Friday, March 03, 2017

झाड़े रहो कलट्टरगंज-1

पिछले महीने एक दिन कलट्टरगंज मंडी गये। मन किया कि जिसके नाम पर कनपुरिया जुमला - ’झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का हल्ला है उसको देखा जाये। घंटाघर चौराहे पर लगभग बीच सड़क पर समाजवादी पार्टी के प्रचार के लिये एक ’पोस्टर वाहन’ खड़ा था। घंटाघर पर दीगर चौराहों की तर्ज पर आधी से कुछ ज्यादा सड़क ठेलिया, रिक्शे, ऑटो , मविशियों के लिये सुरक्षित रहती है। बाकी बची सड़क पर वाहन और सवारियां अल्पसंख्यक सी अपनी इज्जत की रक्षा आप करती चलती हैं। चौराहे से निकलते हुये उनको ध्यान रखना होता है कि वहां के स्थाई रहवासियों को कोई दिक्कत न हो जाये।
मंजू श्री टॉकीज में बेटा पिक्चर लगी थी। शायद समाजवादी पार्टी के नारे को पूरा करने के लिये। पिक्चर और गाड़ी में लिखे नारे को मिलायें तो बनता है- ’बेटा काम बोलता है।’
घंटाघर चौराहे को पार करते ही जब मेस्टन रोड/परेड चौराहे की तरफ़ बढते हुये पहले ही मोड़ पर कलट्टरगंज है। हम वहां घुस गये, गाड़ी समेत।
मोड़ पर घुसते ही लगा कलट्टरगंज लपककर गले मिलेगा। शिकायत करेगा -कहां थे बे इत्ते दिन। लेकिन ऐसा कुछ न हुआ। दोपहर होने के चलते कलट्टरगंज ऊंघ रहा था। गाड़ी एक किनारे खड़े करके हम कैमरा चमकाने लगे।
एक आढत (कार्यालय जहां सौदे तय होते हैं) में एक बुजुर्गवार मेज के ऊपर सर किये दोपहरिया वाली नींद ले रहे थे। पुलिस वाला स्वेटर पहने, निरमा की सफ़ेदी वाले बाल धारण किये पूरे कलट्टरगंज लग रहे थे बुजुर्गवार। कलट्टरगंज जो कभी झाड़े रहता होगा, अब झड़ा हुआ सा दिखा। दुकान पर ’लाल घोड़ा’ और मैक के डिब्बे लगे हुये थे। मोपेड दुकान पर खड़ी थी। एकदम गठबंधन सरकार सा माहौल था।
आगे एक गुड़ की आढत दिखी। गुड़ की भेली सीधी खड़ी ग्राहक के इंतजार में पथरा रही थीं। एकदम सावधान मुद्रा में मानो बस जनगणमन गाने ही वाली हैं। दीवार और मेज इस बात का हल्ला मचा रही थीं कि कभी वहां भी गुड़ सटा हुआ था।
कलट्टरगंज हम देखने आये थे गल्ले की मंडी देखने के लिये। हमारे दिमाग में अभी भी कलट्टरगंज की इमेज गल्ला मंड़ी की ही थी। पता चला कि सालों पहले गल्ला मंडी यहां से नौबस्ता जा चुकी हैं। अपने ही शहर की कितनी कम जानकारी हमें है यह पता चला। सुबह मुंडी उठाये दफ़्तर चले जाना फ़िर वहां से शाम को मुंह लटकाये वापस चले आना। बस इसी में कट जाती है जिन्दगी। कभी अपना शहर भी कायदे से घूम न पाते।
हमने गल्ला मण्डी देखने की बात प्लानिंग वाले खाते में घुसेडी और पास के पास ही एक आहाते में लगी सिंघाड़े की मंडी में घुस गये। जब तक हम आपको सिंघाड़े की मंडी दिखायें तब तक आप जान लीजिये कि ’झाड़े रहो कलट्टरगंज’ जुमला कैसे चलन में आया। पता नहीं यह सही है कि नहीं क्योंकि इसके बारे में तमाम मत हैं। लेकिन एक किस्सा यह भी है -बांच लीजिये । मन करे तो। पोस्ट का लिंक यह रहा

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