Sunday, November 19, 2017

‌इतवार की गुनगुनी सुबह


सुबह निकले । सड़क गुलजार थी। मूंगफली की दुकानें सज गयीं थीं। एक आदमी दुकान पर बैठा स्टील के ग्लास में चाय पी रहा था। बगल में सड़क पर बैठा दूसरा आदमी सूप पर मूंगफली फटकते हुए मूंगफलियों का इम्तहान सा ले रहा था। जो मूंगफली पास होगी उसका प्रमोशन होगा। दुकान पर बिकेगी। छंटी हुई किनारे कर दी जाएगी।
जिस तरह मूंगफली बिकने के लिए तैयार होती हैं ऐसे ही तो नौकरियों में थोक भर्तियां होती हैं।
एक जगह अलाव लोग मुंडी आपस मे मिलाए हुए अलाव के चारो तरफ बैठे थे। मुंडी इतनी सटी हई थी कि कोई समझे सेल्फी के लिए पोज बनाये हैं। बस कैमरे की जरूरत थी।
गंगा तट पर चहल-पहल थी। दायीं तरफ सूरज की किरणें पानी में खिलखिला रहीं थीं। आपस में धौल धप्पा करते हुए पानी को सुनहला बना रहीं थीं। पानी बार-बार नदी के सुनहरेपन को बहाकर दूर करने की असफल कोशिश करता बह रहा था। बार-बार धकियाता सुनहरे पानी को लेकिन पानी का सुनहरापन अंगद का पांव बना टिका रहता। कभी नदी की इज्जत का लिहाज करके थोड़ा हिलडुल जाता लेकिन बना वहीं रहता। पानी झकमार कर आगे बढ़ जाता। उसको आगे जाना है। किरणें अपना भौकाल देखकर और चमकने लगती।
बायीं तरफ गंगा नदी में लोग नहाते दिखे। बीच मे बालू पर देश की आकृति की तरह इकट्ठा थी। नीचे बालू का छोटा टुकड़ा श्रीलंका सरीखा जमा था। लगता है गंगा जी को कोई कुछ कहे इसके पहले ही वो राष्ट्रवादी हो जाना चाहती हैं। कोई बालू के इस टुकड़े का नाम वन्देमातरम स्पॉट प्रस्तावित कर दे। क्या पता जनता की बेहद मांग पर कल को गंगा जी का नाम 'भारतमाता नदी' हो जाये। नदी इस बेफिजूल सोच से बेपरवाह बहती जा रही थी।
बालू घाट पर आज बच्चे 'बाल दिवस' मनाने के लिए इकट्ठा थे। खेलकूद के लिए इंतजाम हो रहा था। बच्चों की दौड़ आयोजित करने के लिए चूने की लाइन बन रही थी। पंडाल भी सज रहा था। बच्चों के माता-पिता को भी आमंत्रित किया गया है। सभासद भी आएंगे। पंडाल की आड़ में कुछ बच्चियां स्वागत गीत की तैयारी कर रहीं थीं।
वहीं बालू के मैदान पर कुछ बच्चे कंचे खेल रहे थे। बहुत दिन कंचे के खेल से जुड़े शब्द सुनने को मिले। पिच्चूक पर उँगली रखे एक-दो मीटर दूर के कंचे को टन्न से उड़ा देते बच्चे पास के पढ़ते बच्चों से बेखबर कंचे के खेल में मगन थे।
बच्चों को कंचे खेलते देखकर सोचा कि हममें से कइयों को लगता है कि जो खेल उन्होंने बचपन में खेले वे अब खतम हो गए। अब कोई नहीं खेलता उनको। लेकिन ऐसा होता नहीं शायद। खेल खत्म नहीं हुए होते हैं बस अपनी जगह बदल देते हैं। किन्ही और रूप में खेले जा रहे होते हैं।
हठ योगी की दुकान गुलजार थी। कोई महिला सभासद पद की उम्मीदवार बड़ी मोटी तगड़ी गाड़ी में गंगा दर्शन के बाद योगी दर्शन करने के बाद लपकते हुये जनता दर्शन को निकल गईं।
बालू में कुछ कुत्ते आपस में भौंक रहे थे। अचानक एक कुत्ते को पचीसों कुत्तों ने दौड़ा लिया। एक कुत्ते के पीछे पचीसों कुत्ते भागते देख लगा मानों आगे वाले कुत्ते कोई बात ऐसी कही है जो बहुमत वाले कुत्तों को खराब लगी और उन्होंने उसको दौड़ा लिया। मल्लब कुत्ते भी आदमियों की तरह हरकत करने लगे। वो तो कहो कि कुत्ता जवान था, भागता चला गया। बुज़ुर्ग कुत्ता होता तो भाग भी न पाता। पकड़कर रगड़ दिए होते बाकी के कुत्ते।
वहीं एक महिला एक ठेलिया पर चाय, पकौड़ी, पान-मसाले की दुकान लगाये थी। गोद में बच्चा। मुंह में पान मसाला। चाय बनाने के लिए कहा तो उसने गोद मे लिये बच्चे को गोद और जांघ के बीच सहेजकर गैस स्टोव जलाया। बमुश्किल 25 -30 साल की है उमर में तीसरा बच्चा। आदमी कहीं दिहाड़ी पर काम करता है।
महिला बच्चे को संभालते हुए चाय की दुकान चला रही है। इन जैसों को सबसे अधिक पैसा मिलने की वकालत की है एकदम हालिया विश्व सुंदरी ने। कभी हो सकेगा ऐसा? अपने यहां तो न्यूनतम मजदूरी देने के लाले पड़े रहते हैं।
उसके चाय बनाते हुए एक दूसरी महिला वहां आ गई। उससे बतियाने लगी। उसका बच्चा दूसरे बच्चों के साथ खड़ा था। और बच्चे जबाब दे रहे थे। इसका चुप था। अपने बच्चे को चुप देखकर झल्लाते हुए बोली -'देखो कैसा सुअर जैसा चुपचाप खड़ा है। मुंह से बोल नहीं फूट रहा।'
हमने उसे टोंकते हुए कहा -' उसको समझ नहीं आता होगा इसलिए जबाब नहीं दे पा रहा होगा।' इस पर वह तमककर बोली -' अरे स्कूल जाता है।' गोया स्कूल जाने से सब आ जायेगा।
चाय वाली महिला ने दूसरी महिला को बैठने का निमंत्रण दिया -दीदी बैठो।
दीदी बैठी नहीं। ठेलिया के पास पड़ीं पालीथिन की कई पन्नियों को पैर से सहेजते हुई बोली - 'इसको फेंक काहे देती हो। हमारी तो बुढिया इनके बहुत बढ़िया बेना (हाथ पंखा) बनाती हैं।
बालू के बीच पत्थर पड़े हैं। एक पत्थर के नीचे जगह पर तमाम चीटे -चीटियां आ जा रहे हैं। क्या पता चीटों में भी कोई हनीप्रीत हो जो गंगा किनारे अपनी गुफा बनाए हो।
बाल दिवस कार्यक्रम शुरू होने वाला था। लेकिन घर से बुलावा आ गया तो चल दिये। लेकिन साइकिल का मन नहीं था चलने का। इसलिए ताला खुला नहीं। बहुत कोशिश की। ताली हिलाई, ताला हिलाया। इधर दबाया, उधर हटाया लेकिन ताला खुला नहीं। मजबूरी में सायकिल का पिछवाड़ा उठाए सड़क तक आये। साइकिल को कभी कैरियर से उठाते, कभी डंडे से। कभी सड़क पर सरकाते हुए एक ताले कि दुकान पर आए। चाबी को थोड़ा घिसकर एक मिनट में खोल दिया ताला उसने। 20 रुपये लिए उसने ताला खोलने के। मन किया ताला भी बदलवा लें लेकिन वह बाद के लिए छोड़ दिया।
नीचे के पुल से लौटे। पुल पर धूप पसरी हुई थी। धूप के बीच की रेलिंग का निशान धूप को दो बराबर हिस्सों में बांट रही थी। रेलिंग की छाया रेडक्लिफ लाइन की तरह धूप को हिंदुस्तान-पाकिस्तान में बंटवारा कर रही थी। शाम को दोनों हिस्सों की धूप एक -दूसरे के कंधे पर हाथ धरे इठलाती, खिलखिलाती वापस जाएंगी। लेकिन अभी ऐसे अलग थीं जैसे किसी संयुक्त परिवार के आंगन में अम्बुजा सीमेंट की दीवार खींच दी हो किसी ने।
पुल के बाहर की तरफ आधे खम्भे पर एक युवा जोड़ा बैठा धूपिया रहा था। सोचा कहीं कूद न जाएं। लेकिन फिर यह सोचकर कि पुल की ऊंचाई और नदी में पानी दोनों कम है वापस चले आये।
इतवार की सुबह धूप खुशनुमा लगी।

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