Wednesday, July 11, 2018

बिल्ली रास्ता काट गई


कल घर से निकले ही थे कि सामने बिल्ली दिखी। शायद टहलने निकली होगी। दिख गयी तो देख लिया। देखता रहा कुछ देर। फ़िर लगा कि लगातार देखना घूरना माना जायेगा। वैसे तो बिल्ली को देखना, घूरना अपराध तो नहीं लेकिन अटपटा तो महसूस ही कर सकती है वह भी। यह सोचते ही आंखें सड़क पर कर लीं। सड़क को देखने लगे। फ़िर घूरने लगे। सड़क को तो लोग कुचलते रहते हैं दिन भर। बकौल श्रीलाल शुक्ल जी- ’ट्रकों का अविष्कार ही सड़कों से बलात्कार के लिये हुआ है।’
सड़क और बलात्कार वाली बात श्रीलाल जी ने उस जमाने में कही होगी। आज होते तो आये दिन नवजात बच्चियां भी दरिंदगी का शिकार हो रही हैं। ट्रक पगडंडियों को भी रौंद रहे हैं।
बहरहाल हमने जैसे ही निगाह सड़क पर जमाई, बिल्ली मटकती हुई सड़क पर आ गई। दायें देखा, फ़िर बायें देखा। इसके बाद फ़िर दांये देखकर सड़क पार करने लगी। बिल्ली ने जिस सावधानी से सड़क पार करने के पहले इधर-उधर देखा उससे लगा इंसानों को यातायात के नियम बिल्लियों से सीखने चाहिये। कम से सड़क पार करना तो सीखने ही लायक है। हज्जारों जाने बचेंगी।
सड़क पार कर गयी बिल्ली। दूसरी तरफ़ चलने लगी। हम उसके द्वारा पार की हुई सड़क पर आगे बढे। अचानक याद आया कि बिल्ली रास्ता काट गयी है। मन किया रुक जायें। लेकिन देर हो रही थी दफ़्तर के लिये। बायोमेट्रिक हमारे इंतजार में लुपलुपा रहा होगा। हमारें अंगूठे, अंगुलियों से मिलन को बेताब। कोई हमारा इंतजार कर रहा है यह ख्याल ही अपने में इत्ता खुशनुमा है कि हम आगे बढ गये। अपसगुन वाली सोच को खुशनुमा ख्याल ने पटककर निपटा दिया। आगे बढ गये। बिना प्रयाण गीत गाये:
सामने पहाड़ हो,
सिंह की दहाड़ हो,
वीर तुम बढे चलो,
धीर तुम बढे चलो।
यहां न पहाड़ था , न दहाड़ । फ़िर में हम ठिठक गये। सही में पहाड़ और दहाड़ होते तो सिट्टी और पिट्टी दोनों गुम हो जाती।
बहरहाल हम बिल्ली के चले हुये रास्ते को समकोण पर काटते हुये आगे बढे। देखा जाये तो बिल्ली का रास्ता तो हमने काटा। देख रही होगी तो जरूर कहेगी अपने कुनबे में -’देखो आदमी ने मेरे रास्ते को काटा है। पता नहीं क्या अशगुन होगा। दिन ठीक गया तो कुल देवी को दो चूहे का प्रसाद चढाऊंगी।’
आगे निकलकर हम खुद को बहादुर समझते रहे। बिल्ली के रास्ता काटने से डरे नहीं। पद्मश्री मिलनी चाहिये। लेकिन थोड़ा और आगे बढे और यही सोचते तो फ़िर यह सोचा कि अगर यही सोचते तो जरूर कहीं भिड़ेंगे। मतलब लफ़ड़ा बिल्ली के काटने में उत्ता नहीं जित्ता अपनी सोच में। मन को बहुत दांये-बायें किया लेकिन वह बिल्ली की सोच से आजाद नहीं हो पाया काफ़ी देर।
आगे जाम लगा था। उससे बचने की जुगत में दायें-बायें होते ही बिल्ली का ख्याल हवा हो गया। मतलब वास्तविक लफ़ड़े देखते ही आभासी बवाल दफ़ा हो गया। इससे यह लगा कि जब किसी मानसिक तकलीफ़ में फ़ंसें तो किसी असली के लफ़ड़े में टांग फ़ंसा ली जाये । आभासी तकलीफ़ दूर हो जायेगी। एक घर में दो किराये दार नहीं रह सकते न ! सही के लफ़ड़े को देखते ही दिमागी लफ़ड़ा फ़ूट लेता है। खाली दिमाग शैतान का घर ऐसे ही थोड़ी कहा जा सकता है।
आभासी बवाल और सही के लफ़ड़े की बात से याद आया कि आज हम लोग तमाम आभासी बवालों से निपटते रहते हैं। सही के लफ़ड़ों से निपटने में बहुत मेहनत लगती है न ! इसीलिये ख्याली लफ़ड़े पैदा करते हुये उनको निपटाते रहते हैं। देश के नेता भी यही करते रहते हैं। फ़ायदे का धंधा है। बहुत बरक्कत है ख्याली वीरता में। मेराज फ़ैजाबादी ने गलत थोड़ी कहा है:
पहले पागल भीड़ में शोलाबयानी बेचना
फ़िर जलते हुये शहरों में पानी बेचना।

कल की यह बात आज ऐसे ही याद आ गयी। सोचा आपसे भी साझा कर लें।

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