Monday, April 20, 2015

यही इनके विश्वविद्यालय हैं

परसों चाय की दूकान पर बैठकर चाय पीते हुए पोस्ट फेसबुक पर अपलोड करके चलने लगे तो एक बच्चे ने टोंका-"अंकल आपकी साइकिल में से ये निकल रहा है।"

देखा तो पैडल के पास का एक हिस्सा चूड़ियाँ ढीली होने के चलते बाहर निकलने जैसा हो रहा था।उसको दबा के और फिर घुमाकर बैठाने की कोशिश की लेकिन हुआ नहीं।छोड़ दिया कि शाम को दिखाएँगे और बच्चे से बात करने लगे।

बच्चा कूड़ा बीनने का काम करता है। सुबह बोरी लेकर निकलता है। घरों के बाहर फेंके गए कूड़े में से बोतल,प्लास्टिक और दीगर सामान बीनता है जो कबाड़ी के यहां बिक सकें। कूड़े की कीमत के बारे में बताया। बियर की बॉटल एक रूपये की एक बिकती है। प्लास्टिक बारह रूपये किलो। इसी तरह और भी।

सुबह दो तीन घण्टे की कूड़ा बिनाई से 60-70 से लेकर कभी कभी 100-150 रूपये तक भी मिल जाते हैं।इसके बाद दूसरे काम भी करते हैं। जो मिल जाए। कभी होटल में कभी मजदूरी। कभी कुछ और।

बच्चे की उम्र 19 साल है। बताया 5 साल के थे तबसे कूड़ा बिनने का काम करने लगे। होटल में जहां चाय पी रहे थे वहां भी काम किया है। सब जानते हैं। दूसरे काम के अलावा कूड़ा बीनने का काम इसलिए करते हैं क्योंकि इसमें कोई पूँजी नहीं लगती। दूसरे काम में पैसा लगता है।

कोई नशा वशा तो नहीं करते? यह पूछने पर बताया -करते हैं। हमने पूछा -क्या ? तो बोला-पुड़िया खाते हैं। हमने बिना पूछी सलाह दी -मत खाया करो। दांत खराब हो जायेंगे। शादी होगी तो बीबी टोकेंगी। बोला- हो गयी शादी। फिर बताया-एक बच्चा है।बीबी टुकनिया (टोकरी) बनाने का काम कर लेती है। अभी मायके गयी है। बच्चे के साथ।

साथ में एक और बच्चा था। 21 साल की उम्र का। उसकी भी यही कहानी। कई जगह काम कर चुका है। ढाबे,बड़े होटल और अन्य जगहों में। उसकी भी शादी हो गयी है। वह बात करने में थोडा संकोच कर रहा था।
फ़ोटो की बात पर दूसरा तो हट गया लेकिन विजय ने फ़ोटो खिंचाये।एक में थोड़ा अँधेरा था तो दूसरा खिंचाया रौशनी में। दिखाया तो मुस्कराया बच्चा। इसके बाद अपने साथी के साथ कूड़ा बीनने चला गया। बताया विद्यानगर जा रहे हैं।


आज दो दिन बाद मैं यह पोस्ट लिखते समय सोच रहा हूँ कि हम विकसित देश होने की तरफ बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं।एक ऐसा देश हैं हम जहां बच्चे 5 साल की उम्र से कूड़ा बीनते हुए कमाई में जुट जाते हैं।स्कूल नहीं जा पाते। इसके लिए सरकारें दोषी हैं या समाज यह तो शोध का विषय हो जायेगा लेकिन दुःखद तो है।

मैंने पढ़ी नहीं लेकिन सुना है कि गोर्की ने 'मेरे विश्वविद्यालय' में अपने उन अनुभवों का जिक्र किया है जिनसे बचपन में जगह जगह काम करते हुए वो गुजरे। गोर्की के अनुभव दुनिया जानती है क्योंकि वो उनको लिख सके। इसके अलावा उस समय उनका समाज परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था।

विजय जैसे अनगिनत बच्चे सर्व शिक्षा अभियान और मिड डे मील की कल्याणकारी मार से अछूते रहते अपनी सुबह की शुरुआत कूड़ा बीनते हुए करते हैं। यही इनके विश्वविद्यालय हैं। ऐसे विश्वविद्यालय जहां सिर्फ पढ़ते रहना है इनको। डिग्री हासिल करके बाहर नहीं जाना है।

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