम करने वालों के बारे में सोचा जाये तो वे काम करते हैं, काम की चिंता करते हैं, काम करते समय काम की चिंता करते हैं। न होने पर डबल चिंता करते हैं। काम हो जाता है तो और काम करते हैं, नहीं होता तो और नहीं करते। सोचते रहते हैं कि काम नहीं हो रहा।
अगर हमसे कोई पूछे कि हम कैसे समय बरबाद करते हैं तो हम आपको बता सकते हैं। हम समय अपना समय का सदुपयोग करने की योजना बताने हुये समय बरबाद करते हैं।
यह काम हम सुबह से ही करने लगते हैं। सुबह जब जग जाते हैं तो सोचते हैं कि उठे कि न उठें? काफ़ी देर तक इसी सवाल-जबाब में डूबे रहते हैं। जब तय हो जाता है कि उठना है तो सोचते हैं कि अभी उठें कि थोड़ी देर में उठें। जब थोड़ी देर में तय हो जाता है तो फ़िर सोचते हैं कि कित्ती देर में। होते-होते देर इत्ती होती जाती है कि सब समय बरबाद हो जाता है। फ़िर मजबूरी में महात्मा गांधी बन जाते हैं। उठ जाते हैं।
हम इसी तरह हर जगह अपना समय बरबाद करते हैं। कोई काम तभी करते हैं जब उसके करने के अलावा और कोई विकल्प न रहे। इसीलिये कोई भी हमसे कोई काम कहता है हम फ़ौरन हामी भर देते हैं -हां करेंगे। हमें पूरा भरोसा है कि हमारा और उसका ’संयुक्त आलस्य’ काम को शुरु करने की घड़ियां धकिया के इत्ती दूर कर देगा कि काम शुरु ही न होगा। जब शुरु ही न होगा तो खतम तो कैसे होगा आप खुदै समझ सकते हैं।
अब आपको इसई पोस्ट के बारे में बतायें कि हमने इसे कई बार लिखा। आधा-अधूरा। पहले सोचा देश के हालिया करप्शन कथा पर लिखें। लेकिन फ़िर नहीं लिखे। सोचे कि हम लिख देंगे तो फ़िर व्यंग्यकार क्या लिखेंगे? उनके पेट पर काहे लात मारें। फ़िर सोचा एक ठो कार्टून बनायें लेकिन सोचा कार्टूनिस्टों पर आइडिया चोरी का आरोप लगेगा। नहीं बनाये। फ़िर सोचा कि जरा भ्रष्टाचार पर उदास होकर एक ठो रोतीली पोस्ट लिखकर देश खरा हालत पर रोना-धोना मचा दिया जाये। लेकिन फ़िर यह सोचकर रुक गये कि गर्मी के मौसम में वर्षा ऋतु आ जायेगी। मटिया दिये।
इसी तरह कम से कम दस ठो पोस्टों के मसौदे दो-दो लाइन लिखे फ़िर मिटा दिये। एक आइडिया यह भी आया कि सब मसौदे एक साथ पोस्ट कर दिये जायें लेकिन गठबंधन के मसौदों की सरकार का प्रधानमंत्री नहीं तय हुआ सो वह भी नहीं किये। जब ये नहीं कर पाये तो एक विचार यह भी आया कि यही लिखा जाये कि कैसे लिखना टलता जाता है। लेकिन विचार को बेवकूफ़ी की बात मानकर न लिखने की बड़ी बेवकूफ़ी कर डाली।
अब करते-करते हम अपने पास का लिखने वाला सारा समय बरबाद करके उस स्थिति में पहुंच चुके हैं जहां बरबाद करने के लिये और समय नहीं बचता।सो मजबूरन इस लिखे को पोस्ट कर रहे हैं मतलब पोस्ट को चढ़ा रहे हैं।
हमने तो यह बता दिया कि हम अपना समय कैसे बरबाद करते हैं। यह खुलासा केवल ब्लॉग लिखने तक सीमित है। बाकी हरकतों में समय की बरबादी के पत्ते हमने अभी नहीं खोले हैं।
अब क्या आप बतायेंगे कि आप अपना समय कैसे बरबाद करते हैं? आई.पी.एल. देखते हुये समय बरबाद करने का विकल्प भूलकर भी न बताइयेगा- पुलिस पूछताछ के लिये बुला सकती है।
यह कहना और बड़ी हंसी का मसौदा होगा अगर आप कहेंगे कि – यह पोस्ट पढ़कर समय बरबाद किया।
मेरी पसंद
पैंतालीस साल पहले , जबलपुर मेंपरसाई जी के पीछे लगभग भागते हुये
मैंने सुनाई अपनी कविता
और पूछा
क्या इस पर इनाम मिल सकता है
अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है
सुनकर मैं सन्न रह गया
क्योंकि उस वक्त वे
छात्रों की एक कविता प्रतियोगिता की
अध्यक्षता करने जा रहे थे।
आज चारों तरफ़ सुनता हूं
वाह, वाह-वाह, फ़िर से
मंच और मीडिया के लकदक दोस्त
लेते हैं हाथों हाथ
सजा कैसी,कोई सख्त बात तक नहीं करता
तो शक होने लगता है
परसाई जी की बात पर नहीं
अपनी कविता पर।
-नरेश सक्सेना
Posted in बस यूं ही | 20 Responses
20 responses to “आइये समय बरबाद करें”
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हमने तो आपकी पोस्ट बाँच कर समय बिताया…. बरबाद कैसे करते हैं यह बताएँ कि न बताएँ इस पर विचार कर रहे हैं…
मीनाक्षी की हालिया प्रविष्टी..सुधा की कहानी उसकी ज़ुबानी (4) -
हमें तो समय व्यर्थ करना आता ही नहीं, कुछ न कुछ क्रिया में रत रहते हैं।
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..नदी का सागर से मिलन -
वैसे समय बर्बाद करना भी एक कला है, और यह सीखने में ही बहुत समय लग जाता है
-
बहुतै मज़ेदार पोस्ट हमारी मनपसंद लाइनें हैं-
“काम करने वालों के बारे में सोचा जाये तो वे काम करते हैं, काम की चिंता करते हैं, काम करते समय काम की चिंता करते हैं। न होने पर डबल चिंता करते हैं। काम हो जाता है तो और काम करते हैं, नहीं होता तो और नहीं करते। सोचते रहते हैं कि काम नहीं हो रहा।
अगर हमसे कोई पूछे कि हम कैसे समय बरबाद करते हैं तो हम आपको बता सकते हैं। हम समय अपना समय का सदुपयोग करने की योजना बताने हुये समय बरबाद करते हैं। ”
आलस, खलिहरी, काहिली, समय बर्बाद करना ये सब हमारे प्रिय काम है. हम तो फेसबुक पर आज यही स्टेटस भी लिखने वाले थे कि भई हमको कुछ नहीं करना अच्छा लगता है. आपको क्या तकलीफ़ है ?
aradhana की हालिया प्रविष्टी..क्या किया जाय? -
अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है। क्या पता वही सर्वश्रेष्ठ ईनाम भी हो।
दिनेशराय द्विवेदी की हालिया प्रविष्टी..गिरवी रखे जेवर न लौटाना अमानत में खयानत का अपराध है। -
माने कि आपका लिखा पढना कोई काम नहीं है
वाणी गीत की हालिया प्रविष्टी..चुन चुन करती आई चिड़िया …. -
सबसे ज्यादा तो यही सोचकर समय बर्बाद होता है कि जो कल समय बर्बाद किया आज वो नहीं होने देना है |
-
भाई साहब हमारी या आपकी क्या कूबत है कि टाइम वेस्ट कर सकें. टाइम अपनी जगह है और वेस्ट तो हम हुए जा रहे हैं.
PN Subramanian की हालिया प्रविष्टी..यह उपासक कौन है -
आज चारों तरफ़ सुनता हूं/वाह, वाह-वाह, फ़िर से/मंच और मीडिया के लकदक दोस्त/लेते हैं हाथों हाथ/सजा कैसी,कोई सख्त बात तक नहीं करता/तो शक होने लगता है/परसाई जी की बात पर नहीं/अपनी कविता पर।
अद्भुत रचना सक्सेनाजी की।
शब्दों के चयन पर उठा विवाद हास्यास्पद है। आपकी लाइन क्लियर हमें तो यही लग रहा है।
साहित्यकारों के गैंगवार में जावेद अख़्तर का लिखा याद आ गया.-
जानता हूं मैं तुमको जौक़-ए-शायरी भी है
शख़्सियत सजाने में इक ये माहिरी भी है
फिर भी हर्फ़ चुनते हो, सिर्फ़ लफ़्ज़ सुनते हो
इनके दरम्यां क्या है, तुम ना जान पाओगे। -
खत्म होने से एक पैराग्राफ़ पहले हमने सोचा कि ये लिखेंगे कि आपकी पोस्ट पढ़ के समय बरबाद किया, पर अन्तिम लाइन में आपने ये भी लिख दिया… अब इत्ती लम्बी पोस्ट पढ़ के टाइम बरबाद करने के बाद टिप्पणी में क्या लिखें, ये सोच के टाइम बरबाद नहीं करेंगे.. वैसे भी इतनी लम्बी टिप्पणी लिखने में तो टैम बरबाद हो ही रहा है… अब आगे भी हम आपकी पोस्ट पर टाइम बरबाद करने आएँगे कि नहीं, ये इस पर निर्भर करता है कि आप अगली पोस्ट लिखने में कितना टाइम बरबाद करेंगे…
हम इसी तरह हर जगह अपना समय बरबाद करते हैं। कोई काम तभी करते हैं जब उसके करने के अलावा और कोई विकल्प न रहे। इसीलिये कोई भी हमसे कोई काम कहता है हम फ़ौरन हामी भर देते हैं -हां करेंगे। हमें पूरा भरोसा है कि हमारा और उसका ’संयुक्त आलस्य’ काम को शुरु करने की घड़ियां धकिया के इत्ती दूर कर देगा कि काम शुरु ही न होगा…. ये लाइन सबसे मजेदार थीं…
वैसे हमारा इतना टाइम बरबाद करने के लिए धन्यवाद… :)) -
खत्म होने से एक पैराग्राफ़ पहले हमने सोचा कि ये लिखेंगे कि आपकी पोस्ट पढ़ के समय बरबाद किया, पर अन्तिम लाइन में आपने ये भी लिख दिया… अब इत्ती लम्बी पोस्ट पढ़ के टाइम बरबाद करने के बाद टिप्पणी में क्या लिखें, ये सोच के टाइम बरबाद नहीं करेंगे.. वैसे भी इतनी लम्बी टिप्पणी लिखने में तो टैम बरबाद हो ही रहा है… अब आगे भी हम आपकी पोस्ट पर टाइम बरबाद करने आएँगे कि नहीं, ये इस पर निर्भर करता है कि आप अगली पोस्ट लिखने में कितना टाइम बरबाद करेंगे…
हम इसी तरह हर जगह अपना समय बरबाद करते हैं। कोई काम तभी करते हैं जब उसके करने के अलावा और कोई विकल्प न रहे। इसीलिये कोई भी हमसे कोई काम कहता है हम फ़ौरन हामी भर देते हैं -हां करेंगे। हमें पूरा भरोसा है कि हमारा और उसका ’संयुक्त आलस्य’ काम को शुरु करने की घड़ियां धकिया के इत्ती दूर कर देगा कि काम शुरु ही न होगा…. ये लाइन सबसे मजेदार थीं…
वैसे हमारा इतना टाइम बरबाद करने के लिए धन्यवाद… :)) -
क्या खतरनाक शक्लें आती हैं, ब्लॉग पर कमेंन्ट करने के बाद… इनका वास्तविकता से तो कोई लेना-देना नहीं है ना…??
-
बरबाद लोगों के
बरबाद जीवन की
बरबाद गप्पें भी
समय की बर्बादी है …
बरबाद पोस्ट पर
बरबाद टिप्पणी ,
बरबाद लोगों को
रद्दी आशीष देने की
बरबाद कोशिश हैं !
बरबाद लेखों पर
टिप्पणी भी बरबाद
ही मिलेगी !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..भ्रष्टाचार हमारे खून में -सतीश सक्सेना -
बहुत भारी भरकम लिंक सजाये हैं, फुर्सत से ही सही….:)
दीपक बाबा की हालिया प्रविष्टी..कविता, औरत और क्रांति -
अभी समय नहीं है , जब मिला तब आयेंगे बर्बाद करने
–आशीष -
हो …हमने तो पोस्ट पढ़ ली पूरी ..अब समय को कैसे बचाते बर्बाद होने से .:):).
-
अपनी तो आजकल बोलती ही बंद है। श्रीमती जी कहती हैं मै आजकल ब्लॉग और फ़ेसबुक पर बहुत समय बरबाद करता हूं। शायद सबसे ज़्यादा।
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..हिंद स्वराज्य-4 -
ब्लॉगर हो न निराश करो मन को ,
समय बर्बाद करो बर्बाद करो ||
चाय पी पी कर बर्बाद करो ,
फेसबुक पढ़ लिख कर बर्बाद करो ||
ये जन्म हुआ किस अर्थ कहो,
जब समय न बर्बाद किया ||
दफ्तर गये सब काम किया
तो फिर क्या बोलो नाम किया ||
घर आकर के टीवी खोलो ,
बस खाली पीली चैनल बदलो ||
जब ऊब जाओ मोबाइल खोलो ,
बिलावजह नंबर देखो ||
उठ उठ कर पानी बारम्बार पियो
बारम्बार उसका निकास करो ||
धीरे से रात करीब आये ,
झुलवा चरपैय्या में लेटो ||
गुड़ नाईट की जगह बोलो
ब्लॉगगिंग ने निकम्मा कर डाला
वर्ना थे हम भी काम के || -
वाह साहेब ऑफिस में बेठे बेठे कब ये पढ़ गया पता ही नहीं चला ………….वाकई बहुत मजेदार है
समय की बर्बादी कोई आसान काम नहीं है……… -
[...] आइये समय बरबाद करें [...]
Thursday, May 16, 2013
चलो एक कप चाय हो जाये
http://web.archive.org/web/20140420081707/http://hindini.com/fursatiya/archives/4313
चलो एक कप चाय हो जाये
By फ़ुरसतिया on May 16, 2013
आज
सुबह जरा और जल्दी उठ गये। अलार्म तो बहुत पहले बजा था पर उसको हम उत्ती
ही तवज्जो देते हैं जित्ती सरकारें अदालतों की तल्ख टिप्पणियों को देती
हैं। सुनकर मटिया देते हैं। बहुत किया तो फ़ौरन कुछ देर आगे का लगा देते
हैं।
लेकिन अलार्म के बाद फ़िर फ़ोन भी बजा। हमारे पुराने सीनियर सोढीजी हमको दिल्ली से जगा रहे थे। बोले -शुक्ला जी कौवे भी टहलने निकल लिये। अब तो निकलो टहलने। उनको हमने तीन दिन पहले फ़ोन किया था। वे मिस्ड काल का आज जबाब दे रहे थे। कानपुर में जित्ते दिन साथ रहे कहते रहे- टहला/भागा करो। वजन कम करो।
हमारा जबाब हमेशा एक्कै रहा- पहले वजन कायदे से बढ़ा तो लें तब कम करना शुरु करें।
आज दूसरी तरफ़ टहलने गये। एक महिला अपनी बच्ची के साथ टहल रही थी। उसकी नाक के एरियल से गुस्से के सिग्नल निकल रहे थे। लग रहा था वो बिटिया से खफ़ा होने का संकेत दे रही थी।
सड़क के किनारे एक नाले पर कुछ लोग उकड़ू बैठे निपट रहे थे। बगल की बिल्डिंग की आड़ से कुछ महिलायें खाली डिब्बे/प्लास्टिक की बोतलें लहराती निकल रहीं थीं। उनके चेहरे पर दिव्य निपटान की संतुष्टि पसरी थी।
एक सुअर सड़क पर निपटता चला रहा था। उसके निपटान बिंदुओं को मिलाकर बनायी रेखा सड़क पर बनी तिर्यक रेखा सरीखी दिखती। वह आराम से निश्चिंत निपटता चला जा रहा था। हर दिन उजागर होते घपलों -घोटालों की तरह।
सड़क पर मुर्गे बांग दे रहे थे। एक मुर्गा बांग देता फ़िर दूसरा। कोई लगातार देता। कोई बांग देते हुये कामर्शियल ब्रेक सरीखा लेता। कोई चुप ही चुगता रहता। किसी दफ़्तर में काम करते स्टाफ़ सरीखे। वहां भी कुछ लोग काम में जुटे रहते हैं। कुछ खाली चुगते रहते हैं। कुछ काम और आराम दोनों नियम से करते रहते हैं। अनुशासित नुमा लोग।
एक आदमी अपने कन्धे पर एक पिल्ला लादे हुये था। उसको लगता है सांस की बीमारी थी। हांफ़ते हुये चल रहा था।
चाय की दुकान पर भीड़ जुटने लगी थी। उसके सामने बस स्टैंड पर बैठे कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ सब्सिडी चर्चा कर रहे थे। एक ने कहा- अभी देंगे खाते में फ़िर धीरे से बंद कर देंगे। जनता का सरकार के प्रति सहज अविश्वास।
मन किया कि पुलिया पर बैठकर अपन भी सब्सिडी चर्चा करते हुये चाय लड़ायें। लेकिन भ्रमण खण्डित होने की सोचकर मन को वरज दिया।
लौटकर कमरे के सामने सड़क पर देखा एक महिला वीरांगना सी टहलती जा रही थी। आराम-आराम से। जैसे स्लो मोशन में सलामी देने जाती कोई फ़ौजी। मृ्दु मंद मंद मंथर मंथर टहलन।
टीवी पर मुन्ना भाई के जेल जाने से हलकान लोगों के बयान आ रहे थे। लोगों का कहना था कि बहुत हुआ अब छोड़ देना संजय दत्त को। क्रिया-प्रतिक्रिया नियम के चलते उनको और कड़ी सजा देने की मांग करते नारा लगाते लोग भी दिखे।
संजय दत्त की मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. और लगे रहो मुन्ना भाई से उनको जबरदस्त लोकप्रियता मिली। समय-समय पर उनके भला मानस होने के किस्से भी आते रहे। लेकिन ऐसे भले मानस हमारे-आपके जीवन में तमाम लोग होते हैं। जिनकी चर्चा मीडिया में होना संभव नहीं है क्योंकि वे संजय दत्त जैसे सेलेब्रिटी नहीं हैं।
लेकिन मीडिया जिस तरह उनके जेल जाने की मिनट दर मिनट कमेंट्री कर रहा है उससे लग रहा है मीडिया उनको मामू बनाकर अपनी टी.आर.पी. बटोर रहा है। उनके प्रति मीडिया की सहानुभूति के साबुन-पानी से भीगी चर्चा सुनकर यह धारणा बनने का खतरा बनता है कि अदालत ने उनके साथ अन्याय किया है।
टेलीविजन पर खबर आ रही है कि एक नामी हीरोइन ने स्तन कैंसर की आशंका के चलते अपने दोनों स्तन निकलवा दिये। खबर सुनकर कल ही पढ़ी एक कविता याद आ गई जिसमें कवियत्री लिखती हैं- मैं नारी हूं या महज स्तनों का एक जोड़ा..! लगे स्मृति वह लेख भी याद कर लिया जिसमें शालिनी माथुर जी ने कविता के नाम पर कुछ भी अल्लम-गल्लम लिखने वालों को बेचैन कर दिया था। घणी बयान बाजी हुयी उन कविताओं के समर्थन/विरोध में।
चलिये अब बहुत हुआ। तैयार होना है दफ़्तर जाने के लिये। आप मजे कीजिये। हम फ़िर मिलेंगे।
सूचना: ऊपर का फोटो हमारे साथी अधिकारी हितेश और उनकी श्रीमती डॉ. नमिता का है। अमरकंटक जाते समय ढिढौरी की एक चाय की दुकान पर खींचे गये इस फोटो को खींचते समय कैमरा हमारे हाथ में था।
तब फिर सैर के हाल सुनायें।
आज सुबह हम जल्दी जागे,
मुंह धोये और सैर को भागे।
एक मेहरिया बिटिया संग थी,
गुस्सा, नाक चढाई सी थी ।
सुअर टहलता सड़क पर देखा,
ऐंठा , अकडा भ्रष्टाचार सरीखा।
सड़क पर निपटता चला जा रहा,
घपले करता, जननेता सा लगा।
चौराहे पर सब्सिडी चर्चा थी,
लोग कह रहे सब झांसा है जी ।
अभी देगें , फ़िर झट बंद करेंगे ,
इनका नहीं हम भरोसा करेंगे ।
मुर्गे चिल्लाते गुड मार्निंग जी ,
चिड़िया कूडे पर दाना चुगें जी ।
चाय दुकान पर चहल-पहल थी,
खेल के मैदान पर भागदौड़ भी।
साइकिल पर जाती महिला देखी,
नये जमाने की नायिका सरीखी।
चलौ उठौ अब आपौ भईया,
सूरज भईया धमक परे जी।
-कट्टा कानपुरी
लेकिन अलार्म के बाद फ़िर फ़ोन भी बजा। हमारे पुराने सीनियर सोढीजी हमको दिल्ली से जगा रहे थे। बोले -शुक्ला जी कौवे भी टहलने निकल लिये। अब तो निकलो टहलने। उनको हमने तीन दिन पहले फ़ोन किया था। वे मिस्ड काल का आज जबाब दे रहे थे। कानपुर में जित्ते दिन साथ रहे कहते रहे- टहला/भागा करो। वजन कम करो।
हमारा जबाब हमेशा एक्कै रहा- पहले वजन कायदे से बढ़ा तो लें तब कम करना शुरु करें।
आज दूसरी तरफ़ टहलने गये। एक महिला अपनी बच्ची के साथ टहल रही थी। उसकी नाक के एरियल से गुस्से के सिग्नल निकल रहे थे। लग रहा था वो बिटिया से खफ़ा होने का संकेत दे रही थी।
सड़क के किनारे एक नाले पर कुछ लोग उकड़ू बैठे निपट रहे थे। बगल की बिल्डिंग की आड़ से कुछ महिलायें खाली डिब्बे/प्लास्टिक की बोतलें लहराती निकल रहीं थीं। उनके चेहरे पर दिव्य निपटान की संतुष्टि पसरी थी।
एक सुअर सड़क पर निपटता चला रहा था। उसके निपटान बिंदुओं को मिलाकर बनायी रेखा सड़क पर बनी तिर्यक रेखा सरीखी दिखती। वह आराम से निश्चिंत निपटता चला जा रहा था। हर दिन उजागर होते घपलों -घोटालों की तरह।
सड़क पर मुर्गे बांग दे रहे थे। एक मुर्गा बांग देता फ़िर दूसरा। कोई लगातार देता। कोई बांग देते हुये कामर्शियल ब्रेक सरीखा लेता। कोई चुप ही चुगता रहता। किसी दफ़्तर में काम करते स्टाफ़ सरीखे। वहां भी कुछ लोग काम में जुटे रहते हैं। कुछ खाली चुगते रहते हैं। कुछ काम और आराम दोनों नियम से करते रहते हैं। अनुशासित नुमा लोग।
एक आदमी अपने कन्धे पर एक पिल्ला लादे हुये था। उसको लगता है सांस की बीमारी थी। हांफ़ते हुये चल रहा था।
चाय की दुकान पर भीड़ जुटने लगी थी। उसके सामने बस स्टैंड पर बैठे कुछ लोग आत्मविश्वास के साथ सब्सिडी चर्चा कर रहे थे। एक ने कहा- अभी देंगे खाते में फ़िर धीरे से बंद कर देंगे। जनता का सरकार के प्रति सहज अविश्वास।
मन किया कि पुलिया पर बैठकर अपन भी सब्सिडी चर्चा करते हुये चाय लड़ायें। लेकिन भ्रमण खण्डित होने की सोचकर मन को वरज दिया।
लौटकर कमरे के सामने सड़क पर देखा एक महिला वीरांगना सी टहलती जा रही थी। आराम-आराम से। जैसे स्लो मोशन में सलामी देने जाती कोई फ़ौजी। मृ्दु मंद मंद मंथर मंथर टहलन।
टीवी पर मुन्ना भाई के जेल जाने से हलकान लोगों के बयान आ रहे थे। लोगों का कहना था कि बहुत हुआ अब छोड़ देना संजय दत्त को। क्रिया-प्रतिक्रिया नियम के चलते उनको और कड़ी सजा देने की मांग करते नारा लगाते लोग भी दिखे।
संजय दत्त की मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. और लगे रहो मुन्ना भाई से उनको जबरदस्त लोकप्रियता मिली। समय-समय पर उनके भला मानस होने के किस्से भी आते रहे। लेकिन ऐसे भले मानस हमारे-आपके जीवन में तमाम लोग होते हैं। जिनकी चर्चा मीडिया में होना संभव नहीं है क्योंकि वे संजय दत्त जैसे सेलेब्रिटी नहीं हैं।
लेकिन मीडिया जिस तरह उनके जेल जाने की मिनट दर मिनट कमेंट्री कर रहा है उससे लग रहा है मीडिया उनको मामू बनाकर अपनी टी.आर.पी. बटोर रहा है। उनके प्रति मीडिया की सहानुभूति के साबुन-पानी से भीगी चर्चा सुनकर यह धारणा बनने का खतरा बनता है कि अदालत ने उनके साथ अन्याय किया है।
टेलीविजन पर खबर आ रही है कि एक नामी हीरोइन ने स्तन कैंसर की आशंका के चलते अपने दोनों स्तन निकलवा दिये। खबर सुनकर कल ही पढ़ी एक कविता याद आ गई जिसमें कवियत्री लिखती हैं- मैं नारी हूं या महज स्तनों का एक जोड़ा..! लगे स्मृति वह लेख भी याद कर लिया जिसमें शालिनी माथुर जी ने कविता के नाम पर कुछ भी अल्लम-गल्लम लिखने वालों को बेचैन कर दिया था। घणी बयान बाजी हुयी उन कविताओं के समर्थन/विरोध में।
चलिये अब बहुत हुआ। तैयार होना है दफ़्तर जाने के लिये। आप मजे कीजिये। हम फ़िर मिलेंगे।
सूचना: ऊपर का फोटो हमारे साथी अधिकारी हितेश और उनकी श्रीमती डॉ. नमिता का है। अमरकंटक जाते समय ढिढौरी की एक चाय की दुकान पर खींचे गये इस फोटो को खींचते समय कैमरा हमारे हाथ में था।
मेरी तुकबंदी
चलो एक कप चाय हो जाये,तब फिर सैर के हाल सुनायें।
आज सुबह हम जल्दी जागे,
मुंह धोये और सैर को भागे।
एक मेहरिया बिटिया संग थी,
गुस्सा, नाक चढाई सी थी ।
सुअर टहलता सड़क पर देखा,
ऐंठा , अकडा भ्रष्टाचार सरीखा।
सड़क पर निपटता चला जा रहा,
घपले करता, जननेता सा लगा।
चौराहे पर सब्सिडी चर्चा थी,
लोग कह रहे सब झांसा है जी ।
अभी देगें , फ़िर झट बंद करेंगे ,
इनका नहीं हम भरोसा करेंगे ।
मुर्गे चिल्लाते गुड मार्निंग जी ,
चिड़िया कूडे पर दाना चुगें जी ।
चाय दुकान पर चहल-पहल थी,
खेल के मैदान पर भागदौड़ भी।
साइकिल पर जाती महिला देखी,
नये जमाने की नायिका सरीखी।
चलौ उठौ अब आपौ भईया,
सूरज भईया धमक परे जी।
-कट्टा कानपुरी
Posted in बस यूं ही | 6 Responses
6 responses to “चलो एक कप चाय हो जाये”
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भरी भरी सुबह,
हरी हरी शाम,
जोर से बोलो,
जय हनुमान।
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..दुआ सबकी मिल गयी, अच्छा हुआ -
दिव्य निपटान आप भी छोटी-छोटी घटनाओं का इतना सूक्ष्म वर्णन करते हैं कि मन करता है कि आपको किसी न्यूज़ चैनल का एंकर बना दिया जाय
और, घर से डाँट पड़ी है क्या टहलने के लिए. अब टहलने से आपकी तोंद का कुछ नहीं होने वाला. जिम जाइए. संजू बाबा को देखिये. आपसे कित्ते बड़े हैं और उनकी तोंद बिल्कुल नहीं है
aradhana की हालिया प्रविष्टी..बैसवारा और आल्हा-सम्राट लल्लू बाजपेयी -
achha hai
-
बड़ा जीवंत चित्रण है
वज़न घटना भी ना, क्या क्या नहीं दिखाता
Dr. Monica Sharrma की हालिया प्रविष्टी..शब्दों का साथ खोजते विचार -
सुबह की ताजा रपट।
ajit gupta की हालिया प्रविष्टी..नानी का घर या सैर-सपाटा -
[...] चलो एक कप चाय हो जाये [...]
Tuesday, May 14, 2013
हमने कई नजारे देखे
http://web.archive.org/web/20140420081350/http://hindini.com/fursatiya/archives/4306
हमने कई नजारे देखे
By फ़ुरसतिया on May 14, 2013
आज
फ़िर सुबह हुई। कसमसाते हुये उठे। पैंट-शर्ट को, अपने लक की तरह, पहिन के
टहलने निकले। जूते में पैर घुसा लिया। एक एड़ी बहुत देर तक पूरी तरह से जूते
में घुसी नहीं। सोचा कुछ देर में अपने आप एडजस्ट हो जायेगी- जैसे
शादी-शुदा जोड़े कुछ दिन में एडजस्ट कर लेते हैं। लेकिन जूते और ऐड़ी में पटी
नहीं। फ़िर एक पुलिया के पास रुककर जूते को थोड़ा उदार किया, जूते और पैर
में समझौता करवाया।
हनुमान मंदिर के पास कुछ भिखारी लोग बैठे दिखे। जित्ते मर्द उत्ते ही करीब मादा। संख्या दो अंको के पार। कुछ अखबार बांच रहे थे। हंसते-मुस्कराते-बतियाते-चुहलबाजी करते वे दानियों के इंतजार में दिखे। एकदम दफ़्तर का सीन लग रहा है। सुबह-सुबह जैसे दफ़्तर में हाय-हेलो गुड मार्निंग जैसी चहल-पहल मंदिर के फ़ुटपाथ पर दिख रही थी।
कुछ आगे दो भिखारी हड़बड़ाते हुये भागे चले आ रहे थे। दफ़्तर में देरी होने पर कोई दफ़्तरिया भागता जा रहा हो जैसे। आगे-आगे मर्द भिखारी, उसके पीछे महिला मागने वाली। भीख के मामले में भी महिला अनुगामिनी ही है। महिला कुछ-कुछ बड़बड़ाती जा रही थी। शायद देरी हो जाने के चलते होने वाले संभावित नुकसान के बारे में सोचकर हलकान हो रही हो।
एक बुजुर्गवार धीरे-धीरे टहल रहे थे। ऐसे टहल रहे थे जैसे लय में टहल रहे हों। दो कदम धीरे-धीरे फ़िर तीसरा झटके से। जैसे गुलजार की त्रिवेणी हो। दो लाइनों के बाद तीसरी लाइन झटके वाली।
एक साहब ऐसे टहल बेमन से जैसे टहल रहे थे जैसे कोई बच्चा बेमन से स्कूल भेज दिया गया को। अपने को धकिया रहे थे धीरे-धीरे आगे।
टहलते हुये तेजी से हाथ हिलाते हुये लोग ऐसे लगते हैं जैसे हाथ हिलाने के बहाने वे अपने आसपास की जगह को अपने कब्जे में कर रहे हों। जगह और हवा को भी। जैसे दुकानदार अपनी दुकान के सामने की फ़ुटपाथ पर कब्जा करता है।
फ़ुटपाथ पर टहलते हुये बगल की चट्टानों को भी देखते जा रहे थे। चट्टाने लाखों वर्ष पुरानी हैं। फ़ुटपाथ की झकाझक टाइलों के मुकाबले वे कम हसीन लग रहीं थी। चट्टाने सड़क किनारे चुपचाप बैठी सड़क पर आते जाते लोगों को देख रही थीं। जैसे घर के बुजुर्ग घर के जवान/बच्चों को लदर-फ़दर आते-जाते देखते रहते हैं।
एक कार बीच सड़क पर रुकी थी। गाड़ीवान बार-बार चाभी दे रहा था। लेकिन गाड़ी बस घों-घों कर रही थी। खड़ी थी। फ़िर उसने कसकर चाबी भरी। गाड़ी कुनमुनाते हुये चले दी। कायदे से चाबी भरने पर सब लोग चलने लगते हैं।
एक महिला अपने पैर के साइज की सवा गुनी स्लीपर पहने टहलती जा रही थी। एक दूधवाला फ़टफ़टिया पर दो दूध के बड़े पीपे लादे शाहरूख खान की तरह मोटर साइकिल लहराते हुये चला जा रहा था। तीन महिलायें एक पुलिया के पास मुस्कराते हुयी बतिया रही थीं। जैसे बैठने के लिये तैयार होकर आयी हों। एक बुजुर्ग महिला अपनी एक पीढी आगे की बच्ची के साथ टहल रही थी। ढीला-ढाला गाउन नुमा कुछ पहने। बच्ची लगता है उनको जबरियन उठा लाई हो हिलाते-डुलाते टहलाने।
आगे एक जगह तीन बच्चे पालीथीन में कुछ अमिया और ढेले लिये खड़े थे। अमिया पास के पेड़ से ढेले मार कर तोड़ी थी। अपनी कमाई से खुश दिखे।
सड़क किनारे की पगडंडी से एक साइकिल सवार निकलकर अचानक सड़क पर आ गया। जैसे कोई टीवी पर कोई ताजी खास खबर। वो हॉकर था। उचककर साइकिल चलाता हॉकर लोगों के यहां खबरे देने निकला था।
टहलते हुये देखा सूरज कंधे पर हाथ धरे मुस्करा रहे थे। हेलो-हाय हुई। बोले -बहुत दिन बाद दिखे।
हम बोले हां भाई। बिजी रहते हैं टहलने का टाइम नहीं मिलता।
वो मुस्कराता हुआ अपनी ड्यूटी बजाने चला गया। हम भी वापस आ गये।
सुबह सड़क पर टहलता हुआ आदमी और क्या कर सकता है।
मुंह धोये लेने गये, सुबह टहल का स्वाद।
हमने आज कई नजारे देखे,
दौड़-भागते बच्चे प्यारे देखे।
तीन मेहरियां बतलाती देखी,
कुछ जरा-जरा मुस्काती देखीं।
चप्पल एक की बड़ी बहुत थी,
झपट टहलती महिला देखी।
बुढऊ पुलिया पर चुप बैठे थे,
साइकिल पर जाता हॉकर देखा।
एक फ़टफ़टिया पर दूध धरे था,
सीनों के हिलते हुये नजारे देखे।
नाना संग टहलती नातिन देखी,
जिंदगी रस्ते पर आते-जाते देखी।
मटकी सर पर धरे जा रहीं थीं
मेहनत कस महिलायें देखीं।
सूरज चढता देखा आसमान पर,
किरणें बप्पा से बतियाती देखीं।
सड़क रौंदते ट्रक-ट्रैक्टर देखे,
हौले-हौले चलता रिक्शा देखा।
सात बजे तो लौट पड़े हम,
मोबाइल पर कुछ स्टेटस देखे।
सुबह-टहल का सीन,खैंचा बहुत दिनों के बाद,
चाय आय गयी है गुरु, लीजिये आप भी स्वाद।
-कट्टा कानपुरी
हनुमान मंदिर के पास कुछ भिखारी लोग बैठे दिखे। जित्ते मर्द उत्ते ही करीब मादा। संख्या दो अंको के पार। कुछ अखबार बांच रहे थे। हंसते-मुस्कराते-बतियाते-चुहलबाजी करते वे दानियों के इंतजार में दिखे। एकदम दफ़्तर का सीन लग रहा है। सुबह-सुबह जैसे दफ़्तर में हाय-हेलो गुड मार्निंग जैसी चहल-पहल मंदिर के फ़ुटपाथ पर दिख रही थी।
कुछ आगे दो भिखारी हड़बड़ाते हुये भागे चले आ रहे थे। दफ़्तर में देरी होने पर कोई दफ़्तरिया भागता जा रहा हो जैसे। आगे-आगे मर्द भिखारी, उसके पीछे महिला मागने वाली। भीख के मामले में भी महिला अनुगामिनी ही है। महिला कुछ-कुछ बड़बड़ाती जा रही थी। शायद देरी हो जाने के चलते होने वाले संभावित नुकसान के बारे में सोचकर हलकान हो रही हो।
एक बुजुर्गवार धीरे-धीरे टहल रहे थे। ऐसे टहल रहे थे जैसे लय में टहल रहे हों। दो कदम धीरे-धीरे फ़िर तीसरा झटके से। जैसे गुलजार की त्रिवेणी हो। दो लाइनों के बाद तीसरी लाइन झटके वाली।
एक साहब ऐसे टहल बेमन से जैसे टहल रहे थे जैसे कोई बच्चा बेमन से स्कूल भेज दिया गया को। अपने को धकिया रहे थे धीरे-धीरे आगे।
टहलते हुये तेजी से हाथ हिलाते हुये लोग ऐसे लगते हैं जैसे हाथ हिलाने के बहाने वे अपने आसपास की जगह को अपने कब्जे में कर रहे हों। जगह और हवा को भी। जैसे दुकानदार अपनी दुकान के सामने की फ़ुटपाथ पर कब्जा करता है।
फ़ुटपाथ पर टहलते हुये बगल की चट्टानों को भी देखते जा रहे थे। चट्टाने लाखों वर्ष पुरानी हैं। फ़ुटपाथ की झकाझक टाइलों के मुकाबले वे कम हसीन लग रहीं थी। चट्टाने सड़क किनारे चुपचाप बैठी सड़क पर आते जाते लोगों को देख रही थीं। जैसे घर के बुजुर्ग घर के जवान/बच्चों को लदर-फ़दर आते-जाते देखते रहते हैं।
एक कार बीच सड़क पर रुकी थी। गाड़ीवान बार-बार चाभी दे रहा था। लेकिन गाड़ी बस घों-घों कर रही थी। खड़ी थी। फ़िर उसने कसकर चाबी भरी। गाड़ी कुनमुनाते हुये चले दी। कायदे से चाबी भरने पर सब लोग चलने लगते हैं।
एक महिला अपने पैर के साइज की सवा गुनी स्लीपर पहने टहलती जा रही थी। एक दूधवाला फ़टफ़टिया पर दो दूध के बड़े पीपे लादे शाहरूख खान की तरह मोटर साइकिल लहराते हुये चला जा रहा था। तीन महिलायें एक पुलिया के पास मुस्कराते हुयी बतिया रही थीं। जैसे बैठने के लिये तैयार होकर आयी हों। एक बुजुर्ग महिला अपनी एक पीढी आगे की बच्ची के साथ टहल रही थी। ढीला-ढाला गाउन नुमा कुछ पहने। बच्ची लगता है उनको जबरियन उठा लाई हो हिलाते-डुलाते टहलाने।
आगे एक जगह तीन बच्चे पालीथीन में कुछ अमिया और ढेले लिये खड़े थे। अमिया पास के पेड़ से ढेले मार कर तोड़ी थी। अपनी कमाई से खुश दिखे।
सड़क किनारे की पगडंडी से एक साइकिल सवार निकलकर अचानक सड़क पर आ गया। जैसे कोई टीवी पर कोई ताजी खास खबर। वो हॉकर था। उचककर साइकिल चलाता हॉकर लोगों के यहां खबरे देने निकला था।
टहलते हुये देखा सूरज कंधे पर हाथ धरे मुस्करा रहे थे। हेलो-हाय हुई। बोले -बहुत दिन बाद दिखे।
हम बोले हां भाई। बिजी रहते हैं टहलने का टाइम नहीं मिलता।
वो मुस्कराता हुआ अपनी ड्यूटी बजाने चला गया। हम भी वापस आ गये।
सुबह सड़क पर टहलता हुआ आदमी और क्या कर सकता है।
मेरी पसंद
सुबह उठे हम आज जी, बहुत दिनों के बाद,मुंह धोये लेने गये, सुबह टहल का स्वाद।
हमने आज कई नजारे देखे,
दौड़-भागते बच्चे प्यारे देखे।
तीन मेहरियां बतलाती देखी,
कुछ जरा-जरा मुस्काती देखीं।
चप्पल एक की बड़ी बहुत थी,
झपट टहलती महिला देखी।
बुढऊ पुलिया पर चुप बैठे थे,
साइकिल पर जाता हॉकर देखा।
एक फ़टफ़टिया पर दूध धरे था,
सीनों के हिलते हुये नजारे देखे।
नाना संग टहलती नातिन देखी,
जिंदगी रस्ते पर आते-जाते देखी।
मटकी सर पर धरे जा रहीं थीं
मेहनत कस महिलायें देखीं।
सूरज चढता देखा आसमान पर,
किरणें बप्पा से बतियाती देखीं।
सड़क रौंदते ट्रक-ट्रैक्टर देखे,
हौले-हौले चलता रिक्शा देखा।
सात बजे तो लौट पड़े हम,
मोबाइल पर कुछ स्टेटस देखे।
सुबह-टहल का सीन,खैंचा बहुत दिनों के बाद,
चाय आय गयी है गुरु, लीजिये आप भी स्वाद।
-कट्टा कानपुरी
Posted in बस यूं ही | 13 Responses
13 responses to “हमने कई नजारे देखे”
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मनभावन, स्वादिष्ट.
राहुल सिंह की हालिया प्रविष्टी..लघु रामकाव्य -
लग रहा है किसी सीरियल की पृष्ठभूमि हो. इत्ते में ही मजा आ गया.
PN Subramanian की हालिया प्रविष्टी..अर्जुन के पताका में हनुमान क्यों -
इतने नजारे जब सुबह सुबह दिख जायें तो, बिस्तर में अलसाने का आनन्द हमें त्यागना ही पड़ेगा।
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..ब्लॉग व्यवस्था, तृप्त अवस्था -
वाह…..बड़ी सरलता से आपने वो सब कह दिया जिसकी चर्चा हम सब चाह कर भी नही कर पाते…आपके इस विश्लेष्णात्मक लेख की जितनी भी प्रशंसा की जाय कम है।
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वाह…..बहुत खूब….।
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वाह क्या नज़ारे हैं . सुबह टहलना काफी फायदेमंद होता है :).
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सारे नज़ारे हमारे आस पास ही …. पर देख कहाँ पाते हैं ….
मटकी सर पर धरे जा रहीं थीं
मेहनत कस महिलायें देखीं।
सूरज चढता देखा आसमान पर,
किरणें बप्पा से बतियाती देखीं।
हर पंक्ति सहज और जीवंत .
Dr. Monica Sharrma की हालिया प्रविष्टी..शब्दों का साथ खोजते विचार -
दिलचस्प नज़ारे और आपका विनोदी अन्दाज़े बयाँ, यही कह सकते हैं कि टहलना जारी रखा जाए
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आपकी देखने की क्षमता बेजोड़ है।
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..लंपट (कहानी) -
इन सब नजारों के साथ साथ
कुत्ते की जंजीर थामे भागते दौड़ते शर्मा जी को देखा
की नहीं ?
सुबह टहलने के साथ विनोद भरी बाते अच्छी लगी ! -
क्या गज़ब उपमाएं देते हैं आप भी–एक बुजुर्गवार धीरे-धीरे टहल रहे थे। ऐसे टहल रहे थे जैसे लय में टहल रहे हों। दो कदम धीरे-धीरे फ़िर तीसरा झटके से। जैसे गुलजार की त्रिवेणी हो। दो लाइनों के बाद तीसरी लाइन झटके वाली।
वैसे ये बात हमने फेसबुक पर भी कही थी और यहाँ भे एकः रहे हैं कि थोड़ी और मेहनत कीजिये तो रमई काका उर्फ बहिरे बाबा के आसपास पहुँच जायेंगे. ऊ का कहते हैं कि कविता में आपका भविष्य उज्जवल टाइप का है. बस थोड़ी मेहनत की ज़रूरत है. सो आप करेंगे नहीं. आप ठहरे फुरसतिया खाली फुर्सत में लिखते हैं, अपना कीमती टाइम काहे बर्बाद करेंगे
aradhana की हालिया प्रविष्टी..बैसवारा और आल्हा-सम्राट लल्लू बाजपेयी -
बढ़िया
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[...] हमने कई नजारे देखे [...]
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One response to “नॉन फ़िक्सिंग एलाउंस”