पिछले दिनों कुछ व्यंग्य बतकहियों से रुबरु हुआ। कुछ व्यंग्य पाठ। कुछ बातचीत। कुछ में व्यंग्य की चिंता। कुछ में व्यंग्य लेखन कैसे बढ़िया हो सकता है। कुछ में अच्छी रचनाओं के कमजोर पहलू उजागर करती हुई बातें, कुछ में खराब मान ली गयी रचनाओं के उजले पक्ष।
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Wednesday, May 27, 2020
साहित्य जीवन की तरह है
अधिकतर में संकोच के मारे शिरकत नहीं कर पाए। हमको हमेशा लगता है कि व्यंग्य के इलाके में हमारी ऐसी कोई समझ नहीं जिससे हम यहां कह सकें। हमारी नजर ऐसी कसौटी से युक्त नहीं है जिसके सहारे हम किसी रचना को व्यंग्य बता सकें या कह सकें यह व्यंग्य नहीं है। पता नहीं कभी ऐसी समझ आएगी भी क्या ?
एक बात जो मैंने आम तौर पर देखी है इन बातचीतों में । लोग व्यंग्य के प्रति चिंतित बहुत हैं। व्यंग्य के शुभचिंतक हैं। व्यंग्य को प्यार करते हैं। व्यंग्य का स्तर उठाना चाहते हैं (जोर लगाकर हईसा वाले अंदाज में)। इतनी शिद्दत से व्यंग्य के बारे में साथियों/वरिष्ठों/परम वरिष्ठों को व्यंग्य के बारे में चिंता करते देखता हूँ तो बड़ा भला लगता व्यंग्य के बारे में कि उसकी चिंता के लिए लोग इतनी प्रतिबध्दता से जुटे हैं।
लेकिन फिर मुझे परसाई जी की कही बात याद आती है -'आज जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है वही उसको नष्ट कर रहा है।'
मुझे लगता है कि क्या सही व्यंग्य के बारे में इतना चिंतित होने की जरूरत है? मुझे व्यंग्य की चिंता में डूबे लोग व्यंग्यकार देश की चिंता में डूबे हुए जनसेवक जैसे लगने लगते हैं। गनीमत यही है कि व्यंग्य चिंतक भले जैसे लोग हैं।
व्यंग्य के माध्यम से ख्याति पा चुके लोगों की अनेक चिंताओं में से एक प्रमुख चिंता यह रहती है कि नए लेखक लिखते/छपते/पहली किताब आते ही अपने को खलीफा समझने लगता है। यह चिंता एक बड़े बुजुर्ग की चिंता होती तो अलग बात है। अक्सर यह चिंता जिस अंदाज में होती है उसका टोन यह होता है कि नये लोग जिनको लिखना नहीं आता, पढ़ा नहीं है जिन्होने, जिनको व्यंग्य का ककहरा नहीं आता वे भी बस लिखना शुरू करते ही अपने को तीसमार खां समझने लगते हैं।
अलग-अलग तरह से बड़े लोग इस भाव को व्यक्त करते हैं। कोई बताता है कि व्यंग्य लिखना आसान नहीं है, कोई कहता है पैदा होते ही उड़ने लगे, कोई किसी और तरीके से।
वसीम बरेलवी का शेर याद आता है :
'नए जमाने की खुद मुखतारियों को कौन समझाए,
कहाँ से बच निकलना है, कहां जाना जरूरी है।'
जब भी किसी बड़े के मुंह इस तरह की सामान्यीकरण जैसी बातें सुनता हूँ तो मुझे अपने गुरु जी याद आते हैं। बात आज से 39 साल पहले की है। हम इंटर में पढ़ते थे। कक्षा 6 में एबीसीडी सीखे लोग सोचते थे इंटर में पास कैसे होंगे। हमारे गुरु जी ने हमसे दिसम्बर में कहा -'तुम लिख कर लाओ, हम चेक करेंगे। तुम सीख जाओगे।'
हम गए। गुरु जी जांचते। हमारी कमी बताते। हम फिर लिख कर ले जाते। गुरु जी फिर ठीक करते। कभी यह नहीं कहा कि तुम यह नही कर सकते। बल्कि हौसला बंधाते थे -'दुनिया में कोई ऐसा काम नहीं जिसे कोई दूसरा कर सकता है और तुम नहीं कर सकते हो। तुम कर सकते हो।'
गुरु जी की दो-तीन महीने की संगत का असर यह हुआ कि हम लोग जिनके पास होने के लाले पड़े थे उनमें से तीन लोगों के मेरिट में नाम आये। गुरु जी ने तीन महीने के समय में ही जो हौसला हम लोगों को दिया वह आज तक नहीं खत्म हुआ। कोई भी काम हो, लगता है कि हम भी इसे कर सकते हैं। कोई भी कर सकता है।
हम लोगों की अंग्रेजी वाकई बहुत माशाअल्लाह थी। स्पेलिंग मिस्टेक, ग्रामर चौपट, कुछ की राइटिंग भी दाएं-बाएं, लेकिन गुरुजी ने कभी यह नहीं कहा -'तुम लोग नाकारा हो। तुमसे नहीं होगा।' उन्होंने किसी बीते जमाने के छात्र से तुलना करके यह नहीं कहा -'उसके जैसा बनो।' जब बताया तो ऐसे कहा -'उसकी हालत तुमसे भी खराब थी। लेकिन उसने मेहनत की और टॉप किया और वह फलानी जगह। ' हमको लगता कि वह कर सकता है तो हम भी कर सकते हैं। किया भी।
गुरुजी के प्रोत्साहन का अंदाज मेरे दिमाग में इतना पुख़्तगी से जमा हुआ है कि आज जब किसी भी महान को अपने क्षेत्र के नए लोगों को खारिज करते देखता हूँ तो फौरन गुरुजी से तुलना करके उसको खारिज कर देता हूँ। जरूरी भी नहीं कि एक बड़ा लेखक , लेखन का अच्छा शिक्षक भी हो।
बात व्यंग्य की हो रही थी। इतवार को एक ऑनलाइन गोष्ठी में मैंने सुभाष जी से Subhash Chander सवाल पूछा -' आप तो अब बुजुर्ग पीढ़ी में शामिल हो गए। क्या जब आपने लिखना शुरू किया था तो आपके समय की बुजुर्ग पीढ़ी भी इसी तरह अपने समय के युवा/नवोदितों के 'अपने आप को तीसमारखां समझने' वाले रवैये से इसी तरह आक्रांत रहती थी कि बात कोई भी हो लेकिन यह जरूर कहे कि आजकल के नए लेखक शुरुआत से ही खुद को बड़ा , खलीफा मानने लगे हैं?'
सुभाष जी ने ऐसा कोई उदाहरण नहीं दिया। यह जरूर बताया कि व्यक्तिगत बातचीत में त्यागी जी जैसे लोग लेखकों का ग्रेड बताते थे -' अलां बी ग्रेड का है, फलाँ सी ग्रेड का।' सुभाष जी के अनुसार जिन लोगों को त्यागी ने उस समय बी, सी ग्रेड का बताया था वे आज व्यंग्य के शिखर पर विराजमान हैं और नए लोगों का अपने-अपने हिसाब से ग्रेडिकरण कर रहे हैं। यह अलग बात है कि नए जमाने के लोग भी बिना त्यागी जी जैसी स्थिति तक पहुंचे ऐसे शिखर पुरुषों का भी ग्रेडिकरन करते रहते हैं और अपने-अपने हिसाब से उनको स्वीकार/खारिज करते रहते हैं।
कुछ साल पहले व्यंग्य के एक ग्रुप में एक महिला लेखिका के बारे किसी साथी का बयान था -'व्यंग्य लिखना तुम्हारे बस का नहीं। तुमको लिखना बन्द कर देना चाहिए।' आज वे महिला लेखिका , अच्छा-खराब , कैसा भी लिख रहीं हैं , लेकिन लगातार लिख रहीं हैं। उनके बारे में यह बात कहने वाले साथी अलबत्ता 'लेखन क्वाराइंटेंन' में चले गए हैं।
इतना सब लिखने के बाद मुझे यह याद ही नहीं रहा कि मैं कहना क्या चाहता था। हमारा हाल भी उन सिद्ध लेखकों सरीखा हो गया जो किसी युवा लेखक की किताब के विमोचन में, किसी के सम्मान समारोह में आधा से ज्यादा समय अपने संघर्षों के किस्से, अपने को समुचित महत्व न मिलने के रोने और अपनी पहली रचनाओं की प्रसिद्धि के किस्से सुनाने में जाया कर देते हैं। फिर अचानक याद आने पर लेखक को शुभकामनाएं देकर बैठ जाते हैं।
मैं शायद कहना यह चाहता था कि जब लोग अपनी विधाओं की नई पीढ़ी के लोगों को , शायद कुछ लोगों के व्यवहार के चलते, यह कहकर खारिज करते हैं कि आज लोग पहली किताब छपते ही खलीफा समझने लगते हैं तो उन तमाम लोगों को भी अपमान करते हैं जो तमाम किताबें छपने के बावजूद ' भूमि प्रणाम' की मुद्रा तक विनम्र हैं।
मेरी समझ में किसी भी समय में साहित्य की किसी भी विधा में बहुत अच्छा लिखने वाले लोग कम संख्या में ही होते हैं। खराब लिखने वाले बहुतायत में होते हैं। बेहतर हो कि हम समय के खराब लेखन का रोना रोने की बजाय , अच्छा क्या लिखा जा रहा है, कौन लिख रहा है उसकी बात करें। अच्छे लेखन की चर्चा करें। बढ़िया लिखाई को वायरल करें। इससे शायद वे लोग भी कुछ सीखें जो उतना अच्छा नहीं लिख पाते।
लेकिन यह भी बात सही है कि हर एक को अपनी नजर से दुनिया देखने का हक है। इसी के तहत बड़े-बुजुर्गों को यह पूरा हक है कि वे अपनी नई पीढ़ी को किस तरह देखते हैं। जो कुछ अच्छे लोग हैं उनकी उपस्थिति को मोहब्बत के साथ रेखांकित करते हुए अच्छा महसूस करते हैं या तमाम तथाकथित खराब लोगों से आक्रांत होते हैं। वैसे बुजुर्गियत के इम्तहान में पास होने के लिए अपने बाद के लोगों को नाकारा बताने पर अच्छे नम्बर मिलने का रिवाज बहुत पहले से है।
नए लोगों से, जिनमें मैं खुद अपने को भी शामिल करता हूँ, यही कहना है कि बुजुर्गों के कोसने को आशीर्वाद की तरह लेने का रिवाज रहा है अपने यहां। सबको अनदेखा करते हुए लिखना उससे ज्यादा पढ़ना और उससे भी ज्यादा देखना और महसूस करना जारी रखें। क्या पता कल को आप भी अपने से बाद वाली पीढ़ी के बारे में कुछ कहने के लिए माइक के सामने बुलाये जाएं।
आम तौर पर इस तरह की बातें लिखने के बाद मुझे अफसोस होता है कि बेफालतू में लिखा यह सब। लेकिन अब जो लिख गया तो उसको पोस्ट न करना भी ठीक नहीं इसलिए इसे पोस्ट कर रहा हूँ। इसके बाद अफसोस कर लेंगे।
अपनी बात का खात्मा अपनी ही कही-लिखी बात से:
"साहित्य जीवन की तरह ही है। यहां खूबसूरत , बेहद खूबसूरत फूल भी खिलते हैं तो कम खूबसूरत माने जाने वाले रंगबिरंगे फूल भी। अच्छा-खराब भी हमेशा सापेक्ष ही होता है। तथाकथित अच्छे लिखने वाले तथाकथित खराब लिखने वालों की खिल्ली उड़ाते हैं यह गली-मोहल्लो वाली छुटभैयों की गुंडई जैसी हरकत है। अनगिनत स्तर होते हैं समाज के। उसी के अनुरूप उस स्तर के लोगों की अभिव्यक्ति भी। जो किसी स्तर के लिए शानदार, जबरदस्त , जिंदाबाद हो सकता है वही दूसरों के कूड़ा, फालतू, बकवास हो सकता है।
साहित्य कोई बतासा नहीं है जो खराब लेखन (जिसे नवांकुरों द्वारा लिखा बताया गया) की बारिश मे घुल जायेगा। सबको खिलने, खुलने, पनपने का एकसमान हक़ है यहाँ।"
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Monday, May 25, 2020
शाहजहांपुर की सड़कों पर साइकिलबाजी
सफेद घोड़ा काला सवार और अन्य तमाम रचनाओं के लेखक, कहानीकार हृदयेश जी का घर। |
सुबह साइकिल से निकले। लोग सड़क पर आ चुके थे। कुछ पार्क में जमे हुए थे। मिलिट्री कैंट से जवान घर जा रहे थे। गेट से बाहर निकलते ही आजाद अंदाज में हो गए। किसी दबी हुई स्प्रिंग से दबाव हटा लेने पर उछलती स्प्रिंग सरीखे लग रहे थे जवान।
अधिकतर लोग मास्क लगाए थे। जो लगाए नहीं थे , वो लटकाए थे। कुछ बाईक पर लोग हेलमेट भले न लगाए हों लेकिन मुस्कका जैसा मास्क जरूर लगाएं थे। मास्क के सेंसेक्स ने हेलमेट के सेंसेक्स को पछाड़ दिया था।
गोविंद गंज रेलवे क्रासिंग के पास एक नए मंदिर के पास कुछ बाबा टाइप लोग बैठे थे। सामने एक पक्का माँगने वाला बैठा था। सब लाकडाउन आसन में थे। कोई देने वाला नहीं, सब मांगने वाले।
क्रासिंग पार दुकानें बन्द थीं। कुछ लोग झाड़ू लगा रहे थे, कुछ लोग कूड़ा जला रहे थे। सड़क सबसे निर्लिप्त तसल्ली से लेटी थी।
कुछ हलवाईयों की दुकानें खुल गयी थीं। कुछ पर जलेबियां छन रहीं थीं। कुछ पर समोसे तले जा रहे थे। दूध वाले अपने पीपों को साइकिल पर लटकाए दूध दे रहे थे। सामाजिक दूरी की ऐसी-तैसी हो रही थी लेकिन इतनीं भी नहीं कि देखने में साफ-साफ असामाजिक लगे।
एक घर के बाहर एक बिस्कुट वाला अपनी साइकिल पर बिस्कुट का बक्सा लादे बिस्कुट बेंच रहा था। घर के बाहर महिला की थाली में गिनकर कुछ बिस्कुट रखे। बिस्कुट थाली पर पूजा के दिये जैसे लगे। हमने खड़े होकर उसको देखा तो बोला -'दस के चार हैं। चाहिये?' हमारी 'न' सुनकर उसने भड़ से सन्दूक बन्द किया और चल दिया।
एक खड़खड़े वाला कुछ गैस के सिलिंडर लादे गैस की डिलीवरी कर रहा था। बीच के सिलिंडर सर उठाये खड़े थे, किनारे वाले सिलिंडर सरेंडर मुद्रा में पस्त पड़े हुए थे।
मोड़ पर ठेलियों पर सब्ब्जी वाले सब्जी लगाए खड़े थे। खीरा, ककड़ी , खीरा बिना सामाजिक दूरी की परवाह किये , बिना मास्क लगाए एक के ऊपर एक पड़ी हुईं थीं। किसी को कोरोना की चिंता नहीं थी। शायद सब्जियों को कोरोना नहीं होता।
चौक के पास एक जगह तमाम मजदूर रोजी के इंतजार में खड़े थे। उनको ले जाने के लिए कोई मिला नहीं। पास खड़े हो गए तो कई लोग मेरे पास आ गए। बोले -'क्या काम है? कित्ते लोग चाहिए?'
हमने बताया कि मजदूर नहीं चाहिए। हम तो ऐसे ही निठल्ले टहल रहे थे। वे उदास हो गए। बातचीत हुई तो लोगों ने बताया -'कोरोना और लाकडाउन के कारण मजदूरों की रेढ़ लगी हुई है। सौ मजदूरों में से बमुश्किल दो को काम मिलता है। तीन सौ देने की बात कहकर ले जाते हैं , दो सौ देते हैं। मजदूरों की आफत है।'
पास ही दुकान खोले दो लोग बैठे थे। मजदूरों से बतियाते देखकर हमसे बोले -'दस मिनट में किसी से बातचीत करके समस्या समझना आसान नहीं।' बातचीत से अंदाजा लगा कि मजदूरों से चोट खाये होंगे। बोले -'इनको पैसा चाहिए, दारू चाहिए, सब करेंगे , लेकिन काम भी बिगाड़ देंगे।' आगे बात बढ़ाते हुए बताया -'काम न करो, कम करो , मंजूर है लेकिन काम बिगाड़ो तो न।'
शायद उन्होंने जिन लोगों को काम पर रखा होगा, उन्होंने उनका काम बिगाड़ दिया होगा।
उनकी बात सुनकर मुझे हार्वर्ड फ्रास्ट की 'आदि विद्रोही' में एक गुलाम सौदागर की अपने गुलामों के बारे में कही बात याद आई-'मैं अपने गुलामों से बहुत अच्छे से व्यवहार करता हूँ। क्योंकि मूड खराब होने पर आप गुलाम की जान ले सकते हो लेकिन गुलाम को काम बिगाड़ने से नहीं रोक सकते।'
साथ में बैठे सरदार जी के पुरखे पाकिस्तान से आये थे। आदमी की फितरत के बारे में बताते हुए जो कहा उन्होंने उसका लब्बोलुआब यह कि -'ईश्वर ने दो पैरों का जानवर बनाया। इस जानवर मंदिर-मस्जिद, गीता -कुरान सब बेंच दिए। गनीमत है कि ईश्वर दिखता नहीं वरना यह उसको भी बेंच देता।'
आगे सर्राफा दुकान की बन्द दुकानों के बाहर नाली के कीचड़ को छानकर लोग उससे सोना-चांदी पाने की कोशिश कर रहे थे। वे बड़ी तसल्ली से कीचड़ छान रहे थे। हमने उनसे फोटो लेने के बारे में पूछा तो उन्होंने मना कर दिया। हमने भी उनकी निजता की इज्जत करते हुए फोटो नहीं लिए।
सड़क किनारे एक कबाड़ी की दुकान में रद्दी की किताबें पड़ी हुई थीं। आटोमोबाइल इंजीनियरिंग की किताब औंधे मुंह पड़ी थीं। लाकडाउन में इंजीनियरों और इंजीनियरिंग कॉलेजों की वाट लगी हुई है। टीचर निकाले जा रहे। किसी के लिए कोई काम नहीं।
इस बीच नुक्कड़ पर एक पतंग आकर गिरी। एक बुजुर्गवार ने अपने साथ के बच्चे का हाथ छोड़कर पतंग लपकी। बचा हुआ मंझा चौआ करके हथेली में समेटकर पतंग कब्जे में कर ली। पतंग लपकने के लिए गली से भागते एक बच्चे ने अपने कदम वापस क्रीज पर खींच लिए। उदास सा वापस लौट लिया।
आगे गांधी लाइब्रेरी दिखी। उसके आगे हृदयेश जी का घर। लोगों ने बताया -'अब वहां कोई रहता नहीं।'घर के बाहर सामने की दीवार पर लिखा था -'देखो हरामी मूत रहा है।' लेकिन हमको कोई दिखा नहीं। लगता है सब लाकडाउन में फंसे हुए हैं।
खरामा-खरामा चलते हुए शहर पार करके लौट लिए। सड़कों पर दुकानें आबाद हो गई थीं। लोग खरीदारी के लिए उमड़ रहे थे।
सड़क किनारे एक गाड़ी से भूसा उतर रहा था। वहीं एक सुअर अपने बच्चों के साथ बिना सामाजिक दूरी की परवाह किये सटे-सटे चला जा रहा था। कोई उनको टोंकने वाला नहीं था। कोई नहीं टोंक रहा था तो हम ही क्यों टोंके। आजकल कोई किसी को किसी बात के लिए टोंकता नहीं। सब डरते हैं कि टोंकने पर कहीं अगला उसको ठोंक न दे।
चौराहे पर पुलिस तैनात थी। मास्क लगाए पुलिस वाले लोगों को साफ नहीं दिखते। जो दिखते भी वे मोबाइल में डूबे । मास्क और मोबाइल के गठबंधन ने पुलिस का डर कम कर दिया है। इसे जब- तब डंडे के बल पर पुलिस फिर से काबिज करती है।
चौराहे पर साबुन और पानी की व्यवस्था थी। पैर से दबाने पर साबुन जो निकलना शुरू हुआ तो फिर निकलता ही गया। लीवर छोड़ने पर भी निकलना बंद नहीं हुआ। हाथ से बन्द करना पड़ा। जिस मतलब से रखा गया था साबुन वह पूरा नहीं हुआ। ऐसे ही जुगाड़ जगह-जगह लगे हुए हैं। साबुन और पानी मिलकर सड़क गीला करते दिखे।
ईद के दिन होने के बावजूद सड़के आम दिनों की तरह ही सुनसान थीं। एक दुकानदार सेवई बेच रहा था। पुलिस के नौजवान आये। डंडा फटकार कर बोले -'दुकान खुलने का समय नौ बजे है। अब्बी बन्द करो।' दुकानदार ने चुपचाप सुन लिया। पुलिस वाले सुनाकर चले गए। दूकान बदस्तूर खुली रही।
पुल के पास एक नौजवान मास्क बेंच रहा था। दस रुपये का एक। सुनील नाम। बताया कि फोटोग्राफी का काम था। कोरोना के कारण बन्द हो गया। अब मास्क बेंचता है। दो -तीन घण्टे बेंचता है। तीन-चार सौ बच जाते हैं। मन किया कहें -'जिसका काम बंद हो गया हो, वो मास्क बेंचे।' लेकिन कहने की हिम्मत नहीं।
बाद में बात करते हुए पता चला कि सुनील को मुंह का कैंसर है। डॉक्टरों को दिखाया। लेकिन ऑपरेशन नहीं कराया। इलाज कराएंगे तो देखभाल कौन करेगा। जबकि उसके पास मुफ्त इलाज वाला आयुष्मान कार्ड है। फिलहाल आयुर्वेद से इलाज चल रहा है। दाना बढ़ा नहीं है।
लौटते हुए देखा फलों की दुकान सज गयीं थीं। एक तरबूज कैरियर पर रखवाया। लौट आए। अभी काटा तरबूज तो फीका निकल गया। एक बार फिर तय हुआ कि अपन को फल लाने की तमीज नहीं।
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Saturday, May 23, 2020
कोरोना ग्रस्त कायनात में आबाद जिंदगी
रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है। |
सुबह साइकिल पर निकले। शाहजहांपुर में पहले दिन। शुरुआती पैडल डगमगाते हुए। इसके बाद सम पर चलने लगी।
एक मोटरसाइकिल पर तीन बच्चे सवारी करते हुए जा रहे थे। मास्क अलबत्ता लगाए हुए थे। मन किया कि रोककर कहें -'मोटर साइकिल पर एक के साथ एक का चलन है। तुम दो क्यों बैठे हो?' जब तक मन की बात पर अमल करें तब तक वे बाइक बहादुर अपनी बाइक रोककर गपियाने लगे। मन की बात पर अमल न हो सका। वैसे भी मन की बात सिर्फ सुनने के लिए होती हैं। अमल में कौन लाता है।
गुलमोहर का पेड़ लाल सुर्ख फूल लादे सड़क किनारे खड़ा था। हम उसके बगल से निकल गए बिना उसकी तारीफ किये। गुस्से में इतनीं जोर से हिला पेड़ कि कुछ बुजुर्ग गुलमोहर के फूल डाली-च्युत होकर सड़क पर आ गिरे। हड्डी-पसली बराबर हो गयी होगी फूलों की। अब फूलों के हड्डी के डाक्टर तो होते नहीं जो उनको भर्ती कराए कहीं। हम उनको अनदेखा करके निकल लिए।
सड़क पर टहलते लोग मुंह पर मास्क लगाए थे। कुछ कोई कपड़ा बांधे थे। फुटपाथ पर टमाटर, खीरा, आलू आदि बोरों में बंधे पड़े थे। जैसे उनको लाकडाउन में सामाजिक दूरी कायम न करने के अपराध में गिरफ्तार करके हाथ-पैर बांध कर डाल दिया गया हो। सब्जियां बोरों का सामूहिक मास्क पहने चुपचाप फुटपाथ पर पड़ी थीं।
कोरोना काल में सामाजिक दूरी बनाए रखना जरूरी हो गया है। याद आया कि आसमान में तारे, आकाशगंगाये सदियों से एक दूसरे से दूर भागते जा रहे हैं। ग्रह, नक्षत्र आपस की दूरी बनाये रहते हैं। तमाम साल साथ रहने के बावजूद कोई नजदीक नहीं आता। इसीलिए दुनिया बनी हुई है। लगता पूरी कायनात कोरोना ग्रस्त है। कोरोना से बचाव के चक्कर में ही तारे , आकाश गंगाएं एक दूसरे से दूरी बनाए हुए हैं। ग्रह , उपग्रह दूरी बनाए हुये हैं। धरती ओजोन-मास्क पहने हुए है। साफ बात है कि प्रकृति बहुत पहले से ही कोरोना से बचाव के उपाय अपना रही है। इंसान को तब अक़्क़ल आई जब मरना शुरु हुआ।
जीएफ कालेज, एसपी कंपाउंड , डॉक्टर शुक्ला का दवाखाना देखते हुए सड़क नापी। सड़क, पेड़, हवा, सब चुपचाप हमें गुजरते देखते रहे। चर्च भी सुनसान था। डीएम कम्पाउंड के आगे गोविंद गंज क्रासिंग बन्द थी। क्रासिंग का बन्द फाटक रेलवे लाइन पर मास्क की तरह जड़ा हुआ था। एक फल की दुकान खुली हुई थी। कोई ग्राहक नहीं आया था उस समय तक।
फल की दुकान से याद आया कि कल दिल्ली में एक आम वाले के आम लोगों ने लूट लिए। शायद लूटने वाले उसे अपने लिए लंगर मुफ्तिया व्यवस्था समझे हों। लेकिन आम वाले ने रोका-टोंका होगा, तब भी नहीं माने। हो सकता है वे पता लगने के बाद न्यूटन के जड़त्व के नियम को इज्जत देने के लिए लूटने के काम में लगे रहे। नियम कहता है -' कोई वस्तु अपनी अवस्था में तब तक बनी रहती है जब तक उस पर बाहरी बल न लगाया जाए।' लूटना शुरू करते ही वे इंसान से आइटम में बदल गए होंगे। कोई रोकने वाला नहीं था उनको इसलिए लूटते रहे। 21 वीं सदी में 17 वीं सदी के नियम का पालन करते हुए मन से भी वहीं पहुंच गए।
इस लूट की घटना से लगता है कि कोरोना ग्रस्त लोगों ज्यादा कोरोना उन लोगों को जकड़ रहा है जो इससे मुक्त हैं। पूरे समाज को कोरोना हो रहा है। बात, व्यवहार, आचरण और सोच में लोग बिना कोरोना की चपेट में आये सामाजिक आई सी यू में पहुंचे हुए लगते हैं।
पोस्ट आफिस के पास मां-बेटी दूर-दूर खड़ी हुई फोन पर बतिया रहीं थी। बाबा जी मोड़ पर आते दिखे। लोग मैदान पर कार चलाना सीख रहे थे।
लान पर घास के मैदान पर धूप खिली हुई थी। खिलखिला रही थी। उसको देखकर लगा कि भले ही पूरी कायनात कोरोना ग्रस्त हो गई हो लेकिन अपन के आसपास अभी भी जिंदगी पूरी तरह आबाद है।
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Tuesday, May 19, 2020
जैसे भी हैं, हम सुंदर हैं
पेड़ सामाजिक दूरी से बेपरवाह हैं। |
टहलने निकले। धूप निकल आई थी। निखर गई थी। ससुराल पहुंचते समय लाजवंती शुरुआत करने वाली बहुरिया ससुरालियों के ताने सुनते, व्यवहारिक घात-प्रतिघात सहते तीखी, कर्कशा और मुंहफट हो जाती है। उसी तरह धूप भी दोपहर की तरफ बढ़ते हुए तीखी हो गयी थी।
पार्क में लोग कम हो गए थे। एक पितानुमा आदमी अपनी बच्ची को गोद में लिए झूला झूला रहा था। सामाजिक दूरी के नियम की अवहेलना हो रही थी लेकिन वह ममता का मास्क लगाए था, इसलिए अपराध क्षम्य था।
कुछ बच्चे पार्क में कसरत कर रहे थे। बाकी मोबाइल में।
पार्क के दूसरे सिरे पर अमलतास के पेड़ के नीचे एक बाबाजी अपने कुल सामान के साथ आकर विराज गए। एक बैग, मने झोला साथ में। पानी की बोतल साथ। पास से ब्रेड का पैकेट निकालकर खाते दिखे।
बाबा जी बात करने की इच्छा से उनके पास गए। ब्रेड का पैकेट आधा था। साथ में कुछ सब्जी। इसके अलावा उनके झोले में कुछ रोटियां रखी थीं। सड़क पर पैदल घर जाते प्रवासियों की आंखों की तरह रोटियां सूख गईं थीं। बीच में छेद था। छेद इस तरह था कि उसमें सुतली घुसाकर बांधकर लटकाया जा सकता था। फिर जब मन आये खाया जा सकता। भूखे के पास की रोटी कभी फेंकने भर की खराब नहीं होती।
पता चला बाबा जी फैजाबाद के पास किसी गांव के रहने वाले हैं। प्रेमदास नाम था, साधु बनने पर गुरु जी ने नाम कर दिया प्रेमप्रिय। उम्र करीब 45 साल। शाहजहांपुर में कुछ दिन रेलवे स्टेशन के पास के मंदिर में डेरा रहा। लाकडाउन के समय पुलिस वाले के कहने पर इस्टेट के पास पीपल के पेड़ के नीचे मंदिर में डेरा डाल लिया। तबसे वहीं जमे हैं। पढ़ाई नहीं की। गुरु ज्ञान ही पाया।
गुरु जी की बात चली तो बताया -'गुरु हरामी निकल गये।उनको छोड़ दिया।'
'गुरु हरामी कैसे ?' पूछने पर बताया -' वो दारू पीते हैं, नशा करते हैं। हमको यह पसन्द नहीं इसलिए छोड़ दिया।'
घर क्यों नहीं बसाया पूछने पर बोले -'हमको बंधन पसन्द नहीं। इसलिए नहीं की शादी।'
बंधन की व्याख्या करते हुए बताया कि अब जैसे हम यहां पार्क में बैठे हैं। मेरा मन करे तो शाम तक, रात तक बैठे रहें। कोई चिंता नहीं, कोई टोकने वाला नहीं, कोई पूछने वाला नहीं। शादी हुई होती तो टोंकती घरवाली। यही बंधन है।
खाना कहाँ से मिलता है? पूछने पर बताया कि महिला थाने से खाना मिल जाता है। पुलिस खाना खिला रही है। साधु उसकी तारीफ कर रहे हैं। यह कोरोना काल की घटना है।
पार्क के बाहर पुलिस की जीप में ड्रॉइवर स्टीयरिंग पर सर रखे ऊंघ रहा है। एक दीवान साहब पुलिया के पास खड़े दाएं-बाएं देखते हुए सामने भी देखकर समय काट रहे हैं। बीच-बीच में सर झुकाकर मोबाइल भी देख लेते हैं।
एक और सिपाही जी मुंह पर मास्क लगाए मुस्तैद खड़े हैं। किसी से फोन पर बतियाते हुए मास्क उन्होंने एक तरफ से खोल लिया है। खुला हुआ मास्क मूंछो बाल मुंह पर किसी पहलवान के लंगोट की तरह फहरा रहा था।
सड़क पर दो महिला पुलिस बतियाती हुईं गस्त कर रहीं हैं। खाकी वर्दी में पुलिस कम सहेलियां ज्यादा लग रहीं हैं। कुछ आपसदारी की बातें कर रहीं हैं। धीमे-धीमे बतियाते हुए टहल रहीं हैं। धीमे बातचीत के चलते उनके बीच की सामाजिक दूरी कम हो गयी है।
कोरोना काल में सबसे ज्यादा संकट फुसफुसाहट पर आ गया है। सामाजिक दूरी बनाये रखने के चलते कनफूसियां बातें करना जुर्माने को न्योता देना है। यह संकट बना रहा तो आने वाले समय आमने-सामने में धीमी आवाज में, फुसफुसाते हुए बतियाना कम हो जाएगा। बचेगा भी तो केवल फोन पर।
सड़क के दोनों तरफ पेड़ सड़क की चौड़ाई के बराबर दूरी बनाए हुए हैं लेकिन ऊपर पहुंचकर उनकी पत्तियां सहेलियों की तरह एक-दूसरे के गलबहियां करती हुई इठलाती हुई झूम रहीं हैं। आगे जाकर पेड़ भी एकदम सट से गये हैं। उनको न सामाजिक दूरी की चिंता न , कोरोना का डर।
पेड़ों की मस्ती देखकर एकबारगी लगा-'काश हम भी पेड़ होते।'
फिर लगा -'पेड़ होते तो क्या पता अब तक कहीं कट गए हो गए। किसी चूल्हे या चिता की आग में जल गए होते।'
फाइनली यही तय हुआ कि जो हैं वही ठीक हैं। वीरेंद्र आस्तिक की कविता याद आई :
हम न हिमालय की ऊंचाई
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी ही छाया के बाढ़े हम
जैसे भी हैं हम सुंदर हैं।
वीरेंद्र आस्तिक जी की कविता
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हम ज़मीन पर ही रहते हैं
अम्बर पास चला आता है
अपने आस-पास की सुविधा
अपना सोना अपनी चांदी
चाँद-सितारों जैसे बंधन
और चांदनी-सी आजादी
हम शबनम में भींगे होते
दिनकर पास चला आता है
हम न हिमालय की ऊंचाई
नहीं मील के हम पत्थर हैं
अपनी छाया के बाढ़े हम
जैसे भी हैं हम सुन्दर हैं
हम तो एक किनारे भर हैं
सागर पास चला आता है
अपनी बातचीत रामायण
अपने काम-धाम वृन्दावन
दो कौड़ी का लगा सभी कुछ
जब-जब रूठ गया अपनापन
हम तो खाली मंदिर भर हैं
ईश्वर पास चला आता है।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10219808738022364
Tuesday, May 12, 2020
न्याय की जीत
'हमारे बहुमत में रहते हुए भी हर बार जीत ससुरे न्याय की ही क्यों होती है ? इस बार भी वही जीत गया।'- अन्याय भुनभुनाया ।
'बेटा जो न्याय जीता है वो भी अपना ही दूर का रिश्तेदार है। उसकी जीत को भी अपनी ही जीत समझ।' -अन्याय के पिता ने समझाया।
'रिश्तेदारी तो ठीक है लेकिन खराब लगता है न कि पसीना हम बहाएं। जीत न्याय की हो।' -अन्याय झुंझलाया।
'बेटा सुबह-सुबह ज्यादा सोचा मत करो। जैसे गरीब लोगों के बहुमत में होते हुए भी सब कानून अमीरों की हिफाजत करते हैं वैसे ही समझ लो अन्याय के बहुतायत में होते हुए भी लोग न्याय को जिता देते हैं।' -अन्याय के बाप ने समझाया।
अन्याय झल्लाते हुए कुछ बोलने को हुआ पर बाप ने उसको प्यार किया और कहा-' ये ले बेटा आयोडेक्स मल, अब काम पर निकल। बहुत काम पड़ा है तेरे लिए करने को । समय पर अन्याय नहीं होगा तो न्याय की तरह लोगों का अन्याय से भी भरोसा उठ जायेगा।'
अन्याय काम पर निकल लिया। जगह जगह न्याय की जीत का हल्ला सुनकर वह तेजी से अपने काम में जुट गया। उसके काम में कोई डिस्टर्ब न करे इसलिए उसने बोर्ड लगा दिया है:
' आगे काम प्रगति पर है। असुविधा के लिए खेद है।'
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10219744194368813
Sunday, May 10, 2020
फिर नए सपने होंगे
फिर घना कोहरा छंटेगा,
फिर नया सूरज उगेगा,
फिर नई कली खिलेगी,
फिर नई मंजिल मिलेगी।
फिर नए सपने होंगे,
गले लगाते कुछ अपने होंगे,
स्वप्न होंगे नए
दर्द भी कुछ नए होंगे।
हर जख्म के लिए
मरहम कुछ नए होंगे।
कोरोना काल की मनहूसियत को धता बताती हुई यह कविता सुनिए हमारे सुपुत्र Anany Shukla की आवाज में। कठिन समय में आशा की बात कहती हुई कविता सुनते हुए यही सोच रहे थे अपन -'काश हम भी ऐसे वीडियो बना पाते।'
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10219726217439401
Friday, May 08, 2020
टर्निंग प्वाइन्ट
[पिछले दिनों निर्माणी के साथी Shahid Raza शाहिद रजा जी ने मुझे मेरे करीब २५ साल पहले कुछ लेख दिखाये। ये लेख आयुध वस्त्र निर्माणी ,शाहजहांपुर की विभिन्न पत्रिकाओं में छपे थे। इनमें से ही एक लेख जो उस समय की ’प्रतिभा’ पत्रिका में छपा था। लेख दुबारा पढते हुये एहसास हुआ कि आज से २५ साल पहले भी मेरे लेख समय सीमा के आखिरे पायेदान पर पहुंचने पर ही पूरे होते थे। लेख यहां पेश है। ]
मुझे हमेशा ऐसा लगता है कि अगले पल कुछ ऐसा होगा जो मेरे जीवन की दिशा बदल देगा। कोई घटना ऐसी घटेगी जो मेरे जीवन की कायापलट कर देगी। मैं ऐसी ही किसी ऐतिहासिक घटना की प्रतीक्षा वर्षों से कर रहा हूं। मेरी हालत,” अंखडियां झांई पड़ी पंथ निहारि-निहारि” सी हो चुकी है। अभी तक के सारे पल, क्षण निर्रथक रूप से आये, चले गये-’देश की तमाम सरकारों से।’ घड़ी की सुइयां कोल्हू के बैल सरीखी टिक-टिकाती घूमती रहीं। कई कैलेन्डर दीवार से उतर गये। बेचारी तारीखें मायूस हो गयीं। लगता है किसी के भाग्य में ऐतिहासिक बनना नहीं बदा है। पर मैं उन्हें दिलासा देता हूं- ’डोन्ट लूज होप, होप फ़ार द बेस्ट।’
मैं इसी ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा एकनिष्ठ,समर्पण भाव से करता हूं। लेटे-लेटे कमरे की दीवारें, छत ताकता रहता हूं। टीवी देखता रहता हूं। पहले मुर्गी या अण्डा टाइप की उन बहसों में समय-ऊर्जा खपाता हूं, जिनका कोई हल नहीं होता। सारे जरूरी काम स्थगित करके सिर्फ़ मजबूरी में किये जाने वाले काम करता हूं। दरवाजे पर कोई भी खटका होते ही ’वेलकम’ की तख्ती लेकर दौड़ता हूं। अक्सर मेरी स्थिति ’आर्किमिडीज’ सरीखी होती है लेकिन दुर्लभ क्षणों पर दया करके थोड़ी ’सभ्यता’ पहन लेता हूं। अखबार की मुख्य खबरों के अलावा ’वान्टेड’,’खुश-खबरी’,’जीवन से निराश क्यों?’,’एक बार मिल तो लें’,’टेण्डर नोटिस’ जैसी खबरों समेत अखबारों की हर लाइन पढ़ता हूं। पता नहीं कब किसी ’ऐतिहासिक क्षण’ के आने की सूचना छप जाये। अक्सर मैं रात में टीवी खुला छोड़कर सोता हूं ताकि यदि किसी ’ऐतिहासिक क्षण’ के आने की अचानक घोषणा हो तो पता चल सके। यह बात अलग है कि रात में टीवी की ऊंची आवाज से परेशान होकर पड़ोसी उस ’ऐतिहासिक क्षण’ की प्रतीक्षा में हैं जब मैं या मेरा टीवी इतिहास की वस्तु बन जायेंगे।
तमाम सावधानियों के बावजूद कभी-कभी मेरे दिमाग में जाने कैसे , कहां से यह बात घुस जाती है कि मैं काल्पनिक ’ऐतिहासिक क्षण’ की प्रतीक्षा में अपना बहुमूल्य समय बरबाद कर रहा हूं। ऐसी स्थिति का सामना होते ही मैं मन ही मन में तुरन्त कोई काम करने की योजना बनाने लगता हूं। पहले लापरवाही से , फ़िर सावधानी से। अधिकांश योजनायें लापरवाही की बाल्यावस्था में ही दम तोड़ देती हैं। जो योजनायें अपनी बेशर्मी, उपलब्ध फ़ालतू समय एवं विभागीय मजबूरी के जीवन रक्षक टीके के बल पर लापरवाही की उमर पार कर जाती हैं , उन्हें मैं फ़िर दोबारा ( सोच में) सावधानी से बनाकर देखता हूं। यदि योजना में कोई कमी रह जाती है तो चिन्तन-मनन में उस कमी को दूर करता हूं। अन्तत: जब योजना इतनी सटीक बन जाती है कि उस अमल करने पर कार्य में सफ़लता निश्चित हो जाती है तो मैं योजना पर कार्यान्वयन स्थगित करके पहले काम से कुछ अपेक्षाकृत अधिक जरूरी काम की योजना बनाने में जुट जाता हूं। यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है, जब तक मैं योजनाओं के चक्रव्यूह में फ़ंसकर निद्रागति को नहीं प्राप्त हो जाता।
बीच-बीच में जागकर मैं देखता रहता हूं कि कहीं कोई ’ऐतिहासिक क्षण’ खिड़की या रोशनदान से कूदकर कमरे में मेरे जागने की प्रतीक्षा तो नहीं कर रहा। पूरी तरह जागकर मैं फ़िर से ’प्रतीक्षा’ या ’योजना’ में से कोई एक काम पूरी श्रद्धा से करने लगता हूं। कभी-कभी समय की कमी होने पर दोनों काम एक साथ करने पड़ते हैं।
आजकल इस ऐतिहासिक क्षण को ’टर्निंग प्वाइन्ट’ कहते हैं। ’टर्निंग प्वाइन्ट’ समय से नहीं घटना से सम्बन्धित होता है। जैसे कहते हैं- मैच का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ तेन्दुलकर का आउट होना था। मैं इसी तरह के अनेको ’टर्निंग प्वाइन्ट’ की लिस्ट बनाता हूं। मानव जाति का पहला ’टर्निंग प्वाइन्ट’ तब रहा होगा जब आदम ने हव्वा से बेशरमी से ’आई लव यू’ कहा होगा तथा हव्वा लाल होकर बोली होगी –’चलो हटो कोई देख लेगा।’ अपराध और बापू की खादी के सहारे जन-समुदाय की आंखों में धूल झोंककर चुनाव जीतना किसी नये नेता का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ होता है। अपने बूते किया गया कोई सरकारी घपला या घूस किसी अधिकारी का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ होता है। इसके बाद अधिकारी का आत्मविश्वास और क्षमता बढ जाती है। हवा में कृत्तिम गर्भाधान द्वारा बेबुनियाद खबरे पैदा करने की क्षमता व बेशरमी किसी पत्रकार का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ होती है।
अपने जीवन के इस ’टर्निंग प्वाइन्ट’ की प्रतीक्षा मैं इत्मिनान से करता हूं। कोई हड़बड़ी नहीं है मुझे। जब आना हो आये। इसके वियोग में मेरी आंखे पथरा नहीं जायेंगी। इसकी प्रतीक्षा मैं आराम से खा-पीकर करता हूं। यह मेरा भरे पेट का सुख है। अपने तमाम काम मैं इसकी प्रतीक्षा में स्थगित रखता हूं। अपने सेक्शन की तमाम फ़ाइलों में मैं देखता हूं कि मैंने पत्रों पर नोट लिखे हैं-’ प्लीज पुट अप आफ़्टर द एराइवल आफ़ टर्निंग प्वाइन्ट।’ ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आने के बाद कागज पेश करो। समय बीतता जा रहा है। न मेरा ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आया न उन कागजों का।
मुझे बहुत से व्यक्तिगत काम करने हैं। मित्रों को पत्र लिखने हैं। कुछ लेख लिखने हैं। घर साफ़ करना है। बाजार से सामान खरीदने जाना है। बच्चे को पढाना है। अपने साहब पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग (साहब को समय-समय पर बताते रहना है कि आपसे महान यदि कोई है तो वो आप ही है हैं) करना है। दोस्तों का उधार चुकाना है। पर लेटे-लेटे सोचता हूं कि जीवन का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आने पर ही सब कुछ करूं। उसी समय सबको यह भी बता दूंगा –“भाई मेरा ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आ गया। मेरे जीवन की दिशा बदल गयी।“
जीवन की दिशा बदलने पर सब काम नये सिरे से करने होंगे तो अभी क्यों करू? उसी समय करूंगा। मैं जानता हूं कि मुझे बहुत सारे काम करने हैं। हर हाल में करने हैं। लेकिन उनको तुरन्त करने में ऊर्जा क्यों नष्ट करूं? पहले देख लूं कि समय, ऐतिहासिक समय, मेरे जीवन की क्या दशा निर्धारित करता है। फ़िर उसी दिशा में बढते हुये सारे काम एक साथ निपटा दूंगा। अभी उनको करने में लफ़ड़ा है। कहीं ऐसा न हो कि मैं भावनाओं में बहकर इधर कोई काम करने निकलूं और उधर मेरे जीवन की दिशा बदल जाये। दिशा बदलने तक किये गये काम की ऊर्जा, समय बेकार में नष्ट होंगे। बाद में फ़िर मैं सही दिशा के बावजूद कम महान बन पाउंगा।
यह मैं अपने जीवन के अनुभव के आधार पर कह रहा हूं। हर महापुरुष की शोकसभा में लोग कहते हैं-“हमें उनके अधूरे कामों को पूरा करना है। वो असमय हमारे बीच से चले गये। उनके द्वारा जलाई मशाल को हमें जलाये रखना है। आगे ले जाना है।“ मुझे हंसी आती है। कितनी बचकाना सोच है। यहां लोग अपना काम तो करते नहीं । कर नहीं पाते। दूसरे का काम क्यों करेंगे? कैसे करेंगे? तेल इतना मंहगा हो गया है। क्यों दूसरे की मशाल जलायेंगे? उनको खुद अपनी ऊर्जा बचाकर रखनी चाहिये ताकि थी। जब उनका ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आता फ़टाफ़ट पूरी ताकत लगाकर सारे काम पूरे कर लेते।
कभी-कभी मेरा मन आतंकवादी सा हो जाता है। मन करता है कि किसी क्षण को बन्दूक की नोक पर पकड़कर अपने जीवन में लाकर उसे ऐतिहासिक बना डालूं। मुझे पता है कि हर ऐतिहासिक क्षण के पीछे किसी स्त्री का हाथ होता है। मेरी पत्नी स्वयं किसी ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा में है। उसकी सेवायें सिर्फ़ एक पति के लिये उपलब्ध हैं। किसी ऐतिहासिक अभिलाषा के लिये नहीं। बाकी हमारी आसपास की सारी स्त्रियों पर उनके पतियों का कब्जा है। उनमें से किसी के भी माध्यम से महान बनने के प्रयास में जीते जी अपना भूगोल बिगड़वाकर स्वयं इतिहास की वस्तु बन जाने का खतरा है।
कभी-कभी मैं सोचता हूं कि ’चलो कुछ कर दिखायें’ की तर्ज पर शिक्षा का प्रचार करूं। पर कुछ करने के लिये सोचने से ही फ़ुरसत नहीं मिलती। फ़िर समाज सेवा की सोचता हूं तो लगता है इससे क्या होगा? यह तो तमाम लोग कर रहे हैं। जब तक व्यवस्था नहीं बदलेगी, तब तक चिल्लाने, पसीना बहाने, समझाने से क्या होगा? मैं धीरज रखकर, व्यवस्था के साथ कदमताल करते हुये , व्यवस्था के ’टर्निंग प्वाइन्ट’ की प्रतीक्षा करता हूं। क्या करुं, मजबूरी है।
ऐसा नहीं है कि मैं घर पर ही लेटकर , आराम करते हुये अपनी जिन्दगी के ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा करता हूं। ऑफ़िस में भी मैं पूरी तन्मयता के साथ ’टर्निंग प्वाइन्ट’ की प्रतीक्षा करता हूं। जब भी फ़ोन की घंटी बजती है, मैं -’हेलो , टर्निंग प्वाइन्ट दिस साइड’ सुनने के लिये झपटकर फ़ोन उठाता हूं। रांग नम्बर कहकर फ़ौरन फ़ोन रख देता हूं। कहीं वो रिंग न कर रहा हो। हर पत्र मैं नीचे से देखना शुरु करता हूं। “योर्स फ़ेथफ़ुल्ली ’टर्निंग प्वाइन्ट’ ” न पाकर उसे पेंडिंग में रख देता हूं। चाय पीता हूं तो एक-दो कप अतिरिक्त मंगा लेता हूं जो बाद में ठण्डी हो जाने पर साथियों को पिलाता हूं। छत पर चलते पंखे को ताकता हूं। मेज पर हाथ फ़िराता हूं। उंगलिया चिटकाता हूं। ड्राअर खोलकर बन्द करता हूं। पेंडिग डाक फ़िर से देखकर से उसे फ़िर से पेंडिंग में रख देता हूं। खिड़की के सामने से गुजरते इन्सान को उसके ओझल होने तक देखता हूं। बन्दर और आदमी का तुलनात्मक अध्ययन करता हूं। बीच-बीच में दौरा करके अपने साथियों के कमरों में देखता हूं। कहीं वहीं न आकर बैठा हो। जब भी बॉस बुलाते हैं तो लगता है –’साला, थ्रू प्रापर चैनल आ रहा है।’ पहले वो महान बनेंगे तब मैं। पर वहां भी देखता हूं कोई नहीं है। लगता है बॉस भी ऐतिहासिक क्षण की प्रतीक्षा में हैं और इन्तजार की ऊब मिटाने के लिये मुझे बुलाया है।
मैं जितना ही महान बनने की सोचता हूं, हरामखोरों पर मेरी श्रद्धा बढती जाती है। कितना एकनिष्ठ समर्पण है उनका अपने ’टर्निंग प्वाइन्ट’ के प्रति। चातक की तरह अपने ’ऐतिहासिक क्षण’ की स्वाति बूंद की प्रतीक्षा में शाश्वत अकर्मण्यता धारण किये हैं। ’टर्निंग प्वाइन्ट’ आ जाये तो कार्यरत हों।
इतिहास गवाह है कि महानता की राह में ’प्रतिभा’ ने सदैव रोड़े अटकाये हैं। यहां भी वही बात है। मेरी साधना में प्रतिभा की लेख की मांग मेनका की तरह तप भंग का प्रयास कर रही है। फ़िलहाल अभी तक की तपस्या मेनका को अर्पित करके हिसाब बराबर करता हूं ताकि महानता की साधना नये सिरे से शुरु करूं। यही इस लेख का ’टर्निंग प्वाइन्ट’ है।
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