Wednesday, August 28, 2019

रेत के टीले और बहती नदी



पिछली पोस्ट में फोन के बंद होने की बात बताई । दोस्तों ने पूछा -फोन का क्या हुआ। हुआ यह कि हमने कई बार फोन को दबाया, सहलाया, पुचकारा। वह चला नहीं। फिर निराश होकर उसको धर दिया। सुबह उठे तो आदतन उसको फिर आन किया। ताज्जुब कि वह चला और लाल अक्षरों में वार्निंग देने लगा - बैटरी बहुत कमजोर है। मतलब फोन की सांस वापस आ गयी। फ़ौरन चार्जिंग पर लगाया। थोड़ी देर में टनाटन चलने लगा। यह पोस्ट भी उसी फोन से लिख रहे।


हुन्डर पहुंचकर शाम को पास ही स्थित रेत के टीले देखने गए। नुब्रा घाटी पर इस जगह पता नहीं कैसे रेत आई होगी। रेत आई तो ऊंट भी आये। हो सकता है पहले ऊंट आये हों। उनके लिए रेत का इंतजाम किया हो कुदरत ने।


यहां के ऊंट खास तरह के होते हैं। दो कूबड़ वाले। शायद पृकृति ने एक के साथ एक फ्री वाली योजना में इन ऊँटो को बनाया हो। चूंकि ऊंट अलग तरह के तो उनको रखने का इंतजाम भी अलग किया होगा। वरना क्या पता रेगिस्तान में एक कूबड़ वाले ऊंट इनको चिढ़ा-चिढ़ाकर हलकान कर देते। क्या पता उनकी चिढ़ से आजिज आकर कोई ऊंट अपना एक कूबड़ कटवा देता।या फिर एक ऊंट वाले इलाके में कोई 'कूबड़ कटवा' अपना आतंक मचा देता। ' कूबड़ कटवे' को एक कूबड़ वाले ऊंट सम्मानित करते।

नकटों के शहर में जिंदा रहने के लिए नाक कटाकर जीना पड़ता है।
बहरहाल इस जगह अनेक लोग ऊंट की सवारी कर रहे थे। 200-300 रुपये में एक चक्कर। समय के हिसाब से रेट। ऊंट बेचारे बहुत दुबले-पतले दिख रहे थे। निरीह, बेबस। शायद भर पेट खाने को न मिलता हो। दिहाड़ी के मजदूरों के ठेकेदार जिस तरह उनको न्यूनतम मजदूरी भी नहीं देते ऐसे ही लगता है ऊंटों को भी न्यूनतम भोजन नहीं मिलता। खत्तम होते अनुदान वाली संस्थाओं जैसे खत्तम होते लगे ऊंट। उन पर दया आई। सवारी करने का मन नहीं हुआ।

सवारी भले न की हो लेकिन उनके साथ फोटो खूब खिंचाई। अगल में, बगल में, आगे खड़े होकर, पीछे से। मने कोई कोना नहीं छोड़ा मुफ्तिया फोटो का। अनन्य ने फोटो खींची ऊंट के काफिले की। और भी।
एक ऊंटनी को जरा सा अवकाश मिला तो वह काफिले से किनारे आकर खड़ी हो गयी। उसका बच्चा भागता हुआ आया और उसके थन में मुंह अड़ा दिया। ऊंटनी वात्सल्य भाव से बच्चे को दूध पिलाती रही। जुगाली करती हुई। अब ऊँटो के कार्यस्थल पर कोई अलग से पालनाघर तो होते नहीं ।

तमाम लोग वहां फोटो खिंचवाने को आतुर थे। घर परिवार वाले जबरियन आत्मीय और कुछ तो रोमान्टिक भी होते पाए गए। मेरे सामने अपने जोड़ीदार को झिड़ककर हड़काने वाली महिला उसी के साथ फ़ोटो खिंचाते हुए इतना मुलायम मुद्रा में हो गयी कि कोई फ़ोटो देखता तो कहता -'लवली कपल। मेड फार इच अदर।'


वहीं एक नदी बह रही थी। पांच - छह मीटर या कुछ और ज्यादा ही चौड़ी। किसी ने उसको भागकर फांदने का चैलेंज उछाल दिया। एक लड़के ने अपनी शर्ट उतारी और भागते हुए छलांग लगाई। आधे मीटर पहले पानी में गिरा छपाक। पार नहीं कर पाया। लेकिन कोशिश की। उकसाने पर दुबारा उसने कोशिश की। फिर कुछ दूरी से किनारा चूक गया। भीग गया। लेकिन उसका हौसला देखकर खुशी हुई। असफल होने की पूरी आशंका के बावजूद उसने कोशिश की यह कितनी अच्छी बात है। आजकल हम लोग तो असफल होने के डर से कोई काम शुरू ही नहीं करते। उसका वीडियो देखिये अच्छा लगेगा।


तमाम देर आसपास के नजारे देखते हुए वापस लौट आये। अगले दिन हमको आगे जाना था। भारत के आखिरी गांव।

https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10217482713713210

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